०१७ रुधिरस्रावनिवृत्तये धमनीबन्धनम् ...{Loading}...
Whitney subject
- To stop the vessels of the body.
VH anukramaṇī
रुधिरस्रावनिवृत्तये धमनीबन्धनम्।
१-४ ब्रह्मा। योषितः धमन्यश्च। अनुष्टुप्, १ भुरिगनुष्टुप्, ४ त्रिपदार्षी गायत्री।
Whitney anukramaṇī
[Brahman.—yoṣiddevatyam. ānuṣṭubham: 1. bhurij; 4. 3-p. ārṣī gāyatrī.]
Whitney
Comment
Found in Pāipp. xix. (in the verse-order 3, 4, 1, 2). Used once by Kāuś. (26. 10: the quotation appears to belong to what follows it, not to what precedes), in a remedial rite, apparently for stopping the flow of blood (the comm. says, as result of a knife wound and the like, and also of disordered menses).
Translations
Translated: Weber, iv. 411; Ludwig, p. 508; Grill, 16, 76; Griffith, i. 21; Bloomfield, 22, 257.—Cf. Hillebrandt, Veda-Chrestomathie, p. 46.
Griffith
A charm to be used at venesection
०१ अमूर्या यन्ति
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॒मूर्या यन्ति॑ यो॒षितो॑ हि॒रा लोहि॑तवाससः।
अ॒भ्रात॑र इव जा॒मय॒स्तिष्ठ॑न्तु ह॒तव॑र्चसः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॒मूर्या यन्ति॑ यो॒षितो॑ हि॒रा लोहि॑तवाससः।
अ॒भ्रात॑र इव जा॒मय॒स्तिष्ठ॑न्तु ह॒तव॑र्चसः ॥
०१ अमूर्या यन्ति ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Yon women (yoṣít) that go, veins with red garments, like
brotherless sisters (jāmí)—let them stop (sthā), with their splendor
smitten.
Notes
Ppp. makes yoṣitas and jāmayas change places, and has sarvās
(better) for hirās in b. The comm. takes yoṣítas as gen. sing.,
and hence naturally understands rajovahananāḍyas to be meant in the
verse; he renders hirās by sirās; and he explains that brotherless
sisters pitṛkule saṁtānakarmaṇe piṇḍadānāya ca tiṣṭhanti. The Anukr.
refuses to sanction the contraction -tare ‘va in c.
Griffith
Those maidens there, the veins, who run their course in robes of ruddy hue, Must now stand quiet, reft of power, like sisters who are brotherless.
पदपाठः
अ॒मूः। याः। यन्ति॑। यो॒षितः॑। हि॒राः। लोहि॑तऽवाससः। अ॒भ्रात॑रःऽइव। जा॒मयः॑। तिष्ठ॑न्तु। ह॒तऽव॑र्चसः।
अधिमन्त्रम् (VC)
- योषित्
- ब्रह्मा
- भुरिगनुष्टुप्
- रुधिरस्रावनिवर्तनधमनीबन्धन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
नाडीछेदन [फ़सद् खोलने] के दृष्टान्त से दुर्वासनाओं के नाश का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अमूः) वे (याः) जो (योषितः) सेवायोग्य वा सेवा करनेहारी [अथवा स्त्रियों के समान हितकारी] (लोहितवाससः) लोह में ढकी हुयी (हिराः) नाड़ियाँ (यन्ति) चलती हैं, वे (अभ्रातरः) बिना भाइयों की (जामयः इव) बहिनों के समान, (हतवर्चसः) निस्तेज होकर (तिष्ठन्तु) ठहर जाएँ ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - इस सूक्त में सिराछेदन, अर्थात् नाड़ी [फ़सद्] खोलने का वर्णन है। मन्त्र का अभिप्राय यह है कि नाड़ियाँ रुधिरसंचार का मार्ग होने से शरीर की (योषितः) सेवा करनेहारी और सेवायोग्य हैं। जब किसी रोग के कारण वैद्यराज नाड़ीछेदन करे और रुधिर निकलने से रोग बढ़ाने में नाड़ियाँ ऐसी असमर्थ हो जाएँ जैसे माता-पिता और भाइयों के बिना कन्याएँ असहाय हो जाती हैं, तब नाड़ियों को रुधिर बहने से रोक दे। २−मनुष्य के सब कार्य कुकामनाओं को रोककर मर्यादापूर्वक करने से सफल होते हैं ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−अमूः। १।