०८ योगाचार दर्शन (विज्ञानवाद)

परिभाषा-जो ‘बाह्यार्थ सर्वथा असत् हैं और एकमात्र विज्ञान ही सत् है’-ऐसा मानते हैं, वे विज्ञानवादी कहलाते हैं।
___ ये दो प्रकार के होते हैं, यथा- (१) आगमानुयायी और (२) युक्ति-अनुयायी। आर्य असङ्ग, वसुबन्धु आदि आगमानुयायी तथा आचार्य दिङ्नाग, धर्मकीर्ति आदि युक्ति विज्ञानवादी हैं।
_ विज्ञानवादियों का एक भिन्न प्रकार से भी द्विविध विभाजन किया जाता है, यथा (१) सत्याकारविज्ञानवादी एवं (२) मिथ्याकारविज्ञानवादी। भोटदेशीय विद्वानों के मतानुसार आगमानुयायी और युक्ति-अनुयायी दोनों प्रकार के विज्ञानवादियों में सत्याकारवादी और मिथ्याकारवादी होते हैं। ____ आगमानुयायी-आर्य असङ्ग ने श्रावकभूमिशास्त्र, प्रत्येकबुद्ध-भूमिशास्त्र आदि नामों से पाँच भूमिशास्त्रों की रचना की है, जो इन भूमिशास्त्रों के आधार पर अपने पदार्थों की व्यवस्था करते हैं और आलयविज्ञान, क्लिष्ट मनोविज्ञान आदि की सत्ता स्वीकार करते हैं, वे ‘आगमानुयायी’ कहलाते हैं। _ युक्ति-अनुयायी-दिङ्नाग के प्रमाणसमुच्चय एवं धर्मकीर्ति के सात (सप्तवर्गीय) प्रमाणशास्त्रों के आधार पर जो पदार्थमीमांसा की स्थापना करते हैं तथा घट, पट आदि पदार्थों को बाह्मार्थत्व से शून्य सिद्ध करते हुए आलयविज्ञान और किलष्ट मनोविज्ञान का खण्डन करते हैं, वे ‘युक्ति-अनुयायी’ कहलाते हैं। । सत्याकारवादी- ज्ञानगत नीलाकार, पीताकार आदि को जो ज्ञानस्वरूप (ज्ञानस्वभाव) स्वीकार करते हुए उनकी सत्यतः (वस्तुतः) सत्ता स्वीकार करते हैं, अर्थात् जो यह मानते हैं कि उनकी सत्ता कल्पित नहीं हैं, वे ‘सत्याकारवादी’ कहलाते हैं।
मिथ्याकारवादी- ज्ञान में उत्पन्न (ज्ञानगत) नीलाकार, पीताकार आदि ज्ञानस्वरूप नहीं है, अतः उनकी वस्तुतः (सत्यतः) सत्ता नहीं है, अपितु वे वासनाजन्य एवं नितान्त कल्पित हैं। इस प्रकार जिनकी मान्यता है, वे ‘मिथ्याकारवादी’ कहलाते हैं।

सत्याकार विज्ञानवादियों के भेद

। सत्याकारवादी तीन प्रकार के होते है, यथा-(१) ग्राह्य-ग्राहकसमसंख्यावादी, (२) अर्धाण्डाकारवादी एवं (३) नाना अद्वयवादी।
वि बौद्धदर्शन (१) ग्राह्य-ग्राहकसमसंख्यावादी-जिस प्रकार किसी चित्रपट में विद्यमान नील, पीत आदि पांच वर्ण द्रव्यतः पृथक्-पृथक् अवस्थित होते हैं, उसी प्रकार उस चित्र पट के ग्राहक ज्ञान भी नीलाकार, पीताकार आदि भेद से द्रव्यतः पृथक्-पृथक पांच प्रकार के होते हैं।
(२) अर्धाण्डाकारवादी- नील, पीत आदि अनेकवर्ण वाले चित्रपट में विद्यमानसभी वर्ण द्रव्यतः पृथक्-पृथक् होते हैं, किन्तु उस चित्रपट का ग्राहक चक्षुर्विज्ञान उतनी संख्या में पृथक्-पृथक् न होकर द्रव्यतः एक ही होता है।
(३) नाना अद्वयवादी- जैसे नाना वर्ण वाले चित्रपट को जानने वाले चक्षुर्विज्ञान में वर्ण के अनुसार द्रव्यतः पृथग्भाव (नानाभाव) नहीं होता, अपितु वह एक होता है, वैसे चित्रपट में विद्यमान नाना वर्ण भी द्रव्यतः पृथक् नहीं होते, अपितु तादात्म्यरूप से वे एक और अभिन्न होते हैं।
मिथ्याकारवादी- मिथ्याकारविज्ञानवादी भी दो प्रकार के होते हैं, यथा-(१) समल विज्ञानवादी एवं (२) विमल विज्ञानवादी।
(१) समल विज्ञानवादी- इनके मतानुसार बुद्ध की अवस्था में भी द्वैतप्रतिभास होता है।
(२) विमल विज्ञानवादी- इनके मतानुसार बुद्ध की अवस्था में द्वैतप्रतिभास सर्वथा (बिल्कुल) नहीं होता, क्योंकि बुद्ध की चित्तसन्तति में मल का लेश भी नहीं होता।
विशेष-समलविज्ञानवादियों के मतानुसार जैसे पृथग्जन की अवस्था में अविद्या के कारण ग्राह्य और ग्राहक की पृथक् सत्ता का द्वैतप्रतिभास हुआ करता है, वैसे अविद्या से रहित बुद्धावस्था में भी ग्राह्य-ग्राहक द्वैत का प्रतिभास होता है। यद्यपि बुद्धावस्था में अविद्या नहीं है, फिर भी उसके प्रभाव से यह द्वैतप्रतिभास होता है। बुद्ध की दो अवस्थाएं होती हैं, समाहित अवस्था एवं पृष्ठलब्ध अवस्था। ज्ञात है कि इन समलवादियों के मत में भी यह द्वैतप्रतिभास बुद्ध की पृष्ठलब्ध अवस्था में ही होता हैं। समाहित अवस्था में तो इनके अनुसार भी द्वैतप्रतिभास नहीं होता। आचार्य धर्मकीर्ति के सन्तानान्तरसिद्धि नामक ग्रन्थ के ‘भगवतः सर्वार्थसम्बोधिरचिन्तनीया’ इस वचन की व्याख्या के प्रसङ्ग में विनीतदेव कृत टीका में उक्त विषय उपवर्णित है।
विमलविज्ञानवादियों के मत में जैसे पृथग्जन की अवस्था में ग्राह्यकार और ग्राहकाकार की पृथक् सत्ता का द्वैत प्रतिभास होता है, वैसे बुद्ध की अवस्था में चाहे समाहितावस्था हो या पृष्ठलब्ध अवस्था हो, ग्राह-ग्राहक-द्वयप्रतिभास सर्वथा नहीं होता, क्योंकि द्वैतप्रतिभास का कारण विकल्प या अविद्या होती है, और बुद्ध की चि त्तसन्तति में विकल्प की वासना भी नहीं होती, क्योंकि उन्होंने वासना के साथ सभी प्रकार के विकल्पों या अविद्या का प्रहाण कर दिया है। अतः द्वयप्रतिभास के लिए उनमें अवसर ही नहीं है। प्रसिद्धि है कि आर्य असङ्ग विमलविज्ञानवादी थे।
योगाचार दर्शन ३६६ व्याख्यानान्तर-समलविज्ञानवादियों के अनुसार सत्त्वों की सन्तान में होने वाले चक्षुर्विज्ञान, श्रोत्रविज्ञान आदि सभी छह विज्ञान मल से युक्त होते हैं, जब जब ये विज्ञान उत्पन्न होते हैं, तब तब उनमें भासित होने वाले नील, पीत, घट, पट आदि पदार्थ बाह्यतः सत् आभासित होते हैं। अर्थात् ऐसी प्रतीति होती है मानो वे बाह्याकार विज्ञान से निरपेक्ष होते हैं और उनकी विज्ञानबाह्य सत्त होती है। अथवा वे विज्ञान के गर्भ में नहीं है या विज्ञानस्वभाव नहीं हैं।
विमलविज्ञानवादियों के अनुसार यद्यपि अविद्या के कारण घट, पट, नील, पीत आदि पदार्थों की विज्ञान में बाह्यार्थतः सत् के रूप में प्रतीति होती है, फिर भी चित्त या विज्ञान स्वरूपतः मल से रहित अर्थात विमल होता है। इनके अनुसार क्लेश आदि मल वस्तुतः आगन्तुक होते हैं, अतः जब इन आगन्तुक मलों का प्रहाण कर दिया जाता है तब चित्त का वास्तविक विमल स्वरूप स्पष्टतया प्रतीत होने लगता है। यदि चित्त स्वरूपतः (स्वभावतः) समल होगा तो मलों के प्रहाण के साथ चित्त का भी प्रहाण हो जाएगा और बुद्ध की अवस्था में भी विमल (निर्मल) चित्त उपलब्ध न हो सकेगा। विमलविज्ञानवाद का यह स्वरूप निःसंशय प्रामाणिक हैं। प्रमाणवार्तिक, प्रमाणविनिश्चय आदि में तथा मध्यमकालंकार मूल एवं उसके भाष्य में पूर्वपक्ष के रूप में इसका उल्लेख मिलता है। मलों की आगन्तुकता का निरूपण महायानसूत्रालङ्कार में भी उपलब्ध होता है। पालि-पिटक में भी चित्त की स्वभावतः निर्मलता का उल्लेख मिलता है।

