००२ भुवनपतिसूक्तम् ...{Loading}...
Whitney subject
- To Gandharvas and Apsarases.
VH anukramaṇī
भुवनपतिसूक्तम्।
१-५ मातृनामा। गन्धर्वाप्सरसः। त्रिष्टुप्, १ विराड् जगती, ४ त्रिष्टुपाद्विराण्नाम गायत्री, ५ भुरिगनुष्टुप्।
Whitney anukramaṇī
[Mātṛnāman.—gandharvāpsarodevatyam. trāiṣṭubham: 1. virāḍjagatī; 4. 3-p. virāṇnāmagāyatrī; 5. bhuriganuṣṭub.]
Whitney
Comment
Found in Pāipp. i. (only in the nāgarī copy). Called by Kāuś. (8. 24), with vi. 111 and viii. 6 (and the schol. add iv. 20: see ib., note), mātṛnāmāni ‘mother-names’ (perhaps from the alleged author); they are employed in a remedial rite (26. 29: “against seizure by Gandharvas, Apsarases, demons etc.” comm.), and several times (94. 15; 95. 4; 96. 4; 101. 3; 114. 3; 136. 9) in charms against various portents (adbhutāni). And verse 1 is allowed by Vāit. (36. 28) to be used in the aśvamedha sacrifice as alternative for one given in its text (27). Further, the comm. quotes the mātṛnāman hymns from the śānti Kalpa (16) as accompanying an offering in the sacrifice to the planets (grahayajña); and from the Nakṣ. Kalpa (23) in the tantrabhūtā mahāśānti.
Translations
Translated: Weber, xiii. 133; Griffith, i. 42; verses 3-5 also by Weber, Abh. Berliner Akad. 1858, p. 350 (= Omina und Portenta).—Cf. Hillebrandt, Ved. Mythol. i. 433.
Griffith
A charm to ensure success in gambling
०१ दिव्यो गन्धर्वो
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
दि॒व्यो ग॑न्ध॒र्वो भुव॑नस्य॒ यस्पति॒रेक॑ ए॒व न॑म॒स्यो॑ वि॒क्ष्वीड्यः॑।
तं त्वा॑ यौमि॒ ब्रह्म॑णा दिव्य देव॒ नम॑स्ते अस्तु दि॒वि ते॑ स॒धस्थ॑म् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
दि॒व्यो ग॑न्ध॒र्वो भुव॑नस्य॒ यस्पति॒रेक॑ ए॒व न॑म॒स्यो॑ वि॒क्ष्वीड्यः॑।
तं त्वा॑ यौमि॒ ब्रह्म॑णा दिव्य देव॒ नम॑स्ते अस्तु दि॒वि ते॑ स॒धस्थ॑म् ॥
०१ दिव्यो गन्धर्वो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The heavenly Gandharva, who is lord of being (bhúvana), the only
one to receive homage, to be praised (īḍ) among the clans (víś)—thee
being such I ban (yu) with incantation, O heavenly god; homage be to
thee; in the heaven is thy station.
Notes
Ppp. reads in c deva divya. The comm. understands yāumi in c
as “join” (saṁyojayāmi) ⌊BR. vi. 138, ‘festhalten’⌋: RV. i. 24. 11
a, tát tvā yāmi bráhmaņā, suggests emendation. The combination
yás p- in a is by Prāt. ii. 70.
Griffith
Lord of the World, divine Gandharva, only he should be honoured in the Tribes and worshipped. Fast with my spell, celestial God, I hold thee. Homage to thee! Thy home is in the heavens.