४।२। ताः परिदृश्यमानाः। यन्ति। गच्छन्ति योषितः। हृसृरुहिहियुषिभ्य इतिः। उ० १।९७। युष सेवने-इति, अयं सौत्रो धातुः। योषति सेवते युष्यते सेव्यते वा सा योषित्। सेवयित्र्यः। सेव्याः। स्त्रियः। हिराः। स्फायितञ्चिवञ्चिशकि०। उ० २।१३। इति हि वर्धने गतौ च-रक् टाप्। हिनोति वर्धयति वा गच्छति व्याप्नोति शरीररुधिरादिकमिति हिरा, नाडी। सिराः, नाड्यः। लोहित-वाससः। वसेर्णित्। उ० ४।२१८। इति लोहित+वस आच्छादने, असुन्। णिद्वद्भावाद् उपधावृद्धिः। रुधिरस्य आच्छादनभूताः। रक्तवर्णवस्त्राः। अभ्रातरः। नप्तृत्वष्टृ०। उ० २।९६। इति भ्राजृ दीप्तौ-तृन्, निपात्यते। अभ्रातृकाः, सहोदररहिताः, असहाया इत्यर्थः। जामयः। १।४।१। भगिन्यः। तिष्ठन्तु। स्थिता निवृत्तगतयो भवन्तु। हत-वर्चसः। सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। इति वर्च दीप्तौ-असुन्। हततेजस्काः, नष्टवीर्याः। रोगोत्पादने असमर्थाः ॥
०२ तिष्ठावरे तिष्ठ
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
तिष्ठा॑वरे॒ तिष्ठ॑ पर उ॒त त्वं ति॑ष्ठ मध्यमे।
क॑निष्ठि॒का च॒ तिष्ठ॑ति तिष्ठा॒दिद्ध॒मनि॑र्म॒ही ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
तिष्ठा॑वरे॒ तिष्ठ॑ पर उ॒त त्वं ति॑ष्ठ मध्यमे।
क॑निष्ठि॒का च॒ तिष्ठ॑ति तिष्ठा॒दिद्ध॒मनि॑र्म॒ही ॥
०२ तिष्ठावरे तिष्ठ ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Stop, lower one! stop, upper one! do thou too stop, midmost one! if
the smallest stops, shall stop forsooth the great tube (dhamáni).
Notes
The accent of tíṣṭhati seems to show ca to be the equivalent of
cet here.
Griffith
Stay still, thou upper vein, stay still, thou lower, stay, thou midmost one, The smallest one of all stands still: let the great vessel e’en be still.
पदपाठः
तिष्ठ॑। अ॒व॒रे॒। तिष्ठ॑। प॒रे॒। उ॒त। त्वम्। ति॒ष्ठ॒। म॒ध्य॒मे॒। क॒नि॒ष्ठि॒का। च॒। तिष्ठ॑ति। तिष्ठा॑त्। इत्। ध॒मनिः॑। म॒ही।
अधिमन्त्रम् (VC)
- लोहितवासः
- ब्रह्मा
- अनुष्टुप्
- रुधिरस्रावनिवर्तनधमनीबन्धन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
नाडीछेदन [फ़सद् खोलने] के दृष्टान्त से दुर्वासनाओं के नाश का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (अवरे) हे नीचे की [नाड़ी] (तिष्ठ) तू ठहर, (परे) हे ऊपरवाली (तिष्ठ) तू ठहर, (उत) और (मध्यमे) हे बीचवाली (त्वम्) तू (तिष्ठ) ठहर, (च) और (कनिष्ठिका) अति छोटी नाड़ी (तिष्ठति) ठहरती है, (मही) बड़ी (धमनिः) नाड़ी (इत्) भी (तिष्ठात्) ठहर जावे ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - १−चिकित्सक सावधानी से सब नाड़ियों को अधिक रुधिर बहने से रोक देवे ॥ २−मनुष्य अपने चित्त की वृत्तियों को ध्यान देकर कुमार्ग से हटावे और हड़बड़ी करके अपने कर्तव्य को न बिगड़ने दे किन्तु यत्नपूर्वक सिद्ध करे ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−तिष्ठ। निवृत्तगतिर्भव। अवरे। १।८।३। अवर−टाप्। हे निकृष्टे। अधोभागस्थिते हिरे। परे। १।८।३। हे श्रेष्ठे, ऊर्ध्वाङ्गवर्तिनि ! त्वम्। हिरे, सिरे। मध्यमे। मध्यान्मः। पा० ४।