(१) आगमानुयायी विज्ञानवाद

पदार्थमीमांसा

विज्ञानवाद के अनुसार प्रमेयों को हम तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं, यथा (१) परिकल्पित लक्षण, (२) परतन्त्रलक्षण तथा (३) परिनिष्पन्नलक्षण।
(१) परिकल्पित लक्षण- लक्षण को स्वभाव भी कहते हैं, अतः इसे परिकल्पित स्वभाव भी कहा जा सकता है। स्वग्राहक कल्पना द्वारा आरोपित होना परिकल्पित स्वभाव का लक्षण है। रूप, शब्द आदि बाह्य एवं जड़ पदार्थों में तथा इन्द्रिय, विज्ञान आदि आन्तरिक धर्मों में विकल्पों (कल्पनाओं) द्वारा ग्राह्य-ग्राहक की पृथक् द्रव्यसत्ता एवं बाह्यार्थता का आरोपण किया जाता है, वही बाह्यारोप या ग्राह्य-ग्राहकद्वैत का आरोप ‘परिकल्पित लक्षण’ है। यहाँ जिस परिकल्पितलक्षण का प्रतिपादन किया जा रहा है, वह परिनिष्पन्नलक्षण या धर्मनैरात्म्य का निषेध्य होता है।
परिकल्पित भी द्विविध होते हैं, यथा-सत्परिकल्पित एवं असत्परिकल्पित। रूप आदि ___ धर्मों में विद्यमान अभिधेयत्व, अभिलाप्यत्व एवं आकाश आदि धर्म सत्परिकल्पित हैं। क्योंकि ४०० बौद्धदर्शन उनका व्यवहारतः अस्तित्व होता है और ये परिनिष्पन्नलक्षण या धर्मधातु के प्रतिषेध्य नहीं होते। बाह्यार्थता, अभिधेय की स्वलक्षणता, पुद्गलात्मा, खपुष्प, शशशृङ्ग आदि असत्परिकल्पित हैं, क्योंकि इनका व्यवहारतः भी अस्तित्व नहीं होता। शास्त्रों में केवल बाह्यार्थत्व एवं अभिधेयस्वलक्षणत्व का ही परिकल्पितलक्षण के रूप में उल्लेख मिलता है।
(२) परतन्त्रलक्षण- हेतु-प्रत्ययों से उत्पन्न होना परतन्त्रस्वभाव का लक्षण है। समस्त चित्त-चैतसिक एवं उनमें आभासित रूप आदि धर्म परतन्त्रलक्षण हैं। उदाहरणार्थ रूप और रूपज्ञ चक्षुर्विज्ञान दोनों स्वभावतः अभिन्न और परतन्त्रलक्षण हैं, क्योंकि दोनों एक ही वासनाबीज के फल हैं, एक ही काल में उत्पन्न होते हैं और एक ही काल में निरुद्ध होते हैं।
परतन्त्र भी द्विविधि है, यथा-अशुद्ध परतन्त्र एवं शुद्ध परतन्त्र। समस्त सांसारिक वस्तुएं, जिन पर कर्म और क्लेशों का प्रभाव पड़ता है, अशुद्ध परतन्त्र है। आर्यों का समाहित ज्ञान, सर्वज्ञ ज्ञान, बुद्ध के काय-वाक्-क्षेत्र आदि शुद्ध परतनत्र कहलाते हैं। परतन्त्र इसलिए परतन्त्र कहलाता है, क्योंकि वह अपने से भिन्न हेतुओं एवं प्रत्ययों से उत्पन्न होता है, उनके अधीन होता है। रूप आदि समस्त धर्म आलयविज्ञान एवं उसमें स्थित वासनाओं के फल हैं, अतः उनका उत्पाद इन हेतु-प्रत्ययों के अधीन होता है। व्याख्या-भेद से रूप आदि परतन्त्र लक्षण परमार्थसत् भी होते हैं।
(३) परनिष्पन्नलक्षण- ऊपर कहा गया है कि रूप आदि परतन्त्र धर्मों में आरोपित बाह्यार्थत्व एवं अभिधेयस्वलक्षणत्व परिकल्पितलक्षण हैं, जो परतन्त्र धर्मों में नितान्त असत् हैं। परतन्त्र धर्मों में परिकल्पितलक्षण की वस्तुतः अविद्यमानता या रहितता ही ‘परिनिष्पन्नलक्षण’ है और विज्ञानवादी शास्त्रों में यही (परिनिष्पन्न लक्षण) धर्मधातु, तथता, भूतकोटि, परमार्थसत्य आदि शब्दों से निर्दिष्ट है। यह परिनिष्पन्न लक्षण परतन्त्रलक्षण से न भिन्न होता है और न अभिन्न। वह स्वभावतः अभिन्न और व्यावृत्तितः भिन्न होता है।

लक्षण विचार

त ‘परतन्त्र’ शब्दमें ‘पर’ का अर्थ ‘हेतु और प्रत्यय’ है। ‘तन्त्र’ का अर्थ ‘अधीन या वशीभूत होना’ है। अर्थात् जिसका अस्तित्व हेतु-प्रत्यय के अधीन है, वह ‘परतन्त्र’ कहलाता है। उदाहरणार्थ बीज आदि (हेतु) अङ्कुर को द्रव्यतः या स्वभावतः उत्पन्न करता है। आशय यह है कि बीज की द्रव्यतः सत्ता है, बाह्यार्थतः नहीं। अर्थात् द्रव्यसत् बीज द्रव्यसत् अङ्कुर को उत्पन्न करता है, बाह्यार्थतः सत् अङ्कुर को नहीं। यदि अङ्कुर स्वभावतः (द्रव्यतः) उत्पन्न नहीं होगा तो वह उत्पन्न ही नहीं होगा। क्योंकि ऐसी स्थिति में अङ्कुर का कल्पित उत्पाद मानना पड़ेगा और कल्पित उत्पाद से उत्पाद की व्यवस्था नहीं की जा सकती। यदि परतन्त्र स्वभावसत् रूप में उत्पन्न नहीं होगा तो उसमें परिकल्पित स्वभाव (लक्षण) का आरोप नहीं किया जा सकेगा। अर्थात् वह (परतन्त्र) कल्पित स्वभाव योगाचार दर्शन ४०१ के आरोप का आधार नहीं हो सकेगा, जैसे कोई जाने की इच्छा वाल पुरुष पगु के ऊपर नहीं चढ़ सकता। यदि उसमें आरोप नहीं किया जा सकेगा तो वह (परतन्त्र) कदापि आरोपित धर्म (परिकल्पित लक्षण) से शून्य भी सिद्ध नहीं हो सकेगा। परतन्त्र में परिकल्पित (आरोपित) लक्षण से शून्यता (रहितता) परिनिष्पन्न लक्षण कहलाती है। स्वभावसत् न होने की स्थिति में वह (परदत्र) परिनिष्पन्नलक्षण का आधार भी न हो सकेगा। इस तरह यदि परतन्त्र को स्वभावसत् (द्रव्यसत्) न माना जाएगा तो तीनों लक्षणों की व्यवस्था नहीं की जा सकेगी, क्योंकि परतन्त्र ही परिकल्पित और परिनिष्पन्न दोनों का आधार हुआ करता है। अतः परतन्त्र को निःस्वभाव मानना (जैसे कि माध्यमिक मानते हैं) तीनों लक्षणों का अपवाद करना है। ऐसी स्थिति में उच्छेदवाद का प्रसङ्ग होगा। अतः परतन्त्र स्टभावतः (द्रव्यतः) सत् है। इसी के आधार पर संसार और निर्वाण की या व्यवहार और परमार्थ की सारी व्यवस्था सुचारू रूप से सम्पन्न हो सकती है॥

आर्य-असङ्ग की बोधिसत्त्वभूमि, महायानसङ्ग्रह तथा आर्य मैत्रेयनाथ के महायानसूत्रालङ्कार आदि में इस विषय की विस्तृत चर्चा है। विशेषतः जानने के इच्छुक जिज्ञासुओं को उनका अवलोकन करना चाहिए।
उक्त प्रकार के परतन्त्रलक्षण में और शब्द और कल्पना द्वारा जो आरोपित किया जाता है, वह परिकल्पित लक्षण होता है। अर्थात् शब्द और कल्पना परतन्त्र में असत् (जो वस्तुतः नहीं है अर्थात् जो मिथ्या है) का समारोप करते हैं और उसी (आरोपित) को अपना विषय बनाते हैं। जैसे आधारभूत (परतन्त्र) घट में शब्द और कल्पना बाह्यार्थत्व का समारोप करते हैं और वही बाह्यार्थता उनका विषय होता है, जबकि बाह्यार्थता उस घट में में सर्वथा नहीं होती। इसी तरह वे (शब्द और कल्पना) घट को प्रमेय के रूप में, धर्म के रूप में भी विकल्पित करते हैं, तथापि प्रमेयत्व, धर्मत्व आदि मुख्य परिकल्पितलक्षण नहीं हैं, क्योंकि वे धर्मनैरात्म्य या परिनिष्पन्नलक्षण के प्रतिषेध्य नहीं होते। प्रमुख प्रतिषेध्य तो बाह्यार्थत्व या ग्राह्यग्राहक-द्वैत ही है और वही मुख्य परिकल्पित-लक्षण है।
का ज्ञात है कि परतन्त्र में यद्यपि शब्द और कल्पना द्वारा बाह्यार्थता (परिकल्पितलक्षण) का आरोपण किया जाता है, फिर भी वस्तुतः परतन्त्र उस बाह्यार्थता से रहित ही होता है। यह जो परतन्त्र में वस्तुतः बाह्यार्थता (परिकल्पितलक्षण) से रहितता (शून्यता) है, यही शून्यता ‘परिनिष्पन्नलक्षण’ है। यही विज्ञानवादियों का परमार्थसत्य, धर्मधातु, तथता या भूतकोटि है। यह शून्यता प्रसज्यप्रतिषेध रूप है, पर्युदासप्रतिषेध नहीं है। अर्थात् घट, पट आदि परतन्त्र में बहिरर्थता का अभावमात्र परिनिष्पन्नलक्षण है और घट, पट आदि परतन्त्रलक्षण हैं। परिनिष्पन्न और परतन्त्र में तादात्म्य सम्बन्ध होता है। परिनिष्पन्न परमार्थसत्य और परतन्त्र संवृतिासत्य है। परिनिष्पन्नता को सिद्ध करने के लिए विज्ञानवादी - अनेक युक्तियों का प्रयोग करते हैं। ४०२ बौद्धदर्शन _ विशेष ज्ञातव्य- विज्ञानवादी पदार्थमीमांसा के सम्यग् ज्ञान के लिए सबसे पहले यह जान लेना जरूरी है कि जब वे बाह्यार्थ का खण्डन करते हैं, तब ‘बाह्य’ से उनका तात्पर्य क्या है। अर्थात् किसे वे ‘बाह्य’ कहते हैं। सारा प्रपञ्च विज्ञान में न मानकर ज्ञेय पदार्थ यदि ज्ञान से भिन्न या बाहर माने जाते हैं तो यही ज्ञान से भिन्नता ‘बाह्यार्थता’ है। अर्थात् व्यक्ति द्वारा ज्ञान से भिन्न माने गये पदार्थ ही ‘बाह्य’ हैं। कहने का आशय यह है कि विज्ञानवादियों के अनुसार यही ‘बाह्य’ की सीमा है। इसके विपरीत उन्हें (सारे पदार्थों को) ज्ञान से स्वभावतः अभिन्न मानना ‘वास्तविकता’ या आन्तरिकता की सीमा है। अर्थात् सारा प्रपञ्च ज्ञान के गर्भ में स्थित है और स्वभावतः ज्ञान से अभिन्न है। इसे ही ‘विज्ञप्ति’ कहते हैं। घट, पट आदि सभी यद्यपि विज्ञान से एकात्मक हैं, तथापि वे विज्ञान ही नहीं हैं। अपितु विज्ञान के परिणाम हैं। घट, पट आदि जड हैं, जबकि विज्ञान जड नहीं होता, चित्तसन्तति में अनेक प्रकार की वासनाएं स्थित होती हैं। उन वासनाओं में से कोई एक समर्थ वासना परिपक्व होने पर घट और चक्षुर्विज्ञान के रूप में परिणत हो जाती है। अर्थात् उस वासनापरिणाम का एक अंश घट (विषय) एवं एक अंश उस विषय का ग्राहक (विषयी) विज्ञान के रूप में भासित होता है। वह विषय अर्थात् घट यद्यपि रूप (जड) होता है, फिर भी वह परमाणुओं से सञ्चित घट नहीं होता। उन विभिन्न प्रकार की वासनाओं के आश्रय के बारे में विज्ञानवादियों के दो प्रकार के मत हैं। आगमानुयायी विज्ञानवादी कहते हैं कि उन वासनाओं का आश्रय आलयविज्ञान होता है, जबकि अन्य प्रकार के बौद्ध जो आलयविज्ञान नहीं मानते, वासनाओं का आश्रय मनोविज्ञान को मानते हैं। आगमानुयायी विज्ञानवादी प्रयत्नपूर्वक विभिन्न युक्तियों के द्वारा आलयविज्ञान को सिद्ध करते हैं।
ज्ञात है कि प्रायः सभी बौद्ध विज्ञानों की संख्या छह मानते हैं, यथा- चक्षुर्विज्ञान, श्रोत्रविज्ञान, घ्राणविज्ञान, जिवाविज्ञान, कायविज्ञान एवं मनोविज्ञान । यद्यपि स्थविरवादी चि त्तों की संख्या ८६ या १२१ मानते हैं, फिर भी उनका उपर्युक्त छह विज्ञान में अन्तर्भाव हो जाता है। चित्त, विज्ञान, मनस् एवं विज्ञप्ति पर्यायवाची हैं। किन्तु आगमानुयायी विज्ञानवादियों की स्थिति इससे भिन्न है। वे उपर्युक्त छह विज्ञानों के अलावा आलयविज्ञान और क्लिष्ट मनोविज्ञान की भी सत्ता मानते हैं। फलतः इनके मत में विज्ञानों की संख्या आठ हो जाती है। अर्थात् आगमानुयायी विज्ञानवादी अष्टविज्ञानवादी होते हैं। आलयविज्ञान और क्लिष्ट मनोविज्ञान को लेकर आगामनुयायी और उनसे भिन्न बौद्ध दार्शनिकों में बहुत वाद-विवाद हैं। आगमानुयायी विज्ञानवादी अन्य बौद्ध दार्शनिकों द्वारा प्रयुक्त युक्तियों का खण्डन करके प्रमाणपूर्वक आलयविज्ञान और क्लिष्ट मनोविज्ञान की सिद्ध करते हैं।

