एकादशः परिच्छेदः
स्तुतिलक्षणनिर्देशः
व्यवहारेऽपि संमूढं दृष्टिमालाकुलं जगत्।
अद्वये व्योमवत् तत्त्वे निनीषुः सत्त्वभव्यताम्॥१॥
लोकद्वयोपकाराय यस्तथ्यां लोकसंवृतिम्।
लोकोत्तरश्च यः प्राह तस्मै लोकविदे नमः॥२॥
इति मध्यमकस्येदं संक्षेपाद् धृदयं कृतम्।
धीमतां नैकसूत्रान्तबिम्बदर्शनदर्पणम्॥३॥
dbu ma’i snin po’i bstan bcos ‘di /
yan dag bkrol nas dge ba ni //
cun shig bdag gis gan thob des /
‘gro rnams byan chub snod gyur cig //4//
स्तुतिलक्षणनिर्देशो नाम एकादशः परिच्छेदः
तर्कज्वाला नाम सूत्रं समाप्तम्कुलं जगत्।
अद्वये व्योमवत् तत्त्वे निनीषुः सत्त्वभव्यताम्॥१॥
लोकद्वयोपकाराय यस्तथ्यां लोकसंवृतिम्।
लोकोत्तरश्च यः प्राह तस्मै लोकविदे नमः॥२॥
इति मध्यमकस्येदं संक्षेपाद् धृदयं कृतम्।
धीमतां नैकसूत्रान्तबिम्बदर्शनदर्पणम्॥३॥
dbu ma’i snin po’i bstan bcos ‘di / yan dag bkrol nas dge ba ni // cun shig bdag gis gan thob des / ‘gro rnams byan chub snod gyur cig //4//