०२९ राष्ट्राभिवर्धनम्, सपत्नक्षयणं च ...{Loading}...
Whitney subject
- For a chief’s success: with an amulet.
VH anukramaṇī
राष्ट्राभिवर्धनम्, सपत्नक्षयणं च।
१-६ वसिष्ठः। ब्रह्मणस्पतिः, अभीवर्तमणिः। अनुष्टुप्।
Whitney anukramaṇī
[Vasiṣṭha.—ṣaḍṛcam. abhīvartamaṇisūktam. ānuṣṭubham.]
Whitney
Comment
Found (except vs. 4) in Pāipp. i., and (with the same exception, in RV., chiefly x. 174 ⌊:namely, AV. verses 1, 2, 3, 6 correspond respectively with RV. verses 1, 2, 3, 5. See Oldenberg, Die Hymnen des RV., i. 243⌋. Kāuś. uses the hymn in the ceremony of restoration of a king, with preparing and binding on an amulet made of the rim of a chariot-wheel (16. 29: the comm. says, vss. 1-4); the last two verses are specifically prescribed for the binding on. The comm. quotes the hymn as employed by the Nakṣatra Kalpa (19) in a mahāśānti called māhendrī.
Translations
Translated: Weber, iv. 423; Griffith, i. 33.
Griffith
A charm to secure the supremacy of a dethroned King
०१ अभीवर्तेन मणिना
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॑भीव॒र्तेन॑ म॒णिना॒ येनेन्द्रो॑ अभिवावृ॒धे।
तेना॒स्मान्ब्र॑ह्मणस्पते॒ ऽभि रा॒ष्ट्राय॑ वर्धय ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॑भीव॒र्तेन॑ म॒णिना॒ येनेन्द्रो॑ अभिवावृ॒धे।
तेना॒स्मान्ब्र॑ह्मणस्पते॒ ऽभि रा॒ष्ट्राय॑ वर्धय ॥
०१ अभीवर्तेन मणिना ...{Loading}...
Whitney
Translation
- With an over-rolling amulet (maṇí), wherewith Indra
increased—therewith, O Brahmaṇaspati, make us increase unto royalty
(rāṣṭrá).
Notes
Abhi, literally ‘on to,’ so as to overwhelm. Our version spoils the
consistency of the verse by reading -vāvṛdhé and vardhaya in b
and d for RV. (x. 174. i) -vāvṛte and vartaya, which Ppp. also
gives (Ppp. vartayaḥ). Ppp. further has imam for asmān in c.
RV. reads havíṣā for maṇínā in a. The long ī of abhīvarta
(p. abhi॰v-) is noted by Prāt. iii. 12.
Griffith
With that victorious Amulet which strengthened Indra’s power- and might Do thou, O Brahmanaspati, increase our strength for kingly sway.
