०२७ शत्रुपराजयः ...{Loading}...
Whitney subject
- For victory in disputation: with a plant.
VH anukramaṇī
शत्रुपराजयः।
१-७ कपिञ्जलः। १-५ वनस्पतिः, ६ रुद्रः, ७ इन्द्रः। अनुष्टुप्।
Whitney anukramaṇī
[Kapiñjala.—saptarcam. vānaspatyam. ānuṣṭubham.]
Whitney
Comment
Found in Pāipp. ii. Kāuś. uses the hymn in the rite or charm for overcoming an adversary in public dispute: one is to come to the assembly from the north-eastern direction (because of its name aparājita ‘unconquered’), chewing the root of the plant, and to have it in his mouth while speaking; also to bind on an amulet of it, and to wear a wreath of seven of its leaves (38. 18-21). Verse 6, again, is reckoned (50. 13, note) to the rāudra gaṇa. The comm. further quotes from the Nakṣ. ⌊error for śānti⌋ K. (17, 19) a prescription of the use of the hymn in a mahāśānti called aparājitā.
Translations
Translated: Weber, xiii. 190; Ludwig, p. 461; Grill, 1st edition, 18, 51; Bloomfield, JAOS. xiii., p. xlii (PAOS. May, 1885), or AJP. vii. 479; Grill, 2d edition, 23, 93; Griffith, i. 66; Bloomfield, SBE. xlii. 137, 304.—Bloomfield was the first to point out (on the authority of Kāuś.) the connection of prāś with root prach, and to give the true interpretation of the hymn. Grill follows him in the second edition.
Griffith
A charm against an opponent in debate
०१ नेच्छत्रुः प्राशम्
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नेच्छत्रुः॒ प्राशं॑ जयाति॒ सह॑मानाभि॒भूर॑सि।
प्राशं॒ प्रति॑प्राशो जह्यर॒सान्कृ॑ण्वोषधे ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
नेच्छत्रुः॒ प्राशं॑ जयाति॒ सह॑मानाभि॒भूर॑सि।
प्राशं॒ प्रति॑प्राशो जह्यर॒सान्कृ॑ण्वोषधे ॥
०१ नेच्छत्रुः प्राशम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- May [my] foe by no means win (ji) the dispute; overpowering,
overcoming art thou; smite the dispute of [my] counter-disputant; make
them sapless, O herb.
Notes
“Dispute” (prā́ś) is literally ‘questioning.’ The comm. renders the
word in a by praṣṭar ‘questioner,’ but in c gives us our
choice between that and praśna ‘question,’ and in 7 a acknowledges
only the latter meaning. Prátiprāśas is translated here as genitive;
the comm. takes it secondly as such, but first as accus. pl.; the Ppp.
reading favors the latter: sā ’mūn pratiprāśo jaya rasā kṛ-. With
either understanding, the accent is anomalous; we ought to have
pratiprā́śas. Arasā́n also is in favor of the plural. If we could
emend prā́śan in c to prāśí ‘in the disputation,’ it would make
things much easier. For a Ppp. has yaś catrūn saṁjayāt. Néd in
a is simply the emphasized negative.
Griffith
Let not the enemy win the cause! Strong and predominant art thou. Refute mine adversary’s speech. Render them dull and flat, O Plant.
