०३२ क्रिमिनाशनम्

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Whitney subject
  1. Against worms.
VH anukramaṇī

क्रिमिनाशनम्।
१-६ कण्वः। आदित्यः। अनुष्टुप्, १ त्रिपाद्भुरिग्गायत्री, ६ चतुष्पान्निचृदुष्णिक्।

Whitney anukramaṇī

[Kāṇva.—ṣaḍṛcam. ādityadevatyatn. ānuṣṭubham: 1. 3-p. bhurig gāyatrī; 6. 4-p. nicṛd uṣṇih.]

Whitney

Comment

This hymn occurs in Pāipp. ii. (with vs. 3 put last), next before the one that here precedes it. Kāuś. applies it (27. 21 ff.) in a healing ceremony against worms in cattle.

⌊The material appears in Ppp. in the order 1, 2 ab, 4 cdab, 5 ab, 6, 3 abc 5 d. The expression of Kāuś. 27. 22, “with the words te hatāḥ (vs. 5 d) at the end of the hymn,” suggests the reduction of the hymn to the norm of the book, 5 vss. (see p. 37). This is borne out by Ppp., where the material amounts to 5 vss. and ends with our 5 d. But what the intruded portions are it is not easy to say. The parts missing in Ppp. are our 2 cd, 3 d, 5 c.⌋

Translations

Translated: Kuhn, KZ. xiii. 138; Weber, xiii. 201; Ludwig, p. 500; Grill, 7, 100; Griffith, i. 72; Bloomfield, 23, 317.—Cf. Hillebrandt, Veda-chrestomathie, p. 47.

Griffith

A charm against worms or bots in cows

०१ उद्यन्नादित्यः क्रिमीन्हन्तु

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

उ॒द्यन्ना॑दि॒त्यः क्रिमी॑न्हन्तु नि॒म्रोच॑न्हन्तु र॒श्मिभिः॑।
ये अ॒न्तः क्रिम॑यो॒ गवि॑ ॥

०१ उद्यन्नादित्यः क्रिमीन्हन्तु ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Let the sun (ādityá), rising, smite the worms; setting, let him
    smite [them] with his rays—the worms that are within the cow.
Notes

The change of ādityás to sū́ryas in a would rectify the meter.
But Ppp. has adityaṣ; its b reads sūryo nimrocan raśmibhir
hantu;
and for c it has ye ‘ntaṣ krimayo gavī naḥ.

Griffith

Uprising let the Sun destroy, and when he sinketh, with his beams. The Worms that live within the cow.

पदपाठः

उ॒त्ऽयन्। आ॒दि॒त्यः। क्रिमी॑न्। ह॒न्तु॒। नि॒ऽम्रोच॑न्। ह॒न्तु॒। र॒श्मिऽभिः॑। ये। अ॒न्तः। क्रिम॑यः। गवि॑। ३२.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आदित्यगणः
  • काण्वः
  • त्रिपाद्भुरिग्गायत्री
  • कृमिनाशक सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कीड़ों के समान दोषों का नाश करे, इसका उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (उद्यन्) उदय होता हुआ (आदित्यः) प्रकाशमान सूर्य (क्रिमीन्) उन कीड़ों को (हन्तु) मारे और (निम्रोचन्) अस्त हुआ [भी सूर्य] (रश्मिभिः) अपनी किरणों से (हन्तु) मारे, (ये) जो (क्रिमयः) कीड़े (गवि) पृथिवी में (अन्तः) भीतर हैं ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - १–प्रातःकाल और सायंकाल में सूर्य की कोमल किरणों और शीतल, मन्द, सुगन्ध वायु के सेवन से शारीरिक रोग के कीड़ों का नाश होकर मन हृष्ट और शरीर पुष्ट होता है ॥१॥ २–उदय और अस्त होते हुए सूर्य के समान मनुष्य बालपन से बुढ़ापे तक अपने दोषों का नाश करके सदा प्रसन्न रहे ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: टिप्पणी–इस सूक्त और ३३ वें सूक्त का मिलान अथर्ववेद का० ५ सू० २३। से करें ॥ १–उद्यन्। उत्+इण् गतौ–शतृ। उदयं प्राप्नुवन्। आदित्यः। अ० १।९।१। आङ्+दीपी दीप्तौ–यक् प्रत्ययान्तो निपातितः। आदीप्यमानः सूर्यः। क्रिमीन्। अ० २।३१।१। क्षद्रजन्तून्। हन्तु। नाशयतु। निम्रोचन्। नि+म्रुचु गतौ–शतृ। अस्तं गच्छन्। रश्मिभिः। अश्नोते रश च। उ० ४।४६। इति अशू व्याप्तौ–मि, धातो रशादेशश्च। किरणैः। अन्तः। मध्ये। क्रिमयः। क्रमणशीलाः क्षुद्रजन्तवः। गवि। गमेर्डोः। उ० २।६७। इति गम्लृ गतौ–डो। गौरिति पृथिव्या नामधेयं यद् दूरङ्गता भवति यच्चास्यां भूतानि गच्छन्ति गातेर्वौकारो नामकरणः–निरु० २।५। पृथिव्याम् इन्द्रिये वा ॥

