०१४ कुलपा कन्या

०१४ कुलपा कन्या ...{Loading}...

Whitney subject
  1. Imprecation of spinsterhood on a woman.
VH anukramaṇī

कुलपा कन्या
१-४ भृग्वङ्गिराः ।(वरुणो), यमो (वा)। अनुष्टुप्, १ ककुम्मती अनुष्टुप्, ३ चतुष्पाद्विराट्।

Whitney anukramaṇī

[Bhṛgvān̄giras.—vāruṇam vo ’ta yāmyaṁ vā. ānuṣṭubham: 1. kakummatī; 3. 4-p. virāj.]

Whitney

Comment

Found in Pāipp. i. Used by Kāuś. (36. 15-18) in an incantation against a woman; the details of it cast no light on those of the hymn; and the comm. defines its purpose simply as striyāḥ puruṣasya vā dāurbhāgyakaraṇam.

Translations

Translated: Weber, iv. 408; Ludwig, p. 459; Zimmer, p. 314 (these misapprehend its character); Griffith, i. 17; Bloomfield, JAOS. xiii. p. cxv = PAOS. May, 1886; or AJP. vii. 473 ff.; or SBE. xlii. 107, 252.

Griffith

A woman’s incantation against a rival

०१ भगमस्या वर्च

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

भग॑मस्या॒ वर्च॒ आदि॒ष्यधि॑ वृ॒क्षादि॑व॒ स्रज॑म्।
म॒हाबु॑ध्न इव॒ पर्व॑तो॒ ज्योक्पि॒तृष्वा॑स्ताम् ॥

०१ भगमस्या वर्च ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Her portion (bhága), splendor have I taken to myself, as from off a
    tree a garland; like a mountain with great base, let her sit long with
    the Fathers.
Notes

Ppp. has for a ahaṁ te bhagam ā dade; its b is defaced; in
c it gives mahāmūlāi ‘va. The comm. renders bhagam by bhāgyam,
here and in the other verse, recognizing no sexual meaning. Pitṛṣu he
renders “in the later [2 c, d] to be specified houses of father,
mother, etc.,” and all the translators understand it in the same way;
but it is questionable whether the plural of pitar would ever be used
in this sense; and the repeated mention of Yama later indicates that
there was at least a double meaning in the expression. Perhaps a girl
remaining unmarried was called “bride of Yama,” i.e. as good as dead,
and her stay at home compared to that in the other world. ⌊Cf. Antigone,
816, “I shall be the bride of Acheron,” Ἀχέροντι νυμφεύσω.⌋ The Anukr.
appears to ratify the abbreviated reading -budhne ‘va in c; it
counts six syllables in d.

Griffith

As from the tree a wreath, have I assumed her fortune and her fame: Among her kinsfolk long may she dwell, like a mountain broadly- based.

