नागार्जुन
हेनसांग के अनुसार अश्वघोष, नागार्जुन, आर्यदेव और कुमारलब्ध (= कुमारलात) समकालीन थे। राजतंरगिणी और तारानाथ के मतानुसार नागार्जुन कनिष्क के काल में पैदा हुए थे। नागार्जुन के काल के बारे में इतने मत-मतान्तर हैं कि कोई निश्चित समय सिद्ध कर पाना अत्यन्त कठिन है, फिर भी ई.पू. प्रथम शताब्दी से ईसवीय प्रथम-द्वितीय शताब्दी के बीच कहीं उनका समय होना चाहिए। कुमारजीव ने ४०५ ई. के लगभग चीनी भाषा में नागार्जुन की जीवनी का अनुवाद किया था। ये दक्षिण भारत के विदर्भ प्रदेश में ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। वे ज्योतिष, आयुर्वेद, दर्शन एवं तन्त्र आदि विद्याओं में अत्यन्त निपुण थे और प्रसिद्ध सिद्ध तान्त्रिक थे।
प्रज्ञापारमितासूत्रों के आधार पर उन्होंने माध्यमिक दर्शन का प्रवर्तन किया था। कहा जाता है कि उनके काल में प्रज्ञापारमितासूत्र जम्बूद्वीप में अनुपलब्ध थे। उन्होंने नागलोक जाकर उन्हें प्राप्त किया तथा उन सूत्रों के दर्शन पक्ष को माध्यमिक दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया।
अस्तित्व का विश्लेषण दर्शनों का प्रमुख विषय रहा है। भारतवर्ष में इसी के विश्लेषण में दर्शनों का अभूतपूर्व विकास हुआ है। उपनिषद्-धारा में आचार्य शङ्कर का अद्वैत वेदान्त तथा बौद्ध-धारा में आचार्य नागार्जुन का शून्याद्वयवाद शिखरायमाण है। परस्पर के वाद-विवाद ने इन दोनों धाराओं के दर्शनों को उत्कर्ष की पराकाष्ठा तक पहुंचाया है। यद्यपि आचार्य शङ्कर का काल नागार्जुन से बहुत बाद का है, फिर भी नागार्जुन के समय औपनिषदिक धारा के अस्तित्व का अपलाप नहीं किया जा सकता. किन्त उसकी व्याख्या आचार्य शङ्कर की व्याख्या से निश्चित ही भिन्न रही होगी। आचार्य नागार्जुन के आविर्भाव के बाद भारतीय दार्शनिक चिन्तन में नया मोड़ आया। उसमें नई गति एवं प्रखरता का प्रादुर्भाव हुआ। वस्तुतः नागार्जुन के बाद ही भारतवर्ष में यथार्थ दार्शनिक चिन्तन प्रारम्भ हुआ। नागार्जुन ने जो मत स्थापित किया, उसका प्रायः सभी बौद्ध-बौद्धेतर दर्शनों पर व्यापक प्रभाव पड़ा और उसी के खण्डन-मण्डन में अन्य दर्शनों ने अपने को चरितार्थ किया।
नागार्जुन के मतानुसार वस्तु की परमार्थतः सत्ता एक ‘शाश्वत अन्त’ है तथा व्यवहारतः असत्ता दूसरा ‘उच्छेद अन्त’ है। इन दोनों अन्तों का परिहार कर वे अपना अनूठा मध्यम मार्ग प्रकाशित करते हैं। उनके अनुसार परमार्थतः ‘भाव’ नहीं है तथा व्यवहारतः या संवृतितः ‘अभाव’ भी नहीं है। यही नागार्जुन का मध्यम मार्ग या माध्यमिक दर्शन है। इस मध्यम मार्ग की व्यवस्था उन्होंने अन्य बौद्धों की भाँति प्रतीत्यसमुत्पाद की
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बौद्धदर्शन
अपनी विशिष्ट व्याख्या के आधार पर की है। वे ‘प्रतीत्य’ शब्द द्वारा शाश्वत अन्त का तथा ‘समुत्पाद’ शब्द द्वारा उच्छेद अन्त का परिहार करते हैं और शून्यतादर्शन की स्थापना करते हैं।
नागार्जुन के नाम पर अनेक ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, किन्तु उनमें मूलमाध्यमिककारिका, विग्रहव्यावर्तनी, युक्तिषष्टिका, शून्यतासप्तति, रत्नावली और वैदल्यसूत्र प्रमुख हैं। इनमें मूलमाध्यमिककारिका शरीरस्थानीय है तथा अन्य ग्रन्थ उसी के अवयव या पूरक के रूप में माने जाते हैं। कहा जाता है कि उन्होंने मूलामाध्यमिककारिका पर ‘अकुतोभया’ नाम की वृत्ति लिखी थी, किन्तु अन्य साक्ष्यों के प्रकाश में आने पर अब यह मत विद्वानों में मान्य नहीं है। इसके अतिरिक्त सुहृल्लेख एवं सूत्रसमुच्चय आदि भी उनकी कृतियाँ हैं। भारतीय बौद्ध आचार्यों की कृतियों का तिब्बत के ‘तन-ग्युर’ नामक संग्रह में संकलन किया गया है, हम उसके आधार पर आचार्य नागार्जुन के ग्रन्थों की सूची वर्तमान परिच्छेद के अन्त में प्रस्तुत कर रहे हैं।
आर्यदेव
आर्यदेव आचार्य नागार्जुन के पट्ट शिष्यों में से अन्यतम हैं। इनके और नागार्जुन के दर्शन में कुछ भी अन्तर नहीं है। उन्होंने नागार्जुन के दर्शन को ही सरल भाषा में स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया है। इनकी रचनाओं में चतुःशतक प्रमुख है, जिसे ‘योगाचार चतुःशतक’ भी कहते हैं। चन्द्रकीति के ग्रन्थों में इसका ‘शतक’ या ‘शतकशास्त्र’ के नाम से भी उल्लेख है। हेनसांग ने इसका चीनी भाषा में अनुवाद किया था। संस्कृत में यह ग्रन्थ पूर्णतया उपलब्ध नहीं है। सातवें से सोलहवें प्रकरण तक भोट भाषा से संस्कृत में रूपान्तरित रूप में उपलब्ध होता है। यह रूपान्तरण भी शत-प्रतिशत ठीक नहीं है। प्रश्नोत्तर शैली में माध्यमिक सिद्धान्त बड़े ही रोचक ढंग से आर्यदेव ने प्रतिपादित किये हैं। कुछ प्रश्न तो ऐसे हैं, जिन्हें आज के विद्वान भी उपस्थित करते हैं, जिनका आर्यदेव ने सुन्दर समाधान किया है।
____ हेनसांग के अनुसार ये सिंहल देश से भारत आये थे। इनकी एक ही आंख थी, इसलिए इन्हें काणदेव भी कहा जाता था। इनके देव एवं नीलनेत्र नाम भी प्रसिद्ध थे। कुमारजीव ने ई. सन् ४०५ में इनकी जीवनी का अनुवाद चीनी भाषा में किया था। ‘चित्तविशुद्धिप्रकरण’ ग्रन्थ भी इनकी रचना है- ऐसी प्रसिद्धि है। हस्तवालप्रकरण या मुष्टिप्रकरण भी इनका ग्रन्थ माना जाता है।
__परम्परा में जितना नागार्जुन को प्रामाणिक माना जाता है, उतना ही आर्यदेव को भी। इन दोनों आचार्यों के ग्रन्थ माध्यमिक परम्परा में मूलशास्त्र या आगम के रूप में माने जाते हैं।
बुद्धपालित
माध्यमिकों की आचार्य परम्परा में आर्यदेव के बाद बुद्धपालित ही ऐसे आचार्य हैं जिन्होंने नागार्जुन की प्रमुख रचना मूलमाध्यमिककारिका पर एक प्रशस्त व्याख्या
IITRALERTETTER
महायान के प्रमुख आचार्य
५३५ लिखी, जो ‘बुद्धपालिती’ के नाम से प्रसिद्ध है। यह संस्कृत में उपलब्ध नहीं है। भोटभाषा में इसका अनुवाद उपलब्ध है। यद्यपि इनके और नागार्जुन के बीच आर्यशूर और नागबोधि आदि आचार्य सम्भावित हैं, किन्तु उनकी कोई भी रचना उपलब्ध नहीं है, अतः उनके बारे में ठीक-ठीक निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
विद्वानों की राय में बुद्धपालित के सिद्धान्त नागार्जुन से बिलकुल भिन्न नहीं हैं, फिर भी वे माध्यमिक परम्परा में अत्यधिक चर्चित हैं। मूलमाध्यमिककारिका की व्याख्या में उन्होंने सर्वत्र प्रसंग-वाक्यों का प्रयोग किया है, साधन वाक्यों का नहीं, जैसे कि बौद्ध नैयायिक साधनवाक्यों का प्रयोग करते हैं। इसी को लेकर भावविवेक ने उनका खण्डन किया और आचार्य चन्दद्रकीर्ति ने भावविवेक का खण्डन कर बुद्धपालित के विचारों का समर्थन किया। इस तरह हम देखते हैं कि आगे चलकर स्वतन्त्रिक माध्यमिक और प्रासङ्गिक माध्यमिक के रूप में जो माध्यमिकों का विकास हुआ, उसकी नींव आचार्य बुद्धपालित के समय ही पड़ जाती है।
आचार्य नागार्जुन द्वारा प्रतिपादित निःस्वभावता (शून्यता) को स्वतन्त्र हेतुओं से सिद्ध करना चाहिए, अथवा नहीं - इस विषय को लेकर माध्यमिकों में दो शाखाएं विकसित हो गईं- स्वातन्त्रिक माध्यमिक एवं प्रासङ्गिक माध्यमिक। स्वातन्त्रिकों का कहना है कि निःस्वभावता को स्वतन्त्र हेतुओं से सिद्ध करना चाहिए, जबकि प्रासङ्गिकों का कहना है कि ऐसा करना माध्यमिक के लिए उचित नहीं है, क्योंकि वे हेतु, पक्ष आदि किसी की भी सत्ता नहीं मानते। इसलिए जो लोग स्वभावसत्ता की हेतुओं द्वारा सिद्धि करते हैं, माध्यमिक को चाहिए कि उनके हेतुओं में दोष दिखलाकर यह सिद्ध करना चाहिए कि उनके हेतु किसी की भी स्वाभावसत्ता सिद्ध करने में सक्षम नहीं है। इस प्रकार दोष दिखलाना ही ‘प्रसङ्ग’ का अर्थ है। केवल प्रसङ्ग का प्रयोग करने के कारण वे प्रासङ्गिक कहलाते हैं।
आगे चलकर स्वातन्त्रिकों में भी दो शाखाएं विकसित हो गई- सूत्राचार स्वातन्त्रिक माध्यमिक एवं योगाचार स्वातन्त्रिक माध्यमिक। प्रथम शाखा के प्रवर्तक आचार्य भावविवेक एवं दूसरी के आचार्य शान्तरक्षित हैं।
भावविवेक
माध्यमिक आचार्य-परम्परा में आचार्य भावविवेक या भव्य का विशिष्ट स्थान है। आचार्य चन्द्रकीर्ति ने इन्हें प्रकाण्ड पण्डित एवं महान् तार्किक कहा है। आचार्य नागार्जुन की मूलमाध्यमिककारिका की टीका प्रज्ञाप्रदीप, मध्यमकहृदय एवं उसकी वृत्ति तर्कज्वाला तथा मध्यमकार्थसंग्रह आदि इनकी प्रमुख रचनाएं हैं। तर्कज्वाला इनकी विशिष्ट रचना है, जो विद्वानो में अत्यधिक चर्चित है। इसमें उन्होंने बौद्ध एवं बौद्धेतर सभी दर्शनों