आलयविज्ञान और क्लिष्ट मनोविज्ञान

(क) आलयविज्ञान- आलयविज्ञान का प्रतिपादन हम उसका तीन विचारबिन्दुओं में हैं ४०३ योगाचार दर्शन विभाजन करके प्रस्तुत करेंगे, यथा- (१) लक्षण (२) युक्ति तथा (३) एक या नौ विज्ञान मानने वालों का खण्डन।
ज्ञातव्य है कि वासनाओं के आश्रय विज्ञान को भी ‘आलय’ कहते हैं तथ उसमें आश्रित वासनाओं को भी ‘आलय’ कहते हैं। आश्रय विज्ञान को ‘विपाक आलय’ एवं आश्रित वासनाओं को ‘बीज-आलय’ कहते हैं। उनमें से प्रथम आश्रयभूत विपाक आलय ही ‘आलयविज्ञान’ कहलाता है।
(१) लक्षण- चक्षुष आदि इन्द्रिय, रूप-शब्द आदि अर्थ तथा वासना इन तीनों को यथायोग्य आलम्बन बनाकर अपरिच्छिन्नालम्बन, अपरिच्छिन्नाकार एवं अनिवृताव्याकृत रूप में उत्पन्न मनोविज्ञान आलयविज्ञान का लक्षण है। इन्द्रिय शब्द से पांचों इन्द्रियों और उन इन्द्रियों से सम्पन्न सत्व (प्राणी) का ग्रहण करना चाहिए। ‘अर्थ’ शब्द से रूप, शब्द, गन्ध, रस एवं स्प्रष्टव्य इन पांचों विषयों का ग्रहण करना चाहिए। तथा ‘वासना’ शब्द से आत्मा और धर्मों को बाह्मार्थ के रूप में कल्पित (आरोपित) करके उनमें (आरोपित बाह्यार्थ में) अभिनिविष्ट विकल्पों द्वारा प्रक्षिप्त (आलयविज्ञान में स्थापित) वासनाओं का ग्रहण करना चाहिए। चार वाकानात किमान । अपरिच्छिन्न आलम्बन एवं आकार- यद्यपि आलय विज्ञान में भाजन (इन्द्रिय एवं अर्थ) और सत्वों का प्रतिभास तो होता है, किन्तु उन आलम्बनों का एवं उनके आकारों का आलयविज्ञान स्पष्टता परिच्छेद (अवबोध या निश्चय) नहीं कर पाता तथा न तो उस प्रतिभास के बाद आलयविज्ञान किसी निश्चायक (निश्चय करने वाले) ज्ञान को अपने बल से आनीत (उत्पन्न) करने में समर्थ होता है। अतः वह अपरिच्छिन्नालम्बन एवं अपरिच्छिन्नाकार कहलाता है।
र अनिवृताव्याकृत- वह आलयविज्ञान अनिवृत और अव्याकृत होता है। वह अनिवृत इसलिए है, क्योंकि स्वरूपतः वह क्लेश आवरणों से आवृत नहीं होता। इसका कारण यह है कि वह आनन्तर्य समाहित मार्ग की अवस्था में भी विद्यमान होता है। समाधि की अवस्था में जिस समय आर्य साधक योगी में तत्त्व (शून्यता) का साक्षात्कारी ज्ञान (मार्ग) उत्पन्न होता है, उसे आर्य की ‘समाहित अवस्था’ कहते हैं। इस अवस्था के भी दो भाग होते हैं, यथा आनन्तर्य समाहित अवस्था एवं विमुक्ति-समाहित-अवस्था। इसे ही क्रमश. आनन्तर्य आर्यमार्ग एवं विमुक्ति आर्य मार्ग भी कहते हैं। आनन्तर्य मार्ग की अवस्था में क्लेशों, आवरणों और मलों का आत्यन्तिक प्रहाण होता है। तथा विमुक्ति मार्ग उस प्रहाण को धारण करने वाला आधार होता है। यदि आलयविज्ञान आवरणों से युक्त होता तो आवरणों का प्रहाण करने वाले आनन्तर्य समाहित मार्ग की अवस्था में उसका विद्यमान रहना सम्भव नहीं होता। अतः वह अनिवृत है। आलयविज्ञान न कुशल होता है और न अकुशल, क्योंकि दोनों अवस्थाओं में वह विद्यमान होता है और दोनों द्वारा स्थापित वासनाओं को धारण व ४०४ बौद्धदर्शन करता है तथा दोनों के अनुकूल होता है तथा वह कुशल और अकुशल का विपाक हुआ करता है। जो विपाक होता है, उसका कुशल अथवा अकुशल में संग्रह नहीं किया जा सकता। अतः कुशल अथवा अकुशल के रूप में व्याकृत (विभाजित) नहीं किया जा सकने के कारण वह ‘अव्याकृत’ भी है। ___ मनोविज्ञान- आलयविज्ञान, क्योंकि चक्षुष आदि रूपी इन्द्रियों से उत्पन्न ज्ञान नहीं है, अतः ‘मनस्’ कहलाता है। वह विज्ञान इसलिए है, क्योंकि चित्त-चैतसिकों के अन्तर्गत वह एक चित्त है तथा चित्त और विज्ञान एकार्थक है।
___ यदि आलयविज्ञान चित्त है तो उसमें चैतसिकों को सम्प्रयुक्त होना चाहिए, क्योंकि बिना चैतसिकों के कोई चित्त नहीं हुआ करता। विज्ञानवादी उसमें पाँच चैतसिकों का सम्प्रयोग मानते हैं, यथा-स्पर्श, मनस्कार, वेदना, संज्ञा और चेतना। इन पांच चैतसिकों के अतिरिक्त कोई अन्य चैतसिक आलयविज्ञान से सम्प्रयुक्त नहीं होता। यद्यपि वेदना त्रिविध होती है- सुख, दुःख और उपेक्षा। किन्तु तीनों प्रकार की वेदनाएं आलयविज्ञान से सम्प्रयुक्त नहीं होतीं, अपितु केवल उपेक्षा वेदना ही उससे सम्प्रयुक्त होती है। नाव यह विशेषतः ज्ञातव्य है कि आलयविज्ञान की आलम्बनभूत वासना, जो उसमें आभासित होती है, वह आलयविज्ञान से न तो द्रव्यतः भिन्न होती है और न अभिन्न। वह वस्तुतः आलयविज्ञान से भिन्नाभिन्नत्वेन अनिर्वचनीय है।

