०२३ शत्रुनिवारणम्

०२३ शत्रुनिवारणम् ...{Loading}...

Whitney subject
  1. Against leprosy: with a healing herb.
VH anukramaṇī

शत्रुनिवारणम्।
१-४ अथर्वा। वनस्पतिः(असिक्निः)। अनुष्टुप्।

Whitney anukramaṇī

[Atharvan (śvetalakṣmavināśanāyā ’nenā ‘siknīm oṣadhim astāut).—vānaspatyam. ānuṣṭubham.]

Whitney

Comment

Found in Pāipp. i., but defaced, so that for the most part comparison is impossible. Also, with vs. 3 of the next hymn, in TB. (11. 4. 41-2). Used by Kāuś. (26. 22-24), in company with the next following hymn, in a remedial rite (against white leprosy, (śvetakuṣṭha, schol. and comm.).

Translations

Translated: Weber, iv. 416; Ludwig, p. 506; Grill, 19, 77; Griffith, i. 27; Bloomfield, 16, 266; furthermore, vss. i, 2 by Bloomfield, AJP. xi. 325.—Cf. Bergaigne-Henry, Manuel, p. 135.

Griffith

A charm against leprosy

०१ नक्तञ्जातासि ओषधे

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

न॑क्तंजा॒तासि॑ ओषधे॒ रामे॒ कृष्णे॒ असि॑क्नि च।
इ॒दं र॑जनि रजय कि॒लासं॑ पलि॒तं च॒ यत् ॥

०१ नक्तञ्जातासि ओषधे ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Night-born art thou, O herb, O dark, black, [and] dusky one; O
    colorer (rajanī), do thou color this leprous spot and what is pale
    (palitá).
Notes

According to the comm., the herb addressed is the haridrā (Curcuma
longa
). R. writes: “The rajanī is known to the lexicographers, and
has later as principal name parpaṭī [an Oldenlandia dyeing red,
OB.], Madana 46. 47, Dhanvantari (ms.) i. 27. In Bhāvapr. i. 194
(where, according to my old and good ms., rañjanī is to be read
instead of -nā), it is noted that this remedy is fragrant, and comes
out of the north. It has a dark aspect. The species not to be
determined, because the later identifications are entirely
untrustworthy.” ⌊See Dhanvantari, Ānanda-āśrama ed., p. 17.⌋ The
causative stem rajaya (the meter calls for rāj-) is found only here.

Griffith

O Plant, thou sprangest up at night, dusky, dark-coloured, black in hue! So, Rajani, re-colour thou these ashy spots, this leprosy.

पदपाठः

न॒क्त॒म्ऽजा॒ता। अ॒सि॒। ओ॒ष॒धे॒। रामे॑। कृष्णे॑। असि॑क्नि। च॒। इ॒दम्। र॒ज॒नि॒। र॒ज॒य॒। कि॒लास॑म्। प॒लि॒तम्। च॒। यत्।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • असिक्नी वनस्पतिः
  • अथर्वा
  • अनुष्टुप्
  • श्वेत कुष्ठ नाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