की स्पष्ट एवं विस्तृत आलोचना की है। दुर्भाग्य से आज भावविवेक की कोई भी रचना - संस्कृत में उपलब्ध नहीं है। भावविवेक परमार्थतः शून्यवादी होते हुए भी व्यवहार में
बाह्यार्थवादी हैं - यह उनकी रचनाओं के अनुशीलन से स्पष्ट है।
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- बौद्धदर्शन आकाशा छ
चन्द्रकीर्ति
आचार्य चन्द्रकीर्ति प्रासंगिक माध्यमिक मत के प्रबल समर्थक रहे हैं। आचार्य भावविवेक ने बुद्धपालित द्वारा केवल प्रसङ्गवाक्यों का ही प्रयोग किया जाने पर अनेक आक्षेप किये। उन (भावविवेक) का कहना है कि केवल प्रसङ्गवाक्यों के द्वारा परवादी को शून्यता का ज्ञान नहीं कराया जा सकता, अतः स्वतन्त्र अनुमान का प्रयोग नितान्त आवश्यक है। इस पर चन्द्रकीर्ति कहना है कि असली माध्यमिक को स्वतन्त्र अनुमान का प्रयोग नहीं ही करना चाहिए। स्वतन्त्र अनुमान का प्रयोग तभी सम्भव है, जबकि व्यवहार में वस्तु की स्वलक्षणसत्ता स्वीकार की जाए। चन्द्रकीर्ति के मतानुसार स्वलक्षणसत्ता व्यवहार में भी नहीं है। यही नागार्जुन का भी अभिप्राय है। उनका कहना है कि परमार्थतः शून्यता मानते हुए व्यवहार में स्वलक्षणसत्ता मानकर भावविवेक ने नागार्जुन के अभिप्राय के विपरीत आचरण किया है। चन्द्रकीर्ति के अनुसार भावविवेक नागार्जुन के सही मन्तव्य को नहीं समझ सके। चन्द्रकीर्ति प्रसङ्गवाक्यों का प्रयोजन परवादी को अनुमान विरोध दिखलाना मात्र मानते हैं। प्रतिवादी जब अपने मत में विरोध देखता है तो स्वयं उससे हट जाता है। यदि विरोध दिखलाने पर भी वह नहीं हटता है तो स्वतन्त्र हेतु के प्रयोग से भी उसे नहीं हटाया जा सकता, अतः स्वतन्त्र अनुमान का प्रयोग व्यर्थ है। स्वतन्त्र अनुमान नहीं मानने पर भी चन्द्रकीर्ति परप्रसिद्ध अनुमान मानते हैं, जिसके धर्मी, पक्षधर्मता आदि प्रतिपक्ष को मान्य होते हैं। न्यायपरम्परा के अनुसार पक्ष-प्रतिपक्ष दोनों द्वारा मान्य उभयप्रसिद्ध अनुमान का प्रयोग उचित माना जाता है। अर्थात् दृष्टान्त आदि वादी एवं प्रतिवादी दोनों को मान्य होना चाहिए। किन्तु चन्द्रकीर्ति यह आवश्यक नहीं मानते। उनका कहना है कि यह उभयप्रसिद्धि स्वतन्त्र हेतु मानने पर निर्भर है। स्वतन्त्र हेतु स्वलक्षणसत्ता मानने पर निर्भर है। स्वलक्षणसत्ता मानना ही सारी गड़बड़ी का मूल है। अतः चन्द्रकीर्ति के अनुसार भावविवेक ने स्वलक्षणसत्ता मानकर नागार्जुन के दर्शन को विकृत कर दिया है। केवल प्रसङ्ग का प्रयोग ही पर्याप्त है और उसी से परप्रतिज्ञा का निषेध हो जाता है। विद्वानों की राय में चन्द्रकीर्ति ने आचार्य नागार्जुन के अभिप्राय को यथार्थरूप में प्रस्तुत किया। ____ आचार्य चन्द्रकीर्ति की अनेक रचनाएं हैं, जिनमें नागार्जुन - प्रणीत मूलमाध्यमिककारिका की टीका प्रसन्नपदा, आर्यदेव के चतुःशतक की टीका, मध्यमकावतार और उसकी स्ववृत्ति प्रमुख है। इन रचनाओं के द्वारा चन्द्रकीर्ति ने नागार्जुन के माध्यमिक दर्शन की सही समझ पैदा की है।
असङ्ग
आर्य असङ्ग, वसुबन्धु एवं विरिञ्चिवत्स तोनों भाई थे। इनमें आर्य असङ्ग सबसे बड़े एवं विरिञ्चिवत्स सबसे छोटे थे। गान्धार प्रदेश के पुरुषपुर में इनका जन्म हुआ था। ये कौशिकगोत्रीय ब्राह्मण थे। एक अन्य परम्परा के अनुसार असङ्ग और वसुबन्धु की मां एक थीं, किन्तु पिता भिन्न-भिन्न थे। तारानाथ के अनुसार माता ब्राह्मणी महायान के प्रमुख आचार्य थी और उनका नाम प्रकाशशीला था। असङ्ग के पिता क्षत्रिय थे तथा वसुबन्धु के पिता ब्राह्मण। इनके काल के बारे में अत्यधिक वाद-विवाद है, किन्तु सबका परिशीलन करने के अनन्तर इनका काल चतुर्थ शताब्दी मानना उचित है। साल कित 1क आचार्य असङ्ग बौद्धदर्शन के योगाचार अर्थात् विज्ञानवाद प्रस्थान के प्रवर्तक हैं। परम्परा के अनुसार अनागत बुद्ध मैत्रेय बोधिसत्त्व ने तुषितलोक में आर्य असङ्ग को पांच ग्रन्थ प्रकाशित किये थे, जिनका असङ्ग ने लोक में प्रसार किया। इधर विद्वानों की यह धारणा बनी कि जिन ग्रन्थों के बारे में ऐसी प्रसिद्धि है, वे असङ्ग के गुरु किसी मानवरूपी मैत्रेयनाथ की रचनाएं हैं। अतः अब यह सम्भावना व्यक्त की जा रही है कि योगाचार प्रस्थान के प्रवर्तक वस्तुतः मैत्रेयनाथ हैं। जा कुछ हो, योगाचार (विज्ञानवाद) के विकास के इतिहास में असङ्ग अत्यधिक महत्वपूर्ण आचार्य हैं। मैत्रेयनाथ की समस्त रचनाएं विज्ञानवादविषयक ही हैं, यह निश्चितरूप से नहीं कहा जा सकता। उत्तरतन्त्र और अभिसमयालङ्कार तो निश्चय ही माध्यमिक ग्रन्थ हैं। असङ्ग के साहित्य में विज्ञानवाद का बहुल प्रतिपादन है। आचार्य असङ्ग की शैली आगमों की तरह है और उन्होंने युक्ति से अधिक आगमों का आश्रय लिया है। आचार्य असङ्ग की अनेक कृतियां हैं, जिनका संस्कृत मूल प्रायः अनुपलब्ध है। भोटभाषा में उनका अनुवाद उपलब्ध होता है। तथा वे वहाँ के ‘तन-ग्युर’ संग्रह में संकलित हैं। हम इस परिच्छेद के अन्त में ‘तनग्युर’ संग्रह के आधार पर उनके ग्रन्थों की सूची दे रहे हैं।
वसुबन्धु
बौद्ध जगत् में आचार्य वसुबन्धु की प्रतिभा, प्रखर पाण्डित्य एवं शास्त्रप्रणयनपटुता की बड़ी प्रतिष्ठा है। इनके ग्रन्थ अत्यन्त प्रमाणभूत माने जाते हैं। अपनी कृतियों से इन्होंने शास्ता भगवान् बुद्ध के अभिप्राय का लोक में प्रकाशन कर उस (लोक) का महान् कल्याण सिद्ध किया है। इनकी इस परार्थवृत्ति के कारण विद्वज्जन इन्हें आदर के साथ ‘द्वितीय बुद्ध’ कहते थे। ये बड़े शास्त्रार्थी भी थे। वैयाकरण वसुरात को इन्होंने शास्त्रार्थ में पराजित किया था।
ये योगाचार विज्ञानवाद दर्शनप्रस्थान के प्रवर्तक आर्य असङ्ग के छोटे भाई थे। अतः इनका भी काल उनके आस-पास ही अर्थात् चतुर्थ शताब्दी का उत्तरार्ध एवं पञ्चम शताब्दी का पूर्वार्ध मानना चाहिए। इनके गुरु के बारे में विभिन्न मत हैं। बुदोन के अनुसार काश्मीर में इन्होंने आचार्य संघभद्र से विद्याध्ययन किया था। परमार्थ के अनुसार उनके गुरु बुद्धमित्र थे तथा हेनसांग के मतानुसार ‘परमार्थ’ थे। यह हो सकता है कि इन्होंने सभी से भिन्न-भिन्न विषयों का अध्ययन किया हो। तिमी
शाज अयोध्या उन दिनों विद्या का केन्द्र थी। कहा जाता है कि युवावस्था में ही ये अपने जन्मस्थान से अयोध्या चले आए थे। यहीं पर उन्होंने विभिन्न दर्शनशास्त्रों का गम्भीर अध्ययन किया तथा अभिधर्मकोश आदि महनीय ग्रन्थों की रचना की। इससे विद्वत्समाज
के
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बौद्धदर्शन मानक में इनकी अपूर्व कीर्ति फैल गयी। इनके वैदुष्य से प्रभावित होकर अयोध्या के राजा विक्रमादित्य ने इन्हें आश्रय प्रदान किया। इतना ही नहीं, अपने पुत्र बालादित्य और रानी ध्रुवा को इनके निकट अध्ययनार्थ भेजा। विक्रमादित्य के अनन्तर जब बालादित्य राज्यसिंहासन पर अभिषिक्त हुए तो उन्होंने इन्हें अपने दरबार में स्थान दिया तथा राजकीय सम्मान प्रदान किया। विक्रमादित्य सम्भवतः स्कन्दगुप्त हों और बालादित्य नरसिंहगुप्त। अस्सी वर्ष की आयु तक ये जीवित रहे और यहीं (अयोध्या में) उनका देवाहसान हुआ। तारानाथ के अनुसार वसुबन्धु अपने जीवन के अन्तिम काल में नेपाल गये और वहीं उनका शरीरपात हुआ। उन्होंने यह भी लिखा है कि वसुबन्धु लगभग सौ वर्ष तक जीवित रहे। महापण्डित राहुल सांस्कृत्यायन के मतानुसार गान्धार में इन्होंने शरीर
छोड़ा। यामीमा
पा ज्ञातव्य है कि जीवन के प्रारम्भिक काल में आचार्य वसुबन्धु सर्वास्तिवादी थे। काश्मीर में इन्होंने वैभाषिक आचार्य संघभद्र से अध्ययन किया था। जब वैभाषिक थे, तब इन्होंने अभिधर्मकोश और उसके ऊपर भाष्य की रचना की थी। सर्वास्तिवादियों के अभिधर्मपिटक