कतिपय प्रश्न

यदि वासना आलयविज्ञान से अभिन्न है तो उसका आलयविज्ञान में आभासित होना कैसे सम्भव है ? उत्तर- वासना आभासित होकर आलयविज्ञान की आलम्बन नहीं हुआ करती, अपितु उस वासना के बल से आलयविज्ञान में अर्थ, इन्द्रिय आदि भाजन एवं सत्त्व प्रतिभासित होते हैं। अतः कारण में कार्य का उपचार करके वह (वासना) भी आलयविज्ञान का आलम्बन कही जाती है। __प्रश्न- सभी प्राणियों में आलयविज्ञान होता है और उसमें रूप आदि अर्थ, इन्द्रिय (सत्त्व) और वासनाएं भासित होते हैं। अर्थात् ये (अर्थ आदि) उसके आलम्बन होते हैं। बौद्ध मान्यता के अनुसार तीन लोक होते हैं- कामलोक, रूपलोक और अरूपलोक। काम और रूपलोक में तो रूपी (जड) पदार्थों का अस्तित्व होता है, किन्तु अरूपलोक में तो उनका सर्वथा अस्तित्व नहीं होता। ऐसी स्थिति में प्रश्न है कि अरूपलोक के प्राणियों में विद्यमान आलयविज्ञान में अर्थ, इन्द्रिय आदि भाजन एवं स त्त्वों का प्रतिभास होता है कि नहीं ? योगाचार दर्शन ४०५ उत्तर- नहीं होता। अरूपभूमि के सत्त्वों के आलयविज्ञान में यदि अर्थ, इन्द्रिय (भाजन और सत्त्व) आदि का साक्षात् प्रतिभास होगा तो उन सत्त्वों के मनोविज्ञान द्वारा उन (अर्थ, इन्द्रिय) का व्यवहार होने लगेगा, क्योंकि प्रत्यक्ष ज्ञानों में जिन विषयों का प्रतिभास होता है, उनका मनोविज्ञान द्वारा व्यवहार होता है। ऐसी स्थिति में वे अरूपी (अरूप लोक के) सत्त्व रूपी (रूपलोक के) सत्त्व हो जाएंगे। अपि च, यदि अरूपलोक के आलयविज्ञान में भाजन और सत्त्वों का प्रतिभास होगा तो अरूपी सत्त्व रूपी संज्ञा वाले होने लगेंगे। तथा अरूप भूमि के जिन सत्त्वों ने अरूप भूमि में उत्पन्न होने के लिए पहले रूपविरागभावना का अभ्यास करके रूप संज्ञा का प्रहाण किया है, उन्हें अरूप भूमि में उत्पन्न होने पर भी पुनः यदि रूपों (अर्थ, इन्द्रिय आदि) का प्रतिभास होने लगेगा तो उनकी ध्यान भावना व्यर्थ हो जाएगी। 13 प्रश्न- आलयविज्ञान क्यों कुशल या अकुशल न होकर केवल अनिवृताव्याकृत ही होता है? उत्तर- बात यह है कि आलयविज्ञान कुशल एवं अकुशल दोनों द्वारा वासित (वासना का आधार) होता है। यदि वह कुशल होगा तो अकुशल वासना द्वारा वासित नहीं किया जा सकेगा। इसी तरह अकुशल के बारे में भी जानना चाहिए। साथ ही वह एक ही सन्तान में कुशल की प्रवृत्ति के समय और अकुशल की प्रवृत्ति के समय साक्षात् रूप से विद्यमान होता है। इसलिए उसे अनिवृताव्याकृत पक्ष में व्यवस्थापित किया जाता है। ऐसा होने पर वह परस्पर विरोधी (कुशल-अकुशल) दोनों के अनुकूल होता है।
प्रश्न- आलयविज्ञान के साथ स्पर्श आदि केवल पांच सर्वत्रग चैतसिक ही क्यों सम्प्रयुक्त होते हैं, जबकि चैतसिक ५१ होते हैं ? । उत्तर- ज्ञात है कि आलविज्ञान अनिवृताव्याकृत है, कुशल या अकुशल नहीं। अतः उसमें ११ कुशल चैतसिक, ६ क्लेश चैतसिक एवं २० उपक्लेश चैतसिक सम्प्रयुक्त नहीं हो सकते। क्योंकि कुशल चित्त के साथ ही कुशल चैतसिक और अकुशल चित्त के साथ ही क्लेश-उपक्लेश चैतसिक सम्प्रयुक्त हो सकते हैं। इसमें ५ विनियत चैतसिक भी सम्प्रयुक्त नहीं हो सकते, क्योंकि वे अपने आलम्बन और उनके आकार का स्पष्टतया परिच्छेद करते हैं, जबकि आलयविज्ञान अपरिच्छिन्नालम्बन एवं अपरिच्छिन्नाकार होता है। अतः वे उसमें सम्प्रयुक्त नहीं होते। ४ अनियत चैतसिक भी उसमें सम्प्रयुक्त नहीं होते, क्योंकि जिस प्रकार के आधार (सविकल्पक ज्ञान) में उनका सम्प्रयोग हो सकता है, आलयविज्ञान वैसा आधार नहीं है।
र पाँच सर्वत्रग चैतसिकों से आलयविज्ञान का सम्प्रयुक्त होना आवश्यक है। क्योंकि स्पर्श चैतसिक तो सभी चित्त-चैतसिकों का कारण होता है, अतः वह अवश्य सम्प्रयुक्त होगा। सभी चि त्तों में कोई न कोई वेदना अवश्य होती है, अतः सुख, दुःख और उपेक्षा कवि ४०६ बौद्धदर्शन इन त्रिविध वेदनाओं में से उपेक्षा वेदना आलयविज्ञान में सम्प्रयुक्त होती है। आलम्बन के सभी आकारों का ग्रहण सभी चित्तों का कृत्य होता है, अतः संज्ञा चैतसिक का सम्प्रयोग भी आवश्यक है। सभी चित्त विषय की ओर उन्मुख होते हैं, अतः चेतना चैतसिक भी सम्प्रयुक्त होता है तथा सभी चि त्त आलम्बन का सन्धारण करते हैं या आलम्बन में आधृत होते हैं, अतः मनस्कार चैतसिक के साथ भी उनका सम्प्रयोग होता है। 15 प्रश्न- आलयविज्ञान के साथ क्यों केवल मध्यस्थ अर्थात् उपेक्षा वेदना का ही सम्प्रयोग होता है, सुख और दुःख वेदनाओं का नहीं ? उत्तर- यदि आलयविज्ञान के साथ वेदना का सम्प्रयोग माना जाएगा तो चतुर्थ ध्यान के ऊपर की अवस्थाओं एवं भूमियों में भी सुख वेदना विद्यमान होने लगेगी और नरक में भी विपाक सुख होने लगेगा।
__ यदि उसके साथ दुःख वेदना का सम्प्रयोग माना जाएगा तो रूपी और अरूपी ध्यान भूमियों में भी दुःख का प्रक्षेप लगेगा और वे दुःखा वेदना की भूमियाँ होने लगेंगी।
प्रश्न- उक्त प्रकार के विपाक की निवृत्ति कब होती है ? किन उत्तर- यद्यपि आलयविज्ञान को विपाकविज्ञान कहा जाता है, फिर भी दोनों में फर्क करना चाहिए। जो आलय विज्ञान होता है, वह अवश्य विपाकविज्ञान होता है, किन्तु जो विपाकविज्ञान होता है, उसका आलयविज्ञान होना जरूरी नहीं है। विपाकविज्ञान निरूपधिशेष निर्वाण की अवस्था में विद्यमान नहीं रहता तथा महायानी दशमभूमि की वज्रोपमसमाधि के अनन्तर भी विद्यमान नहीं रहता। इन दो अवस्थाओं को छोड़कर कभी भी किसी भी अवस्था में उसका अभाव नहीं होता। पुद्गल जब किसी जन्म में अर्हत्व प्राप्त करता है, तब अर्हत्व प्राप्त करते ही उसके विपाकविज्ञान की निवृत्ति नहीं होती, अपितु जब तक वह निरूपधिशेष निर्वाण प्राप्त नहीं करता, तब तक उसकी प्रवृत्ति होते रहती है। क्योंकि वह पूर्व कर्मों का विपाक है और विपाक यावज्जीवन प्रवृत्त होने वाला होता है। यही बात बोधिसत्व की वज्रोपम समाधि तक भी लागू है। तिम ज्ञात है कि आलयविज्ञान के दो अंश होते हैं-विपाकांश और वासना-अंश। ऊपर कहा गया है कि समस्त सांक्लेशिक धर्म आलयविज्ञान से कार्यरूप से सम्बद्ध रहते हैं तथा आलयविज्ञान उन सबमें कारण रूपेण सम्बद्ध रहता है। क्लिष्ट मनोविज्ञान आलयविज्ञान को ही आत्मा के रूप में ग्रहण करता है। अर्थात् वह आलयविज्ञान से आत्मदृष्ट्या सम्बद्ध रहता है। इन सब कारणों की वजह से विपाक (विपाकांश) को ‘आलयविज्ञान’ यह संज्ञा प्राप्त होती है। जब क्लिष्ट मनोविज्ञान समाप्त हो जाता है तब विपाकविज्ञान ‘आलयविज्ञान’ नहीं रह जाता, फिर भी विपाकविज्ञान अवशिष्ट रहताहैं फलतः जब पुद्गल अर्हत्व प्राप्त करता है, तब उसकी सोपाधिशेष अवस्था में ही उसका क्लिष्टविज्ञान नहीं रहता और उसकी वासनाएं समाप्त हो जाती हैं। इसी तरह महायान की अष्टम भूमि को प्राप्त योगाचार दर्शन ४०७ अवैवर्तिक बोधिसत्त्व की अवस्था में भी वासना-अंश समाप्त हो जाता है, फलतः आलयविज्ञान की ‘आलयविज्ञान’ यह संज्ञा समाप्त हो जाती है, फिर भी उस पुद्गल की सन्तति में जब तक निरूपधिशेष निर्वाण प्राप्त नहीं होता या वज्रोपम समाधि की अवस्था नहीं आती, तब तक विपाकविज्ञान प्रवृत्त होता है।

आश्रित ‘बीज-आलय’

लक्षण- ज्ञात है कि आगमानुयायी विज्ञानवादी आठ विज्ञान मानते हैं- चक्षुर्विज्ञान, श्रोतविज्ञान, घ्राणविज्ञान, जिह्वाविज्ञान, काय, मनोविज्ञान, क्लिष्ट मनोविज्ञान एवं आलय विज्ञान। इनमें से आलयविज्ञान वासनाओं का आधार होता है, अतः वह ‘वास्य’ (वासित करने योग्य) कहलाता है तथा बाकी के सात विज्ञान (अर्थात् सप्तगण) उसमें वासना स्थापित करते हैं, अतः ‘वासक’ कहलाते हैं। इनमें से केवल क्लिष्ट मनोविज्ञान अव्याकृत होता है और बाकी के छह विज्ञान (षड्गण) कुशल, अकुशल और अव्याकृत तीनों होते हैं। उपर्युक्त सातों विज्ञान अपनी निरुद्ध होने की अवस्था में आलयविज्ञान में अपने बीज (वासना) स्थापित करते हैं। बीज के रूप में स्थापित यही शक्ति ‘आश्रित बीज- आलय’ कहलाती है। षड् गण अर्थात् छह विज्ञान कुशल, अकुशल और अव्याकृत तीनों प्रकार के बीज स्थापित करते हैं तथा क्लिष्ट मनोविज्ञान केवल अव्याकृत ही होने से अव्याकृत बीज ही स्थापित करता है।
_प्रश्न- उपर्युक्त सपरिवार वासक सातविज्ञान (सप्तगण) ही क्यों बीज स्थापित करने वाले के रूप में निश्चित है ? उत्तर- उपर्युक्त सात विज्ञान ‘प्रवृत्तिविज्ञान’ भी कहलाते हैं। प्रवृत्तिविज्ञान और आलयविज्ञान परस्पर हेतु- फलभाव के रूप में सम्बद्ध होते हैं। प्रवृत्तिविज्ञान अपने द्वारा आलयविज्ञान में पहले स्थापित बीजों को परिपुष्ट भी करते हैं और उस समय वे ‘बीज-आलय’ के अधिपतिप्रत्यय कहलाते हैं तथा नवीन बीजों को स्थापित भी करते हैं और उस समय वे ‘बीज-आलय’ के हेतुप्रत्यय होते हैं। ये प्रवृत्तिविज्ञान मृत्यु के अनन्तर अगले जन्म में प्रतिसन्धि करने वाले आलयविज्ञान में बीज स्थापित करते हैं।
प्रश्न- वास्य आलयविज्ञान को किन-किन विशेषणों से युक्त होना चाहिए ? उत्तर-आलयविज्ञान निम्नलिखित पाँच विशेषणों से युक्त होता है: (१) वास्य (वासना के आधार) आलयविज्ञान को एक स्थिर (दृढ़) विज्ञान होना चाहिए। अर्थात् उसे धारावाहिक क्षणिक परम्परा के रूप में सर्वदा प्रवाहित होते रहना चाहिए। तभी उस पर वासना स्थापित की जा सकेगी। उसे शब्द और विद्युत की भाँति नितान्त अस्थिर नहीं होना चाहिए, क्योंकि उस स्थिति में उस पर न तो वासना आहित की जा सकेगी और आहित हो भी जाए तो भी वह व्यर्थ होगी। इसीलिए सप्तगण विज्ञान और रूप, शब्द आदि वासना के आधार नहीं माने जाते।
४०८ बौद्धदर्शन __(२) वास्य आलविज्ञान को अव्याकृत होना चाहिए। क्योंकि अव्याकृत विज्ञान कुशल या अकुशल न होकर एक मध्यस्य विज्ञान होता है और ऐसा मध्यस्थ विज्ञान ही वासना स्थापित करने के अनुकूल होता है। उदारणार्थ जैसे उग्र गन्ध वाले लहसुन, हींग आदि द्रव्यों में या चन्दन आदि में कोई दूसरा गन्ध-द्रव्य रखा भी जाए तो भी उस गन्धद्रव्य की गन्ध उन लहसुन या चन्दन आदि विषम गन्ध वाले द्रव्यों में स्थापित नहीं की जा सकती, किन्तु वही गन्ध-द्रव्य यदि पानी आदि समगन्ध वाले द्रव्य में रखा जाता है तो उसकी गन्ध स्थापित हो जाती है। इसी तरह मध्यस्थ अव्याकृत आलयविज्ञान में ही कुशल, अकुशल आदि की वासना स्थापित की जा सकती है। क्योंकि वह कुशल, अकुशल दोनों के विरुद्ध नहीं होता।
(३) उसे (आधार को) अवलेप्य (जिस पर लेप किया जा सके) होना चाहिए। अर्थात् उसे अनित्य एवं संस्कृत होना चाहिए, क्योंकि आकाश आदि नित्य पदार्थों पर कोई चीज चढ़ाई नहीं जा सकती।
(४) उसे स्थापन (आधान) क्रिया से सम्बद्ध होना चाहिए। अर्थात् वासक (स्थापक) और वास्य (स्थाप्य) में ऐसा सम्बन्ध होनाचाहिए कि दोनों का एक काल और एक सन्तान में उत्पाद और एक काल में निरोध हो। क्योंकि भिन्न सन्तान और भिन्न काल में होने वाले दो द्रव्यों में वास्य-वासकभाव नहीं हो सकता।
(५) उसे एकान्त रूप से सर्वदा आश्रय ही होना चाहिए। अर्थात् उसे कदापि आश्रित नहीं होना चाहिए। साथ ही गौण रूप से नहीं, अपितु मुख्य रूप से आश्रय होना चाहिए। आलयविज्ञान से सर्वदा सम्प्रयुक्त होने वाले स्पर्श आदि पांच सर्वत्रग चैतसिक भी वास्य नहीं हो सकते, क्योंकि वे मुख्य आलयविज्ञान नामक चित्त में आश्रित होते हैं, अतः वे एकान्ततः आश्रय नहीं हैं।

