००१ परमं धाम

००१ परमं धाम ...{Loading}...

Whitney subject
  1. Mystic.
VH anukramaṇī

परमं धाम
१-५ वेनः। ब्रह्म, आत्मा। त्रिष्टुप्, ३ जगती।

Whitney anukramaṇī

[Vena.—brahmātmadāivatam. trāiṣṭubham: 3. jagatī.]

Whitney

Comment

Found in Pāipp. ii., and parts of it in other texts, as pointed out under the several verses. ⌊Von Schroeder gives what may be called a Kaṭha-recension of nearly all of it in his Tübinger Kaṭha-hss., pp. 88, 89.⌋ Used by Kāuś. (37. 3) in addressing various articles out of whose behavior afterward signs of success or the contrary, and the like oracular responses, are to be drawn (the comm. gives them in a more expanded detail). And Vāit. (29. 14) applies vs. 3 in the upavasatha rite of the agnicayana.

Translations

Translated: Weber, xiii. 129; Ludwig, p. 393; Scherman, Philosophische Hymnen, p. 82; Deussen, Geschichte, i.1 253; Griffith, i. 41.

Griffith

Glorification of the prime cause of all things

०१ वेनस्तत्पश्यत्परमं गुहा

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

वे॒नस्तत्प॑श्यत्पर॒मं गुहा॒ यद्यत्र॒ विश्वं॒ भव॒त्येक॑रूपम्।
इ॒दं पृश्नि॑रदुह॒ज्जाय॑मानाः स्व॒र्विदो॑ अ॒भ्य॑नूषत॒ व्राः ॥

०१ वेनस्तत्पश्यत्परमं गुहा ...{Loading}...

Whitney
Translation

1 . Vena (the longing one?) saw that which is highest in secret, where everything becomes of one form; this the spotted one (pṛ́çni) milked [when] born; the heaven-(svàr-)knowing troops (vrá) have shouted at it.

Notes

A bit of labored obscurity, like the verses that follow; books iv. and v. begin similarly; no attempt will be made here to solve the riddles. The comm. explains at great length (nine 4to pages), but evidently without any traditional or other understanding; he guesses and etymologizes this way and that, giving in part wholly discordant alternative interpretations. In this verse he first takes véna as = Āditya; and then, after a complete exposition on this basis, he says: yadvā: venaḥ parjanyātmā madhyamasthāno devaḥ, and gives another; pṛçni to him is “the common name of sky and sun.” The translation given implies emendation in c of jā́yamānās to -nā; but the epithet might belong to vrā́s (so Ludwig and the comm.), or be the second object of aduhat (so Weber). The variants of the parallel versions of other texts make the impression (as often in other cases) of rather aimless stumbling over matters not understood.

VS. (xxxii. 8) and TA. (x. 1. 3) have the first half-verse: VS. reads in a paçyan níhitaṁ gúhā sád, and TA. páçyan víçvā bhúvanāni vidvā́n; both have ékanīḍam at end of b. The pratīka is quoted in ÇÇS. xv. 3. 8, with the addition iti pañca, apparently referring to this hymn. Ppp. has padam for guhā in a, ekanaḍam in b, dhenur for pṛçnis in c (with -nās at the end), and, for d, svarvido ‘bhyanuktir virāṭ. The phrase abhy ànūṣata vrā́ḥ occurs also in RV. iv. 1. 16 d; Pischel (Ved. Stud. ii. 121 ⌊and 321⌋) takes vrā́s to mean “women”; the comm. etymologizes it as āvṛtātmānaḥ prajāḥ. ⌊Cf. RV. x. 123. 2.⌋

Griffith

Vena beholds That Highest which lies hidden, wherein this All resumes one form and fashion. Thence Prisni milked all life that had existence: the hosts that know the light with songs extolled her.

पदपाठः

वे॒नः। तत्। प॒श्य॒त्। प॒र॒मम्। गुहा॑। यत्। यत्र॑। विश्व॑म्। भव॑ति। एक॑ऽरूपम्। इ॒दम्। पृश्निः॑। अ॒दु॒ह॒त्। जाय॑मानाः। स्वः॒ऽविदः॑। अ॒भि। अ॒नू॒ष॒त॒। व्राः। १.१।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • ब्रह्मात्मा
  • वेनः
  • त्रिष्टुप्
  • परमधाम सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

