०२८ दीर्घायुःप्राप्तिः ...{Loading}...
Whitney subject
- For long life for a certain person (child?).
VH anukramaṇī
दीर्घायुःप्राप्तिः।
१-५ शम्भुः। १, ३ जरिमा, आयुः, २ मित्रावरुणौ, ३-५ द्यावापृथिव्यादयो देवाः। त्रिष्टुप्, १जगती, ५ भुरिक्।
Whitney anukramaṇī
[śambhū.—jarimāyurdāivatam. trāiṣṭubham: 1. jagatī; 5. bhurij.]
Whitney
Comment
Found in Pāipp. (vss. 1-4 in i.; vs. 5 in xv.). Used by Kāuś. in the godāna ceremony (54. 13), as the parents pass the boy three times back and forth between them and make him eat balls of ghee; and the same is done in the cūḍā or cāula (hair-cutting) ceremony (54. 16, note); the schol. also reckon it to the āyuṣya gaṇa (54. 11, note).
Translations
Translated: Weber, xiii. 192; Grill, 48, 94; Griffith, i. 67; Bloomfield, 50, 306.
Griffith
A prayer for a boy’s long and happy life
०१ तुभ्यमेव जरिमन्वर्धतामयम्मेममन्ये
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
तुभ्य॑मे॒व ज॑रिमन्वर्धताम॒यम्मेमम॒न्ये मृ॒त्यवो॑ हिंसिषुः श॒तं ये।
मा॒तेव॑ पु॒त्रं प्रम॑ना उ॒पस्थे॑ मि॒त्र ए॑नं मि॒त्रिया॑त्पा॒त्वंह॑सः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
तुभ्य॑मे॒व ज॑रिमन्वर्धताम॒यम्मेमम॒न्ये मृ॒त्यवो॑ हिंसिषुः श॒तं ये।
मा॒तेव॑ पु॒त्रं प्रम॑ना उ॒पस्थे॑ मि॒त्र ए॑नं मि॒त्रिया॑त्पा॒त्वंह॑सः ॥
०१ तुभ्यमेव जरिमन्वर्धतामयम्मेममन्ये ...{Loading}...
Whitney
Translation
- For just thee, O old age, let this one grow; let not the other
deaths, that are a hundred, harm him; as a forethoughtful mother in her
lap a son, let Mitra protect him from distress that comes from a friend
(mitríya).
Notes
Ppp. has in b tvat for śataṁ ye, and combines in d mitre
’nam. The omission of either imám or anyé would rectify the meter
of b. The comm. most foolishly takes jariman first from jṛ
‘sing,’ and explains it as he stūyamāna agne! then adding the true
etymology and sense. The “jagatī” is quite irregular: 12 + 13: 11 + 12 =
48. ⌊Bloomfield cites an admirable parallel from RV. iv. 55. 5; but in
his version he has quite overlooked the verb-accent.⌋
Griffith
This Child, Old Age! shall grow to meet thee only: none of the hundred other deaths shall harm him. From trouble caused by friends let Mitra guard him, as a kind mother guards the son she nurses.