०२ विश्वरूपं चतुरक्षम्

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वि॒श्वरू॑पं चतुर॒क्षं क्रिमिं॑ सा॒रङ्ग॒मर्जु॑नम्।
शृ॒णाम्य॑स्य पृ॒ष्टीरपि॑ वृश्चामि॒ यच्छिरः॑ ॥

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Whitney
Translation
  1. The worm of all forms, the four-eyed, the variegated, the whitish—I
    crush (śṛ) the ribs of it; I hew at (api-vraśc) what is its head.
Notes

The mss., as usual, vary between pṛṣṭī́s and pṛṣṭhī́s in c. Ppp.
has a different version of the first half-verse: yo dviśīrṣā caturakṣaṣ
krimiś śārgo arjunaḥ
, with our 4 c, d as second half. The Anukr.
expects us to make the unusual resolution a-si-a in c.

Griffith

The four-eyed worm, of every shape, the variegated, and the white I break and crush the creature’s ribs, and tear away its head besides.

पदपाठः

वि॒श्वऽरू॑पम्। च॒तुः॒ऽअ॒क्षम्। क्रिमि॑म्। सा॒रङ्ग॑म्। अर्जु॑नम्। शृ॒णामि॑। अ॒स्य॒। पृ॒ष्टीः। अपि॑। वृ॒श्चा॒मि॒। यत्। शिरः॑। ३२.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आदित्यगणः
  • काण्वः
  • अनुष्टुप्
  • कृमिनाशक सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कीड़ों के समान दोषों का नाश करे, इसका उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (विश्वरूपम्) नाना आकारवाले (चतुरक्षम्) [चार दिशाओं में] नेत्रवाले, (सारङ्गम्) रींगनेवाले [वा चितकबरे] और (अर्जुनम्) संचयशील [वा श्वेतवर्ण] (क्रिमिम्) कीड़े को (शृणामि) मैं मारता हूँ, (अस्य) इसकी (पृष्टीः) पसलियों को (अपि) भी और (यत्) जो (शिरः) शिर है [उसको भी] (वृश्चामि) तोड़े डालता हूँ ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - पृथिवी और अन्तरिक्ष के नाना आकार और नाना वर्णवाले मकड़ी माँखी आदि क्षुद्र जन्तुओं को शुद्धि आदि द्वारा पृथक् रखने से शरीर स्वस्थ रहता है, इसी प्रकार आत्मिक दोषों की निवृत्ति से आत्मिक शान्ति होती है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: टिप्पणी–(चतुरक्ष) चार आँखवाला–ऐसा प्रयोग वेद में अन्यत्र भी आया है, वहाँ भी चारों दिशाओं का ही ग्रहण है ॥ क॒श्यप॑स्य॒ चक्षु॑रसि शकु॒न्याश्च॑तुर॒क्ष्याः ॥१॥ अथर्ववेद ४।२०।७। [और ऋ० १०।१४।१०, ११ भी देखिये।] तू (कश्यपस्य) सूर्य की और (चतुरक्ष्याः) चार आँखवाली (शकुन्याः) व्याप्तिवाली दिशा की (चक्षुः) आँख है ॥ २–विश्वरूपम्। नानाकारम्। चतुरक्षम्। बहुव्रीहौ। सक्थ्यक्ष्णिः स्वाङ्गात् षच्। पा० ५।४।११३। इति षच्। चतुर्नेत्रम्। चतुर्दिक्षु नेत्रयुक्तम्। सारङ्गम्। सृवृञोर्वृद्धिश्च। उ० १।१२२। इति सृ गतौ–अङ्गच्, धातोर्वृद्धिश्च। सरणशीलम्। शबलवर्णम्। अर्जुनम्। अर्जेर्णिलुक् च। उ० ३।५८। इति अर्ज सम्पादने–उनन्। संचयशीलम्। श्वेतवर्णम्। शृणामि। शॄ हिंसायाम्। हन्मि। पृष्टीः। अ० २।७।५। पार्श्वस्थीनि। वृश्चामि। छिनद्मि। शिरः। अ० २।२५।२। मस्तकम् ॥