ब्रह्म के मिलने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वेनः) बुद्धिमान् पुरुष (तत्) उस (परमम्) अति श्रेष्ठ परब्रह्म को (पश्यत्=०–ति) देखता है, (यत्) जो ब्रह्म (गुहा=गुहायाम्) गुफा के भीतर [वर्त्तमान है] और (यत्र) जिसमें (विश्वम्) सब जगत् (एकरूपम्) एकरूप [निरन्तर व्याप्त] (भवति) वर्त्तमान है। (इदम्) इस परम ऐश्वर्य के कारण [ब्रह्मज्ञान] को (पृश्निः) [ईश्वर से] स्पर्श रखनेवाले मनुष्य ने (जायमानाः) उत्पन्न होती हुयी अनेक रचनाओं से (अदुहत्) दुहा है और (स्वर्विदः) सुखस्वरूप वा आदित्यवर्ण ब्रह्म के जाननेवाले (व्राः) वरणीय विद्वानों ने [उस ब्रह्म की] (अभि) विविध प्रकार से (अनूषत) स्तुति की है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - वह परम ब्रह्म सूक्ष्म तो ऐसा है कि वह (गुहा) हृदय आदि प्रत्येक सूक्ष्म स्थान का अन्तर्यामी है और स्थूल भी ऐसा है कि संपूर्ण ब्रह्माण्ड उसके भीतर समा रहा है। धीर ध्यानी महात्मा उस जगदीश्वर की अनन्त रचनाओं से विज्ञान और उपकार प्राप्त करके मुक्त कण्ठ से आत्मसमर्पण करते हुए उसकी स्तुति करते और ब्रह्मानन्द में मग्न रहते हैं ॥१॥ देखिये–यजुर्वेद अध्याय ३२ मन्त्र ८। वे॒नस्तत् प॑श्यन्निहि॑तं गुहा सद् यत्र॒ विश्वं॒ भव॒त्येक॑नीडम्। तस्मि॑न्नि॒द सं च॒ वि चै॑ति॒ सर्व॒ स ओतः प्रोत॑श्च वि॒भूः प्र॒जासु॑ ॥१॥ (वेनः) पण्डितजन (तत्) उस (गुहा) बुद्धि वा गुप्त कारण में (निहितम्) वर्त्तमान (सत्) नित्यस्वरूप ब्रह्म को (पश्यत्=०–ति) देखता है, (यत्र) जिस ब्रह्म में (विश्वम्) सब जगत् (एकनीडम्) एक आश्रयवाला (भवति) होता है। (च) और (तस्मिन्) उसमें (इदम्) यह (सर्वम्) सब जगत् (सम्) मिलकर (च) और (वि) अलग-अलग होकर (एति) चेष्टा करता है, (सः) वह (विभूः) सर्वव्यापक परमात्मा (प्रजासु) प्रजाओं में [वस्त्र में सूत के समान] (ओतः) ताना किये हुए (च) और (प्रोतः) बाना किये हुए है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १–शब्दार्थव्याकरणादिप्रक्रिया–वेनः। धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। इति अज गतिक्षेपणयोः–न प्रत्ययः, वीभावः। यद्वा, वेनति कान्तिकर्मा, निघ० २।६। ततः। पुंसि सञ्ज्ञायां घः प्रायेण। पा० ३।३।११८। इति घ प्रत्ययः। वेनो वेनतेः कान्तिकर्मणः–इति यास्कः, निरु० १०।३८। गतिमान्। दीप्यमानः। मेधावी–निघ० २।१५। पश्यत्। इकारलोपः। पश्यति, साक्षात्करोति। परमम्। अ० १।१३।३। पर+मा माने–क। उत्कृष्टम्। गुहा। अ० १।८।४। गुहायाम्। गुप्तस्थाने। यत्र। यस्मिन् सर्वाधिष्ठाने ब्रह्मणि। विश्वम्। अ० १।१।१। सर्वं जगत्। एकरूपम्। इण्भीकापाशल्यतिमर्चिभ्यः कन्। उ० ३।४३। इति इण् गतौ–कन् एति प्राप्नोतीत्येकम्। रूयते कीर्त्यते तद्रूपम्। अ० १।१।१। सर्वथा, निरन्तरं व्याप्तम्। इदम्। इन्देः कमिन्नलोपश्च। उ० ४।१५७। इति इदि परमैश्वर्ये–कमिन्। नकारलोपः। इन्दति परमैश्वर्यहेतुर्भवतीति इदम्। प्रत्यक्षज्ञानम्। पृश्निः। घृणिपृश्निपार्ष्णि०। उ० ४।५२। इति स्पृश स्पर्शे–नि प्रत्ययः, सलोपः। स्पृशति, योगेन ब्रह्म प्राप्नोतीति पृश्निः। समाधिस्थयोगी पुरुषः। पृश्निरादित्यो भवति प्राश्नुत एनं वर्ण इति नैरुक्ताः संस्प्रष्टा रसान् संस्प्रष्टा भासं ज्योतिषां संस्पृष्टो भासेति वा–निरु० २।१४। इति यास्कवचनाद् योगैश्वर्येण सूर्यवत् प्रकाशमानः पुरुषः। अदुहत्। दुह प्रपूरणे–लुङ्, छान्दसो अङ्। आकृष्टवान्, प्राप्तवान्। द्विकर्मकत्वात् (इदम्) इति (जायमानाः) इति शब्दस्य च कर्मकत्वम्। जायमानाः। जनी जनने, प्रादुर्भावे–शानच्। उत्पद्यमानाः प्रजाः। स्वर्विदः। अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७५। इति स्वृ शब्दोपतापयोः–विच्। यद्वा सु+ऋ गतौ, ईर गतौ वा–विच्। स्वरादित्यो भवति। सु अरणः सु ईरणः स्वृतो रसान् स्वृतो भासं ज्योतिषां स्वृतो भासेति वा–निरु० २।१४। ततो विद ज्ञाने–क्विप्। स्वःशब्दाभिधेयं सुखस्वरूपम् आदित्यवर्णं वा परब्रह्म विदन्ति जानन्तीति स्वर्विदः परब्रह्मज्ञातारः। अभि। आभिमुख्येन, सर्वतः। अनूषत। णू स्तवने–लुङ्, छान्दसम् आत्मनेपदम्। स्तुतवन्तः। व्राः। गेहे कः। पा० ३।१।१४४। इति वृञ् वरणे–बाहुलकात् कः, यणादेशः, जस्। स्वशोभनगुणैर्व्रियमाणाः संभज्यमानाः स्वीक्रियमाणाः पुरुषाः। यद्वा। ब्रह्मणो वरितारो अन्वेष्टारः ॥

