०३६ पतिवेदनम् ...{Loading}...
Whitney subject
- To get a husband for a woman.
VH anukramaṇī
पतिवेदनम्।
१-८ पतिवेदनः। १अग्निः, २ सोमः, अर्यमा, धाता, ३ अग्नीषोमौ, ४ इन्द्रः, ५ सूर्यः, ६ धनपतिः, ७ भगः, ८ औषधिः। त्रिष्टुप्, १भुरिक्, २, ५-७ अनुष्टुप्, ८ निचृत्पुरउष्णिक्।
Whitney anukramaṇī
[Pativedana.—aṣṭarcam. āgnīṣomīyam. trāiṣṭubham: 1. bhurij; 2, 5-7. anuṣṭubh; 8. nicṛtpurauṣṇih.]
Whitney
Comment
Found (except vss. 6,8) in Pāipp. ii. (in the verse-order 1, 3, 2, 4, 5, 7). Used by Kāuś. (34. 13 ff.) among the women’s rites, in a ceremony for obtaining a husband; vss. 5 and 7 are specially referred to or quoted, with rites adapted to the text. It is further regarded by the schol. and the comm. as signified by pativedana (75. 7), at the beginning of the chapters on nuptial rites, accompanying the sending out of a wooer or paranymph.
Translations
Translated: Weber, v. 219; xiii. 214; Ludwig, p. 476; Grill, 55, 102; Grifiith, i. 78; Bloomfield, 94, 322.—Cf. Zimmer, p. 306.
Griffith
A charm to secure a husband for a marriageable girl
०१ आ नो
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आ नो॑ अग्ने सुम॒तिं सं॑भ॒लो ग॑मेदि॒मां कु॑मा॒रीं स॒ह नो॒ भगे॑न।
जु॒ष्टा व॒रेषु॒ सम॑नेषु व॒ल्गुरो॒षं पत्या॒ सौभ॑गमस्त्व॒स्यै ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
आ नो॑ अग्ने सुम॒तिं सं॑भ॒लो ग॑मेदि॒मां कु॑मा॒रीं स॒ह नो॒ भगे॑न।
जु॒ष्टा व॒रेषु॒ सम॑नेषु व॒ल्गुरो॒षं पत्या॒ सौभ॑गमस्त्व॒स्यै ॥
०१ आ नो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Unto our favor, O Agni, may a wooer come, to this girl, along with
our fortune (bhága). Enjoyable (juṣṭá) [is she] to suitors
(vará), agreeable at festivals (sámana); be there quickly
good-fortune for her with a husband.
Notes
The text is not improbably corrupt. Ppp. reads in a, b sumatiṁ
skandaloke idam āṁ kumāryāmāno bhagena; but it combines c and d
much better into one sentence by reading for d oṣaṁ patyā bhavati
(-tu?) subhage ’yam. The comm. explains sambhalas as sambhāṣakaḥ
samādātā vā; or else, he says, it means hiṅsakaḥ pūrvam
abhilāṣavighātī kanyām anicchan puruṣaḥ. He quotes ĀpGS. i. 4 to show
that vará also means paranymph. Juṣṭā́ he quotes Pāṇini to prove
accented júṣṭā. In d he reads ūṣam, and declares it to signify
sukhakaram. ⌊Bergaigne, Rel. véd. i. 159, takes sámana as =
‘marriage.’⌋
Griffith
To please us may the suitor come, O Agni, seeking this maid and bringing us good fortune. Approved by wooers, lovely in assemblies, may she be soon made happy with a husband.
पदपाठः
आ। नः॒। अ॒ग्ने॒। सु॒ऽम॒तिम्। स॒म्ऽभ॒लः। ग॒मे॒त्। इ॒माम्। कु॒मा॒रीम्। स॒ह। नः॒। भगे॑न। जु॒ष्टा। व॒रेषु॑। सम॑नेषु। व॒ल्गुः। ओ॒षम्। पत्या॑। सौभ॑गम्। अ॒स्तु॒। अ॒स्यै। ३६.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- पतिवेदन
- भुरिगनुष्टुप्
- पतिवेदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) अग्निवत् तेजस्वी राजन् (सम्भलः) यथाविधि सम्भाषण वा निरूपण करनेवाला वर (इमाम्) इस (सुमतिम्) सुन्दर बुद्धिवाली (कुमारीम्) कुमारी को (नः) हमारेलिये (भगेन सह+वर्त्तमानः सन्) ऐश्वर्य के साथ वर्त्तमान होकर (नः) हममें (आ=आगत्य) आकर (गमेत्) ले जावे। [इयम् कुमारी] [यह कन्या] (वरेषु) वर पक्षवालों में (जुष्टा) प्रिय और (समनेषु) साधु विचारवालों में (वल्गुः) मनोहर है। (अस्यै) इस [कन्या] के लिये (ओषम्) शीघ्र (पत्या) पति के साथ (सौभगम्) सुहागपन (अस्तु) होवे ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - यहाँ (अग्नि) शब्द राजा के लिये है। माता-पिता आदि राजव्यवस्था के अनुसार योग्य आयु में गुणवती कन्या का विवाह गुणवान् वर से करें, जिससे वह कन्या पतिकुल में सबको प्रसन्न रक्खे और आप आनन्द से रहे। इसी आशय को राजप्रकरण में मनु महाराज ने अ० ७।१५२। में वर्णन किया है[कन्यानां संप्रदानं च कुमाराणां च रक्षणम्।] कन्याओं के नियमपूर्वक दान [विवाह] का और कुमारों की रक्षा का [राजा चिन्तन करे]। (ओषम्) के स्थान पर सायणभाष्य में [ऊषम्] है ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १–नः। अस्मान्। अग्ने। हे अग्निवत्तेजस्विन् राजन्। सुमतिम्। सु+मन बोधे–क्तिन्। शोभनबुद्धियुक्ताम्। सम्भलः। सम्+भल परिभाषणहिंसादानेषु निरूपणे च–पचाद्यच्। सम्यग् भलते परिभाषते निरूपयति वा स सम्भलः। यथाविधि परिभाषकः यथाशास्त्रं निरूपकः। आ+गमेत्। द्विकर्मकः। आगत्य गमयेत् नयेत्। इमाम्। प्रसिद्धाम्। गुणवतीम्। कुमारीम्। कुमार क्रीडने–अच्। वयसि प्रथमे। पा० ४।१।२०। इति ङीप्। कन्याम्। सह। सहितः। नः। अस्मदर्थम्। भगेन। भजनीयेन गुणेन ऐश्वर्येण। जुष्टा। प्रीता सेविता। वरेषु। वृञ् वरणे–अप्। यद्वा वर ईप्से–घञ् श्रेष्ठेषु वरयितृषु, वरपक्षीयेषु। समनेषु। सम्+अन जीवने–घञ्। यद्वा। सम्+आङ्+णीञ् प्रापणे–अच्। सम्यग् अनिति आनीयते वा। समानं तुल्यं साधु वा। समानस्य सभावः। मन बोधे–पचाद्यच्। साधुमननयुक्तेषु। वल्गुः। वलेर्गुक् च। उ० १।१९। इति वल प्राणने–उ प्रत्ययः, गुक् आगमः। रुचिरा। मनोहरा। ओषम्। उष दाहे, वधे–घञ्। क्षिप्रम्। निघ० २।१५। पत्या। स्वामिना सह। सौभगम्। सुभग–अण्। सुभगत्वम्। अस्यै। कुमार्यै। अन्यद् गतम् ॥
०२ सोमजुष्टं ब्रह्मजुष्टमर्यम्णा
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
सोम॑जुष्टं॒ ब्रह्म॑जुष्टमर्य॒म्णा संभृ॑तं॒ भग॑म्।
धा॒तुर्दे॒वस्य॑ स॒त्येन॑ कृ॒णोमि॑ पति॒वेद॑नम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
सोम॑जुष्टं॒ ब्रह्म॑जुष्टमर्य॒म्णा संभृ॑तं॒ भग॑म्।
धा॒तुर्दे॒वस्य॑ स॒त्येन॑ कृ॒णोमि॑ पति॒वेद॑नम् ॥
०२ सोमजुष्टं ब्रह्मजुष्टमर्यम्णा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Fortune enjoyed by Soma, enjoyed by Brahman, brought together by
Aryaman; with the truth of divine Dhātar, the husband-finder I perform
(kṛ).
Notes
Ppp. has a mutilated first half-verse: somajuṣṭo aryamṇā saṁbhṛto
bhaga; and at the end patirvedanam. The comm. understands in a
brahma- to mean the Gandharva, who and Soma are the first husbands of
a bride (xiv. 2. 3, 4). He does not see in bhaga anything but
kanyārūpam bhāgadheyam; but the meaning “favors” is not impossible.
⌊Both bhagam (“fortune” or “favors”) and pativedanam (the ceremony
called “husband-finder”) are objects of kṛṇomi; which, accordingly,
needs to be rendered by ‘make’ or ‘procure’ for the one combination and
by ‘perform’ for the other. It is hardly a case of zeugma.—Bloomfield
notes that saṁbhṛta contains a conscious allusion to sambhala, vs.
1.⌋
Griffith
As bliss beloved by Soma, dear to Prayer, and stored by Arya- man, With the God Dhatar’s truthfulness I work the bridal oracle.
