परिभाषा- सत्त्व (सत्ता) और असत्त्व (असत्ता) के मध्य में स्थित होना ‘माध्यमिक’ शब्द का अर्थ है। अर्थात् सभी सभी धर्म परमार्थतः (सत्यतः) सत् नहीं हैं और संवृतितः (व्यवहारतः) असत् भी नहीं हैं-ऐसी जिनकी मान्यता है, वे ‘माध्यमिक’ कहलाते हैं।
__माध्यमिकों के भेद-माध्यमिक दो प्रकार के होते हैं, यथा-१. स्वातन्त्रिक माध्यमिक एवं २. प्रासङ्गिक माध्यमिक। ‘स्वातन्त्रिक’ और ‘प्रासङ्गिक’-यह नामकरण भोट देश के विद्वानों द्वारा किया गया है। भारतीय मूल ग्रन्थों में यद्यपि उनके सिद्धान्तों की चर्चा और वाद-विवाद उपलब्ध होते हैं, किन्तु उपर्युक्त नामकरण उपलब्ध नहीं होता।
(१) स्वातन्त्रिक माध्यमिक
व्यावहारिक सत्ता की स्थापना में मतभेद के कारण इनके भी दो भेद होते हैं, यथा (क) सूत्राचार स्वातन्त्रिक माध्यमिक एवं (ख) योगाचार स्वातन्त्रिक माध्यमिक।
(क) सूत्राचार स्वातन्त्रिक माध्यमिक- ये लोग व्यवहार की स्थापना प्रायः सौत्रान्तिक दर्शन की भाँति करते हैं। इसलिए इन्हें ‘सौत्रान्तिक स्वातन्त्रिक माध्यमिक’ भी कहते हैं। अर्थात् अठारह धातुओं में संगृहीत धर्मों की स्थापना व्यवहार में ये सौत्रान्तिकों की भाँति करते हैं। आचार्य भावविवेक या भव्य एवं ज्ञानगर्भ आदि इस मत के प्रमुख आचार्य हैं।
विचार विन्दु- इनके मतानुसार व्यवहार में बाह्यार्थ की सत्ता मान्य है। इन्द्रियज ज्ञान मिथ्याकार नहीं होते, अपितु सत्याकार होते हैं। वे (ज्ञान) अपने विषय के आकार को ग्रहण करते हुए उन (विषयों) का ग्रहण करते हैं। सूत्राचार स्वातन्त्रिक माध्यमिक पूर्वापरकालिक कार्यकारणभाव मानते हैं, समकालिक नहीं। अर्थात् कारण और कार्य का एक काल में (युगपद्) समवस्थान नहीं होता। दशभूमक सूत्र के “चित्तमानं भो जिनपुत्रा यदुत त्रैधातुकम्” (अर्थात् बोधिसत्त्वों, ये तीनों अर्थात् काम, रूप और अरूप धातुएं चित्तमात्र हैं) इस वचन का अर्थ ये लोग ऐसा नहीं मानते कि इसके द्वारा बाह्यार्थ का निराकरण और चित्तमात्रता की स्थापना की गई है, अपितु इस वचन के द्वारा चित्त से अतिरिक्त कोई ईश्वर, महेश्वर आदि इस लोक का कर्ता है, जैसा तैर्थिक (बौद्धेतर दार्शनिक) मानते हैं, उस (मान्यता) का खण्डन किया गया है, बाह्यार्थ का नहीं। लकावतार सूत्र के :
दृश्यं न विद्यते बाह्यं चित्तं चित्रं हि दृश्यते। देहभोगप्रतिष्ठानं चित्तमात्रं वदाम्यहम्॥
(लङ्कावतारसूत्र, ३ : ३३)
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माध्यमिक दर्शन (अर्थात् बाह्य दृश्य (अर्थ) विद्यमान नहीं हैं, चित्त ही विविध आकार में दिखलाई पड़ता है। देह, भोग, भाजन आदि सब कुछ चित्तमात्र हैं-ऐसा मैं कहता हूँ)।
इस वचन का अभिप्राय भी बाह्यार्थ के निषेध में नहीं है, अपितु बाह्यार्थों की परमार्थतः सत्ता नहीं है-इतना मात्र अर्थ है। इतना ही नहीं, जितने भी सूत्रवचन विज्ञप्तिमात्रता का प्रतिपादन करते हुए से दृष्टिगोचर होते हैं, भावविवेक के मतानुसार उनका वैसा अर्थ नहीं है। अर्थात् विज्ञप्तिमात्रता किसी भी सूत्र का प्रतिपाद्य अर्थ नहीं है।
क्योंकि बाह्यार्थ की व्यवहारतः सत्ता है, इसलिए रूप, शब्द आदि संघातवस्था के प्रत्येक परमाणु इन्द्रियविज्ञान के आलम्बन होते हैं। वे परमाणु इन्द्रियविज्ञान में आभासित नहीं होते-ऐसा नहीं, अपितु आभासित भी होते हैं। सेना, वन आदि विभिन्न आश्रयों में सञ्चित विजातीय परमाणुओं की राशि की द्रव्यसत्ता नहीं है। अर्थात् सेना, वन आदि द्रव्यसत् नहीं हैं। एक ही आश्रय में सजातीय परमाणुओं के सञ्चय की द्रव्यसत्ता होती है, जैसे-घट आदि। आशय यह है कि विजातीय परमाणुओं का सञ्चय द्रव्यसत् नहीं होता, जैसे- सेना, वन आदि। किन्तु सजातीय परमाणुओं का संचय द्रव्यसत् होता है, जैसे-घट
आदि।
_द्विचन्द्राभास आदि भ्रान्त ज्ञान भी एक चन्द्र के बिना नहीं हो सकते। अर्थात् द्विचन्द्रज्ञान के उत्पाद के लिए भी एक चन्द्र का आलम्बन आवश्यक है। यदि एक चन्द्र का भी अस्तित्व न माना जाएगा तो द्विचन्द्रज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकता। यदि एक चन्द्र भी बाहर सत् नहीं होगा तो केवल वासना मात्र से द्विचन्द्रज्ञान उत्पन्न नहीं होगा, जैसे अमावस्या की रात्रि में चन्द्रज्ञान उत्पन्न नहीं होता। फलतः ज्ञान बाह्यार्थ-आलम्बन के बिना कदापि उत्पन्न नहीं हो सकते।
अपि च, यदि बाह्यार्थों का अस्तित्व न माना जाएगा तो “सञ्चितालम्बनाः पञ्चविज्ञानकायाः" (अर्थात् इन्द्रियविज्ञान संचित आलम्बन से उत्पन्न होते हैं)-इस वचन का भी अपवाद होगा। अर्थात् सूत्रविरोध का दोष होगा। क्योंकि उस स्थिति में इन्द्रियविज्ञानों का परमार्थतः या व्यवहारतः किसी भी तरह आलम्बन से उत्पन्न होना अयुक्त हो जाएगा। __बाह्यार्थ की सत्ता मानने के कारण आचार्य भावविवेक आलयविज्ञान की सत्ता नहीं मानते। यदि वे आलयविज्ञान मानते तो बाह्यार्थ न होने पर भी आलयविज्ञान स्थित बाह्यार्थवासनाओं से ही बाह्यार्थावभासी विज्ञप्तियाँ उत्पन्न हो जाती, अतः उन्हें प्रयत्नपूर्वक बाह्यार्थ सिद्ध करने के लिए आयास नहीं करना पड़ता। मध्यमकहृदय नामक अपने ग्रन्थ में उन्होंने कहा है कि विज्ञानवादी लोगों ने आलयविज्ञान के नाम से वस्तुतः आत्मा की ही स्थापना कर दी है, दोनों में केवल नाममात्र का ही अन्तर (भेद) है। उनमें और आत्मवादी तैर्थिकों में वस्तुतः कोई भेद नहीं है। वे (भावविवेक) क्योंकि आलयविज्ञान नहीं मानते, अतः क्लिष्टमनोविज्ञान मानने की भी आवश्यकता नहीं रहती। फलतः चक्षुर्विज्ञान से मनोविज्ञान तक केवल छह (षड्गण) विज्ञान मानते हैं।
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बौद्धदर्शन
सात भावविवेक स्वसंवेदन भी नहीं मानते। उनका कहना है कि ज्ञान का स्वयं अपने को आलम्बन बनाना (स्वसंवेदन) व्यवहारतः भी अयुक्त है। ज्ञान चाहे जितना अभिव्यक्त हो, वह स्वयं अपने को प्रकाशित नहीं कर सकता, जैसे कितना भी शिक्षित नटबटु अपने स्कन्धों (कन्धों) पर आरूढ नहीं हो सकता। ज्ञान का अपने को आलम्बन बनाने में कर्मकर्तृविरोध होता है। अर्थात् किसी क्रिया का कर्ता ही उस क्रिया का कर्म नहीं हो सकता। ऐसा होना विरुद्ध है। अतः स्वसंवेदन व्यवहारतः भी असिद्ध है। विशेष ज्ञान के लिए उनके मध्यकहृदय का अवलोकन करना चाहिए। शाणा स्वलक्षणपरीक्षा-विज्ञानवादियों के मतानुसार प्रज्ञापारमितासूत्रों में प्रतिपादित सर्वधर्मनिःस्वभावता का तात्पर्य यह है कि परिकल्पितलक्षण लक्षणनिःस्वभाव हैं, परतन्त्रलक्षण उत्पत्तिनिःस्वभाव हैं तथा परिनिष्पन्नलक्षण परमार्थनिःस्वभाव हैं।
। भावविवेक विज्ञानवादियों से पूछते हैं कि उस परिकल्पित लक्षण का स्वरूप क्या है, जो लक्षणनिःस्वभाव होने के कारण निःस्वभाव कहलाता है। यदि रूपादिविषयक शब्द एवं कल्पनाबुद्धि से इसका तात्पर्य है तो यह महान् अपवादक होगा, क्योंकि शब्द और कल्पनाबुद्धि पञ्चस्कन्धों में संगृहीत होने वाली वस्तु हैं। यदि यह कहें कि वे शब्द और कल्पनाबुद्धि परिकल्पित नहीं हैं, अपितु उनके द्वारा आरोपित अर्थ परिकल्पित हैं और वे ही लक्षणनिःस्वभाव हैं, क्योंकि उनकी स्वलक्षणसत्ता नहीं है, जैसे रज्जु में सर्पबुद्धि द्वारा आरोपित सर्प की सत्ता नहीं होती। भावविवेक कहते हैं कि तब भी दोष से मुक्ति नहीं है, क्योंकि रज्जु में सर्पबुद्धि द्वारा आरोपित अर्थ (सर्प) की यद्यपि सत्ता नहीं होती, तथापि सर्पवुद्धि के अर्थ (सर्प) की सत्ता तो होती है, क्योंकि सर्प की सत्ता है। उसी प्रकार समझने वाली बुद्धि का विषय तो होता है। यहाँ पर सत्ता का अभिप्राय स्वलक्षण सत्ता से है, क्योंकि यहाँ परिकल्पितलक्षण की निःस्वलक्षणता पर विचार हो रहा है।
___ भावविवेक पुनः कहते हैं कि शब्द, कल्पना और उनके द्वारा आरोपित विषय सबकी पारमार्थिक सत्ता का यदि प्रतिषेध करना चाहते हो तो तुम विज्ञानवादी हमारे माध्यमिक दर्शन का ही अनुसरण कर रहे हो। इन कथनों के द्वारा भावविवेक आर्यसन्धिनिर्मोचनसूत्र के उन वचनों का अभिप्राय प्रकट करते हैं, जिनमें परिकल्पित लक्षण को लक्षणनिःस्वभाव कहा गया है। इस व्याख्यान से यह स्पष्ट हो जाता है कि भावविवेक व्यवहार में स्वलक्षणसत्ता मानते हैं। भावविवेक के अनुसार शून्यता का प्रतिषेध्य केवल स्वलक्षणसत्ता नहीं है, अपितु ‘परमार्थतः स्वलक्षणसत्ता’ है। इसीलिए वे ‘परमार्थतः’ इस विशेषण पर बहुत बल देते हैं। उनके मतानुसार स्वलक्षणसत्ता और स्वभावसत्ता पर्यायवाची है। व्यवहार में स्वलक्षणसत्ता मानने के कारण वे व्यवहार में स्वभावसत्तावादी हैं। नागार्जुन के शास्त्रों में जो निःस्वभावता उल्लिखित है, उसका अर्थ भावविवेक ‘परमार्थतः निःस्वभावता’ समझते हैं।
माध्यमिक दर्शन
४४५ यों तो माध्यमिक शास्त्रों में स्वलक्षणसत्ता, स्वभावसत्ता, द्रव्यसत्ता आदि शब्दों का प्रयोग सभी ने सर्वत्र किया है, इसलिए यह भेद करना अत्यन्त कठिन हो जाता है कि कौन क्या मानता है, परन्तु भावविवेककृत मूलमाध्यमिक-कारिकाटीका प्रज्ञाप्रदीप के उपर्युक्त अंश से स्पष्ट हो जाता है कि भावविवेक के अनुसार ‘परमार्थतः स्वलक्षणसत्ता’ शून्यता का प्रतिषेध्य है, ‘स्वलक्षणसत्ता’ नहीं। परमार्थतः स्वलक्षणसत्ता का प्रतिषेध शून्यता है। स्वलक्षणसत्ता व्यवहार में होती है। अतः उसका प्रतिषेध नहीं किया जाता है।
पाव स्वलक्षणसत्ता ही ऐसा मर्मस्थल है, जिसके आधार पर स्वातन्त्रिक और प्रासङ्गिक माध्यमिकों का दर्शन एक दूसरे से भिन्न हो जाता है।
परमार्थतः सत्ता के निषेध की युक्तियाँ- हेतु और साध्य में अन्वयव्याप्ति के दृष्टान्त की सरलता देखकर वे निम्न युक्तियाँ प्रयुक्त करते हैं : दय चक्षुर्विज्ञान (पक्ष), परमार्थतः रूप को नहीं देखता (साध्य), इन्द्रिय होने से (हेतु), श्रोत्रविज्ञान के समान (दृष्टान्त)।
पृथ्वी (पक्ष), परमार्थतः कठोर स्वभाव वाली नहीं है (साध्य), महाभूत होने से (हेतु), जल महाभूत के समान (दृष्टान्त)।
इसी प्रकार अन्य अनेक युक्तियों द्वारा परमार्थसत्ता का निषेध किया जाता है।
नागार्जुन और आयदेव के ग्रन्थों में भी इस प्रकार के प्रयोग गिलते हैं। भावविवेक उन्हीं प्रयोगों को लेकर उनका विस्तार करते हैं।
__ यदि पृथ्वी परमार्थतः कठोर स्वभाववाली (खरस्वभावा) होगी और चक्षुर्विज्ञान परमार्थतः रूप को देखने वाला होगा तो महाभूतों की समानता की वजह से कठोरता और मृदुता में अन्तर (भेद) नहीं किया जा सकेगा और इन्द्रियों में समानता की वज़ह से रूप को देखने और नहीं देखने में अन्तर नहीं किया जा सकेगा, क्योंकि अन्तर (भेद) करने वाले हेतु उपलब्ध नहीं हैं। कि यदि कोई वस्तु परमार्थतः सत् है तो वह जैसी अवभासित हो रही है, वैसी उसे अपनी स्थिति (सत्ता) के वश से अर्थात् स्वग्राहक बुद्धि की विना अपेक्षा किए अवभासित होना चाहिए। आशय यह है कि यदि वस्तु स्ववश से है याने स्वतः सिद्ध है तो उसे दूसरे की अपेक्षा नहीं करना चाहिए, किन्तु वस्तु अपनी स्थिति के लिए बुद्धि की अपेक्षा करती है, अतः महाभूततुल्यता की वजह से कठोर और अकटोर में अन्तर (भेद) करने वाले प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। उदाहरणार्थ यदि धूम अग्नि की विना अपेक्षा किए स्वतः उत्पन्न होगा तो सर्वत्र धूम होने का प्रसङ्ग होगा या कहीं भी न होने का प्रसङ्ग होगा। reी इस तरह वस्तु की स्वभावतः (स्वलक्षणतः) सत्ता मानने पर भी भावविवेक उसकी परमार्थतः सत्ता नहीं मानते। उनका कहना है कि यदि परमार्थतः सत्ता होगी तो
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बौद्धदर्शन
हेतु-प्रत्यय-सामग्री की विना अपेक्षा किए उसे (वस्तु को) हेतुप्रत्ययनिरपेक्षतया स्वतः उपलब्ध होना चाहिए। किन्तु भूत, भौतिक समस्त वस्तुएं अष्टद्रव्यात्मक संघात के रूप में ही उपलब्ध होती हैं। चित्त-चैतसिक भी परस्पर अविनाभूत रूप में ही उपलब्ध होते हैं। अर्थात् चित्त के विना चैतसिक और चैतसिक के विना चित्त स्वतन्त्रतया पृथक् उपलब्ध नहीं होते। अतः सभी वस्तुएं हेतु-प्रत्ययसामग्री की अपेक्षा से ही उत्पन्न होती हैं। निरपेक्षतया कुछ भी उत्पन्न नहीं होते। फलतः सभी वस्तुएं अपरमार्थसत् एवं अद्रव्यसत् सिद्ध होती हैं।
सौत्रान्तिक स्वातन्त्रिक माध्यमिक मत के शास्त्रों में इसी प्रकार की युक्तियाँ उपलब्ध होती हैं, यथा- यदि वस्तु परमार्थतः सत हो तो उसका स्वरूप अन्यनिरपेक्ष, स्वतन्त्रतया पृथक् उपलब्ध होना चाहिए। यदि स्वतन्त्र और पृथक् उपलब्ध होता है-ऐसा कहा जाए तो ये उसमें अनेक बाधाएं प्रदर्शित करते हैं। इनके ग्रन्थों में योगाचार माध्यमिक मत के आचार्यों के शास्त्रों की भाँति अवयव-अवयवी का खण्डन करने के लिए एकानेक-वियुक्तत्व युक्ति का अधिक प्रयोग उपलब्ध नहीं होता।
(ख) योगाचार स्वातन्त्रिक माध्यमिक- ये लोग निःस्वभावतावादी माध्यमिक होते हुए भी व्यवहार की स्थापना योगाचार दर्शन की भाँति करते हैं, अतः ‘योगाचार स्वातन्त्रिक माध्यमिक’ कहलाते हैं। ये व्यवहार में बाह्यार्थ की सत्ता नहीं मानते, अतः तीनों धातुओं की विज्ञप्तिमात्र व्यवस्थापित करते हैं। आचार्य शान्तरक्षित, कमलशील आदि इस मत के प्रमुख आचार्य हैं। हम निम्नलिखित बिन्दुओं के परिप्रेक्ष्य में इनके सिद्धान्तों का प्रतिपादन कर रहे हैं, यथा-(१) परमार्थतः पुद्गल और धर्मों की स्वभावसत्ता पर विचार, (२) व्यवहारतः बाह्यार्थ की सत्ता पर विचार, (३) आर्यसन्धिनिर्मोचनसूत्र का वास्तविक अर्थ तथा (४) परमार्थतः सत्ता का खण्डन करनेवाली प्रधान युक्ति का प्रदर्शन।
(१) परमार्थतः पुद्गल और धर्मों की स्वभावसत्ता पर विचार-आर्य सन्धिनिर्मोचनसूत्र में लक्षणनिःस्वभावता एवं उत्पत्तिनिःस्वभावता की चर्चा उपलब्ध होती है। उसकी जैसी व्याख्या आचार्य भावविवेक करते हैं, उसी तरह का अर्थ मध्यमकालोक में भी वर्णित है, अतः ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य शान्तरक्षित भी व्यवहार में स्वलक्षणतः सत्ता स्वीकार करते हैं। ज्ञात है आचार्य शान्तरक्षित ही इस मत के पुरःस्थापक हैं। इनके मत में भी वे ही युक्तियाँ प्रयुक्त हैं, जिनका आचार्य धर्मकीर्ति के सप्त प्रमाणशास्त्रों में कार्य-कारण की स्थापना के सम्बन्ध में उल्लेख किया गया। इससे प्रतीत होता है कि ये व्यवहार में स्वभावसत्ता मानते हैं। फलतः इनके मतानुसार पुटल और धर्मों की परमार्थतः सत्ता नहीं होती, किन्तु उनकी व्यवहारतः सत्ता मान्य है।
(२) व्यवहारतः बाह्यार्थ सत्ता पर विचार-आचार्य शान्तरक्षित ने अपने जिमी
मध्यमकालङ्कार भाष्य में कार्य और कारण
रूप पर विचार किया है। उन्होंने वहाँ यह पूर्वपक्षं उपस्थित किया है कि संवृतिसत्’ धर्म मात्र चित्तचैत्तात्मक
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(विज्ञप्तिमात्रात्मक) हैं या उनकी बाह्यार्थतः सत्ता होती है? इसका समाधान करते हुए उन्होंने लिखा है कि उनकी बाह्यार्थतः सत्ता कथमपि नहीं होती। अर्थात् उनकी बाह्यातः सत्ता मानना नितान्त युक्तिविरुद्ध है। इसके लिए उन्होंने सहोपलम्भ युक्ति का वहाँ प्रयोग किया है तथा स्वप्न, माया आदि दृष्टान्तों के द्वारा व्यवहारतः उनकी विज्ञप्तिमात्रात्मकता प्रतिपादित की है।
उनका कहना है कि समस्त धर्मों को व्यवहारतः विज्ञप्तिमात्र मानने से आर्यसन्धिनिर्मोचन सूत्र एवं आर्यघनव्यूहसूत्र-आदि से किसी प्रकार विरोध नहीं होता तथाः
दृश्यं न विद्यते बाह्यं चित्तं चित्रं हि दृश्यते। देहभोगप्रतिष्ठानं चित्तमात्रं वदाम्यहम्॥
(लङ्कावतारसूत्र, ३ : ३३) इस लङ्कावतारसूत्र से भी अविरोध होता है।
विज्ञप्तिमात्रता को मानने पर पुद्गल, आत्मा-आत्मीय, ग्राह्य-ग्राहक, अभिधान-अभिधेय आदि जितने द्वैत प्रपञ्च हैं, उनका निराकरण आसान हो जाता है। वैधातुक समस्त विज्ञप्तिमात्र हैं-ऐसा अवबोध हो जाने पर यह जानना सरल हो जाता है कि विज्ञप्तिमात्र भी परमार्थतः सत् नहीं है। क्योंकि परमार्थतः विज्ञप्तिमात्र भी सत् नहीं, अपितु संवृतितः सत् ही है। परमार्थतः सत्ता तो किसी की भी नहीं होती और यही असत्ता ‘शून्यता’ है, जो माध्यमिकों का परमार्थ सत्य है। घट, पट आदि समस्त पदार्थ यद्यपि पारमार्थिकी सत्ता से शून्य हैं, तथापि सर्वथा अलीक नहीं हैं। उनकी व्यावहारिक सत्ता है। वे संवृतितः सत् होते हैं। सर्वप्रथम विज्ञप्तिमात्रता के आधार पर बाह्यार्थभाव का बोध हो जाता है। तदनन्तर
DETSPE बाह्यार्थभाव जान लेने पर यह विज्ञप्तिमात्रता भी परमार्थसत् नहीं है, इस तरह के अत्यन्त नैरात्म्य का अवबोध कर लेना चाहिए। व्यवहार में विज्ञप्तिमात्र होना (बाह्यार्थभाव होना)
और परमार्थतः विज्ञप्तिमात्र का भी न होना-इन दोनों के ज्ञान से माध्यमिक शब्द का वास्तविक अर्थ ज्ञात होता है और महायान में प्रवेश होता है। IS SAILI फोशाशान्तरक्षित का कहना है कि व्यवहार में विज्ञप्तिमात्रता आर्य नागार्जुन का सिद्धान्त है। अपने इस कथन की पुष्टि के लिए वे उनके युक्तिषष्टिका का ग्रन्थ से प्रमाण प्रस्तुत करते हैं, यथा :6िF हिजोका कि FRPF FTE FREE: मिमिक प्रमाण कार की कार की जाधर जिम
का कशामा (8) fhap In महाभूतावावा प्राक्तकापसमावस्या कामाए । जिनामा shi I ने साजाने विगम याति ननु मिथ्याविकल्पितम् ITF क की का का कोना (युक्तिषष्टिका, का ३० संस्कृत छाया)गिने । IT कि
TET ETीणोति कला ने मान के कम
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बौद्धदर्शन
न अर्थात् महाभूत आदि जितने ख्यात धर्म हैं, वे सब विज्ञान में संग्रहीत हैं। इसके ज्ञान से मिथ्या ज्ञान वियुक्त होता है।
5 इस योगाचार माध्यमिक मत में जितने ज्ञानगत नीलाकार, पीताकार आदि होते हैं, वे सब आकार वस्तु (अर्थात् वास्तविक) माने जाते हैं। आचार धर्मकीर्ति भी ऐसा मानते हैं। अतः आचार्य शान्तरक्षित व्यवहार में सत्याकार विज्ञानवादी माध्यमिक हैं-यह निश्चित होता है। ये बाह्यार्थ की सत्ता नहीं मानते, अतः ये स्वसंवेदन मानते हैं। अर्थात् स्वसंवेदनवादी हैं। इनके मत में आलयविज्ञान की सत्ता मानी जाती है कि नहीं? इसके बारे में इनके ग्रन्थों का अवलोकन करने से स्थिति स्पष्ट नहीं होती। फिर भी ग्रन्थों के वातावरण से ऐसा प्रतीत होता है कि ये आलयविज्ञान नहीं मानते। भोटदेशीय महापण्डित आचार्य चोखापा का भी ऐसा ही मन्तव्य है।
(३) आर्यसन्धिनिर्मोचनसूत्र का वास्तविक अर्थ- ‘परिकल्पितलक्षण लक्षणनिःस्वभाव हैं तथा अवशिष्ट दोनों लक्षण (अर्थात् परतन्त्र और परिनिष्पन्न लक्षण) वैसे नहीं है’-आर्यसन्धिनिर्मोचन के इस वचन का आचार्य शान्तरक्षित यह अर्थ ग्रहण करते हैं कि परतन्त्रलक्षण और परिनिष्पन्न लक्षण लक्षणनिःस्वभाव नहीं है, अपितु उनकी स्वलक्षणसत्ता है। किन्तु उनकी वह स्वलक्षणसत्ता पारमार्थिक नहीं, अपितु व्यावहारिक (सांवृतिक) है। परतन्त्र और परिनिष्पन्न की परमार्थतः सत्ता मानना नितान्त परिकल्पित है और उस परिकल्पित की परमार्थतः सत्ता शशशृङ्गवत् सर्वथा अलीक है। आशय यह है कि परतन्त्र
और परिनिष्पन्न की परमार्थतः सत्ता परिकल्पित है और वह परिकल्पित लक्षणनिःस्वभाव (शशशृङ्गवत्) है। विज्ञान के गर्भ में उनकी व्यावहारिक (संवृतितः) स्वलक्षणसत्ता मानने में आपत्ति नहीं है। जो आकाश आदि परिकल्पितलक्षण हैं, वे शशशृङ्गवत् सर्वथा अलीक नहीं हैं, अपितु उनकी सांवृतिक सत्ता होती है। पारमार्थिक सत्ता की तो सांवृतिक सत्ता भी
नहीं है।
पुनश्च, सन्धिनिर्मोचन में ‘परतन्त्रलक्षण उत्पत्तिनिःस्वभाव है’-ऐसा कहा गया है। आचार्य शान्तरक्षित का कहना है कि इस वचन का अर्थ यथाशब्द अर्थात् शब्द के अनुसार ग्रहण नहीं करना चाहिए। अपितु यह अर्थ ग्रहण करना चाहिए कि ‘परतन्त्रलक्षण परमार्थतः उत्पत्तिनिःस्वभाव है’। अन्यथा अर्थात् यदि ऐसा अर्थ ग्रहण नहीं करेंगे और यथाशब्द अर्थ स्वीकार करेंगे तो उत्पत्तिनिःस्वभाव होने से परतन्त्र की उत्पत्ति ही नहीं होगी।
(४) परमार्थतः सत्ता का खण्डन करने वाली प्रधान युक्ति- ज्ञात है कि माध्यमिक शून्यतावादी हैं। शून्यता के द्वारा जिसका निषेध किया जाता है, उस निषेध्य का पहले निश्चय कर लेना चाहिए। तभी शून्यता का स्वरूप स्पष्ट होता है, क्योंकि निषेध्य का निषेध ही शून्यता है। निषेध्य में फर्क होने के कारण माध्यमिकों के आन्तरिक भेद होते हैं। अतः इस मत के अनुसार निषेध्य के स्वरूप का निर्धारण किया जा रहा है।
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प्रश्न- सभी धर्मों की जब व्यवहार में स्वलक्षणसत्ता मानी जाती है तो उससे अतिरिक्त ‘परमार्थतः सत्ता’ क्या है, जो निषेध्य मानी जाती है ? यो
2 समाधान- यदि इस अवसर पर परमार्थतः सत्ता या सत्यतः सत्ता को ग्रहण करने वाली बुद्धि का विषय क्या है-उस सत्ता का ग्रहण कैसे होता है ? इस तरह निषेध्य के सामान्य आकार का सम्यक् परिचय न होगा तो सभी धर्मों की परमार्थतः नहीं, अपितु अपरमार्थतः सत्ता या असत्यतः सत्ता है-ऐसे शब्दमात्र का कथन करने से कुछ भी सिद्ध (लाभ) नहीं होगा, जैसे लक्ष्य का विना अनुसन्धान किये तीर फेंकने से कुछ भी लाभ
नहीं होता है। अक । ‘पृथ्वी आदि की परमार्थतः सत्ता नहीं है’, इस वाक्य में प्रयुक्त ‘परमार्थ’ की तीन प्रकार की व्याख्या उपलब्ध होती है, यथा- (१) ‘परमार्थ’ शब्द में प्रयुक्त ‘अर्थ’ शब्द का मतलब है-ज्ञेय, परीक्ष्य या अवबोद्धव्य विषय। ‘परम’ का अर्थ है-उत्तम या श्रेष्ठ। इस तरह परमार्थ शब्द का अर्थ है-उत्तम ज्ञेय। (२) परम का अर्थ है, निर्विकल्प ज्ञान, उसका ‘अर्थ’ या विषय ‘परमार्थ’ है। (३) “परम’ शब्द का अर्थ है ‘वस्तुसत्तान्वेषिणी बुद्धि’। ‘अर्थ’ का मतलब है, उस बुद्धि द्वारा परीक्षा करने पर उपलब्ध विषय। फलतः वस्तुसत्तान्वेषिणी बुद्धि द्वारा उपलब्ध विषय ‘परमार्थ’ है। इन तीनों प्रकार के निर्वचनों में तृतीय निर्वचन इस अवसर पर प्रसङ्गप्राप्त या ग्राह्य है।
यहाँ माध्यमिकों और अन्य सिद्धान्तवादियों में प्रमुख विचारणीय विषय यह है कि वस्तुसत्ता का अन्वेषण करने वाली बुद्धि द्वारा अन्वेषण (परीक्षा) करने पर कुछ उपलब्ध होता है या नहीं ? सभी लोग इस पर विचार करते हैं। क्योंकि परमार्थसत्ता और अपरमार्थसत्ता के निश्चय की यही कसौटी है। यदि उपलब्ध होता है तो परमार्थसत्ता है, यदि उपलब्ध नहीं होता है तो परमार्थतः सत्ता नहीं, अर्थात् अपारमार्थिक सत्ता है। ‘परमार्थ’ शब्द के ‘अर्थ’ का निरूपण कर देने पर अब हम ‘सत्ता’-शब्द पर विचार करते हैं। जल तृण, काष्ठ, लोष्ठ आदि मन्त्र एवं माया आदि के प्रभाव से अश्व, हस्ती आदि के रूप में मन्त्र-माया आदि से दूषित नेत्र वालों को दृष्टिगोचर होते हैं। उस समय तृण, काष्ठ आदि की ओर से भी अश्व, हस्ती आदि का प्रतिभास होता है और नेत्र के दृषित होने से इन्द्रिय की ओर से भी अश्व, हस्ती आदि का प्रतिभास होता है। ऐसे ही बीज से अङ्कुर उत्पन्न होने का प्रतिभास होता है। उस समय अङ्कुर की ओर से भी उत्पाद का प्रतिभास होता है और बुद्धि की ओर से भी उत्पन्न होने का आभास होता है। अर्थात् अश्व आदि और अङ्कुर आदि की बुद्धि की ओर से भी एक आरोपित सत्ता होती है और वस्तु की ओर से भी सत्ता होती है।
प्रश्न- यदि वस्तु की ओर से भी अश्व, हस्ती आदि का प्रतिभास होता है तो अश्व आदि की पारमार्थिकी सत्ता हो जाएगी? इसी तरह यदि अङ्कुर की ओर से भी उत्पाद होता है तो वह परमार्थतः उत्पत्ति हो जाएगी?
