०३२ महद्ब्रह्म ...{Loading}...
Whitney subject
- Cosmogonic.
VH anukramaṇī
महद्ब्रह्म।
१-४ ब्रह्मा। द्यावापृथिवी। अनुष्टुप्, २ ककुम्मत्यनुष्टुप्।
Whitney anukramaṇī
[Brahman.—dyāvāpṛthivīyam. ānuṣṭubham: 2. kakummatī.]
Whitney
Comment
Found in Pāipp. i., next after our hymn 31. Used by Kāuś. in a women’s rite (34. 1), against barrenness, and again (59.3) in a ceremony for prosperity, to heaven and earth; and the first verse (so the comm.) further (6. 17), as alternate to x. 5. 23, with conducting water into the joined hands of the sacrificer’s wife, in the parvan-sacrifices.
Translations
Translated: Weber, iv. 426; Ludwig, p. 533; Griffith, i. 36.
Griffith
In praise of Heaven and Earth
०१ इदं जनासो
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ॒दं ज॒नासो॑ वि॒दथ॑ म॒हद्ब्रह्म॑ वदिष्यति।
न तत्पृ॑थि॒व्यां नो॑ दि॒वि येन॑ प्रा॒णन्ति॑ वी॒रुधः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इ॒दं ज॒नासो॑ वि॒दथ॑ म॒हद्ब्रह्म॑ वदिष्यति।
न तत्पृ॑थि॒व्यां नो॑ दि॒वि येन॑ प्रा॒णन्ति॑ वी॒रुधः॑ ॥
०१ इदं जनासो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Now, ye people, take knowledge; he will speak a great mystery (?
bráhman); that is not on earth nor in the sky whereby the plants
breathe.
Notes
With a, b is to be compared the very similar line xx. 127. 1 a,
b; idáṁ janā úpa śruta nārāśaṅsá staviṣyate; which makes it probable
that the ungrammatical vidátha means vidata or vedatha (accent is
unmotived), and suggests also vadiṣyate, passive; the former seems
confounded with the noun vidátha, of which vidáthe, or, as Ppp.
reads, vidátham, would make fairly good sense: ‘will now be spoken at
(or to) the council.’ Ppp. reads yatas for yena in d. ⌊For
prandnti, see Prāt. iv. 57.⌋
Griffith
Ye people, hear and mark this well: he will pronounce a mighty prayer: That which gives breathing to the Plants is not on earth nor in, the heaven.
पदपाठः
इ॒दम्। ज॒ना॒सः॒। वि॒दथ॑। म॒हत्। ब्रह्म॑। व॒दि॒ष्य॒ति॒। न। तत्। पृ॒थि॒व्याम्। नो इति॑। दि॒वि। येन॑। प्रा॒णन्ति॑। वी॒रुधः॑।
अधिमन्त्रम् (VC)
- द्यावापृथिवी
- ब्रह्मा
- अनुष्टुप्
- महद्ब्रह्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्मविचार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (जनासः) हे मनुष्यो ! (इदम्) इस बात को (विदथ) तुम जानते हो, वह [ब्रह्मज्ञानी] (महत्) पूजनीय (ब्रह्म) परम ब्रह्म का (वदिष्यति) कथन करेगा। (तत्) वह ब्रह्म (न) न तो (पृथिव्याम्) पृथिवी में (नो) और न (दिवि) सूर्य्यलोक में है (येन) जिसके सहारे से (वीरुधः) यह उगती हुयी जड़ी-बूटी [लतारूप सृष्टि के पदार्थ] (प्राणन्ति) श्वास लेती हैं ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - यद्यपि वह सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान् परब्रह्म भूमि वा सूर्य्य आदि किसी विशेष स्थान में वर्तमान नहीं है, तो भी वह अपनी सत्ता मात्र से ओषधि अन्न आदि सब सृष्टि का नियमपूर्वक प्राणदाता है। ब्रह्मज्ञानी लोग उस ब्रह्म का उपदेश करते हैं ॥१॥ केनोपनिषत् में वर्णन है, खण्ड १ मन्त्र ३। न तत्र चक्षुर्गगच्छति न वाग् गच्छति नो मनो न विद्मो न विजानीमो यथैतदनुशिष्यादन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि। इति शुश्रुम पूर्वेषां ये नस्तद् व्याचचक्षिरे ॥१॥ न वहाँ आँख जाती है, न वाणी जाती है, न मन, हम न जानते हैं न पहिचानते हैं, कैसे वह इस जगत् का अनुशासन करता है। वह जाने हुए से भिन्न है और न जाने हुए से ऊपर है। ऐसा हमने पूर्वजों से सुना है, जिन्होंने हमें उसकी शिक्षा दी थी ॥ और भी केनोपनिषत् का वचन है, अ० १ म० ८ ॥ यत् प्राणेन न प्राणिति येन प्राणः प्रणीयते। तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥२॥ जो प्राण द्वारा नहीं श्वास लेता है। जिस करके प्राण चलाया जाता है, उसको ही तू ब्रह्म जान, यह वह नहीं है जिसके पास वे बैठते हैं ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−इदम्। वक्ष्यमाणम्। जनासः। १८।१। आज्जसेरसुक्। पा० ७।१।५०। इति जसि असुक्। हे जनाः, विद्वांसः। विदथ। विद ज्ञाने अदादिः−लट् मध्यमबहुवचनं छन्दसि शः। यूयं वित्थ, जानीथ। महत्। १।१०।४। पूजनीयम् ब्रह्म। १।८।४। परब्रह्म, परमात्मानम्, परमकारणम्। वदिष्यति। वद वाक्ये−लृट्। कथयिष्यति। न। निषेधे। तत्। ब्रह्म। पृथिव्याम्। १।२।१। प्रख्यातायां भूमौ। नो इति। न−उ। नैव। दिवि। १।३०।३। द्युलोके, सूर्यमण्डले। येन। ब्रह्मणा। प्राणन्ति। प्र+अन जीवने, अदादिः। जीवन्ति, श्वसन्ति। वीरुधः। विशेषेण रुणद्धि वृक्षानन्यान् सा वीरुत्। वि+रुध आवरणे−क्विप्, दीर्घश्च। अथवा। वि+रुह प्रादुर्भावे−क्विप्। न्यङ्क्वादीनां च पा० ७।३।३५। इति हस्य धः। विरोहणशीलाः। वितस्ता लतादयः। लतादिवद् विरोहिताः सृष्टिपदार्थाः ॥
०२ अन्तरिक्ष आसाम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॒न्तरि॑क्ष आसां॒ स्थाम॑ श्रान्त॒सदा॑मिव।
आ॒स्थान॑म॒स्य भू॒तस्य॑ वि॒दुष्टद्वे॒धसो॒ न वा॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॒न्तरि॑क्ष आसां॒ स्थाम॑ श्रान्त॒सदा॑मिव।
आ॒स्थान॑म॒स्य भू॒तस्य॑ वि॒दुष्टद्वे॒धसो॒ न वा॑ ॥
०२ अन्तरिक्ष आसाम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- In the atmosphere is the station of them, as of those sitting
wearied; the station of this that exists (bhūtá): that the pious
know—or they do not.
Notes
‘Of them’ (āsām, fem.) in a the comm. explains to mean “of the
plants,” and then, alternatively, “of the waters”; doubtless the latter
is correct, the waters being that “whereby the plants live” (1 d).
Ppp. reads in a. antarikṣam, which means virtually the same as our
text: the reservoir of the waters is the atmosphere or is in it (not in
heaven nor earth, 1 c). The analogy of vii. 95. 2 suggests gávām
as wanting at the beginning of b: the waters are ordinarily as quiet
as cows that lie resting: a comparison from the usual Vedic source.
Weber suggested that sthā́ma be read twice; and this R. favors. The
Anukr. ignores the deficiency in the pāda. For d, Ppp. has viduṣṣ
kṛd bheṣatodanaḥ.
Griffith
Their station, as of those who rest when weary, is in midmost air: The base whereon this world is built, the sages know or know it not.
