००६ अपां भेषजम् ...{Loading}...
Whitney subject
- To the waters: for blessings.
VH anukramaṇī
अपां भेषजम्।
१-४ सिन्धुद्वीपः।(अथर्वा कृतिर्वा)। (अपांनपात्,) आपः, २ आपः सोमोऽग्निश्च। गायत्री, ४ पथ्यापङ्क्तिः।
Whitney anukramaṇī
[Sindhudvīpa (Atharvākṛti).—(etc., as 4). 4. pathyāpan̄kti.]]
Whitney
Comment
The hymn is not found in Pāipp., but perhaps stood at the beginning of its text, on the lost first leaf: see ⌊Bloomfield’s introd. to the Kāuś., p. xxxvii and ref’s, esp. Weber, v. 78 and xiii. 431⌋. Verses 1-3 occur in RV., as noted under the preceding hymn, and 1-2 in other texts, as pointed out under the verses. For the use of the hymn, with its predecessor or its two predecessors, in Kāuś. and Vāit., see above, under those hymns. Verse 1 is also (Kāuś. 9. 7) directed to be repeated (with the gāyatrī or sāvitrī-verse) at the beginning and end of śānti rites, and to be recited part by part six times, with rinsing of the mouth, in the indramahotsava ceremony (140. 5).
Translations
Translated: Weber, iv. 397; Griffith, i. 8.
Griffith
To the waters, for health and wealth
०१ शं नो
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
०४ शं नो ...{Loading}...
शं नो॑ दे॒वीर॒भिष्ट॑य॒
आपो॑ भवन्तु पी॒तये॑ ।
शं योर्+++(=[अ]मिश्रणाय)+++ अ॒भि स्र॑वन्तु नः ॥ ०४॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
शं नो॑ दे॒वीर॒भिष्ट॑य॒ आपो॑ भवन्तु पी॒तये॑।
शं योर॒भि स्र॑वन्तु नः ॥
०१ शं नो ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Be the divine waters weal for us in order to assistance, to drink;
weal [and] health flow they unto us.
Notes
The verse occurs further, without variants, in VS. (xxxvi. 12), TB. (i.
2. 1¹ et al.), TA. (iv. 42. 4), and Āp. (v. 4. 1); in SV. (i. 33) is
repeated śáṁ nas (instead of ā́pas) at beginning of b. The comm.
explains abhiṣṭi by abhiyajana!
As to the prefixion of this verse to the whole text in a part of our
mss., see p. cxvi.
Griffith
The Waters be to us for drink, Goddesses, for our aid and bliss: Let them stream health and wealth to us.
पदपाठः
शम्। नः॒। दे॒वीः। अ॒भिष्ट॑ये। आपः॑। भ॒व॒न्तु॒। पी॒तये॑। शम्। योः। अ॒भि। स्र॒व॒न्तु॒। नः॒।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अपांनपात् सोम आपश्च देवताः
- सिन्धुद्वीपं कृतिः, अथवा अथर्वा
- गायत्री
- जल चिकित्सा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
आरोग्यता के लिये उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (देवीः) दिव्य गुणवाले (आपः) जल [जल के समान उपकारी पुरुष] (नः) हमारे (अभिष्टये) अभीष्ट सिद्धि के लिये और (पीतये) पान वा रक्षा के लिये (शम्) सुखदायक (भवन्तु) होवें। और (नः) हमारे (शम्) रोग की शान्ति के लिये और (योः) भय दूर करने के लिये (अभि) सब ओर से (स्रवन्तु) वर्षा करें ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - वृष्टि से जल के समान उपकारी पुरुष सबके दुःख की निवृत्ति और सुख की प्रवृत्ति में प्रयत्न करते रहें ॥१॥ मन्त्र १, यजुर्वेद ३६।१२। मन्त्र १-३ ऋग्वेद म० १० सू० ९ म० ४, ६, ७। तथा मन्त्र २, ३ ऋग्वेद म० १ सू० २३ म० २०, २१ हैं ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−शम्। १।३।१। सुखं, सुखकारिण्यः। देवीः। १।४।३। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति जसि पूर्वसवर्णदीर्घः। देव्यः। दिव्याः। अभिष्टये। अभि+इष वाञ्छायाम्-क्तिन्। शकन्ध्वादिषु पररूपं वक्तव्यम्। वा० पा० ६।