०२४ शत्रुनिवारणम्

०२४ शत्रुनिवारणम् ...{Loading}...

Whitney subject
  1. Against leprosy.
VH anukramaṇī

शत्रुनिवारणम्।
१-४ ब्रह्मा। आसुरी वनस्पतिः। अनुष्टुप्, २ निचृत्पथ्यापङ्क्तिः।

Whitney anukramaṇī

[Brahman.—āsurīvanaspatidevatyam. ānuṣṭubham: 2. niśrtpathyāpan̄kti.]

Whitney

Comment

Found in Pāipp. i., but not in connection with the preceding hymn. For the use of 23 and 24 together by Kāuś., see under hymn 23.

Translations

Translated: Weber, iv. 417; Ludwig, p. 509; Grill, 19, 77; Griffith, i. 28; Bloomfield, 16, 268.

Griffith

A charm against leprosy

०१ सुपर्णो जातः

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

सु॑प॒र्णो जा॒तः प्र॑थ॒मस्तस्य॒ त्वं पि॒त्तमा॑सिथ।
तदा॑सु॒री यु॒धा जि॒ता रू॒पं च॑क्रे॒ वन॒स्पती॑न् ॥

०१ सुपर्णो जातः ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. The eagle (suparṇá) was born first; of it thou wast the gall; then
    the Asura-woman, conquered by fight (yúdh), took shape as
    forest-trees.
Notes

Ppp. reads at the end vanaspatiḥ, which is more in accordance with the
usual construction of rūpaṁ kṛ (mid.) and the like. Ppp. has also
jighāṅsitā for yudhā jitā in c. R. suggests the emendation: tad
āsurī
(instr.) jighatsitaṁ rū-, ’that, attempted to be eaten by the
Āsurī, took on vegetable form’: i.e. became a healing plant. The comm.
still regards the indigo as addressed. He coolly explains jitā by its
opposite, jitavatī. All our mss. have in d the absurd accent
cákre (emended in the edition to cakre); SPP. reports the same only
of two pada-mss.

Griffith

First, before all, the strong-winged Bird was born;; thou wast the gall thereof. Conquered in fight, the Asuri took then the shape and form of plants.

पदपाठः

सु॒ऽप॒र्णः। जा॒तः। प्र॒थ॒मः। तस्य॑। त्वम्। पि॒त्तम्। आ॒सि॒थ॒। तत्। आ॒सु॒री। यु॒धा। जि॒ता। रू॒पम्। च॒क्रे॒। वन॒स्पती॑न्।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आसुरी वनस्पतिः
  • ब्रह्मा
  • निचृत्पथ्यापङ्क्तिः
  • श्वेत कुष्ठ नाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

महारोग के नाश के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (सुपर्णः) उत्तम रीति से पालन करनेहारा, वा अति पूर्ण परमेश्वर (प्रथमः) सबका आदि (जातः) प्रसिद्ध है। (तस्य) उस [परमेश्वर] के (पित्तम्) पित्त [बल] को, [हे औषधि !] (त्वम्) तूने (आसिथ) पाया था। (तत्) तब (युधा) संग्राम से (जिता) जीती हुयी (आसुरी) असुर [प्रकाशमय परमेश्वर] की माया [प्रज्ञा वा बुद्धि] ने (वनस्पतीन्) सेवा करनेवालों के रक्षा करनेहारे वृक्षों को (रूपम्) रूप (चक्रे) किया था ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सृष्टि से पहिले वर्त्तमान परमेश्वर की नित्य शक्ति से ओषधि-अन्न आदि में पोषणसामर्थ्य रहता है। वह (आसुरी) परमेश्वर की शक्ति (युधा जिता) युद्ध अर्थात् प्रलय के अन्धकार के उपरान्त प्रकाशित होती है, जैसे अन्न और घास-पात आदि का बीज शीत और ग्रीष्म ऋतुओं में भूमि के भीतर पड़ा रहता और वृष्टि का जल पाकर हरा हो जाता है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: टिप्पणी−(असुर) शब्द के लिये १।१०।१। और (आसुरी) के लिये ७।३९।१। देखो। हे ओषधि ! तू रात्रि में उत्पन्न हुई है। ऐसा १।२३।१। में आया है। ऋग्वेद १०।१२९।३ में कहा है। तम॑ आसी॒त् तम॑सा गू॒ढमग्रेऽप्रके॒तं स॑लि॒लं सर्व॑मा इ॒दम्। पहिले [प्रलय काल में] अन्धकार था और यह सब अन्धकार से ढका हुआ चिह्नरहित समुद्र था। १−सु-पर्णः। धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। इति सु+पॄ पालनपूरणयोः−न। शोभनपालनः, शोभनपूरणः परमेश्वरः। जातः। प्रादुर्भूतः। प्रसिद्धः। प्रथमः। १।१२।१। आद्यः, अग्रिमः, उत्तमः। पित्तम्। अपि+देङ् पालने, दो छेदने वा−क्त। अच उपसर्गात् तः। पा० ७।४।४७। इति तादेशः, अपेरल्लोपः। अपि अवश्यं दयते पालयति सुगुणान्, अथवा द्यति नाशयति दुर्गुणान् तत् पित्तम्। वीर्यम् अथवा शरीरस्थधातुविशेषः। तत्पर्यायः तेजः, उष्मा, अग्निः। तस्य कर्माणि।पाचकं पचते भुक्तं शेपाग्निबलवर्धनम्। रसमूत्रपुरीषाणि विरेचयति नित्यशः ॥१॥ इति शब्दकल्पद्रुमे। आसिथ। अस दीप्तिग्रहणगतिषु−लिट्। त्वं गृहीतवती प्राप्तवती। तत्। तदा। आसुरी। १।१०।१। असुरस्य इयम्। मायायामण्। पा० ४।४।१२४। इति असुर−अण्। टिड्ढाणञ्द्वयसज्०। पा० ४।१।१५। इति ङीप्। माया=प्रज्ञा−निघ० ३।९। असुरस्य दीप्यमानस्य परमेश्वरस्य माया प्रज्ञा। युधा। युध संप्रहारे−क्विप्। युद्धेन संग्रामेण विघ्ननिवारणेन। जिता। प्राप्तपराजया। वशीकृता रूपम्। १।१।१। आकारम्। सौन्दर्य्यम्। चक्रे। डुकृञ् करणे−लिट्। कृतवती, दत्तवती। वनस्पतीन्। १।११।३। वनानां सेवकानां पालकान्। वृक्षान् सृष्टिपदार्थान्, इत्यर्थः ॥१॥

