००१ मेधाजननम् ...{Loading}...
Whitney subject
- For the retention of sacred learning.
VH anukramaṇī
मेधाजननम्।
१-४ अथर्वा। वाचस्पतिः। अनुष्टुप्, ४ चतुष्पदा विराडुरोबृहती।
Whitney anukramaṇī
[Atharvan.—vācaspatyam. caturṛcam. ānuṣṭubham: 4. 4-p. virāḍ urobṛhatī.]
Whitney
Comment
The hymn is found also near the beginning of Pāipp. i. MS. (iv. 12. 1 end) has the first two verses. It is called in Kāuś. (7. 8; 139. 10) triṣaptīya, from its second word; but it is further styled (as prescribed in 7. 8) briefly pūrva ‘first,’ and generally quoted by that name. It is used in the ceremony for “production of wisdom” (medhājanana: 10. 1), and in those for the welfare of a Vedic student (11. 1); further, with various other passages, in that of entrance upon Vedic study (139. 10); and it is also referred to, in an obscure way (probably as representing the whole Veda of which it is the beginning), in a number of other rites with which it has no apparent connection (12. 10; 14. 1; 18. 19; 25. 4; 32. 28); finally (13. 1, note), it is reckoned as belonging to the varcasya gaṇa. And the comm. ⌊p. 5, end⌋ quotes it as used by a pariśiṣṭa (5. 3) in the puṣpabhiṣeka of a king. The Vāit. takes no notice of it.
Translations
Translated: Weber, iv. 393; Griffith, i. 1.
Griffith
A prayer to Vachaspati for divine illumination and help.
०१ ये त्रिषप्ताः
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
ये त्रि॑ष॒प्ताः प॑रि॒यन्ति॒ विश्वा॑ रू॒पाणि॒ बिभ्र॑तः।
वा॒चस्पति॒र्बला॒ तेषां॑ त॒न्वो॑ अ॒द्य द॑धातु मे ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
ये त्रि॑ष॒प्ताः प॑रि॒यन्ति॒ विश्वा॑ रू॒पाणि॒ बिभ्र॑तः।
वा॒चस्पति॒र्बला॒ तेषां॑ त॒न्वो॑ अ॒द्य द॑धातु मे ॥
०१ ये त्रिषप्ताः ...{Loading}...
Whitney
Translation
- The thrice seven that go about, bearing all forms—let the lord of
speech assign to me today their powers, [their] selves (tanū́).
Notes
Ppp. reads paryanti in a, and tanvam adhyādadhātu me for d.
MS. combines trisaptā́s in a, and tanvò ‘dyá in d. The ṣ of
our triṣapta is prescribed in Prāt. ii. 98; vācas p- is quoted under
Prāt. ii. 71.
Trisaptā́s is plainly used as the designation of an indefinite number,
= ‘dozens’ or ‘scores.’ Supposing śrutá to signify one’s acquired
sacred knowledge, portion of śruti, it perhaps refers to the sounds
or syllables of which this is made up. If, on the other hand, śruta
(as in vi. 41. 1) means ‘sense of hearing,’ the triṣaptās may be the
healthy hearers, old and young (so R.). R. prefers to regard tanvàs as
gen. sing.: tanvò me = ’to me’; the comm. does the same; Weber
understands accus. pl. Read in our edition bálā (an accent-sign
dropped out under -lā).
As an example of the wisdom of the comm., it may be mentioned that he
spends a full quarto page and more on the explanation of triṣaptās.
First, he conjectures that it may mean ’three or seven’; as the three
worlds, the three guṇas, the three highest gods; or, the seven seers,
the seven planets, the seven troops of Maruts, the seven worlds, the
seven meters, or the like. Secondly, it may mean ’three sevens,’ as
seven suns (for which is quoted TA. i. 7. 1) and seven priests and seven
Adityas (TA. i. 13. 3; RV. ix. 114. 3), or seven rivers and seven worlds
and seven quarters (TB. ii. 8. 3⁸), or seven planets and seven seers and
seven Marut-troops. Thirdly, it may signify simply thrice seven or
twenty-one, as twelve months + five seasons + three worlds + one sun
(TS. vii. 3. 105), or five mahābhūtas + five breaths + five
jñānendriyas + five karmendriyas + one antaḥkaraṇa. At any rate,
they are gods, who are to render aid. ⌊Discussed by Whitney, Festgruss
an Roth, p. 94.⌋
Griffith
Now may Vachaspati assign to me the strength and powers of Those Who, wearing every shape and form, the triple seven, are wandering round.
