०२८ रक्षोघ्नम् ...{Loading}...
Whitney subject
- Against sorcerers and witches.
VH anukramaṇī
रक्षोघ्नम्।
१-४ चातनः। १-२ अग्निः, ३-४ यातुधानीः। अनुष्टुप्, ३ विराट् पथ्याबृहती, ४ पथ्यापङ्क्तिः।
Whitney anukramaṇī
[Cātana.—svastyayanam . ānuṣṭubham: 3. virāṭpathyābṛhatī; 4. pathyāpan̄kti.]
Whitney
Comment
The hymn is not found in Pāipp. Though not mentioned as one of the cātanāni by the text of Kāuś., it is added to them by the schol. (8. 25, note). It is once used by itself in a witchcraft ceremony (ābhicārika) for the relief of one frightened, accompanying the tying on of an amulet (26. 26).
Translations
Translated: Weber, iv. 423; Griffith, i. 33.
Griffith
A prayer to Agni for the destruction of evil spirits
०१ उप प्रागाद्देवो
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उप॒ प्रागा॑द्दे॒वो अ॒ग्नी र॑क्षो॒हामी॑व॒चात॑नः।
दह॒न्नप॑ द्वया॒विनो॑ यातु॒धाना॑न्किमी॒दिनः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
उप॒ प्रागा॑द्दे॒वो अ॒ग्नी र॑क्षो॒हामी॑व॒चात॑नः।
दह॒न्नप॑ द्वया॒विनो॑ यातु॒धाना॑न्किमी॒दिनः॑ ॥
०१ उप प्रागाद्देवो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Hither hath come forth god Agni, demon-slayer, disease-expeller,
burning away deceivers, sorcerers, kimīdíns.
Notes
In our text, upá is a misprint for úpa (an accent-sign slipped out
of place to the left). The comment on Prāt. iv. 3 quotes the first three
words as exemplifying the disconnection of prefixes from a verb.
Griffith
God Agni hath come forth to us, fiend-slayer, chaser of disease, Burning the Yatudhanas up, Kimidins, and deceitful ones.
पदपाठः
उप॑। प्र। अ॒गा॒त्। दे॒वः। अ॒ग्निः। र॒क्षः॒ऽहा। अ॒मी॒व॒ऽचात॑नः। दह॑न्। अप॑। इ॒या॒विनः॑। या॒तु॒ऽधाना॑न्। कि॒मी॒दिनः॑।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- चातनः
- अनुष्टुप्
- रक्षोघ्न सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
युद्ध का प्रकरण।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (रक्षोहा) राक्षसों का मार डालनेवाला (अमीवचातनः) दुःख मिटानेवाला (देवः) विजयी (अग्निः) अग्निरूप सेनापति (द्वयाविनः) दुमुखे कपटी, (यातुधानान्) पीडा देनेवाले (किमीदिनः) यह क्या है यह क्या है, ऐसा करनेवाले छली सूचकों वा लंपटों को (अप दहन्) मिटाकर भस्म करता हुआ (उप) हमारे समीप (प्र-अगात्) आ पहुँचा है ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जब सेनापति अग्निरूप होकर शतघ्नी [तोप] भुशुण्डी [बन्दूक] धनुष् बाण तरवारि आदि अस्त्र-शस्त्रों से शत्रुओं का नाश करता है, तब राज्य में शान्ति रहती है ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−अगात्। इण् गतौ−लुङ्। अगमत्। देवः। १।७।१। विजयी। अग्निः। अग्निवत् तेजस्वी सेनापतिः। रक्षः−हा। रक्ष पालने−अपादाने, असुन् रक्षो रक्षितव्यमस्मात्। इति यास्कः−निरु० ४।१८। बहुलं छन्दसि। पा० ३।२।८८। इति रक्षः+हन्−क्विप्। हिंसकानां हन्ता। अमीव-चातनः। इण्शीभ्यां वन्। उ० १।१५२। इति बाहुलकात् अम रोगे-वन्, ईडागमः। अमीवं दुःखम्। चातयतिर्नाशने−निरु० ६।३०। दुःखानां नाशयिता। अप+दहन्। दह-शतृ। संतापयन्। भस्मसात् कुर्वन्। द्वयाविनः। द्वयं वाचिकं माधुर्यं मानसिकं हिंसनं च येषामस्तीति। बहुलं छन्दसि। पा० ५।२।१२२। इति द्वय−विनिप्रत्ययः। दीर्घश्च। मायाविनः। यातु-धानान्। १।७।१। पीडाप्रदान्। किमीदिनः,।१।७।१। पिशुनान्, कपटिनः, सूचकान् ॥
०२ प्रति दह
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
प्रति॑ दह यातु॒धाना॒न्प्रति॑ देव किमी॒दिनः॑।
प्र॒तीचीः॑ कृष्णवर्तने॒ सं द॑ह यातुधा॒न्यः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
प्रति॑ दह यातु॒धाना॒न्प्रति॑ देव किमी॒दिनः॑।
प्र॒तीचीः॑ कृष्णवर्तने॒ सं द॑ह यातुधा॒न्यः॑ ॥
०२ प्रति दह ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Burn against the sorcerers, against the kimīdíns, O god; burn up
the sorceresses that meet thee, O black-tracked one.