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बौद्धदर्शन कर्ण समाधान-जब नेत्र आदि इन्द्रिय दूषित होते हैं, तभी तृण, काष्ठ आदि अधिष्ठान की ओर से अश्व, हस्ती आदि प्रतिभासित होते हैं। दोषरहित शुद्ध नेत्र वालों को वे प्रतिभासित नहीं होते। यदि परमार्थतः सत्ता होगी तो अदुष्ट (शुद्ध) नेत्रवालों को भी उन्हें प्रतिभासित होना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं होता। र
के इसी प्रकार बीज से अङ्कुर का उत्पन्न होना भी व्यावहारिक बुद्धि के वश से ही होता है, स्ववश से नहीं। अर्थात् अङ्कुर अपनी स्थिति के वश से उत्पन्न नहीं होता। यदि केवल अपनी ओर से उत्पन्न होता तो विना हेतु-प्रत्ययों के भी उत्पन्न होता। फलतः स्वविषयी (अपने को ग्रहण करने वाली स्वग्राहिका) बुद्धि में अवभास के बल से विना आरोपित (स्थापित) हुए अङ्कुर आदि वस्तुएं अपनी स्थिति के बल से (स्ववश से) उत्पन्न
नहीं हैं।
नहीं हैं। SETHERE IFE
78 अतः अङ्कुर आदि वस्तु को विषय बनाने वाली बुद्धि में अवभास के बल से विना स्थापित हुए अपनी स्थिति (सत्ता या स्वभाव) के बल से उत्पन्न होने को ग्रहण करने वाली बुद्धि ‘वस्तुतत्त्वान्वेषिणी बुद्धि’ या ‘सत्यतः (परमार्थतः) ग्रहण करनेवाली बुद्धि’ कहलाती है। उस बुद्धि का विषय परमार्थतः सत्ता या सत्यतः सत्ता कहलाता है।
परमार्थतः निःस्वभाव होने पर भी वस्तु को परमार्थतः स्वभाव ग्रहण करनेवाली अनादिकालीन वासना से उत्पन्न भ्रान्त बुद्धि के बल से ‘होने’ को संवृतितः सत्ता कहते हैं। __परमार्थतः सत्ता और संवृतितः सत्ता के उपर्युक्त लक्षण (स्वरूप) सभी स्वातन्त्रिक माध्यमिकों के मत में समान हैं।
है सहज आत्मदृष्टिद्वय अर्थात् पुद्गलाल्मदृष्टि एवं धर्मात्मदृष्टि सरीखी अविमृश्यकारिणी बुद्धि में अवभास के बल के व्यवहार की स्थापना या व्यावहारिक सत्ता की स्थापना नहीं की जा सकती, किन्तु जो बुद्धि अन्य प्रमाणों से बाधित नहीं है, ऐसी व्यावहारिक अर्थात् प्रामाणिक बुद्धि में अवभास के बल से व्यावहारिक सत्ता (सांवृतिक सत्ता स्थापित की जा सकती है। छान अजमानिय शिक्षा र वड नि क्योंकि स्वातन्त्रिकों के मत में उक्त प्रकार की व्यावहारिक बुद्धि में प्रतिभास के बल से स्थापित व्यावहारिक सत्ता मानी जाती है, अतः निषेध्य (परमार्थसत्ता) का परिचय (अन्वेषण) करने की अवस्था में ‘स्वग्राहिणी बुद्धि प्रतिभास के बल से बिना स्थापित’ इतना विशेषण जोडा जाता है। हिमालमछानEि किमान
कि संसार के सभी प्राणियों को प्रायः ऐसा भान हुआ करता है कि समस्त धर्म स्वग्राहिणी बुद्धि द्वारा बिना स्थापित हुए केवल अपनी ओर से (अपने बल से) सत् (वस्तुतः सत्) हैं। किन्तु वस्तुस्थिति में ऐसा नहीं होता। वे स्वाग्राहिणी बुद्धि की ओर से भी स्थापित (आरोपित) होते हैं। अतः सभी धर्म मिथ्या हैं। अर्थात् उनकी सत्ता बुद्धि द्वारा भी आरोपित है।
माध्यमिक दर्शन
४५१ उक्त प्रकार की सत्यतः सत्ता या परमार्थतः सत्ता से रहितता अर्थात् शून्यता यद्यपि घट, पट आदि समस्त धर्मों की पारमार्थिकी स्थिति है, उनकी प्रकृति है, फिर भी वह पारमार्थिक स्थिति या शून्यता स्वग्राहिणी बुद्धि में अवभास के बल से बिना स्थापित हुए अपने स्वभाव (स्थिति) के वश से सिद्ध नहीं है। इस प्रकार ‘शून्यताशून्यता’ का अर्थ समझना चाहिए। TEE । FTERE गोड नाम जिस उक्त प्रकार की सत्यतःसत्ता-दृष्टि इस सिद्धान्त के अनुसार सहज सत्यतादृष्टि है। नाम और अर्थ के सम्बन्ध से अपरिचित या सङ्केतग्रह से अनभिज्ञ प्राणी इसका युक्तिपूर्वक ग्रहण नहीं करते, फिर भी उनमें सहज अर्थदृष्टि होती है। इस प्रकार की यह सत्यतःसत्तादृष्टि यदि सही हो तो इसके विषय अर्थात् सत्यतः सत् वस्तु को वस्तुतत्त्वान्वेषिणी युक्तियों के सम्मुख परीक्षासह, निरवयव वस्तु एवं त्रिविध विशेषणों ये युक्त स्वभाव वाला होना चाहिए’, किन्तु सत्यतः सत्तादृष्टि इस प्रकार परीक्षासह, निरवयवस्तु एवं त्रिविध विशेषणों से युक्त का ग्रहण करनेवाली दृष्टि नहीं है। इनका निषेध कर देने पर भी असत्यतः सत्ता निष्पन्न नहीं होती। अर्थात् वस्तुसत्तान्वेषिणी बुद्धि द्वारा परीक्षासह, निरवयव वस्तु आदि का निषेध कर देने से भी असत्यतः सत्ता, अपारमार्थिक सत्ता या सांवृतिक सत्ता सिद्ध नहीं होती। निगोहाना गांव का मान मनाने PP स्वातन्त्रिक मत में सत्यतः सत्ता दृष्टि का जैसा स्वरूप मान्य है, उसका भलीभाँति परिचय न होने के कारण कुछ ऐसा कहते हैं कि वस्तुसत्तान्वेषिणी बुद्धि का प्रमेय ही नहीं होता, यदि प्रमेय होगा तो सत्यतःसत्ता हो जाएगी। कुछ लोगों का कहना है कि उसका विषय ही नहीं होता। अन्य लोग वस्तुसत्तान्वेषिणी बुद्धि एवं वस्तुस्थिति को जाननेवाले अनुमान में भेद करके क्रमशः विषय है और विषय नहीं है-ऐसा मानते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इन सभी लोगों को स्वातन्त्रिकों की सत्यतःसत्ता दृष्टि से भलीभाँति परिचय ही नहीं है। जा इस तरह निषेध्य का निश्चय हो जाने पर यह जानना आवश्यक है कि इस मत में निषेध्य का निषेध करने वाली प्रधान युक्ति कौन है? 15- स्वातन्त्रिक आचार्य प्रायः (अधिकतर) सम्बन्ध्यनुपलम्भ हेतु द्वारा निषेध्य का निषेध करते हैं। यह हेतु लङ्कावतारसूत्र एवं पितापुत्रसमागमसूत्र में कथित एकानेकस्वभाववियुक्तत्व हेतु से सिद्ध होता है। इसका प्रयोग आचार्य शान्तरक्षित ने अपने मध्यमकालङ्कार में किया है। मध्यमकालोक में वज्रकणयुक्ति, सदसदनुपपत्तियुक्ति, चतुष्कोट्युत्पादानुपपत्ति एवं प्रतीत्यसमुत्पन्नत्व आदि युक्तियाँ भी प्रयुक्त की गई हैं। प्रतीत्यसमुत्पन्नत्व युक्ति विरोध्यनुपलम्भ हेतु है।
१. यदि वस्तु सस्वभाव हो तो उसे-(१) अकृत्रिम होना चाहिए, (२) अन्य निरपेक्ष होना चाहिए तथा ।
(३) उसके स्वभाव में परिवर्तन नहीं होना चाहिए। (लमरिम छेनमो, पृ. ३५०-इ७ ल्हासा-संस्करण) २. इन युक्तियों के स्वरूप के बारे में द्रष्टव्य प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ. २६३४५२
बौद्धदर्शन गंध प्रश्न- विरोध दिखलाने का प्रकार क्या है ? हिजा जानकार कह
समाधान- योगाचार स्वातन्त्रिक माध्यमिकों के विरोध-प्रदर्शन का प्रकार इस प्रकार है : पर अपने द्वारा अथवा दूसरों द्वारा स्वीकृत सभी धर्म काल के अंश, देश के अंश और बुद्ध्याकार आदि अनेक अवयवों से युक्त होते हैं। अतः वे निश्चित ही निरवयव नहीं है। यदि वस्तु एक है तो उसका अनेक अवयात्मक होना यद्यपि व्यावहारिक अर्थ में विरुद्ध नहीं है, किन्तु पारमार्थिक अर्थ में यदि अवयव-अवयवी आदि भिन्न-भिन्न हैं, अर्थात् स्वरूपतः पृथक्-पृथक् हैं तो वे परस्पर असम्बद्ध हो जाएंगे। यदि अवयव-अवयवी आदि एकात्मक होंगे अर्थात् स्वरूपतः अभिन्न होंगे तो जैसे अवयवी एक है, वैसे सभी अवयव एक हो जाएंगे अथवा जैसे अवयव अनेक हैं, वैसे अवयवी भी अनेक हो जाएगा। इस प्रकार बाधा दिखलाकर धर्मों (वस्तुओं) की पारमार्थिक सत्ता का निषेध किया जाता है। इस विषय में आचार्य आर्यदेव की ‘पर्वभ्योऽङ्गुलिभिन्ना नास्ति’ इत्यादि युक्तियों को आधार बनाकर
आचार्य शान्तरक्षित ने उनका विस्तारपूर्वक प्रतिपादन किया है। यानि व परतः उत्पाद का निषेध करते समय भी पहले धर्मों का नित्य और अनित्य में विभाजन करके नित्य से उत्पाद का निषेध किया जाता है। अनित्य से उत्पाद मानने पर समकालिक और असमकालिक में विभाजन कर समकालिक अनित्य से उत्पाद का खण्डन किया जाता है। असमकालिक या विषमकालिक से उत्पाद मानने पर उसका विनष्ट और अविनष्ट में विभाजन करके विनष्ट कारण से उत्पाद का निषेध करते हैं। अविनष्ट से उत्पाद मानने पर उसका व्यवहित और अव्यवहित में विभाजन कर व्यवहित कारण से उत्पाद का निषेध किया जाता है। यहाँ तक खण्डन करना तो अपेक्षाकृत सरल है।
- अव्यवहित से उत्पाद मानने पर भी उसका सर्वतः अव्यवहित या एकदेशतः अव्यवहित में विभाजन कर यदि सर्वतः अव्यवहित से उत्पाद माना जाता है तो दोनों काल मिश्रित हो जाएंगे। अर्थात् कारण और कार्य एककालिक हो जाएंगे, जैसे कलापान्तर्वर्ती दो परमाणु यदि सर्वतः अव्यवहित हों तो वे एकदेशवर्ती हो जाते हैं। अर्थात् उनका एक देश में मिश्रण हो जाता है। यदि एकदेशतः अव्यवहित होंगे तो सावयव होने से वे सांवृतिक हो जाएंगे। मध्यमकालोक में इनका विस्तृत निरूपण किया गया है। अतः विस्तारपूर्वक ज्ञान के लिए उसका अवलोकन करना चाहिए। को इसी क्रम में विरोध-प्रदर्शन के लिए अन्तिम युक्ति के रूप में अवयव-अवयवी में एकत्व और अनेकत्व की परीक्षा करके निषेध करना चाहिए। इस तरह परतः उत्पाद का निषेध करनेवाली अनेक युक्तियाँ हैं। आचार्य ज्ञानगर्भ ने अपने सत्यद्वविभङ्ग नामक ग्रन्थ में सत्यतः सत्ता का निषेध करने के लिए चतुष्कोट्युत्पादानुपपत्ति युक्ति को प्रमुख बनाया है। इस युक्ति का वास्तविक मर्म भी वैसा ही है, जैसा शान्तरक्षित ने प्रदर्शित किया है। ये माध्यमिक दर्शन सभी युक्तियाँ नागार्जुन के अनुयायियों के युक्तिमार्ग की महापथ हैं। अतः जो माध्यमिक दर्शन के प्रतिपाद्य (शून्यता) का स्पष्टतया अभ्रान्त अवबोध करना चाहते हैं, उन्हें इनका अभ्यास करना चाहिए। माता
२. प्रासङ्गिक माध्यमिक
माँ जो माध्यमिक केवल ‘प्रसङ्ग’ का प्रयोग करते हैं, वे प्रासङ्गिक माध्यमिक कहलाते हैं। सभी भारतीय दर्शनों में स्वपक्ष की स्थापना और परपक्ष के निराकरण की विधा दृष्टिगोचर होती है। माध्यमिक सभी धर्मों को निःस्वभाव (शून्य) मानते हैं। प्रासङ्गिक माध्यमिकों का कहना है कि जब हेतु, साध्य, पक्ष आदि सभी शून्य है तो ऐसी स्थिति में यह उचित नहीं है कि शुन्यता को साध्य बनाकर उसे हेतु प्रयोग आदि के द्वारा सिद्ध किया जाए। इस स्थिति में एक ही उपाय अवशिष्ट रहता है कि जो दार्शनिक हेतुओं के द्वारा वस्तुसत्ता सिद्ध करते हैं, उनके प्रयोगों (अनुमानप्रयोगों) में दोष दिखाकर यह सिद्ध किया जाए कि उनके साधन उनके साध्य को सिद्ध करने में असमर्थ हैं। इस उपाय से जब स्वभावसत्ता (वस्तुसत्ता) सिद्ध नहीं होगी तो यही निःस्वभावता की सिद्धि होगी। अर्थात् स्वभावसत्ता का निषेध ही निःस्वभावता की सिद्धि है। इसलिए परपक्ष का निराकरणमात्र माध्यमिक को करना चाहिए। स्वतन्त्ररूप से हेतुओं का प्रयोग करके स्वपक्ष की सिद्धि करना माध्यमिकों के विचारों के वातावरण के सर्वथा विपरीत है। अतः परपक्ष निराकरणमात्र पर बल देने के कारण ये लोग ‘प्रासङ्गिक’ माध्यमिक कहलाते हैं। जबकि भावविवेक, शान्तरक्षित आदि माध्यमिक आचार्य इन विचारों से सहमत नहीं है, उनका कहना है कि सभी धर्मों के परमार्थतः निःस्वभाव (शून्य) होने पर भी व्यवहार में उनकी सत्ता होती है, अतः स्वतन्त्र रूप से हेतु, दृष्टान्त आदि का प्रयोग करके शून्यता की सिद्धि की जा सकती है। अतः ये लोग ‘स्वातन्त्रिक’ माध्यमिक कहलाते हैं। ज्ञात है कि प्रासङ्गिक व्यवहार में भी वस्त की सत्ता नहीं मानते। इन्हीं उपर्यक्त बातों के आधार पर स्वातन्त्रिक और प्रासङ्गिक माध्यमिकों ने अपने-अपने ढंग से अपने-अपने दर्शनों का विकास किया है।
दोनों प्रकार के माध्यमिकों का दावा है कि वे ही आचार्य नागार्जुन और आर्यदेव के मन्तव्यों को सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करते हैं। ऊपर स्वातन्त्रिक माध्यमिकों के दृष्टिकोण प्रस्तुत किये गये हैं। अब यहाँ प्रासङ्गिक माध्यमिक दर्शन प्रस्तुत किया जा रहा है। आचार्य चन्द्रकीर्ति इस दर्शन के प्रवर्तक है। आचार्य शान्तिदेव, दीपंकरश्रीज्ञान आदि अनेक भारतीय अद्वितीय मनीषियों ने इस मत का विकास किया है। इतना ही नहीं, भोट देश में भी माध्यमिक दर्शन का अद्भुत विकास हुआ है। भोट देश में प्रचलित चारों (जिङ्मा, करग्युद्, साक्या एवं गेलुक्) सम्प्रदायों में मूर्धन्य विद्वान् हुए हैं। सभी की रुझान प्रासङ्गिक माध्यमिक दर्शन की ओर है। वस्तुतः प्रासङ्गिक माध्यमिक दर्शन अवैदिक बौद्धदर्शन के विकास की
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बौद्धदर्शन पराकाष्ठा है और यह दर्शन निश्चय ही न केवल भारतीय दर्शनों में, अपितु विश्व में
अद्वितीय और बेजोड़ है।
ऊपर कहा गया है कि स्वातन्त्रिक और प्रासङ्गिक-यह नामकरण भी भोटदेशीय विद्वानों की देन है। भारतीय शास्त्रों में यद्यपि पारस्परिक मतभेद और वाद-विवाद उपलब्ध हैं, किन्तु नामकरण उपलब्ध नहीं है। भोट विद्वानों द्वारा ही यह नामकरण विश्व में प्रचलित हुआ है। भोट देश के महापण्डित आचार्य चोंखापा ने प्रासङ्गिक दर्शन और स्वातन्त्रिक माध्यमिकों के विचारों और भेदों को अपनी कृतियों द्वारा अत्यन्त स्पष्टतया प्रतिपादित किया है। आवश्यकता इस बात की है कि भोट विद्वानों की कृतियों का हिन्दी
आदि भारतीय भाषाओं और विश्व की अन्य भाषाओं में अनुवाद किया जाए, जिससे इन महनीय विचारों से विश्व ठीक-ठीक अवगत हो सके। हमारे विचार में सन्त्रस्त विश्व और सडकटग्रस्त मानव के त्राण का एकमात्र यही आसरा है. यह नि:सन्दिग्ध है।
प्रासङ्गिक प्रस्थान के दर्शन का निरूपण हम निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर प्रस्तुत कर रहे हैं : १. पदल एवं धर्म की निःस्वभावता या सस्वभावता
PROPIPP २. परमार्थ सत्ता का निषेध करने वाली प्रधान युक्ति
१. पुद्गल एवं धर्म की निःस्वभावता या सस्वभावता
मा इस गूढ़ विषय पर विचार करते समय भी यदि हम उसका निम्नलिखित तीन भागों में वर्गीकरण कर लेते हैं तो प्रतिपादन में भी स्पष्टता होगी और समझने में भी आसानी होगी, यथा : किक कि आप काम (क) पुद्गल और धर्म की सस्वभावता के निषेध की विशेषता र (ख) निषेध की इस विशेषता के द्वारा आर्य नागार्जुन के अभिप्राय को व्यक्त करने का
र असाधारण प्रकार (ग) सूत्रविरोध का परिहार
(क) पुद्गल और धर्म की सस्वभावता के निषेध की विशेषता अमर लिंक
5 इसका भी हम द्विधा विभाजन करके प्रतिपादन कर रहे है, यथा : शाम (ए) स्वलक्षण सत्ता (स्वभाव) के निषेध की विशेषता ।
(बी) निषेध्य के स्वरूप का परिचय और उसके माध्यम से शून्यता का प्रतिपादन (ए) स्वलक्षण सत्ता (स्वभाव) के निषेध की विशेषता
आचार्य बुद्धपालित द्वारा प्रणीत मूलमाध्यमिककारिकाटीका के ऊपर यद्यपि आचार्य भावविवेक ने अनेक दोषारोपण किये हैं, तथापि नैरात्म्यद्वय (पुद्गलनैरात्म्य और धर्मनै ल्य के स्वरूप के विषय में न कोई विरोध प्रकट किया है और न दोषारोपण किया है। आचार्य
माध्यमिक दर्शन
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अवलोकितेश्वरव्रत का कहना है कि ‘सभी आध्यात्मिक एवं बाह्य धर्म माया की भाँति, प्रतीत्यसमुत्पन्न एवं अर्थक्रियासमर्थ हैं, किन्तु वे परमार्थतः सस्वभाव नहीं हैं-ऐसा जानना आर्यपितापुत्रसमागमसूत्र, भावविवेक एवं बुद्धपालित आदि माध्यमिकमतानुयायी आचार्यों की प्रज्ञापारमिता की विधि हैं’। ऐसा कहकर उन्होंने यह प्रतिपादन किया है कि ‘व्यवहारतः माया की भाँति सत्ता’ और ‘परमार्थतः निःस्वभावता’ के विषय में भावविवेक और बुद्धपालित इन दोनों आचार्यों के मतों में ऐकमत्य है। आचार्य ज्ञानगर्भ, आचार्य शान्तरक्षित एवं आचार्य कमलशील आदि ने भी अपने और आचार्य चन्द्रकीर्ति के मत में नैरात्म्य के विषय में कोई अन्तर (भेद) है-ऐसा नहीं कहा। आए कि जी शामिा कोकणीक (a
__ आचार्य चन्द्रकीर्ति ने ज़रूर यह स्पष्ट रूप से माना है कि आचार्य बुद्धपालित ने आर्य नागार्जुन का अभिप्राय अविपरीत रूप से प्रकट किया है तथा उनके और अपने विचारों में जहाँ तक परमार्थ और संवृति के स्वरूप की स्थापना का प्रश्न है, कुछ भी अन्तर (फर्क) नहीं है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा है कि अन्य माध्यमिकों ने आचार्य नागार्जुन का मत जैसा प्रकट किया है, उससे उन (चन्द्रकीर्ति) का मत असाधारण है। उपर्युक्त बातें उनके मध्यमकावतार भाष्य में प्रतिपादित है।
- मध्यमकावतार भाष्य में चन्द्रकीर्ति ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि माध्यमिक शास्त्रों से अतिरिक्त अन्य शास्त्रों में जैसे शून्यता प्रमुखरूप से, इष्टरूप से और विस्तृतरूप से स्पष्टतया प्रतिपादित नहीं है, वैसे ही विभिन्न और गम्भीर युक्तियों द्वारा जैसे शून्यता का प्रतिपादन हमने किया है, वैसा प्रतिपादन अन्य माध्यमिक शास्त्रों में नहीं है। विद्वानों को यह बात जान लेना चाहिए।
अतः कुछ लोग, जो ऐसा कहते हैं कि सौत्रान्तिक मत में जो परमार्थ है, वही माध्यमिकों का संवृतिसत्य है, उनका ऐसा कहना माध्यमिक शास्त्रों में अनभिज्ञता की वजह से ही है। जैसा सौत्रान्तिकों के बारे में कहा है, वैसे वैभाषिकों के बारे में कहकर अन्त में चन्द्रकीर्ति ने कहा है कि लोकोत्तर धर्म का लौकिक धर्मों से तुल्य होना अयुक्त है, क्योंकि यह मत (जैसा चन्द्रकीर्ति आदि ने व्याख्यायित किया है) असाधारण है-ऐसा विद्वज्जनों को जानना चाहिए। जिम कागल विना तिला माजिक कि सफ अपने मत को असाधारण कहने की वजह से वैभाषिक और सौत्रान्तिक नामक दो वस्तुवादी दार्शनिक प्रस्थानों में जिसे परमार्थ कहा गया है, वह माध्यमिकों का संवृतिसत्य है-ऐसा कथन माध्यमिक तत्त्व की अनभिज्ञता के कारण है-इस बात का स्पष्टीकरण इस प्रकार समझना चाहिए : लीछ कि नमान) का’ आचार्य चन्द्रकीर्ति अपने मत में स्वलक्षणसत्ता व्यवहार में भी नहीं मानते, जबकि वैभाषिक और सौत्रान्तिक आचार्य स्वलक्षणसत्ता के ही आधार पर अपने दर्शन की स्थापना करते हैं।
बौद्धदर्शन कति संवृति और परमार्थ इन दो सत्यों में से एक से भी च्युत होने पर दोनों से च्युति हो जाती है। अतः दोनों सत्यों से अच्युत लोकोत्तर धर्म और दोनों सत्यों से च्युत लौकिक धर्म लौकिक और पारमार्थिक दोनों दृष्टियों से कथमपि तुल्य नहीं है। फलतः आर्य नागार्जुन का मन्तव्य परमार्थतः नहीं, अपितु संवृतितः भी वस्तुवादी सिद्धान्तों से असाधारण है।
र (बी) निषेध्य के स्वरूप का परिचय और उसके माध्यम से शून्यता का प्रतिपादन आया इस विषय का प्रतिपादन भी सुविधा की दृष्टि से दो शीर्षकों में विभाजित करके किया जा रहा है : काम करता गाय पारि (स)- (अ) परिकल्पित आरोपिका बुद्धि का ग्राह्य और उस बुद्धि द्वारा विषय ग्रहण करने का प्रकार लिङ्ग । (आ) सहज आरोपिका बुद्धि का ग्राह्य और बुद्धि द्वारा विषय ग्रहण करने का प्रकार (श) श्रावकपिटक में धर्मनैरात्म्य उपदिष्ट है-इसका प्रतिपादन या (स-अ) परिकल्पित आरोपिका बुद्धि का ग्राह्य और उस बुद्धि द्वारा ग्रहण करने का प्रकार माआमा र नः नि प्रश्न है कि किस प्रकार ग्रहण करने से स्वलक्षण सत्ता का ग्रहण होता है ? इसका प्रतिपादन करने के प्रसंग में पहले स्वलक्षणसत्तावादियों का मत प्रस्तुत किया जा रहा है : 5 इस प्रकार का लोक में व्यवहार प्रचलित है कि ‘अमुक पुद्गल ने यह कार्य किया और उसका यह फल भोग रहा है’। अतः (ऐसे व्यवहार के कारण) यह सोचा जा सकता है कि क्या ‘पञ्च स्कन्ध ही पुद्गल हैं या पुद्गल इन स्कन्धों से भिन्न हैं ?। ऐसा सोचना वस्तुतः पुद्गलव्यवहार के निहितार्थ को खोजना है। खोजने पर ‘स्कन्धों से भिन्न या अभिन्न’-इन दोनों पक्षों में से कोई एक पक्ष उपलब्ध हो तो उससे पुद्गल की स्थापना हो सकती है और कर्मों के कर्ता और फलों के भोक्ता आदि के सिद्धि हो सकती है। यदि खोज करने पर कोई भी पक्ष उपलब्ध न हो तो पुद्गल-व्यवहार की स्थापना नहीं की जा सकती। इस तरह पुद्गल व्यवहार के आरोपमात्र से सन्तुष्ट न होकर जिस आधार में वह व्यवहार होता है, उस आधार अर्थात् पञ्चस्कन्धों का विचार-विमर्श और अन्वेषण करके पुद्गल की स्थापना की जाती है। इस प्रकार की स्थापना ही पुद्गल की स्वलक्षणतः सत्ता की स्थापना है। स्वयूथ्य वैभाषिक से लेकर स्वातन्त्रिक माध्यमिक पर्यन्त सभी लोग ऐसा ही मानते हैं। इसी तरह रूप, वेदना, संज्ञा आदि संस्कृत धर्म तथा प्रतिघस्पर्श से रहितता अर्थात् प्रसज्यप्रतिषेधरूपी आकाश आदि असंस्कृत धर्म, इस तरह जितने भी प्रमाणसिद्ध प्रमेय हैं, उनके नाम व्यवहारमात्र से सन्तुष्ट न होकर उस (नामव्यवहार) का अभिधेय अर्थात् आधार ‘किस प्रकार का है’-ऐसा अन्वेषण करने पर यदि कोई अर्थ उपलब्ध होता है, तो उसकी ‘सत्’ के रूप में स्थापना की जा सकती है। यदि कुछ भी उपलब्ध नहीं हो तो उसे ‘सत्’ नहीं कह सकते।
माध्यमिक दर्शन ४५७ Pा ज्ञातव्य है कि प्रमाणशास्त्रों में अर्थक्रियासमर्थ वस्तु को ‘स्वलक्षण’ कहा गया है। अभिधर्मशास्त्रों में असाधारण लक्षण को ‘स्वलक्षण’ कहते हैं, जैसे अग्नि का असाधारण लक्षण ‘ऊष्मा’ है। इन दोनों प्रकार के स्वलक्षणों में और यहाँ जो ‘स्वलक्षणसत्’ कहा गया है, उसमें प्रयुक्त ‘स्वलक्षण’ में बहुत अन्तर है॥
तामाध्यमिकों की निषेध्य जो स्वलक्षणसत्ता है, उसका स्वरूप जैसा ऊपर वर्णित है, वैसा ही है। अर्थात् वस्तुसत्तान्वेषिणी या परमार्थगवेषिणी बुद्धि द्वारा खोज करने पर यदि उपलब्ध होता है तो वह ‘सत्’ तथा उपलब्ध न हो तो उसे ‘असत्’ कहा जाता है। आशय यह है कि माध्यमिक मतानुसार खोजने पर जो उपलब्ध होता है, वह स्वलक्षणसत् है और यही माध्यमिकों का निषेध्य है। इस स्वलक्षण सत् में और उपर्युक्त स्वलक्षण में अन्तर है। सामान्यतया वह्नि की ऊष्मा को माध्यमिक भी स्वलक्षण कहते हैं। यहाँ तक वैभाषिक से लेकर स्वातन्त्रिक माध्यमिक पर्यन्त ‘सत्’ और ‘असत्’ की जो सीमा मानी गई है, उसका निर्देश किया गया है।
चन्द्रकीर्ति के मत में उक्त प्रकार से निर्दिष्ट ‘सत्’ की स्थापना व्यवहार में भी मान्य नहीं है। चन्द्रकीर्ति के मतानुसार ‘सत्’ की सीमा निम्नलिखित प्रकार से है :
जितने भी नामव्यवहार हैं, उसका आधार (अभिधेय) खोजने पर उन नामव्यवहारों से अतिरिक्त कोई अर्थ उपलब्ध नहीं होता। उदाहरणार्थ राहु के शिरस् में राहु का नामव्यवहार तथा शिलापुत्रक के शरीर में शिलापुत्र का सङ्केत किया जाता है। सङ्केतार्थ की खोज करने पर राहुशिरस् से भिन्न राहु उपलब्ध नहीं होता। वस्तुतः लौकिक व्यवहार में उस प्रकीर की (वस्तुसत्तान्वेषिणी बुद्धि द्वारा) खोज प्रवृत्त ही नहीं होती। सभी लौकिक वस्तुएं अविमर्शतः (विना विचार किये) ‘सत्’ हैं। अर्थात् अविचाररमणीय हैं। आशय है कि प्रासङ्गिक माध्यमिकों से भिन्न बौद्ध दार्शनिक प्रस्थान जिस प्रकार विमर्श (खोज) करके ‘सत्’ की स्थापना करते हैं, उस प्रकार ‘सत्’ की स्थापना यहाँ नहीं की जा सकती। विना विमर्श के ही जैसे ‘सत्’ की स्थापना की जाती है, उसका प्रकार निम्न है :
का देवदत्त का रूप या देवदत्त का चित्त-इस प्रकार कहने पर उस प्रकार के नामव्यवहारों के आधार देवदत्त, रूप या चित्त की सत्ता किस प्रकार की है-यदि ऐसी परीक्षा (खोज या विचार-विमर्श) की जाए तो रूप और चित्त से अभिन्न या रूप और चित्त से भिन्न किसी भी प्रकार से ‘देवदत्त’ यह अर्थ उपलब्ध नहीं होगा। अतः विमर्श या अन्वेषण या परीक्षण द्वारा उपलब्ध अर्थ के रूप में ‘देवदत्त’ की स्थापना नहीं की जा सकती। इसके अर्थ हुआ ‘देवदत्त’ स्वलक्षणतः असत् (सत् नहीं) है। इसका यह अर्थ कथमपि नहीं है कि ‘देवदत्त असत्’ है। देवदत्त के असत् न होने से वह (देवदत्त) स्कन्धों पर आश्रित के रूप में संवृतितः सत् है। उसी प्रकार राहु और शिलापुत्रक की स्थापना भी संवृतितः ही है।
ऊपर जैसे सांवृतिक दृष्टि से पुद्गल की स्थापना की गई है, उसी प्रकार धर्मों की स्थापना भी होती है। तथा हि :
४५८
बौद्धदर्शन - ई पृथ्वी (लक्ष्य) और खरत्व (लक्षण) आदि सभी लक्ष्य-लक्षणों की स्थापना करते समय लक्ष्यलक्षणव्यवहार की प्रवृत्ति के आधार की पूर्वोक्त विधि से खोज करके उपलब्ध अर्थ की लक्ष्य-लक्षण के रूप में स्थापना की जाएगी तो वे कदापि स्थापित नहीं किये जा सकते, फिर भी परस्परापेक्षा द्वारा वे ‘सत्’ स्थापित किये जाते हैं। यदि पूर्वोक्त प्रकार से मीमांसा (परीक्षा, अन्वेषण) करके वस्तुसत्ता की स्थापना की जाएगी तो वह परमार्थसत्ता की स्थापना हो जाएगी, सांवृतिकसत्ता की नहीं।
प्रश्न- स्वातन्त्रिक आचार्य ज्ञानगर्भ के ‘सत्यद्वयविभङ्ग’ नामक ग्रन्थ में उल्लिखित है कि ‘यथाप्रतिभास’ अर्थात् प्रतिभास के अनुरूप ही वस्तु का स्वरूप होने से उसमें विचार या परीक्षा की प्रवृत्ति सम्भव नहीं है। यदि परीक्षा या विचार करके वस्तुस्वभाव की स्थापना की जाएगी तो भिन्न प्रकार की अर्थोपलब्धि होने से वस्तुस्वभाव की हानि होगी। अर्थात् कोई अर्थ उपलब्ध न होने से स्थापना न हो सकेगी। इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वातन्त्रिक माध्यमिक भी युक्ति द्वारा अन्वेषण करके उपलब्ध अर्थ में संवृतितः सत्ता की स्थापना करने का निषेध करते हैं। ऐसी स्थिति में ‘युक्ति द्वारा मीमांसित (परीक्षित) अर्थ में व्यावहारिक सत्ता की स्थापना न करना’-यह केवल तुम्हारी (प्रासङ्गिक माध्यमिक की) ही विशेषता कैसे
होगी?