पदपाठः

भग॑म्। अ॒स्याः॒। वर्चः॑। आ। अ॒दि॒षि॒। अधि॑। वृ॒क्षात्ऽइ॑व। स्रज॑म्। म॒हाबु॑ध्नःऽइव। ‌पर्व॑तः। ज्योक्। पि॒तृषु॑। आ॒स्ता॒म्।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • वरुणो अथवा यमः
  • भृग्वङ्गिराः
  • ककुम्मत्यनुष्टुप्
  • कुलपाकन्या सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विवाहसंस्कार का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्याः) इस [वधू] से (भगम्) [अपने] ऐश्वर्य को और (वर्चः) तेज को (आ अदिषि) मैंने माना है, (इव) जैसे (वृक्षात् अधि) वृक्ष से (स्रजम्) फूलों की माला को। (महाबुध्नः) विशाल जड़वाले (पर्वतः इव) पर्वत के समान [यह वधू] (पितृषु) [मेरे] माता-पिता आदि बान्धवों में (ज्योक्) बहुत काल तक (आस्ताम्) रहे ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - यह वर का वचन है। विद्वान् पुरुष खोज कर अपने समान गुणवती स्त्री से विवाह करके संसार में ऐश्वर्य और शोभा पाता है, जैसे वृक्ष के सुन्दर फूलों से शोभा होती है। वधू अपने सास ससुर आदि माननीयों की सेवा और शिक्षा से दृढ़चित्त होकर घर के कामों का सुप्रबन्ध करके गृहलक्ष्मी की पक्की नेव जमावे और पति पुत्र आदि कुटुम्बियों में बड़ी आयु भोग कर आनन्द करे ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−भगम्। पुंसि संज्ञायां घः प्रायेण। पा० ३।३।११८। इति भज सेवायाम्−घ प्रत्ययः। चजोः कु घिण्ण्यतोः। पा० ७।३।५२। इति घत्वम्। भगः। धननाम निघ० २।१०। श्रियम्, ऐश्वर्यम् कीर्त्तिम्। अस्याः। नवोढायाः स्त्रियाः सकाशात्। वर्चः। १।९।४। रूपम्। तेजः। आ+अदिषि। आङ् पूर्वकात् डुदाञ् आदाने-लुङ्। आङो दोऽनास्यविहरणे। पा० १।३।२०। इति आत्मनेपदम्। अहं गृहीतवान् प्राप्तवानस्मि। अधि। पञ्चम्यर्थानुवादी। उपरि। वृक्षात् इव। १।२।३। इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा० ३।१।१३५। इति वृक्ष वरणे-क। वृक्ष्यते व्रियते सेव्यते छायाफलार्थम्। विटपाद् यथा। स्रजम्। ऋत्विग्दधृक्स्रग्दिगुष्णिक्०। पा० ३।२।५९। इति सृज विसर्गे−क्विन्। सृजति ददाति शोभामिति स्रक्। पुष्पमालाम्। महाबुध्नः। बन्धेर्ब्रधिबुधी च। उ० ३।५। इति बन्ध बन्धने−नक्, बुधादेशश्च। विशालमूलः, दृढमूलः। पर्वतः। १।१२।३। शैलः। भूधरः। ज्योक्। १।६।३। चिरकालम्। पितृषु। १।२।१। रक्षकेषु। जनकवत् मान्येषु, मातापित्रादिषु बन्धुषु। आस्ताम्। आस उपवेशने−लोट्। तिष्ठतु। निवसतु ॥१॥

०२ एषा ते

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

ए॒षा ते॑ राजन्क॒न्या॑ व॒धूर्नि धू॑यतां यम।
सा मा॒तुर्ब॑ध्यतां गृ॒हे ऽथो॒ भ्रातु॒रथो॑ पि॒तुः ॥

०२ एषा ते ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Let this girl, O king, be shaken down to thee [as] bride, O Yama;
    be she bound in her mother’s house, also in her brother’s, also in her
    father’s.
Notes

Ppp. has yat for eṣā at the beginning. The comm. foolishly
interprets rājan as indicating Soma, because Soma is first husband of
a bride (he quotes RV. x. 85. 40: cf. AV. xiv. 2. 3 ff.), and takes
yama as his epithet, as being her constrainer (niyāmaka). For
ni-dhū compare iii. 11. 7; at TS. v. 2. 53 it is used with pitṛṣu.
⌊Does not ni-dhū covertly suggest nidhuvana, which, in its obscene
sense, may be as old as the Veda?⌋

Griffith

King Yama, let this maiden be surrendered as a wife to thee: Bound let her be meanwhile within, her mother’s, brother’s, father’s house.

