०२० शत्रुनिवारणम् ...{Loading}...
Whitney subject
- Against enemies and their weapons.
VH anukramaṇī
शत्रुनिवारणम्।
१-४ अथर्वा। १ सोमः, मरुतः, २ मित्रावरुणौ, ३ वरुणः ४ इन्द्रः। अनुष्टुप्, त्रिष्टुप्।
Whitney anukramaṇī
[Atharvan.—sāumyam. ānuṣṭubham: 1. triṣṭubh.]
Whitney
Comment
The first three verses are found in Pāipp. xix., and vs. 4 in ii.: see below. For the use of the hymn by Kāuś. with 19 and 21, see under 19. And vs. 1 is used alone (so the comm.) in the parvan-sacrifices (Kāuś. 2. 39), on viewing the cooked oblation.
Translations
Translated: Weber, iv. 413; Griffith, i. 24.
Griffith
A prayer to Soma, the Maruts, Mitra, and Varuna, for protection
०१ अदारसृद्भवतु देव
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अदा॑रसृद्भवतु देव सोमा॒स्मिन्य॒ज्ञे म॑रुतो मृ॒डता॑ नः।
मा नो॑ विददभि॒भा मो अश॑स्ति॒र्मा नो॑ विदद्वृजि॒ना द्वेष्या॒ या ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अदा॑रसृद्भवतु देव सोमा॒स्मिन्य॒ज्ञे म॑रुतो मृ॒डता॑ नः।
मा नो॑ विददभि॒भा मो अश॑स्ति॒र्मा नो॑ विदद्वृजि॒ना द्वेष्या॒ या ॥
०१ अदारसृद्भवतु देव ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Let there be the ádārasṛt, O god Soma; at this sacrifice, O Maruts,
be gracious to us; let not a portent find us, nor an imprecation; let
not the wrong that is hateful find us.
Notes
The first pāda is rendered on the assumption that the sāman of this
name, as described in PB. xv. 3. 7, is intended; it might be used of the
person intended to be benefited: ’let him be one not getting into a
split (i.e. hole, or difficulty)’: this is the sense distinctly taught
in PB.; the comm. says na kadācid api svastrīsamīpam prāpnotu
(madīyaḥ śatruḥ)! The verse occurs in TB. (iii. 7. 5¹²: and repeated
without change in Āp. ii. 20. 6), with bhavata in a, mṛḍatā
(without the anomalous accent) in b, and vṛjánā in d. Ppp.
begins with adārasur bh-, adds ayam after soma in a, and has
in d the easier reading prā “pad duchunā for vidad vṛjinā. The
second half-verse occurs again as v. 3. 6 c, d. Though connected
with vss. 2, 3 in Pāipp. also, this verse does not appear to have
anything originally to do with them.
Griffith
May it glide harmless by in this our sacrifice, O Soma, God! Maruts, be gracious unto us. Let not disaster, let not malison find us out; let not abominable guiles discover us.