पदपाठः
अ॒भि॒ऽव॒र्तेन॑। म॒णिना॑। येन॑। इन्द्रः॑। अ॒भि॒ऽव॒वृ॒धे। तेन॑। अ॒स्मान्। ब्र॒ह्म॒णः॒। प॒ते॒। अ॒भि। रा॒ष्ट्राय॑। व॒र्ध॒य॒।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अभीवर्तमणिः, ब्रह्मणस्पतिः
- वसिष्ठः
- अनुष्टुप्
- राष्ट्र अभिवर्धन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजतिलकयज्ञ के लिये उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (येन) जिस (अभिवर्तेन) विजय करनेवाले, (मणिना) मणि से [प्रशंसनीय सामर्थ्य वा धन से] (इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवाला पुरुष (अभि) सर्वथा (ववृधे) बढ़ा था। (तेन) उसी से, (ब्रह्मणस्पते) हे वेद वा ब्रह्मा [वेदवेत्ता] के रक्षक परमेश्वर ! (अस्मान्) हम लोगों को (राष्ट्राय) राज्य भोगने के लिये (अभि) सब ओर से (वर्धय) तू बढ़ा ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार हमसे पहिले मनुष्य उत्तम सामर्थ्य और धन को पाकर महाप्रतापी हुए हैं, वैसे ही उस सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर के अनन्त सामर्थ्य और उपकार का विचार करके हम लोग पूर्ण पुरुषार्थ के साथ (मणि) विद्याधन और सुवर्ण आदि धन की प्राप्ति से सर्वदा उन्नति करके राज्य का पालन करें ॥१॥ मन्त्र १-३, ६ ऋग्वेद मण्डल १० सूक्त १७४। म० १-३ और ५ कुछ भेद से हैं। जैसे (मणिना) के स्थान में [हविषा] पद है, इत्यादि ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−अभि-वर्तेन। अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्। पा० ३।३।१९। इति अभि+वृतु वर्तने भवने−घञ् छान्दसो दीर्घः। अभिवर्तते अभिभवति शत्रून् स अभिवर्तः। अभिभवनशीलेन, जयशीलेन। मणिना। सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। मण कूजे−इन्। रत्नेन, प्रशंसनीयसामर्थ्येन धनेन, वा राजचिह्नेन। इन्द्रः। १।२।३। परमैश्वर्यवान् पुरुषो जीवः। अभि-ववृधे। वृधु वृद्धौ−लिट्। तुजादीनां दीर्घोऽभ्यासस्य। पा० ६।१।७। इति दीर्घः। अभितः सर्वतः प्रवृद्धो बभूव। तेन। मणिना। ब्रह्मणः+पते। १।८।४।, १।१।१। षष्ठ्याः पतिपुत्र०। पा० ८।३।५३। इति विसर्जनीयस्य सत्त्वम्। हे ब्रह्मणो वेदस्य विप्रस्य वा पालक परमेश्वर ! राष्ट्राय। सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्। उ० ४।१५९। इति राजृ दीप्तौ ऐश्वर्ये च ष्ट्रन्। राजति ऐश्वर्यकर्मा−निघ० २।२१। व्रश्चभ्रस्जसृज०। पा० ८।२।३६। इति षः। राज्यवर्धनाय वर्धय। वृधु वृद्धौ−णिच् लोट्। समर्धय, समृद्धान् कुरु ॥
०२ अभिवृत्य सपत्नानभि
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अ॑भि॒वृत्य॑ स॒पत्ना॑न॒भि या नो॒ अरा॑तयः।
अ॒भि पृ॑त॒न्यन्तं॑ तिष्ठा॒भि यो नो॑ दुर॒स्यति॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॑भि॒वृत्य॑ स॒पत्ना॑न॒भि या नो॒ अरा॑तयः।
अ॒भि पृ॑त॒न्यन्तं॑ तिष्ठा॒भि यो नो॑ दुर॒स्यति॑ ॥
०२ अभिवृत्य सपत्नानभि ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Rolling over our rivals, over them that are niggards to us, do thou
trample on him who fights—on whoever abuses (durasy-) us.
Notes
RV. (x. 174. 2) has in d irasyáti; Ppp., by a not infrequent
blunder, reads durasyatu. Pāda a lacks a syllable, unless we
resolve -patnān into three syllables.
Griffith
Subduing those who rival us, subduing all malignities, Withstand the man who menaces, and him who seeks to injure- us.
