०१५ पुष्टिकर्म ...{Loading}...
Whitney subject
- With an oblation: for confluence of wealth.
VH anukramaṇī
पुष्टिकर्म।
१-४ अथर्वा। सिन्धवः,(वाताः, पतत्रिणः)। अनुष्टुप्, १-२ भुरिक्पथ्या पङ्क्तिः।
Whitney anukramaṇī
[Atharvan.—sāindhavam. ānuṣṭubham: 2. bhurikpathyāpan̄kti.]
Whitney
Comment
Found in Pāipp. i. (in the verse-order 1, 4, 3, 2). Used by Kāuś. only in a general rite for prosperity (19. 4), to accompany a douche for persons bringing water from two navigable streams and partaking of a dish of mixed grain; it is also reckoned (19. 1, note) to the puṣṭika mantras, or hymns bringing prosperity.
Translations
Translated: Weber, iv. 409; Ludwig, p. 371; Griffith, i. 19.
Griffith
A prayer for the prosperity of an institutor of sacrifice
०१ सं सम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
सं सं स्र॑वन्तु॒ सिन्ध॑वः॒ सं वाताः॒ सं प॑त॒त्रिणः॑।
इ॒मं य॒ज्ञं प्र॒दिवो॑ मे जुषन्तां संस्रा॒व्ये॑ण ह॒विषा॑ जुहोमि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
सं सं स्र॑वन्तु॒ सिन्ध॑वः॒ सं वाताः॒ सं प॑त॒त्रिणः॑।
इ॒मं य॒ज्ञं प्र॒दिवो॑ मे जुषन्तां संस्रा॒व्ये॑ण ह॒विषा॑ जुहोमि ॥
०१ सं सम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Together, together let the rivers flow, together the winds, together
the birds (patatrín); this my sacrifice let them enjoy of old; I offer
with a confluent (saṁsrāvyà) oblation.
Notes
The verse is nearly identical with xix. 1. 1, and in less degree with
ii. 26. 3. From xix. 1. 3 c it may be conjectured that we should
read pradíśas in c. ⌊If we do read pradívas, why not render it
by ‘continually’?⌋ Ppp. has not the second half-verse, but instead of it
vs. 3 c, d. For b Ppp. gives saṁ vātā divyā uta. The comm.
accents sáṁ-sam in a. There is perhaps some technical meaning in
saṁsrāvyà. ‘confluent’ or ‘for confluence’ which we do not appreciate,
but it is also unknown to the comm., who explains the word only
etymologically. The verse is an āstārapan̄kti (strictly virāj: 8 + 8:
11 + 11 = 38), and its definition as such is perhaps dropped out of the
Anukr. text (which reads ādyā dvitīyā bhurik etc.).
Griffith
Let the streams, flow together, let the winds and birds assembled come. Let this my sacrifice delight them always. I offer it with duly mixt oblation.
पदपाठः
सम्। सम्। स्र॒व॒न्तु॒। सिन्ध॑वः। सम्। वाताः॑। सम्। प॒त॒त्रिणः॑। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। प्र॒ऽदिवः॑। मे॒। जु॒ष॒न्ता॒म्। स॒म्ऽस्रा॒व्येण। ह॒विषा॑। जु॒हो॒मि॒।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सिन्धुसमूहः
- अथर्वा
- भुरिग्बृहती