पदपाठः
सोम॑ऽजुष्टम्। ब्रह्म॑ऽजुष्टम्। अ॒र्य॒म्णा। सम्ऽभृ॑तम्। भग॑म्। धा॒तुः। दे॒वस्य॑। स॒त्येन॑। कृ॒णोमि॑। प॒ति॒ऽवेद॑नम्। ३६.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सोमः, अर्यमा, धाता
- पतिवेदनः
- अनुष्टुप्
- पतिवेदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (धातुः) सबके धारण करनेवाले (देवस्य) प्रकाशस्वरूप परमेश्वर के (सत्येन) सत्यनियम से (सोमजुष्टम्) ऐश्वर्यवान् पुरुषों के प्रिय, (ब्रह्मजुष्टम्) ब्रह्मज्ञानी पुरुषों से सेवित और (अर्यम्णा) श्रेष्ठों के मान करनेवाले राजा से (संभृतम्) पुष्ट किये हुए (भगम्) सेवनीय वा ऐश्वर्ययुक्त (पतिवेदनम्) पत्नी [वा पति] की प्राप्ति [विवाह] (कृणोमि) मैं करता [वा करती] हूँ ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - यह गृहस्थाश्रम ईश्वरकृत नियम है। इसकी रक्षा के लिये सब बड़े-बड़े महात्मा प्रयत्न करते और राजा नियम बनाते हैं। उसके निर्वाह के लिये माता-पिता आदि वर और कन्या को यथावत् उपदेश करें और उनका विवाह करें ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २–सोमजुष्टम्। अर्त्तिस्तुसुहु०। उ० १।१४०। इति षु प्रसवैश्वर्ययोः–मन्। जुषी प्रीतिसेवनयोः–क्त। ऐश्वर्यवद्भिः प्रीतम्। ब्रह्मजुष्टम्। बृंहेर्नोऽच्च। उ० ४।१४६। इति बृहि वृद्धौ–मनिन्, नस्य अकारः। ब्रह्मभिः अधीतवेदैर्ब्राह्मणैर्ब्रह्मज्ञानिभिः सेवितम्। अर्यम्णा। अ० १।११।१। अर्यमादित्योऽरीन् नियच्छति–नि० ११।२३। श्रेष्ठाणां मानकर्त्रा, न्यायकारिणा राज्ञा। सम्भृतम्। सम्यक् पोषितं वर्धितम्। भगम्। पुंसि संज्ञायां घः प्रायेण। पा० ३।३।११८। इति भज सेवायाम्–घ। चजोः कु घिण्ण्यतोः। पा० ७।२।५२। इति जस्य गः। भजनीयम्। सेवनीयम्। ऐश्वर्ययुक्तम्। धातुः। सर्वस्य धारकस्य पोषकस्य। देवस्य। प्रकाशमयस्य परमेश्वरस्य। सत्येन। सते हितम्, सत्–यत्। यथार्थधर्मेण। कृणोमि। करोमि। पतिवेदनम्। विद्लृ लाभे, विद ज्ञाने–ल्युट्। वेदनम्=विवाहः। ज्ञानम्। पुमान् स्त्रिया। पा० १।२।६७। इति पत्नी च पतिश्च पती तयोर्वेदनं लाभं ज्ञानं विवाहं वा ॥
०३ इयमग्ने नारी
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ॒यम॑ग्ने॒ नारी॒ पतिं॑ विदेष्ट॒ सोमो॒ हि राजा॑ सु॒भगां॑ कृ॒णोति॑।
सुवा॑ना पु॒त्रान्महि॑षी भवाति ग॒त्वा पतिं॑ सु॒भगा॒ वि रा॑जतु ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इ॒यम॑ग्ने॒ नारी॒ पतिं॑ विदेष्ट॒ सोमो॒ हि राजा॑ सु॒भगां॑ कृ॒णोति॑।
सुवा॑ना पु॒त्रान्महि॑षी भवाति ग॒त्वा पतिं॑ सु॒भगा॒ वि रा॑जतु ॥
०३ इयमग्ने नारी ...{Loading}...
Whitney
Translation
- May this woman, O Agni, find a husband; for king Soma maketh her of
good-fortune; giving birth to sons, she shall become chief consort
(máhiṣī); having gone to a husband, let her, having good-fortune, bear
rule (vi-rāj).
Notes
Three mss. (including our P.O.) read nā́ri in a. ⌊For videṣṭa in
a (Grammar² §850 a),⌋ Ppp. has videṣṭu; at end of b it reads
-gaṁ kṛṇotu; and it changes the second half-verse into an address by
reading bhavāsi, and subhage vi rājā. The comm. explains mahiṣī as
mahanīyā śreṣṭhā bhāryā. The fourth pāda is best scanned as jagatī,
with resolution ga-tu-ā́ ⌊or insert sā́ before subhágā⌋.
Griffith
O Agni, may this woman find a husband. Then verily King Soma makes her happy. May she bear sons, chief lady of the household, blessed and bearing rule beside her consort.
पदपाठः
इ॒यम्। अ॒ग्ने॒। नारी॑। पति॑म्। वि॒दे॒ष्ट॒। सोमः॑। हि। राजा॑। सु॒ऽभगा॑म्। कृ॒णोति॑। सुवा॑ना। पु॒त्रान्। महि॑षी। भ॒वा॒ति॒। ग॒त्वा। पति॑म्। सु॒ऽभगा॑। वि। रा॒ज॒तु॒। ३६.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्नीषोमौ
- पतिवेदनः
- त्रिष्टुप्
- पतिवेदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे ज्ञानस्वरूप परमेश्वर ! (इयम्) यह (नारी) नर [अपने पति] का हित करनेवाली कन्या (पतिम्) पति को (विदेष्ट) प्राप्त करे, (हि) क्योंकि (सोमः) ऐश्वर्यवान् वा चन्द्रसमान आनन्दप्रद (राजा) राजा [ऐश्वर्यवान् वर] [इसको] (सुभगाम्) सौभाग्यवती (कृणोति) करता है। [यह कन्या] (पुत्रान्) कुलशोधक वा बहुरक्षक वीरपुत्रों को (सुवाना) उत्पन्न करती हुई (महिषी) पूजनीय महारानी (भवाति) होवे और (पतिम्) पति को (गत्वा) पाकर (सुभगा) सौभाग्यवती होकर (वि) अनेक प्रकार से (राजतु) राज्य करे ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परमेश्वर के अनुग्रह से ये दोनों पति और पत्नी, बड़े ऐश्वर्य वा ठाटवाले राजा और रानी के समान गृहकार्यों को चलावें और वीर पुत्र-पौत्र आदिकों को उत्तम शिक्षा देते हुए सदा आनन्द भोगें ॥३॥ मनु महाराज ने कहा है–अ० ३।६०। संतुष्टो भार्यया भर्त्ता भर्त्रा भार्या तथैव च। यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम् ॥१॥ भार्या से भर्त्ता और भर्त्ता से भार्या, जिस कुल में संतुष्ट हों, वहाँ पर अवश्य ही नित्य कल्याण रहता है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३–इयम्। निर्दिष्टा गुणवती। अग्ने। हे ज्ञानस्वरूप परमेश्वर। नारी। अ० १।११।१। नरस्य हिता। कन्या। वधूः। पतिम्। अ० १।१।१। रक्षकम्। यद्वा। सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति पत ऐश्ये–इन्। ऐश्वर्यवन्तम्। विदेष्ट। विद्लृ लाभे–आशीर्लिङि छान्दसं रूपम्। वेदिषीष्ट। विन्दताम्। लभताम्। सोमः। अ० १।६।२। ऐश्वर्यवान्। चन्द्रवदानन्दप्रदः। हि। यस्मात्। राजा। अ० १।१०।१। ऐश्वर्यवान्। प्रतापी। सुभगाम्। सुष्ठु भगं यस्याः। शोभनैश्वर्यवतीम्। पतिप्रियाम्। कृणोति। करोति। सुवाना। षूङ् प्राणिगर्भविमोचने–शानच्। जनयन्ती। पुत्रान्। अ० १।११।५। कुलशोधकान् बहुरक्षकान् वा वीरान्। महिषी। अ० २।३५।४। मह पूजायाम्–टिषच्। षित्वान् ङीष्। पूजनीया। कृताभिषेका राजपत्नी। भवाति। भू–लेट्। भूयात्। गत्वा। प्राप्य। लब्ध्वा। सुभगा। सौभाग्यवती। वि। विशेषेण। राजतु। ईश्वरी तेजस्विनी भवतु ॥
०४ यथाखरो मघवंश्चारुरेष
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यथा॑ख॒रो म॑घवं॒श्चारु॑रे॒ष प्रि॒यो मृ॒गाणां॑ सु॒षदा॑ ब॒भूव॑।
ए॒वा भग॑स्य जु॒ष्टेयम॑स्तु॒ नारी॒ संप्रि॑या॒ पत्यावि॑राधयन्ती ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यथा॑ख॒रो म॑घवं॒श्चारु॑रे॒ष प्रि॒यो मृ॒गाणां॑ सु॒षदा॑ ब॒भूव॑।
ए॒वा भग॑स्य जु॒ष्टेयम॑स्तु॒ नारी॒ संप्रि॑या॒ पत्यावि॑राधयन्ती ॥
०४ यथाखरो मघवंश्चारुरेष ...{Loading}...
Whitney
Translation
- As, O bounteous one (maghávan), this pleasant covert hath been dear
to the well-settled (suṣád) wild beasts, so let this woman be enjoyed
of Bhaga, mutually dear, not disagreeing with her husband.
Notes
The translation here involves emendation of the unmanageable suṣádā in
b to suṣádām, as suggested by iii. 22. 6. SPP. has in his
pada-text. su॰sádāḥ (as if nom. of suṣádas), and makes no note
upon the word—probably by an oversight, as of our pada-mss. only Op.
has such a reading; the comm. understands suṣádās, and explains it by
sukhena sthātuṁ yogyaḥ ‘comfortable to dwell in’; which is not
unacceptable. The comm. also has in a maghavān, and in d
abhirādhayantī (= abhivardhayantī, or else putrapaśvādibhiḥ
samṛddhā bhavantī). Ppp. has at the beginning yathā khaṁraṁ maghavaṅ
cārur eṣu, and, in c, d, yaṁ vayaṁ juṣṭā bhagasyā ’stu saṁpr-.
All our saṁhitā-mss. save one (H.), and half of SPP’s, give eṣáḥ pr-
in a-b; but the comment to Prāt. ii. 57 quotes this passage as
illustration of the loss of its final visarga by eṣás. Kāuś. (34.
14) evidently intends an allusion to this verse in one of its
directions: mṛgākharād vedyām mantroktāni ’the articles mentioned in
the text on the sacrificial hearth from a wild beast’s covert,’ but the
comm. does not explain the meaning. The Anukr. ignores the redundancy of
a syllable in c. ⌊Pronounce juṣṭā iyam and reject nārī?—The use
of sámpriya in dual and plural is natural: its extension to the
singular is rather illogical (cf. TS. iv. 2. 4), unless we assign
intensive value to sam (‘very dear’).⌋
Griffith
As this lair, Maghavan! that is fair to look on was dear to wild things as a pleasant dwelling, So may this woman here be Bhaga’s darling. Loved by her lord and prizing his affection.