पदपाठः
ये। त्रि॒ऽस॒प्ताः। प॒रि॒ऽयन्ति॑। विश्वा॑। रू॒पाणि॑। बिभ्र॑तः। वा॒चः। पतिः॑। वला॑। तेषा॑म्। त॒न्वः। अ॒द्य। द॒धा॒तु॒। मे॒।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वाचस्पतिः
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- मेधा जनक
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
बुद्धि की वृद्धि के लिये उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो पदार्थ (त्रि-सप्ताः) १−सबके संतारक, रक्षक परमेश्वर के सम्बन्ध में, यद्वा, २−रक्षणीय जगत् [यद्वा−तीन से सम्बद्ध ३−तीनों काल, भूत, वर्तमान और भविष्यत्। ४−तीनों लोक, स्वर्ग, मध्य और भूलोक। ५−तीनों गुण, सत्त्व, रज और तम। ६−ईश्वर, जीव और प्रकृति। यद्वा, तीन और सात=दस। ७−चार दिशा, चार विदिशा, एक ऊपर की और एक नीचे की दिशा। ८−पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ, अर्थात् कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, नासिका और पाँच कर्म इन्द्रियाँ, अर्थात् वाक्, हाथ, पाँव, पायु, उपस्थ। यद्वा, तीन गुणित सात=इक्कीस। ९−महाभूत ५, प्राण ५, ज्ञान इन्द्रियाँ ५, कर्म इन्द्रियाँ ५, अन्तःकरण १ इत्यादि] के सम्बन्ध में [वर्त्तमान] होकर, (विश्वा=विश्वानि) सब (रूपाणि) वस्तुओं को (बिभ्रतः) धारण करते हुए (परि) सब ओर (यन्ति) व्याप्त हैं। (वाचस्पतिः) वेदरूप वाणी का स्वामी परमेश्वर (तेषाम्) उनके (तन्वः) शरीर के (बला=बलानि) बलों को (अद्य) आज (मे) मेरे लिये (दधातु) दान करे ॥१॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - आशय यह है कि तृण से लेकर परमेश्वरपर्यन्त जो पदार्थ संसार की स्थिति के कारण हैं, उन सबका तत्त्वज्ञान (वाचस्पतिः) वेदवाणी के स्वामी सर्वगुरु जगदीश्वर की कृपा से सब मनुष्य वेद द्वारा प्राप्त करें और उस अन्तर्यामी पर पूर्ण विश्वास करके पराक्रमी और परोपकारी होकर सदा आनन्द भोगें ॥१॥ भगवान् पतञ्जलि ने कहा है−योगदर्शन, पाद १ सूत्र २६। स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् ॥ वह ईश्वर सब पूर्वजों का भी गुरु है क्योंकि वह काल से विभक्त नहीं होता ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: १−शब्दार्थव्याकरणादिप्रक्रिया−ये। पदार्थाः। त्रि-सप्ताः। तरतेर्ड्रिः। उ० ५।६६। इति तृ तरणे−ड्रि। तरति तारयति तार्यते वा त्रिः। परमेश्वरो जगद्वा। संख्यावाची वा। सप्यशूभ्यां तुट् च। उ० १।१५७। इति षप समवाये−कनिन्, तुट् च। सपति समवैतीति सप्तन् संख्याभेदो वा। यद्वा, षप समवाये−क्त। त्रिणा तारकेण परमेश्वरेण तारणीयेन जगता वा सह सम्बद्धाः पदार्थाः। यद्वा। त्रयश्च सप्त चेति त्रिषप्ता दश देवाः। यद्वा। त्रिगुणिताः सप्त एकविंशतिसंख्याकाः पदार्थाः। डच्-प्रकरणे संख्यायास्तत्पुरुषस्योपसंख्यानं कर्तव्यम्। वार्तिकम्, पा० ५।