पदपाठः
अ॒न्तरि॑क्षे। आ॒सा॒म्। स्याम॑। श्रा॒न्त॒सदा॑म्ऽइव। आ॒ऽस्थान॑म्। अ॒स्य। भू॒तस्य॑। वि॒दुः। तत्। वे॒धसः॑। न। वा॒।
अधिमन्त्रम् (VC)
- द्यावापृथिवी
- ब्रह्मा
- ककुम्मत्यनुष्टुप्
- महद्ब्रह्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्मविचार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अन्तरिक्षे) सबके भीतर दिखाई देनेहारे आकाशरूप परमेश्वर में (आसाम्) इनका [लतारूप सृष्टियों का] (स्थाम) ठहराव है (श्रान्तसदाम् इव) जैसे थक कर बैठे हुए यात्रियों का पड़ाव। (वेधसः) बुद्धिमान् लोग (तत्) उस ब्रह्म को (अस्य भूतस्य) इस संसार का (आस्थानम्) आश्रय (विदुः) जानते हैं, (वा) अथवा (न) नहीं [जानते हैं] ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सूर्य आदि असंख्य लोक उसी परमब्रह्म में ठहरे हैं, वही समस्त जगत् का केन्द्र है। इस बात को विद्वान् लोग विधि और निषेधरूप विचार से निश्चित करते हैं, जैसे ब्रह्म जड़ नहीं है, किन्तु चैतन्य है, इत्यादि, अथवा जितना अधिक ब्रह्मज्ञान होता जाता है, उतना ही वह अनन्त, ब्रह्म अगम्य और अति अधिक जान पड़ता है, इससे वह ब्रह्मज्ञानी अपने को अज्ञानी समझते हैं ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−अन्तरिक्षे। १।३०।३। सर्वमध्ये दृश्यमाने परमेश्वरे। आसाम्। वीरुधाम्। म० १। विरोहणशीलानां पदार्थानाम्। स्थाम। सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४४। ष्ठा गतिनिवृत्तौ−मनिन्। स्थानं। स्थितिः। श्रान्तसदाम्। श्रमु तपःखेदयोः−भावे क्त+षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु−क्विप्। श्रमेण मार्गस्वेदेन स्थितानाम्। आ-स्थानम्। आ+ष्ठा−ल्युट्। स्थानम्। आश्रयम्। अस्य। परिदृश्यमानस्य। भूतस्य। लोकस्य, जगतः। विदुः। विद ज्ञाने−लट्। विदन्ति जानन्ति। तत्। कारणभूतं ब्रह्म। वेधसः। १।११।१। मेधाविनः, विद्वांसः। न। निषेधे। वा। अथवा ॥
०३ यद्रोदसी रेजमाने
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यद्रोद॑सी॒ रेज॑माने॒ भूमि॑श्च नि॒रत॑क्षतम्।
आ॒र्द्रं तद॒द्य स॑र्व॒दा स॑मु॒द्रस्ये॑व स्रो॒त्याः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यद्रोद॑सी॒ रेज॑माने॒ भूमि॑श्च नि॒रत॑क्षतम्।
आ॒र्द्रं तद॒द्य स॑र्व॒दा स॑मु॒द्रस्ये॑व स्रो॒त्याः ॥
०३ यद्रोदसी रेजमाने ...{Loading}...
Whitney
Translation
- What the (two) quaking firmaments (ródasī)—and the earth—fashioned
out, that at present is always wet, like the streams of the ocean.
Notes
In b the translation implies emendation to átakṣatām, as favored
by the Ppp. reading nara-cakṣatām; there remains the anomaly of
letting the verb agree with ródasī (Ppp. has rodhasī); perhaps we
ought to read bhū́mes ‘out of the earth.’ The comm., with a disregard
of the accent which is habitual with him, takes ródasī and its epithet
as vocatives, and then supplies dyāus, vocative ⌊JAOS. xi. 66⌋, in
b to help make a dual subject for the verb! For d Ppp. has
vidurassevavartasī. ⌊For c, of. śB. vi. 6. 33.⌋
Griffith
What the two trembling hemispheres and ground produced and fashioned forth. This All, is ever fresh to-day, even as the currents of the sea.