पदपाठः
दि॒व्यः। ग॒न्ध॒र्वः। भुव॑नस्य। यः। पतिः॑। एकः॑। ए॒व। न॒म॒स्यः᳡। वि॒क्षु। ईड्यः॑। तम्। त्वा॒। यौ॒मि॒। ब्रह्म॑णा। दि॒व्य॒। दे॒व॒। नमः॑। ते॒। अ॒स्तु॒। दि॒वि। ते॒। स॒धऽस्थ॑म्। २.१।
अधिमन्त्रम् (VC)
- गन्धर्वाप्सरसः
- मातृनामा
- विराड्जगती
- भुवनपति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परमेश्वर सर्वशक्तिमान् है, इसका उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो तू (दिव्यः) दिव्य [अद्भुतस्वभाव] (गन्धर्वः) गन्धर्व [भूमि, सूर्य, वेदवाणी वा गति का धारण करनेवाला] (भुवनस्य) सब ब्रह्माण्ड का (एकः) एक (एव) ही (पतिः) स्वामी, (विक्षु) सब प्रजाओं [वा मनुष्यों] में (नमस्यः) नमस्कारयोग्य और (ईड्यः) स्तुतियोग्य है। (तम्) उस (त्वा) तुझसे, (दिव्य) हे अद्भुतस्वभाव (देव) जयशील परमेश्वर ! (ब्रह्मणा) वेद द्वारा (यौमि) मैं मिलता हूँ, (ते) तेरे लिये (नमः) नमस्कार (अस्तु) हो, (दिवि) प्रत्येक व्यवहार में (ते) तेरा (सधस्थम्) सहवास है ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - धीर, वीर, ऋषि, मुनि पुरुष उस परम पिता जगदीश्वर की सत्ता को अपने में और प्रत्येक पदार्थ में वैदिकज्ञान की प्राप्ति से साक्षात् करके अभिमान छोड़कर आत्मबल बढ़ाते हुए आनन्द भोगते हैं ॥१॥ १–(गन्धर्व) परमेश्वर का नाम है, देखिये–ऋग्वेद मं० ९ सू० ८३ म० ४ ग॒न्ध॒र्व इ॒त्था प॒दम॑स्य रक्षति॒ पाति॑ दे॒वानां॒ जनि॑मा॒न्यद्भु॑तः। गृ॒भ्णाति॑ रि॒पुं नि॒धया॑ नि॒धाप॑तिः सु॒कृत्त॑मा॒ मधु॑नो भ॒क्षमाशत ॥१॥ (गन्धर्वः) पृथिवी आदि का धारण करनेवाला, गन्धर्व, (इत्था) सत्यपन से (अस्य) इस जगत् की (पदम्) स्थिति की (रक्षति) रक्षा करता है और वह (अद्भुतः) आश्चर्यस्वरूप (देवानाम्) दिव्य गुणवालों के (जनिमानि) जन्मों अर्थात् कुलों की (पाति) चौकसी रखता है। (निधापतिः) पाश [बन्धन] का स्वामी (निधया) पाश से (रिपुम्) वैरी को (गृभ्णाति) पकड़ता है, (सुकृत्तमाः) बड़े-बड़े सुकृती पुण्यात्मा लोगों ने (मधुनः) मधुर रस के (भक्षम्) भोग को (आशत) भोगा है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १–दिव्यः। छन्दसि च। पा० ५।१।६७। इति दिव्–यः। दिवं प्रकाशं स्वर्गं वार्हतीति। द्योतनात्मकः। स्वर्गीयः। मनोज्ञः। गन्धर्वः। अ० २।१।२। गो+धृ–व। वाग्भूमिसूर्यस्वर्गाणां धारकः। परमेश्वरः। भुवनस्य। अ० २।१।३। जगतः। नमस्यः। तदर्हति। पा० ५।१।६३। इति नमस्–यत्। तित् स्वरितम्। पा० ६।१।१८५। इति स्वरितत्वम्। नमस्कारयोग्यः। विक्षु। विश प्रवेशने–क्विप्। विशः=मनुष्याः–निघ० २।३। प्रजासु। मनुष्येषु। ईड्यः। ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।१।१२४। इति ईड स्तुतौ–ण्यत्। स्तुत्यः। यौमि। उतो वृद्धिर्लुकि हलि। पा० ७।३।८९। इति यु मिश्रणे–वृद्धिः। संयोजयामि। ब्रह्मणा। अ० १।८।४। वेदज्ञाने। ते। तुभ्यम्। नमःस्वस्तिस्वाहा०। पा० २।३।१६। इति चतुर्थी। अनुदात्तं सर्वमपादादौ। पा० ८।१।१८। इत्यनुदात्तः। दिवि। दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुति०–क्विप्। स्वर्गे। प्रकाशे। व्यवहारे। सधस्थम्। सह तिष्ठन्त्येनेति। सह+ष्ठा गतिनिवृत्तौ–अधिकरणे क प्रत्ययः। सधमाधस्थयोश्छन्दसि। पा० ६।३।९६। इति सहस्य सधादेशः। सहस्थानम्। निवासस्थानम्। अन्यत् सुगमं व्याख्यातं च ॥
०२ दिवि स्पृष्टो
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दि॒वि स्पृ॒ष्टो य॑ज॒तः सूर्य॑त्वगवया॒ता हर॑सो॒ दैव्य॑स्य।
मृ॒डाद्ग॑न्ध॒र्वो भुव॑नस्य॒ यस्पति॒रेक॑ ए॒व न॑म॒स्यः॑ सु॒शेवाः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
दि॒वि स्पृ॒ष्टो य॑ज॒तः सूर्य॑त्वगवया॒ता हर॑सो॒ दैव्य॑स्य।
मृ॒डाद्ग॑न्ध॒र्वो भुव॑नस्य॒ यस्पति॒रेक॑ ए॒व न॑म॒स्यः॑ सु॒शेवाः॑ ॥
०२ दिवि स्पृष्टो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Touching the sky, worshipful, sun-skinned, deprecator of the seizure
(háras) of the gods—gracious shall be the Gandharva, who is lord of
being, the only one to receive homage, very propitious.