पदपाठः
तुभ्य॑म्। ए॒व। ज॒रि॒म॒न्। व॒र्ध॒ता॒म्। अ॒यम्। मा। इ॒मम्। अ॒न्ये। मृ॒त्यवः॑। हिं॒सि॒षुः॒। श॒तम्। ये। मा॒ताऽइ॑व। पु॒त्रम्। प्रऽम॑नाः। उ॒पऽस्थे॑। मि॒त्रः। ए॒न॒म्। मि॒त्रिया॑त्। पा॒तु॒। अंह॑सः। २८.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- जरिमा, आयुः
- शम्भुः
- जगती
- दीर्घायु प्राप्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
बुद्धि से विवाद करे, इसका उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (जरिमन्) हे स्तुतियोग्य परमेश्वर ! (तुभ्यम्) तेरे [शासन मानने के] लिये (एव) ही (अयम्) यह पुरुष (वर्धताम्) बढ़े, (ये) जो (अन्ये) दूसरे (शतम्) सौ (मृत्यवः) मृत्यु हैं, [वे] (इमम्) इस पुरुष को (मा हिंसिषुः) न मारें। (प्रमनाः) प्रसन्नमन (माता इव) माता जैसे (पुत्रम्) कुलशोधक पुत्र को (उपस्थे) गोद में [पालती है, वैसे ही] (मित्रः) मृत्यु से बचानेवाला, वा बड़ा स्नेही परमेश्वर (एनम्) इस पुरुष को (मित्रियात्) मित्रसंबन्धी (अंहसः) पाप से (पातु) बचावे ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य अपने जीवन को सदैव ईश्वर की आज्ञापालन अर्थात् शुभ कर्म करने में बितावे और प्रयत्न करे कि उसका मृत्यु निन्दनीय कामों में कभी न हो और न उसके मित्रों में फूट पड़े और न वे दुष्कर्मी हों और न कोई दुष्ट पुरुष अपने मित्रों को सता सके। जैसे प्रसन्नचित्त विदुषी माता की गोद में बालक निर्भय क्रीड़ा करता है, वैसे ही वह नीतिज्ञ पुरुष परमेश्वर की शरण पाकर अपने भाई-बन्धुओं के बीच सुरक्षित रहकर आनन्द भोगे ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १–तुभ्यम्। त्वदर्थम्। त्वदाज्ञापालनाय। एव। अवश्यम्। जरिमन्। जरास्तुतिर्जरतेः स्तुतिकर्मणः–निरु० १०।८। जनिमृङ्भ्यामिमनिन्। उ० ४।१४९। इति जरतेः स्तुतिकर्मणः–कर्मणि इमनिन्। हे स्तुत्य। स्तूयमान परमेश्वर ! वर्धताम्। वृद्धिं समृद्धिं प्राप्नोतु। अयम्। निर्दिष्टः शरीरस्थो जीवः। एनम्। निर्दिष्टं जीवम्। अन्ये। स्तुत्यकर्मभ्यो भिन्नाः। मृत्यवः। अ० १।३०।३। मरणानि। मा हिंसिषुः। मा वधिषुः। मा हिंसन्तु। शतम्। असंख्याताः। माता। अ० १।२।१। मान पूजायाम्–तृन्। माननीया जननी। इव। यथा। पुत्रम्। अ० १।११।५। कुलशोधकं सुतम्। प्रमनाः। प्र+मन बोधे–असुन्। प्रसन्नचित्ता। उपस्थे। उप+ष्ठा–क। भुजान्तरे। क्रोडे। मित्रः। अ० १।३।२। मित्रः प्रमीतेस्त्रायते सम्मिन्वानो द्रवतीति वा मेदयतेर्वा–निरु० १०।२१। मरणाद्रक्षकः। सर्वप्रेरकः परमेश्वरः। एनम्। जीवम्। मित्रियात्। समुद्राभ्राद् घः। पा० ४।४।११८। इति बाहुलकात्। मित्र–घ। मित्रसम्बन्धिनः। अंहसः। अ० २।४।३। पापात्। दोषात्। दुःखात् ॥
०२ मित्र एनम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
मि॒त्र ए॑नं॒ वरु॑णो वा रि॒शादा॑ ज॒रामृ॑त्युं कृणुतां संविदा॒नौ।
तद॒ग्निर्होता॑ व॒युना॑नि वि॒द्वान्विश्वा॑ दे॒वानां॒ जनि॑मा विवक्ति ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
मि॒त्र ए॑नं॒ वरु॑णो वा रि॒शादा॑ ज॒रामृ॑त्युं कृणुतां संविदा॒नौ।
तद॒ग्निर्होता॑ व॒युना॑नि वि॒द्वान्विश्वा॑ दे॒वानां॒ जनि॑मा विवक्ति ॥
०२ मित्र एनम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Let Mitra or helpful (? riśā́dās) Varuṇa in concord make him one
that dies of old age; so Agni the offerer (hótar), knowing the ways
(vayúna), bespeaks all the births of the gods.