पदपाठः

ए॒षा। ते॒। रा॒ज॒न्। क॒न्या। व॒धूः। नि। धू॒य॒ता॒म्। य॒म॒। सा। मा॒तुः। व॒ध्य॒ता॒म्। गृ॒हे। अथो॒ इति॑। भ्रातुः॑। अथो॒ इति॑। पि॒तुः ‌।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • वरुणो अथवा यमः
  • भृग्वङ्गिराः
  • अनुष्टुप्
  • कुलपाकन्या सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विवाहसंस्कार का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यम) हे नियम में चलानेवाले, वर (राजन्) राजा ! (एषा) यह (कन्या) कामनायोग्य कन्या (ते) तेरी (वधूः) वधू (नि) नियम से (धूयताम्) व्यवहार करे। (सा) वह (मातुः) [तेरी] माता के, (अथो) और भी (पितुः) पिता के (अथो) और (भ्रातुः) भ्राता के साथ (गृहे) घर में (बध्यताम्) नियम से बन्धी रहे ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - मन्त्र २-४ वधू पक्ष के वचन हैं। वधू के माता-पिता आदि वर से कहें कि यह सुशिक्षिता गुणवती कन्या आप को सौंपी जाती है यह आप के माता, पिता और भ्राता आदि सब कुटुम्बियों में रहकर अपने सुप्रबन्ध से सबको प्रसन्न रक्खे और सुख भोगे ॥२॥ मनुजी महाराज ने कहा है−मनुस्मृति अ० २ श्लो० २४०॥ स्त्रियो रत्नान्यथो विद्या धर्मः शौचं सुभाषितम्। विविधानि च शिल्पानि समादेयानि सर्वतः ॥१॥ स्तुतियोग्य स्त्रियाँ, रत्न, विद्या, धर्म, शुद्धता और मीठी बोली और अनेक प्रकार की हस्तक्रियाएँ सबसे यत्नपूर्वक लेना चाहिएँ ॥ बालया वा युवत्या वा वृद्धया वापि योषिता। न स्वातन्त्र्येण कर्तव्यं किंचित् कार्यं गृहेष्वपि ॥१॥ म० ५।१४७॥ चाहे स्त्री बालक वा युवती वा बूढ़ी हो, वह स्वतन्त्रता से कोई काम घरों में भी न करे ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−राजन्। १।१०।१। हे ऐश्वर्यवन् जामातः। कन्या। अघ्न्यादयश्च। उ० ४।११२। इति कन प्रीतौ, द्युतौ, गतौ−यक्, टाप् च। कन्यते काम्यते दीप्यते गच्छति वा सा। कमनीया। पुत्री। वधूः। वहेर्धश्च। उ० १।८३। वह प्रापणे-ऊ प्रत्ययः, धश्च। वहति प्रापयति सुखानीति। यद्वा। बन्ध-ऊ, न लोपः। बध्नाति प्रेम्णा या नवोढा स्त्री, भार्या। नि। नितराम्, नियमेन। धूयताम्। धूञ् कम्पने−कर्मणि लोट्। चेष्टताम्, गृहकार्येषु प्रवर्तताम्। यम। यम नियमने−अच्। यमयति नियमयति गृहकार्याणीति। यमो यच्छतीति। सन्तः, मध्यस्थानदेवतासु−निरु० १०।१९। द्युस्थानः−निरु०, १२।१०, ११। वायुः, सूर्यः। हे नियामक वर ! मातुः। १।२।१। तव जनन्याः। बध्यताम्। बन्ध बन्धने कर्मणि लोट्। प्रेमबद्धा भवतु। गृहे। गेहे कः। पा० ३।१।१४४। इति ग्रह आदाने-क। वासस्थाने, भवने, मन्दिरे। अथो। अथ+उ। अपि च। भ्रातुः। नप्तृनेष्टॄत्वष्टृहोतृ०। उ० २।९५। इति भ्राज दीप्तौ−तृन्। सहोदरस्य। पितुः। म० १। जनकस्य ॥२॥

०३ एषा ते

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

ए॒षा ते॑ कुल॒पा रा॑ज॒न्तामु॑ ते॒ परि॑ दद्मसि।
ज्योक्पि॒तृष्वा॑साता॒ आ शी॒र्ष्णः स॒मोप्या॑त् ॥