४।७३। इति समासे डच्। विशेषव्याख्या भाषायां क्रियते। परि-यन्ति। इण् गतौ, लट्। परितः सर्वतो गच्छन्ति व्याप्नुवन्ति। विश्वा। अशूप्रुषिलटिकणिखटिविशिभ्यः क्वन्। उ० १।१५१। इति विश प्रवेशे-क्वन्। शेश्छन्दसि बहुलम्। पा० ६।१।७०। इति शेर्लोपः। विश्वानि। सर्वाणि। रूपाणि। खष्पशिल्पशष्पवाष्परूपपर्पतल्पाः। उ० ३।२८। इति रु ध्वनौ−प प्रत्ययो दीर्घश्च। रूयते कीर्त्यते तद् रूपम्। यद्वा, रूप रूपकरणे−अच्। सौन्दर्याणि, चेतनाचेतनात्मकानि वस्तूनि। बिभ्रतः। डुभृञ् धारणपोषणयोः−लटः शतृ। जुहोत्यादित्वात् शपः श्लुः। नाभ्यस्ताच्छतुः। पा० ७।१।७८। इति नुमः प्रतिषेधः। धारयन्तः। पोषयन्तः। वाचः। क्विब् वचिप्रच्छिश्रि०। उ० २।५७। इति वच् वाचि−क्विप्। दीर्घश्च। वाण्याः। वेदात्मिकायाः। पतिः। पातेर्डतिः। उ० ४।५७। इति पा रक्षणे−डति। रक्षकः। सर्वगुरुः परमेश्वरः। वाचस्पतिः−षष्ठ्याः पतिपुत्र०। पा० ८।३।५३। इति विसर्गस्य सत्त्वम्। बला। बल हिंसे जीवने च−पचाद्यच्। पूर्ववत् शेर्लोपः। बलानि। तेषाम्। त्रिसप्तानां पदार्थानाम्। तन्वः। भृमृशीङ्०। उ० १।७। इति तनु विस्तृतौ−उ प्रत्ययः। ततः स्त्रियाम् ऊङ्। उदात्तस्वरितयोर्यणः स्वरितोऽनुदात्तस्य। पा० ८।२।४। इति विभक्तेः स्वरितः, उदात्तस्य ऊकारस्य यणि परिवर्त्तिते। तन्वाः, शरीरस्य। अद्य। सद्यः परुत्परार्यैषमः०। पा० ५।३।२२। इति इदम् शब्दस्य अश्भावः, द्यस् प्रत्ययो दिनेऽर्थे च निपात्यते। अस्मिन् दिने, अध्ययनकाले। दधातु। डुधाञ् धारणपोषणयोः, दाने च−लोट्। जुहोत्यादिः। शपः श्लुः। धारयतु, स्थापयतु, ददातु। मे। मह्यम्, मदर्थम् ॥
०२ पुनरेहि वाचस्पते
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
पुन॒रेहि॑ वाचस्पते दे॒वेन॒ मन॑सा स॒ह।
वसो॑ष्पते॒ नि र॑मय॒ मय्ये॒वास्तु॒ मयि॑ श्रु॒तम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
पुन॒रेहि॑ वाचस्पते दे॒वेन॒ मन॑सा स॒ह।
वसो॑ष्पते॒ नि र॑मय॒ मय्ये॒वास्तु॒ मयि॑ श्रु॒तम् ॥
०२ पुनरेहि वाचस्पते ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Come again, lord of speech, together with divine mind; lord of good,
make [it] stay (ni-ram); in me, in myself be what is heard.
Notes
Two of our mss. (H. O.) have rāmaya in c. Ppp. begins with upa
neha, and has asoṣpate in c, which R. prefers. But MS. rather
favors our text, reading, for c, d, vásupate ví ramaya máyy evá
tanvàm máma; and it begins a with upapréhi. The comm. explains
śrutam as upādhyāyād vidhito ‘dhītaṁ vedaśāstrādikam; and adds
“because, though well learned, it is often forgotten.”
Griffith
Come thou again, Vachaspati, come with divine intelligence. Vasoshpati, repose thou here. In me be Knowledge, yea, in me.