पदपाठः
न। इत्। शत्रुः॑। प्राश॑म्। ज॒या॒ति॒। सह॑माना। अ॒भि॒ऽभूः। अ॒सि॒। प्राश॑म्। प्रति॑ऽप्राशः। ज॒हि॒। अ॒र॒सान्। कृ॒णु॒। ओ॒ष॒धे॒। २७.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- ओषधिः
- कपिञ्जलः
- अनुष्टुप्
- शत्रुपराजय सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
बुद्धि से विवाद करे, इसका उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (शत्रुः) वैरी (प्राशम्) प्रश्नकर्ता [मुझ] को (न इत्) कभी न (जयाति) जीते, [हे बुद्धि] तू (सहमाना) जयशील और (अभिभूः) प्रबल (असि) है। (प्राशम्) [मुझ] प्रश्नकर्ता के (प्रतिप्राशः) प्रतिकूलवादियों को (जहि) मिटा दे, (ओषधे) हे ताप की पीनेवाली [ज्वरादिताप हरनेवाली औषध के समान बुद्धि उन सबको] (अरसान्) नीरस [फींका] (कृणु) कर ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - इस सूक्त में ओषधि के उदाहरण से बुद्धि का ग्रहण है। ओषधि का अर्थ निरु० ९।२७। में किया हैओषधियें ओषत्, दाह वा ताप को पी लेती हैं अथवा ताप में इनको पीते हैं, अथवा ये दोष को पी लेती हैं। मन्त्र का आशय। जिस प्रकार शुद्ध परीक्षित ओषधि के सेवन करने से ज्वर आदि रोग नष्ट होते हैं, ऐसे ही मनुष्य के बुद्धिपूर्वक, प्रमाणयुक्त विवाद करने से बाहिरी और भीतरी प्रतिपक्षी हार जाते हैं ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १–न। निषेधे। इत्। अवधारणे। एव। शत्रुः। अ० २।५।३। विपक्षः। प्रतिवादी। प्राशम्। क्विब् वचिप्रच्छिश्रि०। उ० २।५७। इति प्रच्छ ज्ञीप्सायाम्–क्विप्, दीर्घः संप्रसारणाभावश्च। च्छ्वोः शूडनुनासिके च। पा० ६।४।१९। इति च्छस्य शः। प्रष्टारं वादिनं माम्। जयाति। जयतेर्लेटि आडागमः। जयतु। अभिभवतु। सहमाना। अ० २।२५।२। जेत्री। अभिभूः। भुवः संज्ञान्तरयोः। प० ३।२।१७९। इति अभि+भू–क्विप्। अभिभवित्री। प्रति–प्राशः। प्रति+प्रच्छ–कर्तरि क्विप्। न लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतृनाम्। पा० २।३।६९। इति तृन् ग्रहणात्। तद्वाचके क्विपि प्रत्ययेऽपि (प्राशम्) इत्यस्य कर्मत्वम्। प्रतिकूलप्रष्टॄन्। प्रतिवादकान्। जहि। हन हिंसागत्योः–लोट्। नाशय। पराजितान् कुरु। अरसान्। नीरसान्। निर्वीर्यान्। कृणु। कुरु। ओषधे। अ० १।२३।१। उष दाहे–घञ्। ततो धेट् पाने–कि। ओषधय ओषद् धयन्तीति वौषत्येना धयन्तीति वा दोषं धयन्तीति वा–निरु० ९।२७। ओषं दाहं धयति पिबति नाशयतीति ओषधिः। यवादिधान्यम्। रोगनाशकद्रव्यम्। तापनाशिका बुद्धिः। तत्संबुद्धौ ॥
०२ सुपर्णस्त्वान्वविन्दत्सूकरस्त्वाखनन्नसा प्राशम्
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सु॑प॒र्णस्त्वान्व॑विन्दत्सूक॒रस्त्वा॑खनन्न॒सा।
प्राशं॒ प्रति॑प्राशो जह्यर॒सान्कृ॑ण्वोषधे ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
सु॑प॒र्णस्त्वान्व॑विन्दत्सूक॒रस्त्वा॑खनन्न॒सा।
प्राशं॒ प्रति॑प्राशो जह्यर॒सान्कृ॑ण्वोषधे ॥
०२ सुपर्णस्त्वान्वविन्दत्सूकरस्त्वाखनन्नसा प्राशम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The eagle discovered (anu-vid) thee; the swine dug thee with his
snout: smite the dispute etc. etc.