०३ एषा ते ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. She is thy housekeeper, O king; we commit her to thee; she shall sit
    long with the Fathers, until the covering in of her head.
Notes

The translation of d implies the obvious emendation to samopyāt,
which SPP. even admits into his text, on the authority of the comm., but
against every known ms.; Ppp., however, gives samopyā. The comm.
explains it by saṁvapanāt bhūmāu sampatanāt, and as equivalent to
maraņaparyantam ’till death’; that this last is the virtual sense is
extremely probable. That vap has not the sense ‘shave’ in the compound
(cf. AśS. vi. 10. 2) is shown by the inappropriateness of the prefixes
sam + ā to that sense, and the frequency of the combination in the
other sense. ⌊See Bloomfield, 255, ā́ śīrṣṇáḥ kéśam ópiāt, ’till she
shed the hair from her head.’⌋ Ppp. has further imām u pari dadhmasi
in b. The comm. gives kulapā (for -pās: our pada-text
kula॰pā́ḥ) in a. The resolution śīr-ṣṇ-aḥ in d would make the
verse a full anuṣṭubh; the Anukr. counts only 14 syllables in the
second half.

Griffith

Queen of thy race is she, O King: to thee do we deliver her. Long with her kinsfolk may she sit, until her hair be white with age.

पदपाठः

ए॒षा। ते॒। कु॒ल॒ऽपाः। रा॒ज॒न्। ताम्। ऊं॒ इति॑। ते॒। परि॑। द॒द्म॒सि॒। ज्योक्। पि॒तृषु॑। आ॒सा॒तै॒। आ। शी॒र्ष्णः। सॅं॒म्ऽओप्या॑त्।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • वरुणो अथवा यमः
  • भृग्वङ्गिराः
  • चतुष्पाद्विराडनुष्टुप्
  • कुलपाकन्या सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विवाहसंस्कार का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (राजन्) हे वर राजा (एषा) यह कन्या (ते) तेरे (कुलपाः) कुल की रक्षा करनेहारी है, (ताम्) उसको (उ) ही (ते) तेरे लिये (परि) आदर से (दद्मसि) हम दान करते हैं। यह (ज्योक्) बहुत काल तक (पितृषु) तेरे माता-पिता आदिकों में (आसातै) निवास करे और (आशीर्ष्णः) अपने मस्तक तक [जीवनपर्यन्त वा बुद्धि की पहुँच तक] (समोप्यात्) ठीक-ठीक बढ़ती का बीज बोवे ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - फिर वधूपक्षवाले माता-पिता आदि इस मन्त्र से जामाता की विनती करते और स्त्री-धर्म का उपदेश करते हुए कन्यादान करके गृहाश्रम में प्रविष्ट कराते हैं ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−कुलपाः। कुल+पा रक्षणे−कर्मण्युपपदे विच् प्रत्ययः। पातिव्रत्येन कुलस्य पालयित्री रक्षयित्री। राजन्। हे ऐश्वर्यवन् जामातः। ऊँ इति। अवश्यम्। परि+दद्मसि। इदन्तो मसिः। पा० ७।१।४६। इति मस इदन्तत्वम्। रक्षणार्थं दानं परिदानम्। रक्षणार्थं दद्मः, समर्पयामः। ज्योक्। म० १। दीर्घकालम्। पितृषु। म० १। मातापित्रादिबन्धुषु। आसातै। आस उपवेशने−लेटि आडागमः। टेः एत्वे। वैतोऽन्यत्र। पा० ३।४।९६। इति ऐकारः। आस्ताम्, निवसतु। आ-शीर्ष्णः। १।७।७। आङ् मर्यादावचने। पा० १।४।८९। इति आङः कर्मप्रवचनीयसंज्ञा। पञ्चम्यपाङ्परिभिः। पा० २।३।१०। इति पञ्चमी। शीर्षंश्छन्दसि। पा० ६।१।६०। इति शिरः शब्दस्य शीर्षन् आदेशः। मस्तकस्थितिपर्यन्तं, जीवनपर्य्यन्तम्। सम्-ओप्यात्=सम्+आ+उप्यात्। वप बीजवपने मुण्डने च-आशीर्लिङ्। यथामर्यादं बीजवपनं वर्धनं कुर्य्यात् ॥३॥

