०३० दीर्घायुःप्राप्तिः

०३० दीर्घायुःप्राप्तिः ...{Loading}...

Whitney subject
  1. For protection: to all the gods.
VH anukramaṇī

दीर्घायुःप्राप्तिः।
१-४ अथर्वा (आयुष्कामः)। विश्वेदेवाः (१ वसवः, आदित्याः, १-४ देवाः)। त्रिष्टुप्, ३ शाक्वरगर्भा विराड् जगती।

Whitney anukramaṇī

[Atharvan (āyuṣkāmaḥ).—vāiśvadevam. trāiṣṭubham: 3. śākvaragarbhā virāḍjagatī.]

Whitney

Comment

Found in Pāipp. i., but damaged and only in part legible. The hymn belongs, according to the comm., to the āyuṣya (‘for length of life’) gaṇa, although not found among those mentioned (Kāuś. 54. 11, note) as composing that gaṇa; it is used in ceremonies for long life by 52. 18 and 59. 1; also, with i. 9 and other hymns, in the reception of a Vedic student (55.17), and in dismissal from Vedic study (139. 15). And vss. 3, 4 appear in Vāit. (4. 4, 15) in connection with different parts of the parvan-sacrifices. The comm. further quotes it from Nakṣ. Kalpa 17 and 18 in two mahāśānti rites, styled āirāvatī and vāiśvadevī, and from Pariśiṣṭa 5. 4, in the puṣpābhiṣeka ceremony.

Translations

Translated: Weber, iv. 424; Ludwig, p. 430; Griffith, i. 34.

Griffith

A benediction on a King at his consecration

०१ विश्वे देवा

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

विश्वे॑ देवा॒ वस॑वो॒ रक्ष॑ते॒ममु॒तादि॒त्या जा॑गृ॒त यू॒यम॒स्मिन्।
मेमं सना॑भिरु॒त वान्यना॑भि॒र्मेमं प्राप॒त्पौरु॑षेयो व॒धो यः ॥

०१ विश्वे देवा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. O all ye gods, ye Vasus, protect this man; likewise ye Ādityas, watch
    ye over him; him let not one related (sánābhi) nor one unrelated—him
    let not any deadly weapon of men (pāúruṣeya) reach.
Notes

Ppp. has in b the false form jāgrata. The comm. paraphrases
-nābhi in c by garbhāśaya. ⌊For the syntax, cf. Caland, KZ.
xxxiv. 456.⌋

Griffith

Guard and protect this man, all Gods and Vasus. Over him keep- ye watch and ward, Adityas. Let not death reach him from the hands of brothers from hands of aliens, or of human beings.