महारोग के नाश के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (ओषधे) हे उष्णता रखनेहारी, ओषधि तू (नक्तंजाता) रात्रि में उत्पन्न हुई (असि) है, जो तू (रामे) रमण करानेहारी (कृष्णे) चित्त को खींचनेहारी, (च) और (असिक्नि) निर्बन्ध [पूर्ण सारवाली] है। (रजनि) हे उत्तम रंग करनेहारी ! तू (इदम्) यह (यत्) जो (किलासम्) रूप का बिगाड़नेहारा कुष्ठ आदि (च) और (पलितम्) शरीर का श्वेतपन रोग है [उसको] (रजय) रंग दे ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सद्वैद्य उत्तम परीक्षित औषधों से रोगों की निवृत्ति करें ॥१॥ १−रात में उत्पन्न हुई ओषधि से यह आशय है कि ओषधें, गैंहूँ, जौ, चावल आदि अन्न और कमल आदि रोगनिवर्तक पदार्थ, चन्द्रमा की किरणों से पुष्ट होकर उत्पन्न होते हैं ॥ २−इसी प्रकार मनुष्यों को गर्भाधानक्रिया रात्रि में करनी चाहिये ॥ ३−ओषधि आदि मूर्त्तिमान् पदार्थ पाँच तत्त्वों से बने हैं, तो भी उनके भिन्न-भिन्न आकार और भिन्न-भिन्न गुण हैं, यह मूल संयोग-वियोग क्रिया ईश्वर के अधीन है, वस्तुतः मनुष्य के लिये यह कर्म रात्रि अर्थात् अन्धकार वा अज्ञान में है ॥ ४−प्रलयरूपी रात्रि के पीछे, पहिले अन्न आदि पदार्थ उत्पन्न होते हैं फिर मनुष्य आदि की सृष्टि होती है ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−नक्तम्-जाता। नज ह्रियि-क्त। नजते लज्जां प्राप्नोति अस्याम्। यद्वा। नक्क नाशने-क्त। नक्कयति नाशयति प्रकाशम् इति नक्तं रात्रिः। जनी प्रादुर्भावे-क्त। रात्रौ जाता उत्पन्ना। अज्ञातजन्मा। ओषधे। ओषः पाको धीयतेऽस्याम्, ओष+डुधाञ् धारणपोषणयोः−कर्मण्यधिकरणे च। पा० ३।३।९३। इति कि प्रत्ययः। ओषधय ओषद् धयन्तीति वा दोषं धयन्तीति वा−निरु० ९।२७। अस्यार्थः−ओषत् शरीरे दहद् रोगजातं धयन्ति पिबन्ति नाशयन्ति। ओषति दाहके ज्वरादौ एना धयन्ति पिबन्ति रोगिणो दाहोपशमनाय। पक्षद्वये, ओषत्+धेट्, पाने-कि। अथवा दोषं वातपित्तादिकं धयन्तीति वा। दोष+धेट्-कि। पृषोदरादित्वाद् दलोपः। हे रोगनाशकद्रव्य ! रामे। रमु क्रीडायाम् णिच् वा-घञ्। टाप्। रमते रमयति वेति रामा, हे रमणशीले, रमणकारिणि, सुखप्रदे। कृष्णे, कृषेर्वर्णे। उ० ३।४। इति बाहुलकाद् वर्णं विनापि। कृष आकर्षणे−नक्। टाप्। कर्षति आनन्दयति चित्तानि स्वमनोहरगुणेन। यद्वा, कर्षति वशीकरोति रोगान् सा कृष्णा। हे आकर्षणशीले। असिक्ना। अञ्चिघृसिभ्यः क्तः। उ० ३।८९। इति षिञ् बन्धने-क्त। अथवा। षो अन्तकर्मणि-क्त नञ्समासः। छन्दसि क्नमित्येके। वार्तिकम्, पा० ४।१।३९। इति असित−टाप्, तकारस्य क्नः। असिता असिक्ना। हे अबद्धशक्ते, अखण्डवीर्ये, पूर्णसारयुक्ते। रजनि। रञ्जेः क्युन्। उ० २।७९। इति रञ्ज खगे-क्युन्, स्त्रियां ङीप्। रञ्जयतीति रजनी। हे सुरञ्जनशीले ! रजय। रञ्ज रागे, नकारलोपः रञ्जय, स्वाभाविकरागयुक्तं कुरु। किलासम्। क्लीबलिङ्गम्। किल प्रेरणे, क्रीडे-क। कर्मण्यण्। पा० ३।२।१। किल+असु क्षेपणे−अण्। किलं वर्णम् अस्यति क्षिपति विकृतं करोतीति तत् किलासम्। वर्णदूषकम् सिध्मम्। कुष्ठरोगादिकम्। पलितम्। फलेरितजादेश्च पः। उ० ५।३४। इति फल भेदने निष्पत्तौ च−इतच्, फस्य पत्वम्। फलति निष्पन्नं पक्वमिव भवतीति पलितम्। अथवा पल गतौ रक्षणे च−इतच्। शरीरश्वेततारोगः। यत्। यत् किञ्चित् ॥