- पुष्टिकर्म सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ऐश्वर्य की प्राप्ति का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सिन्धवः) सब समुद्र (सम् सम्) अत्यन्त अनुकूल (स्रवन्तु) बहें, (वाताः) विविध प्रकार के पवन और (पतत्रिणः) पक्षी (सम् सम्) बहुत अनुकूल बहैं। (प्रदिवः) बड़े तेजस्वी विद्वान् लोग (इमम्) इस (मे) मेरे (यज्ञम्) सत्कार को (जुषन्ताम्) स्वीकार करें, (संस्राव्येण) बहुत आर्द्रभाव [कोमलता] से भरी हुयी (हविषा) भक्ति के साथ [उनको] (जुहोमि) मैं स्वीकार करता हूँ ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को योग्य है कि नौका आदि से समुद्रयात्रा को, विमान आदि से वायुमण्डल में जाने आने के मार्गों को और यथायोग्य व्यवहार से पक्षी आदि सब जीवों को अनुकूल रक्खें और विज्ञानपूर्वक सब पदार्थों से उपकार लेवें और विद्वानों में पूर्ण प्रीति और श्रद्धा रक्खें, जिससे वह भी उत्साहपूर्वक वर्ताव करें ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−सम् सम्। अभ्यासे भूयांसमर्थं मन्यन्ते−निरु० १०।४२। अत्यन्त-सम्यक्, अत्यनुकूलाः। स्रवन्तु। स्रु गतौ, स्रवणे च-लोट्। गच्छन्तु, प्रवहन्तु। सिन्धवः। १।४।३। स्यन्दनशीलाः। समुद्राः। स्त्रियां, नद्यः। सम्=संस्रवन्तु। उपसर्गवशात् स्रवन्तु इति सर्वत्र अनुषज्यते। अनुकूलाः प्रवर्तन्ताम्। वाताः। १।११।६। विविधपवनाः। सम्। सम्यग् अनुकूलाश्चरन्तु। पतत्रिणः। पतत्रं पक्षः। अत इनिठनौ। पा० ५।२।११५। इति पतत्र−इनि मत्वर्थे। पक्षिणः। इमम्। प्रवर्तमानम्। यज्ञम्। १।९।४। यागं विदुषां पूजनम्। प्र-दिवः। प्र+दिवु द्युतिस्तुतिगत्यादिषु−क्विप्। प्रकृष्टप्रकाशाः, देवाः, विद्वांसः। जुषन्ताम्। जुषी प्रीतिसेवनयोः−लोट्। सेवन्ताम्, स्वीकुर्वन्तु। सम् स्राव्येण। स्रु गतौ-ण। तस्येदम्। पा० ४।३।१२०। इति संस्राव-यत्। यद्वा। अचो यत्। पा० ३।१।९७। इति सम्+स्रु-णिच्-यत्। संस्रावेण सम्यक् स्रवणेन आर्द्रभावेन युक्तेन। हविषा। १।४।३। आत्मदानेन, भक्त्या। जुहोमि। यु दानादानादनेषु-लट्। अहम् आददे, स्वीकरोमि तान् प्रदिवः ॥
०२ इहैव हवमा
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
इ॒हैव हव॒मा या॑त म इ॒ह सं॑स्रावणा उ॒तेमं व॑र्धयता गिरः।
इ॒हैतु॒ सर्वो॒ यः प॒शुर॒स्मिन्ति॑ष्ठतु॒ या र॒यिः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इ॒हैव हव॒मा या॑त म इ॒ह सं॑स्रावणा उ॒तेमं व॑र्धयता गिरः।
इ॒हैतु॒ सर्वो॒ यः प॒शुर॒स्मिन्ति॑ष्ठतु॒ या र॒यिः ॥
०२ इहैव हवमा ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Come straight hither to my call, hither ye confluents also; increase
this man, ye songs; let every beast (paśú) there is come hither; let
what wealth (rayí) there is stay (sthā) with him.
Notes
The pada-mss. all give yā́ḥ in e. Ppp. has in a, b idaṁ
havyā ttpetane ‘daṁ, and, for c, asya vardhayato rayim. The last
pāda is nearly RV. x. 19. 3 d. ⌊Render ‘with this man let’ etc.⌋ The
omission of evá in a would make the verse regular.
Griffith
Come to my call, Blent Offerings, come ye very nigh. And, singers, do ye strengthen and increase this man. Hither come every animal: with this man let all wealth abide.
पदपाठः
इ॒ह। ए॒व। हव॑म्। आ। या॒त॒। मे॒। इ॒ह। स॒मऽस्रा॒व॒णाः॒। उ॒त। इ॒म्। व॒र्ध॒य॒त॒। गि॒रः॒। इ॒ह। आ। ए॒तु॒। सर्वः॑। यः। प॒शुः। अ॒स्मिन्। ति॒ष्ठ॒तु॒। या। र॒यिः।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सिन्धुसमूहः
