०२१ शत्रुनिवारणम् ...{Loading}...
Whitney subject
- Against enemies.
VH anukramaṇī
शत्रुनिवारणम्।
१-४ अथर्वा। इन्द्रः। अनुष्टुप्।
Whitney anukramaṇī
[Atharvan.—āindram. ānuṣṭubham.]
Whitney
Comment
As just pointed out (under 20. 4), this hymn and the last verse of the preceding make one hymn in RV. (x. 152) and in Pāipp. (ii.); the latter has a different verse-order (3, 2, 1, 4), but no various readings. For other correspondences, see under the several verses. For the ritual use of the hymn with the two preceding, see under 19; it is further reckoned (Kāuś. 16. 8, note) to the abhaya (‘free from fear or danger’) gaṇa. It is the first hymn applied (with vii. 55) in the svastyayana or ‘for well-being’ ceremonies (50. 1), and is, according to the comm., referred to as such in 25. 36. Verse 2 is also used, with others, by Vāit. (29. 5), in the agnicayana or building of the fire-altar.
Translations
Translated: Weber, iv. 414; Griffith, i. 25.
Griffith
A prayer to Indra for protection
०१ स्वस्तिदा विशाम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
स्व॑स्ति॒दा वि॒शां पति॑र्वृत्र॒हा वि॑मृ॒धो व॒शी।
वृषेन्द्रः॑ पु॒र ए॑तु॒ नः सो॑म॒पा अ॑भयंक॒रः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
स्व॑स्ति॒दा वि॒शां पति॑र्वृत्र॒हा वि॑मृ॒धो व॒शी।
वृषेन्द्रः॑ पु॒र ए॑तु॒ नः सो॑म॒पा अ॑भयंक॒रः ॥
०१ स्वस्तिदा विशाम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Giver of well-being, lord of the people (víś), Vṛtra-slayer,
remover of scorners, controlling, let the bull Indra go before us,
soma-drinker, producing fearlessness.
Notes
The comm. renders vimṛdhás by viśeṣeṇa mardhayitā śatrūṇām, although
he explains mṛ́dhas in vss. 2, 3 by saṁgrāmān; the word is plainly a
possessive compound ⌊accent! no genitive⌋, expressing in form of epithet
the action of 2 a and 3 a. RV. reads in a viśás pátis. The
verse occurs further in TB. (iii. 7. 11⁴) and TA. (x. 1. 9); both have
viśás, and, in d, svastidā́s for somapā́s.
Griffith
Lord of the clans, giver of bliss, fiend-slayer, mighty o’er the foe, May Indra, Soma-drinker, go before us, Bull, who brings us peace.
पदपाठः
स्व॒स्ति॒ऽदाः। वि॒शाम्। पतिः॑। वृ॒त्र॒ऽहा। वि॒ऽमृ॒धः। व॒शी। वृषा॑। इन्द्रः॑। पु॒रः। ए॒तु॒। नः॒। सो॒म॒ऽपाः। अ॒भ॒य॒म्ऽक॒रः।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- शत्रुनिवारण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजनीति और शान्तिस्थापन का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (स्वस्तिदाः) मङ्गल का देनहारा, (विशाम्) प्रजाओं का (पतिः) पालनेहारा (वृत्रहा) अन्धकार मिटानेहारा (विमृधः) शत्रुओं को (वशी) वश में करनेहारा (वृषा) महा बलवान् (सोमपाः) अमृत रस का पीनेहारा (अभयंकरः) अभय दान करनेहारा (इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवाला राजा (नः) हमारे (पुरः) आगे-आगे (एतु) चले ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य उपर्युक्त गुणों से युक्त राजा को अपना अगुआ बनाते हैं, वे अपने सब कामों में विजय पाते हैं। २−वह जगदीश्वर सब राजा-महाराजाओं का लोकाधिपति है, उसको अपना अगुआ समझकर सब मनुष्य जितेन्द्रिय हों ॥