०३ अत्रिवद्वः क्रिमयो

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अ॑त्रि॒वद्वः॑ क्रिमयो हन्मि कण्व॒वज्ज॑मदग्नि॒वत्।
अ॒गस्त्य॑स्य॒ ब्रह्म॑णा॒ सं पि॑नष्म्य॒हं क्रिमी॑न् ॥

०३ अत्रिवद्वः क्रिमयो ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Like Atri I slay you, O worms, like Kaṇva, like Jamadagni; with the
    incantation of Agastya I mash together the worms.
Notes

Ppp. rectifies the meter of a by reading tvā kṛme; it has
agastyaṁ in c, and, for d, our 5 d. The Anukr. ignores the
redundant syllable in our a. Compare TA. iv. 36 (which the comm.
quotes, though the editor does not tell from whence): átriṇā tvā krime
hanmi káṇvena jamádagninā: viśvā́vasor bráhmaṇā;
also MB. ii. 7. i a,
b
: hatas te atriṇā krimir hatas te jainadagninā. SPP. writes in
a attrivád. Vss. 3-5 are repeated below as v. 23. 10-12.

Griffith

Like Atri I destroy you, Worms! in Kanva’s, Jamadagni’s way: I bray and bruise the creeping things to pieces with Agastya’s* spell.

पदपाठः

अ॒त्त्रि॒ऽवत्। वः॒। क्रि॒म॒यः॒। ह॒न्मि॒। क॒ण्व॒ऽवत्। ज॒म॒द॒ग्नि॒ऽवत्। अ॒गस्त्य॑स्य। ब्रह्म॑णा। सम्। पि॒न॒ष्मि॒। अ॒हम्। क्रिमी॑न्। ३२.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आदित्यगणः
  • काण्वः
  • अनुष्टुप्
  • कृमिनाशक सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कीड़ों के समान दोषों का नाश करे, इसका उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (क्रिमयः) हे कीड़ों ! (वः) तुमको (अत्त्रिवत्) दोषभक्षक, वा गतिशील, मुनि के समान (कण्ववत्) स्तुतियोग्य मेधावी पुरुष के समान, (जमदग्निवत्) आहुति खानेवाले अथवा प्रज्वलित अग्नि के सदृश तेजस्वी पुरुष के समान, (हन्मि) मैं मारता हूँ। (अगस्त्यस्य) कुटिल गति पाप के छेदने में समर्थ परमेश्वर के (ब्रह्मणा) वेदज्ञान से (अहम्) मैं (क्रिमीन्) कीड़ों को (सम् पिनष्मि) पीसे डालता हूँ ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य को ऋषि, मुनि, धर्मात्माओं के अनुकरण से वेदज्ञान प्राप्त करके पाप का नाश करना चाहिये ॥३॥ मन्त्र ३–५ अथर्ववेद का० ५ सू० २३ मन्त्र १०–१२ में भी हैं ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३–अत्त्रिवत्। अदेस्त्रिनिश्च। उ० ४।६७। इति अद भक्षणे अत सातत्यगमने वा–त्रिप्। अत्ति दोषान् भक्षयति नाशयतीति अततीति वा अत्रिः। मुनिः। अथवा। रसान् अत्तीति सूर्यः। तत्सदृशः। वः। युष्मान्। क्रिमयः। हे क्षुद्रजन्तवः। हन्मि। नाशयामि। कण्ववत् अ० २।२५।३। अशूप्रुषिलटिकणि०। उ० १।१५१। इति कण शब्दे, निमीलने–क्वन्। कणति उपदेशशब्दं करोति, कण्यते स्तूयते वा। निमीलयति परान् वा स्वतेजसा। मेधाविवत्–निघ० ३।१५। जमदग्निवत्। जमु भक्षणे, दीप्तौ च–शतृ+अग्नि–वतुप्। जमदग्नयः प्रजमिताग्नयो वा प्रज्वलिताग्नयो वा–निरु० ७।२४। जमन् हुतभक्षणशीलः अथवा प्रज्वलितो अग्निरिव तेजो येषां ते जमदग्नयः। तत्सदृशः। अगस्त्यस्य। अग वक्रगतौ–अच् ततः। वसेस्तिः। उ० ४।१८०। इति अग+असु क्षेपणे–भावे ति प्रत्ययः। तत्र साधुः। पा० ४।४। इति यत्। पृषोदरादित्वाद् दीर्घाभावः। अगस्य कुटिलगतेः पापस्य असने उत्पाटने समर्थस्य परमेश्वरस्य। ब्रह्मणा। अ० १।८।४। वेदज्ञानेन। सम्+पिनष्मि। अ० २।३१।१। संचूर्णयामि। अन्यद् गतम् ॥