और उसकी ‘विभाषा’ टीका को आधार बनाकर लिखे गये इनके अभिधर्मकोश की विद्वत्समाज में बड़ी ख्याति हुई तथा देश-विदेश में उसका बड़े आदर के साथ अध्ययन किया जाने लगा। वैभाषिक सिद्धान्तों को जानने के लिए उसी का जोरदार अध्ययन होने लगा और अन्य शास्त्र प्रायः गौण हो गए। अपनी गम्भीरता एवं व्यापकता के कारण यह कोश समस्त बौद्ध धर्म का मान्य एवं प्रमाणभूत ग्रन्थ है। वास्तव में यह बौद्धदर्शन की रीढ़ है और आज भी सभी देशों एवं बौद्ध सम्प्रदायों में इसक प्रामाण्य एवं आदर असन्दिग्ध है। बाणभट्ट ने तो यहाँ तक लिखा है कि शाक्य भिक्षु दिवाकर मित्र के आश्रम में शाक्य शासन में कुशल सुग्गे (तोते) भी ‘कोश’ का उपदेश देते थे। यहाँ ‘कोश’ का तात्पर्य आचार्य वसुबन्धु के अभिधर्मकोश से ही है। कोश और भाष्य के अध्ययन से लगता है कि वसुबन्धु एक स्वतन्त्र विचारक पण्डित थे। उनका झुकाव सौत्रान्तिक मतवाद की ओर परिलक्षित होता है। विशेषतः भाष्य में उसकी सौत्रान्तिक प्रवृत्ति अधिक स्पष्ट होती है। यही कारण है कि आचार्य संघभद्र ने अपने न्यायानुसार नामक अभिधर्मशास्त्र का प्रणयन प्रधानतः वसुबन्धु के अभिधर्मकोश का खण्डन करने के लिए ही किया था। उसमें उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि वसुबन्धु कहाँ-कहाँ वैभाषिक मत से दूर हट गये हैं। जहाँ-जहाँ वसुबन्धु का भाष्य वैभाषिक मत का विरोध करता है, वहाँ-वहाँ न्यायानुसार उसका खण्डन करता है। अपनी वृद्धावस्था के कारण वसुबन्धु ने आचार्य संघभद्र के साथ वाद-विवाद करने से इन्कार कर दिया था। अभिधर्मकोश पर कई टीकाएं लिखी गईं, किन्तु उनमें से आज यशोमित्र की ‘स्फुटार्था’ ही अपने मूल रूप (संस्कृत ) में उपलब्ध है। आचार्य दिङ्नाग, स्थिरमति, गुणमति आदि ने भी मर्मप्रदीप, तत्त्वार्थटीका एवं लक्षणानुसारिणी आदि टीकाओं का प्रणयन किया था।
महायान के प्रमुख आचार्य
५३६ शान अपनी वृद्धावस्था में आचार्य वसुबन्धु ने अपने बड़े भाई आर्य असङ्ग के प्रभाव में आकर महायान धर्म स्वीकर कर लिया और योगाचार दर्शनप्रस्थान को एक निश्चित दार्शनिक एवं शास्त्रीय स्वरूप प्रदान किया। विज्ञानवाद को परिपुष्ट करने की दृष्टि से उन्होंने विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि (विंशिका और त्रिंशिका प्रकरणद्वय) त्रिस्भावनिर्देश, मध्यान्तविभागभाष्य आदि अनेक ग्रन्थ लिखे। बुदोन ने उन्हें पञ्चस्कन्धप्रकरण, व्याख्यायुक्ति एवं कर्मसिद्धिप्रकरण का रचयिता कहा है। इसके अतिरिक्त उनके सद्धर्मपुण्डरीकोपदेश, वज्रच्छेदिकाप्रज्ञापारमिता एवं आर्यदेव के शतशास्त्र की व्याख्या आदि ग्रन्थ भी प्रसिद्ध हैं। विंशतिका विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि पर वसुबन्धु ने स्वयं वृत्ति लिखी। त्रिंशिक पर अनेक टीकाएं थीं, किन्तु इनमें से आज केवल आचार्य स्थिरमति का भाष्य ही अपने मूलरूप (संस्कृत) में उपलब्ध है। हेनसांग ने त्रिंशिका पर ‘विज्ञप्तिमात्रतासिद्धिशास्त्र’ नामक टीका चीनी भाषा में लिखी थी। पूसे ने इसका फ्रेंच अनुवाद प्रकाशित किया है। यह ग्रन्थ बड़े महत्त्व का है, क्योंकि इसमें त्रिंशिका के समस्त टीकाकारों का मत उल्लिखित है और धर्मपाल की टीका भी समाविष्ट है। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने इस टीका के कुछ अंश का संस्कृत में रूपान्तरण किया है, जो ‘बिहार एण्ड उड़ीसा रिसर्च सोसायटी’ के जरनल के १६वें और २०वें खण्ड में प्रकाशित है। आचार्य की कृतियां अनेक हैं। उनका तिब्बती अनुवाद ‘तन-ग्युर’ संग्रह में सुरक्षित है। मूल संस्कृत में बहुत ही कम कृतियाँ उपलब्ध हैं। ‘तन-ग्युर’ संग्रह में उपलब्ध उनके ग्रन्थों की एक सूची हम इस परिच्छेद के अन्त में दे रहे हैं।
स्थिरमति
आचार्य स्थिरमति आचार्य वसुबन्धु के चार प्रख्यात शिष्यों में से अन्यतम हैं। उनके चार शिष्य अत्यन्त प्रसिद्ध थे। ये अपने विषय में अपने गुरु से भी बढ़-चढ़ कर थे, यथा- अभिधर्म में स्थिरमति, प्रज्ञापारमिता में विमुक्तिसेन, विनय में गुणप्रभ तथा तथा न्यायशास्त्र में दिङ्नाग। आचार्य स्थिरमति का जन्म दण्डकारण्य में एक व्यापारी के घर हुआ था। अन्य विद्वानों के अनुसार वे मध्यभारत के ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हुए थे। परम्परा के अनुसार सात वर्ष की आयु में ही वे वसुबन्धु के पास पहुंच गये थे। तारानाथ के अनुसार तारादेवी उनकी इष्ट देवता थीं। वसुबन्धु के समान ये भी दुर्धर्ष शास्त्रार्थी थे। वसुबन्धु के अनन्तर इन्होंने अनेक तैर्थिकों को शास्त्रार्थ करके पराजित किया था। तारानाथ ने लिखा है कि स्थिरमति ने आर्यरत्नकूट और मूलमाध्यमिककारिका की व्याख्या भी लिखी थी तथा उन्होंने मूलमाध्यमिकाकारिका का अभिप्राय विज्ञप्तिमात्रता के अर्थ में लिया था। तारानाथ ने आगे लिखा है कि अभिधर्मकोश पर टीका लिखने वाले स्थिरमति कौन स्थिरमति हैं ? यह अज्ञात है। इसका तात्पर्य यह है कि उन्हें अभिधर्मकोश एवं त्रिंशिका की टीका लिखने वाले स्थिरमति के एक होने में सन्देह है। इनका काल पांचवी
शताब्दी का उत्तरार्ध माना जाता है।
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शाना बौद्धदर्शन
माहार
न कृतियाँ- तिब्बती भाषा में स्थिरमति की छह रचनाएं उपलब्ध हैं। ये सभी रचनाएं उच्चकोटि की हैं। मान (१) आर्यमहारत्नकूट धर्मपर्यायशतसाहस्रिकापरिवर्तकाश्यपपरिवर्त टीका। कलाकार का यह आर्यमहारत्नकूट की टीका है, जिसका उल्लेख तारानाथ ने किया है। यह बहुत
ही विस्तृत एवं स्थूलकाय ग्रन्थ है। (२) सूत्रालङ्कारवृत्तिभाष्य- यह वसुबन्धु की सूत्रालङ्कारवृत्ति पर भाष्य है। जो कि (३) पञ्चस्कन्धप्रकरण-वैभाष्य- यह वसुबन्धु के पञ्चस्कन्धप्रकरण पर भाष्य है। इस (४) मध्यान्तविभङ्ग-टीका- यह मैत्रेयनाथ के मध्यान्तविभङ्ग टीका है। (५) अभिधर्मकोशभाष्यटीका - यह अभिधर्मकोश भाष्य पर तात्पर्य नाम की टीका है। (६) त्रिंशिकाभाष्य। किनकि
इनके समस्त ग्रन्थ टीका या भाष्य के रूप में ही हैं। इनका कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। इनके माध्यम से आचार्य वसुबन्धु का अभिप्राय पूर्ण रूप से प्रकट हुआ है।
दिङ्नाग
आचार्य दिङ्नाग का जन्म दक्षिणभारत के काञ्चीनगर के समीप सिंहवक्त्र नामक स्थान में विद्या और विनय से सम्पन्न एक ब्राह्मणकुल में हुआ था। उन्होंने बाल्यावस्था में ही परम्परागत समस्त तैर्थिक शास्त्रों का अध्ययन कर लिया था और उनमें परिनिष्ठित विद्वान् हो गये थे। तदनन्तर उन्होंने वात्सीपुत्रीय निकाय के महास्थविर से प्रव्रज्या ग्रहण की और भिक्षु हो गये। उनका ‘दिङ्नाग’ यह नाम प्रव्रज्या के समय दिया हुआ नाम है। महास्थविर नागदत्त से ही उन्होंने समस्त श्रावकपिटक और शास्त्रों का
अध्ययन किया था और उनमें वे निष्णात हो गये थे।
एक दिन नागदत्त ने शमथ और विपश्यना के आलम्बन के बारे में समझाते हुए उन्हें अनिर्वचनीय पुद्गल के बारे में उपदेश किया। दिङ्नाग अत्यन्त तीक्ष्णप्रज्ञ एवं स्वतन्त्र विचारक थे। उन्हें अनिर्वचनीय पुद्गल का सिद्धान्त थोड़ा भी रुचिकर प्रतीत नहीं हुआ। उन्होंने अपने निवासस्थान पर जाकर दिन में सभी दरवाजे और खिड़कियों को खोलकर तथा रात्रि में चारों ओर दीपक जलाकर, सारे वस्त्रों को उतार कर सिर से पैर तक सभी अवयवों का भीतर-बाहर सूक्ष्म निरीक्षण करते हुए गुरु के द्वारा उपदिष्ट अनिर्वचनीय पुद्गल का अन्वेषण करना शुरू किया। ठीक तरह से देखने पर भी उन्हें कहीं अनिर्वचनीय पुद्गल का आभास नहीं हुआ। जब उनके सहपाठियों ने उनसे पूछा कि ‘यह क्या कर रहे हो’ तो उन्होंने कहा कि पुद्गल की खोज कर रहा हूँ। इस घटना को सुनकर उनके गुरु यह सोचकर कुपित हो गये कि दिङ्नाग हमारे सिद्धान्तों का अपमान एवं तिरस्कार कर रहा है। फलतः उन्होंने दिङ्नाग को संघ से निकाल दिया और उस स्थान से बाहर कर दिया। वहाँ से निकल कर दिङ्नाग चारिका करते हुए आचार्य वसुबन्धु के समीप उपस्थित हुए।
महायान के प्रमुख आचार्य
५४१ का इस घटना से यह सिद्ध होता है कि आचार्य दिङ्नाग पहले वात्सीपुत्रीय निकाय से सम्बद्ध थे, किन्तु उन्हें उस निकाय के सिद्धान्त पसन्द नहीं आए। इसके बाद वे आचार्य वसुबन्धु के समीप गए और उनसे समस्त महायानपिटक और श्रावकपिकट का, सम्पूर्ण बौद्ध शास्त्रों का और विशेषकर प्रमाणविषयक शास्त्रों का गम्भीरता के साथ अध्ययन किया। कुछ लोगों का मानना है कि आर्य विमुक्तिसेन दिङ्नाग के शिष्य थे, न कि वसुबन्धु के, किन्तु तिब्बती परम्परा उन्हें वसुबन्धु का शिष्य ही निश्चित करती है। तारानाथ के अनुसार संघदास और त्रिरत्नदास भी वसुबन्धु के ही शिष्य थे। जमान
