०१२ यक्ष्मनाशनम्

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Whitney subject
  1. Against various ailments (as results of lightning?).
VH anukramaṇī

यक्ष्मनाशनम्।
१-४ भृग्वङ्गिराः। यक्ष्मनाशनम्। जगती(त्रिष्टुप्), ४ अनुष्टुप्।

Whitney anukramaṇī

[Bhṛgvan̄giras.—yakṣmanāśanadevatākam. jāgatam: 4. anuṣṭubh.]

Whitney

Comment

The translation implies emendation in b to vātābhrajás or -jā́s, as suggested by 3 c; it is proposed by Weber, and adopted by Bloomfield, being a fairly plausible way of getting out of a decided difficulty. Weber renders, however, “with glowing wind-breath”; R., “with scorching wind” (emending to -bhrajjās). The comm. reads vātavrajās (a couple of SPP’s mss., which usually follow him, do the same), and explains it as “going swiftly like the wind,” or, alternatively, “having a collection of winds.” The ‘bull’ is to him the sun, and he forces this interpretation through the whole hymn. Neither he nor Kāuś. nor the latter’s scholia see anywhere any intimation of lightning; yet this is perhaps most plausibly to be suspected in the obscurities of the expression (so R. also). The first words in a are viewed as signifying ‘just escaped from its fœtal envelop (in the cloud).’ Ppp. is wholly defaced in the second half-verse; in the first it offers no variants, merely combining -jaṣ prath- in a, and reading -bhraja st- in b. Emendation in d to yásyāí’ kam would improve both meter and sense. Tredhā́ in d must be read as three syllables (as in RV.) to make the verse a full jagatī. ⌊At OB. vi. 59 b, vā́ta-dhrajās is suggested—by R.?⌋

Griffith

A prayer to Lightning, against fever, headache, and cough

०१ जरायुजः प्रथम

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

ज॑रायु॒जः प्र॑थ॒म उ॒स्रियो॒ वृषा॑ वातभ्र॒जा स्त॒नय॑न्नेति वृ॒ष्ट्या।
स नो॑ मृडाति त॒न्व॑ ऋजु॒गो रु॒जन्य एक॒मोज॑स्त्रे॒धा वि॑चक्र॒मे ॥

०१ जरायुजः प्रथम ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. First born of the afterbirth, the ruddy (usríya) bull, born of wind
    and cloud (?), goes thundering with rain; may he be merciful to our
    body, going straight on, breaking; he who, one force, hath stridden out
    threefold.
Notes

The translation implies emendation in b to vātābhrajás or -jā́s,
as suggested by 3 c; it is proposed by Weber, and adopted by
Bloomfield, being a fairly plausible way of getting out of a decided
difficulty. Weber renders, however, “with glowing wind-breath”; R.,
“with scorching wind” (emending to -bhrajjās). The comm. reads
vātavrajās (a couple of SPP’s mss., which usually follow him, do the
same), and explains it as “going swiftly like the wind,” or,
alternatively, “having a collection of winds.” The ‘bull’ is to him the
sun, and he forces this interpretation through the whole hymn. Neither
he nor Kāuś. nor the latter’s scholia see anywhere any intimation of
lightning; yet this is perhaps most plausibly to be suspected in the
obscurities of the expression (so R. also). The first words in a are
viewed as signifying ‘just escaped from its fœtal envelop (in the
cloud).’ Ppp. is wholly defaced in the second half-verse; in the first
it offers no variants, merely combining -jaṣ prath- in a, and
reading -bhraja st- in b. Emendation in d to yásyāí’ kam
would improve both meter and sense. Tredhā́ in d must be read as
three syllables (as in RV.) to make the verse a full jagatī. ⌊At OB.
vi. 59 b, vā́ta-dhrajās is suggested—by R.?⌋

Griffith

Born from the womb, brought forth from wind and from the cloud, the first red bull comes onward thundering with the rain. Our bodies may he spare who, cleaving, goes straight on; he who, a single force, divides himself in three.