Notes
Pāda b shows that the root is the part of the plant employed. If we
struck off the impertinent refrain from vss. 2-5, and combined the lines
into two verses, the hymn would conform to the norm of the second book
(as in more than one case above ⌊p. 37⌋).
Griffith
The strong-winged bird discovered thee, the boar unearthed thee with his snout. Refute mine adversary’s speech. Render them dull and flat, O Plant.
पदपाठः
सु॒ऽप॒र्णः। त्वा॒। अनु॑। अ॒वि॒न्द॒त्। सू॒क॒रः। त्वा॒। अ॒ख॒न॒त्। न॒सा। प्राश॑म्। प्रति॑ऽप्राशः। ज॒हि॒। अ॒र॒सान्। कृ॒णु॒। ओ॒ष॒धे॒। २७.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- ओषधिः
- कपिञ्जलः
- अनुष्टुप्
- शत्रुपराजय सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
बुद्धि से विवाद करे, इसका उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सुपर्णः) सुन्दर पक्षवाले [गरुड़, गिद्ध आदि पक्षी के समान दूरदर्शी पुरुष] ने (त्या) तुझको (अनु=अन्विष्य) ढूँढकर (अविन्दत्) पाया है, (सूकरः) सूकर [सूअर पशु के समान तीव्रबुद्धि और बलवान् पुरुष] ने (त्वा) तुझको (नसा) नासिका से (अखनत्) खोदा है। (प्राशम्) मुझ प्रश्नकर्त्ता के (प्रतिप्राशः) प्रतिवादियों को (जहि) मिटा दे, (ओषधे) हे ताप को पी लेनेवाली [ओषधि के समान बुद्धि ! उन सबको] (अरसान्) फींका (कृणु) कर ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - (सुपर्णः) गिद्ध, मोर आदि पक्षी बड़े तीव्रदृष्टि होते हैं और सूकर एक बलवान् पशु अपनी नासिका से अपने खाद्य तृण को पृथिवी में से खोदकर खा जाता है। इसी प्रकार दूरदर्शी, परिश्रमी और बलवान् पुरुष बुद्धि की महिमा को साक्षात् करके यथायोग्य उसका प्रयोग करते हैं और सदा जय पाते हैं ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २–सुपर्णः। धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० २।६। इति सु+पॄ पालनपूरणयोः–न, यद्वा। पत गतौ–न प्रत्ययः, तकारस्य रेफः। सुपतनः शोभनगमनः। शीघ्रगामी। गरुडः। पक्षिमात्रम्। अनु। अन्विष्य। अविन्दत्। विद्लृ लाभे लङ्। शे मुचादीनाम्। पा० ७।१।५९। इति नुम्। अलभत। सूकरः। ॠदोरप्। पा० ३।३।५७। इति सु+कृ विक्षेपे, वा कृञ् हिंसायाम्। वा कॄङ् विज्ञाने–अप्। अथवा, ट प्रत्ययः। उकारस्य दीर्घः। अथवा, सू इति शब्दं करोति, सू+कृ–टः। सुकिरति भूमिं सुकृणाति मनुष्यान् यद्वा सुकारयते विजानाति खाद्यपदार्थान्। वराहः। अखनत्। खनु विदारे–लङ्। विदारितवान्। उद्धृतवान्। नसा। णसङ् कौटिल्ये–क्विप्। नासिकया ॥
०३ इन्द्रो ह
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इन्द्रो॑ ह चक्रे त्वा बा॒हावसु॑रेभ्य॒ स्तरी॑तवे।
प्राशं॒ प्रति॑प्राशो जह्यर॒सान्कृ॑ण्वोषधे ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इन्द्रो॑ ह चक्रे त्वा बा॒हावसु॑रेभ्य॒ स्तरी॑तवे।
प्राशं॒ प्रति॑प्राशो जह्यर॒सान्कृ॑ण्वोषधे ॥
०३ इन्द्रो ह ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Indra put (kŗ) thee on his arm, in order to lay low (stŗ) the
Asuras: smite the dispute etc. etc.