पदपाठः
अदा॑रऽसृत्। भ॒व॒तु॒। दे॒व॒। सो॒म॒। अ॒स्मिन्। य॒ज्ञे। म॒रु॒तः॒। मृ॒डत॑। नः॒। मा। नः॒। वि॒द॒त्। अ॒भि॒ऽभाः। मो इति॑। अश॑स्तिः। मा। नः॒। वि॒द॒त्। वृ॒जि॒ना। द्वेष्या॑। या।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सोमो मरुद्गणः
- अथर्वा
- त्रिष्टुप्
- शत्रुनिवारण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
शत्रुओं से रक्षा का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (देव) हे प्रकाशमय, (सोम) उत्पन्न करनेवाले परमेश्वर ! [वह शत्रु] (अदारसृत्) डर का न पहुँचानेवाला अथवा अपने स्त्री आदि के पास न पहुँचनेवाला (भवतु) होवे, (मरुतः) हे [शत्रुओं के] मारनेवाले देवताओं ! (अस्मिन्) इस (यज्ञे) पूजनीय काम में (नः) हम पर (मृडत) अनुग्रह करो। (अभिभाः) सन्मुख चमकती हुई, आपत्ति (नः) हम पर (मा विदत्) न आ पड़े और (मो=माउ) न कभी (अशस्तिः) अपकीर्ति और (या) जो (द्वेष्या) द्वेषयुक्त (वृजिना) पापबुद्धि है [वह भी] (नः) हम पर (मा विदत्) न आ पड़े ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सब मनुष्य परमेश्वर के सहाय से शत्रुओं को निर्बल कर दें अथवा घरवालों से अलग रक्खें और विद्वान् शूरवीरों से भी सम्मति लेवें, जिससे प्रत्येक विपत्ति, अपकीर्त्ति और कुमति हट जाय और निर्विघ्न अभीष्ट सिद्ध होवे ॥१॥ मरुत् देवताओं के बिजुली आदि के विमान हैं, इस पर वैज्ञानिकों को विशेष ध्यान देना चाहिये−ऋग्वेद १।८८।१। में वर्णन है ॥ आ वि॒द्युन्म॑द्भिर्मरुतः स्व॒र्कैः रथे॑भिर्यात ऋष्टि॒मद्भि॒रश्व॑पर्णैः। आवर्षि॑ष्ठया न इ॒षा वयो न प॑प्तता सुमायाः ॥१॥ (मरुतः) हे शूर महात्माओ ! (विद्युन्मद्भिः) बिजुलीवाले, (स्वर्कैः) अच्छी ज्वालावाले [वा अच्छे विचारों से बनाये गये] (ऋष्टिमद्भिः) दो-धारा तलवारोंवाले [आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ, ऊपर-नीचे चलाने की कलाओंवाले] (रथेभिः) रथों से (आयात) तुम आओ और (सुमायाः) हे उत्तम बुद्धिवाले ! (नः) हमारे लिये (वर्षिष्ठया) अति उत्तम (इषा) अन्न के साथ (वयो न) पक्षियों के समान (आपप्तत) उड़ कर चले आओ ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−अदारसृत्। दारजारौ कर्तरि णिलुक् च। वार्तिकम्। पा० ३।३।२०। इति दॄ विदारणे−णिच्−घञ्। णिलुक् च। सृ गतौ−णिचि क्विप्। दारं दरं भयं सारयतीति दारसृत्। न दारसृत् अदारसृत् अभयप्रापकः, अहानिकरः। अथवा दारयन्ति दुःखानि विदारयन्ति यास्ताः स्त्रियः। स्त्र्यादिगृहस्थाः। दार+सृ−क्विप्। अगृहगामी। देव। हे दीप्यमान ! सोम। १।६।२। हे सर्वोत्पादक परमेश्वर ! यज्ञे। १।९।४। पूज्यकर्मणि यागे, अध्वरे। मरुतः। मृग्रोरुतिः। उ० १।९४। इति मृञ् प्राणत्यागे−उति। मारयन्ति नाशयन्ति दुष्टान् दुर्गन्धादिदुर्गुणान् वा ते मरुतः, देवाः। वायुः। ऋत्विजः−निघ० ३।१८। मरुत् हिरण्यनाम−निघ० १।२। हे शूरवीरा देवाः। मृडत। मृड सुखने−लोट् मृडयत, सुखयत। नः। अस्मान् [त्रिवारं वर्तते] मा विदत्। १।१९।१। विद्लृ लाभे−लुङ्। मा लभताम्, मा प्राप्नोतु। अभि-भाः। अभि, धर्षणे, आभिमुख्ये वा+भा दीप्तौ−क्विप्। अभिभूय भाति दीप्यते। अभिभाः=अभिभूतिः−निरु० ८।४। परोपद्रवः। आपत्तिः। मो। मा-उ। मैव। अशस्तिः। शंसु स्तुतौ−क्तिन्। अकीर्त्तिः। वृजिना। वृजेः किच्च। उ० २।४७। इति वृजी वर्जने−इनच् स च कित्, टाप्। यद्वा। अर्शआदिभ्योऽच्। पा० ५।२।१२७। इति वृजन−अस्त्यर्थे अच् टाप् च। वृजनं पापमस्यामस्तीति वृजना। वक्रा, कुटिला, पाप−बुद्धिः। द्वेष्या। ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।१।१२४। इति द्विष अप्रीतौ−कर्मणि ण्यत्। द्वेषणीया, अप्रीता ॥
०२ यो अद्य
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यो अ॒द्य सेन्यो॑ व॒धो ऽघा॒यूना॑मु॒दीर॑ते।
यु॒वं तं मि॑त्रावरुणाव॒स्मद्या॑वयतं॒ परि॑ ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
यो अ॒द्य सेन्यो॑ व॒धो ऽघा॒यूना॑मु॒दीर॑ते।
यु॒वं तं मि॑त्रावरुणाव॒स्मद्या॑वयतं॒ परि॑ ॥
०२ यो अद्य ...{Loading}...