समय- दिङ्नाग के काल के विषय में अनेक मत पाए जाते हैं, किन्तु सब पर विचार करने के अनन्तर पांचवी शताब्दी ही उनका काल समीचीन प्रतीत होता है। न्यायभाष्यकार वात्स्यायन और वैशेषिक भाष्यकार प्रशस्तपाद के मतों का दिङ्नाग ने युक्तिपूर्वक खण्डन किया था तथा न्यायवार्तिककार आचार्य उद्योतकर ने दिङ्नाग का। ईसवीय वर्ष ५५७-५६६ में दिङ्नाग की कृतियों का चीनी भाषा में अनुवाद हुआ था। इन सब साक्ष्यों के आधार पर दिङ्नाग का काल पांचवी शताब्दी का पूर्वार्ध निश्चित होता है। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन उनका काल ईसवीय वर्ष ४२५ मानते हैं। 5 कृतियाँ- आचार्य दिङ्नाग द्वारा विरचित ग्रन्थों की निश्चित संख्या का ज्ञान सम्भव नहीं है। कुछ विद्वान उनकी संख्या १०८ बताते हैं। तारानाथ उनकी संख्या १०० कहते हैं, किन्तु कहीं भी वे उतनी संख्या में उपलब्ध नहीं हैं। भोटभाषा तथा चीनी भाषा में उनके नाम से जो उपलब्ध ग्रन्थसूची भोटभाषा के देगे-संस्करण के ‘तनग्युर’ संग्रह का अनुसरण करती है।
धर्मकीर्ति
आचार्य दिङ्नाग ने जब प्रमाणसमुच्चय लिखकर बौद्ध प्रमाणशास्त्र का बीज वपन किया तो अन्य बौद्धेतर दार्शनिकों में उसकी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक था। तदनुसार न्यायदर्शन के व्याख्याकारों में उद्योतकर ने, मीमांसक मत के आचार्य कुमारिल ने, जैन आचार्यों में आचार्य मल्लवादी ने दिङ्नाग के मन्तव्यों की समालोचना की। फलस्वरूप बौद्ध विद्वानों को भी प्रमाणशास्त्र के विषय में अपने विचारों को सुव्यवस्थित करने का अवसर प्राप्त हुआ। ऐसे विद्वानों में आचार्य धर्मकीर्ति प्रमुख हैं, जिन्होंने दिङ्नाग के दार्शनिक मन्तव्यों का सुविशद विवेचन किया तथा उद्योतकर, कुमारिल आदि दार्शनिकों की जमकर समालोचना करके बौद्ध प्रमाणशास्त्र की भूमिका को सुदृढ़ बनाया। उन्होंने केवल बौद्धेतर विद्वानों की ही आलोचना नहीं की, अपितु कुछ गौण विषयों में अपना मत दिङ्नाग से भिन्न रूप में भी प्रस्तुत किया। उन्होंने दिङ्नाग के शिष्य ईश्वरसेन की भी, जिन्होंने दिङ्नाग के मन्तव्यों की अपनी समझ के अनुसार व्याख्या की थी, उनकी भी समालोचना कर बौद्ध प्रमाणशास्त्र को परिपुष्ट किया। माम ला५४२ up बौद्धदर्शन माता आचार्य धर्मकीर्ति के प्रमाणशास्त्र विषयक सात ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। ये सातों ग्रन्थ प्रमाणसमुच्चय की व्याख्या के रूप में ही हैं। प्रमाणसमुच्चय में प्रतिपादित विषयों का ही इन ग्रन्थों में विशेष विवरण है। किन्तु एक बात असन्दिग्ध है कि धर्मकीर्ति के ग्रन्थों के प्रकाश में आने के बाद दिङ्नाग के ग्रन्थों का अध्ययन गौण हो गया। जिला
- कृतियाँ-आचार्य धर्मकीर्ति के सात ग्रन्थ इस प्रकार हैं-१. प्रमाणवार्तिक, २. प्रमाणविनिश्चय, ३. न्यायबिन्दु, ४. हेतुबिन्दु, ५. वादन्याय, ६. सम्बन्धपरीक्षा एवं ७. सन्तानान्तरसिद्धि । इनके अतिरिक्त प्रमाणवार्तिक के स्वार्थानुमान परिच्छेद की वृत्ति एवं सम्बन्धपरीक्षा की टीका भी स्वयं धर्मकीर्ति ने लिखी है। न त गाना -
तप आचार्य धर्मकीर्ति के इस ग्रन्थों का प्रधान और पूरक के रूप में भी विभाजन किया जाता है। तथा हि-न्यायबिन्दु की रचना तीक्ष्णबुद्धि पुरुषों के लिए, प्रमाणविनिश्चय की रचना मध्यबुद्धि पुरुषों के लिए तथा प्रमाणवार्तिक का निर्माण मन्दबुद्धि पुरुषों के लिए है ये ही तीनों प्रधान ग्रन्थ हैं, जिनमें प्रमाणों से सम्बद्ध सभी वक्तव्यों का सुविशद निरूपण किया गया है। अवशिष्ट चार ग्रन्थ पूरक के रूप में हैं। तथाहि-स्वार्थानुमान से सम्बद्ध हेतुओं का निरूपण ‘हेतुबिन्दु’ में है। हेतुओं का अपने साध्य के साथ सम्बन्ध का निरूपण ‘सम्बन्धपरीक्षा’ में है। परार्थानुमान से सम्बद्ध विषयों का निरूपण ‘वादन्याय’ में है। अर्थात् इसमें परार्थानुमान के अवयवों का तथा जय-पराजय की व्यवस्था कैसे हो- इसका विशेष प्रतिपादन किया गया है। आचार्य धर्मकीर्ति दक्षिण के त्रिमलय में ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। उन्होंने प्रारम्भिक अध्ययन वैदिक दर्शनों का किया था। तदनन्तर वसुबन्धु के शिष्य धर्मपाल, जो उन दिनों अत्यन्त वृद्ध हो चुके थे, उनके पास विशेष रूप से बौद्धदर्शन का अध्ययन करने के लिए वे नालन्दा पहुँचे। उनको तर्कशास्त्र में विशेष रुचि थी, इसलिए दिङ्नाग के शिष्य ईश्वरसेन से उन्होंने प्रमाणशास्त्र का विशेष अध्ययन किया तथा अपनी प्रतिभा के बल से दिङ्नाग के प्रमाणशास्त्र में ईश्वरसेन से भी आगे बढ़ गये। तदनन्तर अपना अगला जीवन उन्होंने वाद-विवाद और प्रमाणवार्तिक आदि सप्त प्रमाणशास्त्रों की रचना में बिताया। अन्त में कलिङ्ग देश में उनकी मृत्यु हुई।
समय-तिब्बती परम्परा के अनुसार आचार्य कुमारिल और आचार्य धर्मकीर्ति समकालीन थे। कुमारिल ने दिङ्नाग का खण्डन तो किया है, किन्तु धर्मकीर्ति का नहीं, जबकि धर्मकीर्ति ने कुमारिल का खण्डन किया है। ऐसी स्थिति में कुमारिल आचार्य धर्मकीर्ति के वृद्ध समकालीन ही हो सकते हैं। आचार्य धर्मकीर्ति ने तर्कशास्त्र का अध्ययन ईश्वरसेन से किया था, किन्तु उनके दीक्षागुरु प्रसिद्ध विद्वान् एवं नालन्दा के आचार्य धर्मपाल थे। धर्मपाल को वसुबन्धु का शिष्य कहा गया है। वसुबन्धु का समय चौथी शताब्दी निश्चित किया गया है। धर्मपाल के शिष्य शीलभद्र ईसवीय वर्ष ६३५ में विद्यमान थे, जब हेनसांग नालन्दा पहुँचे थे। अतः यह मानना होगा कि जिस समय धर्मकीर्ति दीक्षित हुए, उस समय REPRERNISTER महायान के प्रमुख आचार्य ५४३ धर्मपाल मरणासन्न थे। इस दृष्टि से विचार करने पर धर्मकीर्ति का काल ५५०-६०० हो सकता है। न्को काय छ । आचार्य धर्मकीर्ति के मन्तव्यों का खण्डन वैशेषिक दर्शन में व्योमशिव ने, मीमांसा दर्शन में शालिकनाथ ने, न्यायदर्शन में जयन्त और वाचस्पति मिश्र ने, वेदान्त में भी वाचस्पति मिश्र ने तथा जैन दर्शन में अकलक आदि आचार्यों ने किया है। धर्मकीर्ति के टीकाकारों ने उन आक्षेपों का यथासम्भव निराकरण किया है। धर्मकीर्ति के टीकाकारों को तीन वर्ग में विभक्त किया जाता है। प्रथम वर्ग के पुरस्कर्ता देवेन्द्रबुद्धि माने जाते हैं, जो धर्मकीर्ति के साक्षात् शिष्य थे और जिन्होंने शब्दप्रधान व्याख्या की है। देवेन्द्र बुद्धि ने प्रमाणवार्तिक की दो बार व्याख्या लिखकर धर्मकीर्ति को दिखाई और दोनों ही बार धर्मकीर्ति ने उसे निरस्त कर दिया। अन्त में तीसरी बार असन्तुष्ट रहते हुए भी उसे स्वीकार कर लिया और मन में यह सोचकर निराश हुए कि वस्तुतः मेरा प्रमाण शास्त्र यथार्थ रूप में कोई समझ नहीं सकेगा। शाक्यबुद्धि एवं प्रभाबुद्धि आदि भी इसी प्रथम वर्ग के आचार्य हैं।
दूसरे वर्ग के ऐसे आचार्य हैं, जिन्होंने शब्दप्रधान व्याख्या का मार्ग छोडकर धर्मकीर्ति के तत्त्वज्ञान को महत्त्व दिया। इस वर्ग के पुरस्कर्ता आचार्य धर्मोत्तर हैं। धर्मोत्तर का कार्यक्षेत्र कश्मीर रहा, अतः उनकी परम्परा को कश्मीर-परम्परा भी कहते हैं। वस्तुतः धर्मकीर्ति के मन्तव्यों का प्रकाशन धर्मोत्तर-परम्परा भी कहते हैं। वस्तुतः धर्मकीर्ति के मन्तव्यों क प्रकाशन धर्मोत्तर द्वारा ही हुआ है। ध्वन्यालोक के कर्ता आनन्दवर्धन ने भी धर्मोत्तर कृत प्रमाणविनिश्चय की टीका पर टीका लिखी है, किन्तु वह अनुपलब्ध है। इसी परम्परा में शङ्करानन्द ने भी प्रमाणवार्तिक पर एक विस्तृत व्याख्या लिखना शुरू किया, किन्तु वह अधूरी रही।
तीसरे वर्ग में धार्मिक दृष्टि को महत्त्व देने वाले धर्मकीर्ति के टीकाकार हैं। उनमें प्रज्ञाकर गुप्त प्रधान है। उन्होंने स्वार्थानुमान को छोड़कर शेष तीन परिच्छेदों पर ‘अलङ्कार’ नामक भाष्य लिखा, जिसे ‘प्रमाणवार्तिकालङ्कार भाष्य’ कहते हैं। इस श्रेणी के टीकाकारों में प्रमाणवार्तिक के प्रमाणपरिच्छेद का अत्यधिक महत्त्व है, क्योंकि उसमें भगवान् बुद्ध की सर्वज्ञता तथ उनके धर्मकाय आदि की सिद्धि की गई है। प्रज्ञाकर गुप्त का अनुसरण करने वाले आचार्य हुए हैं। ‘जिन’ नामक आचार्य ने प्रज्ञाकर के विचारों की पुष्टि की है। रविगुप्त प्रज्ञाकर के साक्षात् शिष्य थे। ज्ञानश्रीमित्र भी इसी परम्परा के अनुयायी थे। ज्ञानश्री के शिष्य यमारि ने भी अलङ्कार की टीका की। कर्णगोमी ने स्वर्थानुमान परिच्छेद की ही टीका लिखी, अतः उन्हें धर्मोत्तर की परम्परा में रखना चाहिए। मनोरथनन्दी ने चारों परिच्छेदों पर टीका लिखी है, किन्तु उसे शब्दार्थपरक व्याख्या ही मानना चाहिए। । धर्मकीर्ति के ग्रन्थों की टीका-परम्परा केवल संस्कृत में ही नहीं रही, अपितु जब बौद्ध धर्म का प्रसार एवं विकास तिब्बत में हो गया तो वहाँ के अनेक भोट विद्वानो ने भी तिब्बती ५४४ अशा बौद्धदर्शन माशा भाषा में स्वतन्त्र टीकाएं प्रमाणवार्तिक आदि ग्रन्थों पर लिखी तथा उनका अध्ययन-अध्यापन आज भी तिब्बती-परम्परा में प्रचलित है। इस प्रकार हम देखते हैं कि दिङ्नाग के द्वारा जो बौद्ध प्रमाणशास्त्र का बीजवपन किया गया, वह धर्मकीर्ति और उनके अनुयायियों के प्रयासों से विशाल वटवृक्ष के रूप में परिणत हो गया। में