पदपाठः

ज॒रा॒यु॒ऽजः। प्र॒थ॒मः। उ॒स्रियः॑। वृषा॑। वात॑ऽभ्रजाः। स्त॒नय॑न्। ए॒ति॒। वृ॒ष्ट्या। सः। नः॒। मृ॒डा॒ति॒। त॒न्वे। ऋ॒जु॒ऽगः। रु॒जन्। यः। एक॑म्। ओजः॑। त्रे॒धा। वि॒ऽच॒क्र॒मे।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • यक्ष्मनाशनम्
  • भृग्वङ्गिराः
  • जगती
  • यक्ष्मनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

ईश्वर के गुण।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (जरायुजः) झिल्ली से [जरायुरूप प्रकृति से] उत्पन्न करनेवाला, (प्रथमः) पहले से वर्तमान, (उस्रियः) प्रकाशवान् [हिरण्यगर्भनाम], (वातभ्रजाः) पवन के साथ पाकशक्ति वा तेज देनेवाला, (वृषा) मेघरूप परमेश्वर (स्तनयन्) गरजता हुआ (वृष्ट्या) बरसा के साथ (एति) चलता रहता है। (सः) वह (ऋजुगः) सरलगामी (रुजन्) [दोषों को] मिटाता हुआ, (नः) हमारे (तन्वे) शरीर के लिये (मृडाति) सुख देवे, (यः) जिस (एकम्) अकेले (ओजः) सामर्थ्य ने (त्रेधा) तीन प्रकार से (विचक्रमे) सब ओर को पद बढ़ाया था ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जैसे माता के गर्भ से जरायु में लिपटा हुआ बालक उत्पन्न होता है, वैसे ही (उस्रियः) प्रकाशवान् हिरण्यगर्भ और मेघरूप परमेश्वर (वातभ्रजाः) सृष्टि में प्राण डालकर पाचनशक्ति और तेज देता हुआ सब संसार को प्रलय के पीछे प्रकृति, स्वभाव, वा सामर्थ्य से उत्पन्न करता है, वही त्रिकालज्ञ और त्रिलोकीनाथ आदि कारण जगदीश्वर हमें सदा आनन्द देवे ॥१॥ यजुर्वेद में इस प्रकार वर्णन है−य० १३।४ ॥ हि॒र॒ण्य॒ग॒र्भः सम॑वर्त॒ताग्रे॑ भू॒तस्य॑ जा॒तः पति॒रेक॑ आसीत्। स दा॑धार पृथि॒वीं द्यामु॒तेमां कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥ (हिरण्यगर्भः) तेजों का आधार परमेश्वर पहिले ही पहिले नियमपूर्वक वर्तमान था, वह संसार का प्रसिद्ध एक स्वामी था। उसने इस पृथिवी और प्रकाश को धारण किया था, हम सब उस प्रकाशमय प्रजापति परमेश्वर की भक्ति से सेवा किया करें ॥ और भी देखो ऋ० १।२२।१७। इ॒दं विष्णु॒र्विच॑क्रमे त्रे॒धा निद॑धे प॒दम्। समू॑ढमस्य पांसुरे ॥ (विष्णु) व्यापक परमेश्वर ने इस [जगत्] में अनेक-अनेक प्रकार से पग को बढ़ाया, उसने अपने विचारने योग्य पद को तीन प्रकार से परमाणुओं से युक्त [संसार] में जमाया ॥ सायणभाष्य में (वातभ्रजाः) के स्थान में (वातव्रजाः) शब्द और अर्थवायुसमान शीघ्रगामी है ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−जरायुजः। पञ्चम्यामजातौ। पा० ३।२।९८। इति जरायु+जन जननप्रादुर्भावयोः−ड। जरायोः प्रकृतिरूपाद् गर्भाशयाज्जनयति उत्पादयति सः। जरायुरूपायाः प्रकृतेः सृष्टिजनयिता। प्रथमः। प्रथेरमच्। उ० ५।६८। इति, प्रथ ख्यातौ−अमच्। आदिमः, जगतः पूर्वं वर्तमानः। उस्रियः। स्फायितञ्चि०। उ० २।१३। इति वस निवासे−रक्। वसत्येषु सूर्यादिपरतेजः, वसन्त्येषु रसा इति उस्राः किरणाः, ततो मत्वर्थीयो घः। रश्मिवान्, हिरण्यगर्भः। परमेश्वरः। वृषा। कनिन् युवृषितक्षि० उ० १।१५६। इति वृषु सेचने, प्रजनैश्वर्ययोः−कनिन्। नित्वाद् आद्युदात्तः। वर्षकः। ऐश्वर्यवान्। इन्द्रः, सूर्यः, मेघः। तद्वद् वर्तमानः। वातभ्रजाः। वात+भ्रस्ज-पाके वा भ्राज दीप्तौ-असुन्। वातेन सह पाकः, दीप्तिस्तेजो वा यस्य स वातभ्रजाः। स्तनयन्। स्तन देवशब्दे, चुरादिः-, शतृ। गर्जयन्। एति। गच्छति। वृष्ट्या। वृषु सेचने-क्तिन्। वर्षणेन। मृडाति। मृड सुखने-लेट्, आडागमः। सुखयेत्। तन्वे। १।१।१। स्वरितश्च। शरीराय। ऋजुगः। ऋजु+गम्लृ-ड। सरलगामी। रुजन्। रुजो भङ्गे, तुदादिः−शतृ। भञ्जन्, दोषान् निवारयन्। एकम्। इण् भीकापा०। उ० ३।४३। इति इण् गतौ-कन्। एति सर्वं व्याप्नोतीति एकः। मुख्यम्, केवलम्। ओजः। उब्जेर्बले बलोपश्च। उ० ४।१९२। इति उब्ज आर्जवे−असुन्। बलम्, तेजः। त्रेधा। संख्याया विधार्थे धा। पा० ५।३।४२। त्रिप्रकारेण, भूतवर्तमानभविष्यति वर्तमानत्वेन, त्रिलोक्यां व्यापनेन। वि-चक्रमे। क्रमु पादविक्षेपे-लिट्, वेः पादविहरणे। पा० १।३।४१। इति आत्मनेपदम्। विविधम् आक्रान्तवान् ॥