Notes
The comm., both here and in the next verse, understands -bhya(ḥ)
stárītave as -bhyas tárī-, though he then explains tarītave by
starītum. Pāda a is rendered in accordance with the comm. and with
Weber; Grill, ’took thee into his arm.’
Griffith
Yea, Indra laid thee on his arm, to cast the Asuras to the ground. Refute mine adversary’s speech. Render them dull and flat, O Plant.
पदपाठः
इन्द्रः॑। ह॒। च॒क्रे॒। त्वा॒। बा॒हौ। असु॑रेभ्यः। स्तरी॑तवे। प्राश॑म्। प्रति॑ऽप्राशः। ज॒हि॒। अ॒र॒सान्। कृ॒णु॒। ओ॒ष॒धे॒। २७.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- ओषधिः
- कपिञ्जलः
- अनुष्टुप्
- शत्रुपराजय सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
बुद्धि से विवाद करे, इसका उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष ने (ह) ही (त्वा) तुझको (बाहौ) अपनी भुजा पर (असुरेभ्यः) असुरों से (स्तरीतवे) रक्षा के लिये (चक्रे) किया है। (प्राशम्) [मेरे] प्रश्न के (प्रतिप्राशः) प्रतिवादियों को (जहि) मिटादे, (ओषधे) हे ताप को पीनेवाली [ओषधि के समान बुद्धि ! उन सबको] (अरसान्) फींका (कृणु) कर ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - (इन्द्र) महाप्रतापी महाबली पुरुष ही अपने बुद्धिबल से (असुर) देवताओं के विरोधी अधर्मियों का नाश करते आये हैं, करते हैं और करेंगे ॥३॥ सायणभाष्य में (स्तरीतवे) के स्थान मे [तरीतवे] है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३–इन्द्रः–अ० १।२।३। परमैश्वर्यवान् महाप्रतापी पुरुषः। ह। हन हिंसागत्योः–ड। प्रसिद्धम्। चक्रे। कृञ्–लिट्। कृतवान्। त्वा। त्वाम्। ओषधिम्। बाहौ। कृवापाजिमि०। उ० १।१। इति वह प्रापणे, यद्वा, वाह यत्ने–उण्। यद्वा, अर्जिदृशिकमि०। उ० १।२७। इति वाधृ विहतौ–कु, धस्य हः। वकारबकारयोरेकत्वम्। भुजे। असुरेभ्यः। सुसूधाञ्गृधिभ्यः क्रन्। उ० २।२४। इति षु ऐश्वर्यप्रसवयोः–क्रन्। यद्वा, सुर दीप्त्यैश्वर्ययोः–क प्रत्ययः। देवविरोधिभ्यः। अपण्डितेभ्यः। राक्षसेभ्यः सकाशात्। (असुरेभ्यस्तरीतवे) वा शरि। पा० ८।३।३६। खर्परे शरि वा लोपो वक्तव्यः। वार्तिकम्। इति विसर्गलोपः। स्तरीतवे। तुमर्थे सेसेनसेऽसे०। पा० ३।४।९। इति स्तृ प्रीतिरक्षाप्राणनेषु [शब्दकल्पद्रुमकोषे] तवे प्रत्ययः। रक्षितुम् ॥
०४ पाटामिन्द्रो व्याश्नादसुरेभ्य
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पा॒टामिन्द्रो॒ व्या॑श्ना॒दसु॑रेभ्य॒ स्तरी॑तवे।
प्राशं॒ प्रति॑प्राशो जह्यर॒सान्कृ॑ण्वोषधे ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
पा॒टामिन्द्रो॒ व्या॑श्ना॒दसु॑रेभ्य॒ स्तरी॑तवे।
प्राशं॒ प्रति॑प्राशो जह्यर॒सान्कृ॑ण्वोषधे ॥
०४ पाटामिन्द्रो व्याश्नादसुरेभ्य ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Indra consumed (vi-aś) the pāṭá, in order to lay low the Asuras:
smite the dispute etc. etc.