१।९४। इति पररूपम्। अभीष्टसिद्धये। आपः। १।४।३। जलानि, जलवद् गुणिनः पुरुषाः। पीतये। घुमास्थागापाजहातिसां हलि। पा० ६।४।६६। इति पा पाने-क्तिनि प्रत्यये ईत्वम्। यद्वा। पा रक्षणे, ओप्यायी, प्यैङ् वृद्धौ वा-क्तिन्, क्तिच् वा। यथा। पः किच्च। उ० १।७१। इति पा-तु प्रत्ययः। पिबति पाति वा स पीतुः। कित्वाद् ईकारः। पानाय, रक्षणाय, वृद्धये। शम्। १।३।१। रोगशमनाय। योः। अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७५। इति यु मिश्रणामिश्रणयोः-विच्, सकारश्छान्दसः यद्वा। यु-डोस्। शंयोः……. शमनं च रोगाणां यावनं च भयानाम्, इति निरु०। ४।२१। भयपृथक्कारणाय। अभि। सर्वतः। स्रवन्तु। स्रु प्रस्रवणे। वर्पन्तु ॥
०२ अप्सु मे
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ॒प्सु मे॒ सोमो॑ अब्रवीद॒न्तर्विश्वा॑नि भेष॒जा।
अ॒ग्निं च॑ वि॒श्वशं॑भुवम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
अ॒प्सु मे॒ सोमो॑ अब्रवीद॒न्तर्विश्वा॑नि भेष॒जा।
अ॒ग्निं च॑ वि॒श्वशं॑भुवम् ॥
०२ अप्सु मे ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Within the waters, Soma told me, are all remedies, and Agni (fire)
wealful for all.
Notes
Found also in TB. (ii. 5. 8⁶), without variants, and in MS. (iv. 10. 4),
with, for c, ā́paś ca viśváśambhuvaḥ.
Griffith
Within the Waters–Soma thus hath told me–dwell all balms that heal, And Agni, he who blesseth all.
पदपाठः
अ॒प्ऽसु। मे॒। सोमः॑। अ॒ब्र॒वी॒त्। अ॒न्तः। विश्वा॑नि। भे॒ष॒जा। अ॒ग्निम्। च॒। वि॒श्वऽशं॑भुवम्।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अपांनपात् सोम आपश्च देवताः
- सिन्धुद्वीपं कृतिः, अथवा अथर्वा
- गायत्री
- जल चिकित्सा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
आरोग्यता के लिये उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (सोमः) बड़े ऐश्वर्यवाले परमेश्वर ने [चन्द्रमा वा सोमलता ने] (मे) मुझे (अप्सु अन्तः) व्यापनशील जलों में (विश्वानि) सब (भेषजा=०-नि) औषधों को, (च) और (विश्वशम्भुवम्) संसार के सुखदायक (अग्निम्) अग्नि [बिजुली वा पाचनशक्ति] को बताया है ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - परमेश्वर सब विद्याओं का प्रकाशक है, चन्द्रमा औषधियों को पुष्ट करता है और सोमलता मुख्य ओषधि है। यह सब पदार्थ जैसे जल द्वार औषधों, अन्न आदि और शरीरों के बढ़ाने, बिजुली और पाचन शक्ति पहुँचाने और तेजस्वी करने में मुख्य कारण होते हैं, वैसे ही मनुष्यों को परस्पर सामर्थ्य बढ़ाकर उपकार करना चाहिये ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: २−अप्सु। १।४।३। व्यापयितृषु, जलेषु जलवद् गुणिषु मनुष्येषु−इत्यर्थः। सोमः। अर्त्तिस्तुसुहु०। उ० १।१४०। इति षु प्रसवैश्वर्ययोः−मन्। सवति ऐश्वर्यहेतुर्भवतीति सोमः। परमेश्वरः। चन्द्रमाः। सोमलता। अब्रवीत्। ब्रूञ् व्यक्तायां वाचि−लङ्। उपदिष्टवान्। अकथयत्। अन्तः। मध्ये। विश्वानि। सर्वाणि। भेषजा। १।४।४। शेश्छन्दसि बहुलम्। पा० ६।१।७० इति शेर्लोपः। भेषजानि। भयनिवारणानि। औषधानि। अग्निम्। अङ्गेर्नलोपश्च। उ० ४।५०। इति अगि गतौ-नि, नलोपः। तेजः। वैश्वानरम्। वह्निम्। पाचनशक्तिम्। विश्व-शंभुवम्। क्विप् च। पा० ३।२।७६। इति विश्व+शम्+भू-क्विप्, उवङ्, आदेशः। विश्वस्य जगतः सुखस्य भावयितारं कर्तारम्, सर्वसुखकरम् ॥
०३ आपः पृणीत
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आपः॑ पृणी॒त भे॑ष॒जं वरू॑थं त॒न्वे॑३ मम॑।
ज्योक्च॒ सूर्यं॑ दृ॒शे ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
आपः॑ पृणी॒त भे॑ष॒जं वरू॑थं त॒न्वे॑३ मम॑।
ज्योक्च॒ सूर्यं॑ दृ॒शे ॥
०३ आपः पृणीत ...{Loading}...