Notes
All our pada-mss. read in a riśā́dā instead of -dāḥ; SPP.
properly emends to -dāḥ. This wholly obscure word is found
independently only here in AV.; its rendering above is intended only to
avoid leaving a blank; the comm. gives the ordinary etymology, as
hiṅsakānām attā; Grill, emending to ariśādas, brings out an
ingenious but unconvincing parallelism with Gr. ἐρικυδής and, as noticed
by him, Aufrecht also would understand ariśā́das ‘very prominent.’ Ppp.
reads for a mitraś ca tvā varuṇaś ca riṣādāu, and has at the end
of d -māni vakti.
Griffith
Mitra or Varuna the foe-destroyer, accordant, grant him death in course of nature! Thus Agni, Hotar-priest, skilled in high statutes, declareth all the deities’ generations.
पदपाठः
मि॒त्रः। ए॒न॒म्। वरु॑णः। वा॒। रि॒शादाः॑। ज॒राऽमृ॑त्युम्। कृ॒णु॒ता॒म्। स॒म्ऽवि॒दा॒नौ। तत्। अ॒ग्निः। होता॑। व॒युना॑नि। वि॒द्वान्। विश्वा॑। दे॒वाना॑म्। जनि॑मा। वि॒व॒क्ति॒। २८.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- मित्रावरुणौ
- शम्भुः
- त्रिष्टुप्
- दीर्घायु प्राप्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
बुद्धि से विवाद करे, इसका उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (मित्रः) सर्वप्रेरक, काम में लगानेवाला दिन का समय (वा) और (रिशादाः) श्रम का भक्षण करनेवाला (वरुणः) रात्रि का समय (संविदानौ) दोनों मिले हुए (एनम्) इस पुरुष को (जरामृत्युम्=जरा–अमृत्युं जरा–मृत्युं वा) स्तुति के साथ अमर, अथवा, स्तुति वा बुढ़ापे से मृत्युवाला (कृणुताम्) करें। (तत्) इसलिये (होता) महादानी और (वयुनानि) सब व्यवस्थाओं को (विद्वान्) जाननेवाला (एनम्) (अग्निः) अग्नि [तेजस्वी परमेश्वर] (देवानाम्) दिव्य पदार्थों वा महात्माओं के (विश्वा=विश्वानि) सब (जनिमा=०–मानि) जन्मविधानों को (विवक्ति) बतलावे ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य दिन और रात ईश्वर की आज्ञापालन में लगे रहते हैं, वे ही अन्त में यशस्वी होते हैं और सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी परमेश्वर उनके हृदय में सब उत्तम-उत्तम व्यवस्थाओं और नियमों को प्रकट करता जाता है ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २–मित्रः। म० १। मध्यस्थानदेवता–निरु० १०।२१। अहरभिमानी देवः–इति सायणः। दिनकालः। वरुणः। मध्यस्थानदेवता–निरु० १०।३। द्युस्थानदेवता–निरु० १२।