पदपाठः
अ॒भि॒ऽवृत्य॑। स॒ऽपत्ना॑न्। अ॒भि। याः। नः॒। अरा॑तयः। अ॒भि। पृ॒त॒न्यन्त॑म्। ति॒ष्ठ॒। अ॒भि। यः। नः॒। दु॒र॒स्यति॑।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अभीवर्तमणिः, ब्रह्मणस्पतिः
- वसिष्ठः
- अनुष्टुप्
- राष्ट्र अभिवर्धन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजतिलकयज्ञ के लिये उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे ब्रह्मणस्पते] (सपत्नान्) [हमारे] प्रतिपक्षियों को और (याः) जो (नः) हमारी (अरातयः) कर न देनेहारी प्रजाएँ हैं, [उनको] (अभि) सर्वथा (अभिवृत्य) जीतकर (पृतन्यन्तम्) सेना चढ़ा कर लानेवाले शत्रु को [और उस पुरुष को] (यः) जो (नः) हमसे (दुरस्यति) दुष्ट आचरण करे, (अभि) सर्वथा (अभि तिष्ठ) तू दबा ले ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा परमेश्वर पर श्रद्धा करके अपने स्वदेशी और विदेशी दोनों प्रकार के शत्रुओं को यथायोग्य दण्ड देकर वश में रक्खें ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: टिप्पणी−(अरातयः) शब्द का अर्थ ऋ० १०।१७४।२। में सायणाचार्य ने भी अदानशील प्रजा किया है ॥२−अभि-वृत्य। अभि+वृतु−ल्यप्। अभिभूय, पराजित्य। सपत्नान्। १।९।१। प्रतियोगिनः स्वदेशिनः शत्रून्। अभि। अभितः। सर्वथा। याः। ताः याः। अरातयः। १।२।२। अदानशीलाः प्रजाः। इति सायणोऽपि ऋ० १०।१७४।२। अभि+तिष्ठ। अभिभव, पराजय, त्वं ब्रह्मणस्पते। पृतन्यन्तम्। १।३१।२। सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। इति पृतना क्यच्−शतृ। पृतनाः सेना आत्मानमिच्छन्तं युयुत्सुम्। यः=तम् यः। नः। अस्मान्। दुरस्यति। दुरस्युर्द्रविणस्युर्वृषण्यति रिषण्यति। पा० ७।४।३६। इति क्यचि दुष्टशब्दस्य दुरस् भावो निपात्यते। दुष्टीयति दुष्टम्। अनिष्टं कर्तुमिच्छति ॥
०३ अभि त्वा
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॒भि त्वा॑ दे॒वः स॑वि॒ताभि सोमो॑ अवीवृधत्।
अ॒भि त्वा॒ विश्वा॑ भू॒तान्य॑भीव॒र्तो यथास॑सि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॒भि त्वा॑ दे॒वः स॑वि॒ताभि सोमो॑ अवीवृधत्।
अ॒भि त्वा॒ विश्वा॑ भू॒तान्य॑भीव॒र्तो यथास॑सि ॥
०३ अभि त्वा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Thee hath god Savitar, hath Soma made to increase, thee have all
existences (bhūtá) [made to increase], that thou mayest be
over-rolling.
Notes
The connection is again spoiled in our text by the substitution of
avīvṛdhat in b for avīvṛtat (which is read by RV. x. 174. 3);
with the former it is impossible to render the prefix abhi. This time
Ppp. gives abhībhṛśat instead, doubtless a mere corruption.
Griffith
Soma and Savitar the God have strengthened and exalted thee: All elements have aided thee, to make thee general conqueror.
