०३१ क्रिमिजम्भनम् ...{Loading}...
Whitney subject
- Against worms.
VH anukramaṇī
क्रिमिजम्भनम्।
१-५ कण्वः। मही, चन्द्रमाः। अनुष्टुप्, २, ४ उपरिष्टाद्विराड्बृहती, ३, ५ आर्षी त्रिष्टुप्।
Whitney anukramaṇī
[Kāṇva.—mahīdevatyam uta cāndram. ānuṣṭubham: 2. upariṣṭāvirāḍbṛhatī; 3. ārṣī triṣṭubh; 4. prāguktā bṛhatī; j. prāguktā triṣṭubh.]
Whitney
Comment
Found also in Pāipp. ii. Used by Kāuś. (27. 14 ff.) in an extended healing rite against worms; the detail of the ceremonial has nothing to do with that of the hymn, and does not illustrate the latter.
Translations
Translated: Kuhn, KZ. xiii. 135 ff.; Weber, xiii. 199; Ludwig, p. 323; Grill, 6, 98; Griffith, i. 71; Bloomfield, 22, 313.—Cf. Zimmer, pp. 98, 393; Mannhardt, Der Baumkultus der Germanen, p. 12 ff.; K. Müllenhoff, Denkmäler deutscher Poesie aus dem 8. bis 12. Jahrhundert 3, i. 17, 181; and especially the old Germanic analogues adduced by Kuhn, l.c. Griffith cites Harper’s Magazine, June, 1893, p. 106, for modern usages in vogue near Quebec.
Griffith
A charm against all sorts of worms
०१ इन्द्रस्य या
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इन्द्र॑स्य॒ या म॒ही दृ॒षत्क्रिमे॒र्विश्व॑स्य॒ तर्ह॑णी।
तया॑ पिनष्मि॒ सं क्रिमी॑न्दृ॒षदा॒ खल्वाँ॑ इव ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इन्द्र॑स्य॒ या म॒ही दृ॒षत्क्रिमे॒र्विश्व॑स्य॒ तर्ह॑णी।
तया॑ पिनष्मि॒ सं क्रिमी॑न्दृ॒षदा॒ खल्वाँ॑ इव ॥
०१ इन्द्रस्य या ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The great mill-stone that is Indra’s, bruiser (tárhaṇa) of every
worm—with that I mash (piṣ) together the worms, as khálva-grains
with a mill-stone.
Notes
Our mss. and those of SPP., as well as Ppp., vary, in this hymn and
elsewhere, quite indiscriminately between krími and kṛ́mi, so that it
is not at all worth while to report the details; SPP. agrees with us in
printing everywhere krími. Two of our mss. (O. Op.), with one of
SPP’s, read dhṛṣát in a. Ppp. gives at the end khalvān̄ iva. The
comm. explains krimīn by śarīrāntargatān sarvān kṣudrajantūn.
Griffith
With Indra’s mighty millstone, that which crushes worms of every sort, I bray and bruise the worms to bits like vetches on the grinding stone.
