००४ अपां भेषजम्

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Whitney subject
  1. To the waters: for blessings.
VH anukramaṇī

अपां भेषजम्।
१-४ सिन्धुद्वीपः।(अपांनपात्, सोमः,) आपः। गायत्री, ४ पुरस्ताद् बृहती।

Whitney anukramaṇī

[Sindhudvīpa.—aponaptrīyāṇi, somābdāivatāni. gāyatrāṇi; 4. purastādbṛhatī]

Whitney

Comment

The hymn is not found in Pāipp. It and the two that next follow are reckoned by Kāuś. (9. 1, 4) to both śānti gaņas, major (bṛhat) and minor (laghu); also (7. 14) to the apāṁ sūktāni or water-hymns, applied in various ceremonies; and by some (18. 25, note) to the salila gaņa, which Kāuś. begins with hymns 5 and 6. The same three are joined with others (19. 1) in a healing rite for sick kine, and (41. 14) in a ceremony for good fortune. Again (25. 20), this hymn is used (with vi. 51) in a remedial rite, and (37. 1) in the interpretation of signs. Hymns 4-6 further appear in Vāit. (16. 10) as used in the aponaptrīya rite of the agniṣṭoma sacrifice, and 4. 2 alone with the setting down of the vasatīvarī water in the same sacrifice. The four verses are RV. i. 23. 16-19; for other correspondences, see under the verses.

Translations

Translated: Weber, iv. 396; Griffith, i. 6.

Griffith

To the waters, for the prosperity of cattle

०१ अम्बयो यन्त्यध्वभिर्जामयो

विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...

अ॒म्बयो॑ य॒न्त्यध्व॑भिर्जा॒मयो॑ अध्वरीय॒ताम्।
पृ॑ञ्च॒तीर्मधु॑ना॒ पयः॑ ॥

०१ अम्बयो यन्त्यध्वभिर्जामयो ...{Loading}...

Whitney
Translation
  1. The mothers go on their ways, sisters of them that make sacrifice,
    mixing milk with honey.
Notes
Griffith

Along their paths the Mothers go, sisters of priestly ministrants, Blending their water with the mead.

पदपाठः

अ॒म्वयः॑। य॒न्ति॒। अध्व॑ऽभिः। जा॒मयः॑। अ॒ध्व॒रि॒ऽय॒ताम्। पृ॒ञ्च॒तीः। मधु॑ना। पयः॑।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अपांनपात् सोम आपश्च देवताः
  • सिन्धुद्वीपम्
  • गायत्री
  • जल चिकित्सा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उपकार के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अम्बयः) पाने योग्य माताएँ और (जामयः) मिलकर भोजन करने हारी, बहिनें [वा कुलस्त्रियाँ] (मधुना) मधु के साथ (पयः) दूध को (पृञ्चतीः) मिलाती हुई (अध्वरीयताम्) हिंसा न करने हारे यजमानों के (अध्वभिः) सन्मार्गों से (यन्ति) चलती हैं ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जो पुरुष, पुत्रों के लिये माताओं के समान और भाइयों के लिये बहिनों के समान हितकारी होते हैं, वे सन्मार्गों से आप चलते और सबको चलाते हैं ॥१॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: १−अम्बयः। सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११९। इति अम्ब गतौ-इन्। प्रापणीया मातरः। मातृभूता आपः। अम्बाशब्दवद् अम्बिशब्दो वेदे मातृवाची। यथा। अम्बितमे नदीतमे। ऋ० २।४१।१६। अम्बे अम्बिकेऽम्बालिके। य० ३४।१८। यन्ति। इण् गतौ-लट् गच्छन्ति। अध्वभिः। अत्ति, गमनेन बलं नाशयति स अध्वा। अदेर्ध च। उ० ४।११६। इति अद भक्षणे-क्वनिप्, पृषोदरादित्वात् दस्य धः। यद्वा। अत सातत्यगमने-क्वनिप्, तकारस्य धः। सन्मार्गैः। जामयः। वसिवपियजिराजि०। उ० ४।१२५ जम भक्षणे-इञ्। जमन्ति, संगत्य भोजनं कुर्वन्ति ताः। कुलस्त्रियः। भगिन्यः। भगिनीवत् सहायभूताः पुरुषाः। अध्वरि-यताम्। अध्वानं सत्पथं रातीति। अध्वन्+रा-दानग्रहणयोः-क। यद्वा। न ध्वरति कुटिलीकरोति हिनस्तीति वा। न+ध्वृ कुटिलीकरणे, हिंसने च-अच्। अध्वर इति यज्ञनाम ध्वरतिर्हिंसाकर्मा तत्प्रतिषेधः−निरु० १।८। सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। इति अध्वर+क्यच्। शतृ। क्यचि च। पा० ७।४।३३। अकारस्य ईत्वम्। सन्मार्गदातारं कौटिल्यरहितं वा यज्ञमिच्छतां यजमानानाम्। पृञ्चतीः। पृची सम्पर्के-शतृ। ङीप्। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति पूर्वसवर्णदीर्घः। पृञ्चत्यः। संयोजयन्त्यः। मधुना। फलिपाटिनमिमनिजनां गुक्पटिनाकिधतश्च। उ० १।१८। इति मन ज्ञाने-उ। धश्चान्तादेशः। रसभेदेन। मधुरगुणेन। पयः। सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। इति पीङ् पाने-असुन्। दुग्धम्, रसम् ॥

