००७ शापमोचनम् ...{Loading}...
Whitney subject
- Against curses and cursers: with a plant.
VH anukramaṇī
शापमोचनम्।
१-५ अथर्वा। भैषज्यं, आयुः, वनस्पतिः। अनुष्टुप्, १ भुरिक्, ४ विराडुपरिष्टाद् बृहती।
Whitney anukramaṇī
[Atharvan.—bhāiṣajyāyurvanaspatidāivatyam. ānuṣṭubham: 1. bhurij; 4. virāḍupariṣṭādbṛhatī.]
Whitney
Comment
Not found in Pāipp. Used with other hymns (ii. 25; vi. 85, etc.) in a healing rite (Kāuś. 26. 33-35) for various evils, and accompanying especially (ib. 35) the binding on of an amulet. And the comm. reports the hymn as employed by Nakṣ. Kalpa (17, 19) in a mahāśānti called bhārgavī.
Translations
Translated: Weber, xiii. 148; Ludwig, p. 508; Grill, 24, 81; Griffith, i. 49; Bloomfield, 91, 285.
Griffith
A counter-charm against imprecation and malignity
०१ अघद्विष्टा देवजाता
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अ॒घद्वि॑ष्टा दे॒वजा॑ता वी॒रुच्छ॑पथ॒योप॑नी।
आपो॒ मल॑मिव॒ प्राणै॑क्षी॒त्सर्वा॒न्मच्छ॒पथाँ॒ अधि॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॒घद्वि॑ष्टा दे॒वजा॑ता वी॒रुच्छ॑पथ॒योप॑नी।
आपो॒ मल॑मिव॒ प्राणै॑क्षी॒त्सर्वा॒न्मच्छ॒पथाँ॒ अधि॑ ॥
०१ अघद्विष्टा देवजाता ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Hated by mischief, god-born, the curse-effacing plant hath washed
away from me all curses, as waters do filth.
Notes
Āp. (vi. 20. 2) has a verse much like this: atharvyuṣṭā devajūtā vīḍu
śapathajambhanīḥ: āpo malam iva prā ’ṇijann asmat su śapathāṅ adhi. The
comm. explains -yopanī in c ⌊discussed by Bloomfield, AJP. xii.
421⌋ as vimohanī nivārayitrī. The comm. states dūrvā (panicum
dactylon) to be the plant intended, and the Anukr. also says dūrvām
astāut. In our edition read in d máchap- (an accent-sign slipped
out of place). The Anukr. refuses this time to sanction the not
infrequent contraction málam ’va in c.
Griffith
Hated by sinners, sprung from Gods, this Plant that turns the curse away Hath washed from me all curses, as water makes clean from spot and stain.
पदपाठः
अ॒घऽद्वि॑ष्टा। दे॒वऽजा॑ता। वी॒रुत्। श॒प॒थ॒ऽयोप॑नी। आपः॑। मल॑म्ऽइव। प्र। अ॒नै॒क्षी॒त्। सर्वा॑न्। मत्। श॒पथा॑न्। अधि॑। ७.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- भैषज्यम्, आयुः, वनस्पतिः
- अथर्वा
- भुरिगनुष्टुप्
- शापमोचन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अघद्विष्टा) पाप में द्वेष [अप्रीति] करनेवाली (देवजाता) विद्वानों में प्रसिद्ध (वीरुत्) ओषधि [ओषधि के समान फैली हुयी ईश्वरशक्ति] (शपथयोपनी) शाप [क्रोधवचन को] हटानेवाली है। उसने (मत् अधि) मुझसे (सर्वान्) सब (शपथान्) शापों [कुवचनों] को (प्र+अनैक्षीत्) धो डाला है, (इव) जैसे (आपः) जल (मलम्) मल को ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे उत्तम ओषधि से शरीर के रोग मिट जाते और जल से मलीन वस्त्र आदि शुद्ध होते हैं, वैसे ही पापी कुक्रोधी मनुष्य भी ब्रह्मज्ञान द्वारा पापों से छूटकर शुद्धात्मा हो जाते और ईश्वर के उपकारों को विचारकर उपकारी बनते और सदा आनन्द भोगते हैं ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १–अघद्विष्टा। अघ+द्विष अप्रीतौ–क्त। अघं पापं द्विष्टं तिरस्कृतं यया सा। पापद्वेषिणी। देवजाता। देवेषु विद्वत्सु प्रसिद्धा वीरुत्। अ० १।