०२ प्र तद्वोचेदमृतस्य

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

प्र तद्वो॑चेद॒मृत॑स्य वि॒द्वान् ग॑न्ध॒र्वो धाम॑ पर॒मं गुहा॒ यत्।
त्रीणि॑ प॒दानि॒ निहि॑ता॒ गुहा॑स्य॒ यस्तानि॒ वेद॒ स पि॒तुष्पि॒तास॑त् ॥

०२ प्र तद्वोचेदमृतस्य ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. May the Gandharva, knowing of the immortal, proclaim that highest
    abode that is in secret; three quarters (padá) of it [are] deposited
    in secret; whoso knoweth them, he shall be the father’s father.
Notes

Ppp. begins with pṛthag (for pra tad), and for amṛtasya has -taṁ
na
, probably intending the amṛ́taṁ nú of VS. (xxxii. 9) and TA. (x. 1.
3-4: TA. reads also voce). In b, TA. gives nā́ma (for dhā́ma);
and for paramám TA. has níhitam, and VS. víbhṛtam, while VS. ends
with gúhā sát and TA. with gúhāsu. In c, Ppp. and TA. give
padā́, and Ppp. nihatā; and TA., this time with the concurrence of
Ppp., ends the pāda again with gúhāsu. In d, TA. has tád for
tā́ni, and savitús for sá pitúṣ, while Ppp. gives vas for yas
at the beginning. Prāt. ii. 73 prescribes the combination pitúṣ p- (in
d), and both editions read it, though nearly all our saṁhitā-mss.,
and part of SPP’s, read -túḥ p- instead. To make a good triṣṭubh
pāda, we must resolve pṛ-d at the beginning. ⌊Hillebrandt, Ved.
Mythol.
i. 433, discusses the verse.⌋

Griffith

Knowing Eternity, may the Gandharva declare to us that highest secret station. Three steps thereof lie hidden in the darkness: he who knows these shall be the father’s father.

पदपाठः

प्र। तत्। वो॒चे॒त्। अ॒मृत॑स्य। वि॒द्वान्। ग॒न्ध॒र्वः। धाम॑। प॒र॒मम्। गुहा॑। यत्। त्रीणि॑। प॒दानि॑। निऽहि॑ता। गुहा॑। अ॒स्य॒। यः। तानि॑। वेद॑। सः। पि॒तुः। पि॒ता। अ॒स॒त्। १.२।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • ब्रह्मात्मा
  • वेनः
  • त्रिष्टुप्
  • परमधाम सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