०२ आसुरी चक्रे

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

आ॑सु॒री च॑क्रे प्रथ॒मेदं कि॑लासभेष॒जमि॒दं कि॑लास॒नाश॑नम्।
अनी॑नशत्कि॒लासं॒ सरू॑पामकर॒त्त्वच॑म् ॥

०२ आसुरी चक्रे ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. The Asura-woman first made this remedy for leprous spot, this
    effacer of leprous spot; it has made the leprous spot disappear, has
    made the skin uniform (sárūpa).
Notes

Ppp. has again (as in 23. 4) anenaśat in c; in d it reads
surūpam.

Griffith

The Asuri made, first of all, this medicine for leprosy, this banisher of leprosy. She banished leprosy, and gave one general colour to the skin.

पदपाठः

आ॒सुरी। च॒क्रे॒। प्र॒थ॒मा। इ॒दम्। कि॒ला॒स॒ऽभे॒ष॒जम्। इ॒दम्। कि॒ला॒स॒ऽनाश॑नम्। अनी॑नशत्। कि॒लास॑म्। सऽरू॑पाम्। अ॒क॒र॒त्। त्वच॑म्।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आसुरी वनस्पतिः
  • ब्रह्मा
  • अनुष्टुप्
  • श्वेत कुष्ठ नाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

महारोग के नाश के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रथमा) प्रथम प्रकट हुई (आसुरी) प्रकाशमय परमेश्वर की माया [बुद्धि वा ज्ञान] ने (इदम्) इस [वस्तु] को (किलासभेषजम्) रूपनाशक महा रोग की ओषधि और (इदम्) इस [वस्तु] को ही (किलासनाशनम्) रूप बिगाड़नेवाले महारोग की नाश करनेहारी (चक्रे) बनाया। [उसने] [ईश्वर माया ने] (किलासम्) रूप बिगाड़नेवाले महारोग को (अनीनशत्) नाश किया और (त्वचम्) त्वचा को (सरूपाम्) सुन्दर रूपवाली (अकरत्) बना दिया ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - (आसुरी) प्रकाशस्वरूप परमेश्वर की शक्ति से प्रलय के पश्चात् अनेक विघ्नों के हटाने पर मनुष्य के सुखदायक पदार्थ उत्पन्न हुए, जिससे पृथिवी पर समृद्धि और क्षुधा आदि रोगों की निवृत्ति हुई ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−आसुरी। म० १। प्रकाशमयपरमेश्वरस्य माया प्रज्ञा। चक्रे। म० १। कृतवती। प्रथमा। म० १। आदिभूता। इदम्। प्रसिद्धम्। उपस्थितम्। किलास-भेषजम्। किलासम्। १।२३।१। किल+असु क्षेपणे−अण्। भिषजो वैद्यस्येदमिति अण् निपातनाद् एत्वम् यद्वा, भेषं भयं रोगं जयतीति जि−ड। रुपनाशकस्य महारोगस्य औषधम्। किलास-नाशनम्। कृत्यल्युटो बहुलम्। पा० ३।३।११३। इति किलास+णश अदर्शने−कर्तरि ल्युट्। किलासस्य रूपनाशकस्य महारोगस्य कुष्ठादिकस्य निवर्तकम्। अनीनशत्। णश अदर्शने−णिच्, लुङ्। नाशयति स्म। किलासम्। १।२३।१। वर्णनाशकं महारोगम्। सरूपाम्। ज्योतिर्जनपद०। पा० ६।३।८५। इति समानस्य सभावः। समानरूपाम्। साधुरूपाम्। अकरत्। डुकृञ् करणे लुङ् कृतवती। त्वचम्। १।२३।४। त्वचाम्, शरीरावरणं चर्म ॥