३२।१। वीरुध ओषधयो भवन्ति विरोहणात्–निरु० ६।३। विरोहणशीला। ओषधिः। लता। शपथयोपनी। शीङ्शपिरुगमि०। उ० ३।१३। इति शप आक्रोशे–अथ। युप विमोहने–करणे ल्युट्। शापस्य क्रोधवचनस्य फलस्य विमोहनी निवारयित्री। आपः। जलानि। मलम्। मृज्यते शोध्यते यत्। मृजेष्टिलोपश्च। उ० १।११०। इति मृज शोधने–अलच् टिलोपश्च। ङीप्। किट्टम्। स्वेदपङ्कादिकम्। पापम्। प्र+अनैक्षीत्। णिजिर् शौचपोषणयोः–छान्दसे लुङि रूपम्। प्रकर्षेण अक्षालीत्। मत्। मत्तः ॥
०२ यश्च सापत्नः
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यश्च॑ साप॒त्नः श॒पथो॑ जा॒म्याः श॒पथ॑श्च॒ यः।
ब्र॒ह्मा यन्म॑न्यु॒तः शपा॒त्सर्वं॒ तन्नो॑ अधस्प॒दम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यश्च॑ साप॒त्नः श॒पथो॑ जा॒म्याः श॒पथ॑श्च॒ यः।
ब्र॒ह्मा यन्म॑न्यु॒तः शपा॒त्सर्वं॒ तन्नो॑ अधस्प॒दम् ॥
०२ यश्च सापत्नः ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Both the curse that is a rival’s, and the curse that is a sister’s,
what a priest (? brahmán) from fury may curse—all that [be]
underneath our feet.
Notes
Sāpatná perhaps here ‘of a fellow wife,’ and jāmyā́s perhaps ‘of a
near female relative’; the comm. explains jāmi as “sister, but
connoting one’s fellows (sahajāta).”
Griffith
All curses of a rival, each curse of a female relative, Curse uttered by an augry priest, all these we tread beneath our feet.
पदपाठः
यः। च॒। सा॒प॒त्नः। श॒पथः॑। जा॒म्याः। श॒पथः॑। च॒। यः। ब्र॒ह्मा। यत्। म॒न्यु॒तः। शपा॑त्। सर्व॑म्। तत्। नः॒। अ॒धः॒ऽप॒दम्। ७.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- भैषज्यम्, आयुः, वनस्पतिः
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- शापमोचन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (च) और (यः) जो (सापत्नः) वैरियों का किया हुआ (शपथः) शाप [क्रोधवचन] (च) और (यः) जो (जाम्याः) कुलस्त्री का (शपथः) शाप है और (ब्रह्मा) वेदवेत्ता ब्राह्मण (मन्युतः) क्रोध से (यत्) जो कुछ (शापात्) शाप दे [क्रोधवचन कहे], (तत्) वह (सर्वम्) सब (नः) हमारे (अधस्पदम्) उद्योग के नीचे रहे ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - यदि हमसे कोई वेदविरुद्ध खोटा कर्म हो जावे, जिससे हमारे शत्रु, हमारी स्त्रियाँ, हमारे ब्राह्मणादि विद्वान् लोग क्रुद्ध हों, तब हम पूरा-पूरा प्रयत्न करें कि हमारे शिष्टाचार और वैदिक कर्म से शापमोचन हो जावे, अर्थात् वे सब हमसे पूर्ववत् फिर प्रीति करने लगें ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २–सापत्नः। धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। इति सह+पत गतौ, ऐश्ये च–न प्रत्ययः, सहस्य सः। ततः सम्बन्धे–अण्। सपत्नसम्बन्धी। शात्रवः। शपथः। म० १। आक्रोशः। क्रोधवचनम्। जाम्याः। नियो मिः। उ० ४।४३। इति या गतौ–मि प्रत्ययः, यकास्य जकारः। याति कार्याणि सा जामिः स्वसा कुलस्त्री वा। अथवा। वसिवपियजि०। उ० ४।१२५। इति जम भक्षणे गतौ च–इञ्, अथवा। जन–इञ्। जामिरन्येऽस्यां जनयन्ति जामपत्यं जमतेर्वा स्याद् गतिकर्मणः–नि० ३।६। जाम्यतिरेकनाम बालिशस्य वासमानजातीयस्य वोपजनः–निरु० ४।२०। बालिशस्य मूर्खस्य, अथवा असमानजातीयस्य असपिण्डस्य। ब्रह्मा। अ० २।६।२। वेदवेत्ता। ब्राह्मणः। मन्युतः। पञ्चम्यास्तसिल्। पा० ५।३।७। इति तसिल्। क्रोधात्। नः। अस्माकम्। अधस्पदम्। अधःशिरसी पदे। पा० ८।३।४७। इति विसर्गस्य सत्वम्। नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः। पा० ३।१।१३४। इति पद स्थैर्ये, गत्यां च–अच्। पदम्=व्यवसायः, पादः, चिह्नम्–इति शब्दकल्पद्रुमे। पदस्य व्यवसायस्य उद्योगस्य अधस्ताद् अधोभागे, असमर्थं भवतु ॥