०२ किलासं च

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कि॒लासं॑ च पलि॒तं च॒ निरि॒तो ना॑शया॒ पृष॑त्।
आ त्वा॒ स्वो वि॑शतां॒ वर्णः॒ परा॑ शु॒क्लानि॑ पातय ॥

०२ किलासं च ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. The leprous spot, what is pale, do thou cause to disappear from
    hence, the speckled; let thine own color enter thee; make white things
    (śuklá) fly away.
Notes

TB. has na (naḥ?) for tvāa and aśnntām for viśatām in c,
and in d śvetā́ni for śuklāni. The comm. gives pṛ´thak for
pṛ´ṣat in b, and has the usual support of a small minority of
SPP’s mss.

Griffith

Expel the leprosy, remove from him the spots and ashy hue: Let thine own colour come to thee; drive far away the specks of white.

पदपाठः

‍कि॒लास॑म्। च॒। प॒लि॒तम्। च॒। निः। इ॒तः। ना॒श॒य॒। पृष॑त्। आ। त्वा॒। स्वः। वि॒श॒ता॒म्। वर्णः॑। परा॑। शु॒क्लानि॑। पा॒त॒य॒।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • असिक्नी वनस्पतिः
  • अथर्वा
  • अनुष्टुप्
  • श्वेत कुष्ठ नाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

महारोग के नाश के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - [हे ओषधि !] (इतः) इस पुरुष से (किलासम्) रूप बिगाड़नेवाले कुष्ठ आदि रोग को (च) और (पलितम्) शरीर के श्वेतपन (च) और (पृषत्) विकृत चिह्न को (निर्णाशय) निरन्तर नाश कर दे। (स्वः वर्णः) [रोग का] अपना रंग (त्वाम्) तुझमें [ओषधि में] (आविशताम्) प्रविष्ट हो जाय और (शुक्लानि) [उसके] श्वेत चिह्नों को (परा पातय) दूर गिरा दे ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सद्वैद्य की उत्तम ओषधि से रोगी के शरीर का बिगड़ा हुआ रूप फिर यथापूर्व सुन्दर रुचिर और मनोहर हो जाता है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−किलासम्। म० १। वर्णविकारकरं कुष्ठादिरोगम्। पलितम्। म० १। शरीरश्वेततारोगम्। निर्। निरन्तरम्। इतः। अस्मात् पुरुषात्। नाशय। णश अदर्शने−णिच्। विनष्टं कुरु, घातय। पृषत्। वर्तमाने पृषद्बृहन्महत्०। उ० २।८४। पृष सेके हिंसने च−अति। विकृतचिह्नम्। त्वा। त्वाम्। ओषधिम्। स्वः। स्वन शब्दे−ड। स्वकीयः आत्मीयः। आ+विशताम्। प्रविशतां, व्याप्नोतु। वर्णः। १।२२।१। रूपम्। शुक्लानि। ऋज्रेन्द्राग्रवज्र०। उ० २।२८। इति शुच शौचे−रन्। रस्य लः। श्वेतानि श्वेतानि सितानि चिह्नानि। परा+पातय। पत, णिच्। दूरं प्रेरय ॥

०३ असितं ते

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असि॑तं ते प्र॒लय॑नमा॒स्थान॒मसि॑तं॒ तव॑।
असि॑क्न्यस्योषधे॒ निरि॒तो ना॑शया॒ पृष॑त् ॥

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Whitney
Translation
  1. Dusky is thy hiding-place, dusky thy station (āsthā́na); dusky art
    thou, O herb; make the speckled disappear from hence.
Notes

TB. has the easier reading niláyanam in a. The comm. again gives
pṛthak in d; he holds that the plant here addressed is the indigo
(nīlī).