Notes
In c the comm., with two or three of SPP’s authorities that follow
him, reads kṛṣṇavartmane (treating it as a vocative).
Griffith
Consume the Yatudhanas, God! meet the Kimidins with thy flame: Burn up the Yatudhanis as they face thee, thou whose path is black!
पदपाठः
प्रति॑। द॒ह॒। या॒तु॒ऽधाना॑न्। प्रति॑। दे॒व॒। कि॒मी॒दिनः॑। प्र॒तीचीः॑। कृ॒ष्ण॒ऽव॒र्त॒ने॒। सम्। द॒ह॒। या॒तु॒ऽधा॒न्यः।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अग्निः
- चातनः
- अनुष्टुप्
- रक्षोघ्न सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
युद्ध का प्रकरण।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (देव) हे विजयी सेनापति (यातुधानान्) दुःखदायी (किमीदिनः) क्या-क्या करनेहारे छली सूचकों को (प्रति) एक-एक करके (प्रतिदह) जला दे। (कृष्णवर्तने) हे धूँआ-धार मार्गवाले अग्निरूप सेनापति (प्रतीचीः) सन्मुख धावा करती हुयी (यातुधान्यः=०-नीः) दुःखदायिनी शत्रुसेनाओं को (सम् दह) चारों ओर से भस्म कर दे ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - युद्धकुशल सेनापति अपने घातस्थानों से तोप तुपक आदि द्वारा अग्नि के समान धूँआ-धार करता हुआ शत्रुओं के मुखियाओं और सेनादलों को व्याकुल करके भस्म कर देवे ॥२॥ सायणभाष्य में (कृष्णवर्तने) के स्थान में [कृष्णवर्त्मने] पद है और उसका अर्थ [हे कृष्णवर्त्मन्] है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−प्रति। प्रतिमुखम्। प्रत्येकम्। दह। भस्मीकुरु, यातु-धानान्। म० १। पीडादातॄन्, राक्षसान्। देव। म० १। हे विजयशील ! किमीदिनः। म० १। पिशुनान्। प्रतीचीः। ऋत्विग्दधृक्०। पा० ३।३।५९। इति। प्रति+अञ्चु गतिपूजनयोः−क्विन्। नलोपः ङीप्। यथा विषूचीः शब्दः, १।१९।१। प्रतिकूलं गच्छन्तीः। कृष्ण-वर्तने। वृतेश्च। उ० २।१०६। इति वृतु वर्तने−अनि। कृष्णा कृष्णावर्णा शतघ्नी भुशुण्ड्यादिप्रसारितधूमेन वर्तनिः वर्तिः पन्थाः यस्य सः, अग्निर्वा। हे कृष्णमार्ग, अग्निरूप सेनापते। सम्। सम्यक्, सर्वथा। धातु-धान्यः। पुंयोगादाख्यायाम्। पा० ४।१।४८। इति यातुधान−ङीप्, शसः स्थाने छन्दसि जस्। यणि कृते स्वरितः। यातुधानीः पीडादायिनीः शत्रुसेनाः ॥
०३ या शशाप
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
या श॒शाप॒ शप॑नेन॒ याघं मूर॑माद॒धे।
या रस॑स्य॒ हर॑णाय जा॒तमा॑रे॒भे तो॒कम॑त्तु॒ सा ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
या श॒शाप॒ शप॑नेन॒ याघं मूर॑माद॒धे।
या रस॑स्य॒ हर॑णाय जा॒तमा॑रे॒भे तो॒कम॑त्तु॒ सा ॥
०३ या शशाप ...{Loading}...
Whitney
Translation
- She that hath cursed with cursing, that hath taken malignity as her
root (? mū́ra), that hath seized on [our] young to take its sap—let
her eat [her own] offspring.