पदपाठः
इन्द्र॑स्य। या। म॒ही। दृ॒षत्। क्रिमेः॑। विश्व॑स्य। तर्ह॑णी। तया॑। पि॒न॒ष्मि॒। सम्। क्रिमी॑न्। दृ॒षदा॑। खल्वा॑न्ऽइव। ३१.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- मही अथवा चन्द्रमाः
- काण्वः
- अनुष्टुप्
- कृमिजम्भन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
छोटे-छोटे दोषों का भी नाश करे।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रस्य) बड़े ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर की (या) जो (मही) विशाल [सर्वव्यापिनी विद्यारूप] (दृषत्) शिला (विश्वस्य) प्रत्येक (क्रिमेः) क्रिमि (कीड़े) की (तर्हणी) नाश करनेवाली है, (तया) उससे (क्रिमीन्) सब क्रिमियों को (सम्) यथानियम (पिनष्मि) पीस डालूँ, (इव) जैसे (दृषदा) शिला से (खल्वान्) चनों को [पीसते हैं] ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परमेश्वर अपनी अटूट न्यायव्यवस्था से प्रत्येक दुराचारी को दण्ड देता है, इस प्रकार मनुष्य अपने छोटे-छोटे दोषों का नाश करे। क्योंकि छोटे-छोटों से ही बड़े-बड़े दोष उत्पन्न होकर अन्त में बड़ी हानि पहुँचाते हैं। जैसे कि शिर वा उदर में छोटे-छोटे कीड़े उत्पन्न होकर बड़ी व्याकुलता और रोग के कारण होते हैं ॥१॥ इस सूक्त में क्रिमियों के उदाहरण से क्षुद्र दोषों के नाश का उपदेश है ॥ इस सूक्त और आगामी सूक्त का मिलान अथर्ववेद का० ५ सूक्त २३ से कीजिये ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १–इन्द्रस्य। परमैश्वर्यवतः परमात्मनः। मही। मह पूजायाम्–अच्। षिद्गौरादिभ्यश्च। पा० ४।१।४१। इति ङीष्। मह्यते मही। महती। विशाला। दृषत्। दृणातेः षुग्घ्रस्वश्च। उ० १।१३१। इति दृ विदारे–अदि प्रत्यये–धातोः षुग् ह्रस्वश्च। दीर्यते यया। शिला। क्रिमेः। क्रमितमिशतिस्तम्भामत इच्च। उ० ४।१२२। इति क्रमु पादविक्षेपे–इन्, कित्, अत इत्। कृमेः। क्षुद्रजन्तोः कीटस्य। विश्वस्य। सर्वस्य। प्रत्येकस्य। तर्हणी। तृह हिंसे–करणे ल्युट्। ङीप्। हन्त्री। पिनष्मि। पिष्लृ संचूर्णे। संचूर्णयामि। क्रिमीन्। कीटान्। दृषदा। शिलया। खल्वान्। सर्वनिघृष्व०। उ० १।१५३। इति खल संचये–वन्। चणकान्–इति सायणः ॥
०२ दृष्टमदृष्टमतृहमथो कुरूरुमतृहम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
दृ॒ष्टम॒दृष्ट॑मतृह॒मथो॑ कु॒रूरु॑मतृहम्।
अ॒ल्गण्डू॒न्त्सर्वा॑न्छ॒लुना॒न्क्रिमी॒न्वच॑सा जम्भयामसि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
दृ॒ष्टम॒दृष्ट॑मतृह॒मथो॑ कु॒रूरु॑मतृहम्।
अ॒ल्गण्डू॒न्त्सर्वा॑न्छ॒लुना॒न्क्रिमी॒न्वच॑सा जम्भयामसि ॥
०२ दृष्टमदृष्टमतृहमथो कुरूरुमतृहम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The seen, the unseen one have I bruised, also the kurū́ru have I
bruised; all the algáṇḍus, the śalúnas, the worms we grind up with
our spell (vácas).
Notes
The distinction of -lga- and -lā- in the manuscripts is very
imperfect; I had noted only one of our mss. as apparently having
algáṇḍūn, here and in the next verse; but SPP. gives this as found in
all his authorities, including oral ones; and the comm. presents it, and
even also Ppp.; so that it is beyond all question the true reading. The
comm. explains it here as etannāmnaḥ krimiviśeṣān, but in vs. 3 as
śoṇitamāṅsadūṣakāñ jantūm—which last is plainly nothing more than a
guess. Instead of kurū́rum in b, he reads kurīram, with three of
SPP’s mss., and Ppp.; other mss. differ as to their distribution of u
and ū in the syllables of the word, and two of ours (Op. Kp.) give
kurū́ram. Two of SPP’s authorities give várcasā in d. Ppp.
further has adraham for atṛham both times, and śalūlān in c.
The omission of krímīn in d would ease both sense and meter. ⌊As
to sarvāṅ ch-, cf. iii. 11. 5, iv. 8. 3, and Prāt. ii. 17, note.⌋
Griffith
The Seen and the Invisible, and the Kururu have I crushed: Alandus, and all Chhalunas, we bruise to pieces with our spell.
