०१३ दीर्घायुःप्राप्तिः

०१३ दीर्घायुःप्राप्तिः ...{Loading}...

Whitney subject
  1. For welfare and long life of an infant.
VH anukramaṇī

दीर्घायुःप्राप्तिः।
१-५ अथर्वा। अग्निः, २-३ बृहस्पतिः, ४-५ विश्वे देवाः। त्रिष्टुप्, ४ अनुष्टुप्, ५ विराड् जगती।

Whitney anukramaṇī

[Atharvan.—bahudevatyam utā ”gneyam. trāiṣṭubham: 4. anuṣṭubh; 5. virāḍjagatī.]

Whitney

Comment

Verses 1, 4, 5 are found in Pāipp. xv. Though (as Weber points out) plainly having nothing to do with the godāna or tonsure ceremony, its verses are applied by Kāuś. to parts of that rite. Thus, it accompanies the preparations for it (53. 1) and the wetting of the youth’s head (53. 13); vss. 2 and 3, the putting of a new garment on him (54. 7); vs. 4, making him stand on a stone (54. 8); vs. 5, taking away his old garment (54. 9). And the comm. quotes vss. 2 and 3 from Pariśiṣṭa 4. 1 as uttered by a purohita on handing to a king in the morning the garment he is to put on, and vs. 4 from ibid. 4, as the same throws four pebbles toward the four directions, and makes the king step upon a fifth.

Translations

Translated: Weber, xiii. 171; Zimmer, p. 322; Griffith, i. 57.

Griffith

A youth’s Investiture ceremony (godanam)

०१ आयुर्दा अग्ने

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

आ॑यु॒र्दा अ॑ग्ने ज॒रसं॑ वृणा॒नो घृ॒तप्र॑तीको घृ॒तपृ॑ष्ठो अग्ने।
घृ॒तं पी॒त्वा मधु॒ चारु॒ गव्यं॑ पि॒तेव॑ पु॒त्रान॒भि र॑क्षतादि॒मम् ॥

०१ आयुर्दा अग्ने ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Giving life-time, O Agni, choosing old age; ghee-fronted,
    ghee-backed, O Agni—having drunk the sweet pleasant (cā́ru) ghee of the
    cow, do thou afterward defend (rakṣ) this [boy] as a father his
    sons.
Notes

The verse occurs also in various Yajur-Veda texts, as VS. (xxxv. 17),
TS. (i. 3. 14⁴ et al.), TB. (i. 2. 1¹¹), TA. (ii. 5. 1), MS. (iv. 12.4)
⌊MP. ii. 2. 1⌋, and in several Sūtras, as AśS. (ii. 10. 4), śGS. (i.
25), and HGS. (i. 3. 5), with considerable variations. TS. (with which
the texts of TB., TA., and AśS. agree throughout) has in a havíṣo
juṣāṇás
, which is decidedly preferable to jarásaṁ vṛṇānás ⌊, which is
apparently a misplaced reminiscence of RV. x. 18. 6 or AV. xii.2. 24⌋;
at end of b, ghṛtáyonir edhi; and, in d, putrám for
putrā́n. VS. has for a ā́yuṣmān agne havíṣā vṛdhānás, and agrees
with TS. etc. in b, and also in d, save that it further
substitutes imā́n for imám. MS. reads deva for agne in a, and
píbann amṛ́tam for pītvā́ mádhu of c ⌊thus making a good
triṣṭubh pāda⌋, and ends d with putráṁ jaráse ma e ’mám. Ppp.
agrees throughout with MS., except as it emends the latter’s corrupt
reading at the end to jarase naye ’mam; and HGS. corresponds with Ppp.
save by having gṛṇānas in a. ⌊MP. follows HGS.⌋ śGS. gives in
a haviṣā vṛdhānas, in b agrees with TS. etc., and has in d
pile ’va putram iha r-. The last pāda is jagatī.

⌊The Anukr. counts 11 + 11: 10 + 12 = 44: as if 10 + 12 were metrically
the same as 11 + 11! or as if the “extra” syllable in d could offset
the deficiency in c! The impossible cadence of c is curable by
no less radical means than the adoption of the Ppp. reading. All this
illustrates so well the woodenness of the methods of the Anukr. and its
utter lack of sense of rhythm, that attention may well be called to it.⌋

Griffith

Strength-giver, winning lengthened life, O Agni, with face and back shining with molten butter, Drink thou the butter and fair milk and honey, and, as a sire his sons, keep this man safely.