Griffith

Dark is the place of thy repose, dark is the place thou dwellest in: Dusky and dark, O Plant, art thou: remove from him each speck and spot.

पदपाठः

आसि॑तम्। ते॒। प्र॒ऽलय॑नम्। आ॒ऽस्थान॑म्। आसि॑तम्। तव॑। असि॑क्नी। अ॒सि॒। ओ॒ष॒धे॒। निः। इ॒तः। ना॒श॒य॒। पृष॑त्।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • असिक्नी वनस्पतिः
  • अथर्वा
  • अनुष्टुप्
  • श्वेत कुष्ठ नाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

महारोग के नाश के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (ओषधे) हे ओषधि ! (ते) तेरा (प्रलयनम्) लाभ (असितम्) निर्बन्ध वा अखण्ड है और (तव) तेरा (आस्थानम्) विश्रामस्थान (असितम्) निर्बन्ध है, (असिक्नी असि) और तू निर्बन्ध [सारवाली] है, (इतः) इस पुरुष से (पृषत्) [विकृत] चिह्न को (निर्णाशय) सर्वथा नाश कर दे ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - सद्वैद्य विचार करे कि यह ओषधि पूर्ण लाभयुक्त है, यथायोग्य स्थान में उत्पन्न हुई है और सब अंशों में सारयुक्त है, ऐसी ओषधि के प्रयोग से रोगनिवृत्ति होती है ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−असितम्। अञ्चिघृसिभ्यः क्तः। उ० ३।८९। इति षिञ् बन्धने−क्त। अथवा। षो अन्तकर्मणि=नाशने-क्त। नञ्समासः। अबद्धम्, अखण्डितम्। कृष्णवर्णम्−इति सायणः। प्र-लयनम्। प्र+लीङ् श्लेषे, प्राप्तौ−ल्युट्। प्रापणं, प्राप्तिः, लाभः। आ-स्थानम्। आङ्+ष्ठा गतिनिवृत्तौ−ल्युट्। विश्रामस्थानम्। तव। त्वदीयम्। असिक्नी। म० १। अबद्धा, सारवती। ओषधे। म० १। हे रोगनाशकद्रव्य ! अन्यत् सुगमं व्याख्यातं च ॥

०४ अस्थिजस्य किलासस्य

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अ॑स्थि॒जस्य॑ कि॒लास॑स्य तनू॒जस्य॑ च॒ यत्त्व॒चि।
दूष्या॑ कृ॒तस्य॒ ब्रह्म॑णा॒ लक्ष्म॑ श्वे॒तम॑नीनशम् ॥

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Whitney
Translation
  1. Of the bone-born leprous spot, and of the body-born that is in the
    skin, of that made by the spoiler (dū́ṣi)—by incantation have I made
    the white (śvetá) mark disappear.
Notes

Ppp. has in c dhūṣya; TB. reads instead kṛtyáyā; the comm.
explains dūṣi as śatrūtpāditā kṛtyā. Ppp. has at the end anenaśam.

Griffith

I with my spell have chased away the pallid sign of leprosy, Caused by infection, on the skin, sprung from the body, from the bones.