०२ अङ्गेअङ्गे शोचिषा

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

अङ्गेअ॑ङ्गे शो॒चिषा॑ शिश्रिया॒णं न॑म॒स्यन्त॑स्त्वा ह॒विषा॑ विधेम।
अ॒ङ्कान्त्स॑म॒ङ्कान्ह॒विषा॑ विधेम॒ यो अग्र॑भी॒त्पर्वा॑स्या॒ ग्रभी॑ता ॥

०२ अङ्गेअङ्गे शोचिषा ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Thee, lurking (śri) in each limb with burning (śocís), we, paying
    homage, would worship (vidh) with oblation; we would worship with
    oblation the hooks, the grapples, [him] who, a seizer, hath seized
    this man’s joints.
Notes

Or yás, at beginning of d, is abbreviation for ‘when he’ or ‘with
which he.’ ⌊Render, rather, ‘hath seized his (accentless) joints.’ The
patient is in plain sight of the exorcist. Emphatic pronoun is therefore
needless; so enam vs. 3.⌋ Some of our mss., by a frequent blunder,
read in a śiśṛy-. The prolongation of the final of asya in d
is noted by the comment to Prāt. iv. 79. Ppp. has a very different (and
corrupt) text:…śiśriyāno yo gṛhīta parasya gṛbhīti: an̄ko tam an̄ko
haviṣā yajāmi hṛdi śrito manasā yo jajāna.
The definition of this verse
and the next as triṣṭubh seems to have been lost from the Anukr.,
which reads simply dvitīyā before antyā ’nuṣṭubh.

Griffith

Bending to thee who clingest to each limb with heat, fain would we worship thee with offered sacrifice, Worship with sacrifice the bends and curves of thee who with a vigorous grasp hast seized on this one’s limbs.