३।८। मध्य-म प्रत्ययो भवार्थे। हे शरीरव्यवर्तिनि। कनिष्ठिका। युवाल्पयोः कनन्यतरस्याम्। पा० ५।३।६४। इति अल्प−इष्ठनि कन् आदेशः। स्वार्थे क प्रत्ययः। प्रत्ययस्थात् कात् पूर्वस्यात इदाप्यसुपः। पा० ७।३।४४। इति इत्वं टापि परतः। अल्पतमा, सूक्ष्मतरा नाडी। तिष्ठात्। ष्ठा गतिनिवृत्तौ-लेट्। लेटोऽडाटौ। पा० ३।४।९४। इति आडागमः। अवतिष्ठताम्, धमनिः। अर्त्तिसृधृधमि०। उ० २।१०२। इति धम ध्माने, ध्वाने च-अनि। सिरा, नाडी। मही। मह पूजायाम्-अच्। षिद्गौरादिभ्यश्च। पा० ४।१।४१। इति ङीप्। महती, बृहती स्थूला ॥
०३ शतस्य धमनीनाम्
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श॒तस्य॑ ध॒मनी॑नां स॒हस्र॑स्य हि॒राणा॑म्।
अस्थु॒रिन्म॑ध्य॒मा इ॒माः सा॒कमन्ता॑ अरंसत ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
श॒तस्य॑ ध॒मनी॑नां स॒हस्र॑स्य हि॒राणा॑म्।
अस्थु॒रिन्म॑ध्य॒मा इ॒माः सा॒कमन्ता॑ अरंसत ॥
०३ शतस्य धमनीनाम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Of the hundred tubes, of the thousand veins, have stopped forsooth
these midmost ones; the ends have rested (ram) together.
Notes
In d, emendation to ántyās ’the end ones’ would be an improvement;
but Ppp. also has antās: sakam antā ‘raṁsata; its c is corrupt
(asthū nibaddhāmāvā); and it inserts te after śatasya in a.
Griffith
Among a thousand vessels charged with blood, among a thousand veins, Even these the middlemost stand still and their extremities have rest.
पदपाठः
श॒तस्य॑। ध॒मनी॑नाम्। स॒हस्र॑स्य। हि॒राणा॑म्। अस्थुः॑। इत्। म॒ध्य॒माः। इ॒माः। सा॒कम्। अन्ताः॑। अ॒रं॒स॒त॒।
अधिमन्त्रम् (VC)
- हिरा
- ब्रह्मा
- अनुष्टुप्
- रुधिरस्रावनिवर्तनधमनीबन्धन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
नाडीछेदन [फ़सद् खोलने] के दृष्टान्त से दुर्वासनाओं के नाश का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (शतस्य धमनीनाम्) सौ प्रधान नाड़ियों में से और (सहस्रस्य हिराणाम्) सहस्र शाखा नाड़ियों में से (इमाः) ये सब (मध्यमाः) बीचवाली (इत्) भी (अस्थुः) ठहर गयीं, (अन्ताः) अन्त की [अवशिष्ट नाड़ियाँ] (साकम्) एक साथ (अरंसत) क्रीड़ा करने लगी हैं ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - सिराछेदन से असंख्य धमनी और सिरा नाड़ियों का रुधिर यथाविधि चिकित्सक निकाल कर बन्ध कर देवे, जिससे कि नाड़ियाँ पहिले के समान चेष्टा करने लगें ॥ २−मनुष्य अपनी अनन्त चित्तवृत्तियों को कुमार्ग से रोक कर सुमार्ग में चलावें ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−शतस्य।– शतसंख्यानाम् अपरिमितानाम्। धमनीनाम्। म० २। हृदयगतानां प्रधाननाडीनाम्। सहस्रस्य। अपरिमितानाम्। हिराणाम्। म० १। सिराणाम्। सूक्ष्मशाखानाडीनाम्। अस्थुः। १।१६।१। स्थिता अभूवन् मध्यमाः। म० २। मध्यभवाः। साकम्। युगपत्। अन्ताः। अम गतौ−तन्। अन्तिमाः, अवशिष्टाः सर्वा नाड्यः। अरंसत। रमु क्रीडायाम्−लुङ्। यथापूर्वं रमन्ते स्म, चेष्टां कृतवत्यः ॥
०४ परि वः
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
परि॑ वः॒ सिक॑तावती ध॒नूर्बृ॑ह॒त्य॑क्रमीत्।
तिष्ठ॑ते॒लय॑ता॒ सु क॑म् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
परि॑ वः॒ सिक॑तावती ध॒नूर्बृ॑ह॒त्य॑क्रमीत्।
तिष्ठ॑ते॒लय॑ता॒ सु क॑म् ॥
०४ परि वः ...{Loading}...