२१। रात्र्यभिमानी [देवः–] इति सायणः। रात्रिसमयः। एनम्। जीवम्। वा। चार्थे। रिशादाः। इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा० ३।१।१३५। इति रिश हिंसायाम्–क। अद भक्षणे–असुन्। रिशानां हिंसकानां श्रमाणाम् अत्ता नाशयिता। जरामृत्युम्। अ० २।१३।२। जरया स्तुत्या अमृत्युः अमरणं यस्य तम्। यद्वा। जरया स्तुत्या वृद्धत्वेन वा मृत्युर्मरणं यस्य तम्। यशस्विनम्। कृणुताम्। उभौ कुरुताम्। संविदानौ। समो गम्यृच्छिप्रच्छिस्वरत्यर्तिश्रुविदिभ्यः। पा० १।३।२९। इति संपूर्वाद् वेत्तेरकर्मकात्–आत्मनेपदम्। लटः शानच्। संगच्छमानौ। ऐकमत्यं प्राप्तौ। तत्। तेन कारणेन। अग्निः। अ० १।६।२। व्यापकः सर्वज्ञः परमेश्वरः। होता। अ० १।११।१। हु–तृन्। दाता। आदाता। वयुनानि। अजियमिशीङ्भ्यश्च। उ० ३।६१। इति अज गतौ–उनन्, वीभावः। अथवा। वी गतिकान्तिव्याप्त्यादिषु–उनन्। वयुनं वेतेः कान्तिर्वा प्रज्ञा वा–निरु० ५।१४। ज्ञातव्यानि कर्माणि। विश्वा। विश्वानि। सर्वाणि। जनिमा। जनिमृङ्भ्यामिमनिन्। उ० ४।१४९। इति जन जनी वा–इमनिन्। जनिमानि, जन्मानि। प्रादुर्भावस्थानानि। विवक्ति। वचेः–लेटि शपः श्लुः। बहुलं छन्दसि। पा० ७।४।७८। इत्यभ्यासस्य इकारः। ब्रवीतु। उपदिशतु ॥
०३ त्वमीशिषे पशूनाम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
त्वमी॑शिषे पशू॒नां पार्थि॑वानां॒ ये जा॒ता उ॒त वा॒ ये ज॒नित्राः॑।
मेमं प्रा॒णो हा॑सीन्मो अपा॒नो मेमं मि॒त्रा व॑धिषु॒र्मो अ॒मित्राः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
त्वमी॑शिषे पशू॒नां पार्थि॑वानां॒ ये जा॒ता उ॒त वा॒ ये ज॒नित्राः॑।
मेमं प्रा॒णो हा॑सीन्मो अपा॒नो मेमं मि॒त्रा व॑धिषु॒र्मो अ॒मित्राः॑ ॥
०३ त्वमीशिषे पशूनाम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Thou art master (īś) of earthly cattle, that are born, or also that
are to be born; let not breath leave this one, nor expiration; let not
friends slay (vadh) this one, nor enemies.
Notes
All the mss., and the comm., read at end of b janítrās, which SPP.
accordingly retains, while our text makes the necessary emendation to
jánitvās, which Ppp. also has. Ppp. ⌊omits vā in b;⌋ elides the
initial a of apāno and amitrāḥ after mo; and it puts the verse
after our vs. 4. Pāda b lacks a syllable, unnoticed by the Anukr.
⌊read jātā́sas?⌋.
Griffith
Thou art the Lord of all terrestrial cattle, of cattle born and to be born hereafter. Let not breath drawn or breath emitted fail him. Let not his friends, let not his foemen slay him.