पदपाठः

अङ्गे॑ऽअङ्गे। शो॒चिषा॑। शि॒श्रि॒या॒णम्। न॒म॒स्यन्तः॑। त्वा॒। हविषा॑। वि॒धे॒म॒। अ॒ङ्कान्। स॒म्ऽअ॒ङ्कान्। ह॒विषा॑। वि॒धे॒म॒। यः। अग्र॑भीत्। पर्व॑। अ॒स्य॒। ग्रभी॑ता।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • यक्ष्मनाशनम्
  • भृग्वङ्गिराः
  • त्रिष्टुप्
  • यक्ष्मनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

ईश्वर के गुण।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (शोचिषा) अपने प्रकाश से (अङ्गे अङ्गे) अङ्ग-अङ्ग में (शिश्रियाणम्) ठहरे हुए (त्वा) तुझको (नमस्यन्तः) नमस्कार करते हुए हम (हविषा) भक्ति से (विधेम) सेवा करते रहें। [उसके] (अङ्कान्) पृथक्-पृथक् चिह्नों को और (समङ्कान्) मिले हुए चिह्नों को (हविषा) भक्ति से (विधेम) हम आराधें, (यः) जिस (ग्रभीता) ग्रहण करनेहारे परमेश्वर ने (अस्य) इस [ सेवक वा जगत्] के (पर्व) अवयव-अवयव को (अग्रभीत्) ग्रहण किया है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - वह (वृषा-म० १) परमात्मा हमारे और सब व्यष्टि और समष्टिरूप जगत् के रोम-रोम में परिपूर्ण है, उस प्रकाशस्वरूप के गुणों को यथावत् जानकर हम लोग उस पर पूरी श्रद्धा से आत्मसमर्पण करें। वह हमारे शरीर और आत्मा को बल देकर सहाय और आनन्द देता है ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−अङ्गे-अङ्गे। अङ्ग चिह्नकरणे-अच्। नित्यवीप्सयोः। पा० ८।१।४। इति द्विर्वचनम्। अङ्ग इत्यादौ च। पा० ६।१।११९। इति प्रकृतिभावः। सर्वेष्वङ्गेषु अवयवेषु। शोचिषा। अर्चिशुचिहुसृपि०। उ० २।१०८। इति शुच शौचे=शुद्धौ-इसि। दीप्त्या, प्रकाशेन। शिश्रियाणम्। लिटः कानज्वा। पा० ३।२।१०६। इति। श्रिञ् सेवायाम्-कानच्। अचि श्नुधातु०। पा० ६।४।७७। इति इयङादेशः। चितः। पा० ६।१।१६३। इति अन्तोदात्तत्वम्। आश्रितम्, परिपूर्णम्। नमस्यन्तः। नमोवरिवश्चित्रङः क्यच्। पा० ३।१।१९। इति नमस्-क्यच् पूजायाम्−लटः शतृ। पूजयन्तः। त्वा। त्वां वृषाणम्। हविषा। १।४।३। दानेन, आत्मसमर्पणेन भक्त्या। विधेम। विध विधाने, तुदादिः, विधिलिङ्। परिचरणकर्मा−निघ० ५।५। परिचरेम, सेवेमहि। अङ्कान्। हलश्च। पा० ३।३।१२१। इति अञ्चु गतिपूजनयोः−कर्तरि घञ्। चजोः कु घिण्ण्यतोः। पा० ७।३।५२। इति कुत्वम्। अञ्चनशीलान् गमनशीलान्, व्यस्तिरूपेण पृथक् पृथग् व्याप्तान् गुणान्। सम्-अङ्कान्। सम्भूय गमनशीलान्। समस्तिरूपेण संगतान् गुणान्, अग्रभीत्। ग्रह उपादाने−लुङ्, हस्य भकारः। अग्रहीत्। पर्व। स्नामदिपद्यर्त्तिपॄशकिभ्यो वनिप्। उ० ४।११३। इति पॄ पालने, पूर्तौ−वनिप्। प्रत्येकावयवम्। ग्रभीता। ग्रह उपादाने-तृच्। हस्य भः। ग्रहीता, ग्राहकः, धारकः ॥

०३ मुञ्च शीर्षक्त्या

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

मु॒ञ्च शी॑र्ष॒क्त्या उ॒त का॒स ए॑नं॒ परु॑ष्परुरावि॒वेशा॒ यो अ॑स्य।
यो अ॑भ्र॒जा वा॑त॒जा यश्च॒ शुष्मो॒ वन॒स्पती॑न्त्सचतां॒ पर्व॑तांश्च ॥

०३ मुञ्च शीर्षक्त्या ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Release thou him from headache and from cough—whoever hath entered
    each joint of him; the blast (? śúṣma) that is cloud-born and that is
    wind-born, let it attach itself to forest-trees (vánaspáti) and
    mountains.
Notes