पदपाठः

विश्वे॑। दे॒वाः॒। वस॑वः। रक्ष॑त। इ॒मम्। उ॒त। आ॒दि॒त्याः। जा॒गृ॒त। यू॒यम्। अ॒स्मिन्। मा। इ॒मम्। सऽना॑भिः। उ॒त। वा॒। अ॒न्यऽना॑भिः। मा। इ॒मम्। प्र। आ॒प॒त्। पौरु॑षेयः। व॒धः। यः।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • विश्वे देवाः
  • अथर्वा
  • त्रिष्टुप्
  • दीर्घायुप्राप्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजतिलक-यज्ञ के उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (वसवः) हे श्रेष्ठ (विश्वे) सब (देवाः) प्रकाशमान महात्माओ ! (इमम्) इस पुरुष की (रक्षत) रक्षा करो, (उत) और (आदित्याः) हे सूर्यसमान तेजवाले विद्वानो ! (यूयम्) तुम (अस्मिन्) इस राजा के विषय में (जागृत) जागते रहो। (सनाभिः) अपने बन्धु का, (उत वा) अथवा (अन्यनाभिः) अबन्धु का, अथवा (पौरुषेयः) किसी और पुरुष का किया हुआ, (यः) जो (वधः) वध का यत्न है [वह] (इमम्) इस (इमम्) इस पुरुष को (मा मा) कभी न (प्रापत्) पहुँच सके ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - राजा अपने सुपरीक्षित न्याय, मन्त्री और युद्धमन्त्री आदि कर्मचारी शूरवीरों को राज्य की रक्षा के लिये सदा चेतन्य करता रहे कि कोई सजाती वा स्वदेशी वा विदेशी पुरुष प्रजा में अराजकता न फैलावे ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−देवाः। १।७।१। विजयिनः पुरुषाः। वसवः। १।९।१। निवासयितारः। प्रशस्ताः श्रेष्ठाः। रक्षत। पालयत। इमम्। माम् राजानम्। आदित्याः। १।९।१। विद्यादिशुभगुणानां रसस्य आदातारो ग्रहीतारः। अथवा आदित्यवत् तेजस्विनः महाविद्वांसः। जागृत। जागृ निद्राक्षये−लोट्। प्रबुद्धा रक्षार्थम् अवहिताः संनद्धा भवत। मा। निषेधे। स−नाभिः। नहो भश्च। उ० ४।१२६। इति णह बन्धने−कर्मणि इञ् समानस्य सः। समानेन स्वकीयेन संबद्धः। स्वजातिकृतो वधः। अन्य-नाभिः। अन्येन संबद्धः। अज्ञातिकृतो वधः प्र+आपत्। आप्लृ व्याप्तौ−लुङि। प्राप्नोतु। पौरुषेयः। सर्वपुरुषाभ्यां णढञौ। पा० ५।१।१०। इत्यत्र। पुरुषाद् वधविकारसमूहतेनकृतेषु। वार्तिकम्। इति पुरुष-ढञ्। पुरुषकृतः। वधः। १।२०।२। हननम्। हिंसनप्रयोगः ॥

०२ ये वो

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

ये वो॑ देवाः पि॒तरो॒ ये च॑ पु॒त्राः सचे॑तसो मे शृणुते॒दमु॒क्तम्।
सर्वे॑भ्यो वः॒ परि॑ ददाम्ये॒तं स्व॒स्त्ये॑नं ज॒रसे॑ वहाथ ॥

०२ ये वो ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Whoso of you, O gods, are fathers and who sons, do ye, accordant
    (sácetas), hear this utterance of mine; to you all I commit this man;
    happily unto old age shall ye carry him.
Notes

Ppp. has at the end nayātha. The comm. reads in b uttham.

Griffith

Listen, one-minded, to the word I, utter, the sons, O Gods, among you, and the fathers! I trust this man to all of you: preserve him happily, and to length of days conduct him.