०४ हतो राजा

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ह॒तो राजा॒ क्रिमी॑णामु॒तैषां॑ स्थ॒पति॑र्ह॒तः।
ह॒तो ह॒तमा॑ता॒ क्रिमि॑र्ह॒तभ्रा॑ता ह॒तस्व॑सा ॥

०४ हतो राजा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Slain is the king of the worms, also the chief (sthapáti) of them
    is slain; slain is the worm, having its mother slain, its brother slain,
    its sister slain.
Notes

Ppp. has in b sthapacis, and in c, d (its 2 c, d) -trātā
for -mātā, and -mahatā for bhrātā. TA. (iv. 36) has again a
parallel verse: hatáḥ krímīṇāṁ rā́jā ápy eṣāṁ sthapátir hatáḥ: átho mātā́
’tho pitā́;
cf. also MB. ii. 7. 3 a, b: hataḥ krimīṇāṁ kṣudrako
hatā mātā hataḥ pitā.
The comm. explains sthapati by saciva.

Griffith

Slain is the sovran of these Worms, yea, their controlling lord is slain: Slain is the Worm, his mother slain, brother and sister both are slain.

पदपाठः

ह॒तः। राजा॑। क्रिमी॑णाम्। उ॒त। ए॒षा॒म्। स्थ॒पतिः॑। ह॒तः। ह॒तः। ह॒तऽमा॑ता। क्रिमिः॑। ह॒तऽभ्रा॑ता। ह॒तऽस्व॑सा। ३२.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आदित्यगणः
  • काण्वः
  • अनुष्टुप्
  • कृमिनाशक सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कीड़ों के समान दोषों का नाश करे, इसका उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (एषाम्) इन (क्रिमीणाम्) कीड़ों का (राजा) राजा (हतः) नष्ट होवे, (उत) और (स्थपतिः) द्वारपाल (हतः) नष्ट होवे। (हतमाता) जिसकी माता नष्ट हो चुकी है, (हतभ्राता) जिसका भ्राता नष्ट हो चुका है और (हतस्वसा) जिसकी बहिन नष्ट हो चुकी है, (क्रिमिः) वह चढ़ाई करनेवाला कीड़ा (हतः) मार डाला जावे ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य अपने दोषों और उनके कारणों को उचित प्रकार के समझकर नष्ट करे, जैसे वैद्य दोषों के प्रधान और गौण कारणों को समझकर रोगनिवृत्ति करता है ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४–हतः। नाशितः। राजा। अ० १।१०।१। अधिपतिः। उत। अपि च। एषाम्। उपस्थितानाम्। स्थपतिः। ष्ठा–कः। स्थः स्थानम्। अमेरतिः। उ० ४।५९। इति पा रक्षणे–अति। अथवा, ण्यन्तस्य स्था धातोः पुकि–अति प्रत्यये ह्रस्वः। स्थं स्थानं पाति, अथवा पुरुषान् स्थापयतीति स्थपतिः कञ्चुकी, द्वारपालः। हतमाता। हता माता यस्य। नद्यृतश्च। पा० ५।४।१५३। इति बहुव्रीहौ नित्यं प्राप्तस्य कपः–ऋतश्छन्दसि पा० ५।४।१५८। इति प्रतिषेधः। नष्टमातृकः। हतभ्राता। पूर्ववत् कपः प्रतिषेधः। नष्टभ्रातृकः। हतस्वसा। पूर्ववत् सिद्धिः। हतस्वसृकः। नष्टभगिनीकः। अन्यद् गतम् ॥