०३ सरूपा नाम

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

सरू॑पा॒ नाम॑ ते मा॒ता सरू॑पो॒ नाम॑ ते पि॒ता।
स॑रूप॒कृत्त्वमो॑षधे॒ सा सरू॑पमि॒दं कृ॑धि ॥

०३ सरूपा नाम ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Uniform by name is thy mother; uniform by name is thy father;
    uniform-making art thou, O herb; ⌊so⌋ do thou make this uniform.
Notes

Found also, as noted above, in TB. (ii. 4. 4²), which has for c
sarūpā ‘sy oṣadhe. Ppp. reads throughout surūp-. It inserts between
this verse and the next: yat tanūjaṁ yad agnijaṁ citra kilāsa jajñiṣe:
tad astu sukṛtas tanvo yatas tvā ‘pi nayāmasi.

Griffith

One-coloured, is thy mother’s name, One-coloured is thy father called: One-colour-maker, Plant! art thou: give thou one colour to this man.

पदपाठः

सऽरू॑पा। नाम॑। ते॒। मा॒ता। सऽरू॑पः। नाम॑। ते॒। पि॒ता। स॒रू॒प॒ऽकृत्। त्वम्। ओ॒ष॒धे॒। सा। सऽरू॑पम्। इ॒दम्। कृ॒धि॒।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आसुरी वनस्पतिः
  • ब्रह्मा
  • अनुष्टुप्
  • श्वेत कुष्ठ नाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

महारोग के नाश के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (ओषधे) हे उष्णता रखनेहारे अन्न आदि ओषधि (सरूपा) समान गुण वा स्वभाववाली (नाम) नाम (ते) तेरी (माता) माता है, (सरूपः) समान गुण वा स्वभाववाला (नाम) नाम (ते) तेरा (पिता) पिता है। (त्वम्) तू (सरूपकृत्) सुन्दर वा समान गुण करनेहारी है, (सा=सा त्वम्) सो तू (इदम्) इस [अङ्ग] को (सरूपम्) सुन्दररूपयुक्त (कृधि) कर ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - (ओषधि) क्षुधा रोगादिनिवर्तक वस्तु को कहते हैं, जिससे शरीर में उष्णता रहती है, उसकी (माता) प्रकृति वा पृथिवी और (पिता) परमेश्वर वा मेघ वा सूर्य्य है, जिनके गुण वा स्वभाव सब प्राणियों के लिये समान हैं। ईश्वर से प्रेरित प्रकृति से अथवा भूमि और मेघ वा सूर्य्य के संयोग से सब पुष्टिदायक और रोगनाशक पदार्थ उत्पन्न होते हैं। विद्वान् लोग पदार्थों के गुणों को यथार्थ जान कर नियमपूर्वक उचित भोजन आदि के सेवन और यथोचित उपकार लेने से अपने को और अपने सन्तानों को रूपवान् और वीर्य्यवान् बनावें ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−स-रूपा। म० २। समानं रूपं स्वभावो गुणो यस्याः सा। समानस्वभावाम्। नाम। अव्ययम्। नामन्सीमन्व्योमन्०। उ० ४।१५१। इति म्ना अभ्यासे−मनिन्। निपातनात् साधुः। म्नायते अभ्यस्यते यत्। प्रसिद्धा। प्रसिद्धम्। माता। १।२।१। माननीया जननी भूमिः प्रकृतिर्वा। स-रूपः। समानरूपः। समानस्वभावः, समानगुणः। पिता। १।२।१। पालको जनकः। परमेश्वरो मेघः सूर्यो वा। सरूप-कृत्। डुकृञ् करणो−क्विप्। ह्रस्वस्य पिति कृति तुक्। पा० ६।१।७१। इति तुक् आगमः। शोभनरूपकारिणी। समानगुणकारिणी। त्वम् ओषधे। १।२३।१। हे रोगनाशकद्रव्य त्वम्। स-रूपम्। सुन्दररूपयुक्तम्। इदम्। रोगदूषितम् अङ्गम्। कृधि। श्रुशृणुपॄकृवृभ्यश्छन्दसि। पा० ६।४।१०२। इति हेर्धिरादेशः। कुरु ॥