पदपाठः

आ॒युः॒ऽदाः। अ॒ग्ने॒। ज॒रस॑म्। वृ॒णा॒नः। घृ॒तऽप्र॑तीकः। घृ॒तऽपृ॑ष्ठः। अ॒ग्ने॒। घृ॒तम्। पी॒त्वा। मधु॑। चारु॑। गव्य॑म्। पि॒ताऽइ॑व। पु॒त्रान्। अ॒भि। र॒क्ष॒ता॒त्। इ॒मम्। १३.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अग्निः
  • अथर्वा
  • त्रिष्टुप्
  • दीर्घायुप्राप्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

ब्रह्मचारी के समावर्त्तन, विद्यासमाप्ति पर वस्त्र आदि के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे तेजस्विन् परमेश्वर ! तू (आयुर्दाः) जीवनदाता और (जरसम्) स्तुतियोग्य कर्म को (वृणानः) स्वीकार करनेवाला, (घृतप्रतीकः) प्रकाशस्वरूप और (घृतपृष्ठः) प्रकाश [वा सार तत्त्व] से सींचनेवाला है। (अग्ने) हे तेजस्विन् ईश्वर ! [अग्नि के समान] (मधु) मधुर, (चारु) निर्मल, (गव्यम्) गौ के (घृतम्) घृत को (पीत्वा) पीकर, (पिता इव) पिता के समान (पुत्रान्) पुत्रों को (इमम्) इस [ब्रह्मचारी] की (अभि) सब ओर से (रक्षतात्) रक्षा कर ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे अग्नि गौ के घृत, काष्ठ आदि हवनसामग्री से प्रज्वलित होकर, हवन, अन्नसंस्कार, शिल्पप्रयोग आदि में उपयोगी होता है, वैसे ही परमेश्वर वेदविद्या के और बुद्धि, अन्न आदि पदार्थों के दान से मनुष्यों पर उपकार करता है, इसी प्रकार मनुष्यों को परस्पर उपकारी होना चाहिये ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १–आयुर्दाः। आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। पा० ३।२।७४। इति आयुः+दा दाने–विच्। आयुः–अ० १।३०।३। जीवनदाता। अग्ने। हे तेजस्विन् परमेश्वर ! जरसम्। अ० १।३०।३। जरस्–अर्शआद्यच्। स्तुत्यम्। प्रशंसनीयं कर्म। वृणानः। वृङ् संभक्तौ–लटः शानच्। श्नाभ्यस्तयोरातः। पा० ६।४।१२२। इत्याकारलोपः। संभजमानः। स्वीकुर्वाणः। घृतप्रतीकः। अञ्चिघृसिभ्यः क्तः। उ० ३।८९। इति घृ भासि सेके च–क्त। अलीकादयश्च। उ० ४।२५। इति प्रति+इण् गतौ–कीकन्। घृता दीप्ताः प्रतीका अङ्गानि यस्य सः। प्रकाशस्वरूपः। घृतपृष्ठः। तिथपृष्ठगूथयूथप्रोथाः। उ० २।१२। इति पृषु सेके–थक् प्रत्ययान्तो निपातः। घृतस्य पृष्ठं सेचनं यस्मात् सः। प्रकाशेन सेचकः। घृतम्। आज्यम्। पीत्वा। पानेन स्वीकृत्य। मधु। मन–उ। मधुरम्। चारु। अ० २।५।१। मनोहरम्। गव्यम्। गोपयसोर्यत्। पा० ४।३।१६०। इति गो–यत्। वान्तो यि प्रत्यये। पा० ६।१।७९। इति अव्। गोसम्बन्धि। पिता। पाता पालकः, जनकः। इव। यथा। पुत्रान्। अ० १।११।५। पूङ् शोधे–क्त्र। शुभकर्मणा मातापित्रादिशोधकान्। तनयान्। अपत्यानि। अभि। सर्वतः। रक्षतात्। हेस्तातङ् आदेशः। पाहि। इमम्। एनमुपासकम्। ब्रह्मचारिणम् ॥