पदपाठः
पुनः॑। आ। इ॒हि॒। वा॒चः॒। प॒ते॒। दे॒वेन॑। मन॑सा। स॒ह। वसोः॑। प॒ते॒। नि। र॒म॒य॒। मयि॑। ए॒व। अ॒स्तु। मयि॑। श्रु॒तम्।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वाचस्पतिः
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- मेधा जनक
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
बुद्धि की वृद्धि के लिये उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (वाचस्पते) हे वाणी के स्वामी परमेश्वर ! तू (पुनः) वारंवार (एहि) आ। (वसोः पते) हे श्रेष्ठ गुण के रक्षक ! (देवेन) प्रकाशमय (मनसा सह) मन के साथ (नि) निरन्तर (रमय) [मुझे] रमण करा, (मयि) मुझमें वर्त्तमान (श्रुतम्) वेदविज्ञान (मयि) मुझमें (एव) ही (अस्तु) रहे ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - मनुष्य प्रयत्नपूर्वक (वाचस्पति) परमगुरु परमेश्वर का ध्यान निरन्तर करता रहे और पूरे स्मरण के साथ वेदविज्ञान से अपने हृदय को शुद्ध करके सदा सुख भोगे ॥२॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: टिप्पणी−भगवान् यास्कमुनि ने (वाचस्पति) का अर्थवाचः पाता वा पालयिता वा−अर्थात् वाणी की रक्षा करनेवाला या करानेवाला किया है−निरु० १०।१७। और निरु० १०।१८। में उदाहरणरूप से इस मन्त्र का पाठ इस प्रकार है। पुन॒रेहि॑ वाचस्पते दे॒वेन॒ मनसा॑ स॒ह। वसो॑ष्पते॒ निरा॑मय॒ मय्ये॒व त॒न्वं मम॑ ॥१॥ हे वाणी के स्वामी ! तू बारम्बार आ। हे धन वा अन्न के रक्षक ! प्रकाशमय मन के साथ मुझमें ही मेरे शरीर को नियमपूर्वक रमण करा ॥ मन की उत्तम शक्तियों के बढ़ाने के लिये (यज्जाग्र॑तो दू॒रमु॒दैति॒ दैव॒म्) इत्यादि यजुर्वेद अ० ३४ म० १-६ भी हृदयस्थ करने चाहिएँ ॥ २−पुनः। पनाय्यते स्तूयत इति। पन स्तुतौ−अर् अकारस्य उत्वं पृषोदरादित्वात्। अवधारणेन। वारंवारम्। आ+इहि। आ+इण् गतौ लोट्। आगच्छ। वाचः+पते। मं० १। हे वाण्याः स्वामिन्, हे ब्रह्मन्। वाचस्पतिर्वाचः पाता वा पालयिता वा−नि० १०।१७। देवेन। नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः। पा० ३।१।१३४। इति दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमदस्वप्नकान्ति- गतिषु−पचाद्यच्। दिव्येन, द्योतकेन, प्रकाशमयेन। मनसा। सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। इति मन ज्ञाने असुन्। चित्तेन, अन्तःकरणेन। वसोः। शृस्वृस्निहीति। उ० १।१०। इति वस निवासे आच्छादने−उ प्रत्ययः। श्वसो वसीयश्श्रेयसः। पा० ५।४।८०। अत्र वसु शब्दः प्रशस्तवाची। श्रेष्ठगुणस्य। अथवा छन्दसि वसुनः धनस्य। पते। मं० १। पालयितः, स्वामिन्। वसोष्पते। षष्ठ्याः पतिपुत्र०। पा० ८।३।५३। इति विसर्गस्य सत्त्वम्। आदेशप्रत्ययोः। पा० ८।३।५९। इति षत्वम्। नि। नियमेन, नितराम्। रमय। हेतुमति च। पा० ३।१।२६। इति रमु क्रीडायाम्−णिच्−लोट्। णिचि वृद्धिप्राप्तौ। मितां ह्रस्वः। पा० ६।४।९२। इति मित्त्वाद् उपधाह्रस्वः। क्रीडय, आनन्दय माम्। मयि। ममात्मनि वर्त्तमानम्। श्रुतम्। श्रूयते स्म यदिति। श्रु श्रुतौ−क्त। अधीतम्, वेदशास्त्रम् ॥
०३ इहैवाभि वि
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इ॒हैवाभि वि त॑नू॒भे आर्त्नी॑ इव॒ ज्यया॑।
वा॒चस्पति॒र्नि य॑च्छतु॒ मय्ये॒वास्तु॒ मयि॑ श्रु॒तम् ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
इ॒हैवाभि वि त॑नू॒भे आर्त्नी॑ इव॒ ज्यया॑।
वा॒चस्पति॒र्नि य॑च्छतु॒ मय्ये॒वास्तु॒ मयि॑ श्रु॒तम् ॥
०३ इहैवाभि वि ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Just here stretch thou on, as it were the two tips of the bow with
the bow-string; let the lord of speech make fast (ni-yam); in me, in
myself, be what is heard.