Notes
The comm. reads in a pāṭhām, and uses that form in all his
explanations; pāṭām seems to be given in all the mss., and in Ppp.,
and both editions adopt it; but the mss. are very little to be trusted
for the distinction of ṭ and ṭh. “The plant is the Clypea
hernandifolia, whose bitter root is much used. It grows all over India,
and is said to be applied to ulcers in the Penjab and in Sindh (W.
Dymock, Vegetable mat. med.)” (R.). ⌊In his note, Roth gives pāṭām
as Ppp. form; but in his collation, he gives as Ppp. reading in a, b
pāyam indro⌋ vyāṣṇān hantave as-. The Anukr. apparently expects us
to resolve vi-ā-śn-āt in a.
Griffith
Indra devoured the Pata plant that he might lay the Asuras low. Refute mine adversary’s speech! Render them dull and flat, O Plant.
पदपाठः
पा॒टाम्। इन्द्रः॑। वि। आ॒श्ना॒त्। असु॑रेभ्यः। स्तरी॑तवे। प्राश॑म्। प्रति॑ऽप्राशः। ज॒हि॒। अ॒र॒सान्। कृ॒णु॒। ओ॒ष॒धे॒। २७.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- ओषधिः
- कपिञ्जलः
- अनुष्टुप्
- शत्रुपराजय सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
बुद्धि से विवाद करे, इसका उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष ने (पाटाम्) चमकती हुयी [ओषधिरूप बुद्धि] को (असुरेभ्यः) असुरों से (स्तरीतवे) रक्षा के लिये (वि) विविध प्रकार से (आश्नात्) भोजन किया है। (प्राशम्) मुझ वादी के (प्रतिप्राशः) प्रतिवादियों को (जहि) मिटा दे, (ओषधे) हे ताप को पी लेनेवाली [ओषधि के समान बुद्धि ! उन सबको] (अरसान्) फींका (कृणु) कर ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे उत्तम ओषधि के सेवन से रोग का नाश होकर शरीर और चित्त को आनन्द मिलता है, वैसे ही ऐश्वर्यशाली पुरुष बुद्धि के यथावत् प्रयोग से शत्रुओं का नाश करके शान्ति लाभ करते हैं ॥४॥ तीनों संहिताओं के (पाटाम्) पद के स्थान पर सायणभाष्य में (पाठाम्) है और भाष्यकार ने उसे ओषधिविशेष माना है। शब्दकल्पद्रुम कोष में लिखा है कि [पाठा] लताविशेष है, आकनादि भाषा नाम है। उसके गुण तिक्तता, गुरुता, उष्णता और वातपित्त, ज्वरपित्त, दाह, अतीसार, शूलनाशन आदि हैं ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४–पाटाम्। पट गतिदीप्तिवेष्टनेषु–घञ्, टाप्। गतिम्। दीप्तिम्। विद्याम्। ओषधिम्। प्रसङ्गात् सायणभाष्योक्तम् [पाठा] इति पदं व्याख्यायते तद् यथा शब्दकल्पद्रुमकोषे। पठ्यते बहुगुणवत्तया कथ्यते इति। पठ–कर्मणि घञ्, अजादित्वात् टाप्, लताविशेषः, आकनादि इति भाषा, तत्पर्यायः प्राचीना, दीपनी…., अस्या गुणाः, तिक्तत्वम्, गुरुत्वम्, उष्णत्वम्, वातपित्तज्वरपित्तदाहातीसार- शूलनाशित्वम्, भग्नसन्धानकारित्वं च। वि। विविधम्। आश्नात्। अश भोजने–लङ्। अभक्षयत्। अन्यद् व्याख्यातम् ॥
०५ तयाहं शत्रून्त्साक्ष
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तया॒हं शत्रू॑न्त्साक्ष॒ इन्द्रः॑ सालावृ॒काँ इ॑व।
प्राशं॒ प्रति॑प्राशो जह्यर॒सान्कृ॑ण्वोषधे ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
तया॒हं शत्रू॑न्त्साक्ष॒ इन्द्रः॑ सालावृ॒काँ इ॑व।
प्राशं॒ प्रति॑प्राशो जह्यर॒सान्कृ॑ण्वोषधे ॥
०५ तयाहं शत्रून्त्साक्ष ...{Loading}...