०२ परि धत्त

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परि॑ धत्त ध॒त्त नो॒ वर्च॑से॒मं ज॒रामृ॑त्युं कृणुत दी॒र्घमायुः॑।
बृह॒स्पतिः॒ प्राय॑छ॒द्वास॑ ए॒तत्सोमा॑य॒ राज्ञे॒ परि॑धात॒वा उ॑ ॥

०२ परि धत्त ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Envelop, put ye him for us with splendor; make ye him one to die of
    old age; [make] long life; Brihaspati furnished (pra-yam) this
    garment unto king Soma for enveloping [himself].
Notes

The verse is repeated below, as xix. 24. 4. It is found also in HGS. (i.
4. 2) ⌊MP. ii. 2. 6⌋, and a, b in MB. (i. 1. 6). HGS. in a omits
nas, and reads vāsasāi ’nam for varcase ’mam, and in b it has
śatāyuṣam for jarāmṛtyum; MB. agrees with this, only making the
verse apply to a girl by giving enām and śatāyuṣīm. There appears to
be a mixture of constructions in a: pári dhatta várcasā is right,
but dhattá requires rather várcase. Emending to kṛṇutá would
enable jarā́mṛtyum to be construed with imam in a ⌊; but cf. ii.
28. 2⌋. Verses 2 and 3 are apparently lost out of Ppp., not originally
wanting.

Griffith

For us surround him, cover him with splendour, give him long life, and death when age removes him. The garment hath Brihaspati presented to Soma, to the King, to w rap about him.

पदपाठः

परि॑। ध॒त्त॒। ध॒त्त। नः॒। वर्च॑सा। इ॒मम्। ज॒राऽमृ॑त्युम्। कृ॒णु॒त॒। दी॒र्घम्। आयुः॑। बृह॒स्पतिः॑। प्र। अ॒य॒च्छ॒त्। वासः॑। ए॒तत्। सोमा॑य। राज्ञे॑। परि॑ऽधात॒वै। ऊं॒ इति॑। १३.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • बृहस्पतिः
  • अथर्वा
  • त्रिष्टुप्
  • दीर्घायुप्राप्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