०२ अमूर्या उप

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अ॒मूर्या उप॒ सूर्ये॒ याभि॑र्वा॒ सूर्यः॑ स॒ह।
ता नो॑ हिन्वन्त्वध्व॒रम् ॥

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Whitney
Translation
  1. They who are yonder at the sun, or together with whom is the sun—let
    them further our sacrifice.
Notes

The verse is found further, without variant, in VS. (vi. 24 e).

Griffith

May yonder Waters near the Sun, or those wherewith the Sun is joined, Send forth this sacrifice of ours.

पदपाठः

अ॒मूः। याः। उप॑। सूर्ये॑। याभिः॑। वा॒। सूर्यः॑। स॒ह। ताः। नः॒। हि॒न्व॒न्तु॒। अ॒ध्व॒रम्।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अपांनपात् सोम आपश्च देवताः
  • सिन्धुद्वीपम्
  • गायत्री
  • जल चिकित्सा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उपकार के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अमूः) वह (याः) जो [माता और बहिनें] (उप=उपेत्य) समीप होकर (सूर्ये) सूर्य के प्रकाश में रहती हैं, (वा) और (याभिः सह) जिन [माता और बहिनों] के साथ (सूर्यः) सूर्य का प्रकाश है। (ताः) वह (नः) हमारे (अध्वरम्) उत्तम मार्ग देनेहारे वा हिंसारहित कर्म को (हिन्वन्तु) सिद्ध करें वा बढ़ावें ॥२॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में दो बातों का वर्णन है, एक यह कि किसी में उत्तम गुणों का होना, दूसरे यह कि उन उत्तम गुणों का फैलाना ॥२॥ १−जो नररत्न माता और भगिनियों के समान परिश्रमी और उपकारी होकर सूर्यरूप विद्या के प्रकाश में विराजते हैं और जिनके सत्य अभ्यास से सूर्यवत् विद्या का प्रकाश संसार में फैलता है, वह तपस्वी पुण्यात्मा संसार में सुख की वृद्धि करते हैं ॥ २−जो (अमूः) इत्यादि स्त्रीलिङ्ग शब्दों का संबन्ध मन्त्र ३ के (आपः) शब्द से माना जावे तो यह भावार्थ है। पहिले जल मूर्त्तिमान् पदार्थों से किरणों द्वारा सूर्यमण्डल में [जहाँ तक सूर्य का प्रकाश है] जाता है, फिर वही जल सूर्य की किरणों से छिन्न-भिन्न होने के कारण दिव्य बनकर भूमि आदि पदार्थों के आकर्षण से बरसता और महा उपकारी होता है। इस जल के समान, विद्वान् पुरुष ब्रह्मचर्य आदि तप करके संसार का उपकार करते हैं ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: २−अमूः। अदस्, स्त्रियां जस्। ताः परिदृश्यमानाः। याः। अम्बयो जामयश्च, मं० १। यद्वा। आपः, मं० ३। उप। समीपे, उपेत्य। आधिक्येन। आदरेण। सूर्ये। १।३।५। आदित्यलोके। सूर्यवद् ज्ञानप्रकाशे। सूर्यप्रकाशे। याभिः। अम्बिजामिभिः। अद्भिः। वा। समुच्चये। विकल्पे। सूर्यः। १।३।५। सवितृलोकः। तद्वद् ज्ञानप्रकाशः। सवितृप्रकाशः। सह। षह क्षमायाम्-अच्। साहित्ये। नः। अस्माकम्। हिन्वन्तु। हिवि प्रीणने, लोट्। इदितो नुम्धातोः। पा० ७।१।५८। इति इदित्त्वात् नुम्। अथवा। हि वर्धने स्वादिः−लोट्। प्रीणयन्तु, साधयन्तु। वर्धयन्तु अध्वरम्। म० १। सन्मार्गदातृ हिंसारहितं वा कर्म। यज्ञम् ॥