पदपाठः
यथा॑। आ॒ऽख॒रः। म॒घ॒ऽव॒न्। चारुः॑। ए॒षः। प्रि॒यः। मृ॒गाणा॑म्। सु॒ऽसदाः॑। ब॒भूव॑। ए॒व। भग॑स्य। जु॒ष्टा। इ॒यम्। अ॒स्तु॒। नारी॑। सम्ऽप्रि॑या। पत्या॑। अवि॑ऽराधयन्ती। ३६.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- पतिवेदनः
- त्रिष्टुप्
- पतिवेदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (मघवन्) हे पूजनीय, वा महाधनी परमेश्वर, (यथा) जैसे (एषः) यह (चारुः) सुन्दर (आखरः) खोह वा माँद (मृगाणाम्) जंगली पशुओं का (प्रियः) प्रिय और (सुषदाः) रमणीक घर (बभूव) हुआ है [होता है], (एव=एवम्) ऐसे ही (इयम्) यह (नारी) नारी (भगस्य) ऐश्वर्यवान् [पति] की (जुष्टा) दुलारी और (संप्रिया) प्रियतमा होकर (पत्या) पति से (अविराधयन्ती) वियोग न करती हुयी (अस्तु) रहे ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार आरण्यक नर-नारी पशु आनन्दपूर्वक अपने विलों में विश्राम करते हैं, इसी प्रकार मनुष्यजातीय पति-पत्नी परस्पर मिल-जुलकर उपकार करते हुए सदा सुख से रहें ॥४॥ मनु भगवान् ने कहा है–अ० ५।१४८। बाल्ये पितुर्वशे तिष्ठेत् पाणिग्राहस्य यौवने। पुत्राणां भर्तरि प्रेते न भजेत् स्त्री स्वतन्त्रताम् ॥१॥ स्त्री बालकपन में पिता के, युवावस्था में पति के और पति के मरने पर पुत्रों के वश में रहे, स्त्री स्वतन्त्रता का उपभोग न करे ॥ सायणभाष्य में (मघवन्) के स्थान में [मघवान्] और (अविराधयन्ती) के स्थान में [अभिराधयन्ती=अभि वर्धयन्ती, समृद्धा भवन्ती] है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४–यथा। येन प्रकारेण। आखरः। आङ् पूर्वात् खनु अवदारणे–डर प्रत्ययः, डित्वाट् टिलोपः। आखन्यते, आखरः। गर्तः। विलम्। मघवन्। अ० २।५।७। हे पूजनीय। हे धनवन् परमेश्वर। चारुः। अ० २।५।१। शोभनः। मनोज्ञः। प्रियः। प्री–क। हृद्यः। सुखकरः। मृगाणाम्। मृग अन्वेषणे–इगुपधत्वात् कः। पशूनाम्। सुषदाः। षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु–असुन्। सुखेन स्थातुं योग्यः। सुखस्थानः। एव। एवम्। तथा। भगस्य। ऐश्वर्यवतः पत्युः। जुष्टा। प्रीता। अस्तु। भवतु। सम्प्रिया। सम्प्रियमाणा। पत्या। भर्त्रा। अविराधयन्ती। अ+विपूर्वात् राध वियोगे–शतृ, ङीप्। वियोगम् अकुर्वाणा। अन्यद् गतम् ॥
०५ भगस्य नावमा
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
भग॑स्य॒ नाव॒मा रो॑ह पू॒र्णामनु॑पदस्वतीम्।
तयो॑प॒प्रता॑रय॒ यो व॒रः प्र॑तिका॒म्यः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
भग॑स्य॒ नाव॒मा रो॑ह पू॒र्णामनु॑पदस्वतीम्।
तयो॑प॒प्रता॑रय॒ यो व॒रः प्र॑तिका॒म्यः॑ ॥
०५ भगस्य नावमा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Ascend thou the boat of Bhaga, full, unfailing; with that cause to
cross over hither a suitor who is according to thy wish.
Notes
Or pratikāmyà may perhaps mean ‘responsive to thy love.’ Ppp. has in
a ā ruha, in b anuparas-, and for c, d trayo pūṣā hitaṁ
yaṣ patiṣ patikāmyaḥ. The comm. understands upa- in c as an
independent word. With this verse, according to the comm., the girl is
made to ascend a properly prepared boat.
Griffith
Mount up, embark on Bhaga’s ship, the full, the inexhaustible, Thereon bring hitherward to us the lover whom thou fain wouldst wed.
पदपाठः
भग॑स्य। नाव॑म्। आ। रो॒ह॒। पू॒र्णाम्। अनु॑पऽदस्वतीम्। तया॑। उ॒प॒ऽप्रता॑रय। यः। व॒रः। प्र॒ति॒ऽका॒म्यः᳡। ३६.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सूर्यः
- पतिवेदनः
- अनुष्टुप्
- पतिवेदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे कन्या !] (भगस्य) ऐश्वर्य की (पूर्णाम्) भरी-भरायी और (अनुपदस्वतीम्) अटूट (नावम्) नाव पर (आ रोह) चढ़। और (तया) उस [नाव] से [अपने वर को] (उप प्रतारय) आदरपूर्वक पार लगा, (यः) जो (वरः) वर (प्रति–काम्यः) प्रतिज्ञा करके चाहने [प्रीति करने] योग्य है ॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में गृहपत्नी की भारी उत्तरदातृता [ज़िम्मेदारी] का वर्णन है। जैसे नाविक खान-पान आदि आवश्यक सामग्री से लदी-लदायी और बड़ी दृढ़ नौका से जलयात्रियों को समुद्र से पार लगाता है, वैसे ही गृहपत्नी अपने घर को धन-धान्य आदि ऐश्वर्य से भरपूर और दृढ़ रक्खे और पति को नियम में बाँधकर पूरे प्रेम से प्रसन्न रखकर गृहस्थाश्रम से पार लगावे ॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५–भगस्य। भजनीयस्य। ऐश्वर्यस्य। नावम्। ग्लानुदिभ्यां डौः। उ० २।६४। इति णुद प्रेरणे–डौ। नुद्यते जले सा नौः। समुद्रादिसन्तरणार्थयानविशेषम्। पोतम्। समुद्रयानम्। गृहस्थाश्रमरूपम्। आरोह। अधितिष्ठा आरुढा भव। पूर्णाम्। पॄ पूर वा पूर्त्तौ–क्त, तस्य नः। पूरिताम्। कृतपूरणाम्। अनुपदस्वतीम्। अन्+उप+दसु उपक्षये–क्विप्। मतुप्, मस्य वः। अखण्डिताम्। अक्षीणाम्। तया। नावा। उपप्रतारय। उप पूजया शक्त्या वा पारय। यः। पूर्वोक्तः। वरः। ॠदोरप्। पा० ३।३।५७। इति वृञ् वरणे–अप्। वरणीयः। श्रेष्ठः पतिः। जामाता प्रतिकाम्यः। कमु स्पृहि–णिच्, कर्मणि यत् प्रति निश्चयेन प्रतिज्ञया कमनीयः कामनायोग्यः ॥