ब्रह्मचारी के समावर्त्तन, विद्यासमाप्ति पर वस्त्र आदि के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे विद्वानो !] (नः) हमारे लिये (इमम्) इस [ब्रह्मचारी] को (परि+धत्त) वस्त्र पहराओ और (वर्चसा) तेज वा अन्न से (धत्त) पुष्ट करो, [तथा इसका] (दीर्घम्) बड़ा (आयुः) आयु, वा आय, अर्थात् धनप्राप्ति और (जरामृत्युम्=जरा–अमृत्युं जरा–मृत्युं वा) स्तुति से अमरपन, अथवा, स्तुति वा बुढ़ापे से मृत्यु (कृणुत) करो। (बृहस्पतिः) बड़े-बड़े [विद्वानों] के रक्षक [राजा वा प्रधानाचार्य] ने (एतत्) यह (वासः) वस्त्र (सोमाय) सूर्यसमान (राज्ञे) ऐश्वर्यवाले [ब्रह्मचारी] को (उ) ही (परिधातवै) धारण करने के लिये (प्र+अयच्छत्) दान किया है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जब ब्रह्मचारी विद्या समाप्त कर चुके, विद्वान् पुरुष परस्पर उपकार के लिये उसकी योग्यता का सत्कार करें और राजा वा आचार्य विशेष वस्त्र आदि से अलंकृत करके उसका मान बढ़ावें, जिससे विद्या का प्रचार और आपस में प्रीति अधिक होवे ॥२॥ २–जैसे विद्वान् पुरुष विद्यादि चिह्नों से अलंकृत होकर पुरुषों में दर्शनीय होता है, वैसे ही मनुष्य, मनुष्य शरीर का चोला पाकर सृष्टि में सर्वश्रेष्ठ गिना जाता है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: टिप्पणी–यह मन्त्र अथर्ववेद १९।२४।३। में भी है ॥ २–परिधत्त। अन्तर्भावितण्यर्थः। परिधापयत। वस्त्रेण अलङ्कुरुत। धत्त। पोषयत। नः। अस्मभ्यम्। अस्मदर्थम्। वर्चसा। तेजसा। अन्नेन, निघ० ३।७। इमम्। दर्शनीयं ब्रह्मचारिणम्। जरामृत्युम्। जरा–अमृत्युं जरा–मृत्युं वा। षिद्भिदादिभ्योऽङ्। पा० ३।३।१०४। इति जॄष् वयोहानौ वेदे तु स्तुतौ च–अङ्। ऋदृशोऽङि गुणः। पा० ७।४।१६। इति गुणः। टाप्। जरा स्तुतिर्जरतेः स्तुतिकर्मणः–निरु० १०।८। भुजिमृङ्भ्यां युक्त्युकौ। उ० ३।२१। इति मृङ् प्राणत्यागे–त्युक्। जरया स्तुत्या अमृत्युम्। अमरत्वम्। यद्वा। जरया स्तुत्या वृद्धत्वेन वा मृत्युं मरणम्। कृणुत। कुरुत। दीर्घम्।  विदारणे–घङ्। आयतम्। प्रवृद्धम्। आयुः। अ० १।३०।३। इण् गतौ–उसि। जीवितकालः। जीवनसाधनम्। आयः। धनप्राप्तिः। बृहस्पतिः। अ० १।८।२। बृहत्+पतिः, सुट्तलोपौ। बृहस्पतिर्बृहतः पाता वा पालयिता वा–निरु० १०।११। बृहतां विदुषां रक्षकः। प्र+अयच्छत्। दाण् दाने–लङ्। पाघ्राध्मास्थाम्नादाण्०। पा० ७।३।७८। इति यच्छादेशः। अददात्। वासः। वसेर्णित्। उ० ४।२१८। इति वस आच्छादने–असुन्, स च णित्। वस्त्रम्। वासनम्। ज्ञानम्। एतत्। पुरोवर्त्ति। सोमाय। अ० १।६।२। षु प्रसवैश्वर्ययोः–मन्। सोमः सूर्यः प्रसवनात्, सोम आत्माप्येतस्मादेवेन्द्रियाणां जनितेत्यर्थः–निरु० १४।१२। सूर्यवत्तेजस्विने। राज्ञे। अ० १।१०।१। राजति=ईष्टे। निघ० २।२१। ऐश्वर्यवते पुरुषाय। परि–धातवै। तुमर्थे सेसेन्० पा० ३।४।९। इति तवै प्रत्ययः। परिधातुम्। उ। एव ॥

०३ परीदं वासो

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परी॒दं वासो॑ अधिथाः स्व॒स्तयेऽभू॑र्गृष्टी॒नाम॑भिशस्ति॒पा उ॑।
श॒तं च॒ जीव॑ श॒रदः॑ पुरू॒ची रा॒यश्च॒ पोष॑मुप॒संव्य॑यस्व ॥

०३ परीदं वासो ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Thou hast put about thee this garment in order to well-being; thou
    hast become protector of the people (?) against imprecation; both do
    thou live a hundred numerous autumns, and do thou gather about thee
    abundance of wealth.
Notes

The translation implies emendation of gṛṣṭīnā́m in b to kṛṣṭīnā́m,
as given by Ppp. and by PGS. (i. 4. 12) and HGS. (i. 4. 2) in a
corresponding expression to xix. 24.5 below. ⌊MP., ii. 2. 8, reads
āpīnā́m.⌋ Such blundering exchanges of surd and sonant are found here
and there; another is found below, in 14. 6 b ⌊so our ii. 5. 4,
Ppp.⌋. All the mss., and both editions, read here gṛṣ-, and the comm.
explains it by gavām, and, with absurd ingenuity, makes it apply to
the asserted fear of kine, on seeing a naked man, that he is going to
take from them the skin which formerly belonged to him, but was given to
them instead by the gods; the legend is first given in the words of the
comm. himself, and then quoted from śB. iii. 1. 2. 13-17. For comparison
of the Sūtra-texts in detail, see under xix. 24. 5, 6. In c, our O.
Op. read jī́vas. ⌊Cf. MGS. i. 9. 27 a and p. 152, s.v. paridhāsye.
With c, d cf. PGS. ii. 6. 20.⌋ The first pāda is properly jagatī
(su-astáye).

⌊☞ See p. 1045.⌋

Griffith

Thou for our w eal hast clothed thee in the mantle: thou hast become our heifers’ guard from witchcraft. Live thou a hundred full and plenteous autumns, and wrap thee in prosperity of riches.