पदपाठः
त्वम्। ई॒शि॒षे॒। प॒शू॒नाम्। पार्थि॑वानाम्। ये। जा॒ताः। उ॒त। वा॒। ये। ज॒नित्राः॑। मा। इ॒मम्। प्रा॒णः। हा॒सी॒त्। मो इति॑। अ॒पा॒नः। मा। इ॒मम्। मि॒त्राः। व॒धि॒षुः॒। मो इति॑। अ॒मित्राः॑। २८.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- जरिमा
- शम्भुः
- त्रिष्टुप्
- दीर्घायु प्राप्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
बुद्धि से विवाद करे, इसका उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे परमेश्वर !] (त्वम्) तू (पार्थिवानाम्) पृथिवी पर के (पशूनाम्) पशुओं [जीवों] का (ईशिषे) स्वामी है, (ये) जो (जाताः) उत्पन्न हो चुके हैं (उत) और (वा) अथवा (ये) जो (जनित्राः) उत्पन्न होंगे। (इमम्) इस पुरुष को (प्राणः) प्राण [बाहिर जानेवाला श्वास] (मा हासीत्) न त्यागे, (मो=मा+उ) और न (अपानः) अपान [भीतर आनेवाला प्रश्वास]। (इमम्) इस पुरुष को (मित्राः) मित्र (मा वधिषुः) न मारें, (मो=मा+उ) और न (अमित्राः) अमित्र [विरोधी अर्थात् वैरी लोग] ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परमेश्वर महा उपकार करके संसार के चर और अचर का शासक और नियन्ता है, इसी प्रकार मनुष्य को उपकारी होकर प्रयत्न करना चाहिये कि उसका स्वयम् आत्मा और अन्य मित्र अथवा शत्रु सब प्रीति से आनन्द बढ़ाते रहें ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३–त्वम्। हे अग्ने, परमेश्वर ! ईशिषे। ईश ऐश्वर्ये। ईशः से। पा० ७।२।७७। इडागमः। ईश्वरोऽधिपतिरसि। पशूनाम्। अ० २।२६।१। द्विपाच्चतुष्पाद्रूपाणां प्राणिनाम्। अधीगर्थदयेशां कर्मणि। पा० २।३।५२। इति षष्ठी। पार्थिवानाम्। दित्यदितीति०। पा० ४।१।८५। अत्र वार्त्तिकम्। पृथिव्या ञाञौ। इति पृथिवी–अञ्। ञित्वाद् आद्युदात्तः। पृथिव्यां भवानाम्। ये। पशवः। जाताः। उत्पन्नाः। उत। अपि। जनित्राः। अशित्रादिभ्य इत्रोत्रौ। उ० ४।१७३। इति जनु जनी–इत्र। जनिष्यमाणाः। उत्पत्स्यमानाः। इमम्। प्राणिनम्। प्राणः। अ० २।१५।१। ऊर्ध्वकायस्थो वायुः। मा हासीत्। ओहाक् त्यागे–लुङ्। न माङ्योगे। पा० ६।४।४। अडभावः। मा त्याक्षीत् मो। मा+उ। मैव। अपानः। अप+अन प्राणने, जीवने–अच्। अपानिति अधो निःसरतीति। अधरकायस्थो वायुः। मित्राः। स्नेहिनः। बान्धवाः। मा वधिषुः। लुङि च। पा० २।७४।४३। इति हन्तेर्वधादेशः। मा हिंसिषुः। अमित्राः। अमेर्द्विषति चित्। उ० ४।१७४। इति अम रोगे, पीडने–इत्रच्। पीडकाः। शत्रवः ॥
०४ द्यौष्ट्वा पिता
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
द्यौष्ट्वा॑ पि॒ता पृ॑थि॒वी मा॒ता ज॒रामृ॑त्युं कृणुतां संविदा॒ने।
यथा॒ जीवा॒ अदि॑तेरु॒पस्थे॑ प्राणापा॒नाभ्यां॑ गुपि॒तः श॒तं हिमाः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
द्यौष्ट्वा॑ पि॒ता पृ॑थि॒वी मा॒ता ज॒रामृ॑त्युं कृणुतां संविदा॒ने।
यथा॒ जीवा॒ अदि॑तेरु॒पस्थे॑ प्राणापा॒नाभ्यां॑ गुपि॒तः श॒तं हिमाः॑ ॥
०४ द्यौष्ट्वा पिता ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Let father heaven, let mother earth, in concord, make thee one that
dies of old age; that thou mayest live in the lap of Aditi, guarded by
breath and expiration, a hundred winters.