पदपाठः

ये। वः॒। दे॒वाः॒। पि॒तरः॑। ये। च॒। पु॒त्राः। सऽचे॑तसः। मे॒। शृ॒णु॒त॒। इ॒दम्। उ॒क्तम्। सर्वे॑भ्यः। वः॒। परि॑। द॒दा॒मि॒। ए॒तम्। स्व॒स्ति। ए॒न॒म्। ज॒रसे॑। व॒हा॒थ॒।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • विश्वे देवाः
  • अथर्वा
  • त्रिष्टुप्
  • दीर्घायुप्राप्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजतिलक-यज्ञ के उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (देवाः) हे विजयी देवताओ ! और (ये) जो (वः) तुम्हारे (पितरः) पितृगण (च) और (ये) जो (पुत्राः) पुत्रगण हैं, वह तुम सब (सचेतसः) सावधान हो कर (मे) मेरे (इदम्) इस (उक्तम्) वचन को (शृणुत) सुनो। (सर्वेभ्यः वः) तुम सबको मैं (एतम्) इसे [अपने को] (परि ददामि) सौंपता हूँ (एनम्) इस पुरुष के लिये [मेरे लिये] (स्वस्ति) कल्याण और मङ्गल (जरसे) स्तुति के अर्थ (वहाथ) तुम पहुँचाओ ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो बुद्धिमान् मनुष्य शास्त्रवित् विजयशील वृद्ध, युवा और ब्रह्मचारियों की सेवा में आत्मसमर्पण करता है, वह पुरुष उन महात्माओं के सत्सङ्ग, उपदेश और सत्कर्मों से लाभ उठाकर संसार में अपनी स्तुति फैलाता है ॥२॥ टिप्पणी−(जरसे) शब्द का अर्थस्तुति के लिये निघण्टु ३।१४। निरु० १०।८। और सायणभाष्य ऋग्वेद १।२।२। के प्रमाण से किया है। यहाँ पर सायणभाष्य मेंजरायै, जराप्राप्तिपर्यन्तम्। बुढ़ापे के लिये, बुढ़ापे के आने तक जो अर्थ है, वह असंगत है, वेद में जीवन को स्वस्थ और स्तुतियोग्य रखने का उपदेश है। देखो−अथर्ववेद, का० ६ सू० १२० म० ३ ॥ यत्रा॑ सु॒हार्दः॑ सु॒कृतो॒ मद॑न्ति वि॒हाय॒ रोगं॑ त॒न्वः स्वायाः॑। अश्लो॑णा॒ अङ्गैरह्रुताः स्व॒र्गे तत्र॑ पश्येम पितरौ च पुत्रान् ॥ जहाँ पर पुण्यात्मा मित्र अपने शरीर का रोग छोड़ कर आनन्द भोगते हैं, वहाँ पर स्वर्ग में बिना लंगड़े हुए और अङ्गों से बिना टेढ़े हुए हम माता-पिता और पुत्रों को देखते रहें। और देखो यजुर्वेद २५।२१। तथा ऋग्वेद १।८९।८। भ॒द्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भ॒द्रं प॑श्येमा॒क्षभि॑र्यजत्राः। स्थि॒रैरङ्गै॑स्तुष्टुवास॑स्त॒नूभि॒र्व्य॑शेमहि दे॒वहितं यदायुः ॥ हे विद्वान् जनो ! कानों से हम शुभ सुनते रहें, हे पूज्य महात्माओ ! आँखों से हम शुभ देखते रहें। दृढ़ अङ्गों और शरीरों से स्तुति करते हुए हम लोग वह जीवन पावें, जो विद्वानों का हितकारक है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−पितरः। १।२।१। पालकाः, उत्पादकाः। पुत्राः। १।११।५। आत्मजाः। स-चेतसः। समान+चिती ज्ञाने−असुन्। समानस्य छन्दसि०। पा० ६।३।८४। इति सभावः। समानचित्ताः, एकमनस्काः। शृणुत। श्रु श्रवणे−लोट्। आकर्णयत। इदम्। वक्ष्यमाणम्। उक्तम्। वच कथने−क्त। वचिस्वपियजादी०। पा० ६।१।१५। इति संप्रसारणम्। वचनम्। वः। युष्मभ्यम्। परिददामि। रक्षणार्थं दानं परिदानं समर्पणम्। रक्षितुं प्रयच्छामि, समर्पयामि। एतम्। आत्मानम्। स्वस्ति। सावसेः। उ० ४।१८१। सु+अस सत्तायां−ति। आशीर्वादम्, क्षेमम्। एनम्। माम् प्रति। जरसे। जरतेस्तौतीत्यर्चतिकर्माणौ−निघ० ३।१४। जरा स्तुतिर्जरते−स्तुतिकर्मणः। निरु० १०।८। यथा। वाय उक्थेभिर्जरन्ते त्वामच्छा जरितारः। ऋ० १।२।२। जरन्ते=स्तुवन्ति, जरितारः=स्तोतारः, इति सायणस्तद्भाष्ये। जॄ स्तुतौ, नैरुक्तधातुः। यद्वा। गॄ शब्दे=स्तुतौ असुन्, गकारस्य जकारः। स्तुत्यर्थम्। प्रशंसाप्राप्त्यर्थम्। वहाथ। वह प्रापणे−लेट्। द्विकर्मकः। यूयं प्रापयत ॥

०३ ये देवा

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

ये दे॑वा दि॒वि ष्ठ ये पृ॑थि॒व्यां ये अ॒न्तरि॑क्ष॒ ओष॑धीषु प॒शुष्व॒प्स्व१॒॑न्तः।
ते कृ॑णुत ज॒रस॒मायु॑र॒स्मै श॒तम॒न्यान्परि॑ वृणक्तु मृ॒त्यून् ॥