०४ श्यामा सरूपङ्करणी

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

श्या॒मा स॑रूपं॒कर॑णी पृथि॒व्या अध्युद्भृ॑ता।
इ॒दमू॑ षु॒ प्र सा॑धय॒ पुना॑ रू॒पाणि॑ कल्पय ॥

०४ श्यामा सरूपङ्करणी ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. The swarthy, uniform-making one [is] brought up off the earth; do
    thou accomplish this, we pray; make the forms right again.
Notes

All our mss. have at the beginning śāmā́, and also very nearly all
SPP’s; but the latter very properly admits śyā- into his text, it
being read by the comm. with a couple of mss. that follow him, and being
found in Ppp. also. Ppp. once more has surūp-; it corrupts b into
pṛthivyābhyarbhavam, and gives sādaya at end of c. The phrase
idáṁ ū ṣú is quoted in Prāt. iii. 4 and iv. 98, which prescribe the
protraction and lingualization, and words of the verse are repeatedly
cited in the commentary to other rules.

Griffith

Sama who gives one general hue was formed and fashioned from the earth: Further this work efficiently. Restore the colours that were his.

पदपाठः

श्या॒मा। स॒रू॒प॒म्ऽकर॑णी। पृ॒थि॒व्याः। अधि॑। उत्ऽभृ॑ता। इ॒दम्। ऊं॒ इति॑। सु। प्र। सा॒ध॒य॒। पुनः॑। रू॒पाणि॑। क॒ल्प॒य॒।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • आसुरी वनस्पतिः
  • ब्रह्मा
  • अनुष्टुप्
  • श्वेत कुष्ठ नाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

महारोग के नाश के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (श्यामा) व्यापनशीला वा सुखप्रदा, (सरूपं करणी) सुन्दरता करनेहारी तू (पृथिव्याः अधि) विख्यात वा विस्तीर्ण पृथिवी में से (उद्भृता) उखाड़ी गई है। (इदम् उ) इस [कर्म्म] को (सु) भली-भाँति से (प्रसाधय) सिद्ध कर, (पुनः) और (रूपाणि) [इस पुरुष] की सुन्दरताओं को (कल्पय) पूर्ण कर ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे उत्तम वैद्य उत्तम औषधों से रोग को निवृत्त कर रोगी को सर्वाङ्ग पुष्ट करके आनन्दयुक्त करते हैं, इसी प्रकार दूरदर्शी पुरुष सब विघ्नों को हटा कर कार्य्यसिद्धि कर आनन्द भोगते हैं ॥४॥ मुद्राराक्षस में कहा है−“धरि लात विघ्न अनेक पैं निरभय न उद्यम तें टरैं। जे पुरुष उत्तम अन्त में ते सिद्ध सब कारज करैं ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−श्यामा। इषियुधीन्धिदसिश्याधूसूभ्यो मक्। उ० १।१४५। इति श्यैङ् गतौ-मक्, टाप्। श्यायति गच्छति सुखं प्राप्नोति सा श्यामा व्यापनशीला। सुखप्रदा। ओषधिः। सरूपम्-करणी। सरूपं क्रियते अनयेति। करणाधिकरणयोश्च। पा० ३।३।११७। इति कृञः करणे ल्युट्। पूर्वपदे सुपो लुगभावश्छान्दसः। टिड्ढाणञ्द्वयसज्०। पा० ४।१।१५। इति ङीप्। सुन्दररूपकर्त्री। पृथिव्याः। १।२।१। प्रख्याताया विस्तीर्णाया वा भूमेः सकाशात्। अधि। पञ्चम्यर्थानुवादी। उत्-भृता। उत्+भृञ्-क्त। उत्खाता। उत्पादिता। ऊँ इति। पादपूरणः। पदपूरणस्ते मिताक्षरेष्वनर्थकाः, कमीमिद्विति। निरु० १।९। प्र+साधय। प्र+षाध सिद्धौ, णिच्। सिद्धं कुरु, प्रवर्धय। पुनः। अनन्तरम्। पुना रूपाणि। रो रि। पा० ८।३।१४। इति रेफस्य लोपे कृते। ढ्रलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽणः। पा० ६।३।१११। इति पूर्वदीर्घः। रूपाणि। सौन्दर्याणि, स्वास्थ्यलक्षणानि। कल्पय। कृपू सामर्थ्ये, णिच्, कृपो रो लः। पा० ८।२।१८। इति लत्वम्। संपादय, पूरय ॥