____उत्तर- यद्यपि दोनों प्रकार के (स्वातन्त्रिक एवं प्रासङ्गिक) माध्यमिक परमार्थसत्ता
और संवृतिसत्ता की स्थापना के लिए अन्वेषण, विचार या मीमांसा करते हैं, किन्तु किस तरह के विचार, अन्वेषण या परीक्षण से परमार्थ का अन्वेषण होता है, इसका अन्तर न जानने के कारण उक्त प्रकार के प्रश्न उत्थित होते हैं। कर प्रासङ्गिक मत में उक्त प्रकार के परीक्षण मात्र से तत्त्व (परमार्थ) का अन्वेषण हो जाता है। क्योंकि सभी भाव (पदार्थ) नाममात्र, सङ्केतमात्र, व्यवहारमात्र हैं-ऐसा अनेक बार कहा गया है। यही चाय काम ज नम कि रितिक की में स्पष्टीकरण- प्रासङ्गिक माध्यमिक स्पष्ट रूप से कहते हैं कि उक्त प्रकार की परीक्षा करने पर उपलब्ध अर्थ निश्चित ही परमार्थसत् हो जाएगा अर्थात् परमार्थसत्ता की स्थापना हो जाएगी, सांवृतिक सत्ता की नहीं। जबकि वैभाषिक से लेकर स्वातन्त्रिक माध्यमिक पर्यन्त सभी दार्शनिक उक्त प्रकार की परीक्षा से उपलब्ध अर्थ की स्वलक्षणसत्ता स्थापित करते हैं। स्वलक्षणसत्ता स्वातन्त्रिक माध्यमिकों के मत में व्यावहारिक है, क्योंकि वे व्यवहार में स्वलक्षणसत्ता मानते हैं। अतः उनके मत में उक्त प्रकार की परीक्षा से व्यावहारिक (सांवृतिक) सत्ता की स्थापना होती है। किन्तु प्रासङ्गिक कहते हैं कि यदि उक्त प्रकार की परीक्षा की जाती है तो उससे सांवृतिक सत्ता की स्थापना न होकर परमार्थसत्ता की स्थापना हो जाएगी।
माध्यमिक दर्शन
४५६
का नाममात्र आदि का अर्थ- प्रासङ्गिकों का कहना है कि ‘उक्त प्रकार के नामव्यवहार के व्यवहार्य अर्थ का अन्वेषण करने पर उसकी अनुपलब्धि’ नाममात्र, सङ्केतमात्र आदि का अर्थ है, अन्य अर्थ बिलकुल नहीं है। अर्थात् “नाम है, किन्तु ‘अर्थ’ नहीं है या नाम से भिन्न अर्थ नहीं है"-यह नाममात्र का अर्थ नहीं। आशय यह है कि नाम भी है और अर्थ भी है, किन्तु परीक्षा करने पर उपलब्धि नहीं होती। जिन एक काया इस प्रासङ्गिक मत में नामव्यवहार की आरोपिका बुद्धि (विकल्पों) द्वारा जो अर्थ आरोपित हैं, यद्यपि वे सब व्यवहारतः (संवृतितः) सत् नहीं हैं, (कुछ हैं भी); तथापि नामव्यवहार की आरोपिका बुद्धि द्वारा अस्थापित (अनारोपित) की व्यावहारिक सत्ता भी नहीं मानी जाती। अर्थात जितने उस बद्धि द्वारा आरोपित हैं. वे सब यद्यपि संवतितः (व्यवहारत) सत् नहीं हैं, किन्तु जितने व्यवहारतः सत् हैं, वे सब आरोपितमात्र हैं।
अमन स्वातन्त्रिक माध्यमिक नामव्यवहार की आरोपिका बुद्धि के वश मात्र से रूप, वेदना आदि की व्यावहारिक सत्ता की स्थापना नहीं कर सकते। अपितु वे अबाधित इन्द्रियज्ञान आदि में प्रतिभास के वश से व्यावहारिक सत्ता की स्थापना करते हैं। ऐसा स्वीकार करने के कारण ‘बुद्धि के वश से स्थापित या अस्थापित’-ऐसा दोनों माध्यमिकों के द्वारा कहने पर भी बुद्धि के स्वरूप के बारे में दोनों माध्यमिकों में बड़ा अन्तर है। या
स्वातन्त्रिक माध्यमिक ‘अबाधित इन्द्रियज्ञान आदि बुद्धि के वश मात्र से स्थापित (आरोपित) न होकर वस्तु अपनी ओर से (स्वतः) या अपनी स्थिति के बल से सत् है कि नहीं’-इस प्रकार की मीमांसा करने से तत्त्व (सत्) का अन्वेषण होना मानते हैं। वे प्रासङ्गिक सम्मत पूलिखित परीक्षामात्र से तत्त्व (परमार्थ) का अन्वेषण होना नहीं मानते।
अतः वे व्यवहार में स्वलक्षणसत्ता मानते हैं। Fत आगमों (बुद्धवचनों) में ‘संवृतिसत् नाममात्र हैं, सङ्केत मात्र हैं, आरोपित मात्र हैं’-ऐसा अनेकधा कहा गया है। यहाँ ‘मात्र’ शब्द द्वारा जिसका निषेध किया जाता है, उस निषेध्य के स्वरूप के बारे में भी दोनों माध्यमिकों में बड़ा अन्तर है।
प्रश्न- लोक में गमन, आगमन, उत्पाद आदि व्यवहार होते हैं और उनकी परीक्षाएं भी होती हैं। अपने ऊपर जैसी परीक्षा की है, तदनुसार ‘देवदत्त आता है, जाता है, अङ्कुर उत्पन्न होता है’-इत्यादि कहा जा सकता है या नहीं ? । Ep के उत्तर- यहाँ लोक में लौकिक परीक्षाएं होती हैं। ऊपर जिस प्रकार की परीक्षा वर्णित है, वह परमार्थ की गवेषणा करने वाली परीक्षा है। इन दोनों परीक्षाओं में महान् अन्तर है। उसे इस प्रकार समझना चाहिए :
मा यहाँ ‘देवदत्त आता है कि नहीं, अकुर उत्पन्न होता है कि नहीं’ इत्यादि के चिन्तन की अवस्था में गन्ता, आगन्ता, गमन, आगमन आदि का व्यवहार आरोपित होने पर उस व्यवहार के आरोप मात्र से सन्तुष्ट न होकर ‘वह व्यवहृतार्थ (व्यवहार विषय) किस प्रकार
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Fबौद्धदर्शना
का है’ ऐसा सोचकर परीक्षापूर्वक गमन-आगमन के बारे में नहीं पूछा गया है, अपितु गमन, आगमन के साधारण व्यवहार के प्रवृत्त होने पर साधारण परीक्षा की गई है। अर्थात् लौकिक व्यवहार की लौकिक परीक्षा की गई है। अतः इस प्रकार की परीक्षा के द्वारा परीक्षित अर्थ को स्वीकार करने में कोई विरोध नहीं है। सामान का
आरोपण करने वाली (आरोपिका) बुद्धि भी दो प्रकार की होती है, यथा-परिकल्पित आरोपिका बुद्धि और सहज आरोपिका बुद्धि। सिद्धान्तविशेष से प्रभावित बुद्धि ‘परिकल्पित आरोपिका’ है। इस बुद्धि की वजह से अपने द्वारा मान्य विषय की पुष्टि के लिए तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं और युक्तिपूर्वक विषय सिद्ध किया जाता है। सहज आरोपिका बुद्धि वह है, जो सिद्धान्तविशेष से प्रभावित नहीं होती, अपितु जो सहज (संस्कारवश) प्रवृत्त होती है। ऐसी बुद्धि विना पढ़े-लिखे लोगों में भी होती है, यहाँ तक कि पशु-पक्षी में भी होती है। जैसे ‘अहं’ के अस्तित्व की बुद्धि पशु, पक्षी, अशिक्षित मनुष्य सब में होती है। यह बुद्धि किसी सिद्धान्त के प्रभाव की वजह से उत्पन्न नहीं होती। अतः इसे ‘सहज आरोपिका बुद्धि’
कहते हैं। किमाथा हि ना पीर निस यहाँ तक परिकल्पित-आरोपिका बुद्धि द्वारा अपने विषय का किस प्रकार ग्रहण किया जाता है, उसका निरूपण किया गया है। अब सहज आरोपिका बुद्धि के ग्रहणप्रकार के स्वरूप का वर्णन किया जा रहा है। की (स.आ) सहज आरोपिका बुद्धि का ग्राह्य और उस बुद्धि द्वारा ग्रहण करने का
जिन ऊपर जैसे मीमांसा या अन्वेषण की प्रक्रिया वर्णित है, उस विधि से मीमांसा और अन्वेषण करके स्वलक्षणतः सत्ता या स्वभावतः सत्ता का ग्रहण करना ‘सहज आरोपिका बुद्धि’ (आत्मदृष्टि) द्वारा ग्रहण करने का प्रकार नहीं है। समस्त प्राणियों को संसारचक्र में आबद्ध करने वाली प्रमुख दृष्टि तो यह ‘सहज दृष्टि’ ही है। अतः युक्तियों द्वारा इसी का निषेध करना चाहिए। इसलिए इसके द्वारा ग्रहण करने का प्रकार क्या है ? इसका
प्रतिपादन किया जा रहा है : शाई होमट मामा जी -न्दर अन “बाह्य और आध्यात्मिक सभी धर्म मात्र व्यवहार के वश से स्थापित होकर ‘सत्’ नहीं है, अपितु स्वभावतः (स्वतः या स्वरूपतः) अर्थात् अपने बल से ‘सत्’ हैं"-इस प्रकार यह सहज आत्मदृष्टि ग्रहण करती है। यह सहज आत्मदृष्टि यज्ञदत्त, देवदत्त आदि पुद्गलों के प्रति उसी प्रकार अर्थात् ‘स्वतः सत्’ रूप में ग्रहण करनेवाली ‘पुद्गलात्मदृष्टि’ है तथा चक्षुष्, श्रोत्र, रूप, शब्द आदि धर्मों के प्रति भी उसी रूप में अर्थात् ‘स्वतः सत्’ रूप में ग्रहण करने वाली ‘धर्मात्मदृष्टि’ है। अतः इस दृष्टि द्वारा उस प्रकार से गृहीत ‘पुद्गलात्मा’ और ‘धर्मात्मा’ के स्वरूप का भी परिचय कर लेना चाहिए। ऊपर जैसे पुद्गल और धर्मों के व्यवहार के ‘व्यवहृत अर्थ’ की परीक्षा की गई है, इस सहज आत्मदृष्टि द्वारा ‘व्यवहृत अर्थ
माध्यमिक दर्शन
४६१
कैसा है’ इस प्रकार की परीक्षा करके ग्रहण नहीं किया जाता, क्योंकि इसके द्वारा आगोपाल नर-नारी, पशु-पक्षी सभी के द्वारा ‘आत्मा है, धर्म है’-ऐसा ग्रहण किया जाता है। किन्तु इसके द्वारा धर्म और पुद्गल का जैसे ग्रहण किया जाता है। किन्तु इसके द्वारा धर्म और पुद्गल का जैसे ग्रहण होता है, वैसी ही यदि वस्तुस्थिति भी हो तो इसके द्वारा आरोपित (गृहीत या अध्यस्त) की परीक्षा करने पर उसी रूप में उपलब्धि भी होना चाहिए। अतः परीक्षा करके ग्रहण नहीं करने वाली (अपरीक्षिका) यह सहज आत्मदृष्टि और इसके द्वारा गृहीत विषय (पुद्गल और धर्म) प्रासङ्गिक माध्यमिक युक्तियों के प्रधान निषेध्य हैं और ग्रन्थों में परीक्षा करके उस प्रकार का निषेध उपलब्ध भी होता है फिर भी इसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं है। अर्थात् सहज आरोपिका बुद्धि (सहज आत्मदृष्टि) द्वारा विना परीक्षा किये ग्रहण करना और ग्रन्थों में परीक्षा करके उनका निषेध करना-इन दोनों में कोई विरोध नहीं है। PIPEIRE
" सिद्धान्तविशेष की वज़ह से जिनकी बुद्धि प्रभावित नहीं है-ऐसे पुद्गलों (व्यक्तियों) में तथा नाम और सङ्केत को नहीं जानने वाले पुद्गलों में परिकल्पित आरोपिका (व्यवहार आरोपिका) बुद्धि द्वारा अनारोपित और सहज आरोपिका बुद्धि द्वारा आरोपित (स्थापित) सत्ता के नाम और अर्थ के सम्बन्ध को जाननेवाली बुद्धि नहीं हो सकती, फिर भी उस प्रकार की सत्तादृष्टि होती है। जैसे घट सङ्केत को नहीं जानने वाले प्रणियों में भी घट अर्थ के अस्तित्व का बोध होता है। मणि B F
जी सूत्राचार स्वातन्त्रिक माध्यमिक और योगाचार स्वातन्त्रिक माध्यमिक इन दोनों मतों में पुद्गल और धर्मों में जिस निषेध्य (पुद्गलात्मा और धर्मात्मा) का निषेध करने से नैरात्म्य (पुद्गल नैरात्म्य और धर्मनैरात्म्य) की स्थापना की जाती है, उन दोनों पुद्गलात्मा और धर्मात्मा में तथा उनमें अभिनिवेश करने के प्रकार में अत्यन्त भेद माना जाता है। अर्थात् ये दोनों मत पुद्गलात्मा और धर्मात्मा के स्वरूप और उनके प्रति अभिनिवेश के प्रकार में बड़ा भेद मानते हैं। अर्थात् दोनों आत्माओं के स्वरूप और उसके प्रति अभिनिवेश के प्रकार में भेद को दोनों मतवादी समान रूप से मानते हैं। किन्तु प्रासङ्गिक माध्यमिक धर्मी (आधार) के भेदमात्र की दृष्टि से दोनों नैरात्म्यों में भेद मानते हैं। नैरात्म्य के निषेध्य धर्मात्मा और पुद्गलात्मा के स्वरूप में कोई तात्त्विक भेद नहीं मानते। गणक
प्रश्न- आपने कहा है कि स्वयूथ्य वैभाषिक से लेकर स्वातन्त्रिक माध्यमिक सभी दार्शनिक प्रमाणतः सिद्ध सभी अर्थों की स्वलक्षणतः सत्ता मानते हैं। किन्तु जहाँ तक योगाचार दार्शनिकों का प्रश्न है, वे तो रूप आदि (परतन्त्र) में आरोपित स्वभाव एवं विशेष की परिकल्पित सत्ता मानते हैं। अर्थात् उनके द्वारा उनकी स्वलक्षणसत्ता का निषेध किया जाता है और उनकी परिकल्पित सत्ता मानी जाती है। ऐसी स्थिति में क्या आपके कथन में त्रुटि नहीं है ?४६२
बौद्धदर्शन
गागा उत्तर- त्रुटि नहीं है। योगाचार जिस स्वलक्षणसत्ता का निषेध करते हैं, उसकी ‘नाम और सङ्केत द्वारा स्थापना की जा सकती है’-इतना मात्र अर्थ है। वे नाम और सङ्केत के द्वारा आरोपित (व्यवहत) की खोज करने पर उसकी अनुपलब्धि नहीं मानते। अतः प्रासङ्गिकसम्मत स्वलक्षणदृष्टि तो उनमें होती है। योगाचार साहित्य में यद्यपि स्वभाव और विशेष के रूप में आरोपित को नाममात्र कहा गया है, तथापि उसका अर्थ मात्र इतना है कि स्वभाव के रूप में और विशेष के रूप में आरोपित (परतन्त्र) में और आरोप करनेवाली आरोपिका बुद्धि में जैसे भिन्नता का प्रतिभास होता है, वैसी वस्तुस्थिति नहीं है। यही नाममात्र होने का उनके अनुसार अर्थ है। फलतः प्रासङ्गिकसम्मत ‘नाममात्र’ एवं योगाचारसम्मत ‘नाममात्र’ में बहुत अन्तर है। गोमा तसा NEES
समाधि की
(श) श्रावकपिटक में धर्मनैरात्म्य उपदिष्ट है-इसका प्रतिपादन
पारित में योगाचार और स्वातन्त्रिक माध्यमिक दोनों इस बात में सहमत हैं कि हीनयानपिटक में धर्मनैरात्म्य उपदिष्ट नहीं हैं तथा पुद्गलनैरात्म्य का स्वरूप जैसे श्रावकों ने प्रतिपादित किया है, उससे अधिक महायान में नहीं है। गाय कोशिका
ध आचार्य बुद्धपालित ने अपनी मध्यमकस्ववृत्ति में कहा है कि हीनयान में भी धर्मनैरात्म्य उपदिष्ट है, क्योंकि भगवान् ने कहा है :
के भाव __एतद्धि भिक्षवः, परमं सत्यं यदुत अमोषधर्मं निर्वाणम्, सर्वसंस्कारश्च मृषा मोषधर्माण इति। तथा च-नास्त्यत्र तथता वा अवितथता वा। मोषधर्मकमप्येतत्, प्रलोपधर्मकमप्येतत्, मृषाप्येतत्, मायेयं बाललापिनी इति।
(प्रसन्नपदा मूलमाध्यमिककारिकाटीका, पृ. १३)
अर्थात अमोषधर्मक निर्वाण ही परम सत्य है। सभी संस्कार मृषा और मोषधर्मक हैं। इन (संस्कारों) में तथता (सस्वभावता), अविपरीतता नहीं है। यब सब कुछ मृषा है, मोषधर्मक है और नाशस्वभाव हैं और बाल-पृथग्जनों को भासित होने वाली माया है।
FFF कि इसी तरह उन्होंने (भगवान् ने) पुनः कहा है :
निजह कि घाम फेनपिण्डोपमं रूपं वेदना बुबुदोपमा। बिमान मरीचिसदृशी संज्ञा संस्काराः कदलीनिभाः।
या मायोपमं च विज्ञानमुक्तमादित्यबन्धुना॥
या काणमा जोड मारणा जामक (संयुक्तनिकाय, २-३, पृ. ३६०)एक विचाा राजाभार अर्थात् रूपस्कन्ध फेनपिण्ड के समान, वेदना बुलबले के समान, संज्ञा मृगमरीचिका के समान, संस्कार कदलीस्तम्भ के समान तथा विज्ञान माया के समान है। माला माध्यमिक दर्शन ४६३
धर्मनैरात्म्य
आचार्य बुद्धपालित का कहना है कि इन सब वचनों के द्वारा भगवान् ने सभी धर्मों को अनात्म कहा है। उन्हें माया, मरीचि, स्वप्न एवं प्रतिबिम्ब की तरह कहा है। इन सभी संस्कारों में तथता अर्थात् सस्वभावता नहीं है, सभी मिथ्या और प्रपञ्जात्मक है-ऐसा कहा है। बुद्धपालित कहते हैं कि यहाँ ‘अनात्म’ शब्द निःस्वभाव के अर्थ में है, क्योंकि ‘आत्मा’ शब्द स्वभाववाची है। इसलिए ‘सभी धर्म अनात्म हैं’ का अर्थ ‘सभी धर्म निःस्वभाव हैं’-यह होता है। उपर्युक्त बुद्धवचन हीनयानपिटक में भी हैं, अतः वहाँ भी धर्मनैरात्म्य प्रतिपादित हैं। आचार्य चन्द्रकीर्ति भी बुद्धपालित के उपर्युक्त व्याख्यान से सहमत हैं। उनका भी कहना है कि श्रावकपिटक में भी धर्मनैरात्म्य प्रतिपादित है। इस बात का प्रतिपादन उन्होंने अपनी युक्तिषष्टिका-टीका में विस्तारपूर्वक किया है। कि जिन (Pा आचार्य भावविवेक का कहना है कि माया, मरीचि, स्वप्न, प्रतिबिम्ब आदि उदाहरणों के द्वारा हीनयानी श्रावकों के मतानुसार पुद्गलनैरात्म्य का निर्देश किया गया है, न कि धर्मनैरात्म्य का। ‘आत्मा’ शब्द धर्मस्वभाववाची नहीं, अपितु पुद्गलात्मवाची है। । आचार्य भावविवेक पुनः कहते हैं कि यदि श्रावकयान में भी धर्मनैरात्म्य का प्रतिपादन माना जाएगा तो महायान के व्यर्थ होने का प्रसङ्ग होगा। इस प्रकार वे आचार्य बुद्धपालित
के व्याख्यान का खण्डन करते हैं।
आचार्य चन्द्रकीर्ति आचार्य भावविवेक के इस कथन का निरास करते हैं कि ‘यदि श्रावकयान में भी धर्मनैरात्म्य प्रतिपादित होगा तो महायान के व्यर्थ होने का प्रसङ्ग होगा। अपने मध्यमकावतार भाष्य में उन्होंने स्पष्टरूप से कहा है कि महायान की व्यर्थता का प्रसङ्ग बिलकुल नहीं है, क्योंकि महायान में केवल धर्मनैरात्म्य उपदिष्ट नहीं है, अपितु भूमि, पारमिता, प्रणिधान, संवर आदि अनेक विशिष्ट धर्म उपदिष्ट हैं, अतः महायान व्यर्थ नहीं है। अपने इस कथन की पुष्टि में उन्होंने आर्य नागार्जुन की रत्नावलि के अनेक उद्धरण प्रस्तुत किये हैं।
अपि च, कात्यायनाववाद च आस्त नास्तात चाभयम्।
नायक शिकणारा प्रतिषिद्धं भगवता भावाभावविभाविना॥
का किया किनार (मध्यमकशास्त्र, १५.७) मा
क्रिय का तथा
का किशनीतिक कि तन्मृषा मोषधर्म यद् भगवानित्यभाषत। मिस की शाह सर्वे च मोषधर्माणः संस्कारास्तेन ते मृषा
जामा मा (मध्यमकशास्त्र, १३.१)
बौद्धदर्शन अर्थात् भाव और अभाव को जानने वाले भगवान् ने कात्यायनाववादसूत्र में भावों के सत्त्व और असत्त्व और सदसत्त्व का निषेध किया है।
तथा
की जो भगवान् ने (धर्मों को) मृषा और मोषधर्मक (विसंवादित) कहा है, फलतः सभी संस्कार मृषा और मोषधर्मक हैं। हा इन उपर्युक्त कारिकाओं के द्वारा भगवान् ने सभी संस्कार धर्मों को विसंवादित (अर्थात् वे जैसे प्रतीत होते हैं, वैसा उनका वास्तविक स्वरूप नहीं होता)-कहा है, इसलिए वे मिथ्या है। नागार्जुन का कहना है कि यहाँ ‘मिथ्या’ का अर्थ ‘स्वभावतः शून्य होना’ है। यदि इससे विपरीत अर्थ किया जाता है तो नागार्जुन उसमें अनेक आक्षेप प्रदर्शित करते हैं और ‘मिथ्या’ को ‘स्वभावशून्यता’ के अर्थ में निश्चित करते हैं। अतः ‘हीनयानपिटक में भी धर्मनैरात्म्य निर्दिष्ट है’-नागार्जुन के इस अभिप्राय को अवश्य स्वीकार करना चाहिए। ही प्रासङ्गिक माध्यमिकों का कहना है कि यद्यपि हीनयान पिटक में धर्मनैरात्म्य उपदिष्ट है, फिर भी हम ऐसा नहीं कहते कि हीनयान पिटक में सभी धर्मों को स्वलक्षणतः सत् नहीं ही कहा गया है। अपितु दोनों बातें कही गई हैं। स्वलक्षणसत्ता तो अनेक बार कही गई है।
पुद्गलनैरात्म्य
वैभाषिक से लेकर स्वातन्त्रिक माध्यमिक पर्यन्त सभी स्वयूथ्य सिद्धान्तवादियों के मत में यह माना जाता है कि ‘पुद्गल स्कन्धों से भिन्न लक्षणवाला, स्वतन्त्र एवं द्रव्यसत् नहीं हैं। इसे (पृथक् द्रव्यतः सत्ता के अभाव को) ही वे ‘पुद्गलनैरात्म्य’ कहते हैं।
- उनका यह भी कहना है कि आत्मदृष्टि ‘अहम्’ के आश्रय (आधार) आत्मा को स्कन्धों के स्वामी की भाँति तथा स्कन्धों को उसके दास की भाँति ग्रहण करती है। क्योंकि ‘मेरा रूप, मेरी वेदना, मेरी संज्ञा’ इत्यादि प्रकार से ग्रहण किया जाता है, इसलिए वे स्कन्ध उस आत्मा के हैं और इसलिए वे आत्मा के अधीन हैं। इसलिए आत्मदृष्टि पाँचों स्कन्धों को आत्मा के अधीन रूप में ग्रहण करती है। अतः स्वामी की भाँति, स्कन्धों से पृथक् लक्षण वाले, स्वतन्त्र आत्मा का जैसा अवभास (प्रतीति) होता है तथा उसी के अनुरूप उसका ‘सत्’ के रूप में जो अभिनिवेश किया जाता है, वैसा अभिनिवेश ही पुद्गल को ‘द्रव्यसत्’ ग्रहण करने का आकार-प्रकार है। पुद्गल की उस प्रकार की द्रव्यसत्ता का खण्डन हो जाने पर ‘पुद्गल’ स्कन्धों में उपचरितमात्र या आरोपित मात्र रह जाता है। ‘मात्र’ शब्द द्वारा पुद्गल की स्कन्धों से भिन्नार्थता का निषेध किया जाता है।
आचार्य भावविवेक अपने ‘तर्कज्वाला’ नामक ग्रन्थ में कहते हैं कि ‘व्यवहार में विज्ञान में ही आत्मा का उपाचर किया जाता है, क्योंकि विज्ञान ही पुनर्भव का उपादान करता है।
माध्यमिक दर्शन ४६५ अतः वही (विज्ञान ही) आत्मा है-इस प्रकार शरीरेन्द्रियसमूह में उपचार होता है’। अपने इस कथन की पुष्टि में वे : यथा पि अङ्गसम्भारा होति सद्दो रथो इति। एवं खन्धेसु सन्तेसु होति सत्तो ति सम्मुति॥
(संयुक्तनिकाय, सगाथवग्ग, वजिरासुत्त, पृ. १३५)
(अर्थात् जैसे रथ के (चक्र, नेमि, धुरा आदि) अङ्गों में ‘रथ’ इस प्रकार की शब्दप्रज्ञप्ति होती है, उसी प्रकार स्कन्धों के होने पर ‘सत्त्व’ इस प्रकार की प्रज्ञप्ति होती है। ) इस आगम को प्रस्तुत करते हैं। इसी प्रकार वे पुनः :
“चित्तस्स दमथो साधु चित्तं दन्तं सुखावहं" (धम्मपद, चित्तवग्ग)
(अर्थात् चित्त का दमन अच्छा है, क्योंकि दान्त (दमन किया हुआ) चित्त सुखावह (सुख लानेवाला) होता है। )
इस आगम को प्रस्तुत करते हैं और यह सिद्ध करते हैं कि विज्ञान (चित्त) में ही आत्मा का उपचार होता है। क्योंकि आत्मा पुनर्भव में स्कन्धों का समादान करने वाला माना जाता है और विज्ञान ही पुनर्भव का समादान करता है, अतः विज्ञान ही आत्मा है-यह कहना सर्वथा युक्तियुक्त है। विज्ञान को ही आत्मा सिद्ध करने के लिए वे प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। _____ज्ञात है कि आचार्य भावविवेक आलयविज्ञान नहीं मानते। अतः जिस विज्ञान में वह आत्मा का उपचार मानते हैं, वह विज्ञान ‘मनोविज्ञान’ ही है। जितने भी बौद्ध दार्शनिक आलयविज्ञान नहीं मानते, वे सभी इसी प्रकार मानेंगे। अर्थात् उन्हें मनोविज्ञान को आत्मा के उपचार का आश्रय (आधार) मानना पड़ेगा। जो दार्शनिक आलयविज्ञान मानते हैं, वे आलयविज्ञानसन्तति को ही पुद्गल मानते हैं। वे लोग उसी प्रकार के पुद्गल को मानने के पक्ष में अनेक आगम और युक्तियाँ प्रस्तुत करते हैं। विस्तार भय से हम उन्हें छोड़ रहे हैं।
आचार्य चन्द्रकीर्ति का कहना है कि उस प्रकार के स्कन्धों से भिन्न, स्वतन्त्र, द्रव्यसत् आत्मा का खण्डन हो जाने पर भी व्यवहार में उपचरितमात्र पुद्गल के अलावा उसकी स्वभावसत्ता का खण्डन नहीं हो सकेगा। उस प्रकार की स्वभावसत्ता का खण्डन न होने से वह दृष्टि पुद्गलसत्यतादृष्टि या पुद्गलस्वभावदृष्टि है। अर्थात् पुद्गलात्मदृष्टि ही है। जैसे घट आदि की सस्वभावता दृष्टि धर्मात्मदृष्टि होती है, वैसे पुद्गल की सस्वभावता दृष्टि पुद्गलात्मदृष्टि होती है। इसका खण्डन तो आप (भावविवेक आदि) के द्वारा हुआ नहीं। कहने का आशय यह है कि आपने स्कन्धों से भिन्न लक्षण, स्वतन्त्र, द्रव्यसत् पुद्गल का खण्डन किया है और उस प्रकार के पुद्गल का खण्डन (निषेध) हो भी जाता है, फिर भी इतने मात्र
४६६
बौद्धदर्शन से पुद्गलनिःस्वभावता या निःस्वभाव पुद्गल सिद्ध नहीं होता, क्योंकि आपके निषेध (खण्डन) का विषय अर्थात् आपका निषेध्य पुद्गल की स्वभावसत्ता (पुद्गलसस्वभावता) नहीं थी, अतः उसका खण्डन नहीं हुआ। खण्डन न होने से पुद्गलसस्वभावता दृष्टि अवशिष्ट ही रह गई। अर्थात् पुद्गलात्मदृष्टि अवशिष्ट रह गई।
अपि च, उक्त प्रकार का स्कन्धों से भिन्न, स्वतन्त्र, द्रव्यसत् आत्मा तो तैर्थिकों द्वारा कल्पित आत्मदृष्टि का विषय होता है। प्रत्यक्षतः उसका अभाव जानकर उस अभाव की भावना (अभ्यास) करने पर भी रूप आदि धर्मों के प्रति जो पहले से विद्यमान सत्यतादृष्टि है, उसका किञ्चित् मात्र क्षय नहीं होगा। अर्थात् रूपादि के प्रति विद्यमान सस्वभावता दृष्टि किञ्चित् मात्र भी क्षीण नहीं होगी। उसके क्षीण न होने से उस सत्यतादृष्टि से उत्पन्न राग आदि क्लेशों की कथमपि निवृत्ति नहीं होगी। यह बात मध्यमकावतार भाष्य, युक्तिषष्टिकावृत्ति, चतुःशतक मूल और उसकी वृत्ति (चन्द्रकीर्तिकृत) में विस्तारपूर्वक वर्णित है। विशेष जानकारी के लिए उनका अवलोकन करना चाहिए। ___ उपर्युक्त भावविवेक आदि आचार्यों द्वारा जिस प्रकार पुद्गलसमारोप की स्थापना की जाती है, वह श्रावकपिटक में कथित “यथापि अङ्गसम्भारा होति सद्दो रथो इति" इस वचन के अनुकूल भी नहीं है। क्योंकि उस वचन के अनुसार तो जैसे चक्र, नेमि, धुरा आदि अङ्गों को आश्रय बना कर समारोपित रथ ‘रथाङ्ग’ नहीं है, वैसे ही स्कन्धों को आश्रय बनाकर समारोपित पुद्गल भी ‘स्कन्ध’ नहीं है, किन्तु आप (भावविवेक) ने तो विज्ञानस्कन्ध को पुद्गल कहा है।
यद्यपि अङ्गसमूह को आधार बनाकर समारोपित रथ चक्र, नेमि, धुरा आदि कोई अङ्ग नहीं है, तथापि अङ्गसमूह को ‘रथ’ कहा जाता है, उसी प्रकार स्कन्धसमूह ‘पुद्गल’ है। यदि ऐसा कहा जाए तो इसमें क्या आपत्ति है ?