Ppp. has sṛjatām for sacatām in d. The comm. takes kāsás in
a as nomin., explaining it as hṛtkaṇṭhamadhyavartī prasiddhaḥ
śleṣmarogaviśeṣaḥ; vātajā́s
to him is kāuṣṭhyād vāyor utpannaḥ. ⌊For
śīrṣakti, see Knauer, Indogermanische Forschungen, Anzeiger, vii.
225; Bloomfield, AJP. xvii. 416; Böhtlingk, Berichte der sächsischen
Ges.
, 1897, xlix. 50, who takes it as ‘a stiff neck with head awry.’⌋

Griffith

Do thou release this man from headache, free him from cough which has entered into all his limbs and joints. May he, the child of cloud, the offspring of the wind, the whiz- zing lighting, strike the mountains and the trees.

पदपाठः

मु॒ञ्च। शी॒र्ष॒क्त्याः। उ॒त। का॒सः। ए॒न॒म्। परुः॑ऽपरु। आ॒ऽवि॒वेश॑। यः। अ॒स्य॒। यः। अ॒भ्र॒ऽजाः। वा॒त॒ऽजाः। यः। च॒। शुष्मः॑। वन॒स्पती॑न्। स॒च॒ता॒म्। पर्व॑तान्। च॒।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • यक्ष्मनाशनम्
  • भृग्वङ्गिराः
  • त्रिष्टुप्
  • यक्ष्मनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

रोगनिवृत्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (एनम्) इस पुरुष को (शीर्षक्त्याः) शिर की पीड़ा से (उत) और [उस खाँसी से] (मुञ्च) छुड़ा (यः कासः) जिस खाँसी ने (अस्य) इस पुरुष के (परुःपरुः) जोड़-जोड़ में (आविवेश) घर कर लिया है। (यः) जो खाँसी (अभ्रजाः) मेघ से उत्पन्न, (वातजाः) वायु से उत्पन्न (च) और (यः) जो (शुष्मः) सूखी [होवे और जो] (वनस्पतीन्) वृक्षों से (च) और (पर्वतान्) पहाड़ों से (सचताम्) संबन्धवाली होवे ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - खाँसी सब रोगों की माता है, जैसा कि प्रसिद्ध हैलड़ाई का घर हाँसी और रोग का घर खाँसी। जैसे सद्वैद्य मन्त्र में कहे अनुसार मस्तक की पीड़ा और खाँसी आदि बाहिरी और भीतरी रोगों का निदान जान कर रोगी को स्वस्थ करता है, इसी प्रकार परमेश्वर वेदज्ञान से मनुष्य को दोषों से छुड़ा कर और ब्रह्मज्ञान देकर अत्यन्त सुखी करता है। इसी प्रकार राजप्रबन्ध और गृहप्रबन्ध आदि व्यवहार में विचारना चाहिये ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−मुञ्च। मुच्लॄ मोचने। मोचय। शीर्षक्त्याः। शीर्ष+अञ्चु गतिपूजनयोः−क्तिन्। शीर्षं शिरः अञ्चति गच्छति व्याप्नोतीति शीर्षक्तिः, तस्याः शिरः−पीडायाः सकाशात्। उत। अपि च। कासः। हलश्च। पा० ३।३।१२१। इति कासृ शब्दकुत्सनयोः−घञ्। रोगविशेषः। कासी वा खाँसी इति भाषा। क्षवथुः। परुः-परुः। अर्त्तिपॄवपियजि०। उ० २।११७। इति पॄ पूर्त्तिपालनयोः−उसि। सर्वान् शरीरसन्धीन्। आ-विवेश। विश प्रवेशने-लिट्। छान्दसो दीर्घः। प्रविष्टवान्। अभ्रजा। अप्+भृ-क्त। अपो बिभर्त्तीति अभ्रं मेघः। जनसनखनक्रमगमो विट्। पा० ३।२।६७। इति अभ्र+जनी प्रादुर्भावे-विट्। विड्वनोरनुनासिकस्यात्। पा० ६।४।४१। इति आत्वम्। मेघस्य सम्बन्धाज्जातः। वातजाः। पूर्ववत्। वात+जनी-विट्। वायोर्जात उत्पन्नः कासः शुष्मः। अविसिविसिशुषिभ्यः कित्। उ० १।१४४। इति शुष शोषे-मन् स च कित्। शोषकः, पित्तविकारादिजनितः कासः। वनस्पतीन्। १।३५।३। वनानां पतिः पाता वा वनस्पतिः। वनति सेवते अथवा वन्यते सेव्यते इति वनम्। वन सेवने, याचने, उपकारे-अच्। पारस्करप्रभृतीनि च संज्ञायाम्। पा० ६।१।१५७। इति सुडागमः। सर्ववृक्षान्। सचताम्। षच समवाये-लोट्। सचन्ताम्=सं सेव्यन्ताम्−निरु० ९।३३। समवैतु, सम्बध्नातु। पर्वतान्। भृमृदृशियजिपर्विपचि। उ० ३।११०। इति पर्व पूरणे−अतच्। शैलान् ॥