पदपाठः

परि॑। इ॒दम्। वासः॑। अ॒धि॒थाः॒। स्व॒स्तये॑। अभूः॑। गृ॒ष्टी॒नाम्। अ॒भि॒श॒स्ति॒ऽपाः। ऊं॒ इति॑। श॒तम्। च॒। जीव॑। श॒रदः॑। पु॒रू॒चीः। रा॒यः। च॒। पोष॑म्। उ॒प॒ऽसंव्य॑यस्व। १३.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • बृहस्पतिः
  • अथर्वा
  • त्रिष्टुप्
  • दीर्घायुप्राप्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

ब्रह्मचारी के समावर्त्तन, विद्यासमाप्ति पर वस्त्र आदि के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे ब्रह्मचारिन् !] (इदम्) इस (वासः) वस्त्र को (स्वस्तये) आनन्द बढ़ाने के लिये (परि+अधिथाः) तूने धारण किया है और (गृष्टीनाम्) ग्रहणीया गौओं की (अभिशस्तिपाः) हिंसा से रक्षा करनेवाला (उ) अवश्य (अभूः) तू हुआ है। (च) निश्चय करके (पुरूचीः) बहुत पदार्थों से व्याप्त (शतम्) सौ (शरदः) शरद् ऋतुओं तक (जीव) तू जीवित रह, (च) और (रायः) धन की (पोषम्) पुष्टि [वृद्धि] को (उप–सं–व्ययस्व) अपने सब ओर धारण कर ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - विद्वान् लोग ब्रह्मचारी को विदित कर दें कि यह उसकी विद्या का सन्मान इसलिये किया गया है कि संसार में गौ आदि उपकारी पदार्थों और विद्या धन और सुवर्ण आदि धन की वृद्धि करके कीर्त्तियुक्त जीवन व्यतीत करे ॥३॥ यह मन्त्र कुछ भेद से अथर्ववेद १९।२४।६। में है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३–इदम्। अ० २।१।१। पुरोवर्त्ति। वासः। म० २। वस्त्रम्। परि+अधिथाः। स्थाघ्वोरिच्च। पा० १।२।१७। इति धाञो लुङि इकारोऽन्तादेशः, सिच्च किद्वत्। ह्रस्वादङ्गात्। पा० ८।२।२७। इति सिज्लोपः। परिहितवानसि। प्राप्तवानसि। स्वस्तये। अ० १।३०।२। सु+अस सत्तायाम्–ति प्रत्ययः। क्षेमाय। अभूः। भू–लुङ्। त्वं वर्त्तमानोऽभूः। गृष्टीनाम्। ग्रह उपादाने–क्तिच्। पृषोदरादित्वात् साधुः। ग्राह्यानां गवाम्। अभिशस्तिपाः। अभि–शंसु स्तुतौ, हिंसायां च–क्तिन्। पा रक्षणे–विच्। अभिशस्तिः। अभितो विशसनं हिंसा, तन्निमित्ताद् भयात् पालकः–इति सायणः। हिंसाभयाद् रक्षकः। शतम्। बहुनाम–निघ० ३।१। बह्वीः। जीव। जीव प्राणे। प्राणान् धारय। शरदः। अ० १।१०।२। ऋतुविशेषान्। संवत्सरान्। पुरुचीः। ऋत्विग्दधृक्०। पा० ३।२।५९। इति पुरु+अञ्चू गतिपूजनयोः–क्विन्। अनिदितां हल उपधायाः क्ङिति। पा० ६।४।२४। इति नलोपः। उगितश्च। पा० ४।१।६। अत्र वार्त्तिकम्। अञ्चतेश्चोपसंख्यानम्। इति ङीप्। बहुविधान् पदार्थान् व्याप्नुवतीः। रायः। रै–ङस् विभक्तिः। धनस्य। पोषम्। पुष्लृ पोषणे–घञ्। पुष्टिम्। समृद्धिम्। उप–सम्–व्ययस्व। व्येञ् आच्छादने। परिधत्स्व ॥

०४ एह्यश्मानमा तिष्ठाश्मा

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

एह्यश्मा॑न॒मा ति॒ष्ठाश्मा॑ भवतु ते त॒नूः।
कृ॒ण्वन्तु॒ विश्वे॑ दे॒वा आयु॑ष्टे श॒रदः॑ श॒तम् ॥