बोधिधर्म
बोधिधर्म एक भारतीय बौद्ध भिक्षु एवं विलक्षण योगी थे। इन्होंने ५२० या ५२६ ई. में चीन जाकर ध्यान-सम्प्रदाय (जैन बुद्धिज्म) का प्रवर्तन किया। ये दक्षिणभारत के कांचीपुरम् के राजा सुगन्ध के तृतीय पुत्र थे। इन्होंने अपनी चीन-यात्रा समुद्री मार्ग से की। वे चीन के दक्षिणी समुद्री तट केन्टन् बन्दरगाह पर उतरे। जोलामा को प्रसिद्ध है कि भगवान् बुद्ध अद्भुत ध्यानयोगी थे। वे सर्वदा ध्यान में लीन रहते थे। कहा जाता है कि उन्होंने सत्य-सम्बन्धी परमगुह्य ज्ञान एक क्षण में महाकाश्यप में सम्प्रेषित किया और यही बौद्ध धर्म के ध्यान सम्प्रदाय की उत्पत्ति का क्षण था। महाकाश्यप से यह ज्ञान आनन्द में सम्प्रेषित हुआ। इस तरह यह ज्ञानधारा गुरु-शिष्य परम्परा से निरन्तर प्रवाहित होती रही। भारत में बोधिधर्म इस परम्परा के अट्ठाइसवें और अन्तिम गुरु हुए। र एक बार उत्तरी चीन के तत्कालीन राजा बू-ति ने उनके दर्शन की इच्छा की। वे एक श्रद्धावान् बौद्ध उपासक थे। उन्होंने बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ अनेक महनीय कार्य किये थे। अनेक स्तूप, विहार एवं मन्दिरों का निर्माण कराया था एवं संस्कृत बौद्ध ग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद कराया था। राजा के निमन्त्रण पर बोधिधर्म की उनसे नान्-किंग में भेंट हुई। उन दोनों में निम्नप्रकार से धर्म संलाप हुआ।
बू-ति-भन्ते, मैंने अनेक विहार आदि का निर्माण कराया है तथा अनेक बौद्ध धर्म के संस्कृत ग्रन्थों का अनुवाद कराया है तथा अनेक व्यक्तियों को बौद्ध भिक्षु बनने की अनुमति प्रदान की है। क्या इन कार्यों से मुझे पुण्य-लाभ हुआ है ? कि
बोधिधर्म- बिलकुल नहीं।
हाममा मात्र बू-ति- वास्तविक पुण्य क्या है ? बोधिधर्म- विशुद्ध प्रज्ञा, जो शून्य, सूक्ष्म, पूर्ण एवं शान्त है। किन्तु इस पुण्य की प्राप्ति संसार में संभव नहीं है। बू-ति- सबसे पवित्र धर्म सिद्धान्त कौन है ? बोधिधर्म- जहाँ सब शून्यता है, वहाँ पवित्र कुछ भी नहीं कहा जा सकता। बू-ति- तब मेरे सामने खड़ा कौन बात कर रहा है ? बोधिधर्म- मैं नहीं जानता। उपर्युक्त संवाद के आधार पर बोधिधर्म एक रूक्ष स्वभाव के व्यक्ति सिद्ध होते हैं।
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महायान के प्रमुख आचार्य
५४५ उन्होंने सम्राट के पुण्य कार्यों का अनुमोदन भी नहीं किया। बाहर के कठोर दिखाई देने पर भी उनके मन में करुणा थी। वस्तुतः उन्होंने राजा को बताया कि दान देना, विहार बनवााना, आदि पुण्य कार्य अधिक महत्वपूर्ण नहीं हैं, वे अनित्य हैं। इस प्रकार उन्होंने
सम्राट को अहंभाव से बचाया और शून्यता के उच्च सत्य का उपदेश किया, जो पुण्य-पाप, उस पवित्र-अपवित्र सत्-असत् आदि द्वन्द्वों और प्रपञ्चों से अतीत है। इसी
उपर्युक्त भेंट के बाद बोधिधर्म वहाँ रहने में कोई लाभ न देखकर याङ्-त्सी नदी का पार करके उत्तरी चीन के बेई नामक राज्य में चले गये। इसके बाद उनका अधिकतर
समय उन राज्य की राजधानी लो-याङ के समीप शग-शन पर्वत पर स्थित ‘शाश्व-शान्ति’ ना (श्वा-लिन्) नामक विहार में बीता, जिसका निर्माण पांचवीं शती के पूर्वार्द्ध में हुआ था। इस
भव्य विहार का दर्शन करते ही बोधिधर्म मन्त्रमुग्ध हो गए और हाथ जोड़े चार दिन तक विहार के सामने खड़े रहे। यहीं नौ वर्ष तक रहते हुए बोधिधर्म ने ध्यान की भावना की। वे दीवार की ओर मुख करके ध्यान किया करते थे। जिस मठ में बोधिधर्म ने ध्यान किया,
वह आज भी भग्नावस्था में विद्यमान है। सत में आचार्य बोधिधर्म ने चीन में ध्यान-सम्प्रदाय की स्थापना मौन रहकर चेतना के
धरातल पर की। बड़ी कठोर परीक्षा के बाद उन्होंने कुछ अधिकारी व्यक्तियों को चुना और अपने मन से उनके मन को बिना कुछ बोले शिक्षित किया। बाद में यही ध्यान-सम्प्रदाय
कोरिया और जापान में जाकर विकसित हुआ। को बोधिधर्म के प्रथम शिष्य और उत्तराधिकारी का नाम शैन-क्कांग था, जिसे शिष्य बनने
के बाद उन्होंने हुइ-के नाम दिया। पहले वह कनफ्यूशस मत का अनुयायी था। बोधिधर्म की कीर्ति सुनकर वह उनका शिष्य बनने के लिए आया था। सात दिन और सात रात तक दरवाजे पर खड़ा रहा, किन्तु बोधिधर्म ने मिलने की अनुमति नहीं थी। जाड़े की रात में मैदान में खड़े रहने के कारण बर्फ उनके घुटनों तक जम गई, फिर भी गरु ने कपा नहीं की। तब शैन-क्कांग ने तलवार से अपनी बाई बाँह काट डाली और उसे लेकर
गुरु के समीप उपस्थित हुआ और बोला कि उसे शिष्यत्व नहीं मिला तो वह अपने शरीर नं का भी बलिदान कर देगा। तब गुरु ने ओर ध्यान देकर पूछा कि तुम मुझसे क्या चाहते
हो ? शैन-क्कांग ने बिलखते हुए कहा कि मुझे मन की शान्ति चाहिए। बोधिधर्म ने कठोरतापूर्वक कहा कि अपने मन को निकाल कर मेरे सामने रखो, मैं उसे शान्त कर दूंगा। तब शैन्-क्कांग ने रोते हुए कहा कि मैं मन को कैसे निकाल कर आप को दे सकता
हूँ ? इस पर कुछ विनम्र होकर करुणा करते हुए बोधिधर्म ने कहा-मैं तुम्हारे मन को शान्त में कर चुका हूँ। तत्काल शैन्-क्कांग को शान्ति का अनुभव हुआ, उसके सारे संदेह दूर हो
गए और बौद्धिक संघर्ष सदा के लिए मिट गए। शैन्-क्कांग् चीन में ध्यान-सम्प्रदाय के द्वितीय धर्मनायक हुए।
५४६
बौद्धदर्शन उपर्युक्त विवरण के अतिरिक्त बोधिधर्म के जीवन और व्यक्तित्व के बारे में अधिक कुछ भी ज्ञात नहीं है। चीन से प्रस्थान करने से पूर्व उन्होंने अपने शिष्यों को बुलाया और उनकी उपलब्धियों के बारे में पूछा। उनमें से एक शिष्य ने कहा कि मेरी समझ में सत्य विधि और निषेध दोनों से परे हैं। सत्य के संचार का यही मार्ग है। बोधिधर्म ने कहा तुम्हें मेरी त्वचा प्राप्त है। इनके बाद दूसरी भिक्षुणी शिष्या बोली कि सत्य का केवल एक बार दर्शन होता है, फिर कभी नहीं। बोधिधर्म ने कहा कि तुम्हें मेरा मांस प्राप्त है। इसके बाद तीसरे शिष्य ने कहा कि चारों महाभूत और पाँचों स्कन्ध शून्य हैं और असत् है। सत् रूप में ग्रहण करने योग्य कोई वस्तु नहीं है। बोधिधर्म ने कहा कि तुम्हें मेरी हड्डियाँ प्राप्त हैं। अन्त में हुई-के ने आकर प्रणाम किया और कुछ बोले नहीं, चुपचाप अपने स्थान पर खड़े रहे। बोधिधर्म ने इस शिष्य से कहा कि तुम्हें मेरी चर्बी प्राप्त है।
इसके बाद ही बोधिधर्म अन्तर्धान हो गए। अन्तिम बार जिन लोगों ने उन्हें देखा, उनका कहना है कि वे नंगे पैर त्सुग्-लिंग पर्वतश्रेणी में होकर पश्चिम की ओर जा रहे थे और अपना एक जूता हाथ में लिए थे। इन लोगों के कहने पर बाद में लोयांग में बोधिधर्म की समाधि खोली गई, किन्तु उसमें एक जूते के अलावा और कुछ न मिला। कुछ लोगों का कहना है कि बोधिधर्म चीन से लौटकर भारत आए। जापान में कुछ लोगों का विश्वास है कि वे चीन से जापान गए और नारा के समीप कतयोग-यामा शहर में एक भिखारी के रूप में उन्हें देखा गया।
बोधिधर्म ने कोई ग्रन्थ नहीं लिखा, किन्तु ध्यान सम्प्रदाय के इतिहास ग्रन्थों में उनके कुछ वचनों या उपदेशों का उल्लेख मिलता है। जापान में एक पुस्तक ‘शोशित्सु के छह निबन्ध’ नाम प्रचलित है, जिसमें उनके छह निबन्ध संगृहीत माने जाते हैं। सुजुकी की राय में इस पुस्तक में निश्चित ही कुछ वचन बोधिधर्म के हैं, किन्तु सब निबन्ध बोधिधर्म के नहीं हैं। चीन के तुन-हुआङ् नगर के ‘सहस्र बुद्ध गुहा विहार’ के ध्वंसावशेषों में हस्तलिखित पुस्तकों का एक संग्रह उपलब्ध हुआ था, जिसमें एक प्रति बोधिधर्म द्वारा प्रदत्त प्रवचनों से सम्बन्धित है। इसमें शिष्य के प्रश्न और बोधिधर्म के उत्तर खण्डित रूप में संग्रहीत हैं। इसे बोधिधर्म के शिष्यों ने लिखा था। इस समय यह प्रति चीन के राष्ट्रीय पुस्तकालय में सुरक्षित है।
ध्यान सम्प्रदाय में सत्य की अनुभूति में प्रकृति का महान् उपयोग है। प्रकृति ही ध्यानी सन्तों का शास्त्र है। ज्ञान की प्राप्ति की प्रक्रिया में वे प्रकृति का सहारा लेते हैं और उसी के निगूढ प्रभाव के फलस्वरूप चेतना में सत्य का तत्क्षण अवतरण सम्भव मानते हैं।