Notes
Ppp. reads ṭe for ṭvā in a, and dīrgham āyuḥ for saṁvidāne
in b; also ṛtyā for adites in c. The Anukr. takes no notice
of the irregularity of the meter (9 + 11: 10 + 12 = 42: a poor
triṣṭubh!); the insertion of ca after pṛthivī́ in a, and
emendation to jī́vāsi in c, would be easy rectifications. ⌊In order
to bring the cesura of a in the right place, read dyāúṣ and ṭvā.
each as one syllable and insert a ca also after pitā́. Thus all is
orderly, 11 + 11: 11 + 12. The accent-mark over pṛ- is gone.⌋
Griffith
Let Heaven thy father and let Earth thy mother, accordant, give thee death in course of nature, That thou mayst live on Aditi’s bosom, guarded, a hundred winters, through thy respirations.
पदपाठः
द्यौः। त्वा॒। पि॒ता। पृ॒थि॒वी। मा॒ता। ज॒राऽमृ॑त्युम्। कृ॒णु॒ता॒म्। सं॒वि॒दा॒ने इति॑ स॒म्ऽवि॒दा॒ने। यथा॑। जीवाः॑। अदि॑तेः। उ॒पस्थे॑। प्रा॒णा॒पा॒नाभ्या॑म्। गु॒पि॒तः। श॒तम्। हिमाः॑। २८.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- द्यावापृथिवी, आयुः
- शम्भुः
- त्रिष्टुप्
- दीर्घायु प्राप्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
बुद्धि से विवाद करे, इसका उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (पिता) पिता [के समान रक्षक] (द्यौः) सूर्यलोक और (माता) [के समान प्रीति करनेवाली] (पृथिवी) पृथिवीलोक, (संविदाने) दोनों मिले हुए, (त्वा) तुझको (जरामृत्युम्=जरा–अमृत्युं जरा–मृत्युं वा) स्तुति के साथ अमर, अथवा, स्तुति वा बुढ़ापे से मृत्युवाला (कृणुताम्) करें। (यथा) जिससे (अदितेः) अखण्ड परमेश्वर [अथवा अदीन प्रकृति, वा पृथिवी] की (उपस्थे) गोद में (प्राणापानाभ्याम्) प्राण और अपान से (गुपितः) रक्षा किया हुआ तू (शतम्) सौ (हिमाः) हेमन्त ऋतुओं तक (जीवाः) जीता रहे ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - पुरुषार्थी पुरुष प्रबन्ध रक्खे कि सूर्य का तेज और आकर्षण आदि सामर्थ्य और पृथिवी की अन्न आदि की उत्पादनादि शक्ति और अन्य सब पदार्थ अनुकूल रहें, जैसे माता-पिता सन्तानों पर प्रीति रखते हैं, जिससे वह पुरुष परमेश्वर के अनुग्रह से पृथिवी पर यशस्वी होकर पूर्ण आयु भोगे ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४–द्यौः। अ० २।१२।६। द्योतमानः सूर्यः। त्वा। त्वां प्राणिनम्। पिता। अ० १।२।१। रक्षकः। जनकः। तद्वदुपकारकः। पृथिवी। अ० १।२।१। प्रख्याता भूमिः। माता। अ० १।२।१। मानकर्त्री, जननी। जरामृत्युम्। व्याख्यातं म० २। यशस्विनं कृणुताम्। कुरुताम्। संविदाने। मं० २। ऐक्यमते प्राप्ते। यथा। यस्मात् कारणात्। जीवाः। जीव प्राणधारणे–लेटि आडागमः। त्वं जीवेः। प्राणान् धरेः। अदितेः। कृत्यल्युटो बहुलम्। पा० ३।३।११३। इति दीङ् क्षये, दो अवखण्डने, दाप् लवने–क्तिन्। द्यतिस्यतिमास्थामित्ति किति। पा० ७।