पदपाठः

अ॒स्थि॒ऽजस्य॑। कि॒लास॑स्य। त॒नू॒ऽजस्य॑। च॒। यत्। त्व॒चि। दूप्या॑। कृ॒तस्य॑। ब्रह्म॑णा। लक्ष्म॑। श्वे॒तम्। अ॒नी॒न॒श॒म्।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • असिक्नी वनस्पतिः
  • अथर्वा
  • अनुष्टुप्
  • श्वेत कुष्ठ नाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

महारोग के नाश के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - “दूष्याकृतस्य अस्थिजस्य तनूजस्य च किलासस्य यत् श्वेतं लक्ष्म त्वचि अस्ति तद् ब्रह्मणा (अहम्) अनीनशम्−इत्यन्वयः। (दूष्या) दुष्ट क्रिया से (कृतस्य) उत्पन्न हुए, (अस्थिजस्य) हड्डी से उत्पन्न हुए (च) और (तनूजस्य) शरीर से निकले हुए (किलासस्य) रूप बिगाड़नेहारे, कुष्ठ आदि रोग का (यत्) जो (श्वेतम्) श्वेत (लक्ष्म) चिह्न (त्वचि) त्वचा पर है [उसको] (ब्रह्मणा) वेदविज्ञान से (अनीनशम्) मैंने नाश कर दिया है ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - भारी रोग दो प्रकार के होते हैं, एक (अस्थिज) हड्डी से उत्पन्न होनेवाले अर्थात् भीतरी रोग जो ब्रह्मचर्य के खण्डन और कुपथ्य भोजन आदि के कारण मज्जा और वीर्य के विकार से हो जाते हैं और दूसरे (तनुज) शरीर से उत्पन्न हुए बाहिरी रोग जो मलिन वायु, मलिन घर, आदि के कारण होते हैं, इस प्रकार (ब्रह्मणा) वेदिक ज्ञान से रोगों का निदान करके उत्तम परीक्षित ओषधियों से रोगियों को स्वस्थ करे ॥४॥ इस सूक्त का आशय यह है कि जिस प्रकार सद्वैद्य रोगों का आदि कारण जानकर ओषधि करके रोगनिवृत्ति करता है, उसी प्रकार नीतिज्ञ राजा नियमपूर्वक दुष्टों का दमन करता है, सेनापति शत्रु के प्रहार से अपनी सेना की रक्षा करके जीत पाता है और ब्रह्मज्ञानी और वैज्ञानिक लोग बाह्य और आभ्यन्तर विघ्नों को हटाकर अपना कार्य सिद्ध करते हैं ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−अस्थि-जस्य। असिसञ्जिभ्यां क्थिन्। उ० ३।१५४। इति असु क्षेपणे-क्थिन्। अस्यते क्षिप्यते शरीरे तत् अस्थि, शरीरस्थ सप्तधातुमध्ये धातुविशेषः, कीकसम्। ततः। पञ्चम्यामजातौ। पा० ३।२।९८। इति जनी प्रादुर्भावे−ड प्रत्ययः। अस्थ्नो जातस्य मज्जाधातोः। किलासस्य। म० १। वर्णनाशकस्य कुष्ठरोगादिकस्य। तनू-जस्य। तन्वाः शरीराज् जायते, पूर्ववत् तनू+जनी−ड। शरीरजातस्य। यत्। लक्ष्म। त्वचि। तनोरनश्च वः। उ० २।६३। इति तनु विस्तारे−चिक प्रत्ययः, अन भागस्य वकारश्च। तन्यते विस्तीर्यते सा त्वक्। यद्वा। त्वच संवरणे−क्विप्। त्वचति संवृणोति भेदः शोणितादिकं सा। शरीरावरणे, चर्मणि। दूष्या। सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति दुष वैरे, दुष्टकर्मणि−इन्। दूषयति प्राणिनं हिनस्तीति दूषिः, तया दुष्टक्रियया ब्रह्मचर्यखण्डनमद्यादिकुपथ्यसेवनरूपया। कृतस्य। उत्पादितस्य। ब्रह्मणा। १।८।४। वेदविज्ञानेन। लक्ष्म। सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४५। इति लक्ष दर्शने−मनिन्। चिह्नम्। श्वेतम्। श्वित शुक्लतायाम्−अच् घञ् वा। शुक्लवर्णयुक्तम्। अनीनशम्। णश अदर्शने−णिचि लुङि रूपम्। अहं नाशितवानस्मि ॥