बोधिधर्म के विचारों के अनुसार वस्तुतत्त्व के ज्ञान के लिए प्रज्ञा की अन्तर्दृष्टि आवश्यक है, जो तथता तक सीधे प्रवेश कर जाती है। इसके लिए किसी तर्क या अनुमान की आवश्यकता नहीं है। इसमें न कोई विश्लेषण है, न तुलनात्मक चिन्तन, न अतीत एवं
महायान के प्रमुख आचार्य
५४७ अनागत के बारे में सोचना है, न किसी निर्णय पर पहुँचना है, अपितु प्रत्यक्ष देखना ही सब कुछ है। इसमें संकल्प-विकल्प और शब्दों के लिए भी कोई स्थान नहीं है। इसमें केवल ‘ईक्षण’ की आवश्यकता है। स्वानुभूति ही इसका लक्ष्य है, किन्तु ‘स्व’ का अर्थ नित्य आत्मा
आदि नहीं है।
ध्यान सम्प्रदाय एशिया की एक महान् उपलब्धि है। यह एक अनुभवमूलक साधना-पद्धति है। यह इतना मौलिक एवं विलक्षण है, जिसमें धर्म और दर्शन की रूढियों, परम्पराओं, विवेचन-पद्धतियों, तर्क एवं शब्द प्रणालियों से ऊबा एवं थका मानव विश्रान्ति एवं सान्त्वना का अनुभव करता है। इसकी साहित्यिक एवं कलात्मक अभिव्यक्तियाँ इतनी महान् एवं सर्जनशील हैं कि उसका किसी भाषा में आना उसके विचारात्मक पक्ष को पुष्ट करता है। इसने चीन, कोरिया और जापान की भूमि को अपने ज्ञान और उदार चर्याओं द्वारा सींचा है तथा इन देशों के सांस्कृतिक अभ्युत्थान में अपूर्व योगदान किया है।
शान्तरक्षित
आचार्य शान्तरक्षित सुप्रसिद्ध स्वातन्त्रिक माध्यमिक आचार्य हैं। उन्होंने ‘योगाचार स्वातन्त्रिक माध्यमिक’ दर्शनप्रस्थान की स्थापना की। उनका एक मात्र ग्रन्थ ‘तत्त्वसंग्रह’ संस्कृत में उपलब्ध है। उन्होंने ‘मध्यमकालङ्कार कारिका’ नामक माध्यमिक ग्रन्थ एवं उस पर स्ववृत्ति की भी रचना की है। इन्हीं में उन्होंने अपने विशिष्ट माध्यमिक दृष्टिकोण को स्पष्ट किया है। किन्तु ये ग्रन्थ संस्कृत में उपलब्ध नहीं हैं, किन्तु उसका भोट भाषा के आधार पर संस्कृत रूपान्तरण तिब्बती-संस्थान, सारनाथ से प्रकाशित हुआ है, जो उपलब्ध है।
__ आचार्य कमलशील और आचार्य हरिभद्र इनके प्रमुख शिष्य हैं। आचार्य हरिभद्र विरचित अभिसमयालङ्कार की टीका ‘आलोक’ संस्कृत में उपलब्ध है। यह अत्यन्त विस्तृत टीका है, जो अभिसमयालङ्कार के साथ अष्टसाहस्रिका प्रज्ञापारमिता की भी टीका है। उन्होंने अभिसमयालकार की स्फुटार्था टीका भी लिखी है, जो अत्यन्त प्रामाणिक मानी जाती है। तिब्बत में अभिसमय के अध्ययन के प्रसंग में उसी का पठन-पाठन प्रचलित है। उसका भोटभाषा से संस्कृत में रूपान्तरण हो गया है और यह केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान, सारनाथ से प्रकाशित है।
आचार्य शान्तरक्षित वङ्गभूमि (आधुनिक बंगलादेश) के ढाका मण्डल के अन्तर्गत विक्रमपुरा अनुमण्डल के ‘जहोर’ नामक स्थान में क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए थे। ये नालन्दा महाविद्या विहार के आचर्य पद पर आसीन थे। जीवन के अन्तिम काल में ये वहाँ के राजा के निमन्त्रण पर तिब्बत गये और उन्होंने बौद्ध धर्म की स्थापना की। अस्सी से अधिक वर्षों तक ये जीवित रहे और तिब्बत में ही उनका देहावसान हुआ। आठवीं शताब्दी प्रायः इनका काल माना जाता है।
कि
५४८
बौद्धदर्शन म आचार्य शान्तरक्षित ने अपनी रचनाओं में बाह्यार्थों की सत्ता मानने वाले भावविवेक का खण्डन किया और व्यवहार में विज्ञप्तिमात्रता की स्थापना की है। उनकी राय में आर्य नागार्जुन का यही वास्तविक अभिप्राय है।
यद्यपि आचार्य शान्तरक्षित बाह्यार्थ नहीं मानते, फिर भी बाह्यार्थशून्यता उनके मतानुसार परमार्थ सत्य नहीं है, जैसे कि विज्ञानवादी उसे परमार्थ सत्य मानते हैं, अपितु वह संवृति सत्य या व्यवहार सत्य है। भावविवेक की भाँति वे भी ‘परमार्थतः’ निःस्वभावता’ को परमार्थ सत्य मानते हैं। व्यवहार में वे साकार विज्ञानवादी हैं। विज्ञानवाद का शान्तरक्षित पर अत्यधिक प्रभाव हैं। वे चन्द्रकीर्ति की निःस्वभावता को परमार्थ सत्य नहीं मानते। भावविवेक की भाँति वे स्वतन्त्र अनुमान का प्रयोग भी स्वीकार करते हैं। वे आलयविज्ञान को नहीं मानते। स्वसंवेदन का प्रतिपादन उन्होंने अपनी रचनाओं में किया है, अतः वे स्वसंवेदन स्वीकार करते हैं।
कतियाँ- आचार्य शान्तरक्षित भारतीय दर्शनों के प्रकाण्ड पण्डित थे। यह उनके ‘तत्त्वसंग्रह’ नामक ग्रन्थ से स्पष्ट होता है। इस ग्रन्थ में उन्होंने प्रायः बौद्धेतर भारतीय दर्शनों को पूर्वपक्ष के रूप में प्रस्तुत कर बौद्ध दृष्टि से उनका खण्डन किया है। इस ग्रन्थ के अनुशीलन से भारतीय दर्शनों के ऐसे-ऐसे पक्ष प्रकाशित होते हैं, जो इस समय प्रायः अपरिचित से हो गये हैं। वस्तुतः यह ग्रन्थ भारतीय दर्शनों का महाकोश है। इनकी अन्य रचनाओं में मध्यमकालङ्कारकारिका एवं उसकी स्ववृत्ति है। इसके माध्यम से उन्होंने योगाचार स्वातन्त्रिक माध्यमिक शाखा का प्रवर्तन किया है। वे व्यावहारिक साधक और प्रसिद्ध तान्त्रिक भी थे। तत्त्वसिद्धि, वादन्याय की विपञ्चितार्था वृत्ति एवं हेतुचक्रडमरू भी उनके ग्रन्थ माने जाते हैं। ___
कमलशील
आचार्य कमलशील आचार्य शान्तरक्षित के प्रमुख शिष्यों में अन्यतम थे। यद्यपि आचार्य के जन्म आदि के बारे में किसी निश्चित तिथि पर विद्वान् एकमत नहीं हैं, फिर भी भोट देश के नरेश ठिसोङ् देउचन (७४२-७६८) के शासनकाल में ७६२ ईसवीय वर्ष के आसपास तिब्बत पहुँचे थे। आचार्य नालन्दा के अग्रणी विद्वानों में से एक थे। उनकी विद्वता का प्रमाण उनकी गम्भीर एवं विशाल कृतियाँ हैं।
भोट देश में उनका पहुँचना तब होता है, जब समस्त भोट जनता चीनी भिक्षु हशङ्ग के कुदर्शन से प्रभावित होकर दिग्भ्रमित हो रही थी और भारतीय बौद्ध धर्म के विलोप का खतरा उपस्थित हो गया था। मन की विचारहीनता की अवस्था को शङ्ग-बुद्धत्व-प्राप्ति का उपाय बता रहे थे। उस समय शान्तरक्षित की मृत्यु हो चुकी थी और आचार्य पद्मसम्भव तिब्बत से अन्यत्र जा चुके थे। यद्यपि राजा ठिसोङ् देउचन भारतीय बौद्ध धर्म के पक्षपाती थे, किन्तु हशङ्ग के नवीन अनुयायियों को समझा पाने में असमर्थ थे। तब आचार्य शान्तरक्षित के तिब्बती शिष्य ने उन्हें आचार्य शान्तरक्षित की भविष्यवाणी का
महायान के प्रमुख आचार्य
५४६ स्मरण कराया, जिसमें कहा गया था कि जब तिब्बत में बौद्ध धर्म के अनुयायियों में आन्तरिक विवाद उत्पन्न होगा, उस समय आचार्य कमलशील को आमन्त्रित करके उनसे शास्त्रार्थ करवाना। माया
तदनुसार राजा के द्वारा आचार्य कमलशील को तिब्बत बुलाया गया और वे वहाँ पहुंचे। उन्होंने चीनी भिक्षु हशग को शास्त्रार्थ में पराजित किया और भारतीय बुद्धशासन की वहाँ पुनः प्रतिष्ठा की। भोट नरेश ने आचार्य कमलशील का सम्मान किया और उन्हें आध्यात्मिक विद्या के विभाग का प्रधान घोषित किया तथा चीनी भिक्षु हशङ्ग को देश से निकाल दिया। इस तरह आचार्य ने वहाँ आर्य नागार्जन के सिद्धान्त एवं सर्वास्तिवादी विनय
की रक्षा की। ___ कृतियाँ-उनकी प्रमुख कृतियाँ निम्नलिखित हैं, जिन्हें भोटदेशीय तन-ग्युर संग्रह के आधार पर प्रस्तुत किया जा रहा है : (१) आर्य सप्तशतिका प्रज्ञापारमिता टीका,
जमाना (२) आर्य वज्रच्छेदिका प्रज्ञापारमिता टीका,
जो किसी (३) मध्यमकालङ्कारपञ्जिका, (४) मध्यमकालोक, या विमाना (५) तत्त्वालोक प्रकरण, . (६) सर्वधर्मनिःस्वभावतासिद्धि, शिस पनि तय
गरी (७) बोधिचित्तभावना, विज
य (८) भावनाक्रम, कान छ । विमान पिता विनोद जिला (E) भावनायोगावतार
राजा बाबा कीड निकी (१०) आर्य विकल्पप्रवेशधारणी-टीका, माविका पनि निशाचर (११) आर्यशालिस्तम्ब-टीका (१२) श्रद्धोत्पादप्रदीप (१३) न्यायबिन्दु पूर्वपक्षसंक्षेप
प
नि विक मा कि (१४) तत्त्वसंग्रहपञ्जिका जज का नाम दिया ग
या (१५) श्रमणपञ्चाशत्कारिकापदाभिस्मरणीति विना
सामान (१६) ब्राह्मणीदक्षिणाम्बायै अष्टदुःखविशेषनिर्देश जारी होती है (१७) प्रणिधानद्वयविधा।
आचार्य पद्मसंभव
भारत के पश्चिम में ओड्डियान नाम एक स्थान है। इन्द्रभूति नामक राजा वहाँ राज्य करते थे। अनेक रानियों के होने पर भी उनके कोई सन्तान न थी। उन्होंने महादान किया। याचकों की इच्छाएँ पूर्ण करने के लिए स्वर्णद्वीप में स्थित नागकन्या से चिन्तामणि रत्न प्राप्त करने के लिए उन्होंने महासमुद्र की यात्रा की। लौटते