Notes
Ppp. begins with diva spṛṣṭo, and inverts the order of c and
d. The comm. explains sū́ryatvac by sūryasamānavarņa, and haras
by krodha. The Anukr. does not heed that c is a jagatī pāda.
Griffith
Sky-reaching, like the Sun in brightness, holy, he who averts from us the Gods’ displeasure. Lord of the World, may the Gandharva bless us, the friendly God who only must be worshipped.
पदपाठः
दि॒वि। स्पृ॒ष्टः। य॒ज॒तः। सूर्य॑ऽत्वक्। अ॒व॒ऽया॒ता। हर॑सः। दैव्य॑स्य। मृ॒डात्। ग॒न्ध॒र्वः। भुव॑नस्य। यः। पतिः॑। एकः॑। ए॒व। न॒म॒स्यः᳡। सु॒ऽशेवाः॑। २.२।
अधिमन्त्रम् (VC)
- गन्धर्वाप्सरसः
- मातृनामा
- त्रिष्टुप्
- भुवनपति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परमेश्वर सर्वशक्तिमान् है, इसका उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (दिवि) प्रत्येक व्यवहार में (स्पृष्टः) स्पर्श किये हुए, (यजतः) पूजनीय, (सूर्यत्वक्) सूर्य को त्वचा अर्थात् रूप देनेवाला, (दैव्यस्य) मदशील [प्रमत्त] मनुष्य के, अथवा आधिदैविक (हरसः) क्रोध का (अवयाता) हटानेवाला वह परमेश्वर (मृडात्) [सबको] आनन्द देवे, (यः) जो (गन्धर्वः) गन्धर्व, [म० १। भूमि, सूर्य, वेदवाणी वा गति का धारण करनेवाला] (भुवनस्य) सब जगत् का (एकः) एक (एव) ही (पतिः) स्वामी (नमस्यः) नमस्कारयोग्य और (सुशेवाः) अत्यन्त सेवायोग्य है ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - वह सर्वव्यापी, सूर्यादिप्रकाशक जगत्पिता परमेश्वर हमें सामर्थ्य देकर हमारे कुक्रोध और आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक क्लेश का नाश करता है। उस अद्वितीय, सर्वसेवनीय परमेश्वर की उपासना से सबको आनन्द मिलता है ॥२॥ १–परमेश्वर आदित्यवर्णरूप है, य० अ० ३१।१८ ॥ वेदा॒हमे॒तं पुरु॑षं म॒हान्त॑मादि॒त्यव॑र्णं॒ तम॑सः प॒रस्ता॑त्। तमे॒व वि॑दि॒त्वाति॑ मृ॒त्युमे॑ति॒ नान्यः पन्था॑ विद्यतेऽय॑नाय ॥१॥ (अहम्) मैं, (तमसः) अन्धकार वा अज्ञान से (परस्तात्) परे होकर, (एतम्) इस (महान्तम्) पूजनीय वा सबसे बड़े (आदित्यवर्णम्) सूर्य को रूप देनेवाले (पुरुषम्) अग्रगामी परमात्मा को (वेद) जानता हूँ। (तम्) उसको (एव) ही (विदित्वा) जानकर [जीव] (मृत्युम्) मृत्यु को (अत्येति) लाँघ जाता है, (अन्यः) दूसरा (पन्थाः) मार्ग (अयनाय) चलने के लिये (न) नहीं (विद्यते) विद्यमान है ॥ २–परमेश्वर ने सूर्य और चन्द्र बनाया है। ऋग्वेद म० १०। सू० १९०।