०३४ मधुविद्या ...{Loading}...
Whitney subject
- A love-spell: with a sweet herb.
VH anukramaṇī
मधुविद्या।
१-५ अथर्वा।मधुवनस्पतिः। अनुष्टुप्।
Whitney anukramaṇī
[Atharvan,—pañcarcam. madughamaṇisūktam. vānaspatyam. ānuṣṭubham.]
Whitney
Comment
Verses 1, 2, 5 are found in Pāipp. ii., vs. 3 in vi., and vs. 4 in part in viii. It is used by Kāuś. in a ceremony for superiority in disputation (38. 17): the ambitious disputant is to come into the assembly from the north-east, chewing the sweet plant; again, twice in the nuptial ceremonies, once with tying a madugha amulet on the finger (76. 8), and once (79. 10) on crushing the amulet at the consummation of the marriage. The comm. further declares it used at the disputation in the aśvamedha sacrifice; but he quotes no authority for it. All these applications are evidently imposed upon the hymn, not contained in it.
Translations
Translated: Weber, iv. 429; Grill, 52, 78; Griffith, i. 38; Bloomfield, 99, 274.—Cf. Hillebrandt, Veda-chrestomathie, p. 46.
Griffith
A young man’s love-charm
०१ इयं वीरुन्मधुजाता
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ॒यं वी॒रुन्मधु॑जाता॒ मधु॑ना त्वा खनामसि।
मधो॒रधि॒ प्रजा॑तासि॒ सा नो॒ मधु॑मतस्कृधि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इ॒यं वी॒रुन्मधु॑जाता॒ मधु॑ना त्वा खनामसि।
मधो॒रधि॒ प्रजा॑तासि॒ सा नो॒ मधु॑मतस्कृधि ॥
०१ इयं वीरुन्मधुजाता ...{Loading}...
Whitney
Translation
- This plant is honey-(mádhu-)born; with honey we dig thee; forth
from honey art thou engendered; ⌊so⌋ do thou make us possessed of honey.
Notes
The comm. calls the plant madhuka, and uses that form of the name also
in the quotations from Kāuś. (instead of madugha, madhugha, etc.; the
mss. vary greatly in their readings).
Griffith
From honey sprang this Plant to life; with honey now we dig thee up. Make us as sweet as honey, for from honey hast thou been pro- duced.
पदपाठः
इ॒यम्। वी॒रुत्। मधु॑ऽजाता। मधु॑ना। त्वा॒। ख॒ना॒म॒सि॒। मधोः॑। अधि॑। प्रऽजा॑ता। अ॒सि॒। सा। नः॒। मधु॑ऽमतः। कृ॒धि॒।
अधिमन्त्रम् (VC)
- मधुवनस्पतिः
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- मधु विद्या
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विद्या की प्राप्ति का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इयम्) यह तू (वीरुत्) बढ़ती हुई [विद्या] (मधुजाता) ज्ञान से उत्पन्न हुई है, (मधुना) ज्ञान के साथ (त्वा) तुझको (खनामसि) हम खोदते हैं। (मधोः अधि) विद्या से (प्रजाता असि) तू जन्मी है (सा) सो तू (नः) हमको (मधुमतः) उत्तम विद्यावाले (कृधि) कर ॥१॥ दूसरा अर्थ−(इयम् वीरुत्) यह तू फैलती हुई बेल (मधुजाता) मधु (शहद) से उत्पन्न हुई है (मधुना) मधु के साथ (त्वा) तुझको (खनामसि) हम खोदते हैं। (मधोः अधि) वसन्त ऋतु से (प्रजाता असि) तू जन्मी है, (सा) सो तू (नः) हमको (मधुमतः) मधु रसवाले (कृधि) कर ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मधु शब्द [मन जानना−उ, न=ध] का अर्थ ज्ञान है। धात्वर्थ के अनुसार यह आशय है कि शिक्षा के ग्रहण, अभ्यास, अन्वेषण और परीक्षण से मनुष्य को उत्तम सुखदायक विद्या मिलती है ॥१॥ दूसरा भावार्थ−मधु शब्द उसी धातु [मन जानना] से सिद्ध होकर [शहद] के रस का वाचक है। इस अर्थ में विद्या को मधुलता अर्थात् शहद की बेल वा प्रेमलता माना है। (मधु) शहद वसन्त ऋतु में अनेक पुष्पों के रस से मधुमक्षिकाओं द्वारा मिलता है, इसी प्रकार (मधुना) प्रेमरस के साथ (खोदने) अर्थात् अन्वेषण और परीक्षण से विद्वान् लोग अनेक विद्वानों से विद्यारूप मधु को पाकर (मधु) आनन्दरस का भोग करते हैं ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−इयम्। पुरोवर्तिनी त्वम्। वीरुत्। १।