पदपाठः
दृ॒ष्टम्। अ॒दृष्ट॑म्। अ॒तृ॒ह॒म्। अथो॒ इति॑। कु॒रूरु॑म्। अ॒तृ॒ह॒म्। अ॒ल्गण्डू॑न्। सर्वा॑न्। श॒लुना॑न्। क्रिमी॑न्। वच॑सा। ज॒म्भ॒या॒म॒सि॒। ३१.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- मही अथवा चन्द्रमाः
- काण्वः
- उपरिष्टाद्विराड्बृहती
- कृमिजम्भन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
छोटे-छोटे दोषों का भी नाश करे।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (दृष्टम्) दीखते हुए और (अदृष्टम्) न दीखते हुए [क्रिमिगण] को (अतृहम्) मैंने नष्ट कर दिया है, (अथो) और भी (कुरूरुम्) भूमि पर रेंगनेवाले, वा बुरे प्रकार से सताने वा भिन-भिनानेवाले को (अतृहम्) मैंने नष्ट कर दिया है। (सर्वान्) सब (अल्गण्डून्) उपधानों [तकियों] में भरे हुए, (शलुनान्) वेग-वेग से चलनेवाले (क्रिमीन्) कीड़ों को (वचसा) वचन से (जम्भयामसि=०–मः) हम मार डालें ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - १–जैसे मनुष्य बड़े और छोटे क्षुद्र जन्तुओं को, जो अशुद्धि, मलिनता आदि से उत्पन्न होकर बड़े-बड़े रोगों के कारण होते हैं, मार डालते हैं, इसी प्रकार अपने छोटे-छोटे दोषों का शीघ्र ही नाश करना चाहिये ॥२॥ २–(वचसा जम्भयामसि) वचन से हम मार डालें। इसका यह अभिप्राय है कि १–वचनमात्र से अर्थात् शीघ्र ही, २–ओषधि, शौच आदि के हित उपदेश से, ३–शब्द, गायत्री आदि मन्त्र के जप से, ४–रोचक कथा, लोरी वा गीत आदि के सुनाने से चित्त को शान्ति और शान्ति से कुरोग और कुवासनाओं का नाश होता है ॥ टिप्पणी–(कुरूरुम्) के स्थान पर सायणभाष्य में [कुरीरम्] और (शलुनान्) के स्थान पर (शल्गान्) है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २–दृष्टम्। दृष्टिगोचरम्। स्थूलशरीरयुक्तम्। अदृष्टम्। अगोचरम्। सूक्ष्मकायम्। अस्माकं शरीरान्तः स्थितं वा। अतृहम्। तृह हिंसायाम्–छन्दसि लुङि च्लेरङ्। नाशितवानस्मि। अथो। अथ+उ। अपि च। कुरूरुम्। कु–रुरुम्। कु शब्दे, आर्त्तस्वरे–डु। कवन्ते शब्दयन्ति प्राणिनो यत्र सा कुः पृथिवी। कुवन्ते आर्त्तस्वरं कुर्वन्ति यस्मात् कु पापम्, कुत्सा। रुशातिभ्यां क्रुन्। उ० ४।१०३। इति रुङ् गतौ वधे, वा रु ध्वनौ–क्रुन्। छान्दसो दीर्घः। कौ भूमौ रवते गच्छतीति कुरुरुः। यद्वा, कुत्सितं रवते हिनस्ति, वा रौति ध्वनयतीति कुरुरुः। भूमिगन्तारम्। कुहिंसकम्। कुत्सितध्वनियुक्तं कीटम्। अल्गण्डून्। अल्–गण्डून्। अल पर्याप्तौ–क्विप्। भृमृशीङ्०। उ० १।७। इति गडि कपोलविषयक्रियायाम्–उ। गण्डयते शिरोभागः स्थाप्यतेऽत्रेति गण्डुः। उपधानम्। अलन्ति पर्याप्ता भवन्ति गण्डुषु, उपधानेषु ये तान्। सर्वान्। निःशेषान्। शलुनान्। कॄवृदारिभ्य उनन्। उ० ३।५३। इति शल वेगे–उनन्। शीघ्रगतीन्। क्रिमीन्। म० १। कीटान्। वचसा। वच कथने–असुन्। वचनेन। कथनेन। वचनमात्रेण, अतिशीघ्रम्। ओषधिशौचादिहितकथनेन–ओ३म्, गायत्र्यादिजपेन–रोचककथा–निद्रागीतादिवर्णनेन–इत्येवमर्थाः। जम्भयामसि। जभि नाशे, नाशने च। रधिजभोरचि। पा० ७।१।६१। इति नुम्। जम्भयामः। नाशयामः ॥