ब्रह्म के मिलने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (विद्वान्) विद्वान् (गन्धर्वः) विद्या का धारण करनेवाला पुरुष (अमृतस्य) अविनाशी ब्रह्म के (तत्) उस (परमम्) सबसे ऊँचे (धाम) पद का (प्रवोचद्) उपदेश करे (यत्) जो पद (गुहा=गुहायाम्) गुफा [प्रत्येक अगम्य पदार्थ हृदय आदि] के भीतर है। (अस्य) इस [ब्रह्म] की (गुहा) गुफा [अगम्यशक्ति] में (त्रीणि) तीनों (पदानि) पद (निहिता=०–तानि) ठहरे हुए हैं, (यः) जो [विद्वान् पुरुष] (तानि) उनको (वेद) जान लेता है, (सः) वह (पितुः) पिता का (पिता) पिता (असत्) हो जाता है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - विद्वान् महात्मा पुरुष उस परब्रह्म की महिमा का सदा उपदेश करते रहते हैं। वह ब्रह्म सूक्ष्म से सूक्ष्म और महान् से महान् है। उसके ही वश में तीन पद, अर्थात् संसार की सृष्टि, स्थिति और नाश ये तीनों अवस्थाएँ, अथवा भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान, तीनों काल, अथवा सत्त्व, रज और तम, तीनों गुण वर्त्तमान हैं। जिस महापुरुष योगी को इन अवस्थाओं का विज्ञान व्यष्टि और समष्टिरूप से होता है, वह पिता का पिता अर्थात् महाविज्ञानियों में महाविज्ञानी होता है ॥२॥ १–यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है–अ० ३२। म० ९। २–मनु महाराज ने कहा है–अ० २।१५३। अज्ञो भवति वै बालः पिता भवति मन्त्रदः। अज्ञं हि बालमित्याहुः पितेत्येव तु मन्त्रदम् ॥१॥ अज्ञानी ही बालक होता है, वेदोपदेष्टा पिता होता है। [मुनि लोग] अज्ञानी को ही बालक और वेदोपदेष्टा को ही पिता कहते हैं ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २–वोचेत्। ब्रूञ् व्यक्तायां वाचि आशीर्लिङि वच्यादेशे। लिङ्याशिष्यङ्। पा० ३।१।८६। इति अङ् प्रत्ययः। वच उम्। पा० ७।४।२०। इति उम् आगमः। उच्यात्। उपदिशेत्। व्यवहिताश्च। पा० १।४।८२। इति (प्र) उपसर्गस्य क्रियया संबन्धः। अमृतस्य। तनिमृङ्भ्यां किच्च। उ० ३।८८। इति अ+मृङ् प्राणत्यागे–तन्, स च कित्। मरणरहितस्य। अविनाशिनः। परब्रह्मणः। विद्वान्। वेत्तीति। विद ज्ञाने–शतृ। विदेः शतुर्वसुः। पा० ७।१।३६। इति शतुर्वसुरादेशः। आत्मवित्। प्राज्ञः। पण्डितः। गन्धर्वः। गां वाणीं पृथिवीं गतिं वा धरति धारयति वा सः। कॄगॄशॄदॄभ्यो वः। उ० १।१५५। इति गो+धृञ् धारणे–व प्रत्ययः, पृषोदरादिना गो शब्दस्य गमादेशः। वेदवाणी–धारकः। वेदवेत्ता। स्वर्गगायकः। सूर्यः। घोटकः। धाम। अ० १।१३।३। स्थानम्। प्रभावम्। त्रीणि। तरतेड्रिः। उ० ५।६६। सृष्टिस्थितिप्रलयादिरूपाणि। पदानि। पद्यन्ते गम्यन्ते प्राणिभिः। पद गतौ–अच्। कर्माणि। वस्तूनि। निहिता। दधातेर्हिः। पा० ७।४।४२। इति नि+डुधाञ् धारणपोषणयोः–क्त। हिरादेशः। शेश्छन्दसि बहुलम्। पा० ६।१।७०। इति शिलोपः। निहितानि। स्थापितानि, स्थितानि। वेद। विद ज्ञाने। विदो लटो वा। पा० ३।४।८३। इति सिपो णल् आदेशः। वेत्ति। जानाति। साक्षात्करोति। पितुः पिता। नप्तृनेष्टृत्वष्टृहोतृ०। उ० २।९५। इति पा रक्षणे–तृच्। निपातनात् साधुः। ज्ञानप्रदानेन स्वरक्षकस्यापि रक्षकः। महाविद्वान्। असत्। अस सत्तायां–लेट्, अडागमः। भूयात् ॥

०३ स नः

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

स नः॑ पि॒ता ज॑नि॒ता स उ॒त बन्धु॒र्धामा॑नि वेद॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑।
यो दे॒वानां॑ नाम॒ध एक॑ ए॒व तं सं॑प्र॒श्नं भुव॑ना यन्ति॒ सर्वा॑ ॥

०३ स नः ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. He, of us the father, the generator, and he the connection
    (bándhu), knoweth the abodes, the beings all; who of the gods is the
    sole nomenclator, of him all beings come to inquire.
Notes