पदपाठः
अ॒भि। त्वा॒। दे॒वः। स॒वि॒ता। अ॒भि। सोमः॑। अ॒वी॒वृ॒ध॒त्। अ॒भि। त्वा॒। विश्वा॑। भू॒तानि॑। अ॒भि॒ऽव॒र्तः। यथा॑। अस॑सि।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अभीवर्तमणिः, ब्रह्मणस्पतिः
- वसिष्ठः
- अनुष्टुप्
- राष्ट्र अभिवर्धन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजतिलकयज्ञ के लिये उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - [हे परमेश्वर !] (देवः) प्रकाशमय (सविता) लोकों के चलानेहारे, सूर्य्य और (सोमः) अमृत देनेवाले, चन्द्रमा ने (त्वा) तेरी (अभि अभि) सब प्रकार से (अवीवृधत्) बड़ाई की है। और (विश्वा) सब (भूतानि) सृष्टि के पदार्थों ने (त्वा) तेरी (अभि) सब प्रकार [बड़ाई की है,] (यथा) क्योंकि तू (अभिवर्तः) [शत्रुओं का] दबानेवाला (अससि) है ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सूक्ष्म से सूक्ष्म और स्थूल से स्थूल पदार्थों की रचना और उपकार से उस परमेश्वर की महिमा दीख पड़ती है, उसी अन्तर्यामी के दिये हुए आत्मबल से शूरवीर पुरुष रणभूमि में राक्षसों को जीत कर राज्य में शान्ति फैलाते हैं ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−अभि। अभितः सर्वतः। त्वा। त्वाम् ब्रह्मणस्पतिम्। देवः। प्रकाशमयः। सविता। १।१८।२। सूर्यः। सोमः। १।६।२। सवति अमृतम्। चन्द्रः। अवीवृधत्। वृधु वृद्धौ, णिच्−लुङ्। वर्धितवान्, अस्तावीत् अभि=अभि अवीवृधन् अस्तुवन्। विश्वा। शेर्लुक्। विश्वानि सर्वाणि। भूतानि। प्राणिजातानि, चराचरात्मकानि वस्तूनि, तत्त्वानि। अभिवर्तः-। म० १। वृतु-घञ्। अभिभविता, शत्रुजेता। यथा। यस्मात् कारणात्। अससि। अस भुवि−लट्। बहुलं छन्दसि। पा० २।४।७३। इति शपोऽलुक्। असि भवसि ॥
०४ अभीवर्तो अभिभवः
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अ॑भीव॒र्तो अ॑भिभ॒वः स॑पत्न॒क्षय॑णो म॒णिः।
रा॒ष्ट्राय॒ मह्यं॑ बध्यतां स॒पत्ने॑भ्यः परा॒भुवे॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॑भीव॒र्तो अ॑भिभ॒वः स॑पत्न॒क्षय॑णो म॒णिः।
रा॒ष्ट्राय॒ मह्यं॑ बध्यतां स॒पत्ने॑भ्यः परा॒भुवे॑ ॥
०४ अभीवर्तो अभिभवः ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The over-rolling, overcoming, rival-destroying amulet be bound upon
me unto royalty, unto the perishing (parābhū́) of rivals.
Notes
The verse is wanting in both RV. and Ppp. Its excision, with the
following verse (which, however, Ppp. has), would leave the hymn of
normal length, and composed of four out of the five verses of RV. x. 174
⌊, of the fourth of which the excision is called for⌋.
Griffith
Slayer of rivals, vanquisher, may that victorious Amulet Be bound on me for regal sway and conquest of mine enemies.
पदपाठः
अ॒भि॒ऽव॒र्तः। अ॒भि॒ऽभ॒वः। स॒प॒त्न॒ऽक्षय॑णः। म॒णिः। रा॒ष्ट्रा॒य॑। मह्य॑म्। ब॒ध्य॒ता॒म्। स॒ऽपत्ने॑भ्यः। प॒रा॒ऽभुवे॑।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अभीवर्तमणिः, ब्रह्मणस्पतिः
- वसिष्ठः
- अनुष्टुप्