०६ आ क्रन्दय
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आ क्र॑न्दय धनपते व॒रमाम॑नसं कृणु।
सर्वं॑ प्रदक्षि॒णं कृ॑णु॒ यो व॒रः प्र॑तिका॒म्यः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
आ क्र॑न्दय धनपते व॒रमाम॑नसं कृणु।
सर्वं॑ प्रदक्षि॒णं कृ॑णु॒ यो व॒रः प्र॑तिका॒म्यः॑ ॥
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Whitney
Translation
- Shout to [him], O lord of riches; make a suitor hither-minded; turn
the right side to every one who is a suitor according to thy wish.
Notes
Circumambulation with the right side toward one is a sign of reverence.
Ā krandaya in a is perhaps a real causative, ‘make him call out to
us’; the comm. takes it so. His explanation ⌊page 332⌋ of the
accompanying rite is: “offering rice in the night, one should make the
girl step forward to the right.”
Griffith
Call out to him, O Lord of Wealth! Make thou the lover well- inclined. Set each on thy right hand who is a lover worthy of her choice.
पदपाठः
आ। क्र॒न्द॒य॒। ध॒न॒ऽप॒ते॒। व॒रम्। आऽम॑नसम्। कृ॒णु॒। सर्व॑म्। प्र॒ऽद॒क्षि॒णम्। कृ॒णु॒। यः। व॒रः। प्र॒ति॒ऽका॒म्यः᳡। ३६.६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- धनपतिः
- पतिवेदनः
- अनुष्टुप्
- पतिवेदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (धनपते) हे धनों की रक्षा करनेवाली [कन्या !] (वरम्) वर को (आ) आदरपूर्वक (क्रन्दय) बुला और (आमनसम्) अपने मन के अनुकूल (कृणु) कर। [उस वर को] (सर्वम्) सर्वथा (प्रदक्षिणम्) अपनी दाहिनी ओर (कृणु) कर, (यः) जो (वरः) वर (प्रतिकाम्यः) नियम करके चाहने योग्य है ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - पत्नी धनों की रक्षा करती है, वह पति को आदरपूर्वक बुलावे और उसकी प्रसन्नता में अपनी प्रसन्नता जाने और सदा उसे अपनी दाहिनी ओर रक्खे, अर्थात् जैसे दाहिना हाथ बाएँ हाथ की अपेक्षा अधिक सहायक होता है, इसी प्रकार पत्नी अपने पति को सबसे अधिक अपना हितकारी जानकर सदा प्रीति से सत्कार मान करती रहे। इसी विधि से पति भी पत्नी को अपना हितकारी जाने और उसके साथ प्रीति और प्रतिष्ठा के साथ बर्ताव रक्खे ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: टिप्पणी–१–विवाहसंस्कार में वर का आसन वधू के दाहिने हाथ को किया जाता है ॥ २–मन्त्र ५ और ६ का आशय मनु महाराज इस प्रकार कहते हैं–अ० ५।१५० ॥ सदा प्रहृष्टया भाव्यं गृहकार्येषु दक्षया। सुसंस्कृतोपस्करया व्यये चामुक्तहस्तया ॥१॥ स्त्री घर के कामों में प्रसन्नचित्त और चतुर होवे, घर की सामग्री, वासन, वस्त्र आदि को संभालकर रक्खे और व्यय करने में हाथ संकुचित रक्खे ॥ ६–आ क्रन्दय। क्रदि आह्वाने। आदरेण आह्वय। धनपते। हे धनरक्षिके पत्नि। वरम्। वरणीयं पतिम्। आमनसम्। मन बोधे–असुन्। अभिमुखमनस्कम्। अनुकूलचित्तम्। कृणु। कुरु। सर्वम्। सर्वथा। प्रदक्षिणम्। द्रुद्रक्षिभ्यामिनन्। उ० २।५०। इति दक्ष–ङ् शीघ्रकरणे, वृद्धौ–इनन्। प्रगता दक्षिणा प्रतिष्ठा यस्य तम्। प्रतिष्ठायुक्तम्। प्रवृद्धम्। समर्थम्। प्रतिष्ठापूर्वकं स्वदक्षिणहस्तस्थितम्। अन्यद् व्याख्यातम् ॥
०७ इदं हिरण्यम्
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इ॒दं हिर॑ण्यं॒ गुल्गु॑ल्व॒यमौ॒क्षो अ॑थो॒ भगः॑।
ए॒ते पति॑भ्य॒स्त्वाम॑दुः प्रतिका॒माय॒ वेत्त॑वे ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इ॒दं हिर॑ण्यं॒ गुल्गु॑ल्व॒यमौ॒क्षो अ॑थो॒ भगः॑।
ए॒ते पति॑भ्य॒स्त्वाम॑दुः प्रतिका॒माय॒ वेत्त॑वे ॥
०७ इदं हिरण्यम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Here [is] gold, bdellium; here [is] āukṣá, likewise fortune;
these have given thee unto husbands, in order to find one according to
thy wish.