०३ ये देवा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Ye, O gods, that are in the heaven, that are on earth, that are in
    the atmosphere, in the herbs, in the cattle, within the waters—do ye
    make old age the length of life for this man; let him avoid the hundred
    other deaths.
Notes

The intrusion of paśúṣu and apsú in b spoils the meter ⌊or we
may read yé ’ntárikṣa óṣadīṣv apsú antáḥ⌋; Ppp., omitting paśúṣu and
antár, makes it good. The Anukr. requires us to scan the pāda as of 14
syllables. Prāt. ii. 101 notes the lingualization in forms of as after
divi, and the comment cites this passage (a) as example. The comm.
has in d vṛṇakta, and renders it as causative. ⌊As to 101 deaths,
see Zimmer, p. 400.⌋

Griffith

All Gods who dwell on earth or in the heavens, in air, within. the plants, the beasts, the waters, Grant this man life to full old age, and let him escape the hundred other ways of dying.

पदपाठः

ये। दे॒वाः॒। दि॒वि। स्थ। ये। पृ॒थि॒व्याम्। ये। अ॒न्तरि॑क्षे। ओष॑धीषु। प॒शुषु॑। अ॒प्ऽसु। अ॒न्तः। ते। कृ॒णु॒त॒। ज॒रस॑म्। आयुः॑। अ॒स्मै। श॒तम्। अ॒न्यान्। परि॑। वृ॒ण॒क्तु॒। मृ॒त्यून्।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • विश्वे देवाः
  • अथर्वा
  • शाक्वरगर्भा विराड्जगती
  • दीर्घायु प्राप्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजतिलक-यज्ञ के उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (देवाः) हे विद्वान् महात्माओ ! (ये) जो तुम (दिवि) सूर्यलोक में, (ये) जो (पृथिव्याम्) पृथिवी में, (ये) जो (अन्तरिक्षे) आकाश वा मध्यलोक में, (ओषधिषु) ओषधियों में, (पशुषु) सब जीवों में और (अप्सु) व्यापक सूक्ष्म तन्मात्राओं वा जल में (अन्तः) भीतर (स्थ) वर्तमान हो। (ते) वह तुम (अस्मै) इस पुरुष के लिये (जरसम्) कीर्तियुक्त (आयुः) जीवन (कृणुत) करो, [यह पुरुष] (अन्यान्) दूसरे प्रकार के (शतम्) सौ (मृत्यून्) मृत्युओं को (परि वृणक्तु) हटावे ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो विद्वान् सूर्यविद्या, भूमिविद्या, वायुविद्या, ओषधि अर्थात् अन्न, वृक्ष, जड़ी-बूटी आदि की विद्या, पशु अर्थात् सब जीवों की