०५ हतासो अस्य

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ह॒तासो॑ अस्य वे॒शसो॑ ह॒तासः॒ परि॑वेशसः।
अथो॒ ये क्षु॑ल्ल॒का इ॑व॒ सर्वे॒ ते क्रिम॑यो ह॒ताः ॥

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Whitney
Translation
  1. Slain are its neighbors (? veśás), slain its further neighbors (?
    páriveśas), also those that are petty (kṣullaká), as it were—all
    those worms are slain.
Notes

The translation of d implies the emendation of te to té; all the
mss. have the former, but SPP. receives the latter into his text on the
authority of the comm., who so understands the word. Ppp. reads in a,
b
‘sya veṣaso hatāsaṣ p-; our c is wanting in its text; our
d it puts in place of our 3 d. Our kṣullaka is a kind of
Prākritization of kṣudraka, quoted from MB. under vs. 4; TA. (ib.)
also has átho sthūrā́ átho kṣudrā́ḥ. The comm. explains veśásas as
“principal houses,” and páriveśasas as “neighboring houses.” We might
suspect -veṣ-, from root viṣ, and so ‘attendants, servants.’

Griffith

Slain are his ministers, and slain his followers and retinue: Yes, those that seemed the tiniest things, the Worms have all been put to death.

पदपाठः

ह॒तासः॑। अ॒स्य॒। वे॒शसः॑। ह॒तासः॑। परि॑ऽवेशसः। अथो॒ इति॑। ये। क्षु॒ल्ल॒काःऽइ॑व। सर्वे॑। ते। क्रिम॑यः। ह॒ताः। ३२.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आदित्यगणः
  • काण्वः
  • अनुष्टुप्
  • कृमिनाशक सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कीड़ों के समान दोषों का नाश करे, इसका उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) इस [क्रिमी] के (वेशसः) मुख्य सेवक (हतासः=हताः) नष्ट हों और (परिवेशसः) साथी भी (हतासः) नष्ट हों। (अथो=अथ–उ) और भी (ये) जो (क्षुल्लकाः इव) बहुत सूक्ष्म आकारवाले से हैं, (ते) वे (सर्वे) (क्रिमयः) कीड़े (हताः) नष्ट हों ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मनुष्य अपनी स्थूल और सूक्ष्म कुवासनाओं का और उनकी सामग्री का सर्वनाश कर दे, जैसे रोगजनक जन्तुओं को औषध आदि से नष्ट करते हैं ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५–हतासः। असुक् आगमः। हताः। वेशसः। मिथुनेऽसिः। उ० ४।२२३। इति बाहुलकाद् अमिथुनेऽपि। विश–असि प्रत्ययः। प्रवेशकाः। मुख्यसेवकाः। परिवेशसः। परितः स्थिताः। अनुचराः। अथो। अपि च क्षुल्लकाः। क्षुद्+लकाः। क्षुद्रि संपेषणे–क्विप्+लक आस्वादे, प्राप्तौ–अच्। तोर्लि। पा० ८।४।६०। इति परसवर्णः। क्षुदं क्षुद्रत्वं लाकयन्ति प्राप्नुवन्ति ते क्षुल्लकाः। सूक्ष्माकाराः क्षुद्रजन्तवः। अन्यद् व्याख्यातम् ॥