०४ असितस्य ते

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असि॑तस्य ते॒ ब्रह्म॑णा क॒श्यप॑स्य॒ गय॑स्य च।
अ॑न्तःको॒शमि॑व जा॒मयो ऽपि॑ नह्यामि ते॒ भग॑म्।

४।

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Whitney
Translation
  1. With the incantation (bráman) of Asita, of Kaśyapa, and of Gaya, I
    shut up (api-nah) thy portion (vulva?), as sisters do what is within
    a box (-kóśa).
Notes

⌊For the names, see Bloomfield, 255, and AJP. xvii. 403.⌋ Bhaga
perhaps has here a double meaning. Three of our mss. (E.I.H.) with one
or two of SPP’s, read in c antaṣkośám, against Prāt. ii. 62, which
expressly prescribes . The comm. treats antaḥ and kośam as two
independent words; antáḥ kóśe would be a not unacceptable emendation.
The Anukr. appears to sanction the abbreviation -kośaṁ ‘va.

Griffith

With Asita’s and Kasyapa’s and Gaya’s incantation, thus As sisters pack within a chest, I bind and tie thy fortune up.

पदपाठः

असि॑तस्य। ते॒। ब्रह्म॑णा। क॒श्यप॑स्य। गय॑स्य। च॒। अ॒न्‍तः॒को॒शम्ऽइ॑व। जा॒मयः॑। अपि॑। न॒ह्या॒मि॒। ते॒। भग॑म्।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • वरुणो अथवा यमः
  • भृग्वङ्गिराः
  • अनुष्टुप्
  • कुलपाकन्या सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

विवाहसंस्कार का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (असितस्य) जो तू बन्धनरहित, (कश्यपस्य) [सोम] रस पीनेहारा, (च) और (गयस्य) कीर्तन के योग्य है, उस (ते) तेरे (ब्रह्मणा) वेदज्ञान के कारण (ते) तेरे लिये (भगम्) ऐश्वर्य को (अपि) अवश्य (नह्यामि) मैं बाँधता हूँ। (इव) जैसे (जामयः) कुलस्त्रियाँ [वा बहिनें] (अन्तः कोशम्) मञ्जूषा वा पिटारे को [बाँधती] हैं ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - इस मन्त्र के अनुसार वधू पक्षवाले पुरुष और स्त्रियाँ विनती करके श्रेष्ठ वर और कन्या को धन, भूषण और वस्त्र आदि से सत्कार के साथ विदा करें ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−असितस्य। अञ्चिघृसिभ्यः क्तः। उ० ३।८९। इति षिञ् बन्धने-क्त, नञ्समासः। अबद्धस्य, मुक्तस्य। ब्रह्मणा। १।८।४। वेदज्ञानकारणेन। कश्यपस्य। कश शब्दे−बाहुलकात् करणे-यत्। कशति अनेनेति कश्यं सुखकरो रसः। कश्य+पा पाने-क। कश्यं सोमरसं पिबतीति कश्यपः। सोमपानशीलस्य। गयस्य। गै गाने-घञ्, पृषोदरादित्वात् ह्रस्वः। गेयस्य कीर्तनीयस्य। अन्तः कोशम्−कुश संश्लेषणे−अधिकरणे घञ्। वस्त्रादिधारणाय आवरणम्, मञ्जूषाम्। जामयः। १।४।१। कुलस्त्रियः, माताभगिन्यादयः। अपि। अवधारणे, अवश्यम्। नह्यामि। णह बन्धने-श्यन्। बध्नामि। भगम्। म० १। ऐश्वर्यम् ॥४॥