वासना के प्रकार

वासनाओं के अनन्त प्रकार हैं, किन्तु शास्त्रों में विद्वानों ने उनके अनेक प्रकार के श्रेणी-विभाजन किये हैं, यथा- (१) छह प्रकार (२) तीन प्रकार तथा (३) चार प्रकार।
(१) छह प्रकार (क) बाह्यवासना- यव, उत्पल (कमल) आदि बाह्य धर्मों के बीज ‘बाह्यवासना’ कहलाते हैं।
(ख) अन्तर्बीज- यह आलयविज्ञान में स्थित यह बीजांश हैं, जिससे भविष्य में पुनः आलयविज्ञान की उत्पत्ति होती है।
व (ग) अव्यक्त बीज- दो प्रकार के अव्याकृत बीज ही दो प्रकार के अव्यक्त बीज होते हैं। अर्थात् परीक्षा करने पर जिनका संक्लेश और व्यवदान में या कुशल या अकुशल में योगाचार दर्शन ४०६ व्याकरण या विभाजन नहीं किया जा सकता, वे अव्याकृत बीज ही द्विविधि अव्यक्त बीज (घ) द्विबीज- कार्य बीज और कारण बीज या बहिर्बीज और अन्तर्बीज ही ‘द्विबीज’ कहलाते हैं, इनकी वजह से आलय भी कार्य आलय एवं कारण आलय- इस प्रकार द्विविध होता है।
(ङ) संवृतिबीज- यह बाह्य बीज के अन्तर्गत परिगणित व्यावहारिक बुद्धि का विषय (च) परमार्थ बीज- यह अन्तर्बीज के अन्तर्गत परिगणित बीज है। (२) तीन प्रकार (क) अभिलाप वासना - रूप से लेकर सर्वज्ञ ज्ञान पर्यन्त सभी धर्मों के नाम और निमित्त के उत्पादक बीज, जो आलयविज्ञान में स्थित हैं ‘अभिलाप वासना’ कहलाते हैं। ये बीज ही विभिन्न नाम-व्यवहार करने वाले मनोविज्ञान के हेतु होते हैं। अर्थात् रूप से लेकर सर्वज्ञ ज्ञान तक होने वाले संक्लेश-व्यवदान नामक १०८ धर्म जब मनोविज्ञान में आभासित होते हैं तो इन बीजों की वजह से उनका नामव्यवहार सम्पन्न होता हैं नाम द्वारा मनोविज्ञान में इन धर्मों की आकृति बनती है। इसे ‘प्रपञ्च-वासना’ भी कहते हैं। विभिन्न विषयों में व्यावहारिक मनोविज्ञान की प्रवत्ति का बीज यह ‘प्रपञ्चवासना’ ही होती है। यह वासना इसलिए ‘अभिलाप वासना’ कहलाती है, क्योंकि ‘चक्षुष’ ‘रूप’ इस प्रकार के अभिधानाकार वाले मानस ज्ञान की यह वासना (उत्पादिका) होती है। यह वासना सपरिवार मनोविज्ञान द्वारा स्थापित की जाती है तथा उसी के द्वारा सपरिवार मनोविज्ञान उत्पन्न होते हैं। ‘परिवार’ का तात्पर्य चैतसिकों से है।
(ख) आत्मदृष्टि वासना- यह वासना क्लिष्ट मनोविज्ञान और उससे सम्प्रयुक्त चैतसिकों द्वारा स्थापित की जाती है। यही वासना ‘स्व’ (आत्मा) और ‘पर’ के रूप में आभासित होने वाली विज्ञप्तियों के उद्भव का बीज होती है। इसे ही ‘सत्कायदृष्टि वासना’ भी कहते हैं, क्योंकि यह सत्कायदृष्टि का बीज है।
(ग) भवाङ्गवासना- यह कुशल एवं अकुशल नामक प्रवृत्तिविज्ञानों द्वारा स्थापित की जाती है। यही भवरूपी सुगति और दुर्गति तथा च्युति और उत्पत्ति जिसमें प्रतिभासित होती है, ऐसी विज्ञप्तियों के उद्भव की बीज है।
(३) चार प्रकार (क) साधारण बीज- ये आलयविज्ञान में स्थित वे बीज हैं, जिनकी वहज से भाजनलोक प्रतिभासित होता है। मला न (ख) असाधारण बीज- ये आलयविज्ञान में स्थित वे बीज हैं, जिनसे सत्त्वलोक प्रतिभासित होता है।
४१० बौद्धदर्शन शिक (ग) सवेदन या सचेतन बीज- सत्त्वलोक को निष्पन्न करने वाले बीज ही ‘सवेदन (वेदना से युक्त) बीज’ या ‘सचेतन (चेतना से युक्त) बीज’ हैं, क्योंकि सत्त्वलोक चित्त से संगृहीत है। माल (घ) अवेदन या अचेतन बीज-भाजनलोक को निष्पन्न करने वाले बीज ही ‘अवेदन (वेदनारहित) या अचेतन (अविज्ञानक= चेतनारहित) बीज’ हैं, क्योंकि भाजनलोक चित्त द्वारा संगृहीत नहीं है।
पुनश्च, वासना (बीज) आलयविज्ञान से द्रव्यतः अभिन्न नहीं है। यदि अभिन्न (एक) होगी तो आलयविज्ञान की भांति उस (वासना) में भी आलम्बन और आकार प्रतिभासित होने लगेंगे। जबकि आलम्बन और आकर ज्ञान में ही प्रतिभासित हो सकते हैं, आलयविज्ञानस्थित बीजांश में नहीं। अपि च, पांचों गतियों (नरक, प्रेत, तिर्यक् मनुष्य और देव) के सभी बीज मिश्रित होने लगेंगे, क्योंकि वे सब आश्रयभूत आलयविज्ञान के एक क्षण से द्रव्यतः अभिन्न (एक) हैं। क्योंकि आलयविज्ञान का एक क्षण एक निरवयव द्रव्य है, फलतः पांचों गतियों के बीज भी एक निरवयव द्रव्य होंगे। ऐसी स्थिति में सुगतिविपाक के बीज अकुशल (स्थापक) द्वारा स्थापित होने लगेंगे और दुर्गतिविपाक के बीज सुगतिविपाक के बीज होने लगेंगे। वासना को भिन्न भी नहीं माना जा सकता। वैसी स्थिति में एक सत्त्व में दो आलय होने लगेंगे। दो आलयविज्ञान होने से वह स व एक न रह सकेगा, अपितु वह अनेक होने लगेगा।
_फलतः यह मानना चाहिए कि वासना आलयविज्ञान से न द्रव्यतः एक (अभिन्न) है और न भिन्न। वस्तुस्थिति यह है कि वासना वस्तुतः द्रव्य ही नहीं है। फिर उसका स्वरूप क्या है ? इस जिज्ञासा के समाधान में यह माना जाता है कि वह आलयविज्ञान की एक अन्तःसुप्त शक्ति है, जिसकी गौण सत्ता है।