यह भी अयुक्त है। क्योंकि समारोपित धर्म अर्थात् पुद्गल आश्रय (स्कन्ध) नहीं हो सकता तथा आश्रय (स्कन्धसमूह) समारोपित धर्म ‘पुद्गल’ नहीं हो सकता। जैसे महाभूतों को आश्रय (हेतु) बनाकर नील, चक्षुष आदि समारोपित है। इस अवस्था में महाभूत कभी भी नील, चक्षुष आदि नहीं होते और न तो नील, चक्षुष् आदि ही महाभूत होते हैं। ठीक वैसे ही ‘घट’ आदि धर्म भी पुद्गल की भाँति अपने अङ्गों (अवयवों) में आरोपित मात्र हैं। सूत्रों में कथित ‘स्कन्धों को आश्रय करके आत्मा प्रज्ञप्त है’ इत्यादि वचनों से स्कन्धों का संघात (समूह) आत्मा नहीं है, यही सिद्ध होता है।
जिज्ञासा- यदि कोई कहे कि सूत्रों :
“ये केचिद् भिक्षवः, श्रमणा वा ब्राह्मणा वा आत्मेति समनुपश्यन्तः समनुपश्यन्ति, त इमानेव पञ्चोपादानस्कन्धान्” (पुद्गलविनिश्चय, अभिधर्मकोश, पृ. १२०४, बौद्धभारती संस्करण)।
माध्यमिक दर्शन
४६७ अर्थात् जो श्रमण और ब्राह्मण आत्मा और आत्मीय (के बारे में सोचते हुए, उन) को देखते हैं, वे इन पाँच स्कन्धों को ही आत्मा और आत्मीय के रूप में देखते हैं। जो ऐसा कहा गया है, उसके द्वारा स्कन्ध ही आत्मदृष्टि के आलम्बन कहे गये हैं। अतः वे ही आत्मा हैं ?
समाधान- ‘वे पाँच स्कन्धों में ही देखते हैं’-इस वचन के द्वारा स्कन्ध मुख्य रूप से आत्मदृष्टि के आलम्बन निर्दिष्ट नहीं हैं, अपितु स्कन्धों से भिन्न, स्वतन्त्र, ‘आत्मा’ नामक अर्थ के आत्मदृष्टि के आलम्बन होने का निषेध किया गया है। ‘एव’ शब्द द्वारा उसी का निवारण किया गया है। अन्य सूत्रों में ‘रूपं नात्मा रूपवान्नापि चात्मा रूपे नात्मा नात्मनि रूपं….. एवं यावद् विज्ञानं नात्मा विज्ञानवान्नात्मा विज्ञाने नात्मा नात्मनि विज्ञानम्, इत्यादि द्वारा भी प्रत्येक स्कन्ध के आत्मा होने का निषेध किया गया है। इसी युक्ति के आधार पर जिसे ‘सत्कायदृष्टि’ कहा गया है, उसका अर्थ भी जान लेना चाहिए। ___उन उपर्युक्त सूत्रों द्वारा सहज अहंकार दृष्टि के जो आलम्बन और आकार दो होते हैं, उनमें से आलम्बन-विषय (अहम्) की व्यावहारिक सत्ता का निरूपण किया गया है। सहज आत्मदृष्टि ‘आत्मा स्वलक्षणतः सत् है’-इस प्रकार ग्रहण करती है, ‘स्वलक्षणतः सिद्ध आत्मा’ जो उस (सहज आत्मदृष्टि) का विषयाकार है, उसकी व्यवहारतः भी सत्ता नहीं होती। अर्थात् वह विषयाकार व्यवहार में भी सत् नहीं है।
इसी तरह आत्मीय (ममकार) सहज सत्कायदृष्टि के जो आत्मीय (पदार्थ) आलम्बन हैं, उनकी व्यावहारिक सत्ता होती है। वे आत्मीय स्वलक्षणतः सत् हैं-इस प्रकार जो आत्मीय सहज सत्काय दृष्टि ग्रहण करती है। उन आत्मीय धर्मों की स्वलक्षणः सत्ता, जो उसका विषयाकार है, उसकी व्यवहारतः भी सत्ता नहीं है। '
जिज्ञासा- सहज अहंकार दृष्टि के आलम्बन यदि स्कन्ध-नहीं होंगे तो सूत्रों में ‘रूपं नात्मा…..’ (रूप आत्मा नहीं है) इत्यादि रूप में जो आत्मनिषेध किया गया है, वह युक्त नहीं हो सकेगा, क्योंकि वे स्कन्ध आत्मदृष्टिरूपी सहज सत्कायदृष्टि के विषय या आधार (आश्रय) नहीं हो सकेंगे ?
समाधान- स्कन्ध और आत्मा में एकता (अभिन्नता) और भिन्नता की दोनों दृष्टियाँ परिकल्पित दृष्टियाँ हैं, न कि सहज आत्मदृष्टि, अतः दोष नहीं है। फिर भी जिस रूप में वे सहज आत्मदृष्टि द्वारा गृहीत हैं, उसी रूप में सत् हों तो भिन्न या अभिन्न होने से अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार की सत्ता नहीं हो सकती। इसलिए सूत्रों द्वारा ‘नास्ति रूपम् आत्मा’ इत्यादि प्रकार से परीक्षा करके खण्डन करना युक्तियुक्त है। ___उपर्युक्त सभी निरूपण आगम द्वारा बाधित नहीं हैं, अपितु आगम द्वारा सिद्ध हैं-इस बात का ऊपर प्रतिपादन किया गया है। अब ‘आत्मा नहीं है’-इसका युक्ति द्वारा निरूपण किया जा रहा है, तथा हि :
है
बौद्धदर्शन
- स्कन्ध आत्मा के उपादेय होते हैं और आत्मा स्कन्धों का उपादाता होता है। इसलिए विज्ञान का या किसी अन्य स्कन्ध का आत्मा होना सर्वथा अयुक्त है, अन्यथा अर्थात् स्कन्ध ही आत्मा होंगे तो कर्ता और कर्म के एक होने (एकत्व) का प्रसङ्ग होगा। आर्य नागार्जुन ने इस अभिप्राय को निम्नकारिका द्वारा व्यक्त किया है, यथा :
“यदिन्थनं स चेदग्निरेकत्वं कर्तृकर्मणोः । (मूलमाध्यमिककारिका १०.१) अर्थात् जो इन्धन है, यदि वही अग्नि होगा तो कर्ता और कर्म का एकत्व हो जाएगा।
अग्नि और इन्धन की परीक्षा द्वारा आत्मा और उसके उपादान अर्थात् स्कन्धों के उपादेय होने का क्रम व्याख्यात हो जाता है। साथ ही, घट, पट आदि सभी का क्रम ज्ञात हो जाता है, यथा : अग्नीन्धनाभ्यां व्याख्यात आत्मोपादानयोः क्रमः।
सर्वो निरवशेषेण सार्धं घटपदादिभिः॥
(मूलमाध्यमिककारिका १०.१५)
अपि च, एवं विद्यादपादानमा (मूलमाध्यमिककारिका ८.१३) अर्थात् इसी प्रकार उपादान को जानना चाहिए।
इस प्रकार कर्म और कर्ता सभी परस्पर की अपेक्षा से अर्थात् सापेक्षतया स्थित हैं। उनकी स्वभावतः सत्ता नहीं है। इस तरह उपादान और उपादाता की स्थापना करना चाहिए।
जब ‘चक्षुष द्वारा रूप देखा जाता है’-तब यज्ञदत्त ने रूप देखा-ऐसा कहा जाता है। जब यज्ञदत्त द्वारा रूप देखा जाता है, तब ‘चक्षु ने रूप देखा’-ऐसा कहा जाता है। किन्तु रूप देखने वाला ‘चक्षु’ यज्ञदत्त नहीं है और रूप देखनेवाला ‘यज्ञदत्त’ भी चक्षु नहीं है। फिर भी इन दोनों में विरोध नहीं है।
____ इसी प्रकार चक्षु में व्याधि होने या नीरोगता होने पर क्रमशः मैं (अहं) रोगी हूँ या नीरोग (स्वस्थ) हूँ-इस प्रकार व्यवहार किया जा सकता है तथा मेरा चक्षु रोगग्रस्त या नीरोग है-ऐसा व्यवहार भी किया जा सकता है। किन्तु उसी चक्षु को आत्मा के रूप में या आत्मीय के रूप में लोकव्यवहार में व्यवस्थापित नहीं किया जाता। इसी विधि द्वारा बाह्य और आध्यात्मिक अवशिष्ट आयतन और आत्मा दोनों की एक की अपेक्षा से दूसरे की व्यवस्था भी जान लेना चाहिए।
माध्यमिक दर्शन
४६६ यहाँ तैर्थिक लोग चक्षु आदि धर्मों की पुद्गल के रूप में व्यवस्था करने में अयुक्तता को देख कर चक्षु आदि से द्रव्यतः भिन्न द्रष्टा आदि स्वीकार करते हैं। स्वयूथ्य प्रासंगिकेतर सिद्धान्तवादी बौद्ध उस द्रव्यतः भिन्न पुद्गल में दोष देखकर विज्ञान या अन्य स्कन्धों को ‘पुद्गल’ स्वीकार करते हैं। बुद्धवचनों के अभिप्राय को अविपरीत रूप से जानने वाले प्रासङ्गिक मतानुयायी तो ‘व्यवहार में प्रज्ञप्तिमात्र से पृथक् (अतिरिक्त) स्वभाव की सत्ता नहीं है’-ऐसा जानकर मुक्त हो जाते हैं। उस आरोपितमात्र में ही कर्म का सञ्चय करने वाले और उसको भोगनेवाले आदि सभी की सुचारुतया व्यवस्था हो जाती है-ऐसा जानना चाहिए।
“यथापि अङ्गसम्भारा होति सद्दो रथो इति” इत्यादि वचनों का अभिप्राय मध्यमकावतार और उसके भाष्य में जिस प्रकार निर्णीत है, उसी प्रकार सात प्रकार के पुद्गलव्यवहार के व्यवहृतार्थ की खोज करने पर भी उपलब्ध नहीं होने से उसकी निःस्वभावता ही ‘पुद्गलनैरात्म्य’ कही जाती है। अतः अन्य लोगों की व्याख्या से इस व्याख्यान में बहुत अन्तर है और यही बुद्धपालित की वृत्ति का वास्तविक अभिप्राय है।
भा (ख) निषेध की इस विशेषता के द्वारा आर्य नागार्जुन के अभिप्राय को व्यक्त करने का असाधारण प्रकार
_ इस विषय का भी निम्नलिखित तीन उपशीर्षकों में विभाजन करके प्रतिपादन किया जा रहा है :
(क्ष) नैरात्म्य का अवबोध एवं स्थूल और सूक्ष्म आत्मदृष्टि की असाधारण विशेषता
(त्र) बाह्य अर्थ की स्थापना करके आलयविज्ञान और स्वसंवेदन के अस्वीकार की असाधारण विशेषता
(ज्ञ) स्वतन्त्र हेतु के अस्वीकार की असाधारण विशेषता
(क्ष) नैरात्म्य का अवबोध एवं स्थूल और सूक्ष्म आत्मदृष्टि की असाधारण विशेषता
____ उपर्युक्त प्रकार से ‘आत्मा’ और ‘धर्म’ के व्यवहार के व्यवहृत अर्थ की एक-अनेकयुक्ति द्वारा गवेषणा (खोज) करने पर उनकी ‘एक’ या ‘अनेक’ किसी भी रूप में उपलब्धि नहीं होती, फिर भी ‘यह देवदत्त है’ ‘यह चक्षु है’ इत्यादि व्यवहार की लोक में स्थापना अवश्य करनी चाहिए, क्योंकि इसी के आधार पर सारे जगत्-व्यवहार चलते हैं। खोजने पर उपलब्ध होनेवाले धर्मों के आधार पर जगत्-व्यवहार नहीं चला करता। अतः व्यवहार के वश से विना स्थापित (अनारोपित) स्वभाव का न होना (परमार्थ सत्य) तथा व्यवहार के वश से स्थापित (आरोपित) स्वभाव (सत्ता) का होना (संवृति सत्य) और उसमें संसार एवं निर्वाण की सारी व्यवस्थाएं युक्तियुक्त ढंग से की जाती हैं। दोनों सत्यों की इस प्रकार की स्थापना
४७०
बौद्धदर्शन
आचार्य बुद्धपालित और चन्द्रकीर्ति ने आर्य नागार्जुन और आर्यदेव के अभिप्राय के रूप में की है और यही आचार्य भावविवेक और शान्तरक्षित आदि माध्यमिक आचार्यों से इनकी विशेषता है।
र व्यावहारिक अस्तित्व एवं व्यावहारिक उत्पाद आदि व्यावहारिक बुद्धि द्वारा उपचरित हैं। अत एव सूत्रों में उक्त है कि ‘लोक में उत्पत्ति, स्थिति एवं भङ्ग आदि सब व्यवहार के बल से होते हैं। सत्यतः किसी भी धर्म की उत्पत्ति, स्थिति आदि नहीं होते। इसीलिए महाकारुणिक तथागत ने लोक को भय से मुक्त करने के लिए उत्पत्ति, स्थिति आदि सभी की देशना की है’। और भी, आर्य नागार्जुन ने भी शून्यतासप्तति में कहा है कि भगवान् ने उत्पत्ति, स्थिति, भङ्ग, अस्ति, नास्ति, हीन, मध्यम और उत्तम आदि सब की देशना लोकव्यवहार के वश से की है, तत्त्वतः नहीं। यथा : किराया
उत्पादस्थितिभङ्गास्तिनास्तिहीनसमोत्तमम्।
साना लौकिकव्यवहारात्तु बुद्धेनोक्तं न तत्त्वतः॥
(शून्यतासप्तति, का.-१ तिब्बती संस्थान) मा जननी (प्रज्ञापारमिता)-सूत्रों में अनेक बार अनेक स्थलों पर कहा गया है कि ‘सभी धर्म लौकिक व्यवहार की दृष्टि से ही सत् हैं, उन्हीं वचनों के आधार पर माध्यमिक सभी धर्मों की व्यावहारिक सत्ता स्थापित करते हैं। वह इस प्रकार है-लोक में बीज से अङ्कुर के उत्पाद की व्यवस्था की जाती है। किन्तु इस व्यवहार के व्यवहृत अर्थ की ‘यह अङ्कुर स्वतः उत्पन्न है कि परतः या उभयतः या अहेतुतः उत्पन्न है’ ऐसी परीक्षा करके व्यवस्था नहीं की जाती, जैसे कि आर्य नागार्जुन ने मूलमाध्यमिककारिका में कहा है : न स्वतो नापि परतो न द्वाभ्यां नाप्यहेतुतः। उत्पन्ना जातु विद्यन्ते भावाः क्वचन केचन॥
(द्र.-मूलमाध्यमिककारिका, का.- १ : ३) कालिया कि
इस प्रकार विना परीक्षा किये व्यवहार की स्थापना करना, नागार्जुन का अभिमत है। विना परीक्षा किये व्यवहार की स्थापना का तात्पर्य एवं उसका प्रकार पुद्गल-व्यवहार की स्थापना के अवसर पर जैसा वर्णित है, उसी प्रकार जानना चाहिए। पाँच स्कन्धों से भिन्न, स्वतन्त्र द्रव्यसत् रूप में पुद्गल की स्थापना करना अथवा पाँच स्कन्धों के समूहमात्र की पुद्गल के रूप में स्थापना करना, लौकिक व्यवहार का अर्थ नहीं है, क्योंकि लोक में तो आत्मा और आत्मीय (अर्थात् पुद्गल और स्कन्ध) स्वामी एवं दास की भाँति व्यवहृत होते हैं।
पुद्गल और धर्म की निरात्मकता और उनकी व्यावहारिक सत्ता का स्वरूप उक्त प्रकार का ही होने से जब तक स्वसिद्धान्त के प्रभाव से मन में धर्मात्मा (धर्म स्वभाव) के अस्तित्व (सत्ता) के प्रति स्वीकृति का भाव रहेगा, तब तक पुद्गलनैरात्म्य ज्ञान भी नहीं हो सकेगा।
माध्यमिक दर्शन
४७१
आचार्य चन्द्रकीर्ति ने अपने मध्यमकावतार भाष्य में कहा है कि ‘जब तक धर्म के प्रति आत्मदृष्टि निवृत्त नहीं होती, तब तक पुद्गलनैरात्म्य ज्ञान नहीं होता’। अतः श्रावक और प्रत्येकबुद्ध में भी दोनों नैरात्म्यों का ज्ञान होना ही चाहिए (अर्थात् होता है)। ऊपर वर्णित आशय केवल आचार्य चन्द्रकीर्ति का ही नहीं है, अपितु आर्य नागार्जुन ने भी युक्तिषष्टिका में कहा है :
न चैवास्तितया मोक्षो भवादस्मान्न नास्तितः। भावाभावपरिज्ञानान्महात्मा हि विमुच्यते॥
(युक्तिषष्टिका का. ४ संस्कृत छाया)
अर्थात् भावदृष्टि और अभावदृष्टि से संसार से मोक्ष नहीं होता। भाव और अभाव के सम्यक् परिज्ञान से ही महात्मा (बोधिसत्त्व) मुक्त होते हैं।
आशय यह है कि सभी धर्मों को स्वलक्षणतः सत् ग्रहण करना ‘सत्-दृष्टि’ है तथा कार्यकारणभाव (या हेतुफलभाव) को अयुक्त देखना ‘असत्-दृष्टि’ है। जब तक इन दोनों दृष्टियों से छुटकारा नहीं मिलेगा, तब तक मोक्ष सम्भव नहीं है, अपितु अन्तद्वय से रहित भाव और अभाव की तथता के परिज्ञान से ही मुक्ति सम्भव है। ऊपर की कारिका में प्रयुक्त ‘विमुच्यते’ (मुक्त होता है) शब्द ज्ञेयावरण से मुक्त होने के अर्थ में नहीं है, क्योंकि द्वितीय पाद के ‘भवादस्मात्’ (इस भव से) यह पद ‘संसार से विमुक्त होने’ के अर्थ में प्रयुक्त है। इसी प्रकार नागार्जुन ने ‘रत्नावलि’ में कहा है :
मरीचिप्रतिमं लोकमेवमस्तीति गृह्णतः। नास्तीति चापि मोहोऽयं सति मोहे न मुच्यते॥
नास्तिको दुर्गतिं याति सुगतिं याति चास्तिकः। यथाभूतपरिज्ञानान्मोक्षमद्वयनिश्रितः॥
(रत्नावलि १ : ५६-५७)
अर्थात् मृगमरीचिका के समान इस लोक को ‘सत्’ रूप में या ‘असत्’ रूप में ग्रहण करनेवाले का उस प्रकार ग्रहण करना ‘मोह’ ही है और मोह के विद्यमान रहते मुक्ति (सम्भव) नहीं है।
नास्तिक दुर्गति को प्राप्त करता है तथा आस्तिक सुगति को प्राप्त करता है, किन्तु यथाभूत (तथता) के परिज्ञान से अद्वय (तत्त्व) में आश्रित व्यक्ति मोक्ष प्राप्त करता है।
इस प्रकार संसार से मुक्ति के लिए अस्ति और नास्ति इन दोनों अन्तों से रहित होना नितान्त आवश्यक है। ऐसी स्थिति में आत्मदृष्टि (आत्मग्राह) क्लेशावरण और ज्ञेयावरण इन दो आवरणों में किस आवरण के अन्तर्गत गृहीत होगी ? इस विषय में दूसरे४७२
बौद्धदर्शन
माध्यमिकों (भावविवेक और शान्तरक्षित आदि) से इस प्रासङ्गिक मत की अत्यधिक विशेषता (भिन्नता) है। अन्य माध्यमिकों द्वारा जो धर्मात्मदृष्टि ज्ञेयावरण मानी जाती है, वह
इस मत (प्रासङ्गिक) में क्लेशावरण मानी जाती है।
एक राग, द्वेष और मोह इन तीन विषों (त्रिविष) में से मोह विषय के प्रति ‘सत्-दृष्टि’ है तथा वही भव (संसार) का बीज भी है। उसकी निवृत्ति के लिए नैरात्म्यदर्शन अपेक्षित है और नैरात्म्यदर्शन वस्तुतः भावनिःस्वभावता का दर्शन ही है। इसलिए पुद्गल और धर्म के प्रति सत्-दृष्टि ही क्लिष्ट अविद्या मानी गई है। वही सत्-दृष्टि अर्थात् क्लिष्ट अविद्या प्रतीत्यसमुत्पाद के द्वादश (बारह) अङ्गों में परिगणित अविद्या है। यह सहज क्लिष्ट अविद्या दो प्रकार की होती है, यथा- पुद्गलात्मदृष्टि और धर्मात्मदृष्टि। अतः सहज पुद्गलात्मदृष्टि भी क्लिष्ट अविद्या है। इसीलिए शास्त्रों में और सूत्रों में कभी-कभी ‘अविद्या’ संसार का मूल कही गई है और कभी-कभी सहज सत्कायदृष्टि संसार का मूल कही गई है। सहज सत्कायदृष्टि (अहं-दृष्टि) का आलम्बन ‘अहम्’ ही होता है। अतः भिन्न सन्तानवर्ती पुद्गल के प्रति स्वलक्षणसत्ता का ग्रहण करनेवाली दृष्टि यद्यपि आत्मदृष्टि है, किन्तु वह सत्कायदृष्टि नहीं है। यही आर्य नागार्जुन आदि का वास्तविक अभिप्राय है। शून्यतासप्तति में नागार्जुन ने कहा है।
हेतुप्रत्ययजा भावाः कल्प्यन्ते ये च तत्त्वतः। महाकाल प्रोक्ता शास्त्रा ह्यविद्या सा द्वादशाङ्गं ततो भवेत्॥
(शून्यतासप्तति, का. ६४, पृ. ६४)
अर्थात् हेतु-प्रत्यय से समुत्पन्न भावों के प्रति जो सत्यतः सत्ता की कल्पना की जाती है, उसे ही शास्ता ने ‘अविद्या’ कहा है। उसी से (प्रतीत्यसमुत्पाद के) बारह अङ्ग प्रवृत्त होते हैं।
प्रश्न- परस्पर विरुद्ध सहज धर्मात्मदृष्टि और सहज पुद्गलात्मदृष्टि का ग्रहण एक सन्तति में सम्भव नहीं है, अतः स्वातन्त्रिक माध्यमिकों द्वारा प्रतिपादित सहज आत्मदृष्टि (सहज धर्मात्मग्राह और पुद्गलात्मग्राह) का व्याख्यान किस प्रकार का है ?