Whitney
Translation
- What missile (sénya) weapon of the malignant (aghāyú) shall go up
today, do ye, Mitra-and-Varuṇa, keep that off from us.
Notes
The first half-verse in Ppp. is yo ‘dya sāinyo vadho jighāsaṁ nam
upāyatī, which is nearly our vi. 99. 2 a, b. The half-verse occurs
also in PB. (i. 3. 3 a, b) and AśS. (v. 3. 22 a, b), both of
which have sāumyas; PB. elides yo ‘dya; AśS. gives at the end
-trati. Aghāyūnā́m would be the proper accent (and this the comm.
has), unless the word were understood as feminine.
Griffith
Mitra and Varuna, ye twain, turn carefully away from us The deadly dart that flies to-day, the missile of the wicked ones.
पदपाठः
यः। अ॒द्य। सेन्यः॑। व॒धः। अ॒घ॒ऽयूना॑म्। उ॒त्ऽईर॑ते। यु॒वम्। तम्। मि॒त्रा॒व॒रु॒णौ॒। अ॒स्मत्। य॒व॒य॒त॒म्। परि॑।
अधिमन्त्रम् (VC)
- मित्रावरुणौ
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- शत्रुनिवारण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
शत्रुओं से रक्षा का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अद्य) आज (अघायूनाम्) बुरा चीतनेवाले शत्रुओं की (सेन्यः) सेना का चलाया हुआ (यः) जो (वधः) शस्त्रप्रहार (उदीरते) उठ रहा है। (मित्रावरुणौ) हे [हमारे] प्राण और अपान (युवम्) तुम दोनों (तम्) उस [शस्त्रप्रहार] को (अस्मत्) हम लोगों से (परि) सर्वथा (यावयतम्) अलग रक्खो ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - (मित्रावरुणौ) का अर्थ महर्षि दयानन्द सरस्वती ने [य० २।३] प्राण और अपान किया है। जो वायु शरीर के भीतर जाता है, वह प्राण और जो बाहिर निकलता है, वह अपान कहाता है। जिस समय युद्ध में शत्रुसेना आ दबावे, उस समय अपने प्राण और अपान वायु को यथायोग्य सम रखकर और सचेत होकर शरीर में बल बढ़ाकर सैन्यक लोग युद्ध करें, तो शत्रुओं पर शीघ्र जीत पावें ॥ २−श्वास के साधने से मनुष्य स्वस्थ और बलवान् होते हैं ॥ ३−प्राण और अपान के समान उपकारी और बलवान् होकर योद्धा लोग परस्पर रक्षा करें ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−अद्य। १।१।१। वर्तमाने दिने। सेन्यः। भवे छन्दसि। पा० ४।४।११०। इति सेना−यत्। सेनायां भवः। वधः। हनश्च वधः। पा० ३।३।६७। इति हन हिंसागत्योः−अप्, वधादेशः। हननसाधनः, शस्त्रप्रहारः। अघायूनाम्। अघ पापकरणे−अच्। अघम्, पापम्। सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। इत्यत्र। छन्दसि परेच्छायामपि वक्तव्यम्। वार्त्तिकम्। इति अघ−क्यच्। क्याच्छन्दसि। पा० ३।२।१७०। इति उ प्रत्ययः। अश्वाघस्यात्। पा० ७।४।३७। इति आत्वम्। पापेच्छूनाम्। दुराचारिणाम्। उत्−ईरते। ईर गतौ। उद्गच्छति, उत्तिष्ठति। युवम्। युवाम्। मित्रावरुणौ। १।३।२, ३। मित्रश्च वरुणश्च। देवता द्वन्दे च। पा० ६।३।२९। इति पूर्वपदस्य आनङ् आदेशः। प्राणापानौ। यावयतम्। यु मिश्रणामिश्रणयोः−ण्यन्तात् लोट्। वियोजयतम्, पृथक् कुरुतम्।
०३ इतश्च यदमुतश्च
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इ॒तश्च॒ यद॒मुत॑श्च॒ यद्व॒धं व॑रुण यावय।
वि म॒हच्छर्म॑ यच्छ॒ वरी॑यो यावया व॒धम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इ॒तश्च॒ यद॒मुत॑श्च॒ यद्व॒धं व॑रुण यावय।
वि म॒हच्छर्म॑ यच्छ॒ वरी॑यो यावया व॒धम् ॥
०३ इतश्च यदमुतश्च ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Both what [is] from here and what from yonder—keep off, O Varuṇa,
the deadly weapon; extend great protection (śárman); keep very far off
the deadly weapon.