पालनविद्या और जलविद्या वा सूक्ष्मतन्मात्राओं की विद्या में निपुण हैं, उनके सत्सङ्ग और उनके कर्मों के विचार से शिक्षा ग्रहण करके और पदार्थों के गुण, उपकार और सेवन को यथार्थ समझ कर मनुष्य अपना सब जीवन शुभ कर्मों में व्यतीत करें और दुराचरणों में अपने जन्म को न गमाकर सुफल करें ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: टिप्पणी−(पशु) शब्द जीववाची है, देखो अथर्व० २।३४।१। य ईशे॑ पशु॒पतिः॑ पशू॒नां चतु॑ष्पदामु॒त यो द्वि॒पदा॑म्। जो पशुपति चौपाये और दोपाये पशुओं [अर्थात् जीवों] का राजा है। (अप्सु) व्यापक सूक्ष्मतन्मात्राओं में। देखो श्रीमद्दयानन्दभाष्य, यजुर्वेद ३७।२५ और २६ ॥ ३−देवाः। हे दिव्यगुणाः। दिव्यगुणयुक्ता विद्वांसः। दिवि। दिवु क्रीडाविजिगीषाकान्तिगत्यादिषु−क्विप्। प्रकाशे सूर्यसमानलोके। स्थ। अस भुवि लट्। भवथ, वर्तध्वे। पृथिव्याम्। १।२।१। विस्तृतायां प्रख्यातायां वा भूमौ। अन्तरिक्षे। अन्तः सूर्यपृथिव्योर्मध्ये ईक्ष्यते। अन्तर्+ईक्ष दर्शने-कर्मणि घञ्। यद्वा। अन्तर्मध्ये ऋक्षाणि नक्षत्राणि यस्य तत् अन्तरिक्षम्। पृषोदरादित्वाद् ईकारस्य ह्रस्वः, ऋकारस्य इकारः। अन्तरिक्षं कस्मादन्तरा क्षान्तं भवत्यन्तरेमे इति वा शरीरेष्वन्तरक्षयमिति वा−इति भगवान् यास्कः, निरु० २।१०। सर्वमध्ये दृश्यमाने। आकाशे। ओषधीषु। १।२३।१। ओषधि-ङीप् ओषध्यः फलपाकान्ता बहुपुष्पफलोपगाः। इति मनुः, १।४६ ॥ इति कदलीव्रीहियवफलधान्यादिषु पशुषु। अर्ज्जिदृशिकम्यमिपंसि०। उ० १।२७। इति दृशिर् प्रेक्षणे−कु, पश्यादेशः। पश्यन्ति दृश्यन्ते वा ते पशवः। प्राणिमात्रेषु, सर्वजीवेषु। अप्सु। १।४।३। आप्लृ−क्विप्। व्यापिकासु सूक्ष्मतन्मात्रासु। यथा श्रीमद्दयानन्दभाष्ये यजुः। ३७।२५, २६। जलेषु वा। अन्तः। मध्ये। ते। सर्वे देवा यूयम्। कृणुत। कुरुत। जरसम्। म० २। जरस् स्तुतिः। अर्शआदिभ्योऽच्। पा० ५।२।१२७। इति मत्वर्थे अच्। स्तुतियुक्तम्। प्रशंसनीयम्। आयुः। एतेर्णिच्च। उ० २।११८। इति इण् गतौ−उसि। ईयते प्राप्यते यत्तद् आयुः। जीवनम्, जीवितकालः। अस्मै। आत्मने, मह्यम्। शतम्। अपरिमितान्। अन्यान्। स्तुत्यजीवनाद् भिन्नान् मृत्यून्। परि+वृणक्तु। वृजी वर्जने−लोट्। अयम् उपासकः परिवर्जयतु। मृत्यून्। भुजिमृङ्भ्यां युक्त्युकौ। उ० ३।२१। इति मृङ् प्राणत्यागे−त्युक्। प्राणवियोगान्, मरणानि। अत्र पश्यत अ० २।२८।१। तथा ८।२।२७ ॥