०३ अल्गण्डून्हन्मि महता
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॒ल्गण्डू॑न्हन्मि मह॒ता व॒धेन॑ दू॒ना अदू॑ना अर॒सा अ॑भूवन्।
शि॒ष्टानशि॑ष्टा॒न्नि ति॑रामि वा॒चा यथा॒ क्रिमी॑णां॒ नकि॑रु॒च्छिषा॑तै ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॒ल्गण्डू॑न्हन्मि मह॒ता व॒धेन॑ दू॒ना अदू॑ना अर॒सा अ॑भूवन्।
शि॒ष्टानशि॑ष्टा॒न्नि ति॑रामि वा॒चा यथा॒ क्रिमी॑णां॒ नकि॑रु॒च्छिषा॑तै ॥
०३ अल्गण्डून्हन्मि महता ...{Loading}...
Whitney
Translation
- I smite the algáṇḍus with a great deadly weapon; burnt [or]
unburnt, they have become sapless; those left [or] not left I draw
down by my spell (vā́c), that no one of the worms be left.
Notes
It seems hardly possible to avoid amending at the end to uchiṣyā́tāi,
passive. Ppp. reads in b dunāddunā, and its last half-verse is
defaced.
Griffith
I kill Alandus with a mighty weapon: burnt or not burnt they now have lost their vigour . Left or not left, I with the spell subdue them: let not a single worm remain uninjured.
पदपाठः
अ॒ल्गण्डू॑न्। ह॒न्मि॒। म॒ह॒ता। व॒धेन॑। दू॒नाः। अदू॑नाः। अ॒र॒साः। अ॒भू॒व॒न्। शि॒ष्टान्। अशि॑ष्टान्। नि। ति॒रा॒मि॒। वा॒चा। यथा॑। क्रिमी॑णाम्। नकिः॑। उ॒त्ऽशिषा॑तै। ३१.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- मही अथवा चन्द्रमाः
- काण्वः
- आर्षी त्रिष्टुप्
- कृमिजम्भन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
छोटे-छोटे दोषों का भी नाश करे।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अल्गण्डून्) उपधानों [तकियों में] भरे हुए जन्तुओं को (महता) बड़ी (वधेन) चोट से (हन्मि) मैं मारता हूँ। (दूनाः) तपे हुए और (अदूनाः) बिना तपे हुए [पक्के और कच्चे कीड़े] (अरसाः) नीरस [निर्बल] (अभूवन्) हो गये हैं। (शिष्टान्) बचे हुए (अशिष्टान्) दुष्टों को (वाचा) वचन से (नि) नीचे डालकर (तिरामि) मार डालूँ, (यथा) जिससे (क्रिमीणाम्) कीड़ों में से (नकिः) कोई भी न (उच्छिषातै) बचा रहे ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मन्त्र १ और २ के समान है ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३–अल्गण्डून्। म० २। उपधानेषु पूर्णान्। हन्मि। नष्टीकरोमि। महता। अ० १।१०।४। प्रभूतेन। वधेन। हनश्च वधः। पा० ३।३।७६। इति हन–अप्, वधादेशः। हननसाधनेन। प्रहारेण। दूनाः। ल्वादिभ्यः। पा० ८।२।