- अथर्वा
- पथ्यापङ्क्तिः
- पुष्टिकर्म सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ऐश्वर्य की प्राप्ति का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (संस्रावणाः) हे बहुत आर्द्रभाववाले [बड़े कोमलस्वभाव] (गिरः) स्तुतियोग्य विद्वानो ! (इह) यहाँ पर (एव) ही (मे) मेरे (हवम्) आवाहन को (आयात) तुम पहुँचो, (उत) और (इमम्) इस पुरुष को (वर्धयत) बढ़ाओ। (यः सर्वः पशुः) जो प्रत्येक जीव है, [वह] (इह) यहाँ (एतु) आवे और (या रयिः) जो लक्ष्मी है, [वह भी सब] (अस्मिन्) इस पुरुष में (तिष्ठतु) ठहरी रहे ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - विद्वान् लोग विद्या के बल से संसार की उन्नति करते हैं, इससे मनुष्य विद्वानों का सत्संग पाकर सदा अपनी वृद्धि करें और उपकारी जीवों और धन का उपार्जन पूर्ण शक्ति से करते रहें ॥२॥ टिप्पणी−पशु शब्द जीववाची है, अथर्ववेद का० २ सू० ३४ म० १ ॥ य ईशे॑ पशु॒पतिः॑ पशू॒नां चतु॑ष्पदामु॒त यो द्वि॒पदा॑म् ॥१॥ जो (पशुपतिः) जीवों का स्वामी चौपाये और जो दोपाये (पशूनाम्) जीवों का (ईशे=ईष्टे) राजा है ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−हवम्। भावेऽनुपसर्गस्य। पा० ३।३।७५। इति ह्वेञ् आह्वाने, स्पर्धे च-अप्। आह्वानम्, आवाहनम्। आ+यात। या गतौ-लोट्। आगच्छत। इह। नित्यवीप्सयोः। पा० ८।१।४। इति वीप्सायां इह शब्दस्य द्विर्वचनम्। अस्मिन्नेव यज्ञे। सम्-स्रावणाः। स्रु स्रवणे गतौ-णिचि-ल्युट्। युवोरनाकौ। पा० ७।१।१। इति अन आदेशः। अर्शआदिभ्योऽच्। पा० ५।२।१२७। इति मत्वर्थे अच्। हे संस्रावेण सम्यक् स्रवणेन, अत्यार्द्रभावेन युक्ताः। इमम्। उपस्थितं माम्। वर्धयत। वृधु वृद्धौ णिचि लोट्, छन्दसि दीर्घः। समर्धयत। गिरः। गृणातिः स्तुतिकर्मा−निरु० ३।५। अर्चतिकर्मा−निघ० ३।१४। गॄ शब्दे−कर्मणि क्विप्। गीर्यन्ते स्तूयन्त इति गिरः। हे अर्चनीयाः, स्तुत्याः पुरुषाः। आ+एतु। आगच्छतु। पशुः। अर्जिदृशिकम्यमि०। उ० १।२७। इति दृशिर् प्रेक्षणे−कु, पश्यादेशः। पशुः पश्यतेः−निरु० ३।१६। प्राणिमात्रम्, जीवः। अथवा। गवाश्वगजादिरूपः। अस्मिन्। मयि, मदीये आत्मनि। तिष्ठतु। निवसतु। रयिः। अच इः। उ० ४।१३९। इति रीङ् गतौ-इ प्रत्ययः। गुणः। यद्वा। रा दानग्रहणयोः−इ प्रत्ययः, युगागमो धातोर्ह्रस्वश्च। धनम् ॥२॥
०३ ये नदीनाम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ये न॒दीनां॑ सं॒स्रव॒न्त्युत्सा॑सः॒ सद॒मक्षि॑ताः।
तेभि॑र्मे॒ सर्वैः॑ संस्रा॒वैर्धनं॒ सं स्रा॑वयामसि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
ये न॒दीनां॑ सं॒स्रव॒न्त्युत्सा॑सः॒ सद॒मक्षि॑ताः।
तेभि॑र्मे॒ सर्वैः॑ संस्रा॒वैर्धनं॒ सं स्रा॑वयामसि ॥
०३ ये नदीनाम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- What fountains of the streams flow together, ever unexhausted, with
all those confluences we make riches (dhána) flow together for me.
Notes
Ppp. has in a, b ye nadībhyas saṁsravanty ucchāmas saram akṣikā.
The comm. gives the verse twice, each time with a separate explanation.
Griffith
All river founts that blend their streams for ever inexhaustible– With all these confluent streams of mine we make abundant riches flow.