३२।१। विरोहणशीला विस्तृता लतारूपा विद्या। मधु-जाता। १।४।१। मन ज्ञाने-उ, धश्चान्तादेशः। जनी-क्त। मधुनो ज्ञानात् क्षौद्राद् वा यथा उत्पन्ना। मधुना। १।४।१। ज्ञानेन, क्षौद्ररसेन यथा वा। त्वा। त्वाम् वीरुधम्। खनामसि। खनु अवदारणे−लट्, मस इत्वम्। खनामः, अवदारयामः, अन्वेषणेन प्राप्नुमः। मधोः। पुंलिङ्गे। वसन्तर्तुसकाशात्। स्त्रियाम्। विद्यायाः सकाशात्। अधि। पञ्चम्यर्थानुवादी। प्र-जाता। प्रादुर्भूता। असि। वर्त्तसे। सा। सा त्वम्। नः। अस्मान्। मधु-मतः। तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतुप्। पा० ५।२।९४। इति प्रशंसायां मतुप्। प्रशस्तज्ञानयुक्तान्, क्षौद्ररसोपेतान् वा यथा। कृधि। कुरु ॥
०२ जिह्वाया अग्रे
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जि॒ह्वाया॒ अग्रे॒ मधु॑ मे जिह्वामू॒ले म॒धूल॑कम्।
ममेदह॒ क्रता॒वसो॒ मम॑ चि॒त्तमु॒पाय॑सि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
जि॒ह्वाया॒ अग्रे॒ मधु॑ मे जिह्वामू॒ले म॒धूल॑कम्।
ममेदह॒ क्रता॒वसो॒ मम॑ चि॒त्तमु॒पाय॑सि ॥
०२ जिह्वाया अग्रे ...{Loading}...
Whitney
Translation
- At the tip of my tongue honey, at the root of my tongue honeyedness;
mayest thou be altogether in my power (krátu), mayest thou come unto
my intent (cittá).
Notes
The second half-verse agrees nearly with that of iii. 25. 5 and vi. 9.
2, in both of which the yáthā, here unexpressed, helps the
construction (though the accent of ásas does not absolutely need it,
being capable of being viewed as antithetical). Ppp. has for a
jihvāyā ‘gre me madhu, and for c, d yathā māṁ kāminy aso (our 5
c) yaṁ vācā mām anvāyasī. The comm. explains madhūlakam by
madhurarasabahulaṁ jalamadhūlakavṛkṣapuṣpaṁ yathā; he understands the
plant to be addressed in c, d—which is plainly wrong.
Griffith
My tongue hath honey at the tip, and sweetest honey at the root: Thou yieldest to my wish and will, and shalt be mine and only mine.
पदपाठः
जि॒ह्वायाः॑। अग्रे॑। मधु॑। मे॒। जि॒ह्वा॒ऽमू॒ले। म॒धूल॑कम्। मम॑। इत्। अह॑। क्रतौ॑। असः॑। मम॑। चि॒त्तम्। उ॒प॒ऽआय॑सि।
अधिमन्त्रम् (VC)
- मधुवनस्पतिः
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- मधु विद्या
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विद्या की प्राप्ति का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (मे) मेरी (जिह्वायाः) रस जीतनेवाली, जिह्वा के (अग्रे) सिरे पर (मधु) ज्ञान [वा मधु का रस] होवे और (जिह्वामूले) जिह्वा के मूल में (मधूलकम्) ज्ञान का लाभ [वा मधु का स्वाद] होवे। (मम) मेरे (क्रतौ) कर्म वा बुद्धि में (इत्) ही (अह) अवश्य (असः) तू रह, (मम चित्तम्) मेरे चित्त में (उपायसि) तू पहुँच करती है ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जब मनुष्य विद्या को रटन, मनन और परीक्षण से प्रेमपूर्वक प्राप्त करते हैं, तब विद्या उनके हृदय में घर करके सुख का वरदान देती है ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−जिह्वायाः। १।१०।३। जयति रसमनया। रसनायाः। अग्रे। ऋज्रेन्द्राग्रवज्रविप्र०। उ० २।२८। इति अगि गतौ−रन्। उपरिभागे। मधु। म० १। ज्ञानं क्षौद्ररसो वा। जिह्वा−मूले। मूशक्यविभ्यः क्लः। उ० ४।१०८। इति मृङ् बन्धे−क्ल। मवते बध्नाति वृक्षादिकं मूलम्, जिह्वाया रसनाया मूलभागे। मधूलकम्। मधु+उर गतौ-क, रस्य लत्वम्, स्वार्थे कन्। यद्वा मधु+लक स्वादे, प्राप्तौ च−अच्, दीर्घत्वम्। मधुनो ज्ञानस्य प्राप्तिः। मधुनः क्षौद्रस्य स्वादः। मम। मदीये। इत्। एव। अह। अवश्यम्। क्रतौ। कृञः कतुः। उ० १।७६। इति कृञ्−कतु। क्रतुः, कर्म−निघ० २।१। प्रज्ञा−निघ० ३।९। कर्मणि बुद्धौ वा। असः। १।१६।४ ॥ त्वं भूयाः। चित्तम्। चिती ज्ञाने−क्त। अन्तःकरणम्। उप-आयसि। उप+आङ्+अयङ् गतौ−लट्। उपागच्छसि, आदरेण सर्वतः प्राप्नोषि ॥