ही समाधान- स्कन्धों से भिन्न, स्वतन्त्र पुद्गल का ग्रहण तथा द्रव्यतः (स्वतः) भिन्न सत्ता का ग्रहण सहज आत्मदृष्टि नहीं है। स्कन्ध से भिन्न, स्वतन्त्र, द्रव्यसत् पुद्गल का ग्रहण तो हस्त, पाद आदि अवयवों से द्रव्यतः भिन्न पुद्गल का ग्रहण करना होता है। ऐसा ग्रहण उन सामान्य जनों में नहीं होता, जिनकी बुद्धि सिद्धान्तों द्वारा विकृत नहीं की गई है। इसीलिए मध्यमकावतार में कहा गया है:
लोको यतो वक्ति च बीजमात्रमुप्त्वा मयोत्पादित एष सूनुः। वृक्षोऽपि विन्यस्त इति ह्यवैति जनिः परस्मान्न च तेन लोके॥
(मध्यमकावतार, ६ : ३२)
माध्यमिक दर्शन
४७३
MO
अर्थात् क्योंकि जगत् में मात्र बीज का वपन करके कहा जाता है कि मैंने पुत्र का उत्पाद किया तथा मैंने वृक्ष का रोपण किया है-ऐसा जाना जाता है, अतः परतः उत्पत्ति लोक में भी नहीं है।
_ अपि च, बुद्धपालित ने भी कहा है कि “बीज मात्र को बो कर वृक्ष उत्पन्न होने पर उसे दिखाकर कहा जाता है कि मैंने इसे लगाया है", अतः बीज और वृक्ष का पृथक्तया ग्रहण नहीं किया जाता, अन्यथा देवदार वृक्ष को दिखाकर मैंने शिंशपा वृक्ष बोया था-ऐसा व्यवहार भी होने लगेगा। और भी, हाथ की बीमारी को दिखाकर ‘मैं बीमार हूँ’ ऐसा लोग व्यवहार करते हैं। इस प्रकार वे ‘हाथ’ और ‘मैं’ में द्रव्यतः भिन्नता का ग्रहण नहीं करते। यह सब व्यवहार केवल कथनमात्र नहीं है, अपितु तदनुसार स्वीकार करना आवश्यक होता है। क्योंकि रोपित बीज और रोगग्रस्त हाथ के क्रमशः वृक्ष और पुद्गल न होने के कारण यदि रोपित वृक्ष और पुद्गल की व्यवस्था न की जा सकेगी तो ये दोनों असम्भव हो जाएंगे। अर्थात् व्यवस्था न की जा सकेगी। इन युक्तियों के सामर्थ्य से यह सिद्ध होता है कि स्वातन्त्रिक माध्यमिकों द्वारा मान्य सहज धर्मात्मदृष्टि और सहज पुद्गलात्मदृष्टि भी परिकल्पित आत्मदृष्टि ही है।
प्रश्न- जैसे कहा गया है, वैसा ही है तो ज्ञेयावरण क्या है ?
उत्तर- अविद्या की वासना ज्ञेय के सम्यक् अवबोध में बाधक होती है। राग आदि की वासनाएं भी उस प्रकार की कायिक और वाचिक प्रवृत्तियों की हेतु होती हैं, जैसी काय-वाक् प्रवृत्ति अर्हतों में विद्यमान होती है। राग आदि एवं अविद्या की वासना की सर्वथा निवृत्ति तो सर्वज्ञ या बुद्ध की अवस्था में ही होती है, दूसरी अवस्थाओं में नहीं-इस प्रकार का वर्णन मध्यमकावतार भाष्य में उपलब्ध है। इससे अधिक स्पष्ट ज्ञेयावरणों के स्वरूप का प्रतिपादन नागार्जुन और आर्यदेव के प्रामाणिक ग्रन्थों में नहीं है। ___ ‘वानर की भाँति उत्प्लवन एवं दूसरों को वृषल आदि कहना’ आदि कायदौष्ठुल्य एवं वाग्दौष्ठुल्य शास्ता द्वारा निषिद्ध होने पर भी अर्हतों में निवृत्त नहीं होते। इस प्रकार की काय-वाक् प्रवृत्ति उनमें देखी जाती है।
राग, अविद्या आदि क्लेशों की वासनाएं ज्ञेयावरण हैं। वासना का स्वरूप मध्यमकावतार भाष्य में इस प्रकार वर्णित है, यथा- जिससे चित्तसन्तति वासित होती, मलिन होती है, जो चित्तसन्तति में अनुशयन करती है, जिससे चित्तप्रवाह प्रवर्तित होता है, वह ‘वासना’ है। क्लेशनिष्ठा, क्लेशाभ्यास, क्लेशमूल और वासना ये सभी पर्यायवाची हैं।
उक्त प्रकार के ज्ञेयावरण का प्रहाण करने में उक्त प्रकार के तत्त्वबोधक ज्ञान अर्थात् धर्मनैरात्म्य ज्ञान और पुद्गलनैरात्म्य ज्ञान (मार्ग) के अलावा अन्य कोई भी मार्ग सक्षम नहीं ३. है। तथापि उपाय की परिपूर्णता एवं अपिरपूर्णता तथा दीर्घकालीन अभ्यास एवं अनभ्यास
आदि से हीनयान और महायान के प्रहाण में अन्तर होता है।
४७४
बौद्धदर्शन बुद्धवचनों में दोनों आत्मदृष्टियों का स्वरूप, दोनों नैरात्म्यों का स्वरूप तथा नैरात्म्यदर्शन से आवरणों से मुक्ति आदि के बारे में भिन्न-भिन्न प्रकार की देशनाएं उपलब्ध होती हैं। अतः उनके नेयार्थ और नीतार्थ के भेद पूर्वोक्त प्रकार से जानना चाहिए।
जो लोग आलयविज्ञान नहीं मानते, उनके मत में वासना की स्थापना, वासना की स्थिति और उनका स्वरूप आदि के बारे में व्याख्यान करना यद्यपि आवश्यक है, किन्तु थोड़े में कहना सम्भव नहीं है, अतः विस्तार भय से उसका निरूपण नहीं किया जा रहा
स्वातन्त्रिक और प्रासङ्गिक मतों में पुद्गल और धर्म को लेकर दो सत्यों के स्वरूप में भिन्नता होने के कारण धर्मनैरात्म्य और पुद्गलनैरात्म्य के स्वरूप में भी भिन्नता होती है तथा हीनयान और महायान में उनका अवबोध होने और न होने में तथा दो आत्मदृष्टियों एवं दो आवरणों के स्वरूप में भी भिन्नता होने की विशेषताएं होती हैं।
(त्र) बाह्य अर्थ की स्थापना करके आलयविज्ञान और स्वसंवेदन के अस्वीकार की असाधारण विशेषता
(i) पुद्गल एवं धर्म का अस्तित्व उसी प्रकार है, जैसे ऊपर कहा गया है। इसीलिए स्रोत-आपन्न आदि पुद्गल व्यवहारतया सत् हैं और नारकीय आदि पुद्गल असत् हैं-ऐसा भेद नहीं किया जा सकता, क्योंकि परमार्थतया दोनों ही असत् हैं और व्यवहारतया दोनों ही सत् हैं। इसी प्रकार स्कन्ध, धातु और आयतन नामक धर्मों में से रूपी धर्म असत् हैं और चित्त-चैतसिक सत् हैं-ऐसा भेद भी नहीं किया जा सकता, क्योंकि दोनों ही परमार्थतः असत् हैं और संवृतितः (व्यवहारतः) सत् हैं।
इस अवसर पर कुछ माध्यमिक, जैसे भावविवेक आदि कहते हैं कि बाह्य घट, पट आदि और आन्तरिक चित्त-चैतसिक आदि दोनों ही समान रूप से सत् हैं तथा कुछ माध्यमिक जैसे शान्तरक्षित आदि कहते हैं कि चित्त-चैतसिक ज्ञानजातीय आन्तरिक पदार्थ सत् हैं तथा घट, पट आदि बाह्य जडजातीय धर्म असत् हैं। इन दोनों प्रकार के सूत्राचार एवं योगाचार स्वातन्त्रिक माध्यमिकों की यह भी समान रूप से मान्यता है कि यदि (व्यवहारतः भी) सत् हैं तो वे धर्म स्वलक्षणतः सत् हैं और यदि स्वलक्षणतः असत् हैं तो सर्वथा असत् हैं। अर्थात् उनकी व्यवहारतः भी सत्ता नहीं हैं। अर्थात् वे सत्ता और स्वलक्षणतः सत्ता में फर्क नहीं करते। ___इसी प्रकार प्रासङ्गिक मत में बाह्य (जडजातीय धर्म) यद्यपि स्वलक्षणतः असत् हैं, अर्थात् उनकी स्वलक्षण-सत्ता नहीं है, तथापि उनकी सत्ता का अभाव नहीं है। अर्थात् उनकी सत्ता और असत्ता के बारे में विवाद चलता है। आशय यह है कि जगत् के किसी एक धर्म की स्वलक्षणतः असत्ता होने पर भी सत्ता (व्यावहारिक सत्ता) की स्थापना की जा सके
माध्यमिक दर्शन
४७५ तो ‘बाह्यार्थ नहीं है, विज्ञान हैं। इस प्रकार के भेद का निराकरण किया जा सकता है। अन्यथा युक्तियों का मर्म ज्ञात न हो सकेगा।
योगाचार माध्यमिक निरवयव परमाणु का निषेध करते हैं और उस निषेध के आधार पर कहते हैं कि उन परमाणुओं से आरब्ध स्थूल संचित पदार्थ का भी अभाव है। अर्थात् उनके मत में सूक्ष्म और स्थूल दोनों प्रकार के बाह्यार्थों का अभाव है। इसलिए वे कहते हैं कि बाह्यार्थ सर्वथा नहीं हैं। यद्यपि उन योगाचार माध्यमिकों द्वारा प्रयुक्त युक्तियों के द्वारा निरवयव बाह्यार्थ की सत्ता का खण्डन किया जा सकता है, तथापि बाह्यार्थ की सत्ता का अपलाप (निषेध) नहीं किया जा सकता। इतना ही नहीं, उनके मत में आगम और लोकप्रतीत-विरोध दोनों द्वारा बाधा उपस्थित होती है। दशभूमक सूत्र के “चित्तमात्रं भो जिनपुत्राः, यदुत चैधातुकम्” (बोधिसत्त्वों, तीनों धातुएं चित्तमात्र हैं) इस वचन में प्रयुक्त ‘मात्र’ शब्द द्वारा चित्त से अतिरिक्त किसी सृष्टिकर्ता (ईश्वर) के अस्तित्व का निषेध किया गया है, न कि बाह्यार्थ का निषेध किया गया है। अर्थात् उक्त वचन द्वारा बाह्यार्थ का निषेध उपदिष्ट नहीं है। यह आशय उसी सत्र द्वारा स्पष्ट होता है। इस वचन के बारे में हमारा (प्रासङ्गिकों) का व्याख्यान आचार्य भावविवेक के व्याख्यान के समान ही है। “दृश्यं न विद्यते बाह्यं” (अर्थात् बाह्य दृश्य नहीं है) लकावतार के इस आगम (वचन) द्वारा ‘बाह्यार्थ का निषेध नहीं किया गया है’-ऐसा जो व्याख्या भावविवेक ने की है, चन्द्रकीर्ति उससे सहमत नहीं है। चन्द्रकीर्ति कहते हैं कि उक्त लङ्कावतारसूत्र के वचन द्वारा बाह्यार्थ का निश्चित ही खण्डन किया गया है, किन्तु वह सूत्र (लकावतार) नेयार्थ है, नीतार्थ नहीं। अर्थात् वे लङ्कावतारसूत्र को नेयार्थ प्रतिपादित करते हैं। ___आचार्य चन्द्रकीर्ति का कहना है कि जननीसूत्रों में विना भेद किये पाँचों स्कन्धों की निःस्वभावता (शून्यता) की देशना की गई है तथा अभिधर्म में उन (स्कन्धों) की स्वलक्षण
और सामान्यलक्षण के रूप में समान रूप से सत्ता का निर्देश किया गया है, तदनुसार स्वीकार करना चाहिए। अर्थात् चन्द्रकीर्ति का अभिप्राय है कि यदि सत्ता है तो बाह्य अर्थ
और आन्तरिक विज्ञान दोनों की सत्ता है। यदि सत्ता नहीं है तो दोनों की सत्ता नहीं है। एक की सत्ता है और दूसरे की नहीं-इस प्रकार सत्ता भेद स्वीकार नहीं किया जा सकता।
लोक में भी बाहर से आए हुए को ‘बाह्य’ कहते हैं। यदि वे बाहर न हों तो उनका आना सम्भव न होगा। बाह्य धर्म विज्ञान में अपने आकार की स्थापना के द्वारा उन (विज्ञानों) के विषय के रूप में या महाभूत आदि के रूप में प्रज्ञप्त होते हैं। विज्ञान में अपने आकार की स्थापना के विना सत्ता की स्थापना करना किसी के द्वारा भी सम्भव नहीं है। इसीलिए युक्तिषष्टिका में
। महाभूतादि विज्ञाने प्रोक्तं समवरुध्यते।
तज्ज्ञाने विगमं याति ननु मिथ्या विकल्पितम् ॥
(युक्तिषष्टिका, का. ३० संस्कृत छाया) ४७६ बौद्धदर्शन - अर्थात् सभी महाभूत आदि विज्ञान में संगृहीत हैं। क्योंकि वे विज्ञान द्वारा व्यवस्थापितमात्र हैं। जब विज्ञान का अनुत्पाद प्रत्यक्षतः ज्ञात हो जाता है, तब उसके द्वारा स्थापित अर्थ भी विलुप्त हो जाते हैं। अतः उक्त आगमों द्वारा बाह्यार्थ का खण्डन नहीं किया गया है। बाह्यार्थ और विज्ञप्ति (विज्ञान) दोनों के व्यवहृतार्थ की जब गवेषणा होती है तो दोनों की समानरूप से अनुपलब्धि होती है, फिर भी व्यवहार के वश से उनकी सांवृतिक सत्ता में कोई अन्तर नहीं है। इन __(ii) प्रासङ्गिक मत में आलयविज्ञान नहीं माना जाता। उनके मतानुसार आलयविज्ञान न मानने में कोई दोष भी नहीं है। कुछ लोगों (योगाचारों) की मान्यता है कि आलयविज्ञान मानना बहुत जरूरी है, क्योंकि कर्म तो अपने उत्पाद के द्वितीय क्षण में ही निरुद्ध (नष्ट) हो जाता है और भङ्ग से उत्पाद असम्भव है। अतः कर्म और उसके फल के आधारभूत आलयविज्ञान को मानना चाहिए। प्रासङ्गिकों का कहना है कि यद्यपि सभी धर्म स्वलक्षणतः असिद्ध हैं, फिर भी वस्तु की व्यवस्था की जा सकती है। अतः भङ्ग को भी वस्तु मानना युक्तियुक्त है। क्योंकि स्वभावतः किसी का निरोध नहीं होता। अतः कर्म भी स्वभावतः निरुद्ध नहीं होता, और उसमें अर्थक्रियासामर्थ्य विद्यमान होता है। फलतः आलयविज्ञान के न होने पर भी कभी-कभी चिरनिरुद्ध कर्म से फल का उत्पाद होता है। आचार्य चन्द्रकीर्ति ने मध्यमकावतार में कहा है : यस्मात् स्वभावेन न तन्निरुद्धं विनालयं शक्तिरियं हि तस्मात् । चिरान्निरुद्धादपि कर्मणस्तत् क्वचित् फलं सम्भवतीति विद्धि॥
(मध्यमकावतार, ६ : ३६) - अर्थात् स्वभाव से वह (कर्म) निरुद्ध नहीं है, अतः आलयविज्ञान के विना भी यह अर्थक्रियाशक्ति है। इसलिए चिरनिरुद्ध कर्म से भी कभी-कभी फल उत्पन्न होता है-यह जानना चाहिए।
संवृति में भी स्वलक्षणतः सत्ता का निषेध करके जो लोग निःस्वभौवता के आधार पर कार्य-कारणभाव की स्थापना करने में कुशल होते हैं, उन (प्रासङ्गिकों) के मत में आलयविज्ञान न होने पर भी आलयविज्ञान पर आधारित कर्म-फलव्यवस्था से भी अच्छी कर्म-कर्मफलव्यवस्था स्थापित की जा सकती है। उनके लिए न केवल दोनों सत्यों के प्रति शाश्वत और उच्छेद दृष्टियों का परिहार करने में सुगमता है, अपितु कर्म-फल आदि सभी व्यवस्थाओं की स्थापना करने में भी सुगमता है। उनके द्वारा ऐसा कर पाने का मूल आधार यही है कि वे लोग निःस्वभाव हेतु से निःस्वभाव फल की उत्पत्ति मानते हैं।
माध्यमिक दर्शन
४७७
आलयविज्ञान न मानने पर अन्तिम च्युति चित्त और द्वितीय भव के प्रथम प्रतिसन्धि चित्त की सम्यग् व्यवस्था न हो सकेगी-यह दोष भी प्रासङ्गिक मत में नहीं होगा, यदि उपर्युक्त निःस्वभाव की उत्पत्ति की व्यवस्था भलीभाँति जान ली जाती है। बाह्यार्थ की सत्ता इस मत में मान्य होने के मर्म से भी आलयविज्ञान की अस्वीकृति जानी जा सकती है। यदि आलयविज्ञान माना जाता है तो बाह्यार्थ की सत्ताव्यवस्था टूट जाती है।
र विनाश (भग) की वस्तुता की सिद्धि आचार्य चन्द्रकीर्ति ने मूलमाध्यमिककारिकाटीका प्रसन्नपदा में और युक्तिषष्टिकाटीका में विस्तारपूर्वक की है। विनाश को वस्तु मानने की वज़ह से त्रिकाल की व्यवस्था में भी इस मत में अनेक असाधारण विशेषताएं होती हैं। ____(iii) स्वसंवेदन माननेवालों का पूर्वपक्ष और उस पूर्वपक्ष का खण्डन मध्यमकावतार और उसके भाष्य में निम्न प्रकार से वर्णित है :
पहले अनुभव हुए विना पीछे स्मृति भी नहीं होती, इसलिए जब-जब स्मृति होती है, तब-तब वह पूर्वानुभव से ही उत्पन्न होती है, यथा- ‘मैंने पहले नील देखा’-इस प्रकार विषय की स्मृति होती है तथा ‘मैंने देखा’-इस प्रकार विषयी की स्मृति होती है। इसलिए पूर्ववर्ती नीलज्ञान का अनुभव करनेवाला एक ज्ञान होना चाहिए, और उसे (अनुभव करनेवाले ज्ञान को) उस नीलज्ञान से भिन्न नहीं होना चाहिए। यदि अनुभव करनेवाला ज्ञान नीलज्ञान से भिन्न होगा तब उस अनुभव करनेवाले ज्ञान का भी अनुभव करनेवाला एक अन्य अपेक्षित होगा इस तरह अनवस्था होगी। यदि कहें कि पश्चाद्वर्ती ज्ञान पूर्ववर्ती ज्ञान का अनुभव करता है, तो पश्चाद्वर्ती ज्ञान द्वारा रूप आदि विषय का अनुभव न हो सकेगा। अतः स्वतः अनुभव मानना आवश्यक है। क्योंकि अनुभव स्वतः या परतः इन दो कोटियों में ही नियत है, तीसरी कोटि नहीं है। अतः पश्चाद्वर्ती स्मृति के बल से अनुभव करनेवाले पूर्ववर्ती स्वसंवेदन की सिद्धि होती है। इस तरह स्वसंवेदनवादियों का पूर्वपक्ष किया जाता है।
उत्तरपक्ष- पश्चाद्वर्ती स्मृति से पूर्ववर्ती अनुभव सिद्ध नहीं है, क्योंकि उस (स्मृति) की अनुभव के साथ व्याप्ति सिद्ध नहीं है। उदाहरणार्थ जाड़े की ऋतु में कभी मूषक द्वारा काट लिया जाता है और विष छोड़ दिया जाता है। तदनन्तर वर्षा ऋत के प्रारम्भ में मेघगर्जन होने पर मूषक-विष का परिपाक होता है और तज्जन्य पीड़ा आदि लक्षण प्रादुर्भूत होते हैं। तब व्यक्ति को स्मरण होता है कि जाड़े में मूषक ने काटा था और विष डाल दिया था, किन्तु जब काटा था, उस जाड़े की ऋतु में मूषक के काटने और विष डालने का अनुभव नहीं हुआ था। आशय यह है कि जाड़े की ऋतु में विष डालने का अनुभव न होने पर भी बाद में स्मृति होती है। इस तरह अन्य अनेक उदाहरण भी लोक में उपलब्ध हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि विना अनुभव के भी स्मृति की सिद्धि होती है। अर्थात् अनुभव
और स्मृति में व्याप्ति सिद्ध नहीं है।
४७८
बौद्धदर्शन अपि च, मात्र अनुभव करनेवाला सिद्ध हो भी जाए, फिर भी उससे स्वसंवेदन सिद्ध नहीं होता। सिद्धान्त में स्वसंवेदन न होने पर स्मृति की उपपत्ति इस प्रकार होती है :
पूर्ववर्ती नील विषय का अनुभव करनेवाला नीलज्ञ चक्षुर्विज्ञान और पश्चाद्वर्ती नीलज्ञ स्मृति दोनों एक ही विषय में प्रवृत्त होते हैं। इस समान प्रवृत्ति के बल से ‘मैंने देखा’ ऐसी स्मृति होती है। पूर्ववर्ती अनुभव और पश्चाद्वर्ती स्मृति दोनों के स्वलक्षणतः पृथक् नहीं होने के कारण विषय के स्मरण से विषयी का स्मरण तथा विषयी के स्मरण से विषय का स्मरण होता है और इस प्रकार परस्पर की अपेक्षा से दोनों के स्मरण होते हैं। पूर्ववर्ती अनुभव से आकृष्ट होकर ही पश्चाद्वर्ती स्मृति स्वविषय में प्रवृत्त होती है, स्वतः नहीं। अतः स्वसंवेदन की व्यवहार में भी स्वलक्षणतः सत्ता न होने के कारण व्यवहार में भी स्वसंवेदन सिद्ध नहीं है।
के अनुभव स्वतः या परतः दोनों कोटियों में ही नियत है कि नहीं-इस विषय में चन्द्रकीर्ति-प्रणीत शास्त्रों में स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध नहीं होता, फिर भी वातावरण से उनका ऐसा अभिप्राय प्रतीत होता है कि इनका कोई तीसरा ही पक्ष है, क्योंकि इन दोनों में नियत न होना, इनका अभिमत है। कारण यह है कि दीपक का अपने-आप को प्रकाशित करना ये (चन्द्रकीर्ति) नहीं मानते और दूसरे द्वारा प्रकाशित किया जाना भी नहीं मानते। फिर भी प्रकाशित होना तो स्वीकार करते ही हैं। हात पूर्वपक्ष- दीपक अपने-आपको प्रकाशित न भी करे, फिर भी उसकी सत्ता में कोई हानि नहीं होती, किन्तु ज्ञान यदि अपने-आप को नहीं जानेगा तो उसकी सत्ता ही उपपन्न न हो सकेगी, अतः दीपक और ज्ञान में साम्य नहीं है ? चारू उत्तरपक्ष- दीपक यदि अपने-आपको प्रकाशित न करेगा तो कोई दूसरा भी उसको प्रकाशित न कर सकेगा। यदि दूसरा भी कोई प्रकाशित नहीं करेगा तो दीपक का प्रकाशित होना उपपन्न न हो सकेगा, अतः दीपक और ज्ञान में साम्य है। -
पूर्वपक्ष- स्वतः या परतः प्रकाशित न होने पर भी दीपक घट आदि वस्तुओं को प्रकाशित करता है, अतः वह ‘प्रकाशस्वभाव’ सिद्ध है ?
उत्तरपक्ष- इसी तरह ज्ञान अपने-आपको नहीं जानता, फिर भी घट आदि वस्तुओं को जानता है, अतः ‘ज्ञानस्वभाव’ सिद्ध है।
पूर्वपक्ष- यदि ज्ञान अपने-आपको नहीं जानेगा, तो वह दूसरे (घट आदि) को कैसे जान सकेगा ? इसलिए ज्ञान अपने-आपको जानता है और घट आदि को भी प्रकाशित करता है ?