०४ एह्यश्मानमा तिष्ठाश्मा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Come, stand on the stone; let thy body become a stone; let all the
    gods make thy life-time a hundred autumns.
Notes

The second pāda is nearly identical with RV. vi. 75. 12 b; with a,
b
compare also AGS. i. 7. 7 and MB. i. 2. 1, similar lines used in the
nuptial ceremonies. ⌊With a, c, d compare MGS. i. 22. 12 and p.
149.⌋ Ppp. has for a, b imam aśmānam ā tiṣṭhā ’śme ’va tvaḿ sthiro
bhava: pra mṛṇīhi durasyataḥ sahasva pṛtanāyataḥ;
which differs but
little from the AGS. verse. The Anukr. apparently expects us to resolve
ví-śu-e in c.

Griffith

Come hither, stand upon the stone: thy body shall become a stone. The Universal Gods shall make thy life a hundred autumns long.

पदपाठः

आ। इ॒हि॒। अश्मा॑नम्। आ। ति॒ष्ठ॒। अश्मा॑। भ॒व॒तु॒। ते॒। त॒नूः। कृ॒ण्वन्तु॑। विश्वे॑। दे॒वाः। आयुः॑। ते॒। श॒रदः॑। श॒तम्। १३.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आयुः
  • अथर्वा
  • अनुष्टुप्
  • दीर्घायु प्राप्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

ब्रह्मचारी के समावर्त्तन, विद्यासमाप्ति पर वस्त्र आदि के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे ब्रह्मचारिन्] (एहि=आ+इहि) तू आ, (अश्मानम्) इस शिला पर (आ+तिष्ठ) चढ़, (ते) तेरा (तनूः) तन [शरीर] (अश्मा) शिला [शिला जैसा दृढ़] (भवतु) होवे। (विश्वे) सब (देवाः) उत्तम गुणवाले [पुरुष और पदार्थ] (ते) तेरी (आयुः) आयु को (शतम्) सौ (शरदः) शरद् ऋतुओं तक (कृण्वन्तु) [दीर्घ] करें ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - ब्रह्मचारी को शिक्षा दें कि वह यथानियम पथ्यसेवन, व्यायाम, ब्रह्मचर्य और पौरुष करके अपने शरीर को दृढ़ और स्वस्थ रक्खे और विद्वानों के मेल और उत्तम पदार्थों के सेवन से पूर्ण आयु भोगकर संसार में उपकार करे ॥४॥ अथर्ववेद १।२।२। में आया है(अश्मानं तन्वं कृधि) शरीर को पत्थर सा दृढ़ बना॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४–आ+इहि। आगच्छ। अश्मानम्। अ० १।२।२। प्रस्तरम्। अश्मा। पाषाणशिला। पाषाणवद्दृढा। आ+तिष्ठ। अधितिष्ठ। आरूढो भव। तनूः। तनु विस्तारे–ऊ। शरीरम्। कृण्वन्तु। कुर्वन्तु। विश्वे। सर्वे। देवाः। दिव्यगुणाः पुरुषाः पदार्था वा। आयुः। म० २। जीवनम्। ते। तव। युष्मत्तत्ततक्षुष्वन्तःपादम्। पा० ८।३।१०३। इति सकारस्य षत्वम्। शरदः। शरदृतून्। संवत्सरान्। शतम्। बह्वीः। बहुसंवत्सरान् ॥

०५ यस्य ते

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

यस्य॑ ते॒ वासः॑ प्रथमवा॒स्यं॑१ हरा॑म॒स्तं त्वा॒ विश्वे॑ऽवन्तु दे॒वाः।
तं त्वा॒ भ्रात॑रः सु॒वृधा॒ वर्ध॑मान॒मनु॑ जायन्तां ब॒हवः॒ सुजा॑तम् ॥

०५ यस्य ते ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Thee here, of whom we take the garment to be first worn, let all the
    gods favor; thee here, growing with good growth, let many brothers be
    born after, ⌊[after thee,]⌋ as one well born.
Notes