Notes
Āukṣá (cf. āukṣagandhi, iv. 37. 3) seems to be some fragrant product
of the ox; or it may perhaps come from ukṣ ‘sprinkle,’ but not through
ukṣan. The mss. vary here, as everywhere else, in an indiscriminate
manner between gúggulu and gúlgulu; here the majority of ours have
-lg-, and the great majority of SPP’s have -gg-; but -gg- is
accepted (as elsewhere) in our edition, and -lg- in the other; Ppp.
reads -lg-, the comm. -gg-. Ppp. has further vayam ukṣo atho
bhaga; and, in c-d, adhuḥ patik-. The comm. defines guggulu as
“a well-known kind of article for incense,” and for āukṣa he quotes
from Keśava (kāuśikasūtrabhāṣyakārās) the couplet given in
Bloomfield’s Kāuśika on p. 335 (but reading surabhīn gandhān kṣīraṁ).
The comm., p. 332, explains that with this verse is to be performed a
binding on and fumigation and anointing of the girl with ornaments,
bdellium, and āukṣa respectively. ⌊BR., iv. 947, suggests
pratikāmyā̀ya.⌋
Griffith
Here is the Bdellium and the gold, the Auksha and the bliss are here: These bring thee to the husbands, so to find the man whom thou. wouldst have.
पदपाठः
इ॒दम्। हिर॑ण्यम्। गुल्गु॑लु। अ॒यम्। औ॒क्षः। अथो॒ इति॑। भगः॑। ए॒ते। पति॑भ्यः। त्वाम्। अ॒दुः॒। प्र॒ति॒ऽका॒माय॑। वेत्त॑वे। ३६.७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- हिरण्यम्, भगः
- पतिवेदनः
- अनुष्टुप्
- पतिवेदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इदम्) यह (हिरण्यम्) सुवर्ण और (गुल्गुलु) गुल्गुले [गुड़ का पका भोजन] (अथो) और (अयम्) यह (औक्षः) महात्माओं के योग्य [वा ऋषभ औषध सम्बन्धी] (भगः) ऐश्वर्य है [और हे कन्या !] (एते) इन कन्या के पक्षवालों ने (पतिभ्यः) पति पक्षवालों के हितार्थ (त्वाम्) तुझे (प्रतिकामाय) प्रतिज्ञापूर्वक कामनायोग्य [पति] के लिये (वेत्तवे) लाभ पहुँचाने को (अदुः) दिया है ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - कन्या के माता-पिता आदि कन्या और वर को विवाह के उपरान्त दाय अर्थात् यौतुक [दैजा, जहेज़] में सुन्दर अलंकार, वस्त्र, भोजन, पदार्थ, वाहन, गौ, धन आदि देवें और कन्या को पतिसेवा की यथायोग्य शिक्षा करें, जिससे पति-पत्नी मिलकर सदा आनन्द भोगें ॥७॥ (गुल्गुलु) पद के स्थान पर सायणभाष्य में [गुग्गुलु] पद है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ७–इदम्। वराय दातव्यम्। हिरण्यम्। अ० १।९।२। हृञ् हरणे, यद्वा, हर्य गतिकान्त्योः–कन्यन्, हिरादेशश्च। हिरण्यं कस्माद्ध्रियत आयम्यमानमिति वा ह्रियते जनाज्जनमिति वा हितरमणं भवतीति वा हर्यतेर्वा स्यात् प्रेप्साकर्मणः–निरु० २।१०। सुवर्णम्। गुल्गुलु। क्वादिभ्यः कित्। उ० १।११५। इति गुङ् अव्यक्तशब्दे–ड प्रत्ययः, इति गुडः। अकारलोपः। यद्वा गुड वेष्टे, रक्षे–क्विप्, ततो गुड–कु। डलयोरैक्याड् डस्य लत्वम्। गुड एव गुलुः। गुडेन इक्षुपाकेन गुडितं वेष्टितं रक्षितं वा गुल्गुलु भोज्यम्।गुलगुला–इति भाषा। अथो। अपि च। औक्षः। श्वन्नुक्षन्पूषन्०। उ० १।१५९। इति उक्ष सेचने–कनिन्। यद्वा, उक्ष–क। उक्षाः, महन्नाम–निघ० ३।३। उक्षण उक्षतेर्वृद्धिकर्मण उक्षन्त्युदकेन वा–निरु० १२।९। उक्षा ऋषभौषधिः–श० क० द्रु०। ततः, अण् प्रत्ययः। महतां योग्यः। ऋषभौषधिसंबन्धी। प्रलेपनद्रव्यम्–इति सायणः। भगः। भज–घञ् सेवनीयम्। ऐश्वर्यम्। एते। कन्यापक्षीयाः। पतिभ्यः। वरपक्षीयेभ्यः। तेषां हिताय। त्वाम्। कन्याम्। अदुः। दाञो लुङ्। दत्तवन्तः। प्रतिकामाय। प्रतिज्ञापूर्वकं कामनायोग्याय वराय। वेत्तवे। तुमर्थे सेसेनसे०। पा० ३।४।९। इति विद्लृ लाभे–तवे प्रत्ययः। वेत्तुम्। लब्धुम् ॥
०८ आ ते
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आ ते॑ नयतु सवि॒ता न॑यतु॒ पति॒र्यः प्र॑तिका॒म्यः॑।
त्वम॑स्यै धेहि ओषधे ॥
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मूलम् (VS)
आ ते॑ नयतु सवि॒ता न॑यतु॒ पति॒र्यः प्र॑तिका॒म्यः॑।
त्वम॑स्यै धेहि ओषधे ॥
०८ आ ते ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Hither let Savitar conduct for thee, conduct a husband that is
according to thy wish; do thou assign [him] to her, O herb.