Here, as usual elsewhere ⌊cf. BR. iv. 1088, citations from TB., TS.,
AB.⌋, -praśnam is of infinitival value. Ppp. begins quite differently:
sa no bandhur janitā sa vidhartā dhārmaṇi veda etc.; its c, d are
our 5 c, d, with variants for which see under vs. 5. VS. (xxxii. 10)
and TA. (x. 1. 4) have a verse made up like that of Ppp., differing from
the latter in the first half only by having vidhātā́ and dhā́māṇi. A
corresponding verse in RV. (x. 82. 3) reads in a yás for and
again for sá utá, accents of course véda in b, and has
nāmadhā́s in c and anyā́ for sárvā in d; and with it agrees
in all points VS. xvii. 27; while TS. (iv. 6. 2) and MS. (ii. 10. 3)
also follow it closely in a, c, d (MS. vidhartā́ in a) but have
a different b: yó naḥ sató abhy ā́ sáj jajā́na. Our O. has the RV.
readings, véda in b and nāmadhā́s in c; and the latter is
given by the comm. and by nearly half of SPP’s authorities; the latter’s
text, however, agrees with ours. The verse is no jagatī at all, but,
if we make the frequent (RV.) combination só ’tá in c, a perfectly
regular triṣṭubh.

Griffith

He is our kinsman, father, and begetter: he knows all beings and all Ordinances. He only gave the Gods their appellations: all creatures go to him to ask direction.

पदपाठः

सः। नः॒। पि॒ता। ज॒नि॒ता। सः। उ॒त। बन्धुः॑। धामा॑नि। वे॒द॒। भुव॑नानि। विश्वा॑। यः। दे॒वाना॑म्। ना॒म॒ऽधः। एकः॑। ए॒व। तम्। स॒म्ऽप्र॒श्नम्। भुव॑ना। य॒न्ति॒। सर्वा॑। १.३।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • ब्रह्मात्मा
  • वेनः
  • त्रिष्टुप्
  • परमधाम सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

ब्रह्म के मिलने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) वही [ईश्वर] (नः) हमारा (पिता) पालक और (जनिता) जनक, (उत) और (सः) वही (बन्धुः) बान्धव है, वह (विश्वा=विश्वानि) सब (धामानि) पदों [अवस्थाओं] और (भुवनानि) लोकों को (वेद) जानता है। (यः) जो [परमेश्वर] (एकः) अकेला (एव) ही (देवानाम्) दिव्य गुणवाले पदार्थों का (नामधः) नाम रखनेवाला है, (संप्रश्नम्) यथाविधि पूँछने योग्य (तम्) उसको (सर्वा=सर्वाणि) सब (भुवना=०–नानि) प्राणी (यन्ति) प्राप्त होते हैं ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - परमेश्वर संसार का माता, पिता, बन्धु और सर्वज्ञ और सर्वान्तर्यामी है, वही पिता के समान सृष्टि के पदार्थों का नामकरण संस्कार करता है, जैसे, सूर्य, पृथिवी, मनुष्य, गौ, घोड़ा आदि। विद्वान् लोग सत्सङ्ग करके उस जगदीश्वर को पाते और आनन्द भोगते हैं ॥३॥ (नामधः) के स्थान पर सायणभाष्य, ऋग्वेद और यजुर्वेद में [नामधाः] है। २–यह मन्त्र ऋग्वेद १०।८२।३। तथा य० १७।२७। में कुछ भेद से है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३–पिता। म० २ पालयिता। जनिता। जनी जनने–णिचि तृच्। जनिता मन्त्रे। पा० ६।४।५३। इति तृचि णिलोपो निपात्यते। जनयिता। उत्पादकः। बन्धुः। शॄस्वृस्निहि०। उ० १।१०। इति बन्ध बन्धने उ प्रत्ययः, स च नित्। ञ्नित्यादिर्नित्यम्। पा० ६।१।१९१। इति नित्त्वाद् आद्युदात्तः, प्रेम्णा बध्नातीति। बान्धवः। धामानि। म० २। धामानि त्रयाणि भवन्ति स्थानानि नामानि जन्मानीति–निरु० ९।२८। जन्मस्थाननामानि। वेद। म० १। वेत्ति। भुवनानि। भूसूधूभ्रस्जिभ्यश्छन्दसि। उ० २।८०। इति भू सत्तायाम्–क्युन्। सर्वपदार्थाधिकरणानि। लोकान्। देवानाम्। दिवु पचाद्यच् पृथिव्यादिदिव्यपदार्थानाम्। नामधः। नाम+धाञ् धारणे–क। नामकरणकर्ता, नामधारकः। एकः। इण्गतौ–कन्। अद्वितीयः। असहायः। सम्प्रश्नम्। सम्यक् पृच्छन्ति यस्मिँस्तम्। परमात्मानम्। यथाविधि। प्रश्नीयम्। अन्वेषणीयम्। भुवना। भुवनानि। लोकाः। यन्ति। इण् गतौ–लट्। गच्छन्ति, प्राप्नुवन्ति। लभन्ते ॥

०४ परि द्यावापृथिवी

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

परि॒ द्यावा॑पृथि॒वी स॒द्य आ॑य॒मुपा॑तिष्ठे प्रथम॒जामृ॒तस्य॑।
वाच॑मिव व॒क्तरि॑ भुवने॒ष्ठा धा॒स्युरे॒ष न॒न्वे॑३षो अ॒ग्निः ॥