३। सू॒र्या॒च॒न्द्र॒मसौ॑ धा॒ता य॑था पू॒र्वम॑कल्पयत्। (धाता) विधाता ने (सूर्याचन्द्रमसौ) सूर्य और चन्द्र को (यथापूर्वम्) पहिले के समान (अकल्पयत्) बनाया है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २–दिवि। म० १। प्रत्येकव्यवहारे। स्पृष्टः। स्पृश सम्पर्के–क्त। स्पर्शयुक्तः। स्थितः। यजतः। भृमृदृशियजि०। उ० ३।११०। इति यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु–अतच्। चित्त्वाद् अन्तोदात्तः। यष्टव्यः। पूजनीयाः। सूर्यत्वक्। सूर्यः, व्याख्यातः–अ० १।३।५। सुवति सरति वा स सूर्यः। त्वच संवरणे–क्विप्। यद्वा। तनोतेरनश्च वः। उ० २।६३। इति तनु विस्तारे–चिक्, अन् इत्यस्य वः। त्वचति संवृणोति, यद्वा, तनोति विस्तारयतीति त्वक्। सूर्यस्य त्वग्रूपं यस्मात् सः। सूर्यस्रष्टा। अवयाता। या गतौ, अन्तर्भावितणिच्–तृच्। अवयापयिता, अवगमयिता। हरसः। सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। इति हृञ् हरणे–असुन्। क्रोधस्य–निघ० २।१३। दैव्यस्य। अ० २।१२।४। देवाद् यञञौ। वा० पा० ४।१।८५। इति देव+यञ्। देवसम्बद्धस्य। आधिदैविकस्य। यद्वा मदशीलस्य, प्रमत्तस्य पुरुषस्य। मृडात्। मृड सुखने–लेटि आडागमः। इतश्च लोपः परस्मैपदेषु। पा० ३।४।९७। इति इकारलोपः। मृडयतु। सुखयतु। सुशेवाः। सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। इति सु+शेवृ सेवने–असुन्। शोभनं शेवः सेवनं यस्येति। अनायासेन सेवनीयः। अन्यद् गतं मन्त्रे १ ॥
०३ अनवद्याभिः समु
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॑नव॒द्याभिः॒ समु॑ जग्म आभिरप्स॒रास्वपि॑ गन्ध॒र्व आ॑सीत्।
स॑मु॒द्र आ॑सां॒ सद॑नं म आहु॒र्यतः॑ स॒द्य आ च॒ परा॑ च॒ यन्ति॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॑नव॒द्याभिः॒ समु॑ जग्म आभिरप्स॒रास्वपि॑ गन्ध॒र्व आ॑सीत्।
स॑मु॒द्र आ॑सां॒ सद॑नं म आहु॒र्यतः॑ स॒द्य आ च॒ परा॑ च॒ यन्ति॑ ॥
०३ अनवद्याभिः समु ...{Loading}...
Whitney
Translation
- He hath united himself (sam-gam) with those irreproachable ones
(f.); in (ápi) among the Apsarases was the Gandharva; in the ocean is,
they tell me, their seat, whence at once they both come and go.
Notes
Ppp. combines jagmā ”bhiḥ in a, and has in b apsarābhis for
-rāsu; its second half-verse reads thus: samudrā saṁ sadanam āhus
tatas sadyā upācaryantī. Weber takes saṁ jagme in a as 1st sing.
The comm. gives two diverse explanations of the verse, the first taking
the Gandharva as the sun and the Apsarases as his rays.
Griffith
I came, I met these faultless, blameless beings: among the Apsarases was the Gandharva. Their home is in the sea–so men have told me,–whence they come quickly hitherward and vanish.