Notes
The verse is repeated below as iv. 17. 3, and has there a parallel in
Ppp. The comm. first takes mū́ram as for mū́lam (as rendered above),
but adds an alternative explanation as mūrchākaram, adjective to
agham; he has ādade in place of -dhe. Jātám is metrically an
intrusion, but completes the sense.
Griffith
She who hath cursed us with a curse, or hath conceived a murderous sin; Or seized our son to take his blood, let her devour the child she bare.
पदपाठः
या। श॒शाप॑। शप॑नेन। या। अ॒घम्। मूर॑म्। आ॒ऽद॒धे। या। रस॑स्य। हर॑णाय। जा॒तम्। आ॒ऽरे॒भे। तो॒कम्। अ॒त्तु॒। सा।
अधिमन्त्रम् (VC)
- यातुधानी
- चातनः
- विराट्पथ्याबृहती
- रक्षोघ्न सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
युद्ध का प्रकरण।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (या) जिस [शत्रुसेना] ने (शपनेन) शाप [कुवचन] से (शशाप) कोसा है और (या) जिसने (अघम्) दुःख की (मूरम्) मूल को (आदधे) आकर जमाया है और (या) जिसने (रसस्य) रस के (हरणाय) हरण के लिये (जातम्) [हमारे] समूह को (आरेभे) हाथ लगाया है, (सा) वह [शत्रुसेना] (तोकम्) अपनी बढ़ती वा सन्तान को (अत्तु) खा लेवे ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - रणक्षेत्र में जब शत्रुसेना कोलाहल मचाती, धावा मारती और लूट-खसोट करती आगे बढ़ती आवे, तो युद्धकुशल सेनापति शत्रुओं में भेद डाल दे कि वह लोग आपस में लड़ मरैं और अपने सन्तान अर्थात् हितकारियों का ही नाश कर दें ॥३॥ सायणभाष्य में (आदधे) के स्थान में [आददे] पाठ है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−या। यातुधानी शत्रुसेना। शशाप। शप आक्रोशे−लिट्। शापम्। अनिष्टकथनं कृतवती। शपनेन। शप आक्रोशे−करणे ल्युट्। आक्रोशेन, कुवचनेन। अघम्। अघ पापकरणे−णिच्−अच्। पापं दुःखम्। दुःख-करम्। मूरम्। क्विप् च। पा० ३।२।७६। इति मुर्छा मोहसमुच्छ्राययोः−क्विप्। राल्लोपः। पा० ६।४।२१। इति छकारलोपः। मूर्छाकरम्। यद्वा। मूल, प्रतिष्ठायाम्, रोपणे-कु, लस्य रकारः। मूलम्। प्रतिष्ठाम्। अघं मूरम्। दुःखकरं मूलं शरणम्। आ-दधे। आङ्+डुधाञ् धारणपोषणयोः, दाने च−लिट्। परि जग्राह। रसस्य। रस आस्वादे−पचाद्यच्। सारस्य, बलस्य, धनस्य, आनन्दस्य। हरणाय। अपहरणाय, नाशनाय। जातम्। जनी प्रादुर्भावे−क्त। अस्माकं समूहम्। आ-रेभे। आङ् पूर्वात् लभ आलम्भे=स्पर्शे-लिट्, लस्य रकारः। आलेभे, स्पृष्टवती। तोकम्। १।१३।२। वृद्धिकरम्। सन्तानम्। अत्तु। अक्षयतु नाशयतु। सा। शत्रुसेना।
०४ पुत्रमत्तु यातुधानीः
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पु॒त्रम॑त्तु यातुधा॒नीः स्वसा॑रमु॒त न॒प्त्य॑म्।
अधा॑ मि॒थो वि॑के॒श्यो॑३ वि घ्न॑तां यातुधा॒न्यो॑३ वि तृ॑ह्यन्तामरा॒य्यः॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
पु॒त्रम॑त्तु यातुधा॒नीः स्वसा॑रमु॒त न॒प्त्य॑म्।
अधा॑ मि॒थो वि॑के॒श्यो॑३ वि घ्न॑तां यातुधा॒न्यो॑३ वि तृ॑ह्यन्तामरा॒य्यः॑ ॥
०४ पुत्रमत्तु यातुधानीः ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Let the sorceress eat [her own] son, sister, and daughter (?
naptī́); then let the horrid-haired sorceresses mutually destroy
(vi-han) one another; let the hags (arāyī́) be shattered asunder.