०३ अपो देवीरुप

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अ॒पो दे॒वीरुप॑ ह्वये॒ यत्र॒ गावः॒ पिब॑न्ति नः।
सिन्धु॑भ्यः॒ कर्त्वं॑ ह॒विः ॥

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Whitney
Translation
  1. The heavenly waters I call on, where our kine drink; to the rivers
    (síndhu) is to be made oblation.
Notes

⌊Cf. note to x. 9. 27, below.⌋

Griffith

I call the Waters, Goddesses, hitherward where our cattle drink: The streams must share the sacrifice.

पदपाठः

अ॒पः। दे॒वीः। उप॑। ह्व॒ये॒। यत्र॑। गावः॑। पिब॑न्ति। नः॒। सिन्धु॑ऽभ्यः। कर्त्व॑म्। ह॒विः।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अपांनपात् सोम आपश्च देवताः
  • सिन्धुद्वीपम्
  • गायत्री
  • जल चिकित्सा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उपकार के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्र) जिस जल में से (गावः) सूर्य की किरणों [वा गौएँ आदि जीव वा भूमि प्रदेश] (नः) हमारे लिये (हविः) देने वा लेने योग्य अन्न वा जल (कर्त्वम्) उत्पन्न करने को (सिन्धुभ्यः) बहनेवाले समुद्रों से (पिबन्ति) पान करती हैं। (देवीः) उस उत्तम गुणवाले (अपः) जल को (उप) आदर से (ह्वये) मैं बुलाता हूँ ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जल को सूर्य की किरणें समुद्र आदि से खींचती हैं, वह जल फिर बरस कर हमारे लिये अन्न आदिक पदार्थ उत्पन्न करके सुख देता है। अथवा गौ आदि सब प्राणी जल द्वारा उत्पन्न पदार्थों से सुखी होकर सबको सुखी करते हैं, वैसे ही हमको परस्पर सहायक और उपकारी होना चाहिये ॥३॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ३−अपः। आप्नोतेर्ह्रस्वश्च। उ० २।५८। इति आप्लृ व्याप्तौ-क्विप्। इति अप्। अप् शब्दो नित्यस्त्रीलिङ्गो बहुवचनान्तश्च। व्यापयित्रीः, जलधाराः। जलवत् उपकारिणः पुरुषान्। देवीः, नन्दिग्रहिपचादिभ्यः०। पा० ३।१।१२४। इति दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमद-स्वप्नकान्तिगतिषु−पचाद्यच्। ङीप्। दिव्याः, द्योतमानाः। ह्वये। अहमाह्वयामि। यत्र। यासु अप्सु। गावः १।२।३। धेनवः। उपलक्षणमेतत्। सर्वे जीवा इत्यर्थः। सूर्यकिरणः। भूलोकाः। पिबन्ति। पाघ्रा० इत्यादिना। पा० ७।३।७८। इति पा पाने-शपि पिबादेशः। पानं कुर्वन्ति। नः। अस्मदर्थम्। सिन्धुभ्यः स्यन्देः सम्प्रसारणं धश्च। उ० १।११। इति स्यन्दू स्रवणे-उ प्रत्ययः, दस्य धः सम्प्रसारणं च। स्यन्दनशीलेभ्यः समुद्रेभ्यः सकाशात्। कर्त्वम्। डुकृञ् करणे-तुम्। छान्दसं रूपम्। कर्तुम्। हविः। अर्चिशुचिहुसृपिछादिछर्दिभ्य इसिः। उ० २।१०८। इति। हु दानादानादनेषु-इसि। यद्वा। ह्वेञ् आह्वाने−इसि। हूयते दीयते गृह्यते वा तद् हविः। हव्यम्। अन्नम् आवाहनम्। उदकम्−निघं० १।१२ ॥

०४ अप्स्व१न्तरमृतमप्सु भेषजम्

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अ॒प्स्व॑१न्तर॒मृत॑म॒प्सु भे॑ष॒जम्।
अ॒पामु॒त प्रश॑स्तिभि॒रश्वा॒ भव॑थ वा॒जिनो॒ गावो॑ भवथ वा॒जिनीः॑ ॥

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Whitney
Translation
  1. Within the waters is ambrosia (amṛ́ta), in the waters is remedy; and
    by the praises (práśasti) of the waters ye become vigorous (vājín)
    horses, ye become vigorous kine.
Notes