- राष्ट्र अभिवर्धन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजतिलकयज्ञ के लिये उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अभिवर्तः) शत्रुओं का जीतनेवाला और (अभिभवः) हरानेवाला और (सपत्नक्षयणः) प्रतिपक्षियों का नाश करनेवाला (मणिः) मणि [प्रशंसनीय सामर्थ्य] रत्न आदि राज्य चिह्न (मह्यम्) मुझपर (राष्ट्राय) राज्य की वृद्धि के लिये और (सपत्नेभ्यः) वैरियों को (पराभुवे) दबाने के लिये (बध्यताम्) बाँधा जावे ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राज्यलक्ष्मी का प्रभाव जताने के लिये राजा मणि रत्न आदि को धारण करके अपना सामर्थ्य बढ़ावे और राजसभा में राजसिंहासन पर विराजे कि जिससे शत्रुदल भयभीत होकर आज्ञाकारी बने रहें और राज्य में ऐश्वर्य की सदा वृद्धि होवे ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−अभिवर्तः। म० १। जयशीलः। अभिभवः। अभि+भू−अप् अभिभविता। सपत्न−क्षयणः। नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः। पा० ३।१।१३४। इति सपत्नपूर्वात् क्षि क्षये−कर्तरि ल्यु। शत्रूणां क्षयकरः। मणिः। म० १। रत्नम्। प्रशस्तं सामर्थ्यम्। राष्ट्राय। म० १। राज्यवर्धनाय। मह्यम्। मदर्थम्। बध्यताम्। बन्ध बन्धने, कर्मणि लोट्। धार्यताम्। सपत्नेभ्यः। शत्रुभ्यः। पराभुवे। परा+भू−भावे क्विप्। पराभवनाय ॥
०५ उदसौ सूर्यो
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उद॒सौ सूर्यो॑ अगा॒दुदि॒दं मा॑म॒कं वचः॑।
यथा॒हं श॑त्रु॒हो ऽसा॑न्यसप॒त्नः स॑पत्न॒हा ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
उद॒सौ सूर्यो॑ अगा॒दुदि॒दं मा॑म॒कं वचः॑।
यथा॒हं श॑त्रु॒हो ऽसा॑न्यसप॒त्नः स॑पत्न॒हा ॥
०५ उदसौ सूर्यो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Up hath gone yon sun, up this spell (vácas) of mine, that I may be
slayer of foes, without rivals, rival-slayer.
Notes
RV. X. 159. 1 a, b is to be compared (b reading úd ayám māmakó
bhágaḥ); Ppp. appears to mix the versions of b, giving,
ungrammatically, ayam with vacas. ⌊Cf. also MP. i. 16. 5.⌋
Griffith
Yon Sun hath mounted up on high, and this my word hath mounted up That I may smite my foes and be slayer of rivals, rivalless.
पदपाठः
उत्। अ॒सौ। सूर्यः॑। अ॒गा॒त्। उत्। इ॒दम्। मा॒म॒कम्। वचः॑। यथा॑। अ॒हम्। श॒त्रु॒ऽहः। असा॑नि। अ॒स॒प॒त्नः। स॒प॒त्न॒ऽहा। १.२९.५।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अभीवर्तमणिः, ब्रह्मणस्पतिः
- वसिष्ठः
- अनुष्टुप्
- राष्ट्र अभिवर्धन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजतिलकयज्ञ के लिये उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (असौ) वह (सूर्यः) लोकों का चलानेहारा सूर्य (उत् अगात्) उदय हुआ है और (इदम्) यह (मामकम्) मेरा (वचः) वचन (उत्=उत् अगात्) उदय हुआ है (यथा) जिससे कि (अहम्) मैं (शत्रुहः) शत्रुओं का मारनेवाला और (सपत्नहा) रिषु दल का नाश करनेवाला होकर (असपत्नः) शत्रुरहित (असानि) रहूँ ॥५॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा राजसिंहासन पर विराज कर राजघोषणा करे कि जिस प्रकार पृथिवी पर सूर्य प्रकाशित है, उसी प्रकार से यह राजघोषणा [ढंढोरा] प्रकाशित की जाती है कि राज्य में कोई उपद्रव न मचावे और न अराजकता फैलावे ॥५॥ इस मन्त्र का पूर्वार्ध ऋ० १०।१५९।