पदपाठः
यत्। रोद॑सी॒ इति॑। रेज॑माने॒ इति॑। भूमिः॑। च॒। निः॒ऽअत॑क्षतम्। आ॒र्द्रम्। तत्। अ॒द्य। स॒र्व॒दा। स॒मु॒द्रस्य॑ऽइव। स्रो॒त्याः।
अधिमन्त्रम् (VC)
- द्यावापृथिवी
- ब्रह्मा
- अनुष्टुप्
- महद्ब्रह्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्मविचार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (रोदसी=सि) हे सूर्य (च) और (भूमिः) भूमि। (रेजमाने) काँपते हुए तुम दोनों ने (यत्) जिस [रस] को (निरतक्षम्) उत्पन्न किया है, (तत्) वह (आर्द्रम्) रस (अद्य) आज (सर्वदा) सदा से (समुद्रस्य) सींचनेवाले समुद्र के (स्रोत्याः) प्रवाहों के (इव) समान वर्तमान है ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जिस रस वा उत्पादनशक्ति को, परमेश्वर ने सूर्य और भूमि को (कम्पमान) वश में रख के, सृष्टि के आदि में उत्पन्न किया था वह शक्ति मेघ आदि रस रूप से सदा संसार में सृष्टि की उत्पत्ति और स्थिति का कारण है ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: टिप्पणी−सायणभाष्य में (रोदसी इति) यह पदपाठ और उसका अर्थ [हे द्यावापृथिव्यौ] हे सूर्य और भूमि अशुद्ध है। यहाँ (रोदसी) एकवचन और केवल सूर्यवाची है क्योंकि (भूमिः च) [और भूमि] यह पद मन्त्र में वर्तमान हैं। फिर (भूमिः च) का भी अर्थ [भूमि और द्युलोक] उक्त भाष्य में है ॥ ३−यत्। आर्द्रम्। रोदसी। एकवचनं स्त्री। सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। इति रुध आवरणे−असुन्। षिद्गौरादिभ्यश्च। पा० ४।१।४१। इति ङीप्। द्युलोको भूमिर्वा। सम्बोधने दीर्घश्छान्दसः। हे रोदसि। सूर्यलोक। रेजमाने। रेजृ कम्पने−शानच्। भ्यसते रेजत इति भयवेपनयोः−निरु० ३।२१। उभे कम्पमाने। भूमिः। १।११।२। भवन्ति पदार्था अस्यामिति। पृथिवी। निः−अतक्षतम्। तक्षू तनूकरणे−लङ्। युवामुदपादयतम्। आर्द्रम्। अर्देर्दीघश्च। उ० २।१८। इति अर्द वधे, गतौ−रक्, दीर्घश्च। क्लेदनं रसत्वम् उत्पादनसामर्थ्यम्। तत्। प्रसिद्धम्। अद्य। १।१।१। वर्तमाने दिने। समुद्रस्य। १।३।८। समुन्दनशीलस्य सागरस्य, अर्णवस्य। स्रोत्याः। पुंलि०। स्रोतसो विभाषा ड्यड्यौ। पा० ४।४।११३। इति स्रोतस्-ड्य डित्त्वात् टिलोपः। स्रोतसि भवाः, जलप्रवाहाः ॥
०४ विश्वमन्यामभीवार तदन्यस्यामधि
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
विश्व॑म॒न्याम॑भी॒वार॒ तद॒न्यस्या॒मधि॑ श्रि॒तम्।
दि॒वे च॑ वि॒श्ववे॑दसे पृथि॒व्यै चा॑करं॒ नमः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
विश्व॑म॒न्याम॑भी॒वार॒ तद॒न्यस्या॒मधि॑ श्रि॒तम्।
दि॒वे च॑ वि॒श्ववे॑दसे पृथि॒व्यै चा॑करं॒ नमः॑ ॥
०४ विश्वमन्यामभीवार तदन्यस्यामधि ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The one hath covered all; this rests upon the other; both to the
heaven and to the all-possessing earth have I paid homage.