०४ शं मे

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शं मे॒ पर॑स्मै॒ गात्रा॑य॒ शम॒स्त्वव॑राय मे।
शं मे॑ च॒तुर्भ्यो॒ अङ्गे॑भ्यः॒ शम॑स्तु त॒न्वे॑३ मम॑ ॥

०४ शं मे ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. Weal [be] to my upper member (gā́tra), weal be to my lower, weal
    to my four limbs; weal be to my body.
Notes

Ppp. has a quite different text: in a, b, te both times for me,
and parāya for avarāya; for c, śaṁ te pṛṣṭibhyo majjabhyaḥ ca;
in d, tava for mama: the address to a second person is decidedly
to be preferred. This is found also in the corresponding verse in VS.
(xxiii. 44) and TS. (v. 2. 12²), with readings in part agreeing further
with those of Ppp.: śáṁ te párebhyo gā́trebhyaḥ śám astv ávarebhyaḥ: śám
asthábhyo majjábhyaḥ śám v astu tanvāì táva:
but TS. has for d śám
u te tanúve bhuvat.

Griffith

Well be it with my upper frame, well be it with my lower parts. With my four limbs let it be well. Let all my body be in health.

पदपाठः

शम्। मे॒। पर॑स्मै। गात्रा॑य। शम्। अ॒स्तु॒। अव॑राय। मे॒। शम्। मे॒। च॒तुःऽभ्यः॑। अङ्गे॑भ्यः। शम्। अ॒स्तु॒। त॒न्वे। मम॑।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • यक्ष्मनाशनम्
  • भृग्वङ्गिराः
  • अनुष्टुप्
  • यक्ष्मनाशन सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

रोगनिवृत्ति का उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (मे) मेरे (परस्मै) ऊपर के (गात्राय) शरीर के लिये (शम्) सुख और (मे) मेरे (अवराय) नीचे के शरीर के लिये (शम्) सुख (अस्तु) होवे। (मे) मेरे (चतुर्भ्यः) चारों (अङ्गेभ्यः) अङ्गों के लिये (शम्) सुख और (मम) मेरे (तन्वे) सब शरीर के लिये (शम्) सुख (अस्तु) होवे ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - चारों अङ्ग दो हाथ और दो पद हैं। मनुष्य को योग्य है कि परमेश्वर की प्रार्थनापूर्वक अपने सब अमूल्य शरीर को प्रयत्न से सर्वथा स्वस्थ रक्खे और मानसिक बल बढ़ा कर संसार में उपकारी हो और सदा सुख भोगे ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−परस्मै। १।८।३। श्रेष्ठाय, उपरि वर्तमानाय। गात्राय। गमेरा च। उ० ४।१६९। इति गम्लृ-त्रन्, मस्य आकारः। गच्छति चेष्टतेऽनेन। अङ्गाय, शरीराय। अवराय। १।८।३। निकृष्टाय, अवस्ताद् वर्तमानाय। चतुः-भ्यः। चतुःसंख्येभ्यः। द्वौ हस्तौ, द्वौ पादौ−इति चत्वारि तेभ्यः। अङ्गेभ्यः। अङ्ग पदे=गतौ-अच्। अङ्गयति चेष्टतेऽनेन। अवयवेभ्यः, गात्रेभ्यः। तन्वे। म० १। शरीराय सर्वस्मै ॥