Whitney
Translation
- O waters, bestow a remedy, protection (várūtha) for my body, and
long to see the sun.
Notes
Only RV. has this verse.
Griffith
O Waters, teem with medicine to keep my body safe from harm, So that I long may see the Sun.
पदपाठः
आपः॑। पृ॒णी॒त। भे॒ष॒जम्। वरू॑थम्। त॒न्वे। मम॑। ज्योक्। च॒। सूर्य॑म्। दृ॒शे।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अपांनपात् सोम आपश्च देवताः
- सिन्धुद्वीपं कृतिः, अथवा अथर्वा
- गायत्री
- जल चिकित्सा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
आरोग्यता के लिये उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (आपः) हे व्यापनशील जलो ! [जलसमान उपकारी पुरुषो] (मम) मेरे (तन्वे) शरीर के लिये (च) और (ज्योक्) बहुत काल तक (सूर्यम्) चलने वा चलानेवाले सूर्य को (दृशे) देखने के लिये (वरूथम्) कवचरूप (भेषजम्) भयनिवारक औषध को (पृणीत) पूर्ण करो ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे युद्ध में योद्धा की रक्षा झिलम से होती है, वैसे ही जलसमान उपकारी पुरुष परस्पर सहायक होकर सबका जीवन आनन्द से बढ़ाते हैं ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−आपः। हे व्यापयितॄणि जलानि [जलसमानोपकारिणः पुरुषाः]। पृणीत। पॄ पालनपूरणयोः−लोट् पालयत, पूरयत। भेषजम्। १।४।४। भयनिवारकम्। औषधम्। वरुथम्। जॄवृञ्भ्यामूथन्। उ० २।६। इति वृञ् वरणे−ऊथन्, व्रियते शरीरमनेन। तनुत्राणम्, कवचम्। तन्वे। १।१।१। तद्वत् पदसिद्धिः स्वरितश्च। तन्यते विस्तीर्यते तनूः। शरीराय। मम। मदीयाय। ज्योक्। ज्यो नियमे-डोकि। चिरकालम्। सूर्यम्। १।३।५। जगतः प्रेरकम्, आदित्यम्। दृशे। दृशे विख्ये च। पा० ३।४।११। इति दृशिर् प्रेक्षणे−तुमर्थे के प्रत्ययान्तो निपात्यते। द्रष्टुम् ॥
०४ शं न
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
शं न॒ आपो॑ धन्व॒न्या॑३॒॑ शमु॑ सन्त्वनू॒प्याः॑।
शं नः॑ खनि॒त्रिमा॒ आपः॒ शमु॒ याः कु॒म्भ आभृ॑ताः।
शि॒वा नः॑ सन्तु॒ वार्षि॑कीः ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
शं न॒ आपो॑ धन्व॒न्या॑३॒॑ शमु॑ सन्त्वनू॒प्याः॑।
शं नः॑ खनि॒त्रिमा॒ आपः॒ शमु॒ याः कु॒म्भ आभृ॑ताः।
शि॒वा नः॑ सन्तु॒ वार्षि॑कीः ॥
०४ शं न ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Weal for us the waters of the plains, and weal be those of the
marshes, weal for us the waters won by digging, and weal what are
brought in a vessel; propitious to us be those of the rain.