Whitney
Translation
- With it will I overpower the foes, as Indra did the sālāvṛkás:
smite the dispute etc. etc.
Notes
The translation implies emendation of the inadmissible sākṣe to
sākṣye, than which nothing is easier (considering the frequent loss of
y after a lingual or palatal sibilant) or more satisfactory, for both
sense and meter; it is favored, too, by the Ppp. reading, sakṣīye. No
other example of long ā in a future form of this verb appears to be
quotable; but the exchange of a and ā in its inflection and
derivation is so common that this makes no appreciable difficulty. The
comm. accepts sākṣe, rendering it by abhi bhavāmi. The Anukr. notes
no metrical irregularity in the verse. In our text, accent sālāvṛkā́n
(an accent-mark out of place). ⌊To Weber’s note on sālāvṛká, add
Oertel, JAOS. xix.² 123 f. This allusion adds to the plausibility of W’s
suggestion about the Yatis, note to ii. 5. 3.⌋
Griffith
With this I overcome my foes as Indra overcame the wolves. Refute mine adversary’s speech! Render them dull and flat, O Plant.
पदपाठः
तया॑। अ॒हम्। शत्रु॑न्। सा॒क्षे॒। इन्द्रः॑। सा॒ला॒वृ॒कान्ऽइ॑व। प्राश॑म्। प्रति॑ऽप्राशः। ज॒हि॒। अ॒र॒सान्। कृ॒णु॒। ओ॒ष॒धे॒। २७.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- ओषधिः
- कपिञ्जलः
- अनुष्टुप्
- शत्रुपराजय सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
बुद्धि से विवाद करे, इसका उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अहम्) मैं (तया) उस [ओषधिरूप बुद्धि] से (शत्रून्) वैरियों को (साक्षे) हरा दूँ, (इन्द्रः) ऐश्वर्यशाली [गृहपति] (सालावृकान् इव) जैसे घर के भेड़ियों, कुत्ते, विलाव आदिकों को। (प्राशम्) मुझ वादी के (प्रतिप्राशः) प्रतिवादियों को (जहि) मिटा दे, (ओषधे) हे ताप को पी लेनेवाली [ओषधि के समान बुद्धि ! उन सबको] (अरसान्) फींका (कृणु) कर ॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे ओषधिबल से रोग निवृत्त होता है, वैसे ही मनुष्य बुद्धिबल से, अपने दोषों और शत्रुओं का नाश करके आनन्द लाभ करें ॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५–तया। पाटया। तत्प्रभावेन। शत्रून्। वैरिणः। साक्षे। षह अभिभवे–लेटि उत्तमे। अभिभवामि। असत्प्रायान् करोमि। सालावृकान्। सालायां गृहे वृक इव। शालावृकान्। कुक्कुरान् विडालान्। अन्यद् गतम् ॥
०६ रुद्र जलाषभेषज
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रुद्र॒ जला॑षभेषज॒ नील॑शिखण्ड॒ कर्म॑कृत्।
प्राशं॒ प्रति॑प्राशो जह्यर॒सान्कृ॑ण्वोषधे ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
रुद्र॒ जला॑षभेषज॒ नील॑शिखण्ड॒ कर्म॑कृत्।
प्राशं॒ प्रति॑प्राशो जह्यर॒सान्कृ॑ण्वोषधे ॥
०६ रुद्र जलाषभेषज ...{Loading}...