उत्तरपक्ष- यह भी अयुक्त है। यदि दूसरों को प्रकाशित करने से पहले अपने-आपको प्रकाशित करना आवश्यक माना जाएगा तो दूसरों को आवृत (ढंकन) करने से पहले
४७६
माध्यमिक दर्शन अपने-आपको आवृत करना भी आवश्यक होगा। ज्ञात है कि अन्धकार दूसरों का आवरण करता है। यदि वह दूसरों को ढंकने से पहले अपने-आपको ढंक लेगा तो अन्धकार दिखाई ही नहीं पड़ेगा। किन्तु ऐसा नहीं होता, अतः दूसरों को प्रकाशित करने के लिए अथवा दूसरों को जानने के लिए पहले अपने-आपको प्रकाशित करना या जानना आवश्यक नहीं है।
उपसंहार- ज्ञान का अस्तित्व ज्ञेय पर आश्रित है, उसकी स्वलक्षणतः सत्ता नहीं है, उसी तरह ज्ञेय भी ज्ञान पर आश्रित है, उसकी भी स्वलक्षणतः सत्ता नहीं है। इस तरह ज्ञान और ज्ञेय दोनों का व्यवहार अन्योन्याश्रित या परस्परापेक्ष है। आर्य नागार्जुन ने विग्रहव्यावर्तनी में कहा है :
यदि च स्वतः प्रमाणसिद्धिरनपेक्ष्य ते प्रमेयाणि। भवति प्रमाणसिद्धिर्न परापेक्षा हि सिद्धिरिति॥
(विग्रहव्यावर्तनी, का. ४१) अर्थात् यदि तुम्हारे मत में प्रमाण की स्वतः सिद्धि होती है तो विना प्रमेय की अपेक्षा के प्रमाणसिद्धि होना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं होता, अपितु अन्य की अपेक्षा से ही सिद्धि होती है।
(ज्ञ) स्वतन्त्र हेतु के अस्वीकार की असाधारण विशेषता इस विषय का प्रतिपादन भी दो उपशीर्षकों में विभाजन करके किया जा रहा है : (i) (अ) स्वतन्त्र हेतु के निषेध का क्रमिक पर्यालोचन एवं पर
(ब) स्वतन्त्र हेतु का विविध व्याख्यान (ii) (स) स्वमत में साध्य को सिद्ध करनेवाले हेतु का होना एवं
(द) स्वतन्त्र हेतु का न होना
(अ) स्वतन्त्र हेतु के निषेध का क्रमिक पर्यालोचन एवं (ब) स्वतन्त्र हेतु का विविध व्याख्यान
(अ) बुद्ध के प्रवचनों का अभिप्राय अमुक प्रकार से (स्वलक्षणतः) प्रकाशित किया जाए तो स्वतन्त्र हेतु अवश्य स्वीकार किया जाना चाहिए तथा अमुक प्रकार से (प्रज्ञप्तितः) प्रकाशित किया जाए तो स्वतन्त्र हेतु स्वीकार करना अशक्य होगा-इस तरह का अर्थ यद्यपि
प्रवचनों में निहित है, तथापि बौद्ध सिद्धान्तों के वाङ्मय में स्वतन्त्र हेतु मानना अयुक्त है * तथा प्रसङ्ग मानना युक्त है-ऐसा प्रतिपादन आचार्य चन्द्रकीर्ति और उनके अनुयायियों ने
तो किया है, किन्तु उन्हें छोड़कर अन्यों ने नहीं किया है। वह इस प्रकार है :
४८०
बौद्धदर्शन या ‘न स्वतो नापि परतः’ (स्वतः परतः आदि हेतुओं से भावों का उत्पाद नहीं होता) इत्यादि मूलमाध्यमिककारिका की बुद्धपालित ने जो व्याख्या की, उसमें आचार्य भावविवेक ने अनेकविध आक्षेप किये हैं। आचार्य चन्द्रकीर्ति ने अपनी प्रसन्नपदा टीका में युक्तिपूर्वक यह प्रतिपादित किया है कि भावविवेक द्वारा प्रदर्शित दोष आचार्य बुद्धपालित पर लागू नहीं होते, क्योंकि बुद्धपालित स्वतन्त्र-हेतु स्वीकार नहीं करते तथा यह भी कहा है कि माध्यमिकों द्वारा स्वतन्त्र हेतु मानना अयुक्त है। इस प्रकार उन्होंने विपक्ष में अनेक दोष
और अपने पक्ष में अनेक युक्तियों का प्रदर्शन किया है। चतुःशतक की टीका में उन्होंने आचार्य धर्मपाल के मत का खण्डन करते हुए संक्षेप में स्वतन्त्र हेतु का निषेध किया है’। आचार्य भावविवेक को वस्तुतः यह भान ही नहीं था कि स्वतन्त्र हेतु को स्वीकार करने के बारे में उनमें और आचार्य बुद्धपालित में कोई मतभेद है। इतना ही नहीं, उन्हें ऐसा लगता था कि स्वतन्त्र हेतु को स्वीकार करना अत्यन्त आवश्यक है। इसी वजह से वे अपने मत में और बुद्धपालित के मत में धर्म और पुद्गल के स्वभाव का निषेध करते समय निषेध्य के स्वरूप में कोई अन्तर (फर्क) है-ऐसा समझ ही न पाए।
__ आचार्य भावविवेक के अनुयायी अवलोकितेश्वरव्रत को मूलमाध्यमिककारिकावृत्ति प्रसन्नपदा के बारे में जानकारी थी, अतः उन्हें प्रज्ञाप्रदीप (भावविवेक कृत मूलमाध्यमिक कारिका की टीका) की अपनी पञ्जिका में प्रज्ञाप्रदीप के उस स्थल पर, जहाँ भावविवेक ने बुद्धपालित पर दोषारोपण किया था और चन्द्रकीर्ति ने उन दोषों की अयुक्तता दिखलाई थी, उसकी व्याख्या करते समय चन्द्रकीर्ति के मत की युक्तता या अयुक्तता की समीक्षा करनी चाहिए थी, किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। इसी तरह शान्तरक्षित, कमलशील और उनके अनुयायियों को भी चन्द्रकीर्ति द्वारा जो स्वतन्त्र हेतु का निषेध किया गया था, उसका खण्डन करना चाहिए था, किन्तु उन्होंने भी ऐसा नहीं किया।
सामान्यतया बुद्धपालित और चन्द्रकीर्ति दोनों आचार्यों के द्वारा व्यवहार में भी स्वलक्षणतः सिद्धि का निषेध किया जाता है तथा निःस्वभावता में ही हेतुफल आदि की समस्त व्यवस्थाएं सुचारुतया युक्तियुक्त ढंग से सिद्ध की जाती हैं। उसमें भी लौकिक और लोकोत्तर प्रतीत्यसमुत्पाद को अनिवार्यतया स्वीकार करना चाहिए। प्रतीत्यसमुत्पाद हेतु से उस निषेध्य का निषेध करने वाली जिन युक्तियों का प्रतिपादन किया गया है, वे निश्चय ही अत्यन्त गम्भीर और सूक्ष्म हैं-ऐसा प्रतीत होता है। उन युक्तियों में भी स्वतन्त्र हेतु का निषेध करनेवाली युक्तियाँ निश्चय ही अत्यधिक सूक्ष्म हैं।
(ब) इस प्रसङ्ग में कुछ लोगों का कहना है कि साध्य को सिद्ध करनेवाले हेतु, व्याप्ति आदि साधन यदि प्रमाण से सिद्ध हों तो स्वतन्त्र हेतु का औचित्य सिद्ध किया जा
१. द्र.-चतुःशतकवृत्ति, १६ : २१, पृ. १५२ (आलोक-प्रकाशन, नागपुर)।
माध्यमिक दर्शन
४८१ सकता है, किन्तु ऐसा सम्भव नहीं है, अतः स्वतन्त्र हेतु अयुक्त है। वादी और प्रतिवादी दोनों द्वारा सिद्ध कोई हेतु हो नहीं सकता, क्योंकि वह (वादी) परचित का ज्ञाता नहीं है, साथ ही वह अपने द्वारा सिद्ध को भी नहीं जानना, क्योंकि जिस रूप में निश्चय किया गया है, उसमें विसंवाद (धोखा) हो सकता है। इस तरह कुछ लोग स्वतन्त्र हेतु के निषेध का अनौचित्य प्रतिपादित करते हैं अर्थात् उनके अनुसार स्वतन्त्र हेतु का अभिप्राय यह है।
5 यह वाद अत्यन्त अयुक्त है। जैसे कहा गया है, वैसा सही हो तो विपक्षी की प्रतिज्ञा को जानकर उसका खण्डन करना हमारे द्वारा असम्भव हो जाएगा, क्योंकि उस (विपक्ष) द्वारा उसी प्रकार स्वीकृत है कि नहीं है-ऐसा ज्ञान नहीं हो सकेगा, क्योंकि हम परचित्त के ज्ञाता नहीं है। अपि च, अपने द्वारा विपक्ष के पक्ष में जो दोष (आक्षेप) दिये गये हैं, वे दोष (प्रसङ्ग) ‘सही दोष है, या दोषाभास है’-यह निश्चय भी न हो सकेगा, क्योंकि जिस प्रकार निश्चय किया जाता है, उसमें बाद में विसंवाद (धोखा) भी हो सकता है। इस तरह अपने (प्रासङ्गिकों) द्वारा प्रयुक्त प्रसङ्ग भी युक्त न हो सकेगा। अतः जिस प्रकार स्वतन्त्र हेतु का खण्डन किया जाता है, उसी प्रकार प्रसङ्ग भी स्वतः खण्डित हो जाएगा। का अन्य दूसरे लोगों का कहना है कि व्याप्ति भी प्रमाणतः असिद्ध ही है, यथा- यद्यपि महानस में धूम और वह्नि की व्याप्ति प्रत्यक्ष द्वारा जानी जाती है, तथापि सभी देश एवं काल में धूम को वह्नि से व्याप्त के रूप में नहीं जाना जा सकता। अनुमान द्वारा भी सभी देश-कालों में उक्त व्याप्ति का निश्चय सम्भव नहीं है। अतः लोकप्रसिद्धि या लोक द्वारा स्वीकृति या लोक द्वारा स्वीकृति मात्र से व्याप्ति सिद्ध होती है, प्रमाणतः सिद्ध नहीं होती। __ कुछ दूसरे लोगों का यह उपर्युक्त कथन भी अयुक्त है। बौद्ध न्यायशास्त्रों में व्याप्तिग्रहण का जैसा प्रकार वर्णित है, उसे इन्होंने समझा ही नहीं है या गलत समझा है। महानस (दृष्टान्त) में जो धूम और वह्नि की व्याप्ति गृहीत होती है, उसका कतई यह अभिप्राय नहीं है कि महानसीय धम के साथ महानसीय वह्नि की व्याप्ति का ग्रहण होता है। यदि ऐसा समझा जाएगा तो धूमवान् पर्वत में महानसीय धूम होने से महानसीय वह्नि सिद्ध होने लगेगी। क्योंकि ‘पर्वतो वहिमान, धूमात्’ (अर्थात् धूम विद्यमान होने से पर्वत वह्निमान् है) इस अनुमान-प्रयोग में निश्चय ही धूम (हेतु) को साध्य (वह्नि) से व्याप्त होना चाहिए
और उन्हें अर्थात् दोनों को ही पर्वत (पक्ष) में स्थित होना चाहिए। फलतः दोनों ही महानसीय सिद्ध हो जाएंगे। वस्तुतः महानस तो धूम और वह्नि के अविनाभाव नियम को निश्चित करने का आधारमात्र है और निश्चय ही ‘व्याप्ति’ है। इसी प्रकार कृतकत्व के साथ अनित्यत्व की व्याप्ति भी है, जिसके द्वारा शब्द को अनित्य सिद्ध किया जाता है और जिस व्याप्ति का ग्रहण प्रत्यक्ष द्वारा घट (दृष्टान्त) में किया जाता है। किन्तु वहाँ भी घटीय कृतकत्व के साथ घटीय अनित्यत्व की व्याप्ति का ग्रहण नहीं किया जाता, अपितु कृतकत्व के साथ अनित्यत्व मात्र की व्याप्ति का ग्रहण होता है। घट तो केवल व्याप्ति ग्रहण करने का४८२
बौद्धदर्शन
आधारमात्र होता है। इसी प्रकार इस देश के धूम या इस काल के धूम अथवा इस देश के कृतकत्व या इस काल के कृतकत्व हेतु को अर्थात् देश और काल से विशिष्ट हेतु को साध्य वह्नि और अनित्य से व्याप्त नहीं समझा जाता, अपितु निर्विशेष धूममात्र को वहि से व्याप्त एवं कृतकत्व मात्र को अनित्यत्व से व्याप्त सिद्ध किया जाता है। फलतः सभी देश और सभी कालों में अभ्रान्त रूप से व्याप्ति का निश्चय होता है। कॉमन कि
इस सम्बन्ध में कुछ अन्य लोगों का यह मानना है कि कोई भी अर्थ प्रमाण द्वारा सिद्ध नहीं हुआ करता, अतः केवल दूसरों (विपक्ष) के द्वारा स्वीकृत अर्थ (प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टान्त आदि) के आधार पर प्रसङ्ग द्वारा उनकी मिथ्यादृष्टि का अपाकरण किया जाता है, न कि निःस्वभावता की सिद्धि की जाती है। और यही ‘स्वतन्त्र हेतु नहीं है, स्वतन्त्र प्रतिज्ञा नहीं है’-इसका अर्थ है। अन्य लोग कहते हैं कि संवृति और परमार्थ की सभी व्यवस्थाएं दूसरों की दृष्टि से ही की जाती है, स्वमत में तो कुछ (संवृति, परमार्थ) भी नहीं है। ‘कुछ नहीं है’-यह बात भी दूसरी की दृष्टि में आभासमात्र के आधार पर कही जाती है, यह भी कोई स्वमत की प्रतिज्ञा नहीं है। अर्थात् प्रासङ्गिक मत में संवृति सत्य, परमार्थसत्य भी नहीं है-ऐसा दूसरों को आभासितमात्र है, उसी के आधार पर कहा जाता है, माध्यमिकों का तो यह भी कहना नहीं है। यदि वे ऐसा कहते हैं तो दूसरों को समझाने मात्र के उद्देश्य से कहते हैं, न कि स्वमत की मान्यता के आधार पर।
- ऊपर जो स्वतन्त्र हेतु के निषेध करने वालों के कुछ विचार प्रस्तुत किये गये हैं, वे स्वतन्त्र हेतु के निषेधक प्राचीन लोगों का मत नहीं है, अपितु बाद के लोगों के कथनमात्र हैं। उनमें से कुछ लोगों ने तो प्रासङ्गिक मत के असाधारण निषेध्य को ठीक-ठीक स्वीकार किया है, किन्तु अधिकांश लोगों ने तो प्रतीत्यसमुत्पाद की प्रामाणिक सिद्धि का भी खण्डन कर दिया है। इसलिए वस्तुतः ये (अधिकांश) लोग ही प्रासङ्गिकों के प्रमुख पूर्वपक्षी हैं।
(ii)(अ) स्वमत में साध्य को सिद्ध करनेवाले हेतु का होना एवं पानी (ब) न स्वतन्त्र हेतु का न होना।
(अ) ‘धर्मों की स्वलक्षणतः सत्ता स्वीकार करके हेतु, व्याप्ति आदि की व्यवस्था करना’-स्वतन्त्र हेतु को स्वीकार करने का अर्थ है, जैसे स्वनैकायिक वस्तुवादी एवं भावविवेक आदि आचार्य स्वीकार करते हैं तथा ‘व्यवहार में भी किसी धर्म की स्वलक्षणतः सत्ता स्वीकार न करना’-स्वतन्त्र हेतु स्वीकार न करने का अर्थ है। अतः स्वतन्त्र हेतु को स्वीकार करने या न करने का मूल सूक्ष्म निषेध्य का खण्डन करने या न करने पर निर्भर है।
व्यवहार में भी स्वलक्षणतः सत्ता न होने पर स्वपक्ष में साध्य और उसके साधन तथा प्रमाण और प्रमेय में विरोध देखकर स्वतन्त्र हेतु का निषेध नहीं किया गया है, अपितु हेतु ४८३ माध्यमिक दर्शन और व्याप्ति आदि के व्यवहृतार्थ की परीक्षा करने पर उसके उपलब्ध न होने के कारण स्वतन्त्र हेतु नहीं माना जाता है। जैसे कि मध्यमकावतार और उसके भाष्य में “कारण कार्य से संस्पृष्ट होकर कार्य को उत्पन्न करता है या असंस्पृष्ट होकर कार्य को उत्पन्न करता है” ?-इन दोनों पक्षों की परीक्षा करके दोनों ही पक्षों का खण्डन किया गया है।
दोनों प्रकार की उक्त परीक्षाओं से उत्पन्न दोष परवादी के पक्ष में ही होंगे, स्वपक्ष में नहीं होंगे-इस बात का स्पष्टीकरण करते हुए मध्मकावतार में उल्लिखित है कि जो स्वलक्षणतः कार्यकारणभाव मानते हैं, उन्हीं के मत में उक्त परीक्षा प्रवृत्त होगी, जिस मत में स्वलक्षणतः सत्ता व्यवहार में भी नहीं मानी जाती, उस निःस्वभावता पक्ष में नहीं।
। अपि च, दोष दूषणीय से संस्पृष्ट होकर दूषणीय को दूषित करता है या असंस्पृष्ट होकर दूषित करता है-इस प्रकार दो पक्ष उपस्थित करके परीक्षा की गई है और अन्त में मध्यमकावतारमूल में कहा गया है कि ये दोष उन्हीं के मत में निश्चित रूप से प्रवृत्त होंगे, जिनका कोई पक्ष है। हमारा कोई पक्ष नहीं है, अतः ये दोष हम पर लागू नहीं होंगे। उसी के भाष्य में उल्लिखित है कि दोष प्रवृत्त न होने का हेतु ‘दोष और दूषणीय दोनों का स्वभावतः असत् होना है’। यहाँ ‘पक्ष है’ या ‘नहीं है’-इसका तात्पर्य स्वलक्षणतः सत्ता स्वीकार करने या न करने से है। अर्थात् जिस मत में स्वलक्षणतः या स्वभावतः सत्ता स्वीकार की जाती है, उसके मत में ‘पक्ष है’ तथा जिस मत में स्वभावतः सत्ता स्वीकार नहीं की जाती, उसके बारे में कहा जाता है कि ‘पक्ष नहीं है। को मध्यमकावतार भाष्य में उद्धृत सूत्र के अनुसार शारिपुत्र ने सुभूति से पूछा कि सुभूति, जात धर्म से अजात प्राप्ति (प्राप्य) को प्राप्त किया जाता है या जात धर्म से जात प्राप्ति को प्राप्त किया जाता है ? ऐसी परीक्षा करके पूछने पर सुभूति ने कहा कि दोनों विकल्प नहीं हैं। शारिपुत्र ने पुनः पूछा कि क्या प्राप्ति और अभिसमय नहीं हैं ? सुभूति ने कहा कि दोनों होते हैं, किन्तु उपर्युक्त दोनों दृष्टि से नहीं। अर्थात् जात से अजात प्राप्ति की या जात से जात प्राप्ति के रूप में नहीं। - अपि च, प्राप्ति, अभिसमय, स्रोत-आपन्न आदि लौकिक व्यवहारतया होते हैं। परमार्थतया तो प्राप्ति, अभिसमय और स्रोत-आपन्न आदि नहीं हैं। उपर्युक्त सूत्र को उद्धृत करके भाष्य में आगे आचार्य चन्द्रकीर्ति ने कहा कि जैसे विना परीक्षा किये लौकिक व्यवहारतया अविचाररमणीय प्राप्य की प्राप्ति स्वीकार की जाती है, उसी प्रकार दोष और दूषणीय, कारण और कार्य आदि की ‘संसृष्ट होकर या असंसृष्ट होकर’ इस तरह विचार कर यद्यपि व्यवस्था नहीं की जा सकती, फिर भी विना इस तरह विचार किये व्यवहारतया दूषण द्वारा दूषणीय को भलीभाँति दूषित किया जाता है। स्वभावतः (स्वलक्षणतः) शून्य दूषण द्वारा दूषणीय को दूषित करना एवं स्वभावतः शून्य हेतु से साध्य को सिद्ध करना आदि इन दो महास्थविरों (सुभूति और शारिपुत्र) के उपर्युक्त प्रश्नोत्तरों के अनुसार अर्थात् उन्हीं के समान करना चाहिए।
४६४ बौद्धदर्शन दोनों महास्थविरों के उपर्युक्त प्रश्नोत्तरों में प्रयुक्त ‘प्राप्ति की प्राप्ति’ में प्रथम ‘प्राप्ति’ का तात्पर्य ‘प्राप्य’ से है। उक्त प्रकार से दो तरह की परीक्षा करके ‘किस प्राप्य की प्राप्ति होगी’ ? ऐसा पूछने पर दोनों नहीं है’ ऐसा उत्तर दिया गया है, किन्तु इसका यह अर्थ बिलकुल नहीं है कि प्राप्य ही नहीं है, अपितु इसका अर्थ ‘परीक्षा करने पर अनुपलब्ध होना’ है। ‘नहीं है’ का अर्थ अभाव समझकर शारिपुत्र ने ‘क्या प्राप्य प्राप्त नहीं किया जा सकता’-ऐसा पूछा। तब सुभूति ने कहा ‘प्राप्त होता है’। इसका तात्पर्य यह है कि परीक्षा करनेवाली बुद्धि के सामने प्राप्य के अनुपलब्ध होने पर भी प्राप्य का अभाव नहीं है। हाँ. खोज करने पर उपलब्ध नहीं होता, यही तात्पर्य है।
निष्कर्ष- दोनों प्रकार से परीक्षा करने पर उपलब्ध न होने का अर्थ ‘परमार्थतः असत्ता’ है। बिना परीक्षा किये उपलब्ध होना ‘व्यवहारतः सत्ता’ का अर्थ है।
का व्यवहार के बल से स्थापित न होकर वस्तु का अपनी ओर से अर्थात् स्वबल से (स्वतः) होना स्वलक्षणतः सत्ता का अर्थ है। यदि स्वलक्षणसत् धर्म स्वीकार किया जाएगा तो उपर्युक्त दो प्रकार की परीक्षा प्रवृत्त होगी, किन्तु निःस्वभावता पक्ष में उस प्रकार की परीक्षा लागू नहीं होगी। यानि का अत एव प्रसन्नपदा (पृ. २५) में प्रमाण-प्रमेय की स्वतः सिद्धि का खण्डन करके परस्पर की अपेक्षा से व्यवस्था करने के लिए कहा गया है।
विग्रहव्यावर्तनी (का. ६६) और उसकी स्ववृत्ति में भी निःस्वभाव होने पर भी साध्य को सिद्ध करने की विधि सोदाहरण प्रदर्शित की गई है। मूलमाध्यमिककारिका में भी कहा गया है कि जिस मत में शून्यता की स्थापना युक्तियुक्त ढंग से हो जाती है, उस पक्ष में प्रमाणप्रमेय आदि समस्त व्यवस्थाएं सुचारुतया स्थापित हो जाती हैं, यथा :नि निक सर्वं च युज्यते तस्य शून्यता यस्य युज्यते। (मूलमाध्यमिककारिका-२४ : १४) अर्थात् जिसके मत में शून्यता युक्त होती है, उसके मत में सभी कुछ युक्त होता है।
इस तरह स्वलक्षणसत्ता से शून्यता वाले पक्ष में संक्लेश और व्यवदान आदि सभी की स्थापना भलीभाँति हो सकती है-ऐसा शास्त्रों में बारबार कहा गया है। अतः जो लोग ऐसा समझते हैं कि इस (शून्यता) पक्ष में हेतु द्वारा साध्य की सिद्धि तथा प्रमाण द्वारा प्रमेय की उपलब्धि आदि की प्रक्रिया को अयुक्त समझा जाता है, वे अपनी बुद्धि की अक्षमता को ही प्रकट करते हैं।
अपि च, यदि काचन प्रतिज्ञा तत्र स्यादेष मे भवेद् दोषः। नास्ति च मम प्रतिज्ञा तस्मान्नैवास्ति मे दोषः॥
(विग्रहव्यावर्तनी का. २६)
माध्यमिक दर्शन
४८५
हमा अर्थात् यदि मेरी कोई प्रतिज्ञा हो तो मेरे मत में दोष हो सकता है, (किन्तु) मेरी कोई प्रतिज्ञा नहीं है, इसलिए मेरे ऊपर कोई दोष नहीं है। के होला
विग्रहव्यावर्तनी की इस उपर्युक्त कारिका का अर्थ भी ‘हमारा यह (स्वलक्षणतः सिद्ध) पक्ष तो है नहीं, अतः हमारे मत में प्रसङ्ग होना असम्भव है’-यह किया गया है। फलतः प्रतिज्ञा या पक्ष न होने का अर्थ जैसा मध्यमकावतार भाष्य में प्रतिपादित है, वैसा ही है।
तथा : सदसत्सदसच्चेति यस्य पक्षो न विद्यते।
विद्यते। उपालम्भश्चिरेणापि तस्य वक्तं न शक्यते॥
(चतुःशतक, १६ : २५)
अर्थात् सत्, असत् या सदसत् जिसका कोई भी पक्ष नहीं है, उसे लाख प्रयत्न करे पर भी दोष नहीं दिया जा सकता।
चतुःशतक की इस उपर्युक्त कारिका द्वारा ‘पक्ष के न होने से दोषों का आक्षेप असम्भव है’-जो ऐसा कहा गया है, इसका अर्थ ‘विना परीक्षा किये अविचारित और उपचरितमात्र धर्मों की व्यवस्था करनेवाले (प्रासङ्गिक) पक्ष में उक्त प्रकार की सत्, असत् आदि परीक्षाओं द्वारा किसी भी तरह का दोषारोपण नहीं किया जा सकता-ऐसी व्याख्या मध्यमकावतार भाष्य में की गई है। ऐसा नहीं है कि अविचारित व्यवहार मानने वाले पक्ष में साध्य-साधन, प्रमाण-प्रमेय आदि की व्यवस्था मान्य नहीं है। आशय यह है कि परीक्षा करने पर कोई भी पक्ष उपलब्ध नहीं होता, अतः प्रासङ्गिक माध्यमिक उपचरित व्यवहारमात्र से सारी व्यवस्थाएं निष्पन्न करते हैं। इस व्यवस्था में साध्य-साधन, प्रमाण-प्रमेय आदि सभी निष्पन्न होते हैं।
ऊपर जिन आगमों को उद्धृत किया गया है, वे आगम इस बात को प्रमाणित करने के लिए नहीं है कि प्रासङ्गिक मत में व्यवहार में भी साध्य-साधन, प्रमाण-प्रमेय आदि नहीं हैं। अपितु वे व्यवहार में साध्य-साधन आदि होने का प्रमाण हैं। इसलिए प्रसन्नपदा में कहा
गया है :
न च माध्यमिकस्य सतः स्वतन्त्रमनुमानं कर्तुं युक्तम्, पक्षान्तराभ्युपगमाभावात्।
अर्थात् माध्यमिक के लिए स्वतन्त्र अनुमान का प्रयोग करना युक्त नहीं है, क्योंकि उन्हें कोई भी पक्ष स्वीकार्य नहीं है। ऐसा कहकर अपनी बात की पुष्टि के लिए पूर्वोक्त आगमों को उद्धृत करना परमार्थतः या स्वलक्षणतः सिद्ध प्रतिज्ञा के युक्तियुक्त न होने का प्रमाण है। यदि ऐसी प्रतिज्ञा युक्त नहीं है तो स्वतन्त्र हेतु का प्रयोग भी अयुक्त है-इस प्रकार स्वतन्त्र हेतु का खण्डन किया गया है, न कि साध्य के साधक हेतु का ही खण्डन किया गया है।
४८६
बौद्धदर्शन र आचार्य चन्द्रकीर्ति का आशय यह है कि उपर्युक्त आगमों का निहितार्थ सत्, असत् किसी भी पक्ष की अस्वीकृति है। माध्यमिक पक्ष में परमार्थतः सत्ता नहीं है। परमार्थ सत्ता के न होने से स्वलक्षणसत्ता भी स्वीकार नहीं करना चाहिए। स्वलक्षणसत्ता के स्वीकार न करने से स्वतन्त्र अनुमान नहीं करना चाहिए। एक सय
छ इस प्रकार स्वतन्त्र हेतु का निषेध किया जाता है, किन्तु साध्य को सिद्ध करने के लिए हेतु के प्रयोग का खण्डन नहीं किया जाता। इस सम्बन्ध में प्राचीन आचार्यों के तीन पक्ष थे- १. शून्यता का निषेध्य ‘सत्य’ है और उसका निषेध (शून्यता) सत्यतः सत्य है। २. निषेध्य और निषेध दोनों स्वलक्षणतः सत् हैं तथा ३. सभी शशविषाण के समान अलीक हैं। इनमें कोई भी मत युक्तियुक्त नहीं है।
(b) यद्यपि पक्ष, हेतु, दृष्टान्त इनमें से किसी एक का भी स्वलक्षणतः सत् होना सम्भव नहीं है, अतः स्वलक्षणतः सत्ता के आधार पर तो न केवल स्वतन्त्र हेतु, अपितु किसी भी प्रकार के कर्म-कर्तृभाव आदि युक्ति-युक्त नहीं हैं, फिर भी उस (स्वलक्षणसत्ता) का निषेध करके साध्य-साधन, कर्म-कर्ता आदि सभी युक्तियुक्त सिद्ध किये जाते हैं।
इस प्रासङ्गिक मत में स्वतन्त्र हेतु एवं स्वतन्त्र साध्य-साधन, कर्म-कर्ता आदि के युक्तियुक्त न होने का कारण क्या है ? .