०३ मधुमन्मे निक्रमणम्
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मधु॑मन्मे नि॒क्रम॑णं॒ मधु॑मन्मे प॒राय॑णम्।
वा॒चा व॑दामि॒ मधु॑मद्भू॒यासं॒ मधु॑संदृशः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
मधु॑मन्मे नि॒क्रम॑णं॒ मधु॑मन्मे प॒राय॑णम्।
वा॒चा व॑दामि॒ मधु॑मद्भू॒यासं॒ मधु॑संदृशः ॥
०३ मधुमन्मे निक्रमणम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Honeyed (mádhumant) [is] my in-stepping, honeyed my forth-going;
with my voice I speak what is honeyed; may I be of honey-aspect.
Notes
Vadāni might be a better reading in c. The first half-verse
resembles RV. x. 24. 6 a, b (m. m. parā́yaṇam mádhumat púnar
ā́yanam). Ppp. has for second half-verse vācā madhumad ubhyāma akṣo me
madhusaṁdṛśī. The comm. takes madhu and saṁdṛśas in d as two
independent words.
Griffith
My coming in is honey-sweet and honey-sweet, my going forth: My voice and words are sweet: I fain would be like honey in my look.
पदपाठः
मधु॑ऽमत। मे॒। नि॒ऽक्रम॑णम्। मधु॑ऽमत्। मे॒। प॒रा॒ऽअय॑नम्। वा॒चा। व॒दा॒मि॒। मधु॑ऽमत्। भू॒यास॑म्। मधु॑ऽसंदृशः।
अधिमन्त्रम् (VC)
- मधुवनस्पतिः
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- मधु विद्या
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विद्या की प्राप्ति का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (मे) मेरा (निक्रमणम्) पास आना (मधुमत्) बहुत ज्ञानवाला वा रस में भरा हुआ और (मे) मेरा (परायणम्) बाहिर जाना (मधुमत्) बहुत ज्ञानवाला वा रस में भरा हुआ होवे। (वाचा) वाणी से मैं (मधुमत्) बहुत ज्ञानवाला वा रसयुक्त (वदामि) बोलूँ और मैं (मधुसन्दृशः) ज्ञान रूपवाला वा मधुर रूपवाला (भूयासम्) रहूँ ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य घर, सभा, राजद्वार, देश, परदेश आदि में आने, जाने, निरीक्षण, परीक्षण, अभ्यास आदि समस्त चेष्टाओं और वाणी से बोलने अर्थात् शुभ गुणों के ग्रहण और उपदेश करने में (मधुमान्) ज्ञानवान् वा रस से भरे अर्थात् प्रेम में मग्न होते हैं, वही महात्मा (मधुसन्दृश) रसीले रूपवाले अर्थात् संसार भर में शुभकर्मी होकर उपकार करते हैं ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−मधु-मत्। म० १। अतिविज्ञानयुक्तम्। मधुरसोपेतम्। नि-क्रम-णम्। नि+क्रमु गतौ−ल्युट्। निकटगमनम्, आगमनम्। परा-अयनम्। परा+अय गतौ−ल्युट्। दूरगमनम् प्रस्थानम्। वाचा। १।१।१। वाण्या। वदामि। वद वाचि−लिङर्थे लट्। कथ्यासम् उच्यासम्। भूयासम्। भू सत्तायाम्−आशिषि लिङ्। अहं स्याम्। मधु-सन्दृशः। इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा० ३।१।१३५। इति मधु+सम्+दृशिर् प्रेक्षे=चाक्षुषज्ञाने−क। ज्ञानरसरूपः, मधुरदर्शनः ॥
०४ मधोरस्मि मधुतरो
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मधो॑रस्मि॒ मधु॑तरो म॒दुघा॒न्मधु॑मत्तरः।
मामित्किल॒ त्वं वनाः॒ शाखां॒ मधु॑मतीमिव ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
मधो॑रस्मि॒ मधु॑तरो म॒दुघा॒न्मधु॑मत्तरः।
मामित्किल॒ त्वं वनाः॒ शाखां॒ मधु॑मतीमिव ॥
०४ मधोरस्मि मधुतरो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Than honey am I sweeter (mádhu), than the honey-plant more honeyed;
of me verily shalt thou be fond (? van), as of a honeyed branch.