Notes
Pādas a—d are nearly repeated in xix. 2. 2.
The mss. sum up this anuvāka ⌊1.⌋ or chapter as of 6 hymns, 29 verses;
and their quoted Anukr. says ādyaprathama ṛco nava syur vidyāt: i. e.
the verses exceed by 9 the assumed norm of the chapters, which is 20.
⌊Regarding vidyāt, see end of notes to i. 11.⌋
Griffith
The Waters bless us, all that rise in desert lands or marshy pools! Bless us the Waters dug from earth, bless us the Waters brought in jars, bless us the Waters of the Rains!
पदपाठः
शम्। नः॒। आपः॑। ध॒न्व॒न्याः। शम्। ऊं॒ इति॑। स॒न्तु॒। अ॒नू॒प्याः। शम्। नः॒। ख॒नि॒त्रिमाः॑। आपः॑। शम्। ऊं॒ इति॑। याः। कुम्भे। आऽभृ॑ताः। शि॒वाः। नः॒। स॒न्तु। वार्षि॑कीः।
अधिमन्त्रम् (VC)
- अपांनपात् सोम आपश्च देवताः
- सिन्धुद्वीपं कृतिः, अथवा अथर्वा
- पथ्यापङ्क्तिः
- जल चिकित्सा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
आरोग्यता के लिये उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (नः) हमारे लिये (धन्वन्याः) निर्जल देश के (आपः) जल (शम्) सुखदायक, (उ) और (अनूप्याः) जलवाले देश के [जल] (शम्) सुखदायक (सन्तु) होवें। (नः) हमारे लिये (खनित्रिमाः) खनती वा फावड़े से निकाले गये (आपः) जल (शम्) सुखदायक होवें, (उ) और (याः) जो (कुम्भे) घड़े में (आभृताः) लाये गये वह भी (शम्) सुखदायी होवें, (वार्षिकीः) वर्षा के जल (नः) हमको (शिवाः) सुखदायी (सन्तु) होवें ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे जल सब स्थानों में उपकारी होता है, वैसे ही जलसमान उपकारी मनुष्यों को प्रत्येक कार्य और प्रत्येक स्थान में परस्पर लाभ पहुँचाकर सुखी होना चाहिये ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−शम्−१।३।१। सुखकारिण्यः। नः−अस्मभ्यम्। आपः−जलानि, जलवद् गुणिनः पुरुषाः। धन्वन्याः−कनिन् युवृषितक्षिराजिधन्विद्युप्रतिदिवः। उ० १।१५६। इति धवि गतौ-कनिन्। इदित्त्वात् नुम्। इति धन्वन्। भवे छन्दसि। पा० ४।४।११०। इति यत्। तित् स्वरितम्। पा० ६।१।१८५। इति स्वरितः। धन्वनि मरुभूमौ भवा आपः। ऊं इति। च। अनूप्याः। अनुगता आपो यत्रेति अनूपो देशः। ऋक्पूरब्धूः०। पा० ५।४।७४। इति अनु+अप्−अकारः समासान्तः। ऊदनोर्देशे। पा० ६।३।९८। इति अप् शब्दस्य अकारस्य ऊकारः। पूर्ववद् यत् प्रत्ययः स्वरितश्च। अनूपे जलप्राये देशे भवा आपः। खनित्रिमाः। खनु अवदारणे−अस्माच्छान्दसः क्त्रि प्रत्ययः। आर्धधातुकस्येड् वलादेः। पा० ७।२।३५। इति इडागमः। क्त्रेर्मम्नित्यम्। इति मप् खनित्रेण अस्त्रविशेषेण निर्वृत्ताः कूपोद्भवाः। कुम्भे। कुं भूमिम् उम्भति जलेन। उन्भ पूरणे-अच्। शकन्ध्वादित्वात् साधुः। घटे, कलशे। आ-भृताः। दृञ् हरणे-क्त। हृग्रहोर्भः−इति भत्वम्। आहृताः, आनीताः। शिवाः। सुखदात्र्यः। वार्षिकीः। छन्दसि ठञ्। पा० ४।३।१९। इति वर्षा+ठञ्। ङीप्। जसि पूर्वसवर्णदीर्घः। वार्षिक्यः, वर्षासु भवाः ॥