४४। अत्र वार्त्तिकम्। दुग्वोर्दीर्घश्च। इति दु गतौ–क्त। अथवा। ओदितश्च। पा० ८।२।४५। इति ओदूङ् खेदे उपतापे–क्त। तस्य नः। खेदिताः। परितप्ताः। अदूनाः। अखेदिताः। अतप्ताः। अरसाः। शुष्काः। निर्बलाः। शिष्टान्। शिष असर्वोपयोगे–क्त। अवशिष्टान्। शेषान्। अशिष्टान्। शासु शासने–क्त। शास इदङ्हलोः। आ० ६।४।३४। इति इकारः। शासिवसिघसीनां च। पा० ८।३।६०। इति सस्य षः। शिष्टविरोधिनः। दुष्टान्। नि+तिरामि। निपूर्वस्तिरतिर्हिंसने। निहन्मि। वाचा। वचसा म० २। क्रिमीणाम्। कीटानां मध्ये। नकिः। न कश्चिदपि। उच्छिषातै। शिष्लृ विशेषणे लेटि आडागमः। छन्दसि आत्मनेपदम्। टेरेत्वे कृते। वैतोऽन्यत्र। पा० ३।३।९६। इति ऐत्वम्। उच्छिष्यात् ॥
०४ अन्वान्त्र्यं शीर्षण्य१मथो
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अन्वा॑न्त्र्यं॒ शीर्ष॒ण्य॑१मथो॒ पार्ष्टे॑यं॒ क्रिमी॑न्।
अ॑वस्क॒वं व्य॑ध्व॒रं क्रिमी॒न्वच॑सा जम्भयामसि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अन्वा॑न्त्र्यं॒ शीर्ष॒ण्य॑१मथो॒ पार्ष्टे॑यं॒ क्रिमी॑न्।
अ॑वस्क॒वं व्य॑ध्व॒रं क्रिमी॒न्वच॑सा जम्भयामसि ॥
०४ अन्वान्त्र्यं शीर्षण्य१मथो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The one along the entrails, the one in the head, likewise the worm in
the ribs, the avaskavá, the vyadhvará—the worms we grind up with our
spell (vácas).
Notes
The comm., and two of SPP’s mss., read in b pā́rṣṇeyam ‘in the
heel’; and SPP. admits into his text after it krímīn, against the
great majority of his mss. and against the comm.; none of ours have it,
but three (O. Op. Kp.) give krímīm, which looks like an abortive
attempt at it. For vyadhvaram in c, Ppp. has yaraṁ; all the mss.
have vyadhvarám; unless it is to be emended to vyadvarám (cf. vi.
50. 3, note), it must probably be derived from vyadh ‘pierce’; but the
pada-reading vi॰adhvarám points rather to vi-adhvan; the comm.
takes it from the latter, and also, alternatively, from vi and
a-dhvara; avaskavá is, according to him, avāggamanasvabhava; it
seems rather to come from √sku ’tear.’ The expression prāgukta ‘as
heretofore defined’ is not used elsewhere in the Anukr.; it is used by
abbreviation for upariṣṭādvirāḍ (vs. 2); but why the two verses were
not defined together, to make repetition needless, does not appear. ⌊in
d, again, krímīn is a palpable intrusion.⌋
Griffith
The worm that lives within the ribs, within the bowels, in the head. Avaskava and Borer, these we bruise to pieces with the spell.