पदपाठः
अ॒न॒व॒द्याभिः॑। सम्। ऊं॒ इति॑। ज॒ग्मे॒। आ॒भिः॒। अ॒प्स॒रासु॑। अपि॑। ग॒न्ध॒र्वः। आ॒सी॒त्। स॒मु॒द्रे। आ॒सा॒म्। सद॑नम्। मे॒। आ॒हुः॒। यतः॑। स॒द्यः। आ। च॒। परा॑। च॒। यन्ति॑। २.३।
अधिमन्त्रम् (VC)
- गन्धर्वाप्सरसः
- मातृनामा
- त्रिष्टुप्
- भुवनपति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परमेश्वर सर्वशक्तिमान् है, इसका उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (गन्धर्वः) गन्धर्व [म० १] (आभिः) इन (अनवद्याभिः) निर्दोष [अप्सराओं] के साथ (उ) अवश्य (संजग्मे) संगतिवाला था और (अप्सरासु) अप्सराओं में [सब प्राणियों, वा अन्तरिक्ष वा बीजरूप जल में व्यापक, वा उत्तमरूपवाली अपनी शक्तियों में] (अपि) निःसन्देह (आसीत्) वर्त्तमान था। (आसाम्) इन [अप्सराओं] का (सदनम्) घर (समुद्रे) अन्तरिक्ष में [वा समुद्ररूप गम्भीर स्थान में] (मे) मुझको (आहुः) वे बताते हैं, (यतः) जिस स्थान से वे (च) अवश्य (आ यन्ति) आती (च) और (परा=परायन्ति) दूर चली जाती हैं ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - (गन्धर्व) भूमि आदि लोकों और वेदवाणी का धारक (अप्सराओं) अर्थात् सब प्राणियों और जल आदि सृष्टि के उपादान कारण पदार्थों में वर्त्तमान अपनी शक्तियों के साथ विराजमान रहता है, ये अद्भुत शक्तियाँ अति विस्तीर्ण आकाश में वर्त्तमान रहती और मनुष्य आदि के शरीरों में परमाणुओं की संयोगदशा में दृश्य और उनकी वियोगदशा में अदृश्य हो जाती हैं ॥३॥ टिप्पणी–(गन्धर्वः) और (अप्सरसः) शब्दों के लिये यजुर्वेद अ० १८ म० ३८–४३, छह मन्त्र देखें। वहाँ (अप्सरसः) शब्द है, जो (अप्सराः) शब्द का पर्य्यायवाची है। ऋ॒ता॒षाडृ॒तधा॑मा॒ग्निर्ग॑न्ध॒र्वस्तस्यौष॑धयोऽप्स॒रसो॒ मुदो नाम॑। स न॑ इ॒दं ब्रह्म॑ क्ष॒त्रं पा॑तु॒ तस्मै॒ स्वाहा॒ वाट् ताभ्यः॒ स्वाहा॑ ॥१॥ (ऋताषाट्) सत्यनियम का सहनेवाला, (ऋतधामा) सत्य प्रभाववाला, (अग्निः) सर्वव्यापक, वा अग्निसमान रक्षक, परमेश्वर (गन्धर्वः) सूर्य, पृथिवी और वेदवाणी आदि का धारण करनेवाला है। (तस्य) उसको [गन्धर्व की बनायी] (मुदः) आनन्द देनेवाली (औषधयः) ओषधें [अन्नादि वस्तुएँ] (नाम) प्रसिद्धरूप से (अप्सरसः) अप्सराएँ अर्थात् आकाश, वा प्राणों, व जल में चलनेवाली वा उत्तमरूपवाली सामग्री हैं। (सः) वह परमेश्वर (नः) हमारे लिये (इदम्) इस (ब्रह्म) ब्राह्मणकुल और (क्षत्रम्) क्षत्रियकुल की (पातु) रक्षा करे। (तस्मै) उस परमेश्वर को (स्वाहा) सुन्दर वाणी और (वाट्) आवाहन और (ताभ्यः) उन सामग्रियों के लिये (स्वाहा) सुन्दर स्तुति है ॥ यह मन्त्र ३८ वाँ है। इसी प्रकार अन्य पाँच मन्त्रों में (गन्धर्वः) शब्द (सूर्यः, चन्द्रमाः, वातः, यज्ञः, मनः) शब्दों के साथ और (अप्सरसः) शब्द (मरीचयः, नक्षत्राणि, आपः, दक्षिणाः, ऋक्सामानि) शब्दों के साथ क्रम से आये हैं ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३–अनवद्याभिः। अवद्यपण्यवर्यागर्ह्यपणितव्यानिरोधेषु। पा० ३।१।१०१। इति अन्+अ+वद वाचि–यत्प्रत्ययान्तो निपातः। अगर्ह्याभिः। प्रशस्तगुणाभिः। सम्–जग्मे। सम्+गम्लृ–लिट्। समो गम्यृच्छि०। पा० १।३।२९। इति सम्पूर्वाद् अकर्मकाद् गमेरात्मनेपदम्। गमहन०। पा० ६।४।९८। इत्युपधालोपः। संगतवान्। अप्सरासु। आप्नोतेर्ह्रस्वश्च। उ० २।५८। इति आप्लृ व्याप्तौ–क्विप्। आपः, अन्तरिक्षनाम निघ० १।३। उदकनाम–निघ० १।१२। दयानन्दभाष्ये प्राणा जलानि वा–य० ४।७। आप्ताः प्रजाः–६।२७। व्यापिकास्तन्मात्राः–२७।२५। नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः। पा० ३।१।१३४। इति सृ गतौ–पचाद्यच्। यद्वा। वृतॄवदिहनिकमिकषिभ्यः सः। उ० ३।६२। इति आप्लृ व्याप्तौ–स प्रत्ययः। उपधाह्रस्वः। अप्सः=रूपम्, निघ० ३।७। रो मत्वर्थीयः। अथवा, रा दानादानयोः–अच्। टाप्। अप्सरा अप्सारिण्यपि वाऽप्स इति रूपनाम, अप्सातेरप्सानीयं भवति, आदर्शनीयं व्यापनीयं वेति, तद्रा भवति रूपवती तदनयात्तमिति वा तदस्यै दत्तमिति वा–निरु० ५।१३। अप्सु आकाशे जलेषु प्राणेषु प्रजासु वा सरणशीलाः, अथवा रूपवत्यः परमेश्वरशक्तयः। समुद्रे। अ० १।३।८। अन्तरिक्षे–निघ० १।३।८। सदनम्। सीदन्त्यत्रेति। षद्लृ गतौ–ल्युट्। गृहम्। आहुः। ब्रूञ् व्यक्तायां वाचि–लट्। ब्रुवन्ति कथयन्ति ब्रह्मवादिनः। आ+यन्ति। इण् गतौ। आगच्छन्ति, आविर्भवन्ति सृष्टिकाले। परा+यन्ति। दूरे गच्छन्ति तिरोभवन्ति प्रलयकाले ॥
०४ अभ्रिये दिद्युन्नक्षत्रिये
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अभ्रि॑ये॒ दिद्यु॒न्नक्ष॑त्रिये॒ या वि॒श्वाव॑सुं गन्ध॒र्वं सच॑ध्वे।
ताभ्यो॑ वो देवी॒र्नम॒ इत्कृ॑णोमि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अभ्रि॑ये॒ दिद्यु॒न्नक्ष॑त्रिये॒ या वि॒श्वाव॑सुं गन्ध॒र्वं सच॑ध्वे।
ताभ्यो॑ वो देवी॒र्नम॒ इत्कृ॑णोमि ॥
०४ अभ्रिये दिद्युन्नक्षत्रिये ...{Loading}...
Whitney
Translation
- O cloudy one, gleamer (didyút), starry one—ye that accompany
(sac) the Gandharva Viśvāvasu, to you there, O divine ones, homage do
I pay.
Notes
All those addressed are in the feminine gender, i.e. Apsarases. Ppp. has
namāitu for nama it in c. The Anukr. ⌊if we assume that its name
for the meter (as at i. 2. 3; iv. 16. 9) means 11 + 11 + 11⌋ passes
without notice the deficiency of two syllables in a.
Griffith
Thou, Cloudy! ye who follow the Gandharva Visva-vasu, ye, Starry! Lightning-Flasher! You, O ye Goddesses, I truly worship.