गोत्र विचार

गोत्र दो प्रकार के होते है, यथा- (१) प्रकृति गोत्र तथा (२) परिपुष्ट गोत्र।
(१) प्रकृति गोत्र- यह ‘स्वभावगोत्र’ भी कहलाता है। स्थापक से अनपेक्ष, स्वभावतः स्थित, अनास्रव धर्मों के बीज ‘प्रकृतिगोत्र’ कहलाते हैं। वे (बीज) पर तो घोष अर्थात् शास्ता आदि कल्याणमित्रों के वचन और योनिशोमनस्कार आदि प्रत्ययों से स्पृष्ट होने पर श्रुत, चिन्ता, भावना द्वारा वृद्धिंगत होने के योग्य होते हैं। ये ‘स्वभावगोत्र’ इसलिए कहलाते है। क्योंकि ये स्थापकों द्वरा नए नए रूप में स्थापित न होकर अनादिकाल से स्वभावतः स्थित होते हैं। प्रकृतिगोत्र को श्रुतवासना भी कहते हैं, क्योंकि वह बुद्ध या बोधिस त्त्वों के साथ समागम होने पर विशुद्ध धर्मधातु के अनुकूल द्वादशाङ्ग प्रवचन आदि उपदेशों के श्रवण का कारण होता है। इसे षडायतन व्यावर्तक (भेदक) भी कहते हैं, क्योंकि वह जिस पुद्गल की सन्तान में होता है, उस पुद्गल के षडायतन दूसरों से भिन्न किये जा सकते हैं।
योगाचार दर्शन ४११ । (२) परिपुष्ट गोत्र- उक्त प्रकृतिगोत्र ही दूसरे कल्याणमित्रों के वचन और योनिशो मनसिकार आदि प्रत्ययों से संस्पृष्ट होकर श्रुत, चिन्ता, भावना आदि द्वारा वृद्धिगत होकर प्रबल और शक्तिमान् हो जाता है।
प्रकृति और परिपुष्ट नामक उपर्युक्त दोनों गोत्र विपाक या आलयविज्ञान में स्थित अनासव बीज ही हैं, जो श्रुत, चिन्ता, भावना आदि द्वारा बढ़ाए जाते हैं, वे किसी स्थापक द्वारा नए रूप में स्थापित नहीं हैं।
वा । इन्हें गोत्र इसलिए कहते हैं, क्योंकि इनके द्वारा तीनों यानों के गुण उत्पन्न होते हैं।
वासना यद्यपि वस्तु है, किन्तु द्रव्यसत् नहीं है। आर्य असङ्ग एवं वसुबन्धु दोनों भाइयों के मत में दो प्रकार की वस्तु मानी जाती है, यथा- १. द्रव्यसत् तथा २. प्रज्ञप्तिसत्। विप्रयुक्तसंस्कार यद्यपि वस्तु है, किन्तु द्रव्यसत् नहीं। विप्रयुक्तसंस्कार वासनाविशेष है।
प्रश्न- वासना कुशल होती है, अकुशल होती है या अव्याकृत।
उत्तर- वासना के स्थापक कुशल, अकुशल या अव्याकृत कोई भी हों, वासना सर्वदा अव्याकृत ही होती है।
या विशेष ज्ञातव्य- अनासव बीज धर्मकाय के बीज होते हैं। धर्मकाय अनेकविध हैं। उनमें से वासना के साथ क्लेशावरण और ज्ञेयावरण का प्रहाण ‘आगन्तुक विशुद्ध धर्मकाय’ कहलाता है। बल, वैशारद्य आदि का आश्रय ‘ज्ञानधर्म काय’ कहलाता है। प्रकृतिस्थ गोत्र या स्वभावगोत्र ‘स्वभाव धर्मकाय’ का हेतु है। आर्य की समाहित अवस्था का निर्विकल्प ज्ञान धर्मकाय का हेतु एवं पृष्ठलब्ध अवस्था का ज्ञान रूपकाय अर्थात् सम्भोगकाय एवं निर्माणकाय का हेतु होता है।
योगाचार से इतर अन्य ग्रन्थों में सम्भारद्वय अर्थात् ज्ञानसम्भार एवं पुण्यसम्भार क्रमशः कायद्वय अर्थात् धर्मकाय और रूपकाय के हेतु कहे गये हैं।
अतएव असंस्कृत काय एवं संस्कृत काय के गोत्रों का वैसे ही असंस्कृत गोत्र एवं संस्कृत गोत्र होना आवश्यक नहीं है। इसलिए जो लोग स्वभाव धर्मकाय (असंस्कृत काय) का एक असंस्कृत गोत्र मानते हैं, उनका वैसा मानना अयुक्त है। अन्यथा संस्कृत काय के सम्भोगकाय और निर्माणकाय ये दो भेद होने से उन दोनों के गोत्र भी भिन्न-भिन्न मानना पड़ेगा। न मि आलय द्विविध होता है। आलयविज्ञान स्थित बीजों को भी ‘आलय’ कहते हैं और पूर्व कुशल, अकुशल कर्मों से उत्पन्न विपाकविज्ञान को भी ‘आलय’ कहते हैं। बीजांश को आलय इसलिए कहते हैं, क्योंकि वह क्लेश और कर्मों से उत्पन्न संक्लिष्ट धर्मों का हेतु होता है। अतः सभी फलरूपी संक्लिष्ट धर्म इसमें कार्यत्वेन उपनिबद्ध होते हैं अथवा यह उन सभी संक्लिष्ट धर्मों में कारणत्वेन उपनिबद्ध होते होता है। लिन त । ४१२ बौद्धदर्शन विपाकांश (आश्रय) को ‘आलय’ इसलिए कहते हैं, क्योंकि इसमें पाँचों गतियों के सभी सत्त्व क्लिष्ट मनोविज्ञान द्वारा आत्मत्वेन उपनिबद्ध कर दिये जाते हैं। अर्थात् वे सभी सत्त्व आलयविज्ञान को क्लिष्ट मनोविज्ञान द्वारा आत्मत्वेन गृहीत करते हैं। पर निक एक प्रश्न- उक्त बीजांश आलय एवं विपाकांश आलय की निवृत्ति कब होती है ? मा उत्तर- संक्लिष्ट धर्मों में कारणत्वेन उपनिबद्ध होने से तथा क्लिष्ट मनोविज्ञान द्वारा आत्मत्वेन उपनिबद्ध होने से अष्टम भूमि के अवैवर्तिक बोधिसत्त्वों, श्रावक अर्हत्, प्रत्येकबुद्ध अर्हत् एवं तथागतों में बीजांश आलय नहीं होता, और आलयविज्ञान भी नहीं होता, क्योंकि उन्होंने सभी क्लेशों और उनके बीजों का प्रहाण कर दिया है।
ज्ञातव्य है कि विपाकांश तब तक आलयविज्ञान कहलाता है, जब तक वह क्लिष्ट मनोविज्ञान द्वारा आत्मत्वेन गृहीत होता रहता है। अष्टम भूमि के अवैवर्तिक बोधिसत्त्वों और अर्हतों में क्योंकि क्लिष्ट मनोविज्ञान की निवृत्ति हो जाती है, अतः उसकी वजह से विपाकांश की जो ‘आलयविज्ञान’ संज्ञा हो गई थी, वह भी निवृत्त हो जाती है। अर्थात् आलयविज्ञान निवृत्त हो जाता है, किन्तु विपाकांश के निवृत्त होने की आवश्यकता नहीं है। उसकी निवृत्ति तो अर्हत् के निरूपधिशेष निर्वाण की अवस्था में या वज्रोपम समाधि के आनन्तर्य मार्ग की अवस्था में होती है।
हा प्रश्न- यदि अवैवर्तिक बोधिसत्त्व और अर्हतों की सन्तान में आलयविज्ञान नहीं होता तो प्रश्न यह है कि उन लोगों की सन्तान में विज्ञान होते हैं कि नहीं ? यदि होते हैं तो आलयविज्ञान भी होने लगेगा अथवा आपको षड्विज्ञान से अतिरिक्त विज्ञान भी स्वीकार करना पड़ेगा। यदि नहीं होते हैं तो विपाकांश वज्रोपम समाधि या निरुपधिशेष निर्वाण तक प्रवृत्त नहीं हो सकेगा ? उत्तर- दोष नहीं है। क्योंकि आलयविज्ञान यद्यपि विपाक से व्याप्त है, किन्तु विपाकविज्ञान आलयविज्ञान से व्याप्त नहीं है। अर्थात् जो जो आलयविज्ञान होता है, वह विपाकविज्ञान भी होता है, किन्तु जो जो विपाकविज्ञान होता है, उसका आलयविज्ञान होना भी जरूरी नहीं है। अवैवर्तिक बोधिसत्त्व एवं अर्हतों में आलयविज्ञान नहीं होता. फिर भी उनमें विपाक विज्ञान होता है। अर्थात् जिस वजह से हम विपाक का आलयविज्ञान नाम से व्यवहार करते हैं, वह वजह अब नहीं है। अन्यथा आर्य असङ्ग ने अर्हत् और अष्टम भूमि से ऊर्ध्वस्थ बोधिसत्त्वों को जो आलयविज्ञान और प्रवृत्तिविज्ञानों से रहित कोटि में रखा है, वह सब अयुक्त हो जाएगा।
प्रश्न- तब तो अवैवर्तिक बोधिसत्त्वों और अर्हतों में चि त के अभाव का प्रसङ्ग होगा। अर्थात् उनमें कोई चित्त ही नहीं हो सकेगा ? उत्तर- दोष नहीं है। चित्त का अभिप्राय है ‘विषय का ग्रहण करना’। आलयविज्ञान और प्रवृत्तिविज्ञानोंके न होने पर भी विषय को ग्रहण करने वाला चित्तमात्र हो सकता है।
योगाचार दर्शन ४१३