०४ येषां प्रयाजा

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

येषां॑ प्रया॒जा उ॒त वा॑नुया॒जा हु॒तभा॑गा अहु॒ताद॑श्च दे॒वाः।
येषां॑ वः॒ पञ्च॑ प्र॒दिशो॒ विभ॑क्ता॒स्तान्वो॑ अ॒स्मै स॑त्र॒सदः॑ कृणोमि ॥

०४ येषां प्रयाजा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Whose are the fore-offerings and whose the after-offerings; the
    gods that share the oblation and that eat what is not made oblation of;
    you among whom the five directions are shared out—you do I make sitters
    at the session (sattrá-) of this man.
Notes

Ppp. reads in d tān no ‘smāi satrasadhaḥ k-. The comm. explains
ahutā́das as baliharaṇādidevās; in sattra he sees nothing more than
simple sadana. Both editions read satra-, in accordance with
universal manuscript usage.

Griffith

You, claiming Anuyajas or Prayajas, sharers, or not consumers, of oblation, You, to whom heaven’s five regions are apportioned, I make companions at his sacred sessions.

पदपाठः

येषा॑म्। प्र॒ऽया॒जाः। उ॒त। वा॒। अ॒नु॒ऽया॒जाः। हु॒तऽभा॑गाः। अ॒हु॒त॒ऽअदः॑। च॒। देवाः। येषा॑म्। वः॒। पञ्च॑। प्र॒ऽदिशः॑। विऽभ॑क्ताः। तान्। वः॒। अ॒स्मै। स॒त्र॒ऽसदः॑। कृ॒णो॒मि॒।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • विश्वे देवाः
  • अथर्वा
  • त्रिष्टुप्
  • दीर्घायुप्राप्ति सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

राजतिलक-यज्ञ के उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (येषाम्) जिन [तुम्हारे] (प्रयाजाः) उत्तम पूजनीय कर्म (उत वा) और (अनुयाजाः) अनुकूल पूजनीय कर्म और (हुतभागाः) देने-लेने के विभाग (च) और (अहुतादः) यज्ञ वा दान से बचे पदार्थों के आहार (देवाः) विजय करनेहारे [वा प्रकाशवाले] हैं और (येषाम् वः) जिन तुम्हारे (पञ्च) विस्तीर्ण [वा पाँच] (प्रदिशः) उत्तम दानक्रियाएँ [वा प्रधान दिशाएँ] (विभक्ताः) अनेक प्रकार बटी हुयी हैं (तान् वः) उन तुमको (अस्मै) इस [पुरुष] के हित के लिये [अपने लिये] (सत्रसदः) सभासद् (कृणोमि) बनाता हूँ ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो धर्मात्मा विद्वान् पुरुष स्वार्थ छोड़ कर दान करते हों और सब संसार के हित में दत्तचित्त हों, राजा उन महात्माओं को चुन कर अपनी राजसभा का सभासद् बनावे ॥४॥ यज्ञशेष के भोजन के विषय में भगवान् श्रीकृष्ण महाराज ने कहा है। भगवद्गीता अ० ४ श्लोक ३१ ॥ यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्। नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥१॥ यह [दान वा देवपूजा] से बचे अमृत का भोजन करनेवाले पुरुष सनातन ब्रह्म को पाते हैं। यज्ञ न करनेवाले का यह लोक नहीं है, हे कौरवों में श्रेष्ठ ! फिर उसका परलोक कहाँ से हो ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−प्र-याजाः। अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्। पा० ३।३।१९। इति प्र+यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु−घञ्। प्रयाजानुयाजौ यज्ञाङ्गे। पा० ७।३।६२। इति कुत्वप्रतिषेधो निपात्यते। प्रकृष्टपूजनीयकर्माणि। वा। समुच्चये, पाद−पूरणे वा। अनु-याजाः। अनु+यज−घञ् पूर्ववत्−अनुकूलानि पूजनीयकर्माणि। हुतभागाः। हु दानादानादनेषु−क्त। भज भागसेवयोः−भावे घञ्। हुतस्य, दत्तस्य, दानस्य गृहीतस्य वा विभागाः। अहुत-अदः। संपदादिभ्यः क्विप्। वार्तिकम्, पा० ३।३।९४। अहुत+अद भक्षणे−भावे क्विप्। अदानस्य दानशेषस्य भोजनानि। धान्यधनादीनि। देवाः। १।७।१। विजयिनः। प्रकाशमयाः। पञ्च। सप्यशूभ्यां तुट् च। उ० १।१५७। इति पचि व्यक्तिकारे विस्तारे च कनिन्। विस्तीर्णाः, व्यक्ताः प्रसिद्धाः। संख्यावाची वा। प्र-दिशः। प्र+दिश दाने आज्ञापने च−क्विप्। प्रकृष्टा दानक्रियाः। प्राच्याद्याः सर्वा दिशाः वि-भक्ताः। वि+भज−क्त। प्राप्तविभागाः। अस्मै। आत्मने, मदर्थम्। सत्र-सदः। गुधृवीपचिवचियमिसदिक्षदिभ्यस्त्रः। उ० ४।१६७। इति षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु त्र प्रत्ययः। सीदन्ति यत्रेति सत्रं सदनं यज्ञः। सभास्थानम्। पुनः। सत्सूद्विषद्रुह०। पा० ३।२।६१। इति सत्रोपपदे तस्मादेव धातोः−कर्तरि क्विप्। सभासदः, सभ्यान्। कृणोमि। कृवि हिंसाकरणयोः−लट्। करोमि ॥