०३ दिवो मूलमवततम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
दि॒वो मूल॒मव॑ततं पृथि॒व्या अध्युत्त॑तम्।
तेन॑ स॒हस्र॑काण्डेन॒ परि॑ णः पाहि वि॒श्वतः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
दि॒वो मूल॒मव॑ततं पृथि॒व्या अध्युत्त॑तम्।
तेन॑ स॒हस्र॑काण्डेन॒ परि॑ णः पाहि वि॒श्वतः॑ ॥
०३ दिवो मूलमवततम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- From the sky [is] the root stretched down, from off the earth
stretched up; with this, thousand-jointed (-kā́ṇḍa), do thou protect us
about on all sides.
Notes
Compare xix. 32.3, where darbha-grass is the plant simllarly described
and used.
Griffith
Spread on the surface of the earth, downward from heaven thy root depends: With this that hath a thousand joints keep thou us safe on every side.
पदपाठः
दि॒वः। मूल॑म्। अव॑ऽततम्। पृ॒थि॒व्याः। अधि॑। उत्ऽत॑तम्। तेन॑। स॒हस्र॑ऽकाण्डेन। परि॑। नः॒। पा॒हि॒। वि॒श्वतः॑। ७.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- भैषज्यम्, आयुः, वनस्पतिः
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- शापमोचन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - जो (मूलम्) मूल [तत्त्वज्ञान] (दिवः) सूर्यलोक से (अवततम्) नीचे को फैला हुआ है और जो (पृथिव्याः अधि) पृथिवी पर से (उत्ततम्) ऊपर को फैला है। [हे ईश्वर !] (तेन) उस (सहस्रकाण्डेन) सहस्रों शाखावाले [तत्त्वज्ञान] के द्वारा (विश्वतः) सब प्रकार से (नः) हमारी (परि) सब ओर (पाहि) रक्षा कर ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सूर्य द्वारा वृष्टि, प्रकाश आदि भूमि पर आते और भूमि से जल सूर्यलोक वा मेघमण्डल में जाता और सब छोटे-बड़े लोक परस्पर आकर्षण और धारण रखते हैं। इसी प्रकार ईश्वरीय अनन्त नियमों को देखकर सब प्रजागण राजनियमों में चलकर परस्पर उपकार करें ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३–दिवः। द्युलोकात्। सूर्यमण्डलात्। मूलम्। मवते बध्नातीति। मूशक्यविभ्यः क्लः। उ० ४।१०८। इति मूङ् बन्धने–क्ल। अथवा। मूल प्रतिष्ठायां रोपणे वा–क। आदिकारणम्। तत्त्वज्ञानम्। अवततम्। अव+तनु विस्तारे–क्त। अधोमुखं प्रसृतम्। अधि। उपरि। उत्ततम्। उत्+तनु–क्त। ऊर्ध्वम्। उन्नतं विस्तृतम्। सहस्रकाण्डेन। क्वादिभ्यः कित्। उ० १।११५। इति कण शब्दे गतौ च–ड, डस्य नेत्त्वम्। अनुनासिकस्य क्विझलोः क्ङिति। पा० ६।४।१५। इति दीर्घः। अपरिमितपर्वयुक्तेन। विश्वतः। भीत्रार्थानां भयहेतुः। पा० १।४।२५। इत्यपादानसंज्ञायाम्। पञ्चम्यास्तसिल्। पा० ५।३।७। इति तसिल्। सर्वस्मात् कष्टात् ॥
०४ परि माम्
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परि॒ मां परि॑ मे प्र॒जां परि॑ णः पाहि॒ यद्धन॑म्।
अरा॑तिर्नो॒ मा ता॑री॒न्मा न॑स्तारि॒शुर॒भिमा॑तयः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
परि॒ मां परि॑ मे प्र॒जां परि॑ णः पाहि॒ यद्धन॑म्।
अरा॑तिर्नो॒ मा ता॑री॒न्मा न॑स्तारि॒शुर॒भिमा॑तयः ॥
०४ परि माम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Protect me about, my progeny, [and] what riches are ours; let not
the niggard get the better (tṛ) of us; let not hostile plotters get
the better of us.