Whitney
Translation
- O Rudra, thou of healing (?) remedies, of dark (nī́la) crests,
deed-doer! smite the dispute etc. etc.
Notes
Ppp. has for c, d pṛṣṭam durasyato jahi yo smāṅ abhidāsati, which
is plainly much better than the repetition of the refrain, and for which
the latter has perhaps been substituted in our text. The comm. draws out
to great length a series of derivations for rudra, and gives two for
jalāṣa, and three different explanations of karmakṛt. ⌊Bloomfield
discusses jal- etc. at length, AJP. xii. 425 ff.⌋
Griffith
O Rudra, Lord of Healing Balms, dark-crested, skilful in thy work!– Refute mine adversary’s speech. Render them dull and flat, O Plant.
पदपाठः
रुद्र॑। जला॑षऽभेषज। नील॑ऽशिखण्ड। कर्म॑ऽकृत्। प्राश॑म्। प्रति॑ऽप्राशः। ज॒हि॒। अ॒र॒सान्। कृ॒णु॒। ओ॒ष॒धे॒। २७.६।
अधिमन्त्रम् (VC)
- रुद्रः
- कपिञ्जलः
- अनुष्टुप्
- शत्रुपराजय सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
बुद्धि से विवाद करे, इसका उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (रुद्र) हे ज्ञानप्रापक ! हे दुःखविनाशक ! (जलाषभषेज) हे सुखदायक ओषधिवाले ! (नीलशिखण्ड) हे निधियों वा निवासस्थानों के प्राप्त करानेवाले ! (कर्मकृत्) हे कार्य्य में कुशल पुरुष ! (प्राशम्) मुझ वादी के (प्रतिप्राशः) प्रतिवादियों को (जहि) मिटा दे, (ओषधे) हे ताप को पीनेवाली [ओषधिरूप बुद्धि ! उन सबको] (अरसान्) फींका (कृणु) कर दे ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे उपकारी चतुर सद्वैद्य सुपरीक्षित ओषधियों से संसार में उपकार करते हैं, वैसे ही मनुष्यों को अपने बुद्धिप्रभाव से कार्यकुशल होकर सदा उपकारी रहना चाहिये ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६–रुद्र। अ० १।१९।३। रुत्+र। रु गतौ, वधे–क्विप्, तुक् आगमः। रवते गच्छति जानाति येनेति रुत्, ज्ञानम्। रा दाने–क। यद्वा। मत्वर्थे र प्रत्ययः। ज्ञानदाता ज्ञानवान् वा रुद्रः। यद्वा। रवते। हिनस्तीति रुत्, दुःखम्। रुत् रवते नाशयतीति रुत्+रु वधे–ड। दुःखनाशको रुद्रः। तत्संबुद्धौ। जलाषभेषज। जनी–ड+लष इच्छायाम्–घञ्। जैः जातैः लष्यते, इति जलाषम्। ततो भिषज् चिकित्सायां सुखने–अच्। जलाषं भेषजं च सुखनाम–निघ० ३।६। जलाषं सुखकरं भेषजं यस्य। हे सुखप्रदौषधयुक्त। नीलशिखण्ड। स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। इति णीञ् प्रापणे, रक्। रस्य लः। नीयते प्राप्यते इति नीलः, निधिभेदः। संख्याविशेषो वा। यद्वा। नि+इल गतौ–क। नीलः–नीडः निवासः। अण्डन् कृसृभृवृञः। उ० १।१२९। इति शिखि गतौ–अण्डन्, स च कित्। नीलानां निधीनां निवासानां वा शिखण्डः प्राप्तिर्यस्मात् नीलशिखण्डः। हे निधीनां निवासानां वा प्रापक ! कर्मकृत्। कर्म+कृञ्–क्विप्, तुक् च। कर्माणि कृत्यानि करोतीति सः। हे कृत्यकुशल ! अन्यद् गतम् ॥
०७ तस्य प्राशम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
तस्य॒ प्राशं॒ त्वं ज॑हि॒ यो न॑ इन्द्राभि॒दास॑ति।
अधि॑ नो ब्रूहि॒ शक्ति॑भिः प्रा॒शि मामुत्त॑रं कृधि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
तस्य॒ प्राशं॒ त्वं ज॑हि॒ यो न॑ इन्द्राभि॒दास॑ति।
अधि॑ नो ब्रूहि॒ शक्ति॑भिः प्रा॒शि मामुत्त॑रं कृधि ॥
०७ तस्य प्राशम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Do thou smite the dispute of him, O Indra, who vexes us; bless us
with abilities (śákti); make me superior in the dispute.