The second half-verse is here rendered strictly according to the accent,
which for­bids taking the nouns as vocatives; SPP. reads in c, with
all his mss. and the great majority of ours bhávatha (our two Bp. give
bhav-); the accent is to be regarded as antithetical. RV. gives
práśastaye at end of b, and ends the verse with c, reading
dévā bhávata vājínaḥ. Other texts have the verse: VS. (ix. 6 a), TS.
(i. 7. 7¹), and MS. (i. 11. 1); all lack a fourth pāda, and have at end
of b práśastiṣu; for c, VS. has áśvā bhávata vājínaḥ*, TS.*
áśvā bhavatha vājínaḥ*, and MS.* áśvā bhavata vājínah*.*

Griffith

Amrit is in the Waters, in the Waters balm. Yea, through our praises of the Floods, O horses, be ye fleet and strong, and, O ye kine, be full of strength.

पदपाठः

अ॒प्ऽसु। अ॒न्तः। अ॒मृत॑म्। अ॒प्ऽसु। भे॒ष॒जम्। अ॒पाम्। उ॒त। प्रश॑स्तिऽभिः। अश्वाः॑। भव॑थ। वा॒जिनः॑। गावः॑। भ॒व॒थ॒। वा॒जिनीः॑।

अधिमन्त्रम् (VC)
  • अपांनपात् सोम आपश्च देवताः
  • सिन्धुद्वीपम्
  • पुरस्ताद्बृहती
  • जल चिकित्सा सूक्त
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः

परस्पर उपकार के लिये उपदेश।

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः

पदार्थान्वयभाषाः - (अप्सु अन्तः) जल के बीच में (अमृतम्) रोगनिवारक अमृत रस है और (अप्सु) जल में (भेषजम्) भय जीतनेवाला औषध है। (उत) और (अपाम्) जल के (प्रशस्तिभिः) उत्तम गुणों से (अश्वाः) हे घोड़ो तुम, (वाजिनः) वेगवाले (भवथ) होते हो, (गावः) हे गौओ, तुम (वाजिनीः=न्यः) वेगवाली (भवथ) होती हो ॥४॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः

भावार्थभाषाः - जल से रोगनिवारक और पुष्टिवर्धक पदार्थ उत्पन्न होते हैं। जैसे जल से उत्पन्न हुए घास आदि से गौएँ और घोड़े बलवान् होकर उपकारी होते हैं, उसी प्रकार सब मनुष्य अन्न आदि के सेवन से पुष्ट रह कर और ईश्वर की महिमा जानकर सदा परस्पर उपकारी बनें ॥४॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋ० १।२३।१९, है ॥ भगवान् मनु ने कहा है−अ० १।८ ॥ सोऽभिध्याय शरीरात् स्वात् सिसृक्षुर्विविधाः प्रजाः। अप एव ससर्जादौ तासु बीजमवासृजत् ॥१॥ उस [परमात्मा] ने ध्यान करके अपने शरीर [प्रकृति] से अनेक प्रजाओं के उत्पन्न करने की इच्छा करते हुए पहिले (अपः) जल को ही उत्पन्न किया और उस में बीज को छोड़ दिया ॥

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी

टिप्पणी: ४−अप्सु। मन्त्र ३। जलधारासु। अन्तः। मध्ये। अमृतम्। रोगनिवारकं रसम्। भेषजम्। भिषजो वैद्यस्येदम्। भिषज्-अण्, निपातनात् एत्वम्। यद्वा भेषं भयं रोगं जयतीति, जि जये-ड। औषधम् अ॒पाम्। म० ३। जलधाराणाम्। उत। अपि च। प्रशस्तिभिः। प्र+शंस स्तुतौ-क्तिन्। उत्तमगुणैः। अश्वाः। हे तुरगाः। भवथ। भू-लट्। यूयं वर्तध्वे। वाजिनः। अत इनिठनौ। पा० ५।२।११५। इति वाज-भूम्नि मत्वर्थीय इनि प्रत्ययः। वेगवन्तः, बलयुक्ताः। वाजी वेजनवान्−निरु० २।२८। गावः। १।२।३। हे धेनवः। अश्वाः। गावः−सर्वे प्राणिनः इत्यर्थः। वाजिनीः। ऋन्नेभ्यो ङीप्। पा० ४।१।५। इति वाजिन्−ङीप्। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति जसि पूर्वसवर्णदीर्घः। वाजिन्यः, वेगवत्यः, बलवत्यः ॥