Notes
Our text reads at the beginning párī ’mā́m, with the majority of our
mss. (only P.p.m. W.K.Kp. are noted as not doing so); but pári mā́m,
which SPP. gives, and which all his authorities, as reported by him,
support, is doubtless better, and the translation follows it. Two of our
mss. (H.K.), with one of SPP’s, give arātir ṇo m- in c The irregular
meter of the verse (8 + 8: 7 + 10 = 33) is very ill described by the
Anukr. ⌊The avasāna of c is put after tārīt; but the accent of
tāriṣús marks that as the initial of d. RV. ix. 114. 4 suggests
that our c is in disorder.⌋
Griffith
Guard on all sides this woman, guard my children, us, and all our wealth! Let not malignity o’ercome, nor adversaries conquer us.
पदपाठः
परि॑। माम्। परि॑। मे॒। प्र॒ऽजाम्। परि॑। नः॒। पा॒हि॒। यत्। धन॑म्। अरा॑ति। नः॒। मा। ता॒री॒त्। मा। नः॒। ता॒रि॒षुः। अ॒भिऽमा॑तयः। ७.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- भैषज्यम्, आयुः, वनस्पतिः
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- शापमोचन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (माम्) मेरी (परि=परितः) सब प्रकार, (मे) मेरी (प्रजाम्) प्रजा [पुत्र, पौत्र, भृत्य आदि] की (परि) सब प्रकार और (नः) हमारा (यत्) जो (धनम्) धन है [उसकी भी] (परि) सब प्रकार (पाहि) तू रक्षा कर। (अरातिः) कोई अदानी, कंजूस, पुरुष (नः) हमें (मा तारीत्) न दबावे और (अभिमातयः) अभिमानी लोग भी (नः) हमें (मा तारिषुः) न दबावें ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य आत्मरक्षा, प्रजारक्षा और धनरक्षा करके दुष्टों को न्याययुक्त दण्ड देकर सदा आनन्द से रहें ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४–प्रजाम्। प्रजायते सा प्रजा। उपसर्गे च संज्ञायाम्। पा० ३।२।९९। प्र+जन जनने–ड। पुत्रपौत्रभृत्यादिसन्ततिम्। जनम्। अरातिः। अ० १।१८।१। अदानशीलम्। कृपणम्। शत्रुम्। नः। अस्मान्। मा तारीत्। तॄ तरणे, अभिभवे–लुङ्। न माङ्योगे। पा० ६।४।७४। इत्यडभावः। माभिभवतु। मातिक्रामतु। मा तारिषुः। लुङि पूर्ववद् अडभावः। मा हिंसन्तु। अभिमातयः। अ० २।६।३। अभिमानिनो जनाः। शत्रवः ॥
०५ शप्तारमेतु शपथो
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श॒प्तार॑मेतु श॒पथो॒ यः सु॒हार्त्तेन॑ नः स॒ह।
चक्षु॑र्मन्त्रस्य दु॒र्हार्दः॑ पृ॒ष्टीरपि॑ शृणीमसि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
श॒प्तार॑मेतु श॒पथो॒ यः सु॒हार्त्तेन॑ नः स॒ह।
चक्षु॑र्मन्त्रस्य दु॒र्हार्दः॑ पृ॒ष्टीरपि॑ शृणीमसि ॥
०५ शप्तारमेतु शपथो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Let the curse go to the curser; our [part] is along with him that
is friendly (suhā́rd); of the eye-conjurer (-mántra), the unfriendly,
we crush in the ribs (pṛṣṭí).