Notes
The second nayatu is a detriment equally to sense and to meter; the
Anukr. counts it to a, and the pada-mss. mark the division
accordingly. Emendation of tvám in c to tám is strongly
suggested. The verse hardly belongs to the hymn as originally made up;
there has been no reference elsewhere to an “herb”; nor does Kāuś.
introduce such an element.
In the concluding anuvāka ⌊6.⌋ are 5 hymns, 31 verses: the Anukr. says
accordingly triṅśadekādhiko ‘ntyaḥ.
This is the end also of the fourth prapāṭhaka.
⌊One or two mss. sum up the book as 36 hymns and 207 verses.⌋
Griffith
May Savitar lead and bring to thee the husband whom thy heart desires. O Plant, be this thy gift to her!
पदपाठः
आ। ते॒। न॒य॒तु॒। स॒वि॒ता। न॒य॒तु॒। पतिः॑। यः। प्र॒ति॒ऽका॒म्यः᳡। त्वम्। अ॒स्यै॒। धे॒हि॒। ओ॒ष॒धे॒। ३६.८।
अधिमन्त्रम् (VC)
- ओषधिः
- पतिवेदनः
- निचृत्पुरउष्णिक्
- पतिवेदन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विवाह संस्कार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे कन्ये] (सविता) सर्वप्रेरक, सर्वजनक परमेश्वर (ते) तेरेलिये [उस पति को] (आ नयतु) मर्यादापूर्वक चलावे और (नयतु) नायक बनावे, (यः पतिः) जो पति (प्रतिकाम्यः) प्रतिज्ञापूर्वक चाहने योग्य है। (ओषधे) हे तापनाशक परमेश्वर ! (त्वम्) तू (अस्यै) इस [कन्या] के लिये [उस पति को] (धेहि) पुष्ट रख ॥८॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - यह आशीर्वाद का मन्त्र है। पति और पत्नी उस सर्वनियन्ता परमेश्वर का सदा ध्यान करते हुए परस्पर हार्दिक प्रीति रखकर वेदोक्त मर्यादा पर चलें, जिससे वे दोनों प्रधान पुरुष और प्रधान स्त्री होकर संसार में कीर्त्तिमान् होवें और अन्न आदि ओषधि के समान सुखदायक होकर सदा हृष्ट-पुष्ट बने रहें ॥८॥ यजुर्वेद का वचन है–अ० ४० म० २। कु॒र्वन्ने॒वेह कर्मा॑णि जिजीवि॒षेच्छ॒तं समाः॑ ॥ मनुष्य (इह) यहाँ (कर्माणि) वेदोक्त कर्मों को (कुर्वन्) करता हुआ (एव) ही (शतम्) सौ (समाः) वर्ष तक (जिजीविषेत्) जीवन की इच्छा करे ॥ इति षष्ठोऽनुवाकः ॥ इति चतुर्थः प्रपाठकः ॥ इति द्वितीयं काण्डम् ॥ इति श्रीमद्राजाधिराजप्रथितमहागुणमहिमश्रीसयाजीरावगयकवाडा धिष्ठितबडोदेपुरीगतश्रावणमास-दक्षिणापरीक्षायाम् ऋक्सामाथर्ववेदभाष्येषु लब्धदक्षिणेन श्रीपण्डितक्षेमकरणदासत्रिवेदिना कृते अथर्ववेदभाष्ये द्वितीयं काण्डं समाप्तम्। इदं काण्डं प्रयागनगरे वैशाखमासे अक्षयायाम् [शुक्लतृतीयायाम्] १९७० तमे विक्रमीये संवत्सरे धीरवीरचिरप्रतापिमहायशस्विश्रीराजराजेश्वरजार्जपञ्चममहोदयस्य सुसाम्राज्ये सुसमाप्तिमगात् ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ८–आ। समन्तात्। अनुकूलम्। ते। तुभ्यम्। नयतु। णीञ् नयने। प्रेरयतु। नायकं करोतु। सविता। अ० १।१८।२। सर्वप्रेरकः। सर्वोत्पादकः परमेश्वरः। पतिः। म० ३। ऐश्वर्यवान्। भर्त्ता। प्रतिकाम्यः। म० ५। प्रतिज्ञया कमनीयः। अस्यै। वधूहितार्थम्। धेहि। डुधाञ् धारणपोषणयोः–लोट्। धारय। पोषय। वर्धय। ओषधे। अ० १।२३।१। हे तापभक्षक परमेश्वर ॥