Notes
The majority of our mss. (not Bp. I. E. D.) read here madhúghāt in
b, as do also the Prāt. mss. in both places (ii. 5 c; iv. 16 c)
where the verse is quoted; but at vi. 102. 3 all read -du-; SPP. reads
-du- (as does our text), and makes no report of discordance among his
authorities; the comm. has -du-, and derives the word from
madhudugha. All the mss., and both texts, give the unmotived accent
vánās in c; the comm. explains the word by sambhajes. He again
regards the plant as addressed in the second half-verse. Ppp. (in viii.)
has a and b, with ⌊aham for asmi and⌋ madhumāṅ for madughāt.
Griffith
Sweeter am I than honey, yet more full of sweets than licorice: So mayst thou love me as a branch full of all sweets, and only me.
पदपाठः
मधोः॑। अ॒स्मि॒। मधु॑ऽतरः। म॒दुघा॑त्। मधु॑मत्ऽतरः। माम्। इत्। किल॑। त्वम्। वनाः॑। शाखा॑म्। मधु॑मतीम्ऽइव।
अधिमन्त्रम् (VC)
- मधुवनस्पतिः
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- मधु विद्या
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विद्या की प्राप्ति का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (मधोः) मधुर रस से मैं (मधुतरः) अधिक मधुर (अस्मि) होऊँ, (मदुघात्) लड्डू [वा मुलहटी ओषधि] से भी (मधुमत्तरः) अधिक मधुर रसवाला होऊँ। (त्वम्) तू (माम् इत्) मुझसे ही (किल) निश्चय करके (वनाः) प्रेम कर, (इव) जैसे (मधुमतीम्) मधुर रसवाली (शाखाम्) शाखा से [अनुराग करते हैं] ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विद्या का रस सांसारिक स्वादिष्ठ मिष्टान्न आदि रोचक पदार्थों से बहुत ही रसीला अर्थात् अधिक लाभदायक और उपकारी होता है। जैसे-जैसे ब्रह्मचारी यत्नपूर्वक विद्या की लालसा करता है, वैसे ही वैसे विद्या देवी भी उससे अनुराग करती है ॥४॥ मनु महाराज ने कहा है−अ० ४ श्लोक २० ॥ यथा यथा हि पुरुषः शास्त्रं समधिगच्छति। तथा तथा विजानाति विज्ञानं चास्य रोचते ॥१॥ जैसे-जैसे ही पुरुष शास्त्र को पढ़ता जाता है, वैसे ही वैसे वह अधिक विद्वान् होता जाता है और विज्ञान में उसकी रुचि होती है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−मधोः। म० १। मधुररसात्, क्षौद्ररसात्। अस्मि। अहं भवानि। मधु-तरः। द्विवचनविभज्योपपदे तरबीयसुनौ। पा० ५।३।५७। इति मधु+तरप्। अधिकमाधुर्योपेतः। मदुघात्। मोदकात्। मुद हर्षे−ण्वुल्। छान्दसं रूपम् मिष्टखाद्यविशेषात्। यद्वा [मधुकात्] मधु+कै−क। मधु मधुरं कायति शब्दयति विज्ञापयतीति मधुकम्। यष्टिमधुकायाः, ओषधिविशेषात्। सायणभाष्ये तु (मदुघात्)=मधुदुघात्, मधु+दुह प्रपूरणे−कप्, घत्वं च, मधु−शब्दे धुलोपश्छान्दसः, मधुस्राविणः पदार्थविशेषात्−इति वर्तते। मधुमत्−तरः। मधु+मतुप्+तरप् पूर्ववत्। पा० ५।३।५७। अधिकतरमधुमान्, उपकारितरः। माम्। विद्यार्थिनं ब्रह्मचारिणम्। किल। प्रसिद्धौ, निश्चयेन। त्वम्। विद्ये। वनाः। वन संभक्तौ−लेट्। लेटोऽडाटौ। पा० ३।४।९४। इति आडागमः। त्वं संभजेः, सेवस्व, कामयेथाः। शाखाम्। शाख व्याप्तौ−अच्, टाप्। वृक्षाङ्गविशेषम्। मधुमतीम्। म० १। मधु+मतुप्−ङीप्। मधुररसयुक्ताम् ॥
०५ परि त्वा
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परि॑ त्वा परित॒त्नुने॒क्षुणा॑गा॒मवि॑द्विषे।
यथा॒ मां का॒मिन्यसो॒ यथा॒ मन्नाप॑गा॒ असः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
परि॑ त्वा परित॒त्नुने॒क्षुणा॑गा॒मवि॑द्विषे।
यथा॒ मां का॒मिन्यसो॒ यथा॒ मन्नाप॑गा॒ असः॑ ॥
०५ परि त्वा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- About thee with an encompassing (paritatnú) sugar-cane have I gone,
in order to absence of mutual hatred; that thou mayest be one loving me,
that thou mayest be one not going away from me.