Notes
The comm, explains naptī as naptrī or pāutrasya (putrasya?)
apatyarūpā saṁtati. He reads yātudhānī (for -nīs) in a, and
atha in c.
The 7 hymns of this anuvāka ⌊5.⌋ have 28 verses, as determined by the
quoted Anukr.: pañcame ‘ṣṭāu.
Griffith
Let her, the Yatudhani eat son, sister, and her daughter’s. child. Now let the twain by turns destroy the wild-haired Yatudhanis- and crush down Arayis to the earth!
पदपाठः
पु॒त्रम्। अ॒त्तु॒। या॒तु॒ऽधा॒नीः। स्वसा॑रम्। उ॒त। न॒प्त्यम्। अध॑। मि॒थः। वि॒ऽके॒श्यः। वि। घ्न॒ता॒म्। या॒तु॒ऽधा॒न्यः। वि। तृ॒ह्य॒न्ता॒म्। अ॒रा॒य्यः।
अधिमन्त्रम् (VC)
- यातुधानी
- चातनः
- पथ्यापङ्क्तिः
- रक्षोघ्न सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
युद्ध का प्रकरण।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (यातुधानीः=०-नीः) दुःखदायिनी, [शत्रुसेना] (पुत्रम्) [अपने] पुत्र को, (स्वसारम्) भली-भाँति काम पूरा करनेहारी बहिन को (उत) और (नप्त्यम्=नप्त्रीम्) नातिनी वा धेवती को (अत्तु) खा लेवे अर्थात् नष्ट करे। (अध) और (विकेश्यः) केश बिखेरे हुए वह सब [सेनाएँ] (मिथः) आपस में (विघ्नताम्) मर मिटें और (अराय्यः) दान अर्थात् कर न देनेहारी (यातुधान्यः) दुःख पहुँचानेहारी [शत्रुप्रजाएँ] (वितृह्यन्ताम्) विविध प्रकार के दुःख उठावें ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - चतुर सेनापति राजा अपनी बुद्धिबल से दुष्ट शत्रुसेना में हलचल मचा दे कि वह सब घबराकर आपस में कट-मर कर एक दूसरे को सताने लगें और जो प्रजागण हठ दुराग्रह करके, कर आदि न देवें, उनको दण्ड देकर वश में कर लेवे ॥४॥ तीनों संहिताओं में (यातुधानीः) सविसर्ग पाठ लेखप्रमाद दीखता है। सायणभाष्य में (यातुधानी) विसर्गरहित व्याख्यात है, वह (अत्तु) क्रिया के संबन्ध में ठीक है ॥ इति पञ्चमोऽनुवाकः ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−पुत्रम्। १।११।५। स्वसुतम्। यातु-धानीः। म० २। प्रथमैकवचनं छन्दसि यथा श्रीः। यातुधानी, दुःखप्रदा, शत्रुसेना। स्वसारम्। सावसेर्ऋन्। उ० २।९६। इति सु+असु क्षेपणे−ऋन्। सुष्ठु अस्यति समाप्नोति कार्याणि सा स्वसा। भगिनीम्। उत। अपि च। नप्त्यम्। नप्तृनेष्टृत्वष्टृहोतृ० उ० २।९५। इति न+पत अधोगमने-तृच्। न पतति वंशो यस्मात् स नप्ता। ऋन्नेभ्यो ङीप्। पा० ४।१।५। इति नप्तृशब्दात् ङीप्। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति पूर्वरूपस्य विकल्पाद् यणादेशः। नप्त्रीम्, पौत्रीं दौहित्रीं वा। अध। थस्य धः। अथ, अनन्तरम्। मिथः। मिथ वधे, मेधायाम्−असुन्, पृषोदरादित्वाद् ह्रस्वः। अन्योऽन्यम् परस्परम्। वि-केश्यः। स्वाङ्गाच्चोपसर्जनादसं०। पा० ४।१।५४। इति विकेश-ङीप्। विकीर्णकेशयुक्ताः परस्परताडनेन। वि। विविधम्। घ्नताम्। हन हिंसागत्योः−लोटि बहुवचने। हन्यन्ताम्। म्रियन्ताम्। यातुधान्यः। म० १। पीडाप्रदाः शत्रुसेनाः। तृह्यन्ताम्। तृह हिंसायाम्−कर्मणि लोट्। हिंस्यन्ताम्। अराय्यः। रा दाने−घञ् युक् आगमः, ङीप्। अदानशीलाः प्रजाः ॥