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बौद्धदर्शन समय उन्होंने एक द्वीप में कमल के भीरत स्थित लगभग अष्टवर्षीय बालक को देखा। उसे वे अपने साथ ले आए और उसका उन्होंने राज्याभिषेक किया। राजपुत्र का नाम सरोरुहवज्र रखा गया। राज्य के प्रति अरुचि के कारण उन्होंने त्रिशूल और खट्वाङ्ग लेकर, अस्थियों की माला धारण कर नंगे वदन होकर व्रताचरण आरम्भ कर दिया। नृत्य करते समय उनके खट्वाङ्ग से एक मन्त्री के पुत्र की मृत्यु हो गई। दण्डस्वरूप उन्हें वहां से निष्कासित कर दिया गया। वे ओड्डियान के दक्षिण में स्थित शीतवन नामक श्मशान में रहने लगे। वहाँ रहते हुए उन्होंने मन्त्रचर्या के बल से कर्म-डाकिनियों को अपने वश में कर लिया और लोगों ने उन्हें ‘शान्तरक्षित’ नाम दिया।
वहाँ से वे जहोर प्रदेश के आनन्दवन नामक श्मशान में गए और विशिष्ट चर्या के कारण डाकिनी मारजिता द्वारा अभिषेक के साथ अधिष्ठित किये गए। तदनन्तर वहाँ से पुनः उस द्वीप में गयें, जहाँ वे पद्म में उत्पन्न हुए थे। वहाँ उन्होंने डाकिनी के संकेतानुसार गुह्यतन्त्र की साधना की और वज्रवाराही का दर्शन किया। वहीं पर उन्होंने समुद्रीय डाकिनियों को वश में किया और आकाशीय ग्रहों पर अधिकार प्राप्त किया। डाकिनियों ने इनका नाम ‘रौद्रवज्रविक्रम’ रखा।
एक बार उनके मन में भारतीय आचार्यों से बौद्ध एवं बौद्धेतर शास्त्रों के अध्ययन की इच्छा उत्पन्न हुई। तदनुसार जहोर प्रदेश के भिक्षु शाक्यमुनि के साथ आचार्य प्रहति के पास पहुँचे। वहाँ उन्होंने व्रज्रज्या ग्रहण की और उनका नाम ‘शाक्यसिंह’ रखा गया।
तदनन्तर वे मलय पर्वत पर निवास करने वाले आचार्य मञ्जुश्रीमित्र के पास गए। उन्होंने उन्हें भिक्षुणी आनन्दी के पास भेजा। भिक्षुणी आनन्दी ने उन्हें अनेक अभिषेक प्रदान किये। उनके सानिध्य में उन्हें आयुर्विद्या एवं महामुद्रा में अधिकार प्राप्त हुआ। तदनन्तर अन्य आचार्यों से उन्होंने प्रज्रकीलविधि, पद्मवाग्विधि, शान्त-क्रोध माया धर्म एवं उग्र मन्त्रों का श्रवण किया।
तदनन्तर वे जहोर प्रदेश गये और वहाँ की राजकुमारी को वश में करके पोतलक पर्वत पर चले गए। उस पर्वत की गुफा में उन्होंने अपरिमितायु मण्डल का प्रत्यक्ष दर्शन करके आयःसाधना की और तीन माह की साधना के अनन्तर वैरोचन अमिताय बुद्ध का साक्षात् दर्शन किया। इसके बाद वे जहोर और ओड्डियान गए और वहाँ के लोगों को सद्धर्म में प्रतिष्ठित किया। उन्होंने अनेक तैर्थिकों को शास्त्रार्थ में परास्त किया तथा नेपाल जाकर महामुद्रा की सिद्धि की।
तिब्बत में बौद्धधर्म की स्थापना
भोट देश में बौद्ध धर्म को प्रतिष्ठित करने में अचार्य पद्मसंभव की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। यद्यपि भारतीय आचार्य शान्तरक्षित ने तत्कालीन भोट -सम्राट् ठिसोट्ट देचन की सहायता से भोट देश में बौद्ध धर्म का प्रचार
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महायान के प्रमुख आचार्य किया, किन्तु पद्मसंभव की सहायता के बिना वे उसमें सफल नहीं हो सके। उनकी ऋद्धि के बल से राक्षस, पिशाच आदि दुष्ट शक्तियाँ तिब्बत छोड़कर चामर द्वीप चली गई।
तिब्बत में उनकी शिष्य परम्परा आज भी कायम है, जो समस्त हिमालयी क्षेत्र में भी फैले हुए हैं। पद्मसंभव का बीज मन्त्र ‘ओं आः हूँ वज्रगुरु पद्म सिद्धि हूँ’ का जप करने में बौद्ध धर्मावलम्बी अपना कल्याण समझते हैं। आर्य अवलोकितेश्वर के बीज मन्त्र ‘ओं मणि पद्मे हूँ’ के बाद इसी मन्त्र का तिब्बत में सर्वाधिक जप होता है। प्रत्येक दशमी के दिन गुरु पद्मसंभव की विशेष पूजा बौद्ध धर्म के अनेक सम्प्रदायों में आयोजित की जाती है, जिसके पीछे यह मान्यता निहित है कि दशमी के दिन गुरु पद्मसंभव साक्षात् दर्शन देते हैं।
ज्ञात है कि आचार्य शान्तरक्षित ने ल्हासा में ‘समयस्’ नामक विहार बनाना प्रारम्भ किया, किन्तु दुष्ट शक्तियों ने उसमें पुनः-पुनः विघ्न उपस्थित किया। जो भी निर्माण कार्य दिन में होता था, उसे रात्रि में ध्वस्त कर दिया जाता था। अन्त में आचार्य शान्तरक्षित ने राजा से भारत से आचार्य पद्मसंभव को बुलाने के लिए कहा। राजा ने दूत भेजकर आचार्य को तिब्बत आने के लिए निमन्त्रित किया। आचार्य पद्मसंभव महान् तान्त्रिक थे। तिब्बत आकर उन्होंने अमानुषी दुष्ट शक्तियों का निग्रह किया और कार्य-योग्य वातावरण का निर्माण किया। फलतः महान् ‘समयस्’ विहार का निर्माण संभव हो सका, जहाँ से चारों दिशाओं में धर्म का प्रकाश फैला। उन्होंने तिब्बत में अनेक विनेयजनों को धर्ममार्ग पर आरूढ किया तथा प्रत्येक मास की दशमी तिथियों में प्रत्यक्ष दर्शन देने का वचन दिया। क्रूर लोगों को विनीत करने के लिए वे यावत्-संसार लोक में स्थित रहेंगे- ऐसी बौद्ध श्रद्धालुओं की मान्यता है।
शान्तिदेव- माध्यमिक आचार्यों में आचार्य शान्तिदेव का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनकी रचनाएं, अत्यन्त प्राञ्जल एवं भावप्रवण हैं, जो पाठक के हृदय का स्पर्श करती हैं और उसे प्रभावित करती हैं। माध्यमिक दर्शन और महायान धर्म के प्रसार में इनका अपूर्व योगदान है।
दार्शनिक मान्यता
माध्यमिकों में भी सैद्धान्तिक दृष्टि से स्वातन्त्रिक एवं प्रासङ्गिक भेद अत्यन्त प्रसिद्ध है। स्वातन्त्रिक माध्यमिकों में भी सूत्राचार स्वातन्त्रिक और योगाचार स्वातन्त्रिक ये दो भेद हैं। आचार्य शान्तिदेव प्रासङ्गिक मत के प्रबल समर्थक हैं। विचारों
और तों में ये आचार्य चन्द्रकीर्ति का पूर्णतया अनुगमन करते हैं। उनकी रचनाओं में बोधिचर्यावतार प्रमुख है। इसमें दस परिच्छेद हैं। नौवें प्रज्ञापरिच्छेद में इनकी दार्शनिक मान्यताएं परिस्फुटित हुई हैं। इस परिच्छेद में संवृति और परमार्थ इन दो सत्यों का इन्होंने सुस्पष्ट निरूपण किया है। इस निरूपण में इनका चन्द्रकीर्ति से कुछ भी अन्तर प्रतीत नहीं होता। बौद्धदर्शन के पास
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मूल सैद्धान्तिक आधार पर ही माध्यमिकों के दो वर्ग हैं। प्रथम वर्ग में वे माध्यमिक दार्शनिक आते हैं, जो पदार्थों की स्वलक्षणसत्ता स्वीकार करते हैं और परमार्थतः उनकी निःस्वलक्षणता या निःस्वभावता मानते हैं, जिसे वे ‘शून्यता’ कहते हैं। दूसरे वर्ग में वे दार्शनिक परिगणित होते हैं, जो स्वलक्षणसत्ता कथमपि स्वीकार नहीं करते और उस निःस्वलक्षणता को ही ‘शून्यता’ कहते हैं। इनमें प्रथम वर्ग के माध्यमिक दार्शनिक स्वातन्त्रिक तथा दूसरे वर्ग के माध्यमिक प्रासङ्गिक कहलाते हैं। इन दोनों की मान्यताओं में यह
आधारभूत अन्तर है, जिसकी ओर जिज्ञासुओं का ध्यान जाना चाहिए, अन्यथा माध्यमिक दर्शन का निगूढ अर्थ परिज्ञात नहीं होगा। व्यवहार में किसी धर्म का अस्तित्व या उसकी सत्ता को स्वीकार करना या न करना मूलभूत अन्तर नहीं है, अपितु उस निषेध्य के स्वरूप में जो मूलभूत अन्तर है, वह महत्त्वपूर्ण है, जिस (निषेध्य) का निषेध शून्यता कहलाती है तथा जिसके निषेध से सारी व्यवस्थाएं सम्पन्न होती हैं। वस्तुतः स्वतन्त्र अनुमान या स्वतन्त्र हेतुओं का प्रयोग या अप्रयोग भी इसी निषेध्य पर आश्रित है। शून्यता के सम्यक् परिज्ञान के लिए उसके निषेध्य को सर्वप्रथम जानना परमावश्यक है, अन्यथा उस (शून्यता) का अभ्रान्तज्ञान असम्भव है। बिना निषेध्य को ठीक से जाने शून्यता का विचार निरर्थक होगा और ऐसी स्थिति में शून्यता का अर्थ अत्यन्त तुच्छता या नितान्त अलीकता के अर्थ में ग्रहण करने की सम्भावना बन जाती है। इसलिए आचार्य नागार्जुन ने भी आगाह किया है।
5 विनाशयति र्दुदृष्टा शून्यता मन्दमेधसम्। जार ना धाराती कला
सर्पो यथा दुर्गहीतो विद्या वा दुष्प्रसाधिता॥
(मूलमाध्यमिककारिका २४:११)
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जब स्वभावसत्ता या स्वलक्षणसत्ता का निषेध किया जाता है तो उसका यह अर्थ कतई नहीं होता है कि स्वलक्षण सत्ता कहीं हो और सामने स्थित किसी धर्म में, यथा- घट या पट में उसका निषेध किया जाता हो। अथवा शश (खरगोश) कहीं हो और शृङ्ग (सींग) भी कहीं हो, किन्तु उन दोनों की किसी एक स्थान में विद्यमानता का निषेध किया जाता हो, अपितु सभी धर्मों अर्थात् वस्तुमात्र में स्वलक्षणसत्ता का निषेध किया जाता है। कहने का आशय यह है कि घट स्वयं (स्वतः) या पट स्वयं स्वलक्षणसत्तावान् नहीं है। इसी तरह कोई भी धर्म स्वभावतः सत् या स्वतः सत् नहीं है। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि वस्तु किसी भी रूप में नहीं है। स्वभावतः सत् नहीं होने पर भी वस्तु का अपलाप नहीं किया जाता, अपितु इसका सापेक्ष या निःस्वभाव अस्तित्व स्वीकार किया जाता है और उसी के आधार पर कार्य-कारण, बन्ध-मोक्ष आदि सारी व्यवस्थाएं सुचारुतया सम्पन्न होती हैं। यद्यपि सभी धर्म स्वलक्षणतः या स्वभावतः सत् नहीं हैं, फिर भी वे अविद्या के कारण स्वभावतः सत् के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं और स्वभावतः सत् के रूप में उनके प्रति