Notes
The second half-verse is found repeatedly later, as ii. 30. 1 d, e
and vi. 8. 1-3 d, e. The pada-reading in d is ápa॰gā, and
the word is quoted under Prāt. iii. 34 as one of the cases of irregular
hiatus to which the rule refers. Disregarding this, SPP. alters the
pada-text to ápa॰gāḥ, against all our pada-mss. and most of his,
for no better reason than that the comm. seems to read so. Our Bp. (both
copies) accents here apa॰gā́, as also at vi. 8. 1, 3, but not at ii.
30. 1. The comm. allows this time that the address is to a woman. ⌊Ppp.
has for b-d yakṣaṇākām avidviṣe yathā na vidvāvadvi na vibhāva kadā
cana. As for the rite, cf. Pāraskara’s Gṛhya-sūtra, iii. 7¹, and
Stenzler’s note.⌋
Griffith
Around thee have I girt a zone of sugar-cane to banish hate. That thou mayst be in love with me, my darling never to depart.
पदपाठः
परि॑। त्वा॒। प॒रि॒ऽत॒त्नुना॑। इ॒क्षुणा॑। अ॒गा॒म्। अवि॑ऽद्विषे। यथा॑। माम्। का॒मिनी॑। असः॑। यथा॑। मत्। न। अप॑ऽगाँः। असः॑।
अधिमन्त्रम् (VC)
- मधुवनस्पतिः
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- मधु विद्या
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
विद्या की प्राप्ति का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (परितत्नुना) बहुत फैली हुई (इक्षुणा) लालसा के साथ [अथवा, ऊख जैसी मधुरता के साथ] (अविद्विषे) वैर छोड़ने के लिये (त्वा) तुझको (परि) सब ओर से (अगाम्) मैंने पाया है। (यथा) जिससे तू (माम् कामिनी) मेरी कामना करनेवाली (असः) होवे और (यथा) जिससे तू (मत्) मुझसे (अपगाः) बिछुड़नेवाली (न) न (असः) होवे ॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जब ब्रह्मचारी पूर्ण अभिलाषा से विद्या के लिये प्रयत्न करता है, तो कठिन से कठिन भी विद्या उसको अवश्य मिलती और अभीष्ट आनन्द देती है ॥५॥ इस मन्त्र का दूसरा आधा २।३०।१ और ६।८।१-३ में भी है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५−परि। सर्वतोभावेन। त्वा। त्वाम् मधुलतां विद्याम्। परि-तत्नुना। दाभाभ्यां नुः। उ० ३।३२। इति बाहुलकात्। तनु विस्तारे−नु प्रत्ययः। सर्वत्रव्याप्तेन। इक्षुणा। इषेः वसुः। उ० ३।१५७। इति इषु इच्छायाम्−क्सु। अभिलाषेण, यद्वा। गुडतृणेन प्रेमरूपेण। अगाम्। इण् गतौ−लुङ्। प्राप्तवानस्मि। अवि-द्विषे। न+वि+द्विष वैरे−भावे क्विप्। वैरत्यागार्थम्। यथा। येन प्रकारेण। माम्। ब्रह्मचारिणम्। कामिनी। अत इनिठनौ। पा० ५।२।११५। इति काम−इनि। ङीप्। अकेनोर्भविष्यदाधमर्ण्ययोः। पा० २।३।७०। इति द्वितीया। माम् कामयमाना। असः। १।१६।४। त्वम् भवेः, भूयाः। मत्। मत्तः। न। निषेधे। अप-गाः। आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। पा० ३।२।७४। इति अप+गाङ् गतौ−विच्। अपयानशीला, प्रस्थानशीला, वियोगिनी ॥