०४ परि द्यावापृथिवी ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. About heaven-and-earth at once I went; I approached (upa-sthā) the
    first-born of righteousness (ṛtá), abiding in beings as speech in the
    speaker; eager (?) is he; is he not Agni (fire)?
Notes

Of this verse, only the first pāda is found in VS. (xxxii. 12 a) and
TA. (x. i. 4), VS. reading itvā́ for āyam, and TA. having at the end
yanti sadyáḥ. Ppp. has for first half pari viśvā bhuvanāny āyam
upācaṣṭe prathamajā ṛtasya,
and for d dhāsraṁ neṣaṇa tveṣo agniḥ.
The accus. vā́cam in c suggests emendation to -ṣṭhā́m, in
apposition with prathamajā́m; but then the comm. agrees with Ppp. in
reading instead -jās, and emendation without any traceable sense to
guide us is of no avail. The combination bhuvaneṣṭhā́ (p. -ne॰sthā́)
is noted under Prāt. ii. 94. In the pada-text of b is noted from
our mss. no other reading than úpa: atiṣṭhe; but S PP. gives úpa:
ā॰tiṣṭhe, and reports no various readings; as ā॰tiṣṭhe (without any
accent) is an impossible form ⌊Skt. Gr. §1083 a⌋ this is perhaps
simply a blunder in his text; the comm., with a minority of SPP’s mss.,
has -tiṣṭhet.

Griffith

I have gone forth around the earth and heaven, I have approached the first-born Son of Order. He, putting voice, as ’twere, within the speaker, stands in the world, he, verily is Agni.

पदपाठः

परि॑। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। स॒द्यः। आ॒य॒म्। उप॑। आ॒ऽति॒ष्ठे॒। प्र॒थ॒म॒ऽजाम्। ऋ॒तस्य॑। वाच॑म्ऽइव। व॒क्तरि॑। भु॒व॒ने॒ऽस्थाः। धा॒स्युः। ए॒षः। न॒नु। ए॒षः। अ॒ग्निः। १.४।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • ब्रह्मात्मा
  • वेनः
  • त्रिष्टुप्
  • परमधाम सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