महायान के प्रमुख आचार्य
५५३ अभिनिवेश भी होता है। धर्म जैसे प्रतीत होते हैं, वस्तुतः उनका वैसा अस्तित्व नहीं होता। पार उनके यथादर्शन या प्रतीति के अनुरूप अस्तित्व में तार्थिक बाधाएं हैं, अतः अविद्या के विषय को बाधित करना ही निषेध का तात्पर्य है।
इस तरह निःस्वभावता के आधार पर आचार्य शान्तिदेव ने जन्म-मरण, पाप-पुण्य, पूर्वापर जन्म आदि की व्यावहारिक सत्ता का प्रतिपादन किया है। इसी तरह अत्यन्त सरल एवं प्रसाद गुणयुक्त भाषा में उन्होंने स्वसंवेदनप्रत्यक्ष के बिना स्मरण की उत्पत्ति, व्यवहृतार्थ का अन्वेषण करने पर उसकी अनुपलब्धि तथा अविचारित रमणीय लोकप्रसिद्धि के आधार पर सारी व्यवस्थाओं का सुन्दर निरूपण किया है। व्यावहारिक सत्ता पर उनका सर्वाधिक जोर इसलिए भी है कि जागतिक व्यवस्थाएं सचारू रूप से सम्पन्न हो सकें।
जीवन परिचय- आचार्य शान्तिदेव सातवीं शताब्दी के माने जाते हैं। ये सौराष्ट्र के निवासी थे। बुस्तोन के अनुसार ये वहाँ के राजा कल्याणवर्मा के पुत्र थे। इनके बचपन का नाम शान्ति वर्मा था। यद्यपि वे युवराज थे, किन्तु भगवती तारा की प्रेरणा से उन्होंने राज्य का परित्याग कर दिया। कहा जाता है कि स्वयं बोधिसत्त्व मञ्जुश्री ने योगी के रूप में उन्हें दीक्षा दी थी और वे भिक्षु बन गए।
रचनाएँ- प्रसिद्ध इतिहासकार लामा तारानाथ के अनुसार उनकी तीन रचनाएं प्रसिद्ध हैं, यथा- बोधिचर्यावतार, शिक्षासमुच्चय एवं सूत्रसमुच्चय। बोधिचर्यावतार सम्भवतः उनकी अन्तिम रचना है, क्योंकि अन्य दो ग्रन्थों का उल्लेख स्वयं उन्होंने बोधिचर्यावतार में किया है।
सर्वप्रथम बोधिचर्यावतार का प्रकाशन रूसी विद्वान् आई.पी. मिनायेव ने किया। तदनन्तर म.म. हरप्रसाद शास्त्री ने बुद्धिस्ट टेक्स्ट सोसाइटी के जरनल में इसे प्रकाशित किया। फ्रेंच अनुवाद के साथ प्रज्ञाकर मति की टीका ‘ला वली पूँसे’ ने बिब्लिओथिका इण्डिका में सन् १६०२ में प्रकाशित की। नांजियों के कैटलाग में बोधिचर्यावतार की एक भिन्न व्याख्या है, उसमें तीन तालपत्र उपलब्ध हुए, जिनमें शान्तिदेव का जीवन चरित दिया हुआ है। इसके अनुसार शान्तिदेव किसी राजा के पुत्र थे। राजा का नाम मञ्जुवर्मा लिखा हुआ है, किन्तु तारानाथ के अनुसार वे सौराष्ट्र के राजा के पुत्र थे। भोट भाषा में
बोधिचर्यावतार का प्राञ्जल एवं हृदयावर्जक अनुवाद है।
आचार्य शान्तिदेव पारमितायान के साथ-साथ मन्त्रनय के भी प्रकाण्ड पण्डित थे। इतना ही नहीं, वे महान् साधक भी थे। चौरासी सिद्धों में इनकी गणना की जाती है। तन्त्रशास्त्र पर इनकी महत्त्वपूर्ण रचनाएं हैं। हमेशा सोते एवं खाते रहने के कारण इनका नाम ‘भुसुकु’ पड़ गया था। वस्तुतः ‘भुसुकु’ नामक समाधि में सर्वदा समापन्न रहने के कारण ये ‘भुसुकु’ कहलाते थे। संस्कृत में इनके ‘श्री गुह्यसमाजमहायोगतन्त्र-बलिविधि’
बौद्धदर्शन नामक तन्त्रग्रन्थ की सूचना है। चर्याचर्यविनिश्चय से ज्ञात होता है कि भुसुकु ने वज्रयान के कई ग्रन्थ लिखे। बंगाली या अपभ्रंश में इनके कई गान भी पाए जाते हैं। ये गीत बौद्ध धर्म के सहजिया सम्प्रदाय में प्रचलित हैं।
शान्त, मौन एवं विनोदी स्वभाव के कारण लोग उनकी विद्वता से कम परिचित थे। नालन्दा की स्थानीय परम्परा के अनुसार ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष में प्रतिवर्ष धर्मचर्या का आयोजन होता था। नालन्दा के अध्येता युवकों ने एक बार उनके ज्ञान की परीक्षा करने का कार्यक्रम बनाया। उनका ख्याल था कि आचार्य शान्तिदेव कुछ भी बोल नहीं पाएंगे और अच्छा मजा आएगा। वे आचार्य के पास गए और धर्मासन पर बैठकर धर्मोपदेश करने का उनसे आग्रह किया। आचार्य ने निमन्त्रण स्वीकार कर लिया। नालन्दा महाविहार के उत्तर पूर्व में एक धर्मागार था। उसमें पण्डित एकत्र हुए और शान्तिदेव एक ऊँचे सिंहासन पर बैठाए गए। उन्होंने तत्काल पूछा- “मैं आर्ष (भगवान् बुद्ध द्वारा उपदिष्ट) का पाठ करूँ या अर्थार्ष (आचार्यों द्वारा व्याख्यायित) का पाठ करूँ ? पण्डित लोग आश्चर्यचकित हुए
और उन्होंने अर्थार्ष का पाठ सुनाने को कहा। उन्होंने (शान्तिदेव ने) सोचा कि स्वरचित तीन ग्रन्थों में से किसका पाठ करूँ ? अन्त में उन्होंने बोधिचर्यावतार को पसन्द किया और पढ़ने लगे।
सुगतान् ससुतान् सधर्मकायान् प्रणिपत्यादरतोऽखिलाश्च वन्द्यान् (बोधिचर्यावतार १:१) मा
- यहाँ से लेकर
लेकर ..या
यदा न भावो नाभावो मतेः सन्तिष्ठते पुरः।
तदान्यगत्यभावेन निरालम्बा प्रशाम्यति॥
(बोधिचिर्यावतार ६:३५) तक पहुँचे तब भगवान् सम्मुख प्रादुर्भूत हुए और शान्तिदेव को अपने लोक में ले गए। यह वर्णन उपर्युक्त तीन तालपत्रों से प्राप्त होता है। पण्डित लोग आश्चर्यचकित हुए। तदनन्तर उनकी पढु-कुटी ढूंढी गई, जिसमें उन्हें उनके तीनों ग्रन्थ प्राप्त हुए।
दीपङ्कर श्रीज्ञान
अद्वितीय महान् आचार्य दीपङ्कर श्रीज्ञान आर्यदेश के सभी निकायों तथा सभी यानों के प्रामाणिक विद्वान् एवं सिद्ध पुरुष थे। तिब्बत में विशुद्ध बौद्ध धर्म के विकास में उनका अपूर्व योगदान है। भोट देश में ‘लङ् दरमा’ के शासन काल में बौद्ध धर्म जब अत्यन्त अवनत परिस्थिति में पहुँच गया था तब ‘डारीस’ के ‘ल्हा लामा खुबोन्’ द्वारा प्राणों की परवाह किये बिना अनेक कष्टों के बावजूद उन्हें तिब्बत में आमन्त्रित किया गया। ‘झीस’ तथा ‘वुइस् चङ्’ प्रदेश के अनेक क्षेत्रों में निवास करते
महायान के प्रमुख आचार्य हुए उन्होंने बुद्धशासन का अपूर्व शुद्धीकरण किया। सूत्र तथा तन्त्र की समस्त धर्मविधि का एक पुद्गल के जीवन में कैसे युगपद् अनुष्ठान किया जाए- इसके स्वरूप को स्पष्ट करके उन्होंने हिमवत्-प्रदेश में विमल बुद्धशासनरत्न को पुनः सूर्यवत् प्रकाशित किया, जिनकी उपकारराशि महामहोपाध्याय बोधिसत्त्व आचार्य शान्तरक्षित के समान ही है।
जीवन परिचय- वर्तमान बंगला देश, जिसे, ‘जहोर’ या ‘सहोर’ कहते हैं, प्राचीन समय में यह एक समृद्ध राष्ट्र था। यहाँ के राजा कल्याणश्री या शुभपाल थे। इनके अधिकारक्षेत्र में बहुत बड़ा भूभाग था। इनका महल स्वर्णध्वज कहलाता था। उनकी रानी श्रीप्रभावती थी। इन दोनों की तीन सन्तानें थीं। बड़े राजकुमार ‘पद्मगर्भ’, मझले राजकुमार ‘चन्द्रगर्भ’ तथा सबसे छोटे ‘श्रीगर्भ’ कहलाते थे। आचार्य दीपङ्कर श्रीज्ञान मध्य के
राजकुमार ‘चन्द्रगर्भ’ हैं, जिनका ईसवीय वर्ष ६८२ में जन्म हुआ था। __बोधगया स्थित मतिविहार के महासांघिक सम्प्रदाय के महास्थविर शीलरक्षित से २६ वर्ष की आयु में इन्होंने प्रव्रज्या एवं उपसम्पदा ग्रहण की। ३१ वर्ष तक पहुंचते-पहुंचते इन्होंने लगभग चारों सम्प्रदायों के पिटकों का श्रवण एवं मनन कर लिया। साथ ही, विनय के विधानों में भी पारङ्गत हो गए। अपनी अद्वितीय विद्वत्ता के कारण वे अत्यन्त प्रसिद्ध हो गए और अनेक जिज्ञासु जन धर्म, दर्शन एवं विनय से सम्बद्ध प्रश्नों के समाधान के लिए उनके पास आने लगे।
तिब्बत में उनके अनेक शिष्य थे, किन्तु उनमें ‘डोम’ प्रमुख थे। अपने जीवन के अन्तिम समय में उन्होंने डोम से कहा कि अब बुद्ध शासन का भार तुम्हारे हाथों में सौंपना चाहता हूँ। यह सुनकर डोम को आभास हो गया कि अब आचार्य बहुत दिन जीवित नहीं रहेंगे। उन्होंने आचार्य की बात भारी मन से मान ली। इस तरह अपना कार्यभार एक सुयोग्य शिष्य को सौंपकर वे महान् गुरु दीपङ्कर श्रीज्ञान १०५४ ईसवीय वर्ष में शरीर त्याग कर तुषित लोक में चले गये।
रचनाएँ- तिब्बती क-ग्युर एवं तन-ग्युर के अवलोकन से आचार्य दीपङ्कर विरचित ग्रन्थों की सूची बहुत बड़ी है। लगभग १०३ ग्रन्थ उनसे सम्बद्ध हैं। संस्कृत में उनका एक भी ग्रन्थ उपलब्ध न था। किन्तु इधर केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान, सारनथ से भोट भाषा से संस्कृत में पुनरुद्धार कर कुछ ग्रन्थ प्रकाशित किये गये हैं। उनमें बोधिपथप्रदीप, एकादश लघुग्रन्थों का एक संग्रह तथा उनके पाँच लघुग्रन्थों का एक संग्रह उल्लेखनीय है। साथ ही त्रिस्कन्धसूत्रटीका के अन्तर्गत दीपकर का कर्मावरणविशोधनभाष्य भी प्रकाशित है।