के समाधान- प्रसन्नपदा में स्वतन्त्र हेतु का खण्डन करनेवाली युक्ति, उस युक्ति के परवादी द्वारा भी अर्थतः स्वीकार करने का नय तथा पर्वपक्ष को दिये गये दोषों का स्वपक्ष में लागू न होने का नय-इन बातों का प्रतिपादन किया गया है। हर
- आचार्य भावविवेक ने ‘न स्वतो नापि परतः’ (न स्वहेतु से, न परहेतु से भाव उत्पन्न होते हैं) इत्यादि नागार्जुन की कारिका द्वारा निर्दिष्ट हेतु का स्वसिद्धान्त के अनुसार इस प्रकार प्रयोग किया है :
न परमार्थत आध्यत्मिकान्यायतनानि स्वत उत्पन्नानि, विद्यमानत्वात्, चैतन्यवदिति (अर्थात् परमार्थतः आध्यात्मिक आयतन (चक्षु, श्रोत्र आदि) स्वतः उत्पन्न नहीं हैं, विद्यमान होने से चैतन्य के समान)। इस अनुमान प्रयोग में भावविवेक ने ‘परमार्थतः’ इस विशेषण का प्रयोग किया है। यदि भावविवेक ने ‘परमार्थतः’ इस विशेषण को अपनी प्रतिज्ञा का विशेषण बनाया है तो उसका कोई प्रयोजन नहीं है। अर्थात् इसे अपनी प्रतिज्ञा का विशेषण बनाना निष्प्रयोजन है, क्योंकि स्वयं भावविवेक के लिए इसकी कोई उपयोगिता नहीं है, क्योंकि स्वयं भावविवेक संवृति में भी स्वतः उत्पाद स्वीकार नहीं करते। अतः अपने मत की अपेक्षा से तो उन्हें इस विशेषण के प्रयोग की आवश्यकता नहीं है। यदि परमत के लिए इस (परमार्थतः) विशेषण का प्रयोग किया गया है तो भी इसकी कोई उपयोगिता नहीं है, क्योंकि दोनों सत्यों से परिभ्रष्ट तैर्थिक लोगों का तो दोनों सत्यों की दृष्टि से स्वतः उत्पाद
माध्यमिक दर्शन
४८७
का खण्डन करना युक्त है। उनके लिए तो विना कुछ विशेषण लगाए ही खण्डन करना उचित है। लोकव्यवहार की दृष्टि से भी स्वतः उत्पाद का खण्डन करने के लिए विशेषण लगाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि सामान्य लौकिक जन तो ‘हेतु से कार्य उत्पन्न होता है’ इतना मात्र जानते और मानते हैं, वह (कार्य) स्वतः उत्पन्न होता है कि परतः उत्पन्न होता है-ऐसी परीक्षा वे नहीं करते।
अपि च, परवादी सांख्य द्वारा स्वीकृत परमार्थसत् चक्षु आदि के संवृति में भी स्वतः उत्पाद का निषेध करने के लिए ‘परमार्थतः’ इस विशेषण का प्रयोग किया गया है तो उस स्थिति में धर्मी के असिद्ध होने से यह पक्षदोष या हेतुदोष होगा, क्योंकि भावविवेक स्वमत में भी चक्षु आदि को परमार्थसत् स्वीकार नहीं करते। आशय यह है कि सांख्य द्वारा स्वीकृत परमार्थसत् चक्षु आदि के संवृतितः भी उत्पाद के निषेध के लिए यह विशेषण है तो यह ‘परमार्थतः’ विशेषण धर्मी का विशेषण हो जाएगा और परमार्थसत् धर्मी स्वयं आपको ही असिद्ध है। ऐसी स्थिति में यह पक्षदोष और हेतुदोष तो होगा ही, साथ ही, यदि आपको ही स्वयं धर्मी सन्दिग्ध रहेगा तो आप दूसरों को क्या समझा सकेंगे। ___ यदि भावविवेक कहें कि पारमार्थिक चक्षु आदि के असिद्ध होने पर भी सांवृतिक चक्षु आदि का अस्तित्व है, अतः दोष नहीं है, तो हमारा पूछना है कि तब ‘परमार्थतः’ यह विशेषण किसका है ? यदि वे कहें कि ‘परमार्थतः’ यह विशेषण ‘उत्पाद’ का है। अर्थात् सांवृतिक चक्षु का परमार्थतः उत्पाद नहीं है, क्योंकि हम परमार्थतः उत्पत्ति का निषेध करते हैं। इस पर हमारा कहना है कि प्रयोग करते समय पहले तो इस प्रकार आपने कहा नहीं है ? यदि वे कहें कि ठीक है, पहले हमने नहीं कहा, किन्तु अब कहते हैं, फिर भी आप (भावविवेक) दोषमुक्त नहीं हैं, क्योंकि उस स्थिति में परवादी सांख्य को धर्मी (सांवृतिक चक्षु) असिद्ध होगा। अर्थात् संवृतिसत् चक्षु आदि सांख्य को असिद्ध हैं, क्योंकि वे उन्हें परमार्थसत् मानते हैं। वस्तुततः प्रतिपक्ष को भी धर्मी का सिद्ध होना आवश्यक होता है। ऐसा न होने पर प्रयोग करनेवाले का ही दोष समझा जाता है। अतः आपके मत में उपर्युक्त दोष तदवस्थ ही हैं।
उपर्युक्त दोषों के निराकरण के सन्दर्भ में भावविवेक का कथन है कि सामान्य धर्मी का ही ग्रहण करना उचित है, अन्यथा विचार-विमर्श ही सम्भव नहीं होगा। तथा हि-बौद्ध लोग वैशेषिक के प्रति शब्द की अनित्यता सिद्ध करते समय सामान्य धर्मी का ही ग्रहण करते हैं, न कि विशेष का। विशेष धर्मी का ग्रहण करने पर साध्य-साधनभाव के अभाव का प्रसङ्ग हो जाएगा। उदाहरणार्थ यदि बौद्धों द्वारा मान्य भौतिक शब्द का धर्मी के रूप में ग्रहण किया जाए तो वह वैशेषिक को सिद्ध नहीं है। यदि वैशेषिकों द्वारा मान्य आकाशगुणक शब्द का ग्रहण किया जाए तो वह बौद्ध को सिद्ध नहीं है। अतः विशेषणरहित सामान्य शब्दमात्र का धर्मी के रूप में ग्रहण किया जाता है, उसी तरह ‘परमार्थ’ या ‘सांवृत’ ४८८ बौद्धदर्शन विशेषणों को छोड़कर चक्षुमात्र का धर्मी के रूप में ग्रहण किया जाएगा। फलतः धर्मी के असिद्ध होने का दोष नहीं है।
समाधान- चक्षु आदि धर्मी का स्वरूप विपर्यास (विपरीत बुद्धि) द्वारा लब्ध नहीं है-ऐसा स्वयं भावविवेक ने स्वीकार किया है तथा विपर्यास और अविपर्यास परस्पर भिन्न-भिन्न ही नहीं, अपितु साक्षात्-विरुद्ध हैं-इत्यादि युक्तियों द्वारा चन्द्रकीर्ति ने खण्डन किया है। इनका मर्म यह है कि चक्षुरादि को स्वतः अनुत्पन्न सिद्ध करते समय दो सत्यों को विशेषण के रूप में न लगाकर अर्थात् परमार्थतः या संवृतितः इन दो विशेषणों को छोड़कर मात्र चक्षु आदि को धर्मी नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि उस धर्मी को जाननेवाला प्रमाण अपने विषय अर्थात चक्ष आदि की स्वभावतः सत्ता या स्वलक्षणतः सत्ता के प्रति अभ्रान्त ज्ञान है। जब अविपर्यास अर्थात् अविपरीत ज्ञान (प्रमाण) अभ्रान्त है तो ऐसी अवस्था में उसके द्वारा उपलब्ध (प्राप्त) विषय विपरीत ज्ञेय नहीं हो सकता। अर्थात् उसका विषय ऐसा नहीं हो सकता जो स्वलक्षणतः तो असत् हो, किन्तु वह स्वलक्षणतः सत् रूप में भासित हो रहा हो, जैसा कि विपर्यास (विपरीत) ज्ञानों में मिथ्याभास हुआ करता है। आशय यह है कि उस अविपर्यास ज्ञान द्वारा लब्ध विषय परमार्थतः सत् ही होगा। अतः विशेषणों को छोड़कर मात्र सामान्य धर्मी का ग्रहण सम्भव नहीं है। वह धर्मी निश्चय ही परमार्थतः सिद्ध होगा, सामान्य रूप से सिद्ध नहीं होगा।
उस चक्षु आदि धर्मी को जाननेवाले प्रमाण का उस चक्षु आदि की स्वभावतः सत्ता के प्रति अभ्रान्त होना, वस्तुतः भावविवेक ने स्वीकार किया है। अतः ‘जो सत् है, वह स्वभावतः सत् है’-ऐसा जो मानते हैं, उनके मतानुसार जो ज्ञान स्वलक्षणाभास की दृष्टि से भ्रान्त होता है, उसके द्वारा अपने प्रमेय (स्वभावसत्) की प्राप्ति नहीं हो सकेगी। अतः जो ज्ञान प्रमाण होता है, चाहे वह निर्विकल्प हो या सविकल्प हो, उसे अपने अवभासित विषय स्वलक्षण के प्रति या अध्यवसेय विषय स्वलक्षण के प्रति अभ्रान्त होना चाहिए। उसे व्यवहार में नाममात्र या उपचरितमात्र के प्रति नहीं, अपितु अपने बल से (स्वतः) स्थित (स्वभावसत्) वस्तु के प्रति प्रमाण होना चाहिए। अर्थात् उसका विषय भी नाममात्र या उपचरितमात्र न होकर अपनी वस्तुस्थिति के वश से स्वभावतः सत् होना चाहिए। ऐसा भावविवेक स्वीकार भी करते हैं। उस प्रकार के प्रमाण द्वारा उपलब्ध अर्थ का विपरीत ज्ञेय होना असम्भव है। अर्थात् वह परमार्थतः सत् होगा।
उसी प्रकार भ्रान्त ज्ञान के द्वारा उपलब्ध अर्थ का अविपरीत ज्ञेय के रूप में होना असम्भव है। फलतः धर्मी की असिद्धि के दोष का परिहार आपके द्वारा अशक्य है। अर्थात् वह दोष हटाया नहीं जा सकेगा। - यदि ऐसा कहा जाए कि यद्यपि शब्दग्राहक प्रमाण नित्य या अनित्य इन दो कोटियों में से किसी एक में नियत है, क्योंकि कोई तीसरी कोटि नहीं है, फिर भी नित्य या अनित्य
माध्यमिक दर्शन
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विशेषण लगाकर उसका शब्दधर्मि-ग्राहक प्रमाण के रूप में सिद्ध होना आवश्यक नहीं है। केवल उसे (श्रोत्रविज्ञान को) शब्दग्राहक प्रमाण के रूप में सिद्ध किया जाता है। उसी प्रकार ज्ञान भी भ्रान्त या अभ्रान्त इन दो कोटियों में से किसी एक में नियत है, तीसरी कोटि नहीं है, फिर भी धर्मिग्राहक प्रमाण सिद्ध करते समय उक्त दोनों (भ्रान्त या अभ्रान्त) विशेषणों में से किसी एक को जोड़कर उसे सविशेष सिद्ध करना आवश्यक नहीं है। उसी तरह शब्द भी नित्य या अनित्य इन दो कोटियों में से किसी एक कोटि में नियत है, तीसरी कोई कोटि नहीं है, फिर भी शब्दग्राहक प्रमाण द्वारा नित्य शब्द या अनित्य शब्द किसी एक रूप में उपलब्ध न होने पर भी शब्द उपलब्ध होने में या शब्दबोध होने में विरोध नहीं है। उसी प्रकार चक्षु आदि ज्ञेय विपरीत (विपर्यस्त) या अविपरीत (अविपर्यस्त) इन दो कोटियों में से किसी एक में नियत हैं, कोई तीसरी कोटि नहीं है, फिर भी चक्षुरादि-ग्राहक प्रमाण द्वारा चक्षुरादि ज्ञेयों के विपरीत या अविपरीत किसी एक रूप में उपलब्ध न होने पर भी चक्षु-आदि का बोध होने में विरोध नहीं है। अर्थात् चक्षु-आदि के उपलब्ध होने में विरोध नहीं है। इसलिए सामान्य चक्षु आदि मात्र को धर्मी के रूप में ग्रहण करने में कोई दोष नहीं है। अर्थात् सामान्य चक्षुमात्र को धर्मी के रूप में होने की अयुक्तता को दिखलाने वाली
आपकी युक्तियाँ युक्तिसङ्गत नहीं हैं।
उपर्युक्त प्रकार की आशङ्काएं भावविवेक को या अन्य वस्तुवादी विद्वानों को उत्पन्न नहीं हुई, इसलिए आचार्य चन्द्रकीर्ति ने भी उनके निराकरण का प्रयास नहीं किया। फिर भी वे शङ्काएं किसी को भी हो सकती हैं, अतः इसके बारे में भोटदेश के महापण्डित आचार्य चोखापा ने जिस प्रकार विचार प्रस्तुत किया है, तदनुसार संक्षेप में निरूपण किया जा रहा है। ___ कोई भी अर्थ या तो प्रमाण द्वारा सिद्ध होता है या असिद्ध होता है। ‘प्रमाण द्वारा सिद्ध’ का अर्थ है कि यदि वह प्रमाण निर्विकल्पक ज्ञान है, तो उसमें जिस प्रकार अर्थ का आभास के अनुरूप अर्थ (विषय) होना चाहिए। यदि वह प्रमाण सविकल्पक ज्ञान है तो उसके द्वारा जिस प्रकार अर्थ का अध्यवसाय किया जाता है, उसी प्रकार (अध्यवसाय के अनुरूप) अर्थ की स्थिति होना चाहिए। साथ ही, जिसके प्रति यह प्रतिपादन किया जा रहा है, उसे (प्रतिपक्षी) को भी यह सब ज्ञात होना चाहिए और मान्य भी होना चाहिए। यही अभ्रान्ति का अर्थ है, क्योंकि वह विषय ज्ञानगत आभास के अनुरूप स्थित है। इस व्यवस्था के द्वारा प्रमाण अपने विषय के प्रति, नियत विषय के प्रति और अध्यवसेय विषय के प्रति अभ्रान्त निश्चित किया जाता है। अतः ऐसा कथमपि नहीं हो सकता कि वस्तु तो परमार्थतः सत् या संवृतितः सत् इन दो रूपों में नियत हों, किन्तु बुद्धि के स्थल में (अर्थात् बुद्धि द्वारा) इन दोनों रूपों में दोनों निश्चित न हों। अतः स्वलक्षणाभासी अभ्रान्त ज्ञान द्वारा उपलब्ध सम्यक् ज्ञेय या परमार्थसत् ज्ञेय कहलाता है और भ्रान्त ज्ञान द्वारा 2 ४६० बौद्धदर्शन उपलब्ध अर्थ विपर्यस्त (मिथ्या) ज्ञेय कहलाता है। अतः वस्तु तो सम्यग् (परमार्थतः सत्) ज्ञेय और मिथ्या (संवृतितः सत्) ज्ञेय इन दो रूपों में नियत हों और बुद्धि के सम्मुख नियत न हों-यह कैसे सम्भव है। अतः जिस प्रकार विपर्यस्तत्व (मिथ्या) और अविपर्यस्तत्व वस्तु के स्थल में निश्चित हैं, अर्थात् इन दोनों में से एक रूप होना निश्चित है, उसी प्रकार ज्ञान के स्थल में भी निश्चित हैं। ये सब बातें ‘जो सत् हैं, वे स्वभावतः सत् हैं’-ऐसा माननेवालों के अनुसार ‘प्रमाण द्वारा सिद्ध’ के अर्थ का प्रतिपादन करने की दृष्टि से कही गई हैं। अर्थात् भावविवेक आदि की दृष्टि से कही गई हैं, प्रासङ्गिक मत ऐसा नहीं है। । इसलिए स्वातन्त्रिक माध्यमिकों के अनुसार चक्षु आदि धर्मी यद्यपि अभ्रान्त ज्ञान द्वारा उपलब्ध होते हैं, फिर भी उन्हें अर्थात् शब्द के विषय और कल्पना के विषय चक्षु आदि धर्मी को, भी परमार्थतः सिद्ध या संवृतितः सिद्ध नामक विशेषणों से विशिष्ट होने की आवश्यकता नहीं है। अतः सामान्य चक्षु आदि धर्मी को आधार (विशेष्य) के रूप में ग्रहण करके ‘वह परमार्थतः सत् है कि नहीं’-इस प्रकार परीक्षा की जा सकती है। अतः सामान्य धर्मी का ग्रहण करने पर ‘परमार्थसत् और संवृतिसत्’ इन दो विशेषणों को लेकर की गई परीक्षा द्वारा प्रदत्त दोष हम पर कैस लागू हो सकते हैं ? अर्थात् नहीं होंगे। भावविवेक का यह अभिप्राय है।
आचार्य चन्द्रकीर्ति का कहना है कि यदि अभ्रान्त ज्ञान (अर्थात् प्रमाण) द्वारा विषय की उपलब्धि हो जाती है तो वही (उपलब्ध अर्थ) स्वभावतः सत् अर्थ हो जाता है और वही परमार्थतः सत् भी है। अतः सामान्य धर्मी के रूप में गृहीत चक्षु आदि का निर्विशिष्ट होना (विशेषणरहित होना) कहाँ सम्भव है। अर्थात् विशेषण के आधार के रूप में गृहीत सामान्य धर्मी होना कैसा सम्भव है ? अर्थात् नहीं है। इसी अभिप्राय से चन्द्रकीर्ति ने निर्विशेष सामान्य धर्मी के ग्रहण का खण्डन किया है।
चन्द्रकीर्ति की युक्तियों का मर्म यदि भली प्रकार ज्ञात कर लिया जाए तो यह आसानी से जाना जा सकता है कि प्रासङ्गिक मत में विषयी (ज्ञान) में तथ्यसंवृति और मिथ्या संवृति ये भेद करना क्यों सम्भव नहीं हैं। प्रासङ्गिक माध्यमिक केवल लोक की दृष्टि से विषय और विषयी दोनों में तथ्य संवृति और मिथ्या संवृति दोनों की व्यवस्था करते हैं। स्वमत की दृष्टि से वे ऐसी व्यवस्था नहीं करते। इन सब का कारण ज्ञात हो जाएगा। _सविकल्पक और निर्विकल्पक दोनों प्रमाण ज्ञानों में जैसा स्वलक्षण भासित हो रहा है, उसका अभाव है। अर्थात् स्वलक्षणाभास के अनुरूप वस्तु स्वलक्षणसत् नहीं है। फिर भी (ऐसा होने पर भी) उस भ्रान्त (सविकल्प एवं निर्विकल्पक) ज्ञान द्वारा धर्मी की सिद्धि की व्यवस्था की जाती है तो साध्य रूपी निःस्वभावता अपने-आप सिद्ध हो जाती है। अतः ऐसा कोई पूर्व पक्ष ही नहीं हो सकेगा, जिसके प्रति साध्य सिद्ध किया जा सके। इसलिए धर्मी की असिद्धि का दोष पूर्ववत् स्थित है।
. माध्यमिक दर्शन ४६१ 1 जब बौद्ध वैशेषिक के प्रति शब्द की अनित्यता सिद्ध करते हैं, उस समय बौद्धसम्मत भौतिक और वैशेषिकसम्मत आकाशगुणक (आकाश के गुण वाला) शब्द धर्मी मान्य प्रमाणतः सिद्ध नहीं है, फिर भी प्रमाणसम्मत (धर्मी) मात्र का स्वरूप दिखलाया जा सकता है। किन्तु चक्षु आदि का स्वतः उत्पाद न मानने वाले स्वभावशून्यवादी और उनको स्वभावसत् माननेवाले अशून्यतावादी दोनों को यद्यपि स्वभावसत् और स्वभावतः असत् इन दोनों रूपों में से किसी की भी प्रमाण द्वारा उपलब्धि नहीं होती, फिर भी ‘सामान्य धर्मी का स्वरूप इस प्रकार है’-ऐसा दिखलाना दोनों के लिए असम्भव है। अतः दोनों दृष्टान्तों में साम्य नहीं है। भावविवेक आदि स्वातन्त्रिक माध्यमिकों का कहना है कि उस प्रकार का सामान्य धर्मी (अर्थात् स्वभावतः सत् या स्वभावतः असत् विशेषणों से रहित निर्विशेष धर्मी) दिखलाया नहीं जा सकता, फिर भी परमार्थतः या सत्यतः सत् और परमार्थतः असत् या सत्यतः असत् इन विशेषणों के विना एक सामान्य धर्मी दिखलाया जा सकता है। आचार्य चन्द्रकीर्ति का कहना है कि आप (स्वातन्त्रिक माध्यमिक) ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि स्वभावतः सत्ता ही परमार्थतः या सत्यतः सत्ता है। इस प्रकार शून्यता के निषेध्य की सीमा (स्वरूप) में क्योंकि चन्द्रकीर्ति और भावविवेक दोनों आचार्यों के विचारों में असमानता या मतभिन्नता है, अतः उक्त प्रकार का वाद-विवाद उत्पन्न हुआ है। झाम क इसलिए शब्द को अनित्य के रूप में सिद्ध करते समय भी उन स्वातन्त्रिक और वैशेषिकों के मतों से यद्यपि दोनों विशेषणों (चातुर्महाभौतिक या आकाशगुणक) से रहित धर्मी सिद्ध नहीं किया जा सकता, फिर भी सामान्य धर्मी सिद्ध हो सकता है-ऐसा कहा गया है, तथापि शब्दग्राहक प्रमाण शब्द के जिस स्वरूप में प्रमाणभूत हुआ है, शब्द के उस स्वरूप में वैसा प्रमाण नहीं होता, जैसा वे दोनों कहते हैं। वैसा अर्थात् ज्ञान में प्रामाण्य का आना समान नहीं होगा।
ना यह बात स्वभावसद्वादी पक्ष की दृष्टि से कही गई है। यदि प्रासङ्गिक पक्ष हो तो भी वैशेषिक एवं स्वातन्त्रिक आदि पूर्वपक्ष को स्वभावसत् एवं स्वभावतः असत् विशेषणों के विना सामान्य धर्मी की तद्ग्राहक प्रमाण द्वारा सिद्धि नहीं दिखाई जा सकती। उपर्युक्त युक्तियों से वादी एवं प्रतिवादी दोनों को परमार्थसत् और संवृतिसत् विशेषणों से रहित हेतु भी सिद्ध नहीं होगा-इस प्रकार का आक्षेप यदि दिया जाए तो वह प्रासङ्गिक मत में लागू नहीं होगा, क्योंकि हम प्रासङ्गिक स्वतन्त्र हेतु स्वीकार नहीं करते। हमारे अपने मत में साध्य को सिद्ध करनेवाले जितने सम्यक् प्रयोग हैं, उनका परवादी द्वारा सिद्ध होना मात्र पर्याप्त माना जाता है, क्योंकि वे प्रयोग परवादी की विप्रतिपत्ति के निराकरण मात्र के लिए हैं।
उस स्वपक्ष तथा परपक्ष दोनों में से किसी एक की सिद्धि से क्या अपर्याप्तता दोष नहीं है ? इसका समाधान करते हुए आचार्य चन्द्रकीर्ति ने कहा है कि किसी एक पक्ष द्वारा सिद्ध४६२ बौद्धदर्शन अनुमान द्वारा भी अनुमान में बाधा हो सकती है, वह बाधा भी स्वप्रसिद्ध अनुमान द्वारा होती है, न कि परप्रसिद्ध अनुमान द्वारा, लोक में भी ऐसा देखा जाता है। अतः अपर्याप्तता दोष नहीं है। लौकिक दृष्टान्त प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा कि किसी वाद-विवाद में साक्षी के वचन से भी जय-पराजय होती हैं और स्ववचन से भी होती है। जैसा लोक में होता है, वैसा ही न्यायशास्त्र में भी होना चाहिए।
म आचार्य चन्द्रकीर्ति का कहना है कि ‘साधन और दूषण दोनों को वादी और प्रतिवादी दोनों द्वारा सिद्ध होना चाहिए’-ऐसा माननेवाले दिङ्नाग आदि आचार्यों को भी हमारा उपर्युक्त कथन स्वीकार कर लेना चाहिए, क्योंकि आगमबाधा देते समय और स्वानुमान के स्थल में स्वसिद्ध होना ही पर्याप्त होता है। इसीलिए प्रज्ञाप्रदीप (भावविवेक कृत मूलमाध्यमिककारिका की टीका) में किसी अन्य की आलोचना करते समय ‘यह दूषण स्वतन्त्रतया है या प्रसङ्गतया’-ऐसा पूछा गया है। यहाँ प्रयुक्त ‘स्वतन्त्र’ शब्द का तात्पर्य स्वतन्त्र हेतु से है।
अतः स्वतन्त्र हेतु का अर्थ इस प्रकार होता है-परवादी की स्वीकृति की विना अपेक्षा किये वस्तुस्थिति के वश से स्वतः सिद्ध धर्मी और हेतु को प्रमाण द्वारा निश्चित करके साध्य के अवबोधक अनुमान का उत्पाद करने के लिए प्रयुक्त हेतु ‘स्वतन्त्र हेतु’ है। ‘जो सत् है वह स्वभावतः सत् है’-ऐसा मानने वाला परवादी जब तक साध्य सिद्ध न हो तब तक स्वतः सत् या असत् दोनों में से किसी एक विशेषण को न लगाकर ‘प्रमाण द्वारा प्रमेय की सिद्धि का नय इस प्रकार है-ऐसा दिखलनाने में समर्थ नहीं है। इसलिए प्रासङ्गिक माध्यमिक हेतु एवं साध्य स्वीकार करते हैं, किन्तु स्वतन्त्र हेतु एवं स्वतन्त्र साध्य नहीं मानते।
प्रतीत्यसमुत्पन्नत्व हेतु और प्रतिबिम्ब के दृष्टान्त द्वारा अङ्कुर की निःस्वभावता सिद्ध करनेवाले परप्रसिद्ध हेतु का प्रयोग करते समय स्वयं (प्रासङ्गिक माध्यमिक अपने मत में) ‘अङ्कुर को प्रतीत्यसमुत्पन्न’ और ‘प्रतीत्यसमुत्पाद के साथ निःस्वभावता की व्याप्ति’ न मानने के कारण ‘स्वतन्त्र हेतु का प्रयोग नहीं किया जाता’-ऐसा नहीं कहते, अपितु परवादी भी प्रमाण द्वारा स्वतः सिद्ध हेतु और व्याप्ति आदि सिद्ध नहीं कर पाते, अतः स्वतन्त्र हेतु नहीं माना जाता। इसी को हम दूसरे शब्दों में ‘प्रमाण द्वारा वादी और प्रतिवादी दोनों को हेतु एवं व्याप्ति आदि असिद्ध हैं और परप्रसिद्ध अनुमान है’-कहते हैं।
अङ्कुर और अङ्कुर के प्रतीत्यसमुत्पन्नत्व को जाननेवाला व्यावहारिक सहज प्रमाणवादी और प्रतिवादी दोनों की चित्तसन्तति में विद्यमान होता है, किन्तु प्रतिवादी की सन्तति में अङ्कुर को जाननेवाला प्रमाण और उसे (अङ्कुर को) स्वभावतसत् जाननेवाली बुद्धि दोनों संसृष्ट (मिश्रित) होकर विद्यमान रहते हैं। उस परवादी की सन्तति में जब तक शून्यता दृष्टि उत्पन्न नहीं होती, तब तक उन दोनों को पृथक् नहीं किया जा सकता।
माध्यमिक दर्शन ४६३ सिद्धान्तवादी की सन्तति में दोनों का असंसृष्ट (अमिश्रित) ज्ञान है, फिर भी प्रतिवादी को शून्यताज्ञान होने तक वैसा दिखाया नहीं जा सकता।
प्रासङ्गिक माध्यमिक परस्पर स्वीकृति की अपेक्षा न करके प्रमाण द्वारा प्रमेय की सिद्धि का नय दिखला सकते हैं, फिर भी वह प्रमाण नाम और व्यवहार के वश से स्थापित प्रमाण ही होता है, न कि वस्तु के स्वभाव के वश से स्थापित होता है। अतः उनके मत में उपर्युक्त नहीं होने से स्वतन्त्र हेतु नहीं माना जाता।
अङ्कुर के ग्रहण में तीन प्रकार की दृष्टियाँ होती हैं,-अङ्कुर का स्वभावतः सत् के रूप में ग्रहण, उसका स्वभावतः असत् रूप में ग्रहण तथा इन दोनों विशेषणों को छोड़कर अङ्कुर मात्र का ग्रहण। जिनकी सन्तति में शून्यतादृष्टि विद्यमान होती है, उन लोगों को यद्यपि तीनों प्रकार के ग्रहण होते हैं, किन्तु जिनकी सन्तति में शून्यतादृष्टि नहीं होती, उनकी सन्तति में प्रथम और तृतीय (अन्तिम साध्य) ग्रहण ही होता है, मध्यग्रहण नहीं होता। इस नय को ठीक प्रकार से जान लिया जाए तो व्यक्ति कल्पना द्वारा गृहीत सभी ग्राह्यों का निषेध नहीं करेगा तथा उसकी सन्तान में शून्यतादृष्टि के उत्पाद से पूर्व उत्पन्न बोधिचित्त एवं श्रद्धा आदि सभी सम्यक् विकल्पों को सत्यग्रहण एवं निमित्तोद्ग्रहण समझ कर चर्यापक्ष के प्रति उपेक्षा करनेवाली मिथ्या दृष्टियाँ भी उत्पन्न नहीं होंगी।
अत एव परप्रसिद्ध हेतु द्वारा साध्य को सिद्ध करने में प्रतिवादी द्वारा स्वीकृति मात्र पर्याप्त नहीं है, अपितु उनके मत में धर्मी एवं हेतु आदि प्रमाणतः सिद्ध होना चाहिए और स्वीकृत होना चाहिए। अन्यथा विपरीत ज्ञान होने पर यथार्थ तत्त्वदृष्टि (शून्यतादृष्टि) उत्पन्न न हो सकेगी। व्यवहार प्रमाण के विना परमार्थ को जाननेवाले प्रमाण उत्पन्न नहीं हो सकते।
आचार्य नागार्जुन ने कहा है : व्यवहारमनाश्रित्य परमार्थो न देश्यते। परमार्थमनागम्य निर्वाणं नाधिगम्यते॥
(मूलमाध्यमिककारिका, २४ : १०)
इस प्रासङ्गिक मत के अनुसार भावविवेक आदि स्वातन्त्रिक माध्यमिक आचार्य किसी भी धर्म को परमार्थतः सत् नहीं मानते, फिर भी उनकी स्वलक्षणसत्ता मानते हैं, अतः क्या वे माध्यमिक नहीं हैं ?