Notes
Nearly all our mss. (except P.M.K.), and part of SPP’s, read in b
suhā́t; many also have in d pṛṣṭhī́s, but the distinction of ṣṭ
and ṣṭh is not clearly made in any of the mss. The comm. takes
cakṣus and mantrasya in c as two independent words. ⌊See
Griflith’s note, and mine to xix. 45. 2.⌋
Griffith
Upon the curser fall his curse! Dwell we with him whose heart is true! We split the cruel villain’s ribs whose evil eye bewitches us.
पदपाठः
श॒प्तार॑म्। ए॒तु॒। श॒पथः॑। यः। सु॒ऽहार्त्। तेन॑। नः॒। स॒ह। चक्षुः॑ऽमन्त्रस्य। दुः॒ऽहार्दः॑। पृ॒ष्टीः। अपि॑। शृ॒णी॒म॒सि॒। ७.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- भैषज्यम्, आयुः, वनस्पतिः
- अथर्वा
- विराडुपरिष्टाद्बृहती
- शापमोचन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजा के धर्म का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (शपथः) [हमारा] क्रोधवचन (शप्तारम्) कुवचन बोलनेवाले को (एतु) प्राप्त हो और (यः) जो (सुहार्त्) अनुकूल हृदयवाला [शुभचिन्तक] है। (तेन) उस [मित्र] के साथ (नः) हमारा (सह=सहवासः) सहवास हो। (चक्षुर्मन्त्रस्य) आँख से गुप्त बात करनेवाले, (दुर्हार्दः) दुष्टहृदयवाले पुरुष की (पृष्टीः) पसलियों को (अपि) ही (शृणीमसि=०–मः) हम तोड़ डालें ॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा को उचित है कि निन्दकों पर क्रोध और शुभचिन्तक सत्पुरुषों का आदर करे और जो अनिष्टचिन्तक कपटी छली हों, उनको भी दण्ड देता रहे ॥५॥ (चक्षुर्मन्त्रस्य) समासान्त पद को पदपाठ के विरुद्ध सायणाचार्य ने [मन्त्रस्य चक्षुः] दो पद मानकर व्याख्या की है, वह असाधु है। यह समस्त पद (दुर्हार्दः) पद का विशेषण है। इसका प्रयोग अ० १९।४५।१। में इस प्रकार है। चक्षु॑र्मन्त्रस्य दु॒र्हार्दः पृ॒ष्टीरपि॑ शृणाञ्जन ॥ (अञ्जन) हे आँखें खोल देनेवाले ! तू आँख से गुप्त बात करनेवाले दुष्टहृदयवाले की पसलियाँ ही (शृण) तोड़ दे ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५–शप्तारम्। शापकर्तारम्। अनीत्या कटुवक्तारम्। एतु। गच्छतु। प्राप्नोतु। शपथः। म० २। आक्रोशः। क्रोधवचनम्। सुहार्त्। हार्दम् आनुकूल्यं करोति हार्दयतीति। हार्दयतेः क्विपि णिलोपे रूपम्। शोभनहृदयः। सुमनस्कः। अनुकूलकारी। तेन। पूर्वोक्तेन। सुहृदयेन मित्रेण। सह। षह क्षमायाम्–अच्। संयोगः। सम्बन्धः। चक्षुर्मन्त्रस्य। चक्षेः शिच्च। उ० २।११९। इति चक्षिङ् कथने दर्शने च–उसि। शित्त्वात् ख्याञादेशाभावः। मत्रि गुप्तभाषणे–अच् घञ् वा। चक्षुषा नेत्रेण मन्त्रो गुप्तभाषणं परामर्शो यस्य तस्य। नेत्रसङ्केतेन विचारशीलस्य पिशुनस्य। दुर्हार्दः। सुहार्त् शब्दवद् व्युत्पत्तिः। दुष्टहृदयस्य। क्रूरपुरुषस्य। पृष्टीः। क्तिच्क्तौ च संज्ञायाम्। पा० ३।३।६४।१७४। इति पृषु सेचने–क्तिच्। पर्श्वस्थीनि। पार्श्वावयवान्। शृणीमसि। शॄ हिंसायाम्। इदन्तो मसिः। पा० ७।१।६४। इति इकारः। शृणीमः। विनाशयामः ॥