(२) आलयविज्ञान साधक युक्तियां

आलयविज्ञान सिद्ध करने के लिए असङ्गकृत महायानसंग्रह में पाँच युक्तियों तथा उन्हीं की भूमिशास्त्र की उत्तरटीका में सत्रह आगम और अनेक युक्तियां प्रदर्शित की गई हैं। वसुबन्धु के पञ्चस्कन्धप्रकरण में चार युक्तियाँ, तथा उनकी प्रतीत्यसमुत्पादसूत्रटीका में महायानसंग्रह में कथित युक्तियों के आधार पर अनेक युक्तियां प्रयुक्त की गई हैं। आचार्य वसुबन्धु ने अपनी अभिधर्मसमुच्चयटीका में उपर्युक्त सभी युक्तियों का आठ युक्तियों में संग्रह किया है। हम उन्हीं का यहाँ प्रतिपादन कर रहे हैं।
(१) उपादान का अयोग- यदि आलयविज्ञान न होगा तो क्लिष्ट मनोविज्ञान भी न हो सकेगा। ऐसी स्थिति में चक्षुर्विज्ञान आदि छह विज्ञानों को ही उपादान (जन्म) ग्रहण करना होगा, किन्तु निम्नलिखित कारणों से वे जन्म ग्रहण नहीं कर सकते।
तह (क) छह विज्ञान पूर्व जन्मों के कर्मों का विपाक नहीं हैं, अपितु वे आध्यात्मिक इन्द्रियों और बाह्य आलम्बनों पर आश्रित (निर्भर) विज्ञान हैं। वे दिदृक्षा (देखने की इच्छा), सुश्रूषा (सुनने की इच्छा) आदि समनन्तर प्रत्ययों से उत्पन्न होते हैं। इसलिए आलयविज्ञान तो विपाक होने से प्रतिसन्धि काल में उपथित रह सकता है, किन्तु इन्द्रियों, आलम्बनों तथा दिदृक्षा, सुश्रूषा आदि मनस्कारों के तो शरीर के उत्पन्न हो जाने पर प्रत्युत्पन्न कारणों से ही उत्पाद होने के कारण छह विज्ञान प्रतिसन्धि काल में उपस्थित नहीं रह सकते।
(ख) प्रवृत्तिविज्ञान भी पूर्वकर्म के विपाक होते हैं और मानस ज्ञान प्रतिसन्धि काल में उपस्थित होता है-ऐसी अवस्था में षड्गण भी जन्म का उपादान (ग्रहण) कर सकते हैं-यदि ऐसा कहा जाए तो यह भी युक्त नहीं है, क्योंकि जो लक्षण-सम्पन्न विपाक और प्रतिसन्धि में प्रवृत्त होने वाला विज्ञान होगा, उसे किसी भी योनि के प्रथम प्रतिसन्धिलक्षण में एकान्तरूप से अव्याकृत ही होना चाहिए। षड्गणविज्ञान तो कुशल, अकुशल भी देखे जाते हैं, अतः वे एकान्त अव्याकृत नहीं हैं।
(ग) षड्गण विज्ञान कुशल, अकुशल होने के साथ-साथ अव्याकृत भी तो होते हैं, अतः जब वे अनिवृताव्याकृत होंगे, उस समय वे लक्षणसम्पन्न विपाक हो जाएंगे और उनके द्वारा जन्मग्रहण किया जा सकेगा-यदि ऐसा कहा जाए तो यह भी अयुक्त है, क्योंकि जो अव्याकृत विपाक होता है, उसे यावज्जीवन अव्यवच्छिन्न रूप में प्रवृत्त भी होना चाहिए। किन्तु षड्विज्ञान उसी तरह यावज्जीवन निरन्तर प्रवृत्त होने वाले विज्ञान नहीं हैं।
(घ) षड्गणविज्ञानों में से कोई एक यदि शरीरग्रहण करेगा तो उस जन्मग्रहण करने वाले चित्त से शरीर का जो भाग अव्याप्त होगा, वह स्थान चित्त द्वारा अगृहीत (अव्याप्त) होने से मृतवत् हो जाएगा। ज्ञात है कि चक्षुर्विज्ञान आदि शरीर के एकदेश में ही होते हैं, पूरे शरीर में व्याप्त नहीं होते। ऐसी स्थिति में शरीर का वह भाग जो जन्मग्रहण करने वाले ४१४ बौद्धदर्शन विज्ञान से व्याप्त होगा, वह तो जीवित शरीर की भाँति सचेतन होगा, किन्तु अन्य भाग मृतशरीर की भाँति होंगे। क्योंकि छहों विज्ञानों के स्थान शरीर में अलग-अलग निश्चित हैं। जिस स्थान में चित्त होता है, वही चित्त द्वारा गृहीत होता है। शेष अगृहीत होता है, क्योंकि प्रवृत्तिविज्ञानों में एक ही काल में समस्त शरीर को व्याप्त करने की शक्ति नहीं है। अ अपि च, यदि कहा जाए कि कायेन्द्रिय द्वारा सम्पूर्ण शरीर व्याप्त होने से उसके द्वारा शरीर के समस्त स्थान गृहीत हैं ? तो यह भी अयुक्त है, क्योंकि वह (कायेन्द्रिय) तो स्वयं ज्ञानस्वभाव से वियुक्त है। अर्थात् वह स्वयं ज्ञान नहीं, अपितु जड़ है। काकी (ङ) यदि षड् गण (छह) विज्ञानों द्वारा जन्म-ग्रहण माना जाएगा तो एक ही भाव में अनेक बार शरीर ग्रहण करना होगा, क्योंकि वे कभी उत्पन्न होते हैं और कभी नहीं।
___ इस प्रकार उपर्युक्त पाँच कारणों से षड्गण द्वारा जन्म ग्रहण अयुक्त है। किन्तु शरीरग्रहण (जन्मग्रहण) दिखाई देता है, अतः उसे ग्रहण करने वाला आलयविज्ञान है-यह मानना चाहिए।
(२) आदित्व का अयोग-यह पूर्वपक्षी को दिया गया प्रसङ्ग है। पूर्वपक्षी की मान्यता है कि एक काल में अनेक (एक से अधिक) विज्ञान नहीं हो सकते। यदि आलयविज्ञान माना जाएगा तो एक काल में अनेक विज्ञानों का अस्तित्व मानना पड़ेगा, क्योंकि आलयविज्ञान तो सदा निरन्तर प्रवृत्त होने वाला विज्ञान है और प्रवृत्तिविज्ञान भी कभी-कभी (प्रत्यय-सामग्री) होने पर प्रवृत्त होंगे ही। ऐसी स्थिति में जब प्रवृत्तिविज्ञान उत्पन्न होंगे, तब आलयविज्ञान भी विद्यमान रहेगा। फलतः एक काल में अनेक विज्ञानों की उपस्थिति माननी पड़ेगी, जो अयुक्तिसङ्गत है। छ इस पर योगाचार विज्ञानवादियों का कथन है कि एक काल में अनेक विज्ञानों की उपस्थिति मानना कोई दोष नहीं है, क्योंकि एक साथ अनेक विज्ञानों की उत्पत्ति होती ही है। मान लीजिए, किसी व्यक्ति के सम्मुख रूप, शब्द आदि छहों आलम्बन समान रूप से उपस्थित हैं और उनमें से किसी एक के प्रति उस व्यक्ति में कोई खास आकर्षण नहीं है, अर्थात् समनन्तर प्रत्यय भी समान रूप से विद्यमान है। ऐसी स्थिति में आप (पूर्वपक्षी) ही बतलाइए कि किस विज्ञान का उत्पाद सर्वप्रथम होगा ? क्योंकि आप एक काल में एक ही विज्ञान का उत्पाद मानते हैं और यहां किसी भी एक विज्ञान के पहले उत्पन्न होने का कोई विशिष्ट कारण विद्यमान नहीं है। फलतः आपके मतानुसार कोई भी विज्ञान उत्पन्न न हो सकेगा। हमारे सामने ऐसी परिस्थिति में कोई कठिनाई नहीं है, क्योंकि हम एक काल में अनेक विज्ञानों का उत्पाद स्वीकार करते हैं। किन्तु आपके सामने यह कठिनाई है कि आप यह नहीं बतला पाते कि छह विज्ञानों में से कौन विज्ञान पहले उत्पन्न होगा। फलतः आलयविज्ञान न मानने पर आपके मत में आदित्य के अयोग का प्रसङ्ग उपस्थित होता योगाचार दर्शन ४१५ पूर्वपक्षी- सूत्र में उक्त है कि “इसके लिए अस्थान एवं अनवकाश है कि एक साथ (युगपद्) दो विज्ञान उत्पन्न हों"- इस सूत्र से आपके उपर्युक्त कथन का विरोध होगा ? भी उत्तरपक्ष- विरोध नहीं होगा। क्योंकि उक्त सूत्र का आशय यह है कि दो सजातीय विज्ञान एक साथ नहीं होते। विजातीय दो विज्ञान एक साथ उत्पन्न हो सकते हैं।
(३) स्पष्टत्व का अयोग - यह प्रसङ्ग उन लोगों को दिया जा रहा है, जिसके मत में एक काल में (युगपद्) अनेक विज्ञानों की उत्पत्ति नहीं मानी जाती। मनोविज्ञान में रूप आदि धर्मों का आभास कभी तो स्पष्ट होता है और कभी अस्पष्ट । उदाहरणार्थ रूपज्ञ चक्षुर्विज्ञान का अनुसरण करने वाले मनोविज्ञान में रूप का आभास स्पष्ट होता है तथा अन्य काल में अर्थात स्मृति आदि के काल में उत्पन्न मनोविज्ञान में रूप का आभास अस्पष्ट होता है। योगाचार विज्ञानवादियों के मतानुसार स्मृतिकालिक मनोविज्ञान में रूप का आभास इसलिए अस्पष्ट होता है, क्योंकि उस समय अनुभवकर्ता चक्षुर्विज्ञान अतीत रहता है। तथा चक्षुर्विज्ञानकालिक और रूपज्ञ चक्षुर्विज्ञान से उपकृत मनोविज्ञान में रूप का आभास इसलिए स्पष्ट होता है, क्योंकि उस समय चक्षुर्विज्ञान अतीत नहीं रहता। आशय यह है कि चक्षुर्विज्ञान के काल में विद्यमान मनोविज्ञान में रूप का आभास स्पष्ट होता है तथा चक्षुर्विज्ञान के काल में अविद्यमान अर्थात स्मति आदि अन्य काल में विद्यमान मनोविज्ञान के रूप का आभास अस्पष्ट होता है। यदि आप (पूर्वपक्षी) रूपज्ञ चक्षुर्विज्ञान का अनुसरण करने वाले मनोविज्ञान के काल में चक्षुर्विज्ञान को अतीत मानते हैं और ऐसा आप इसलिए मानते हैं, क्योंकि आपके यहां एक काल में दो विज्ञानों की उपस्थिति अमान्य है, तो ऐसी हालत में इस मनोविज्ञान में और स्मृति के काल में उत्पन्न (स्मृतिकालिक) मनोविज्ञान में फर्क नहीं रहेगा, क्योंकि दोनों मनोविज्ञानों के समय चक्षुर्विज्ञान अतीत है। फलतः दोनों समय में रूप का आभास अस्पष्ट ही रहेगा। परिणामतः चक्षुर्विज्ञान से उपकृत रूपज्ञ मनोविज्ञान में जो रूप का स्पष्ट प्रतिभास होता है, उस स्पष्टत्व का आपके मत में अयोग होगा। अर्थात् आपके मत में स्पष्टत्व के अयोग का प्रसङ्ग होगा।
(४) बीज की असम्भवता- यदि आलयविज्ञान न माना जाएगा तो कुशल एवं अकुशल चित्तों के बीज असम्भव हो जाएंगे, क्योंकि उनके बीजों को स्थापित करने के लिए उपयुक्त आश्रय (आधार) नहीं मिलेगा। आलयविज्ञान ही बीजों का उपयुक्त आश्रय हो सकता है, क्योंकि वह अव्याकृत होता है और अव्याकृत होने से कुशल एवं अकुशल दोनों के अनुकूल होता है। आलयविज्ञान न मानने पर छह विज्ञानों को ही बीजों का आश्रय मानना पड़ेगा, किन्तु वे किसी भी तरह आश्रय नहीं हो सकते, क्योंकि वे स्वयं कुशल या अकुशल होते हैं। कुशल चित्त में अकुशल का बीज होना या अकुशल चित्त में कुशल का बीज होना सर्वथा असम्भव एवं विरुद्ध है।
बौद्धदर्शन अपि च, बीज स्थापित करते समय स्थापक (स्थापित करने वाले विज्ञान) और स्थाप्य (जिसमें स्थापित करना है) दोनों को एक साथ (युगपद्) उत्पन्न और निरुद्ध होना चाहिए। षड् विज्ञान ऐसे नहीं हैं। वे तो कुशल के बाद अकुशल, अकुशल के बाद कुशल, लौकिक के बाद लोकोत्तर-इत्यादि के रूप में उत्पन्न होते हैं। अतः उनमें स्थाप्य-स्थापक भाव नहीं बन सकता।