ब्रह्म के मिलने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (सद्यः) अभी (द्यावापृथिवी=०–व्यौ) सूर्य और पृथिवीलोक में (परि=परीत्य) घूमता हुआ (आयम्) मैं [प्राणी] आया हूँ (ऋतस्य) सत्यनियम के (प्रथमजाम्) पहिले से उत्पन्न करनेवाले [परमेश्वर] को (उप+आतिष्ठे) मैं प्राप्त होता हूँ, (इव) जैसे [श्रोता गण] (वक्तरि) वक्ता में [वर्त्तमान] (वाचम्) वाणी को [प्राप्त होते हैं।] (भुवनेष्ठाः) सम्पूर्ण जगत् में स्थित (एषः) यह परमेश्वर (धास्युः) पोषण करनेवाला और (ननु) अवश्य करके (एषः) यह (अग्निः) अग्नि [सदृश उपकारी वा व्यापक परमात्मा] है ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - तत्त्ववेत्ता पुरुष सूर्य और पृथिवी आदि प्रत्येक कार्यरूप पदार्थ के आकर्षण, धारणादि का यथार्थज्ञान प्राप्त करके परमात्मा को साक्षात् करता है, जैसे श्रोता लोग वक्ता के बोलने पर उसकी वाणी के अभिप्राय को अपने आत्मा में ग्रहण करते हैं। वही ईश्वर वेदरूप सत्यनियम की सृष्टि के पहिले प्रकट करता और सब जगत् का धारण और पोषण करता रहता है, जैसे सूर्य का ताप अन्न आदि को परिपक्व करके और जाठर अग्नि भोजन को पचाकर और उससे रुधिर आदि को उत्पन्न करके शरीर को पुष्ट करता है ॥४॥ पातञ्जल योगदर्शन में वर्णन है–पाद ३ सूत्र २५। भुवनज्ञानं सूर्ये संयमात् ॥ सूर्य में संयम से लोकों का ज्ञान [योगी को] होता है। अर्थात् वह सूर्य को केन्द्र मानकर सूर्य से लोकों का सम्बन्ध और परमेश्वर से सूर्य का सम्बन्ध अपनी विद्या द्वारा जान लेता है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४–द्यावापृथिवी। दिवो द्यावा। पा० ६।३।२९। इति दिव् शब्दस्य द्यावा इत्यादेशः। देवताद्वन्द्वे। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति पूर्वसवर्णदीर्घः। देवताद्वन्द्वे च। पा० ६।२।१४१। इत्युभयपदप्रकृतिस्वरत्वम्। द्यौश्च–पृथिवी च द्यावापृथिव्यौ। सूर्यभूमी। तदुपलक्षितं कृत्स्नं जगत्। सद्यः। सद्यः परुत्परार्यैषमः०। पा० ५।३।२२। इति समान–द्यस् प्रत्ययो दिनार्थे, समानस्य सभावः। समानेऽहनि। सपदि। तत्क्षणे। तत्त्वज्ञानसमकालमेव। आयम्। इण् गतौ–लङ् उत्तमैकवचने गुणायादेशयोः अडागमः। अहं प्राप्तवानस्मि। उपातिष्ठे। उप+आ–तिष्ठे। उपेत्य स्थितोऽस्मि। नमस्करोमि। प्रथमजाम्। जनसनखनक्रमगमो विट्। पा० ३।२।६७। इति जनी प्रादुर्भावजननयोः–विट्। विड्वनोरनुनासिकस्यात्। पा० ६।४।४१। इति आत्त्वम्। प्रथमं जनयतीति प्रथमजाः। सृष्टेः पूर्वं जनयितारम्, उत्पादकम्। ऋतस्य। ऋ गतौ–क्त। सत्यस्य। यथार्थज्ञानस्य। वेदविज्ञानस्य। वाचम्। क्विब् वचिप्रच्छिश्रिस्रुद्रुप्रुज्वां दीर्घोऽसंप्रसारणं च। उ० २।५७। इति वच कथने–क्विप्। दीर्घोऽसम्प्रसारणं च। वाणीम्। वाक्यम्। वक्तरि। वच कथने तृच्। उपदेशके। प्रयोक्तरि वर्तमानां वाचं श्रोतारो यथा प्रयोगसमकाले जानन्ति। भुवनेष्ठाः। भूसूधूभ्रस्जिभ्यश्छन्दसि। उ० २।८०। इति भू–क्युन्। भवन्त्यस्मिन् भूतानीति भुवनं जगत् ! आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। पा० ३।२।७४। इति भुवन+ष्ठा गति निवृत्तौ–विच्। तत्पुरुषे कृति बहुलम्। पा० ६।३।१४। इति सप्तम्या अलुक्। सर्वलोके परिपूर्णः परमात्मा। धास्युः। सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। इति डुधाञ् धारणपोषणयोः–असुन्। छन्दसि। परेच्छायामपि। वा० पा० ३।१।८। इति धास् क्यच्। क्याच् छन्दसि। पा० ३।२।१७०। इति उ प्रत्ययः। धा धारणं पोषणं जगत इच्छतीति धास्युः सर्वपोषणेच्छुः। अग्निः। अ० १।६।२। सर्वव्यापकः सर्वज्ञः परमेश्वरः। अग्निवत् पोषकः ॥

०५ परि विश्वा

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

परि॒ विश्वा॒ भुव॑नान्यायमृ॒तस्य॒ तन्तुं॒ वित॑तं दृ॒शे कम्।
यत्र॑ दे॒वा अ॒मृत॑मानशा॒नाः स॑मा॒ने योना॒वध्यैर॑यन्त ॥

०५ परि विश्वा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Around all beings I went, the web (tántu) of righteousness
    stretched out for beholding, where the gods, having attained immortality
    (amṛ́ta) bestirred themselves (?īraya-) upon the same place of union
    (yóni).
Notes

The proper rendering of d is especially doubtful, but ádhi, by its
independent accent (which is established by Prāt. iv. 5), is clearly
only a strengthener of the locative sense of yónāu. In b, perhaps
better ’to behold the web’ etc. (the comm. absurdly explains the
particle kám as sukhātmakam brahma). The second half-verse is, as
noted above, found in VS., TA., and Ppp., combined into one verse with
our 3 a, b; Ppp. has in it ānaśānā samāne dhāmann adhī ”rayanta;
VS. reads tṛtī́ye dhā́man for our samāné yónāu; TA., tṛtī́ye dhā́māny
abhy āírayanta.
Ppp. has as vs. 5 something quite different: for a,
pari dyāvāpṛthivī sadyā ”yam (exchanging 4 a and 5 a: see under 4);
for b, our own b; for c, d devo devatvam abhirakṣamāṇas
samānaṁ bandhuṁ viparicchad ekaḥ
. The first pāda requires the harsh
resolution vi-śu-ā to make it full ⌊víśvāni would be easier⌋.

Griffith

I round the circumjacent worlds have travelled to see the far- extended thread of Order. Wherein the Gods, obtaining life eternal, have risen upward to one common birthplace.