Notes
Ppp. reads, in a, b, tanū ubhey aratnī. With the verse is to be
compared RV. x. 166. 3. Prāt. i. 82 prescribes the pada-reading of
ā́rtnī॰iva, and iv. 3 quotes abhi vi tanu. ⌊That is, apparently
(a), ‘Do [for me] some stretching [or fastening],’ namely, of my
sacred learning, as also in c.⌋
Griffith
Here, even here, spread sheltering arms like the two bow-ends strained with cord. This let Vachaspati confirm. In me be Knowledge, yea, in me.
पदपाठः
इ॒ह। ए॒व। अ॒भि। वि। त॒नु॒। उ॒भे इति॑। आलीं॑ इ॒वेत्यार्ली॑ऽइव। ज्यया॑। वा॒चः। पतिः॑। नि। य॒च्छ॒तु॒। मयि॑। ए॒व। अ॒स्तु॒। मयि॑। श्रु॒तम्।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वाचस्पतिः
- अथर्वा
- अनुष्टुप्
- मेधा जनक
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
बुद्धि की वृद्धि के लिये उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (इह) इस के ऊपर (एव) ही (अभि) चारों ओर से (वितनु) तू अच्छे प्रकार फैल, (इव) जैसे (उभे) दोनों (आर्त्नी) धनुष कोटिएँ (ज्यया) जय के साधन, चिल्ला के साथ [तन जाती हैं]। (वाचस्पतिः) वाणी का स्वामी (नियच्छतु) नियम में रक्खे, (मयि) मुझमें [वर्त्तमान] (श्रुतम्) वेदविज्ञान (मयि) मुझमें (एव) ही (अस्तु) रहे ॥३॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - जैसे संग्राम में शूरवीर धनुष् की दोनों कोटियों को डोरी में चढ़ा कर बाण से रक्षा करता है, उसी प्रकार आदिगुरु परमेश्वर अपने कृपायुक्त दोनों हाथों को [अर्थात् अज्ञान की हानि और विज्ञान की वृद्धि को] इस मुझ ब्रह्मचारी पर फैला कर रक्षा करे और नियमपालन में दृढ़ करके परमसुखदायक ब्रह्मविद्या का दान करे और विज्ञान का पूरा स्मरण मुझमें रहे ॥३॥ भगवान् यास्क के अनुसार−निरुक्त ९।१७ (ज्या) शब्द का अर्थ जीतनेवाली यद्वा आयु घटानेवाली अथवा बाणों को छोड़नेवाली वस्तु है ॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ३−इह। अत्र, अस्योपरि, अस्मिन् ब्रह्मचारिणि, ममोपरि। अभि। अभितः सर्वतः। वितनु। तनु विस्तारे−लोट्, अकर्मकः। वितनुहि, वितन्यस्व विस्तृतो भव। उभे। ईदूदेद् द्विवचनं प्रगृह्यम्। पा० १।१।११। इति प्रगृह्यम्। द्वये। आर्त्नी। आङ्+ऋ गतौ-क्तिन्, नकारोपसर्जनम्। पूर्ववत् प्रगृह्यम्, आर्त्नी, धनुष्कोटी, अटन्यौ धनुः प्रान्ते। आर्त्नी अर्तन्यौ वारण्यौ वारिषण्यौ वा निरु० ९।३९ ॥ ज्यया। ज्या जयतेर्वा जिनातेर्वा प्रजावयतीषूनिति वा निरु० ९।१७। अघ्न्यादयश्च। उ० ४।११२। इति जि जये, वा, ज्या वयोहानौ णिच्−वा, जु रंहसि गतौ, णिच्−यक्। निपातनात् साधुः। यद्वा। अन्येष्वपि दृश्यते। पा० ३।२।१०१। इति ज्यु गत्याम् यद्वा, ज्या वयोहानौ, णिच्-ट। टाप्। धनुर्गुणेन, मौर्व्या। वाचः+पतिः मं० १ ॥ वाण्याः स्वामी। नि+यच्छतु। नियमतु, नियमे रक्षतु। अन्यत् सुगमं व्याख्यातं च ॥
०४ उपहूतो वाचस्पतिरुपास्मान्वाचस्पतिर्ह्वयताम्
विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
उप॑हूतो वा॒चस्पति॒रुपा॒स्मान्वा॒चस्पति॑र्ह्वयताम्।
सं श्रु॒तेन॑ गमेमहि॒ मा श्रु॒तेन॒ वि रा॑धिषि ॥
मूलम् ...{Loading}...