Notes
The pada text marks the pāda-division in the first half-verse before
instead of after the second yát. Ppp. reads in b yāvayaḥ. The
second half-verse is found again at the end of the next hymn—which is
perhaps an additional indication that this hymn properly ends here. The
Anukr. ignores the metrical irregularity of the verse (9 + 8: 7 + 8 =
32). ⌊Read in a itó yád, and in c yacha naḥ.⌋
Griffith
Ward off from this side and from that, O Varuna, the deadly dart: Give us thy great protection, turn the lethal weapon far away.
पदपाठः
इ॒तः। च॒। यत्। अ॒मुतः॑। च॒। यत्। व॒धम्। व॒रु॒ण॒। य॒व॒य॒। वि। म॒हत्। शर्म॑। य॒च्छ॒। वरी॑यः। य॒व॒य॒। व॒धम्।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वरुणः
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- शत्रुनिवारण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
शत्रुओं से रक्षा का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (वरुण) हे सबमें श्रेष्ठ, परमेश्वर ! (इतः च) इस दिशा से (च) और (अमुतः) उस दिशा से (यत् यत्) प्रत्येक (वधम्) शत्रुप्रहार को (यावय) हटा दे। (महत्) [अपनी] बड़ी (शर्म) शरण को (वि) अनेक प्रकार से (यच्छ) [हमें] दान कर और (वधम्) [शत्रुओं के] प्रहार को (वरीयः) बहुत दूर (यावय) फैंक दे ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जो सेनापति ईश्वर पर विश्वास करके अपनी सेना को प्रयत्नपूर्वक शत्रु के प्रहार से बचाता और उन में वैरी को जीतने का उत्साह बढ़ाता है, वह शूरवीर जीत पाकर आनन्द पाता है ॥३॥ मन्त्र का पिछला आधा ऋ० १०।१५२।५। का दूसरा आधा है, वहाँ (महत्) के स्थान में [मन्योः] शब्द है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−इतः। पञ्चम्यास्तसिल्। पा० ५।३।७। इति इदम्−तसिल्। अस्मात् स्थानात्। अमुतः। अदस्−तसिल् पूर्ववत्। तस्माद् देशात्। यत् यत्। इति अव्ययद्वयम्। प्रत्येकं वधं यः कश्चिद् भवेद् इत्यर्थे। वधम्। म० २। शस्त्रप्रहारम्। वरुण। १।३।३। हे वरणीय, परमेश्वर ! यावय। म० २। वियोजय। महत्। १।१०।४। विपुलं विस्तीर्णम्। शर्म। सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४५। इति शॄ हिंसायाम्−मनिन्। स्वशरणम्, सुखम्। वि। विशेषेण। यच्छ। पाघ्राध्मास्थाम्ना०। पा० ७।३।७८। इति दाण्−दाने−यच्छादेशः। देहि। वरीयः। १।२।२। उरुतरम् विस्तीर्णतरम्, दूरतरम् ॥
०४ शास इत्था
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
शा॒स इ॒त्था म॒हाँ अ॑स्यमित्रसा॒हो अ॑स्तृ॒तः।
न यस्य॑ ह॒न्यते॒ सखा॒ न जी॒यते॑ क॒दा च॒न ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
शा॒स इ॒त्था म॒हाँ अ॑स्यमित्रसा॒हो अ॑स्तृ॒तः।
न यस्य॑ ह॒न्यते॒ सखा॒ न जी॒यते॑ क॒दा च॒न ॥
०४ शास इत्था ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Verily a great ruler (śāsá) art thou, overpowerer of enemies,
unsubdued, whose companion (sákhi) is not slain, is not scathed
(jyā) at any time.