४।४०। इति इत्वम्। दीङ् पक्षे ह्रस्वत्वं, नञ्समासः। अदितिः पृथिवी–निघ० १।१। वाक्–निघ० १।११। गौः–निघ० २।११। अदीना देवमाता–निरु० ४।२२। मध्यस्थानदेवतासुप्रथमगामिनी– निरु० ११।२२। अक्षीणस्य अखण्डस्य वा परमेश्वरस्य, अथवा अदीनाया देवमातुः, मनुष्यसूर्यादिदिव्यपदार्थानां जनन्याः प्रकृतेः पृथिव्या वा। उपस्थे। क्रोडे। उत्सङ्गे। प्राणापानाभ्याम्। म० ३। श्वासनिःश्वासाभ्याम्। गुपितः। गुपू रक्षणे–क्त। रक्षितः। शतम्। अपरिमिताः। हिमाः। हन्तेर्हि च। उ० १।१४७। इति हन हिंसागत्योः–मक्। अर्शआद्यच्–टाप्। हिमं तुषारोऽस्ति यस्याम्। हेमन्तान् संवत्सरान्। कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे। पा० २।३।५। इति द्वितीया ॥
०५ इममग्न आयुषे
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ॒मम॒ग्न आयु॑षे॒ वर्च॑से नय प्रि॒यं रेतो॑ वरुण मित्र राजन्।
मा॒तेवा॑स्मा अदिते॒ शर्म॑ यच्छ॒ विश्वे॑ देवा ज॒रद॑ष्टि॒र्यथास॑त् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इ॒मम॒ग्न आयु॑षे॒ वर्च॑से नय प्रि॒यं रेतो॑ वरुण मित्र राजन्।
मा॒तेवा॑स्मा अदिते॒ शर्म॑ यच्छ॒ विश्वे॑ देवा ज॒रद॑ष्टि॒र्यथास॑त् ॥
०५ इममग्न आयुषे ...{Loading}...
Whitney
Translation
- This one, O Agni, do thou lead for life-time, for splendor, to dear
seed, O Varuṇa, Mitra, king! like a mother, O Aditi, yield (yam) him
refuge; O all ye gods, that he be one reaching old age.
Notes
All the pada-mss. read at end of b mitra॰rājan, as a compound;
and SPP. so gives it; the comm. understands rājan correctly as an
independent word, but perhaps only as he in general is superior to the
restraints of the pada-readings. Ppp. (in xv.) has priyo for -yam
in b. The verse is found also in TS. (ii. 3. 10³), TB. (ii. 7. 7⁵),
TA. (ii. 5. 1), and MS. (ii. 3. 4). All these give kṛdhi for naya at
end of a; TA. MS. have tigmám ójas instead of priyáṁ rétas in
b; TS. TB. MS. read soma rājan at end of b, while TA. offers
instead sáṁ śiśādhi; all accent járadaṣṭis in d, and MS. leaves
asat at the end unaccented. In śGS. (i. 27), again, is a version of
the verse, omitting naya in a, reading (with MS.) tigmam ojas
and soma in b, and having aditiḥ śarma yaṁsat in c. ⌊Von
Schroeder gives the Kaṭha version, Tübinger Kaṭha-hss., p. 72-3.⌋
Griffith
Lead him to life, O Agni, and to splendour, this dear child, Varuna! and thou King Mitra! Give him protection, Aditi! as a mother; All Gods, that his be life of long duration;
पदपाठः
इ॒मम्। अ॒ग्ने॒। आयु॑षे। वर्च॑से। न॒य॒। प्रि॒यम्। रेतः॑। व॒रु॒ण॒। मि॒त्रऽरा॒ज॒न्। मा॒ताऽइ॑व। अ॒स्मै॒। अ॒दि॒ते॒। शर्म॑। य॒च्छ॒। विश्वे॑। दे॒वाः॒। ज॒रत्ऽअ॑ष्टिः। यथा॑। अस॑त्। २८.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- द्यावापृथिवी, आयुः