पदपाठः
अभ्रि॑ये। दिद्यु॑त्। नक्ष॑त्रिये। याः। वि॒श्वऽव॑सुम्। ग॒न्ध॒र्वम्। सच॑ध्वे। ताभ्यः॑। वः॒। दे॒वीः॒। नमः॑। इत्। कृ॒णो॒मि॒। २.४।
अधिमन्त्रम् (VC)
- गन्धर्वाप्सरसः
- मातृनामा
- विराड्गायत्री
- भुवनपति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परमेश्वर सर्वशक्तिमान् है, इसका उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अभ्रिये) अभ्र [मेघ] में [रहनेवाली], (दिद्युत्=०–ति) बिजुली में [वर्तमान] और (नक्षत्रिये) नक्षत्रों में [रहनेवाली] (याः) जो तुम सब (विश्वावसुम्) सब प्रकार के धनों के वा सब निवासस्थानों [लोकों] के स्वामी (गन्धर्वम्) गन्धर्व [पृथिवी, सूर्य वा वेदवाणी के धारण करनेवाले परमेश्वर] की (सचध्वे) सेवा करती हो। (देवीः=हे देव्यः !) हे देवियो ! [दिव्य अर्थात् अद्भुत, गुणवालियों !] (ताः) उन (वः) तुमको (नमः) नमस्कार (इत्) अवश्य (कृणोमि) मैं करता हूँ ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - यहाँ शक्तियों से शक्तिमान् परमेश्वर का ग्रहण है। संसार के प्रत्येक पदार्थ के अवलोकन से देखा जाता है कि ये अप्सराएँ [परमेश्वर की अनन्त और अद्भुतशक्तियाँ] परमेश्वर के वशीभूत होकर सब सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और अन्त का कारण हैं। उन शक्तियों अर्थात् उनके स्वामी जगदीश्वर को बड़े-छोटे प्राणी नम्रता से स्वीकार करते और उपकारों को विचारकर उपकारी बनाकर आनन्द भोगते हैं ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४–अभ्रिये–नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः। पा० ३।१।१३। इति अभ्र गतौ–पचाद्यच्। अथवा। अपो बिभर्तीति। अप्+भृ–क। अभ्रम्=मेघः–निघ० १।१०। समुद्राभ्राद् घः। पा० ४।४।११८। इति अभ्र–भवे घ प्रत्ययः। तस्य इच् आदेशः। मेघेषु भवे स्थाने मेघस्य मण्डले वर्त्तमानाः। दिद्युत्। द्युतिगमिजुहोतीनां द्वे च। वा०। पा० ३।२।१७८। इति द्युत दीप्तौ–क्विप्। द्वित्वं च। द्युतिस्वाप्योः सम्प्रसारणम्। पा० ७।४।६७। इत्यभ्यासस्य सम्प्रसारणम्। अथवा दो अवखण्डे–क्विप्। पृषोदरादिरूपम्। द्यति पदार्थान्। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति सप्तम्या लुक्। द्योतमाने विद्युन्मण्डले। नक्षत्रिये। नक्षत्राद् घः। पा० ४।४।१४१। इति नक्षत्र–घ प्रत्ययः। नक्षत्रेषु भवे लोके वर्त्तमानाः। याः। अप्सराः, यूयम्। विश्वावसुम्। विश्वस्य वसुराटोः। पा० ६।३।१२८। इति पूर्वपदस्य दीर्घः। बहुव्रीहौ विश्वं संज्ञायाम्। पा० ६।२।१०६। इति पूर्वपदस्य विश्वशब्दस्य अन्तोदात्तत्वम् ॥ विश्वानि वसूनि यस्मिन् सः। सर्वधनसम्पन्नम्। यद्वा। सर्वे वसवो निवासा लोका यस्मिन् सः। सर्वाश्रयम्। सचध्वे। षच सेचने सेवने च, आत्मनेपदम्। सेवध्वे। देवीः। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति पूर्वसवर्णदीर्घः। देव्यो द्योतमानाः। कृणोमि। धिन्विकृण्व्योर च। पा० ३।१।८०। इति कृवि हिंसाकरणयोः–उ प्रत्ययः, अकारश्चान्तादेशः। करोमि। अन्यत् सुगमम् ॥
०५ याः क्लन्दास्तमिषीचयोऽक्षकामा
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
याः क्ल॒न्दास्तमि॑षीचयो॒ऽक्षका॑मा मनो॒मुहः॑।
ताभ्यो॑ गन्ध॒र्वभ्यो॑ ऽप्स॒राभ्यो॑ऽकरं॒ नमः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
याः क्ल॒न्दास्तमि॑षीचयो॒ऽक्षका॑मा मनो॒मुहः॑।
ताभ्यो॑ गन्ध॒र्वभ्यो॑ ऽप्स॒राभ्यो॑ऽकरं॒ नमः॑ ॥
०५ याः क्लन्दास्तमिषीचयोऽक्षकामा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- They that are noisy, dusky, dice-loving, mind-confusing—to those
Apsarases, that have the Gandharvas for spouses, have I paid homage.