Notes
The first pāda is translated according to the Ppp. version: viśvam anyā
‘bhi vavāra; which is quite satisfactory; Weber had suggested abhī̀ ‘vā́
“ra. The pada-reading is abhi॰vā́ra, and the word is quoted under
Prāt. iii. 12 as an example of a compound showing protraction of the
final vowel of the first member. TB. (iii. 7. 10³) and Āp. (ix. 14. 2)
have the verse, and both have anyā́ ‘bhivāvṛdhé. The comm. gives
abhīvāras, and explains it in three ways, as abhito varaṇaṁ
chādanam, as abhivṛtam, and as abhitaḥ sambhajanayuktam. For b,
Ppp. has viśvam anyasyām adhi śratam. For viśvávedase in c (Ppp.
viśvavedhase; TB. Āp. viśvákarmaṇe) the comm. also gives two
interpretations, from vid ‘acquire’ and from vid ‘know.’
Griffith
This All hath compassed round the one, and on the other lies at rest. To Earth and all-possessing Heaven mine adoration have I paid.
पदपाठः
विश्व॑म। अ॒न्याम्। अ॒भि॒ऽवार॑। तत्। अ॒न्यस्या॑म्। अधि॑। श्रि॒तम्। दि॒वे। च॒। वि॒श्वऽवे॑दसे। पृ॒थि॒व्यै। च॒। अ॒क॒र॒म्। नमः॑।
अधिमन्त्रम् (VC)
- द्यावापृथिवी
- ब्रह्मा
- अनुष्टुप्
- महद्ब्रह्मा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ब्रह्मविचार का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (विश्वम्) उस सर्वव्यापक [रस] ने (अन्याम्) एक [सूर्य्य वा भूमि] को (अभि) चारों ओर से [वार=ववार] घेर लिया, (तत्) वही [रस] (अन्यस्याम्) दूसरी में (अधिश्रितम्) आश्रित हुआ। (च) और (दिवे) सूर्यरूप वा आकाशरूप (च) और (पृथिव्यै) पृथिवीरूप (विश्ववेदसे) सबके जाननेवाले [वा सब धनों के रखनेवाले, वा सबमें विद्यमान ब्रह्म] को (नमः) नमस्कार (अकरम्) मैंने किया है ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सृष्टि का कारण रस अर्थात् जल, सूर्य की किरणों से आकाश में जाकर फिर पृथिवी में प्रविष्ट होता, वही फिर पृथिवी से आकाश में जाता और पृथिवी पर आता है। इस प्रकार उन दोनों का परस्पर आकर्षण, जगत् को उपकारी होता है। विद्वान् लोग इसी प्रकार जगदीश्वर की अनन्त शक्तियों को विचार कर सत्कारपूर्वक उपकार लेकर आनन्द भोगते हैं ॥४॥ यजुर्वेद म० ३। अ० ५। में इस प्रकार वर्णन है- भूर्भुवः॒ स्वर्द्यौरि॑व भू॒म्ना पृ॑थि॒वीव वरि॒म्णा ॥ सबका आधार, सबमें व्यापक, सुखस्वरूप परमेश्वर बहुत्व के कारण [सब लोकों के धारण करने से] आकाश के समान और अपने फैलाव से पृथिवी के समान है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−विश्वम्। १।१०।२। सर्वं व्याप्तं आर्द्रम्। म० ३। अन्याम्। एकाम् द्यां भूमिं वा। अभि वार। वृञ् वरणे−लिट्। वकारलोपश्छान्दसः। सर्वतो ववार, आच्छादितं चकार। तत्। आर्द्रम्। अन्यस्याम्। अपरस्याम्। अधि+श्रितम्। आश्रितम्। दिवे। १।३०।३। आकाशाय। तद्रूपाय। विश्व-वेदसे। विद्लृ लाभे, वा विद् ज्ञाने सत्तायां च−असुन्। सर्वधन−युक्तायै, सर्वाधारभूतायै। पृथिव्यै। १।२।१। विस्तीर्णायै भूम्यै, तद्रूपाय परमेश्वराय। अकरम्। डुकृञ् करणे−लुङ्। अहं कृतवानस्मि ॥