This verse makes it pretty evident that in vs. 3 also the garment is the
first that is put on the child after birth. But the comm., ignoring the
gerundive -vāsyam, thinks it a “formerly worn” garment that is “taken
away”; and Kāuś. misuses it correspondingly. HGS. (i. 7. 17) has a
corresponding verse, omitting vāsas in a, combining viśve av- in
b, and reading suhṛdas for suvṛdhā in c. ⌊Nearly so, MP. ii.
6. 15.⌋ In Ppp. the text is defective; but savitā is read instead of
suvṛdhā. Some of our saṁhitā-mss. (P.M.W.I.H.) lengthen to -vasyàm
before hárāmas in a. The verse is very irregular in the first
three pādas, though it can by violence be brought into triṣṭubh
dimensions; it has no jagatī quality whatever.

Griffith

So may the Universal Gods protect thee, whom we divest of raiment worn aforetime. So after thee, well-formed and growing stronger, be born a multitude of thriving brothers.

पदपाठः

यस्य॑। ते॒। वासः॑। प्र॒थ॒म॒ऽवा॒स्य᳡म्। हरा॑मः। तम्। त्वा॒। विश्वे॑। अ॒व॒न्तु॒। दे॒वाः। तम्। त्वा॒। भ्रात॑रः। सु॒ऽवृधा॑। वर्ध॑मानम्। अनु॑। जा॒य॒न्ता॒म्। ब॒हवः॑। सुऽजा॑तम्। १३.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • विश्वदेवाः
  • अथर्वा
  • विराड्जगती
  • दीर्घायु प्राप्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

ब्रह्मचारी के समावर्त्तन, विद्यासमाप्ति पर वस्त्र आदि के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे ब्रह्मचारिन्] (यस्य) जिस (ते) तेरे (प्रथमवास्यम्) प्रधानता से धारणयोग्य (वासः) वस्त्र को (हरामः) हम लाते हैं [धारण कराते हैं] (तम्) उस (त्वा) तेरी (विश्वे) सब (देवाः) उत्तम गुण (अवन्तु) रक्षा करें। और (तम्) उस (सुवृधा) उत्तम सम्पत्ति से (वर्धमानम्) बढ़ते हुए, (सुजातम्) पूजनीय जन्मवाले (त्वा) तेरे (अनु) पीछे (बहवः) बहुत से (भ्रातरः) भाई (जायन्ताम्) प्रकट हों ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जब ब्रह्मचारी इस प्रकार विद्वानों में बड़ा मान पावे, तब वह उत्तम गुणों की प्राप्ति से ऐसी वृद्धि और उन्नति करे कि उसी के समान उसके दूसरे भ्रातृगण संसार में यश प्राप्त करें ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: टिप्पणी–इस सूक्त में (वासः) पद का चोला अर्थात् मनुष्यशरीर अर्थ करने से आध्यात्मिक विषय का विनियोग भी हो सकता है। यथा मन्त्र २ देखिये ॥ ५–वासः। वस्त्रम्। शरीरम्। प्रथमवास्यम्। प्रथ ख्यातौ–अमच्। ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।१।१२४। इति वस आच्छादने–कर्मणि ण्यत्। तित् स्वरितम्। पा० ६।१।१८५। इति स्वरितम्। प्रथमं प्रधानत्वेन वास्यं परिधानीयम्। हरामः। प्रापयामः। तम्। तादृशम्। त्वा। त्वां ब्रह्मचारिणमात्मानं वा। अवन्तु। रक्षन्तु। भ्रातरः। नप्तृनेष्टृत्वष्टृहोतृपोतृ०। उ० २।९५। इति टुभ्राजृ दीप्तौ–तृन्। यद्वा। भृञ् भरणे–तृन्। भ्राजमानाः परस्परं दीप्यमानाः। परस्परपोषकाः। सहोदराः। भ्रातृवत् परस्परपोषणशीलाः पुरुषाः। सुवृधा। वृधु वृद्धौ–क्विप्। महावृद्ध्या। समृद्ध्या। वर्धमानम्। वृधु–शानच्। वृद्धिविशिष्टम्। अनु। अनुसृत्य जायन्ताम्। जनी प्रादुर्भावे। प्रादुर्भवन्तु। उत्पद्यन्ताम्। बहवः। अनेकाः। सु–जातम्। जनी–क्त। प्रशस्तजन्मानम् ॥