Notes
Ppp. reads pṛṣṭam for prāśaṁ tvam in a, and ends b with
-dāsate. The comm. has prāśam instead of prāśi in d and is
supported in it by two of SPP’s authorities. The prāśam in a he
explains by vākyam, and that in his d by praṣṭāram.
Griffith
Indra, defeat the speech of him who meets us with hostility. Comfort us with thy power and might. Make me superior in debate.
पदपाठः
तस्य॑। प्राश॑म्। त्वम्। ज॒हि॒। यः। नः॒। इ॒न्द्र॒। अ॒भि॒ऽदास॑ति। अधि॑। नः॒। ब्रू॒हि॒। शक्ति॑ऽभिः। प्रा॒शि। माम्। उत्ऽत॑रम्। कृ॒धि॒। २७.७।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- कपिञ्जलः
- अनुष्टुप्
- शत्रुपराजय सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
बुद्धि से विवाद करे, इसका उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे बड़े ऐश्वर्यवाले [पुरुष !] (त्वम्) तू (तस्य) उस पुरुष के (प्राशम्) प्रश्न को (जहि) मिटा दे, (यः) जो (नः) हमको (अभि–दासति) दबावे। (नः) हमसे (शक्तिभिः) अपनी शक्तियों के साथ (अधि) अधिकारपूर्वक (ब्रूहि) कथन कर और (प्राशि) विवाद में (माम्) मुझको (उत्तरम्) अधिक उत्तम (कृधि) कर दे ॥७॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे न्यायी राजा सत्यवादी को जिताता और मिथ्यावादी को हराता है। वैसे ही प्रत्येक मनुष्य अपने कुविचारों को दबाकर और सुविचारों को प्रबल करके आनन्द भोगे। ऐसे ही मनुष्य (इन्द्र) परम सामर्थ्यवाले होते हैं ॥७॥ (प्राशि) पद के स्थान पर सायणभाष्य में [प्राशम्] है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ७–तस्य। प्रतिवादिनः। प्राशम्। मं० १। सम्पदादिभ्यः क्विप्। वा० पा० ३।३।९४। इति प्रच्छ जिज्ञासायाम्–भावे क्विप्। प्रश्नम्। अभिदासति। दसु उपक्षये, ण्यन्तात् परस्य शपः। छन्दस्युभयथा। पा० ३।४।११७। इति आर्धधातुकत्वात्। णेरनिटि। पा० ६।४।५१। इति णिलोपः। उपक्षपयति। तिरस्करोति। अधि। अधिकृत्य। नः। अस्मान्। ब्रूहि। कथय। निर्णय। शक्तिभिः। स्वसामर्थ्यैः। प्राशि। पूर्ववद् भावे क्विप्। प्रश्ने। माम्। प्रष्टारम्। सत्यवादिनम्। उत्तरम्। उत् अतिशयेन उद्गतः। उत्–तरप्। ऊर्द्ध्वम्। उत्कृष्टम्। कृधि। श्रुशृणुपॄकृवृभ्यश्छन्दसि। पा० ६।४।१०२। इति हेर्धिरादेशः। कुरु ॥