पदपाठः
अनु॑ऽआन्त्र्यम्। शी॒र्ष॒ण्य॑म्। अथो॒ इति॑। पार्ष्टे॑यम्। क्रिमी॑न्। अ॒व॒स्क॒वम्। वि॒ऽअ॒ध्व॒रम्। क्रिमी॑न्। वच॑सा। ज॒म्भ॒या॒म॒सि॒। ३१.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- मही अथवा चन्द्रमाः
- काण्वः
- उपरिष्टाद्विराड्बृहती
- कृमिजम्भन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
छोटे-छोटे दोषों का भी नाश करे।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अन्वान्त्र्यम्) आँतों में के (शीर्षण्यम्) शिर पर वा शिर में के (अथो=अथ–उ) और भी (पार्ष्टेयम्) पसलियों में के (क्रिमीन्) इन सब कीड़ों को, (अवस्कवम्) नीचे-नीचे रेंगनेवाले [जैसे दद्रु क्रिमि] और (व्यध्वरम्) छेद करनेवाले वा पीड़ा देनेवाले, वा यज्ञ के विरोधी (क्रिमीन्) इन सब कीड़ों को (वचसा) बात मात्र से (जम्भयामसि=०–मः) हम नाश करें ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मन्त्र १ और २ के समान है ॥४॥ सायणभाष्य में (पार्ष्टेयम्) के स्थान पर [पार्ष्णेयम्] है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४–अन्वान्त्र्यम्। भ्रस्जिगमिनमिहनिविश्यशां वृद्धिश्च। उ० ४।१६०। इति अम गतौ, यद्वा, अति बन्धने–ष्ट्रन्, धातोर्वृद्धिश्च। अन्त्यते बध्यते देहोऽनेनेति आन्त्रं देहबन्धको नाडीभेदः। शरीरावयवाच्च। पा० ४।३।५५। इति भवे यत्। अनुक्रमेण आन्त्रेषु भवम्। शीर्षण्यम्। शरीरावयवाच्च पा० ४।३।५५। इति शिरस्–यत्। ये च तद्धिते। पा० ६।१।६१। इति शीर्षन् आदेशः। शिरसि भवम्। पार्ष्टेयम्। क्तिच्क्तौ च संज्ञायाम्। पा० ३।३।१७४। इति पृषु सेके–क्तिच्। इति पृष्टिः–अ० २।७।५। ततो ढञ्। आयनेयीनीयियः०। पा० ७।१।२। इति ढस्य एयादेशः। पृष्टिषु पार्श्वावयवेषु–भवम्। अवस्कवम्। अव+स्कुञ् आप्लावनेकूदना–पचाद्यच्। अवाग्गमनस्वभावम्। अन्तरन्तः प्रविश्य वर्त्तमानम्। व्यध्वरम्। उपसर्गादध्वनः। पा० ५।४।८५। इति वि+अध्वन्–अच् प्रत्ययः, प्रादिसमासः। रो मत्वर्थीयः। विरुद्धमार्गयुक्तम्। कुपथगामिनम्। स्थेशभासपिसकसो वरच्। पा० ३।२।१७५। इति व्यध ताडने–वरच्। चितः। पा० ६।१।१६३। इति चिति प्रत्यये अन्त उदात्तः। व्याधम्। ताडकम्। पीडकम्। अथवा। ध्वरति=हन्ति–निघ० ३।१७। पुंसि संज्ञायां घः प्रायेण। पा० ३।३।११८। इति घ। वि विरोधे+ अध्वरा, अहिंसा। अहिंसाविरोधिनम्। हिंसावर्धकम्। शरीरमांसभक्षकम्। अयं शब्दः सर्वत्रान्तोदात्तः। अन्यद् व्याख्यातं म० २ ॥
०५ ये क्रिमयः
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ये क्रिम॑यः॒ पर्व॑तेषु॒ वने॒ष्वोष॑धीषु प॒शुष्व॒प्स्व॑१न्तः।
ये अ॒स्माकं॑ त॒न्व॑माविवि॒शुः सर्वं॒ तद्ध॑न्मि॒ जनि॑म॒ क्रिमी॑णाम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
ये क्रिम॑यः॒ पर्व॑तेषु॒ वने॒ष्वोष॑धीषु प॒शुष्व॒प्स्व॑१न्तः।
ये अ॒स्माकं॑ त॒न्व॑माविवि॒शुः सर्वं॒ तद्ध॑न्मि॒ जनि॑म॒ क्रिमी॑णाम् ॥
०५ ये क्रिमयः ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The worms that are in the mountains, in the woods, in the herbs, in
the cattle, within the waters, that have entered our selves
(tanū́)—that whole generation (jåniman) of worms I smite.