- शम्भुः
- भुरिक्त्रिष्टुप्
- दीर्घायु प्राप्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
बुद्धि से विवाद करे, इसका उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे अग्नितत्त्व, (वरुण) हे जलतत्त्व ! (राजन्) हे बड़ी शक्तिवाले (मित्र) चेष्टा करानेवाले प्राणवायु ! (इमम्) इस पुरुष को (आयुषे) आयु [बढ़ाने] के लिये और (वर्चसे) तेज वा अन्न के लिये (प्रियम्) प्रसन्न करनेवाला (रेतः) वीर्य वा सामर्थ्य (नय) प्राप्त करा। (अदिते) हे अदीन वा अखण्ड प्रकृति वा भूमि ! (माता इव) माता के समान (अस्मै) इस जीव को (शर्म) आनन्द (यच्छ) दान कर। (विश्वे) हे सब (देवाः) दिव्य पदार्थ वा महात्माओं ! (यथा) जिससे [यह पुरुष] (जरदष्टिः) स्तुति के साथ प्रवृत्ति वा भोजनवाला (असत्) होवे ॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य अग्नि, जल, वायु और पृथिवी तत्त्वों को प्रयत्नपूर्वक उचित खान-पान ब्रह्मचर्यादि के नियमपालन से अनुकूल रक्खे, जिससे शरीर की पुष्टि और आत्मा की उन्नति करके उत्साही और यशस्वी होवे ॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: टिप्पणी–बम्बई गवर्नमेन्ट पुस्तक की संहिता और पदपाठ में [मित्र–राजन्] एक पद है, परन्तु सायणभाष्य और अन्य दो पुस्तकों में (मित्र राजन्) दो पद हैं, वही हमने लिये हैं ॥ ५–इमम्। प्राणिनम्। अग्ने। हे अग्नितत्त्व। आयुषे। एतेर्णिच्च। उ० २।११८। इति इण् गतौ–उसि। जीवनवर्धनाय। वर्चसे। अ० २।१३।२। तेजसे। अन्नाय। नय। प्रापय। द्विकर्मकः। प्रियम्। इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा० ३।१।१३५। इति प्रीङ् प्रीतौ कः। अचि श्नुधातुभ्रुवां० पा० ६।४।७७। इयङादेशः। हितकरम्। रेतः। स्रुरीभ्यां तुट् च। उ० ४।२०२। इति रीङ् क्षरणे–असुन्, तुट् च। शुक्रम्। वीर्यम्। प्रजननसामर्थ्यम्। वरुण। कॄवृदारिभ्य उनन्। उ० ३।५३। इति वृञ् वरणे–उनन्। उत्तमं जलमिति दयानन्दसरस्वती तद्वृत्तौ। अपानवायुः–यथा। ब्रह्माण्डस्थौ गमनागमनशीलौ मित्रावरुणौ प्राणापानौ–इति दयानन्दकृतयजुर्वेदभाष्ये, २।३। तत्संबुद्धौ। मित्र। हे प्राणवायो यथा पूर्वोक्तम्। राजन्। कनिन् युवृषितक्षिराजि०। उ० १।१५६। इति राजृ दीप्तौ, ऐश्वर्ये–कनिन्। राजति=ईष्टे–निघ० २।२१। हे दीप्यमान, हे ऐश्वर्यवत्। मातेव। जननीव। अस्मै। प्राणिने। अदिते। म० ४। हे प्रकृते। भूमे। शर्म। अ० १।२०।३। शॄ हिंसायाम्–मनिन्। गृहम्। निघं० ३।४। सुखम्–निघ० ३।६। यच्छ। देहि। विश्वे। सर्वे। देवाः। दिव्याः पदार्थाः पुरुषा वा। जरदष्टिः। जीर्यतेरतृन्। पा० ३।२।१०४। इति बाहुलकाद् जरतेः स्तुतिकर्मणः–अतृन्। अशू व्याप्तौ, अश भोजने–क्तिन् जरता स्तुत्या सह अष्टिः कार्यव्याप्तिर्भोजनं वा यस्य सः। यथा। येन प्रकारेण। असत्। अस्तेर्लेटि अडागमः। भवेत् ॥