१॥ इस सूक्त में ऋग्वेद १०।१५२। मन्त्र−२-५ कुछ भेद के साथ हैं।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−स्वस्तिदाः। सावसेः। उ० ४।१८१। इति सु+अस सत्तायाम् ति प्रत्ययः। ततः। क्विप् च। पा० ३।२।७६। इति डुदाञ् दाने−क्विप्। समासस्य। पा० ६।१।२२३। इति अन्तोदात्तः। क्षेमप्रदः। विशाम्। विश प्रवेशे−क्विप्। विशः, मनुष्याः−निघ० २।३। प्रजानाम् मनुष्याणाम्। पतिः। १।१।१। पालकः, स्वामी। वृत्र-हा। स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। इति वृत वर्तने-रक्। इति वृत्रः, अन्धकारः। शत्रुः। ब्रह्मभ्रूणवृत्रेषु क्विप्। पा० ३।२।८७। इति हन हिंसागत्योः−क्विप्। शत्रुनाशकः। अन्धकारनिवारकः। वि-मृधः। वि+मृध हिंसायाम्−क्विप्। विशेषेण हिंसकान्। शत्रून्। अकेनोर्भविष्यदाधमर्ण्ययोः। पा० २।३।७०। इति (वशी) शब्देन सह द्वितीया, यथा (मां कामिन्यसः) १।३४।५। वशी। वशोऽस्त्यस्य। अत इनिठनौ। पा० ५।२।११५। इति वश आयत्तत्वे, स्पृहायाम्−इनि। वशयिता। वृषा। १।१२।१। सुखस्य वर्षयिता, महाबली। इन्द्रः। १।७।३। परमेश्वरः। राजा। जीवः। पुरः। पुरस्तात्, अग्रे। एतु। इण्−गतौ। गच्छतु, अग्रगामी भवतु। सोम-पाः। आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। पा० ३।२।७४। सोम+पा पाने-विच्। सोमस्य अमृतरसस्य पानशीलः। अभयम्-करः। मेघर्त्तिभयेषु कृञः। पा० ३।२।४३। उपपदविधौ भयादिग्रहणं तदन्तविधिं प्रयोजयति। इति वार्त्तिकेन। अभय+कृञ्-खच्। अरुर्द्विषदजन्तस्य मुम्। पा० ६।३।६७। इति मुम् आगमः। अभयस्य रक्षणस्य जयस्य कर्ता ॥
०२ वि न
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
वि न॒ इन्द्र॒ मृधो॑ जहि नी॒चा य॑च्छ पृतन्य॒तः।
अ॑ध॒मं ग॑मया॒ तमो॒ यो अ॒स्माँ अ॑भि॒दास॑ति ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
वि न॒ इन्द्र॒ मृधो॑ जहि नी॒चा य॑च्छ पृतन्य॒तः।
अ॑ध॒मं ग॑मया॒ तमो॒ यो अ॒स्माँ अ॑भि॒दास॑ति ॥
०२ वि न ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Smite away, O Indra, our scorners (mṛ́dh); put (yam) down them
that fight (pṛtany) [us]; make go to lowest darkness whoso vexes us.
Notes
RV. reverses the order of c and d, and reads ádharam; and with
it agree precisely SV. (ii. 1218) and VS. (viii. 44 a et al.); while
TS. (i. 6. 12⁴) and MS. (iv. 12. 3) have for c adhaspadáṁ tám īṁ
kṛdhi. ⌊Cf. MGS. ii. 15. 6 h and p. 155.⌋
Griffith
Indra, subdue our enemies, lay low the men who fight with us: Down into nether darkness send the man who shows us enmity:
पदपाठः
वि। नः॒। इ॒न्द्रः॒। मृधः॑। ज॒हि॒। नी॒चा। य॒च्छ॒। पृ॒त॒न्य॒तः। अ॒ध॒मम्। ग॒म॒य॒। तमः॑। यः। अ॒स्मान्। अ॒भि॒ऽदास॑ति।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- शत्रुनिवारण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजनीति और शान्तिस्थापन का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे बड़े ऐश्वर्यवाले राजन् ! (नः) हमारे (मृधः) शत्रुओं को (विजहि) मार डाल, (पृतन्यतः) और सेना चढ़ाकर लानेहारों को (नीचा) नीचे करके (यच्छ) रोक दे। (यः) जो (अस्मान्) हमको (अभिदासति) हानि पहुँचावे, उसको (अधमम्) नीचे (तमः) अन्धकार में (गमय) पहुँचा दे ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - १−न्यायशील, प्रतापी राजा अन्यायी दुराचारियों को परमेश्वर के दिये हुए बल से सब प्रकार परास्त करके दृढ़ बन्धीगृह में डाल दे ॥ २−महाबली परमेश्वर को हृदयस्थ समझकर सब मनुष्य अपनी कुवृत्तियों का दमन करें ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−वि। विविधाम्। मृधः। म० १। मृध हिंसायाम्−क्विप्। मर्धयितॄन्, हिंसकान्, शत्रून्। जहि। १।८।३। नाशय। नीचा। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। नीचैः शब्दात् सुपो डा प्रत्ययः, डित्त्वात् टिलोपः। नीचैः। यच्छ। १।१।३। नियमय, न्यग्भूतान् कुरु। पृतन्यतः। सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। इति पृतना−क्यच्। कव्यध्वरपृतनस्यर्चि लोपः। पा० ७।४।३९। इति अकारलोपः। तदन्तस्य धातुसंज्ञायां लटः शतृ। युद्धार्थं पृतनां सेनाम् आत्मन इच्छतः शत्रून्। अधमम्। अधस्+म प्रत्ययः, अन्त्य-लोपः। अतिनीचम्। निकृष्टम्। गमय। गम्लृ णिचि−लोट् द्विकर्मकः। प्रापय तं शत्रुम्। तमः। तमिर् खेदे−असुन्। अन्धकारम्। अस्मान्, अभिदासति। व्याख्यातम्, १।१९।३ ॥
०३ वि रक्षो
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वि रक्षो॒ वि मृधो॑ जहि॒ वि वृ॒त्रस्य॒ हनू॑ रुज।
वि म॒न्युमि॑न्द्र वृत्रहन्न॒मित्र॑स्याभि॒दास॑तः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
वि रक्षो॒ वि मृधो॑ जहि॒ वि वृ॒त्रस्य॒ हनू॑ रुज।
वि म॒न्युमि॑न्द्र वृत्रहन्न॒मित्र॑स्याभि॒दास॑तः ॥
०३ वि रक्षो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Smite away the demon, away the scorners; break apart Vṛtra’s (two)
jaws; away, O Indra, Vṛtra-slayer, the fury of the vexing enemy.
Notes
RV. and SV. (ii. 1217) have the same text; TS. (i. 6. 12⁵) reads
śátrūn for rákṣas, nuda for jahi, and bhāmitó for vŗtrahan.
Griffith
Strike down the fiend, strike down the foes, break thou asunder Vritra s jaws. O Indra, Vritra slayer, quell the wrath of the assailing foe.
पदपाठः
वि। रक्षः॑। वि। मृधः॑। ज॒हि॒। वि। वृ॒त्रस्य॑। हनू॒ इति॑। रु॒ज॒। वि। म॒न्युम्। इ॒न्द्र॒। वृ॒त्र॒ऽह॒न्। अ॒मित्र॑स्य। अ॒भि॒ऽदास॑तः।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- शत्रुनिवारण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजनीति और शान्तिस्थापन का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (रक्षः=रक्षांसि) राक्षसों और (मृधः) हिंसकों को (वि वि) सर्वथा (जहि) तू मार डाल, (वृत्रस्य) शत्रु के (हनू) दोनों जावड़ों को (विरुज) तोड़ दे (वृत्रहन्) हे अन्धकार मिटानेहारे (इन्द्र) बड़े ऐश्वर्यवाले राजन् ! (अभिदासतः) चढ़ाई करनेहारे (अमित्रस्य) पीडाप्रद शत्रु के (मन्युम्) कोप को (वि=विरुज) भङ्ग कर दे ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - १−राजा को पुरुषार्थी होकर शत्रुओं का नाश करके और प्रजा में शान्ति फैलाकर आनन्द भोगना चाहिये ॥ २−सर्वरक्षक परमेश्वर के प्रताप से मनुष्य अपने बाहिरी और भीतरी शत्रुओं को निर्बल करें ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−रक्ष। रक्ष पालने−असुन्। रक्षो रक्षितव्यमस्मात्−निरु० ४।१८। जातावेकवचनम्। राक्षसम्। शत्रुम्। वि। विशेषण, सर्वथा। मृधः। म० २। मर्धयितॄन्, हिंसकान्। जहि। म० २। नाशय। वृत्रस्य। म० १। शत्रोः। हनू। शॄस्वृस्निहि०। उ० १।१०। इति हन वधे−उ प्रत्ययः। हन्ति कठोर−द्रव्यादिकमिति हनुः। कपोलद्वयोपरिमुखभागौ। रुज। रुजो भङ्गे तुदादिः। भङ्गधि। विदारय। वि−विरुज। मन्युम्। १।१०।१। क्रोधं, कोपम्। वृत्र-हन्। म० १। हे अन्धकारनाशक ! अमित्रस्य। १।१९।२। पीडकस्य, शत्रोः। अभि-दासतः। दसु उत् क्षेपे−शतृ। उपक्षपयतः, उत्-क्षेपणशीलस्य ॥