उन आचार्यों के द्वारा यद्यपि स्वलक्षणसत्ता स्वीकार की जाती है, फिर भी वे धर्मों की परमार्थतः सत्ता का अनेक युक्तियों से अच्छी प्रकार खण्डन करके समस्त जगत् को असत् सिद्ध करते हैं, अतः वे माध्यमिक हैं। हमारे इस कथन का ‘माध्यमिक को स्वतन्त्र हेतु का प्रयोग नहीं करना चाहिए’ इस पूर्ववचन से कोई विरोध नहीं है। इसे इस प्रकार समझना चाहिए, यथा- उपसम्पन्न भिक्षु को प्रज्ञप्त शील का उल्लंखन नहीं करना चाहिए,
४६४
बौद्धदर्शन
ऐसा भगवान् ने कहा है, फिर भी यदि कुछ पालनीय धर्मों का उल्लंघन हो जाता है तो इतने माज्ञ से वह अभिक्षु नहीं हो जाता। हि (ग) सूत्रविरोध का परिहार लागी इसे हम दो भागों में विभक्त करके प्रतिपादन करेंगे, यथा- (क) सन्धिनिर्मोचनसूत्र से विरोध का परिहार तथा (ख) सन्धिनिर्मोचनसूत्र और मैत्रेयपरिपृच्छा में असमानता का प्रतिपादन।
(क) सन्धिनिर्मोचनसूत्र से विरोध का परिहार - आर्यसन्धिनिर्मोचनसूत्र में परिकल्पित, परतन्त्र और परिनिष्पन्न-इन तीन लक्षणों का प्रतिपादन किया गया है। इनमें परिकल्पित लक्षण असत् है, परतन्त्र द्रव्यसत् है तथा परिनिष्पन्न परमार्थसत् है। विज्ञानवादी दार्शनिक इसे (इस सूत्र को) शत-प्रतिशत शब्दशः स्वीकार करते हैं और इसी सूत्र के आधार पर अपने दर्शन को प्रतिष्ठित करते हैं। किन्तु प्रासङिगक इसे स्वीकार नहीं करते। उनके मतानसार यह सन्धिनिर्मोचनसत्र नेयार्थ है. न कि नीतार्थ।
हा सन्धिनिर्मोचनसूत्र की नेय-नीतार्थता के बारे में नागार्जुन, आर्यदेव एवं बुद्धपालित के शास्त्रों में स्पष्ट व्याख्या उपलब्ध नहीं होती, फिर भी चन्द्रकीर्ति ने अपने मध्यमकावतार में उसकी नेयार्थता का सुस्पष्ट प्रतिपादन किया है। उनका कहना है कि अन्य आगमों द्वारा भी यह (सन्धिनिर्मोचन) सूत्र नेयार्थ सिद्ध होता है, यथा :
लाक कमान आतुरे आतुरे यद्वद् भिषग् द्रव्यं प्रयच्छति।
बुद्धा हि तद्वत् सत्त्वानां चित्तमात्रं वदन्ति वै॥
अर्थात् प्रत्येक रोगी को एक कुशल वैद्य अलग-अलग औषधि-द्रव्य देता है, उसी प्रकार भगवान् भी सत्त्वों को चित्तमात्र की देशना करते हैं।
इस आगम के द्वारा चित्तमात्रता की देशना करनेवाले (सन्धिनिर्मोचन आदि) सूत्रों को नेयार्थ के रूप में प्रकाशित किया गया है।
इस प्रकार इन सूत्रों के आधार पर विज्ञानवादियों द्वारा प्रतिपादित निम्नलिखित सिद्धान्तों को अन्य आगमों और युक्तियों के आधार पर प्रासङ्गिक माध्यमिक नेयार्थ में ही प्रकाशित करते हैं। फलतः ऐसे सूत्र नेयार्थ सिद्ध होते हैं, यथा- (१) परिकल्पित स्वलक्षणतः असत् और परतन्त्र स्वलक्षणतः सत् (२) आलयविज्ञान का प्रतिपादन (३) बाह्यार्थ का अभाव एवं (४) पर्यन्त तीन गोत्रों का प्रतिपादन।
१. द्र.-लङ्कावतारसूत्र २ : १२३ पृ. ४६ (जापानी संस्करण १६५६)।
माध्यमिक दर्शन
४६५ सद्धर्मपुण्डरीकसूत्र एवं अभिधर्मसमुच्चय आदि में एक ही यान सिद्ध किया गया है, अतः अन्तिम चतुर्थ सिद्धान्त नेयार्थ सिद्ध होता है। विमाना
। विज्ञानवादी बाह्यार्थ का निषेध करने के लिए प्रमुखतः निम्न सूत्र उद्धृत करते हैं :
दृश्यं न विद्यते बाह्यं चित्त चित्रं हि दृश्यते’
अर्थात् चित्त ही विभिन्न आकार में दिखाई देता है, बाह्य दृश्य सर्वथा नहीं है। - माध्यमिक कहते हैं कि यह सूत्र बाह्यार्थ का निषेध करने वाला नहीं है, अपितु चित्त से अतिरिक्त ईश्वर आदि जगत् के कर्ता का निषेध करता है। इसके विपरीत अन्य सूत्र हैं, जो बाह्यार्थ का निषेध नहीं करते।
ना जिस प्रकार भिन्न-भिन्न रोगियों को भिन्न-भिन्न औषधि देना वैद्य की इच्छा के वश से नहीं है, अपितु रोगी के रोग की स्थिति के वश से है, इसी प्रकार भगवान् द्वारा प्रदत्त चित्तमात्रता की देशना भी शास्ता तथागत के अपने नय के वश से नहीं, अपितु चित्तमात्रता में अभिनिविष्ट विनेयजनों के आशय के वश से है। इस प्रकार बाह्यार्थ के अभाव या चित्तमात्रता की देशना नेयार्थ के रूप में ज्ञापित की गई है।
म आलयविज्ञान और तथागतगर्भ पर्यायवाची है, जैसे- लकावतारसूत्र में उक्त है “तथागतगर्भ आलयविज्ञानसंशब्दितः सप्तभिर्विज्ञानैः सह” अर्थात् तथागतगर्भ आलयविज्ञान शब्द द्वारा कहा गया है और वह सात (प्रवृत्ति) विज्ञानों के साथ होता है। तथागतगर्भ और आलयविज्ञान दोनों में से एक (तथागतगर्भ) नित्य और दूसरा (आलयविज्ञान) अनित्य के रूप में प्रतिपादित है। अतएव शब्दशः दोनों का एक में प्रतिपादन नहीं किया गया है, फिर भी जिस आशय से तथागतगर्भ की देशना की गई है, उसी अभिप्राय से आलयविज्ञान का प्रतिपादन किया गया है, इसलिए आभिप्रायिकार्थ की अपेक्षा से दोनों एकार्थक हैं। क्योंकि तथागतगर्भ का लकावतारसूत्र में नेयार्थ के रूप में प्रतिपादन किया गया है, अतः
आलयविज्ञान का प्रतिपादन करनेवाला सूत्र भी नेयार्थ सिद्ध होता है।
तथागतगर्भ का प्रतिपादन करनेवाला सूत्र विज्ञप्तिमात्रतावादियों के मत में नीतार्थ माना जाता है-ऐसा हम नहीं कर रहे हैं। तथागतगर्भ की नेयनीतार्थता के विषय में विज्ञप्तिमात्रतावादी और माध्यमिक दोनों एकमत हैं। किन्तु तथागतगर्भ को नेयार्थ के रूप में प्रतिपादन करनेवाले सूत्र का उद्धरण देकर हम सन्धिनिर्मोचन में जो आलयविज्ञान को शब्दशः नीतार्थ सिद्ध किया गया है, उसको नेयार्थ के रूप में सिद्ध कर रहे हैं। तथागतगर्भ की देशना नीतार्थ नहीं है, ऐसा लङ्कावतार में स्पष्टतया वर्णित है। तथा हि :
१. द्र.-लङ्कावतारसूत्र, ३ : ३३ पृ. १५४ (जापानी संस्करण १६५६)। २. द्र.-लङ्कावतारसूत्र २ : १२३ पृ. ४६ (जापानी संस्करण १६५६)। ३. लकावतारसूत्र, क्षणिकपरिवर्त, पृ. २२० ।
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बौद्धदर्शन _एतस्मात् कारणान्महामते, तीर्थकरात्मवादोपदेशतुल्यस्तथागतगर्भोपदेशो न भवति। एवं हि महामते, तथागतगर्भोपदेशमात्मवादाभिनिविष्टानां तीर्थकराणामाकर्षणार्थ तथागतगर्भो पदेशेन निर्दिशन्ति। कथं वताभूतात्मविकल्पदृष्टिपतिताशया विमोक्षत्रयगोचरपतिताशयोपेताः क्षिप्रमनुत्तरां सम्यक्संबोधिमभिसंबुध्येरन्निति। एतदर्थं महामते, तथागता अर्हन्तः सम्यक्संबुद्धास्तथागतगर्भोपदेशं कुर्वन्ति। अत एतन्न भवति तीर्थकरात्मवादतुल्यम्। तस्मात्तर्हिमहामते, तीर्थकरदृष्टिविनिवृत्त्यर्थं तथागतनैरात्म्य गर्भानुसारिणा च ते भवितव्यम्।
अर्थात् इस कारण महामति, तथागतगर्भ का उपदेश तैर्थिकों के आत्मवाद के तुल्य नहीं है। महामति, आत्मवाद में अभिनिविष्ट तैर्थिकों के आकर्षण के लिए तथागत ‘तथागतगर्भ’ के नाम से तथागतगर्भ का उपदेश इसलिए करते हैं कि किस तरह मिथ्या आत्मविकल्प और आत्मदृष्टि में पतित आशय वाले (तैर्थिक) लोग तीन विमोक्षों के गोचर (शून्यता) में स्थित होकर शीघ्र से शीघ्र अनुत्तर सम्यक् संबोधि प्राप्त कर लें। इसलिए महामति, तथागत अर्हत्, सम्यक् संबुद्ध तथागतगर्भ का उपदेश करते हैं। इसलिए यह तैर्थिकों के आत्मवाद के तुल्य नहीं है। इसलिए महामति, तैर्थिकों की आत्मदृष्टि के निवारण के लिए नैरात्म्य तथागतगर्भ का अनुसरण करनेवाला तुम्हें होना चाहिए। आप
इस तरह तथागतगर्भ की देशना आभिप्रायिक सिद्ध होती है। अभिप्रायिक या नेयार्थ देशना होने के लिए उसका अभिप्राय, प्रयोजन एवं शब्दशः अर्थ ग्रहण में आगमबाधा बतलानी चाहिए। तदनुसार अभिप्राय तो धर्मनैरात्म्य या शून्यता है तथा प्रयोजन है नैरात्म्य से भयभीत लोगों को भय से मुक्त करना तथा जो लोग आत्मवाद के प्रति अभिनिविष्ट हैं, उन्हें क्रमशः अनात्म की ओर ले जाना। इसी के लिए यह देशना की गई है। इसी दृष्टि से तथागतगर्भ और आत्मवाद दोनों असदृश सिद्ध किये गये हैं।
शास्ता ने जिस आशय से देशना की है, उसका अभिप्राय और शाब्दिक प्रतिपादन दोनों में बड़ा फर्क है। आत्मवादियों के द्वारा शाश्वत आत्मा आदि का प्रतिपादन तो उसके प्रति दृढ़ निश्चय उत्पन्न करने के लिए है, जबकि शास्ता द्वारा जो तथागतगर्भ की देशना की गई है, वह तो पहले कुछ समय के लिए शब्दानुसारी अर्थ की सत्ता का ग्रहण करने के बाद जिस आशय (धर्मनैरात्म्य या शून्यता) से देशना की गई है, उस आशय की ओर ले जाने के लिए है। इसलिए वे दोनों समान नहीं हैं।
तथागतगर्भदेशना का शब्दशः अर्थग्रहण का अनुचित होना तो लङ्कावतार के “तस्मात्तर्हि महामते, अर्थानुसारिणा भवितव्यम्, न देशनाभिलापाभिनिविष्टेन” (अर्थात् महामति, तुम्हें अर्थ का अनुसरण करनेवाला होना चाहिए, न कि शब्द का अनुसरण करने १. द्र.-लङ्कावतारसूत्र, पृ. ७५-७६ (जापानी संस्करण १६५६)। २. द्र.-लङ्कावतारसूत्र, पृ. ७७ (जापानी संस्करण १६५६)।
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वाला)-इस वचन से ही सिद्ध हो जाता है। इस देशना का प्रयोजन तो आत्मवादियों को विनेय बनाना है। अर्थात् यह देशना विनेयजनों के आशय के अधिकार से प्रदत्त है, तथा हि : - “बालानां स्वविकल्पसन्तोषणं न तु सा तत्त्वार्यज्ञानव्यवस्थानकथा” अर्थात् बालपृथग्जनों के विकल्पों के सन्तोष के लिए है, न कि वह आर्य (बोधिसत्त्व) ज्ञान की दृष्टि से तत्त्व की व्यवस्था करनेवाली कथा है। तथागतगर्भ के नेयार्थ के रूप में दिखाना दोनों प्रकार के विनेयजनों के लिए हैं। एक तो स्वनैकायिक हैं और दूसरे परनैकायिक। ____सामान्य स्वनैकायिक जो साधारण पुद्गलनैरात्म्य जानते हैं और स्थूल धर्मनैरात्म्य भी जानते हैं, उन्हें तत्त्व (सर्वधर्मनिःस्वभावता) की ओर आकृष्ट करने के लिए नेयार्थ देशना
की गई है।
दूसरे बौद्धेतर परनैकायिक हैं, जो लाक्षणिक आत्मवादी हैं अथवा जिन्होंने पूर्वजन्मों में अत्यधिक आत्मदृष्टि का अभ्यास कर लिया है, जिसकी वजह से वे फिलहाल साधारण पुद्गलनैरात्म्य के भी पात्र नहीं हैं, इनके लिए तथागतगर्भ को आत्मा समझ लेने पर दोष दर्शाना अत्यन्त सरल है।
पहले कहा गया है कि तथागतगर्भ और आलयविज्ञान एकार्थक हैं। घनव्यूह सूत्र में उक्त है:
विविध स्थान आलय है। कुशल तथागतगर्भ भी वही है। इस तथागतगर्भ का ‘आलय’ शब्द के द्वारा तथागत ने निर्देश किया है। __आचार्य चन्द्रकीर्ति का कहना है कि निःस्वभावता सभी वस्तुओं का निजी स्वभाव है। अतः आलयविज्ञान द्वारा शून्यता ही प्रतिपादित की गई है। लङ्कावतारसूत्र में भी उक्त है-“एतद्धि महामते, शून्यतानुत्पादाद्वयनिःस्वभावतालक्षणं सर्वबुद्धानां सर्वसूत्रान्तगतम्” अर्थात् महामति, शून्यता, अनुत्पाद, अद्वय, निःस्वभावता तो सभी बुद्धों के सभी सूत्रों में अन्तर्निविष्ट है। अतः आलयविज्ञान की देशना जिनके लिए की गई है, वे विनेयजन साधारण पुद्गलनैरात्म्य और ग्राह्य-ग्राहकद्वय से या बाह्यार्थ से शून्यता के पात्र तो होते हैं, किन्तु सर्वधर्मनिःस्वभावता का अधिगम करने में असमर्थ होते हैं, उनके लिए उक्त सूत्रों के द्वारा तथागतगर्भ की देशना नेयार्थ सिद्ध की गई है।
__ विज्ञानवादियों का मानना है कि आलयविज्ञान की देशना की जाने पर बाह्यार्थतः शून्यता या ग्राह्य-ग्राहकद्वय शून्यता का ही प्रतिपादन करना चाहिए, न कि सर्वधर्मशून्यता का। ऐसे विनेयजनों के भ्रम का निवारण करने के लिए उक्त सूत्र उद्धृत किया गया है, जिसमें कहा गया है कि शून्यता आदि सभी बुद्धों के सभी सूत्रों का वास्तविक अर्थ है। अतः
१. द्र.-लकावतारसूत्र, पृ. ७७ (जापानी संस्करण १६५६)। २. द्र.-लकावतारसूत्र, पृ. ७७ (जापानी संस्करण १६५६)।
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बौद्धदर्शन उक्त सूत्र के द्वारा विज्ञानवादियों के परिकल्पित असत् है और परतन्त्र सत् है’-इस मत से भेद दिखलाया गया है। लङ्कावतारसूत्र में तो आगे यहाँ तक लिखा है- “यत्र क्वचित सूत्रान्तेऽयमेवार्थो विभावयितव्यः” अर्थात् जहाँ कहीं सूत्र में (ऐसा उल्लिखित हो, वहाँ) यही अर्थ जानना चाहिए।
(ख) सन्धिनिर्मोचन और मैत्रेयपरिपृच्छा में असमानता का प्रतिपादन
पञ्चविंशतिसाहस्रिका प्रज्ञापारमिता के ‘मैत्रेयपरिपृच्छा’ नामक परिच्छेद में जो त्रिविध लक्षणों का प्रतिपादन किया गया है, वह प्रासङ्गिक माध्यमिक मत के अनुकूल है। सन्धिनिर्मोचन एवं मैत्रयपरिपृच्छा में जो त्रिविध लक्षणों की व्यवस्था की गई है, वह परस्पर अत्यन्त भिन्न है, तथापि दोनों में इतना सूक्ष्म अन्तर है कि उसका सुस्पष्ट भेदकर पाना अत्यन्त दुष्कर कार्य है। भोट देश के महान् पण्डित आचार्य चोखापा ने इस विषय का सूक्ष्म विश्लेषण किया है और यह निष्कर्ष निकाला है कि मैत्रेयनाथ परिपृच्छा में प्रतिपादित त्रिविध लक्षणों की व्याख्या प्रासङ्गिक मत के सर्वथा अनुकूल है तथा आर्यसन्धिनिर्मोचनसूत्र की व्याख्या से नितान्त असदृश है।
मैत्रेयनाथ परिपृच्छा के अनुसार संक्षेप में रूप से लेकर बुद्धत्व पर्यन्त समस्त धर्म परतन्त्र लक्षण हैं, प्रतीत्यसमुत्पन्न हैं, व्यवहारसत् हैं, किन्तु उनकी स्वलक्षणतः सत्ता या स्वभावतः सत्ता नहीं है। रूप आदि धर्मों की स्वभावतः या स्वलक्षणतः सत्ता परिकल्पित लक्षण है तथा उनकी निःस्वभावता परिनिष्पन्न लक्षण है। इसलिए त्रिविध लक्षणों की स्थापना केवल विज्ञानवादियों की ही विशेषता नहीं है। अर्थात् केवल विज्ञानवाद में ही त्रिविध लक्षणों की स्थापना नहीं की गई है, अपितु प्रासंगिक माध्यमिक भी इसकी व्यवस्था करते हैं। मग मैत्रेयनाथ परिपृच्छा में त्रिविध लक्षणों का नाम कुछ भिन्न प्रकार से है, यथा परिकल्पित रूप (लक्षण या स्वभाव), विकल्पित रूप एवं धर्मता रूप। इनमें परिकल्पित रूप अद्रव्यसत् है। विकल्पित (परतन्त्र) रूप द्रव्यसत् है, किन्तु उसका द्रव्यसत् होना स्वतन्त्रतः या स्वभावतः उत्पन्न होने की वजह से नहीं है तथा जो धर्मता रूप (परिनिष्पन्न) है, वह न द्रव्यसत् और न अद्रव्यसत् है। अतः उसे परमार्थ होने के कारण संवृति से पृथक् करके देखना चाहिए। रूप से लेकर बुद्धत्व पर्यन्त सभी धर्मों को इस सूत्र में विभिन्न युक्तियों से नाममात्रतः सिद्ध किया गया है।
म बोधिसत्त्वचर्या की शिक्षा-ग्रहण करने के इच्छुक व्यक्ति को रूप से लेकर बुद्धत्वपर्यन्त सभी धर्मों की शिक्षा किस प्रकार ग्रहण करना चाहिए-इस प्रश्न के उत्तर में मैत्रेय ने कहा कि ‘वे सभी धर्म नाममात्रतः सत् हैं’ ऐसी शिक्षा लेना चाहिए। इसका अर्थ है कि ‘नाम या प्रज्ञप्ति’ आगन्तुक है, उसके विषय की सत्ता नहीं है। आगन्तुक का तात्पर्य कृत्रिम होने से
१.
द्र.-वहीं।
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है। इस प्रकार इस कथन के द्वारा उनके स्वभावतः होने का खण्डन किया गया है। छ। अतः नामतः प्रज्ञप्त सभी धर्म जो व्यवहार के वश से सत् के रूप में स्थापित हैं, वे कृत्रिम होते हैं। फलतः व्यवहार के वश से स्थापित हुए बिना उस नामप्रवृत्ति के आधार (विषय या आलम्बन) का अभाव है। पर सामान्यतया आधार वस्तु का अभाव नहीं है। फलतः उनकी व्यावहारिक सत्ता के होने और नामतः प्रज्ञप्तिमात्र होने में कोई विरोध नहीं है, यह इसका तात्पर्य है।
रूप आदि की यदि स्वलक्षणतः सत्ता होती तो जिसमें यह रूप है- ऐसी बुद्धि उत्पन्न होती है, उसे नाम की अपेक्षा के बिना भी उत्पन्न होना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं होता। जैसे अङ्कुर यदि स्वलक्षणतः सिद्ध हो तो उसे बीज की अपेक्षा के बिना भी उत्पन्न होना चाहिए। एक वस्तु के अनेक नाम तथा अनेक वस्तुओं का एक नाम स्वलक्षणतः सत् हो तो एक वस्तु अनेक हो जाएगी और अनेक वस्तुएं एक हो जाएंगी। यह दोष होगा। अतः नामप्रज्ञप्ति को आगन्तुक कहा गया है। इस प्रकार स्वलक्षणतः सिद्ध स्वभाव का अभाव होने पर भी संज्ञा की आधार वस्तु के होने और उसे नाम-प्रज्ञप्ति मात्र कहने में कोई विरोध नहीं है।
क्या रूप आदि का सर्वथा अभाव है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि स्वभाव, उत्पाद एवं निरोध तथा संक्लेश एवं व्यवदान का जो निषेध किया गया है, वह परमार्थ के वश से है तथा व्यवहार में रूप आदि सभी का अस्तित्व सिद्ध किया गया है। इसलिए जो नामतः प्रज्ञप्तिमात्र है, वह भी व्यवहारतया ही है। अतः सन्धिनिर्मोचन के व्याख्यान से मैत्रेयनाथ परिपृच्छा का व्याख्यान नय कैसे अनुकूल होगा या समान होगा ?
उक्त सूत्र में मैत्रेय, जो उस संस्कृत लक्षण वस्तु में नाम, संज्ञा, आरोप और व्यवहार - के आधार के वश से रूप-स्वभाव की कल्पना करता है, यह परिकल्पित रूप है।
बुद्धत्वपर्यन्त यह परिकल्पित रूप ऐसा ही है-ऐसा कहा गया है।
उसी सूत्र में संस्कृतलक्षण वस्तु, जो विकल्पमात्र की तथता में स्थित है, को विकल्प के आधार के रूप में अभिलपित किया जाता है, जिसमें यह रूप है, यह वेदना है, से लेकर बुद्धत्वपर्यन्त नाम, संज्ञा, आरोप और व्यवहार होते हैं-ये सभी विकल्पित रूप हैं। ये विकल्पित रूप बुद्धत्व पर्यन्त ऐसे ही हैं-ऐसा कहा गया है। ।
यहाँ संस्कृत लक्षण वस्तु से तात्पर्य अभिधेय से हैं। विकल्पना पर आश्रित उस अभिलाप के अभिधेय वे रूप आदि ही हैं। इस प्रकार व्याख्या की जाने की कारण अभिधेय और विकल्पना भी विकल्पित के रूप में प्रतिपादित हैं।
धर्मता रूप भी उसी सूत्र में ‘विकल्पित रूप में परिकल्पित रूप का जो अभाव है, और जो निःस्वभावतामात्र है, धर्मनैरात्म्य है, तथता है, सम्यगन्त है, धर्मतारूप है। ये धर्मतारूप बुद्धत्व पर्यन्त ऐसे ही हैं’-ऐसा कहा गया है। इस प्रकार प्रज्ञप्त रूप की स्वभावता
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बौद्धदर्शन का अभाव और धर्मनैरात्म्य आदि ‘धर्मतारूप’ है। वह भी परिकल्पित स्वभाव का अभाव या आत्मा का अभाव है। आत्मा या स्वभाव परिकल्पित है, जिसका यहाँ अभाव है। उस प्रकार का स्वभाव या आत्मा तो परतन्त्र, जो कृतक और प्रतीत्यसमुत्पन्न है, में परिकल्पितमात्र है, क्योंकि तथागत ने स्वभाव को अकृत्रिम और परनिरपेक्ष कहा है। बुद्ध के विषय (गोचर) में तो केवल यथार्थ या तथता होती है, वहाँ परिकल्पित नहीं होता। बुद्ध तो कृतक वस्तु का स्पर्श किये बिना केवल वस्तुस्थिति अर्थात् शून्यता का ही साक्षात्कार करते हैं, इसलिए बुद्ध कहे जाते हैं। __ इस प्रकार मैत्रेयनाथपरिपृच्छा माध्यमिकों के अनुकूल है। इसी के आधार पर वे तीनों लक्षणों की व्यवस्था करते हैं। इस जननीसूत्र के आधार पर मध्यमकावतार में स्पष्टतया कहा गया है कि विकल्पित रूप का तात्पर्य ‘रूप से लेकर बुद्धत्व पर्यन्त’ जो प्रतीत्यसमुत्पन्न धर्म हैं, वे परतन्त्र धर्म ही विकल्पित रूप हैं। इस परतन्त्र में सस्वभावता की प्रज्ञप्ति परिकल्पित रूप है, जो रूप से लेकर बुद्धत्व पर्यन्त सभी धर्मों में होती है। परतन्त्र का स्वभावतः सत् होना यद्यपि परिकल्पित है, तथापि जो बुद्ध के ज्ञान का विषय होती है, वह वस्तुस्थिति या स्वभाव परिनिष्पन्न है। परतन्त्र का परिकल्पित से शून्य होना परतन्त्र की वस्तुस्थिति है। वही वस्तुस्थिति या शून्यता बुद्ध के परमार्थ ज्ञान की विषय होती है और यही धर्मतारूप है।
फलतः एक ही वस्तुस्थिति का आधारभेद से परिकल्पित और परिनिष्पन्न-इन दोनों में व्यवस्था की जाती है। परमार्थ और सांवृतिक कोई भी धर्म स्वलक्षणतः सिद्ध नहीं है, फिर भी धर्मस्वभाव की जो व्यवस्था की गई है, उसमें परमार्थ सत्य सिद्ध होता है। परतन्त्र (कृतक) का स्पर्श किये बिना केवल धर्मता स्वभाव का ही साक्षात्कार करने की जो बात कही गई है, वह तो परमार्थ सत्य को प्रत्यक्षतया जानने वाले बुद्धज्ञान के समक्ष धर्मी की सत्ता का खण्डन करती है। इसमें कोई विरोध नहीं है। यति का ही विकल्पित रूप के द्रव्यसत् होने की बात जो सूत्र में कही गई है, उसका कारण विकल्पना के द्रव्यसत् होने से उसकी द्रव्यसत् के रूप में व्यवस्था की गई है, न कि स्वतन्त्रतः या स्वलक्षणतः उत्पन्न होने की वजह से द्रव्यसत् होना कहा गया है। स्वतन्त्र का अर्थ वही है, जो आचार्य नागार्जुन और आर्यदेव के शास्त्रों में उल्लिखित है। अर्थात् स्वलक्षणतः सिद्ध ही स्वतन्त्र कहलाता है। अतः सन्धिनिर्मोचन आदि अन्य सूत्रों में जो परतन्त्र स्वलक्षणतः सिद्ध उपदिष्ट है, उससे इन जननी सूत्र का कोई साम्य नहीं है।
विकल्प के वश से स्थापित की सत्ता होने के कारण विकल्पित रूप की द्रव्यसत् के रूप यहाँ व्यवस्था की गई है, न कि स्वलक्षणतः सिद्ध सत्ता होने की वज़ह से द्रव्यसत् कहा गया है।
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५०१ (२) परमार्थसत्ता का निषेध करनेवाली प्रधान युक्ति
‘शास्त्रों में की गई तत्त्व मीमांसा विवाद-प्रियता के लिए नहीं, अपितु विमुक्ति (मोक्ष या निर्वाण) के लिए की गई है’-चन्द्रकीर्ति के मध्यमकावतार में उक्त इस वचन के अनुसार माध्यमिक शास्त्रों में वस्तुस्थिति की जितनी भी युक्तिपूर्वक परीक्षाएं की गई हैं, वे सभी प्राणियों के मोक्षलाभ के लिए ही की गई हैं। पुद्गल एवं धर्मों के प्रति स्वभावाभिनिवेश के कारण ही सभी प्राणी संसार में बंधे हुए हैं। ‘अहम् अस्मि’ (मैं हूँ) इस प्रकार की बुद्धि के आलम्बन पुद्गल एवं उसके सन्ततिगत धर्म हैं, उन (पुद्गल एवं धर्म) दोनों में पुद्गलात्मा
और धर्मात्मा नामक आत्मद्वय का जो अभिनिवेश होता है, वहीं संसार में बाँधनेवाला प्रमुख बन्धन है। अतः जिन पुद्गल एवं धर्मों में आत्मा (पुद्गलात्मा और धर्मात्मा) के रूप में ग्रहण होता है, युक्ति द्वारा निषेध करने के भी मुख्य आधार वे दो ही होते हैं। अतः सभी युक्तियाँ इन दो आत्माओं की निषेधक के रूप में ही संगृहीत होती हैं। माना जा - शास्त्रकारों ने एकानेकस्वभावरहितत्व’, वज्रकणयुक्ति, सदसदनुपपत्तियुक्ति, चतुष्कोटिकोत्पादानुपपत्तियुक्ति तथा प्रतीत्यसमुत्पादयुक्ति’ आदि अनेक युक्तियों का शास्त्रों में वर्णन किया है। दशभूमकसूत्र में दस समताओं द्वारा षष्ठभूमि में अवतरित होने की देशना की गई है। सर्वधर्म-अनुत्पाद के रूप में समता का प्रतिपादन करने से अन्य समताओं का प्रतिपादन सुकर हो जाता है-ऐसा सोचकर आचार्य नागार्जुन ने मूलामध्यमिककारिका में :
न स्वतो नापि परतो न द्वाभ्यां नाप्यहेतुतः। उत्पन्ना जातु विद्यन्ते भावाः कचन केचन॥
१. यदि आत्मा और स्कन्ध एक है तो वे दोनों अत्यन्त अभिन्न हो जाएंगे। फलतः जैसे स्कन्ध अनेक
हैं, वैसे आत्मा को भी अनेक मानना पड़ेगा। अथवा जैसे आत्मा एक है, वैसे स्कन्धों को भी एक मानना पड़ेगा। स्कन्धों की भाति आत्मा भी अनित्य हो जाएगा। अथवा आत्मा की भाति स्कन्ध भी नित्य हो जाएंगे। यदि आत्मा और स्कन्ध भिन्न हैं तो युक्तियों द्वारा उन्हें सर्वथा भिन्न ही रहना चाहिए। ऐसी स्थिति में शरीर के रुग्ण या जीर्ण होने पर मैं ‘रुग्ण हूँ जीर्ण हूँ’-इस प्रतीति से विरोध होगा। अर्थात् ऐसी प्रतीति नहीं होनी चाहिए। भेद के इस सिद्धान्त को वादी कल्पित नहीं मानता, अतः वह ऐसा नहीं कह सकता कि यह भिन्नता प्रातिभासिक दृष्टि से है। पुनश्च उसे
आत्मा को पृथक दिखलाना होगा। २. रूप आदि वस्तुएं, स्वभावतः अनुत्पन्न हैं, स्वतः परतः उभयतः एवं अहेतुकः उत्पन्न न होने से। ३. रूप आदि वस्तुएं, स्वभावतः अनुत्पन्न हैं, हेतु के काल में सत् अथवा असत् होते हुए उत्पन्न न
__ होने से ४. रूप आदि वस्तुएं, स्वभावतः अनुत्पन्न हैं, एक हेतु से अनेक फल, अनेक हेतुओं से एक फल,
अनेक हेतुओं से अनेक फल तथा एक ही हेतु से एक फल उत्पन्न न होने से ५. रूप आदि धर्म, निःस्वभाव हैं, प्रतीत्यसमुत्पन्न होने से
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बौद्धदर्शन इस कारिका को प्रस्तुत किया है। फलतः धर्मनैरात्म्य (शून्यता) को सिद्ध करने की प्रमुख युक्ति उनके अनुसार यही चतुष्कोटिकोत्पादानुपपत्ति युक्ति ही है।
यह चतुष्कोटिक उत्पाद की अनुपत्ति भी प्रतीत्यसमुत्पाद से ही सिद्ध होती है, क्योंकि वस्तुओं की अहेतुक, ईश्वर, प्रकृति, काल आदि विषमहेतुक तथा स्वतः, परतः एवं उभयतः उत्पत्ति उनके प्रतीयसमुत्पन्न होने से सम्भव नहीं हो पाती। वस्तुओं के प्रतीत्यसमुत्पन्न होने से ही अहेतुक, विषमहेतुक, स्वतः परतः उत्पाद आदि की ये कल्पनाएं युक्ति द्वारा परीक्षाक्षम नहीं हो पातीं। इसलिए इस प्रतीत्यसमुत्पाद युक्ति के द्वारा कुदृष्टि के समस्त जालों का समुच्छेद किया जाता है।
अङ्कुर आदि बाह्य वस्तुएं और संस्कार आदि आन्तरिक वस्तुएं क्रमशः बीज आदि तथा अविद्या आदि हेतुओं पर निर्भर होकर ही उत्पन्न होती हैं। यही कारण है कि उनके उत्पाद आदि सभी स्वलक्षणतः सिद्ध स्वभाव से शून्य हैं तथा वे स्वतः परतः, उभयतः, अहेतुतः या विषमहेतुतः उत्पन्न नहीं होते। इस तरह उनके स्वभावतः होने का निषेध किया जाता है। अतः समस्त कुदृष्टि जालों का उच्छेद करने वाली तथा परमार्थसत्ता का निषेध करने वाली प्रधान युक्ति प्रतीत्यसमुत्पाद ही है। प्रासङ्गिक माध्यमिक तो इसे युक्तिराज कहते हैं। काम
ਜਿਤ
ਕੀਤਾ ਗਿਲ
ਜE ੜ ਨਿਸ਼ਕ ਸਿਰ ਘ
ਰ
ਲੈ
सा मा यि