०६ प्र ते

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प्र ते॑ शृणामि॒ शृङ्गे॒ याभ्यां॑ वितुदा॒यसि॑।
भि॒नद्मि॑ ते कु॒षुम्भं॒ यस्ते॑ विष॒धानः॑ ॥

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Whitney
Translation
  1. I crush up (pra-śṛ) thy (two) horns, with which thou thrustest; I
    split thy receptacle (?), which is thy poison-holder.
Notes

The decided majority, both of our mss. and of SPP’s, give in c
kuṣúmbham, which is accordingly accepted in both editions; other
sporadic readings are kuṁṣúṁbham, kuṣábham, kaśábham, kuṣúbham,
kuṣámbham;
and two of SPP’s mss. give ṣukumbham, nearly agreeing with
the ṣukambham of the comm. Our P.M.E. have vinud- in b. Ppp’s
version is as follows: pa te śśṛṇāmi śṛn̄ge yābhyāyattaṁ vitadāyasi:
atho bhinadmi taṁ kumbhaṁ yasmin te nihataṁ viṣaṁ
, which in c is
better than our text, and is supported by the MB. (ii. 7. 3) form of
c, d: athāi ’ṣām bhinnakaḥ kumbho ya eṣāṁ viṣadhānakaḥ. The
metrical definition of the verse (7 + 7: 7 + 6 = 27) given by the Anukr.
is only mechanically correct.

Griffith

I break in pieces both thy horns wherewith thou pushest here and there: I cleave and rend the bag which holds the venom which is* stored in thee.

पदपाठः

प्र। ते॒। शृ॒णा॒मि॒। शृङ्गे॒ इति॑। याभ्या॑म्। वि॒ऽतु॒दा॒यसि॑। भि॒नद्मि॑। ते॒। कु॒षुम्भ॑म्। यः। ते॒। वि॒ष॒ऽधानः॑। ३२.६।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आदित्यगणः
  • काण्वः
  • चतुष्पान्निचृदुष्णिक्
  • कृमिनाशक सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

कीड़ों के समान दोषों का नाश करे, इसका उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (ते) तेरे (शृङ्गे) दो सीङ्गों को (प्र+शृणामि) मैं तोड़े डालता हूँ, (याभ्याम्) जिन दोनों से (वितुदायसि) तू सब ओर टक्कर मारता है। (ते) तेरे (कुषुम्भम्) जलपात्र को (भिनद्मि) तोड़ता हूँ (यः) जो (ते) तेरे (विषधानः) विष की थैली है ॥६॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे दुष्ट वृषभ अपने सींगों से अन्य जीवों को सताता है, इसी प्रकार जो क्षुद्र क्रिमियों के समान आत्मदोष दिन-रात कष्ट देते हैं, उनको और उनके कारणों को खोजकर नष्ट करना चाहिये ॥६॥ (कुषुम्भम्) के स्थान पर सायणभाष्य में (षुकम्भम्) पद है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ६–ते। तव। शृणामि। भिनद्मि। शृङ्गे। शृणातेर्हस्वश्च। उ० १।१२६। इति शॄ हिंसायाम्–गन्, धातोर्ह्रस्वत्वं कित्वं नुट् च प्रत्ययस्य। शृङ्गं श्रयतेर्वा शृणातेर्वा शम्नातेर्वा शरणायोद्गतमिति वा शिरसो निर्गतमिति वा–निरु० २।७। द्वे विषाणे। वि–तुदायसि। तुद व्यथने–शस्य शायजादेशः। विशेषेण तुदसि। व्यथयसे। भिनद्मि। भिदिर् विदारणे। विदारयामि। कुषुम्भम्। कुसेरुम्भोमेदेताः। उ० ४।१०६। इति कुष निष्कर्षे, वा, कुस श्लेषे–उम्भ प्रत्ययः। सकारषकारयोरेकत्वम्। कुसुम्भः=कमण्डलुः जलपात्रम्। शरीरे जलनाडीविशेषम्। विषधानः। करणाधिकरणयोश्च। पा० ३।३।११७। इति विष+डुधाञ् धारणपोषणयोः–अधिकरणे ल्युट्। विषं धीयतेऽत्र। विषस्थानम् ॥