Whitney
Translation
- About you hath gone (kram) a great gravelly sandbank (dhanū́);
stop [and] be quiet, I pray (sú kam).
Notes
The comm. sees in dhanū́ only the meaning “bow,” and interprets it
“bent like a bow”: namely, a vessel containing the urine; in sikatās
he sees an allusion to the menses, or to gravel in the bladder. Kāuś.
(26. 10) speaks of sprinkling on dust and gravel as a means of stanching
the flow of blood; more probably, as Weber first suggested, a bag filled
with sand was used: in neither case can the menses be had in view. Ppp.
reads siktāmayī bunū sthiraś carasthidam. The third pāda is identical
with RV. i. 191. 6 d; the comm. (as Sāyaņa to the latter) fails to
recognize the root il; and he renders it prerayata, as if root ir
were in question.
Griffith
A mighty rampart built of sand hath circled and encompassed you: Be still, and quietly take rest.
पदपाठः
परि॑। वः॒। सिक॑ताऽवती। ध॒नूः। बृ॒ह॒ती। अ॒क्र॒मी॒त्। तिष्ठ॑त। इ॒लय॑त। सु। क॒म्।
अधिमन्त्रम् (VC)
- मन्त्रोक्ता
- ब्रह्मा
- त्रिपादार्षी गायत्री
- रुधिरस्रावनिवर्तनधमनीबन्धन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
नाडीछेदन [फ़सद् खोलने] के दृष्टान्त से दुर्वासनाओं के नाश का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सिकतावती) सेचन स्वभाव [कोमल रखनेवाली] बालू आदि से भरी हुई (बृहती) बड़ी (धनूः) पट्टी ने (वः) तुम [नाड़ियों] को (परि अक्रमीत्) लपेट लिया है। (तिष्ठत) ठहर जाओ, (सु) अच्छे प्रकार (कम्) सुख से (इलयत) चलो ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - १−(धनूः) अर्थात् धनु चार हाथ परिमाण को कहते हैं। इसी प्रकार की पट्टी से जो सूक्ष्म चूर्ण बालू से वा बालू के समान राल आदि औषध से युक्त होवे, उससे चिकित्सक घाव को बाँध देवे, कि रक्त बहने से ठहर जाये और घाव पुरकर सब नाड़ियाँ यथानियम चलने लगें, मन प्रसन्न और शरीर पुष्ट हो। २−मनुष्य कुमार्गगामिनी मनोवृत्तियों को रोककर यत्नपूर्वक हानि पूरी करे और लाभ के साथ अपनी वृद्धि करे और आनन्द भोगे ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−वः। युष्मान्, नाडीः। सिकतावती। पृषिरञ्जिभ्यां कित्। उ० ३।१११। इति सिक सेचने-अतच् टाप्। सेचनवती, कोमलस्वभावयुक्ता। वालुयुक्ता। धनूः। कृषिचमितनिधनिसर्जिखर्जिभ्य ऊः स्त्रियाम्। उ० १।८०। इति धन धान्योत्पादने, रवे च-ऊ। धनुः=चतुर्हस्तपरिमाणम्। तत्परिमाणवस्त्रपट्टी। बृहती। वर्तमाने पृषद्बृहन्महज्जगच्छतृवच्च। उ० २।८४। इति बृह वृद्धौ−अति। ङीप्। महती। अक्रमीत्। क्रमु पादविक्षेपे−लुङ्। क्रान्तवती, व्याप्तवती। तिष्ठत। निवृत्तगतयो भवत। इलयत। इल गतौ। गच्छत, चेष्टध्वम्। कम्। सुखेन ॥