Notes
Ppp. reads in a tāmiṣ-, and two of our mss. (P.M.) give the same.
Ppp. has also akṣikāmās in b. Our W.I. combine -bhyo akaram in
d. The verse is not bhurij (as the Anukr. calls it), but a regular
anuṣṭubh. On account of the epithet “dice-loving” in b, Weber
calls the whole hymn “Würfelsegen” (‘a blessing for dice’).
Griffith
Haunters of darkness, shrill in voice, dice-lovers, maddeners of the mind To these have I paid homage, the Gandharva’s wives, Apsarases.
पदपाठः
याः। क्ल॒न्दाः। तमि॑षीचयः। अ॒क्षऽका॑माः। म॒नः॒ऽमुहः॑। ताभ्यः॑। ग॒न्ध॒र्वऽप॑त्नीभ्यः। अ॒प्स॒राभ्यः॑। अ॒क॒र॒म्। नमः॑। २.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- गन्धर्वाप्सरसः
- मातृनामा
- भुरिगनुष्टुप्
- भुवनपति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
परमेश्वर सर्वशक्तिमान् है, इसका उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (याः) जो (क्लन्दाः) आवाहन करनेहारी, (तमिषीचयः) इच्छा की सीचने [पूरा, करने] हारी, (अक्षकामाः) अवहारों में कामना करानेवाली, (मनोमुहः) मन को आश्चर्य में करनेवाली हैं। (ताभ्यः) उन (गन्धर्वपत्नीभ्यः) गन्धर्व की पत्नी [परमेश्वर की रक्षा में रहनेवाली] (अप्सराभ्यः) अप्सराओं [प्राणियों में रहनेवाली ईश्वरशक्तियों] को मैंने (नमः) नमस्कार (अकरम्) किया है ॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में भी अप्सराओं अर्थात् शक्तियों से उनके स्वामी परमेश्वर का ग्रहण है। वह परमेश्वर दुष्टों पर गरजता और शिष्टों का आवाहन करता, अनन्त बलवान्, उत्तम कर्मों में प्रीति करानेवाला और मनोहरस्वभाव है, सब जड़ और चेतन नमस्कार करके उस सर्वशक्तिमान् की आज्ञा मानते और आनन्दित होते हैं ॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५–क्लन्दाः। क्लदि आह्वाने रोदने च–पचाद्यच्। टाप्। आवाहनशीलाः। तमिषीचयः। तमि–षिचयः। सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति तमु इच्छायां खेदे च–इन्। इगुपधात् कित्। उ० ४।१२०। इति षिच सेचने–इन्, किति ह्रस्वः। छान्दसो दीर्घः। तमिम् इच्छां सिञ्चन्ति तास्तमिसिचयः। इच्छापूरयित्र्यः। अक्षकामाः। अक्षू व्याप्तौ, संहतौ–पचाद्यच्। यद्वा। अशेर्देवने। उ० ३।६५। इति अशू व्याप्तौ–स प्रत्ययः। अक्षो व्यवहारः। यथा, अक्षदर्शकः, अक्षदृक्=व्यवहारनिर्णेता, न्यायकर्त्ता। काम्यतेऽसौ। कमु स्पृहायाम्–कर्मणि घञ्। अक्षेषु व्यवहारेषु सत्कर्मसु कामोऽभिलाषो याभ्यस्तास्तथाभूताः। व्यवहारोत्साहिन्यः। मनोमुहः। मनस्+मुह वैचित्ये–क्विप्। मनसः, चित्तस्य मोहयित्र्यः, आश्चर्ये विस्मये कर्त्र्यः। गन्धर्वपत्नीभ्यः। विभाषा सपूर्वस्य पा० ४।१।३४। इति गन्धर्व+पति–नकारङीपौ। गन्धर्वः पूर्वोक्तः परमात्मा पतिः, रक्षकः, स्वामी यासां ताभ्यः। गन्धर्वेण परमेश्वरेण रक्षिताभ्यः। अप्सराभ्यः। मन्त्रे ३। आकाशप्राणादिषु वर्त्तमानाभ्यः। अकरम्। डुकृञ् करणे–लुङ्। कृमृदृरुहिभ्यश्छन्दसि। पा० ३।१।५९। इति च्लेः अङ् आदेशः। ऋदृशोऽङि गुणः। पा० ७।४।१६। इति गुणः। अहं कृतवान्। नमः। सत्कारम् ॥