१। का पूर्वार्ध है, वहाँ (वचः) के स्थान में (भगः) है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ५−उत्+अगात्। १।२८।१। उदितवान्। सूर्यः। १।३।५। लोकानां प्रेरकः। आदित्यः। राज्यलक्ष्मीरूपः। उत्=उत् अगात्। इदम्। वक्ष्यमाणं वचनम्। मामकम्। तस्येदम्। पा० ४।३।१२०। इति अस्मद् अण्। तवकममकावेकवचने। पा० ४।३।३। इति ममकादेशः। मदीयम्। वचः। वच कथने−असुन्। वाक्यम् वचनम्। यथा। येन कारणेन। अहम्। राजा। शत्रु-हः। आशिषि हनः। पा० ३।२।४९। इति शत्रु+हन हिंसागत्योः−ड प्रत्ययः। शत्रूणां हन्ता। असानि। अस सत्तायां−लोट्। अहं भवानि। असपत्नः। म० २। शत्रुरहितः। सपत्नहा। क्विप् च। पा० ३।२।७६। इति सपत्न+हन्−क्विप्। रिपुहन्ता ॥
०६ सपत्नक्षयणो वृषाभिराष्ट्रो
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स॑पत्न॒क्षय॑णो॒ वृषा॒भिरा॑ष्ट्रो विषास॒हिः।
यथा॒हमे॒षां वी॒राणां॑ वि॒राजा॑नि॒ जन॑स्य च ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
स॑पत्न॒क्षय॑णो॒ वृषा॒भिरा॑ष्ट्रो विषास॒हिः।
यथा॒हमे॒षां वी॒राणां॑ वि॒राजा॑नि॒ जन॑स्य च ॥
०६ सपत्नक्षयणो वृषाभिराष्ट्रो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- A rival-destroying bull, conquering royalty, overpowering—that I may
bear rule over these heroes and the people (jána).
Notes
RV. (i. 174. 5) has instead of a our 5 d (found also as x. 6. 30
c, and xix. 46. 7 b); in c it reads bhūtānām. ⌊Cf. MP. i.
16. 5.⌋
Griffith
Destroyer of my rivals, strong, victorious, with royal sway, May I be ruler of these men, and King and sovran of the folk.
पदपाठः
स॒प॒त्न॒ऽक्षय॑णः। वृषा॑। अ॒भिऽरा॑ष्ट्रः। वि॒ऽस॒स॒हिः। यथा॑। अ॒हम्। ए॒षाम्। वी॒राणा॑म्। वि॒ऽराजा॑नि। जन॑स्य। च॒।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अभीवर्तमणिः, ब्रह्मणस्पतिः
- वसिष्ठः
- अनुष्टुप्
- राष्ट्र अभिवर्धन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजतिलकयज्ञ के लिये उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यथा) जिससे कि (सपत्नक्षयणः) शत्रुओं का नाश करनेवाला (वृषा) ऐश्वर्यवाला (विषासहिः) सदा विजयवाला (अहम्) मैं (अभिराष्ट्रः) राज्य पाकर (एषाम्) इन (वीराणाम्) वीर पुरुषों का (च) और (जनस्य) लोकों का (विराजानि) राजा रहूँ ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - राजा सिंहासन पर विराज कर राजघोषणा करते हुए शूरवीर योद्धाओं और विद्वान् जनों का सत्कार और मान करके शासन करे ॥६॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ६−सपत्न-क्षयणः। म० ४। शत्रुनाशकः। वृषा। १।१२।१। वृषु ऐश्ये−कनिन्। ऐश्वर्यवान्। सुखवर्षकः। इन्द्रः। महाबली। अभि-राष्ट्रः। म० १। अभिगतराज्यः। प्राप्तराज्यः। विषासहिः। सहिवहिचलिपतिभ्यो यङन्तेभ्यः किकिनौ वक्तव्यौ। वा० पा० ३।२।१७१। इति षह अभिभवे−कि। अल्लोपयलोपौ। विविधं पुनः पुनः परेषां सोढा, अभिभविता। एषाम्। उपस्थितानाम्। वीराणाम्। वीर विक्रान्तौ−पचाद्यच्। विक्रान्तानां, शूराणाम्, भटानाम्। वि-राजानि। राजति=ईष्टे−निघ० २।२१। ईश्वरः शासिता भवानि। जनस्य। जनी प्रादुर्भावे−अच्। अधीगर्थदयेषां कर्मणि। पा० २।३।५२। इति षष्ठी। लोकस्य, प्राणिजातस्य ॥