पदपाठः

परि॑। विश्वा॑। भुव॑नानि। आ॒य॒म्। ऋ॒तस्य॑। तन्तु॑म्। विऽत॑तम्। दृ॒शे। कम्। यत्र॑। दे॒वाः। अ॒मृत॑म्। आ॒न॒शा॒नाः। स॒मा॒ने। योनौ॑। अधि॑। ऐर॑यन्त। १.५।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • ब्रह्मात्मा
  • वेनः
  • त्रिष्टुप्
  • परमधाम सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

ब्रह्म के मिलने का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (विश्वा=विश्वानि) सब (भुवनानि) लोकों में (परि=परीत्य) घूमकर (ऋतस्य) सत्यनियम के (विततम्) सब और फैले हुए (तन्तुम्) फैलनेवाले [अथवा वस्त्र में सूत के समान सर्वव्यापक] (कम्) प्रजापति परमेश्वर को (दृशे) देखने के लिये (आयम्) मैं [प्राणी] आया हूँ। (यत्र) जिस [परमात्मा] में (देवाः) तेजस्वी महात्मा (अमृतम्) अमृत [अमरण अर्थात् जीवन की सफलता वा अनश्वर आनन्द] को (आनशानाः) भोगते हुए (समाने) साधारण (योनौ) आदि कारण ब्रह्म में [प्रवृष्ट होकर] (अधि) ऊपर (ऐरयन्त) पहुँचे हैं ॥५॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - ध्यानी, धीर, वीर पुरुष सामान्यतः समष्टिरूप से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की परीक्षा करके सब स्थान में व्यापक जगदीश्वर को साक्षात् करके आनन्द भोगते हैं और यह अनुभव करते हैं, कि सब महात्मा अपने को उस परम पिता में लय करके आत्मा की परम उन्नति करते हैं, अर्थात् जो स्वार्थ छोड़कर आत्मसमर्पण करते हैं, वही परोपकारी सज्जन परम आनन्द की सिद्धि [मुक्ति] को सदा हस्तगत करते हैं ॥५॥ यजुर्वेद अ० ३२ म० १० इस प्रकार है। स नो॒ बन्धु॑र्जनि॒ता स वि॑धा॒ता धामा॑नि वेद भुव॑नानि॒ विश्वा॑। यत्र॑ दे॒वा अ॒मृत॒मानशा॒नास्तृ॒तीये॒ धाम॑न्न॒ध्यैर॑यन्त ॥१॥ वही हमारा बन्धु और उत्पन्न करनेहारा है और वही पोषण करनेहारा परमेश्वर सब (धामानि) अवस्थाओं और (भुवनानि) लोकों को जानता है, जिस तीसरे लोक परब्रह्म [प्राणियों और सब भुवनों के स्वामी] में तेजस्वीजन अमृत को भोगते हुए ऊपर पहुँचे हैं ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ५–तन्तुम्। सितनिगमिमसि०। उ० १।६९। इति तनु विस्तारे–तुन्। तनोति विस्तृणोति तन्यते विस्तीर्यते वा स तन्तुः। विस्तारकम्। विस्तीर्णं सूत्रम्। पटस्य सूत्रवत् जगतः कारणभूतम्। विततम्। वि+तनु विस्तारे-क्त। विस्तृतम्। व्याप्तम्। दृशे। दृशे विख्ये च। पा० ३।४।११। इति दृशिर् प्रेक्षणे–तुमर्थे के प्रत्ययः। द्रष्टुम्। कम्। अन्येष्वपि दृश्यते। पा० ३।२।१०१। इति कमेः क्रमेर्वा–ड प्रत्ययः। क्रमते रेफलोपः। कः क्रमनो वा क्रमणो वा सुखो वा–निरु० १०।२२। प्रजापतिम्। विष्णुम्। ब्रह्म। सूर्य, सूर्यवत् प्रकाशकम्। सुखस्वरूपम्। यत्र। यस्मिन्। के परब्रह्मणि। देवाः। दिव्यगुणवन्तो महात्मानः। अमृतम्। म० २। अमरणम्। जीवनसाफल्यम्। मोक्षम्। आनशानाः। लिटः कानज्वा। पा० ३।२।१०६। इति अश् व्याप्तौ–कानच्। अश्नोतेश्च। पा० ७।४।७५। नुडागमः। चितः। पा० ६।१।१६३। इति अन्तोदात्तः। अश्नुवानाः। प्राप्नुवन्तः। समाने। सम्यग् अनिति नीयते वा। सम्+अन जीवने–घञ्, यद्वा, सम्+आङ्+णीञ् प्रापणे–अच्। एकस्मिन्नेव। योनौ। वहिश्रिश्रुयुद्रु०। उ० ४।५१। इति यु मिश्रणामिश्रणयोः–नि। आदिकारणे। ब्रह्मणि। अध्यैरयन्त। ईर गतौ। ऊर्ध्वं गतवन्तः। अन्यद् व्याख्यातं सुगमं च ॥