Notes
Two of SPP’s mss. agree with the comm. in reading té for yé at
beginning of c; and the comm. has further tanvas for tanvam.
Ppp. inserts ye before vaneṣu, and ye (with an avasāna before
it) also before oṣadhīṣu; for second half-verse it gives ye ‘smākaṁ
tanno (i.e. tanvo) sthāma cakrir (i.e. cakrur or cakrire)
indras tān hantu mahatā vadhena. Prāguktā in the Anukr. apparently
repeats this time the superfluous ārṣī of vs. 3.
The anuvāka ⌊5.⌋ has 5 hymns and 29 verses, and the extract from the
old Anukr. says tato ‘parātāi or ‘parānte.
Griffith
Worms that are found on mountains, in the forests, that live in plants, in cattle, in the waters, Those that have made their way within our bodies,–these I destroy, the worms’ whole generation.
पदपाठः
ये क्रिम॑यः। पर्व॑तेषु। वने॑षु। ओष॑धीषु। प॒शुषु॑। अ॒प्ऽसु। अ॒न्तः। ये। अ॒स्माक॑म्। त॒न्व᳡म्। आ॒ऽवि॒वि॒शुः। सर्व॑म्। तत्। ह॒न्मि॒। जनि॑म। क्रिमी॑णाम्। ३१.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- मही अथवा चन्द्रमाः
- काण्वः
- आर्षी त्रिष्टुप्
- कृमिजम्भन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
छोटे-छोटे दोषों का भी नाश करे।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो (क्रिमयः) कीड़े (पर्वतेषु) पहाड़ों में, (वनेषु) वनों में, (ओषधीषु) अन्न आदि ओषधियों में, (पशुषु) गौ आदि पशुओं में और (अप्सु) जल में (अन्तः) भीतर हैं। और (ये) जो (अस्माकम्) हमारे (तन्वम्) शरीर में (आविविशुः) प्रविष्ट हो गये हैं, (क्रिमीणाम्) क्रिमियों के (तत्) उस (सर्वम्) सब (जनिम) जन्म को (हन्मि) मैं नाश करूँ ॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को उचित है कि सब स्थानों, सब वस्तुओं और अपने शरीरों को शुद्ध रक्खें कि छोटे-बड़े कोई जन्तु क्लेश न देवें, ऐसे ही सब पुरुष आत्मशुद्धि करके अपने भीतरी बाहिरी, छोटे-बड़े दोषों को मिटाकर आनन्द से रहें ॥५॥ सायणभाष्य में (ये) के स्थान में [ते] और (तन्वम्) के स्थान में [तन्वः] है ॥ इति पञ्चमोऽनुवाकः ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५–क्रिमयः। म० १। क्षुद्रजन्तवः। पर्वतेषु। भृमृदृशियजिपर्वि०। उ० ३।११०। इति पर्व पूरणे–अतच्। पर्वति पूरयति भूमिमिति। शैलेषु। वनेषु। पुंसि संज्ञायां घः प्रायेण। पा० ३।३।११८। इति वन सम्भक्तौ–घः। वन्यते सेव्यते वृक्षैः। बहुवृक्षयुक्तस्थानेषु। अरण्येषु। ओषधीषु। पशुषु। अप्सु। अन्तः। व्याख्यातानि–अ० १।३०।३। ओषधीषु। धान्यादिषु। पशुषु। गवादिषु। सर्वजीवेषु। अप्सु। जलेषु। अन्तः। मध्ये। तन्वम्। अ० १।१।१। शरीरम्। आ–विविशुः। विश प्रवेशे–लिट्। प्रविष्टाः। सर्वम्। प्रत्येकम्। तत्। पूर्वोक्तम्। हन्मि। नाशयामि। जनिम। अ० १।८।४। उत्पत्तिकारणम्। क्रिमीणाम्। कृमीणाम्। कीटानाम् ॥