०४ अपेन्द्र द्विषतो
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अपे॑न्द्र द्विष॒तो मनो॑ ऽप॒ जिज्या॑सतो व॒धम्।
वि म॒हच्छर्म॑ यच्छ॒ वरी॑यो यावया व॒धम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अपे॑न्द्र द्विष॒तो मनो॑ ऽप॒ जिज्या॑सतो व॒धम्।
वि म॒हच्छर्म॑ यच्छ॒ वरी॑यो यावया व॒धम् ॥
०४ अपेन्द्र द्विषतो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Off, O Indra, the mind of the hater, off the deadly weapon of him
that would scathe; extend great protection; keep very far off the deadly
weapon.
Notes
RV. reads manyós for mahát in c, yavayā for yāv- in d.
TS. (iii. 5. 8, only a, b) supplies in the first half-verse the
missing verb, jahi, putting it in place of vadhám. Unless we resolve
śárma into three syllables, the anuṣṭubh is defective by a syllable.
⌊Add naḥ after yacha?⌋
The 5 hymns of this anuvāka ⌊4.⌋ again have 20 verses, the norm: see
at the conclusion of the preceding anuvāka (after hymn 16).
Griffith
Turn thou the foeman s thought away, his dart who fain would conquer us: Grant us thy great protection; keep his deadly weapon far away.
पदपाठः
अप॑। इ॒न्द्र॒। द्वि॒ष॒तः। मनः॑। अप॑। जिज्या॑सतः। व॒धम्। वि। म॒हत्। शर्म॑। य॒च्छ॒। वरी॑यः। य॒व॒य॒। व॒धम्।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- शत्रुनिवारण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
राजनीति और शान्तिस्थापन का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे बड़े ऐश्वर्यवाले राजन् (द्विषतः) वैरी के (मनः) मन को (अप=अपकृत्य) तोड़कर और (जिज्यासतः) [हमारी] आयु की हानि चाहनेहारे शत्रु के (वधम्) प्रहार को (अप=अपकृत्य) छिन्न-भिन्न करके (महत् शर्म) [अपना] विस्तीर्ण शरण (वियच्छ) [हमें] दान कर और (वधम्) [शत्रु के] प्रहार को (वरीयः) बहुत दूर (यावय) फेंक दे ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परमेश्वर के विश्वास से मनुष्य अपने पुरुषार्थ और बुद्धिबल से शत्रु को निरुत्साही करके विजयी होवें ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: टिप्पणी−पिछले आधे मन्त्र के लिये १।२०।३। देखो ॥ इति चतुर्थोऽनुवाकः ॥ ४−अप। अपकृत्य, तिरस्कृत्य। द्विषतः। द्विष अप्रीतौ−शतृ। अप्रीतिकरस्य शत्रोः। मनः। १।१।२। अन्तःकरणं हृदयम् आत्मबलम्। जिज्यासतः। धातोः कर्मणः समानकर्तृकादिच्छायां वा। पा० ३।१।७। इति ज्या वयोहानौ−सन् प्रत्ययः। सन्यङोः। पा० ६।१।९। इति द्विर्वचने हलादिः शेषे ह्रस्वे च कृते। सन्यतः। पा० ७।४।७८। इति अभ्यासाकारस्य इत्वम्। सन्नन्तस्य धातुसंज्ञायां लटः शतृ। वयोहानिमिच्छतः, अस्मान् जेतुमिच्छतः पुरुषस्य। वधम्। १।२०।१। प्रहारम्। अन्यद् व्याख्यातम्। १।२०।३ ॥