पदपाठः
ये। न॒दीना॑म्। स॒म्ऽस्रव॑न्ति। उत्सा॑स ः। सद॑म्। अक्षि॑ताः। तेर्भिः॑। मे॒। सर्वैः॑। स॒म्ऽस्रा॒वैः। धन॑म्। सम्। स्रा॒व॒या॒म॒सि॒।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सिन्धुसमूहः
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- पुष्टिकर्म सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ऐश्वर्य की प्राप्ति का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (नदीनाम्) नाद करनेवाली नदियों के (ये) जो (अक्षिताः) अक्षय (उत्सासः) स्रोते (सदम्) सर्वदा (संस्रवन्ति) मिलकर बहते हैं। (तेभिः सर्वैः) उन सब (संस्रावैः) जलप्रवाहों के साथ (मे) अपने (धनम्) धनको (सम्) उत्तम रीति से (स्रावयामसि) हम व्यय करें ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे पर्वतों पर जल के सोते मिलने से वेगवती और उपकारिणी नदिएँ बनती हैं, जो ग्रीष्मऋतु में भी नहीं सूखतीं, इसी प्रकार हम सब मिलकर विज्ञान और उत्साहपूर्वक तडित्, अग्नि, वायु, सूर्य, जल, पृथिवी आदि पदार्थों से उपकार लेकर अक्षय धन बढ़ावें और उसे उत्तम कर्मों में व्यय करें ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−नदीनाम्। १।८।१। नदनशीलानां सरिताम्, सरस्वतीनाम्। सम्-स्रवन्ति। सम्भूय प्रवहन्ति। उत्सासः। उन्दिगुधिकुषिभ्यश्च। उ० ३।६८। इति उन्दी क्लेदे−स प्रत्ययः। आज्जसेरसुक्। पा० ७।१।५०। इति जसि असुक् आगमः। उत्सः कूपनाम−निघ० ३।२३। जलस्रवणस्थानानि, स्रोतांसि। सदम्। सर्वदा, ग्रीष्मादावपि। अक्षिप्ताः। क्षि क्षये-क्त। अक्षीणाः। तेभिः। बहुलं छन्दसि। पा० ७।१।१०। इति भिस ऐस्भावः। तैः। मे। मम=अस्माकम्। एकवचनं बहुवचने। सम्-स्रावैः। श्याऽऽद्व्यधास्रुसंस्रवतीण०। पा० ३।१।१४१। इति सम्+स्रु स्रवणे-ण प्रत्ययः। अचो ञ्णिति। पा० ७।२।११५। इति वृद्धिः। प्रवाहैः। धनम्। धन धान्ये−अच् यद्वा, कृपॄवृजिमन्दिनिधाञः क्युः। उ० २।८१। इति डुधाञ् धारणपोषणयोः क्यु। वित्तम्, सम्पदम्। स्रावयामसि। स्रु स्रवणे−णिचि लट्, इदन्तो मसि। पा० ७।१।४६। इति मस इदन्तता। स्रावयामः, प्रवाहयामः, व्ययं कुर्मः ॥
०४ ये सर्पिषः
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ये स॒र्पिषः॑ सं॒स्रव॑न्ति क्षी॒रस्य॑ चोद॒कस्य॑ च।
तेभि॑र्मे॒ सर्वैः॑ संस्रा॒वैर्धनं॒ सं स्रा॑वयामसि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
ये स॒र्पिषः॑ सं॒स्रव॑न्ति क्षी॒रस्य॑ चोद॒कस्य॑ च।
तेभि॑र्मे॒ सर्वैः॑ संस्रा॒वैर्धनं॒ सं स्रा॑वयामसि ॥
०४ ये सर्पिषः ...{Loading}...
Whitney
Translation
- What [fountains] of butter (sarpís) flow together, and of milk,
and of water, with all those confluences we make riches flow together
for me.
Notes
Ppp. reads saṁsrāvās for sarpiṣas in a. The comm. supphes first
avayavās as omitted subject in the verse, but afterwards utsāsas
from vs. 3, which is of course right.
Griffith
All streams of melted butter, and all streams of water and of milk With all these confluent streams of mine we make abundant riches flow.
पदपाठः
ये। स॒र्पिषः॑। स॒म्ऽस्रव॑न्ति। क्षी॒रस्य॑। च॒। उ॒द॒कस्य॑। च॒। तेर्भिः॑। मे॒। सर्वैः॑। स॒म्ऽस्रा॒वैः। धन॑म्। सम्। स्रा॒व॒या॒म॒सि॒।
अधिमन्त्रम् (VC)
- सिन्धुसमूहः
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- पुष्टिकर्म सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
ऐश्वर्य की प्राप्ति का उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सर्पिषः) घृत की (च) और (क्षीरस्य) दूध की (च) और (उदकस्य) जल की (ये) जो धाराएँ (संस्रवन्ति) मिलकर बह चलती हैं। (तैः सर्वैः) उन सब (संस्रावैः) धाराओं के साथ (मे) अपने (धनम्) धनको (सम्) उत्तम रीति से (स्रावयामसि) हम व्यय करें ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे घी, दूध और जल की बूँद-बूँद मिलकर धारें बँध जाती और उपकारी होती हैं, इसी प्रकार हम लोग उद्योग करके थोड़ा-थोड़ा संचय करने से बहुत सा विद्या, धन और सुवर्ण आदि धन प्राप्त करके उत्तम कामों में व्यय करें ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−ये। संस्रावाः प्रवाहाः। सर्पिषः। अर्चिशुचिहुसृपि०। उ० २।१०८। इति सृप गतौ=सर्पणे-इसि। सर्पणशीलस्य द्रवणस्वभावस्य घृतस्य। क्षीरस्य-घसेः किच्च। उ० ४।३४। इति घस=अद भक्षणे−ईरन्, उपधालोपे कत्वं षत्वं च। दुग्धस्य। उदकस्य−उदकं च। उ० २।३९। इति उन्दी क्लेदने−क्वुन्, युवोरनाकौ। पा० ७।१।१। इति अकादेशः। जलस्य। अन्यद् व्याख्यातं म० ॥४॥