Notes
This verse is the first in RV. x. 152, of which the remaining verses
constitute the next hymn here; in Ppp. it occurs with them in ii., far
separated from the matter which in our text precedes it. RV. and Ppp.
both read for b amitrakhādó ádbhutaḥ; and RV. accents in d
jī́yate kádā. The comm. paraphrases śāsás by śāsako niyantā; he
takes jīyáte as from root ji, which is of course equally possible.
Griffith
A mighty Ruler thus art thou, unconquered, vanquisher of foes, Even thou whose friend is never slain, whose friend is never over- come.
पदपाठः
शा॒सः। इ॒त्था। म॒हान्। अ॒सि॒। अ॒मि॒त्र॒ऽस॒हः। अ॒स्तृ॒तः। न। यस्य॑। ह॒न्यते॑। सखा॑। न। जी॒यते॑। क॒दा। च॒न।
अधिमन्त्रम् (VC)
- इन्द्रः
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- शत्रुनिवारण सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
शत्रुओं से रक्षा का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इत्था) सत्य-सत्य (महान्) बड़ा (शासः) शासनकर्ता (अमित्रसाः) शत्रुओं को हरानेहारा और (अस्तृतः) कभी न हारनेहारा (असि) तू है। (यस्य) जिसका (सखा) मित्र (कदा चन) कभी भी (न) न (हन्यते) मारा जाता है और (न) न (जीयते) जीता जाता है ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - वह परमात्मा (वरुण) सर्वशक्तिमान् शत्रुनाशक है, इस प्रकार श्रद्धा करके जो मनुष्य प्रयत्नपूर्वक, आत्मिक, शारीरिक और सामाजिक बल बढ़ाते रहते हैं, वे ईश्वर के भक्त दृढ़विश्वासी अपने शत्रुओं पर सदा जय प्राप्त करते हैं ॥४॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋ० १०।१५२।१ में है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−शासः। नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः। पा० ३।१।१३४। इति शासु अनुशिष्टौ−पचाद्यच्। चितः। पा० ६।१।१६३। इति अन्तोदात्तः। शासकः, नियन्ता, वरुणः। इत्था। सत्यनाम, निघ० ३।१०। सत्यम्। महान्। १।१०।४। सर्वोत्कृष्टः। महाँ असि। इत्यत्र संहितायाम्। दीर्घादटि समानपादे। पा० ८।३।९। इति नकारस्य रुत्वम्। आतोऽटि नित्यम्। पा० ८।३।३। इति अकारस्य अनुनासिकः। अमित्र-सहः। अमेर्द्विषति चित्। उ० ४।१७४। इति अम रोगे पीडने−इत्रच्। षह अभिभवे−पचाद्यच्। चितः। पा०। ६।१।१६३। इति अन्तोदात्तः। अमित्राणां शत्रूणां सोढा, अभिभविता। अस्तृतः। स्तृञ् हिंसायाम्−कर्मणि क्तः। अहिंसितः। न। निषेधे। यस्य। वरुणस्य। हन्यते। सार्वधातुके यक्। पा० ३।१।६७। इति कर्मणि यक्। हिंस्यते। अभिभूयते। सखा। समाने ख्यः स चोदात्तः। उ० ४।१३७। इति समान+ख्या प्रसिद्धौ कथने च−इन्। टिलोपयलोपौ समानस्य सभावश्च। अनङ् सौ। पा० ७।१।९३। इति अनङ्। मित्रम्, सुहृद्। जीयते। जि जये−पूर्ववद् यक्। अभिभूयते। कदा। कस्मिन् काले। चन। अपि ॥