मूलम् (VS)
उप॑हूतो वा॒चस्पति॒रुपा॒स्मान्वा॒चस्पति॑र्ह्वयताम्।
सं श्रु॒तेन॑ गमेमहि॒ मा श्रु॒तेन॒ वि रा॑धिषि ॥
०४ उपहूतो वाचस्पतिरुपास्मान्वाचस्पतिर्ह्वयताम् ...{Loading}...
Whitney
Translation
- Called on is the lord of speech; on us let the lord of speech call;
may we be united with (sam-gam) what is heard; let me not be parted
with what is heard.
Notes
Ppp. has, for b ff., upahūto ‘haṁ vācaspatyu soṁsṛtena rādhasi
sāmṛtena vi rādhasi—badly corrupt. For similar antitheses with upahū,
see AB. ii. 27; VS. ii. 10 b, 11 a. In AA. (ii. 7. 1) is a somewhat
analogous formula for the retention of what is heard or studied
(adīta): śrutam me mā pra hāsīr anenā ‘dhītenā ‘horātrānt saṁ
dadhāmi. The Anukr. notes the metrical irregularity of the second pāda.
Griffith
Vachaspati hath been invoked: may he invite us in reply. May we adhere to Sacred Lore. Never may I be reft thereof.
पदपाठः
उप॑ऽहूतः। वा॒चः। पतिः॑। उप॑। अ॒स्मान्। वा॒चः। पतिः॑। व्ह॒य॒ता॒म्। सम्। श्रुतेन॑। ग॒मे॒म॒हि॒। मा। श्रुतेन॑। वि। रा॒धि॒षि॒।
अधिमन्त्रम् (VC)
- वाचस्पतिः
- अथर्वा
- चतुष्पदा विराड् उरोबृहती
- मेधा जनक
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - विषयः
बुद्धि की वृद्धि के लिये उपदेश।
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पदार्थः
पदार्थान्वयभाषाः - (वाचस्पतिः) वाणी का स्वामी, परमेश्वर (उपहूतः) समीप बुलाया गया है, (वाचस्पतिः) वाणी का स्वामी (अस्मान्) हमको (उपह्वयताम्) समीप बुलावे। (श्रुतेन) वेदविज्ञान से (संगमेमहि) हम मिले रहें। (श्रुतेन) वेदविज्ञान से (मा विराधिषि) मैं अलग न हो जाऊँ ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - भावार्थः
भावार्थभाषाः - ब्रह्मचारी लोग परमेश्वर का आवाहन करके निरन्तर अभ्यास और सत्कार से वेदाध्ययन करें, जिससे प्रीतिपूर्वक आचार्य की पढ़ायी ब्रह्मविद्या उनके हृदय में स्थिर होकर यथावत् उपयोगी होवे ॥ इस सूक्त का यह भी तात्पर्य है कि जिज्ञासु ब्रह्मचारी अपने शिक्षक आचार्यों का सदा आदर सत्कार करके यत्नपूर्वक विद्याभ्यास करें, जिससे वह शास्त्र उनके हृदय में दृढ़भूमि होवे ॥४॥
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी - पादटिप्पनी
टिप्पणी: ४−उप+हूतः। उप+ह्वेञ् आह्वाने-क्त। समीपं कृतावाहनः, कृतस्मरणः। वाचः+पतिः। म० १ ॥ वाण्याः पालयिता, परमेश्वरः। उप। समीपे। आदरेण। ह्वयताम्। ह्वेञ्-लोट्। आह्वयतु स्मरतु। श्रुतेन। मं० २। अधीतेन, शास्त्रविज्ञानेन। सम्+गमेमहि। सम् पूर्वकात् गम्लृ संगतौ−आशीर्लिङि। समो गम्यृच्छि- प्रच्छि०। पा० १।३।२९। इति आत्मनेपदम्, व्यवहिताश्च। पा० १।४।८२। इति समः क्रियापदेन संबन्धः। संगच्छेमहि, संगता भूयास्म। मा+वि+राधिषि। राध संसिद्धौ। विराध वियोगे लुङि, आत्मनेपदमेकवचनम् इडागमश्च। माङि लुङ्। पा० ३।३।१७५। इति लुङ्। न माङ्योगे। पा० ६।४।७४। इति माङि अटोऽभावः। अहं वियुक्तो मा भूवम् ॥