  • अपि च, छह विज्ञान जिस समय उत्पन्न नहीं होंगे, उस काल में आपके मतानुसार वासना के आश्रय के भी विच्छिन्न हो जान से वासना भी निराश्रय होने से विच्छिन्न हो जाएगी। फलतः भविष्य में उत्पन्न होने वाले चित्त-चैतसिकों के अहेतुक उत्पाद का प्रसङ्ग होगा। इत्यादि अनेक दोष होंगे, जिनका पहले भी अनेकधा उल्लेख किया गया है।
    (५) कर्म की असम्भवता- कर्म का तात्पर्य विज्ञप्ति, प्रतीति या चेतना से है। योगाचार नय में विज्ञप्ति ही कर्म है। विज्ञप्ति से अतिरिक्त कोई कर्म नहीं हुआ करता। विज्ञप्तियां अनेकविध होती हैं, यथा- (१) भाजनविज्ञप्ति (देश और पदार्थ की विज्ञप्ति) (२) स्थानविज्ञप्ति (३) अहंकारविज्ञप्ति एवं (४) रूप, शब्द आदि विषय विज्ञप्ति और (५) सत्त्वविज्ञप्ति आदि। यदि एक साथ अनेक विज्ञानों का उत्पाद न माना जाएगा, जैसे विज्ञानवादी उत्पाद मानते हैं तो उन विज्ञप्तियों का अर्थात् गमन, आगमन आदि कर्मों का निष्पन्न होना असम्भव हो जाएगा। फलतः अनेक विज्ञानों की युगपद् उपस्थिति न मानना प्रत्यक्ष विरुद्ध है। उदाहरणार्थ जब हम किसी रास्ते से गुजर रहे होते हैं, उस समय हमें उस रास्ते (मार्ग) की प्रतीति, पैरों के उठाने और रखने की प्रतीति तथा दाएं-बाएं स्थित अन्य सत्त्वों और पदार्थों की एकसाथ (युगपत्) प्रतीति होती है और यह प्रत्यक्षतः सिद्ध है। अनेक विद्वानों की एक साथ उपस्थिति न मानने पर उक्त प्रतीतियों का अभाव होगा। फलतः आलयविज्ञान मानने पर अनेक विज्ञानों की युगपद् उपस्थिति हो जाने का जो दूषण पूर्वपक्षी ने दिया था, वस्तुतः वह दूषण ही नहीं है।
    (६) कायवेदना की असम्भवता- मनोविज्ञान जिस समय समाहित अवस्था में स्थित होता है या किसी पाप कर्म में लिप्त रहता है, अथवा यों कहें कि जिस समय योनिशः चित्त या अयोनिशः चि त्त प्रवृत्त होता है, उस समय सारे शरीर में एक व्यापक वेदना, सुख वेदना या दुःख वेदना की अनुभूति होती है। प्रश्न है कि उस व्यापक वेदना का आश्रय कौन है ? मनोविज्ञान उसका आश्रय हो नहीं सकता, क्योंकि वह उस समय अन्तर्मुखी होता है या अन्य विषय में प्रवृत्त रहता है। मनोविज्ञान के लिए यह सम्भव नहीं है कि एक ओर तो वह अपने विषय का ग्रहण करता रहे और दूसरी ओर वेदना को भी आश्रय प्रदान कर सके। आलयविज्ञान न मानने वालों के पक्ष में आश्रय का अभाव होने से उस समय तक व्यापक कायिकों वेदना के अभाव का प्रसङ्ग होगा। हमारे मत में तो आलयविज्ञान ही उस वेदना का आश्रय होता है।
    योगाचार दर्शन ४१७ का ज्ञात है कि समाहित अवस्था में पाँच इन्द्रियविज्ञान प्रवृत्त नहीं होते। मानस विज्ञान भी सर्वथा अन्तर्मुखी रहता है। यदि उस समय आलयविज्ञान भी न होगा तो उस समय जो कायिकी सुखा वेदना या उपेक्षा वेदना होती है, उसका आश्रय कौन होगा ? अतः अवश्य आलयविज्ञान स्वीकार करना चाहिए। यह जान कर (७) समापत्ति की अनुपपत्ति- यदि आलयविज्ञान न होगा तो असंज्ञिसमापत्ति और निरोधसमापत्ति ये समापत्तियां असम्भव हो जाएंगी, क्योंकि इन दो समापत्तियों में समापन्न पुद्गल में छह विज्ञान निरुद्ध हो जाते हैं और पूर्वपक्षी आलयविज्ञान मानता नहीं। साथ ही, विज्ञानों के न रहने से पुद्गल मृत हो जाएगा। किन्तु उन अवस्थाओं में व्यक्ति मृत तो होता नहीं, अपितु जीवित होता है। साथ ही, मृत होना आगम से भी विरुद्ध है। सूत्र में उक्त है कि उस पुद्गल का विज्ञान शरीर से निःसृत नहीं होता। मीर क यदि पूर्वपक्षी कहें कि उन अवस्थाओं में एक सूक्ष्म मनोविज्ञान अवस्थित रहता है, अतः व्यक्ति मृत नहीं होगा-तो यह भी अयुक्त है, क्योंकि यदि विज्ञान होगा तो विषय, इन्द्रिय और विज्ञान का स्पर्श भी होगा। और यदि स्पर्श होगा तो स्पर्शप्रत्यय से वेदना भी होगी और वेदना होने से संज्ञा भी प्रवृत्त होगी। ज्ञात है कि वेदना और संज्ञा ही उक्त दोनों समापत्तियों की निषेध्य है। अतः उक्त अवस्थाओं में आपके द्वारा सम्मत किसी भी तरह के सूक्ष्म सा स्थूल किसी विज्ञान का होना अयुक्त है।
    पूर्वपक्षी यह भी कह सकता है कि आप (योगाचार) उन अवस्थाओं में आलयविज्ञान की विद्यमानता मानते हैं। यदि आलयविज्ञान होगा तो उससे सदा सम्प्रयुक्त होने वाले पाँच सर्वत्रग चैतसिक भी होंगे। स्पर्श, मनस्कार, वेदना, संज्ञा और चेतना ही सर्वत्रग चैतसिक हैं। ऐसी हालत में आपके मत में भी इन समापत्तियों की अयुक्तता होगी ? म 2 उत्तरपक्ष- सत्य है, किन्तु आलयविज्ञान से सम्प्रयुक्त वेदना और संज्ञा वैसी नहीं है, जैसे छह विज्ञानों से सम्प्रयुक्त वेदना और संज्ञा होती है। आलयविज्ञान से सम्प्रयुक्त ये चैतसिक आलयविज्ञान के ही सदृश अपरिच्छिन्नाकार और अपरिच्छिन्नालम्बन होते हैं। अर्थात् उनके द्वारा किसी आलम्बन का या आकार का परिच्छेद नहीं होता और वे अनिवृताव्याकृत होते हैं। अतः उन सूक्ष्म वेदना और संज्ञा का उन असंज्ञी और निरोध समापत्तियों से कोई विरोध नहीं है, जबकि छह विज्ञानों से सम्प्रयुक्त वेदना और संज्ञा स्थूल होती है। उनका उक्त समापत्तियों की अवस्था में होना, सर्वथा विरुद्ध है। मी की (८) च्युति की अनुपपत्ति- जिस समय मनुष्य की मृत्यु होती है, उस समय मरणासन्न अवस्था में शरीर की ऊष्मा क्रमशः संकुचित होती है। ऐसा नहीं होता कि सारे शरीर की ऊष्मा एक क्षण में ही समाप्त हो जाती हो। शारीरिक ऊष्मा और वेदना का क्रमशः विसर्जन करने वाला विज्ञान ही हो सकता है, जड़ पदार्थ ऐसा नहीं कर सकते। विज्ञान में भी चक्षुर्विज्ञान आदि इन्द्रियविज्ञान यह कार्य नहीं कर सकते, क्योंकि वे सम्पूर्ण ४१८ बौद्धदर्शन शरीर में व्यापक नहीं होते, अपितु शरीर में उनका नियत स्थान होता है। यदि चक्षुरादि विज्ञान ऊष्मा और वेदना के आधार माने जाएंगे या उनका विसर्जन करने वाले माने जाएंगे तो जीवितावस्था में भी वे स्थान मृतवत् प्रतीत होने चाहिए, जो स्थान उन चक्षुरादिविज्ञानों से व्याप्त नहीं हैं। मनोविज्ञान भी सम्पूर्ण शरीर में व्यापक नहीं होता, कभी कहीं और कभी कहीं होता है। साथ ही ये विज्ञान सर्वदा नहीं होते। गाढ निद्रा और मूर्छा की अवस्था में तो मनोविज्ञान भी नहीं होता। ऐसी अवस्थाओं में शारीरिक ऊष्मा का अभाव हो जाएगा। किन्तु ऊष्मा का अभाव नहीं होता, अतः यह निश्चित होता है कि छह विज्ञान ऊष्मा के आधार या नियामक नहीं है और मरणावस्था में शरीर का त्याग करने वाले विज्ञान नहीं हैं। आलयविज्ञान ही एक मात्र सम्पूर्ण शरीर में व्यापक विज्ञान है। जिन कर्मों द्वारा वह आलयविज्ञान प्रक्षिप्त किया जाता है, उन कमों की शक्ति क्षीण होने पर उसका शरीर में रहना असम्भव हो जाता है। शरीर के जिस अङग में आलयविज्ञान नहीं रह जाता. वह अङ्ग वेदना और ऊष्मा से रहित हो जाता है। जिस क्रम से आलयविज्ञान शरीर के अगों का त्याग करता है, उसी क्रम से वे अङ्ग ऊष्मा और वेदना से रहित हो जाते हैं। अन्ततोगत्वा सम्पूर्ण शरीर ऊष्मा और वेदना से रहित हो जाता है और मृत्यु हो जाती है। इस विवेचन से यह सुनिश्चित होता है कि आलयविज्ञान का अस्तित्व है। कि उपर्युक्त आठ युक्तियों के द्वारा आलयविज्ञान की सिद्धि की गई है। उनमें से प्रथम, चतुर्थ, षष्ठ सप्तम एवं अष्टम युक्ति द्वारा आलयविज्ञान न मानने पर पूर्वपक्षी को प्रसङ्ग (आक्षेप) देते हुए आलयविज्ञान मानने की अनिवार्यता प्रतिपादित की गई है तथा अवशिष्ट द्वितीय, तृतीय एवं पञ्चम युक्ति द्वारा पूर्वपक्ष द्वारा प्रदत्तआक्षेपों का समाधान किया गया है। इस तरह इन अवशिष्ट युक्तियों द्वारा भी परम्परया आलयविज्ञान की सिद्धि की गई है। गूढार्थटीका आदि योगाचार शास्त्रों में एक-एक युक्ति अनेकों प्रकार से प्रस्तुत की गई है तथा एक-एक युक्ति की भी अनेक शाखाएं प्रस्तुत की गई हैं, जो पठनीय, मननीय एवं अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। यकीय प्रश्न- आलयविज्ञान केवल महायानसूत्रों में ही उल्लिखित है या हैनयानिक सूत्रों में भी इसका उल्लेख है ? उत्तर- महायानसूत्रों में ज्ञेयस्थान, आदानविज्ञान आदि विभिन्न नामों से आलयविज्ञान सम्पूर्ण लक्षणों के साथ उपदिष्ट है। केवल महायान सूत्रों में ही नहीं, अपितु श्रावकवर्गीय सूत्रों में भी दूसरे दूसरे नामों द्वारा आलयविज्ञान निर्दिष्ट है। अंगुत्तर निकाय में उल्लिखित है कि तथागत के लोक में उत्पाद का यह उद्देश्य है कि वे आलय के प्रति स्नेह रखने वाले जीवों को उसके त्याग का उपदेश करते हैं, जिसे सुनकर और तदनुकूल आचरण कर वे अपना लक्ष्य (निर्वाण) सिद्ध कर सकें। इस पर्याय द्वारा भगवान ने श्रावकवर्गीय पिटक में आलयविज्ञान की ओर संकेत किया है।
    योगाचार दर्शन ४१६ आलयरामा भिक्खवे, पजा आलयरता, आलयसमुदिता, सा तथागतेन अनालये धम्मे देसियमाने सुस्सूसति सोतं ओदहति अञा चित्तं उपट्ठपेति। (अंगुत्तरनिकाय, द्वितीयभाग, अच्छरियसु त्त)। का महासांघिक आगम में ‘मूलविज्ञान’ इस नाम से आलयविज्ञान निर्दिष्ट है, क्योंकि आलयविज्ञान सभी चित्त-चैतसिकों का मूल होता है। महीशासक आगम में यह (आलयविज्ञान) यावत्संस्कारस्कन्ध, आसंसारस्कन्ध या संसारकोटिनिष्ठ स्कन्ध नाम से संकेतित है, क्योंकि यह संसार की समाप्ति तक प्रवृत्त होते रहता है। स्थविरवादी आगम में यह ‘भवाङ्ग’ नाम से उपदिष्ट है। फलतः ज्ञेयस्थान, आदानविज्ञान, आलयविज्ञान, मूलविज्ञान, यावत्संसारस्कन्ध एवं भवाङ्ग ये सब पर्यायवाची शब्द हैं। ऐसा होने पर भी जैसे महायानसूत्रों में आलयविज्ञान का सांगोपाङ्ग वर्णन उपलब्ध होता है, वैसे उन-उन महायानेतर आगमों में उसके लक्षण, स्वरूप, क्रिया आदि स्पष्टतः और पूर्णतः उपदिष्ट नहीं है। हीनयानिक आगमों में उसके पूर्णतः स्वरूप-प्रतिपादन करने की आवश्यकता भी नहीं है, क्योंकि एक तो उसका वहाँ कोई उपयोग नहीं है और दूसरे उससे हानि की संभावना है।
    आलयविज्ञान के स्वरूप का सांगोपाङ्ग वर्णन समस्त ज्ञेय धर्मों के सम्यग् अवबोध के लिए किया जाता है, जब कि श्रावकों को अपना लक्ष्य व्यक्तिगत निर्वाण सिद्ध करने के लिए समस्त सूक्ष्म ज्ञेयो को जानने की आवश्यकता ही नहीं है। वे तो कुछ ही गाथाओं या कारिकाओं के अभ्यास या आनुभाव से अपने क्लेशों को समाप्त कर मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं।
    र हानि की सम्भावना इस प्रकार है कि यदि श्रावकयानियों को यह कहा जाए कि “आलयविज्ञान ही समस्त धर्मों के बीजों का आश्रय है, वही समस्त भाजन और सत्त्वों का हेतु है, वही यावत्संसारप्रवृत्त होता रहता है तथा वही बन्ध और मोक्ष आदि सभी का आधार है”- तो निश्चय ही वे यह समझने लगेंगे कि आलयविज्ञान ‘आत्मा’ है; यथाः आदानविज्ञानगभीरसूक्ष्मो ओघो यथा वर्तति सर्वबीजो। बालान एषोयमयि न प्रकाशितो मा हैव आत्मा परिकल्पयेयुः॥

(आर्य सन्धिनिर्मोचनसूत्र) १ ऐसी स्थिति में या तो वे वक्ता के प्रति अश्रद्धालु होकर उसके द्वारा उपदिष्ट धर्मों के श्रवण से विरत हो जाएंगे या फिर आत्मवादी बन जाएंगे। इस अनिष्ट की सम्भावना को ध्यान में रखकर उपायकुशल भगवान् बुद्ध ने हीनयानिक पिटकों में आलयविज्ञान का सकेत तो किया, किन्तु उसके सम्पूर्ण स्वरूप का प्रदर्शन नहीं किया।
महायान के विनेयजन बोधिसत्त्व होते हैं, जिनका लक्ष्य सर्वज्ञत्व की प्राप्ति होता है। अतः उन्हें आलयविज्ञान का पूर्ण स्वरूप बतलाना जरूरी था, क्योंकि समस्त सूक्ष्म ज्ञेयों का ४२० बौद्धदर्शन अवबोध बिना किये उनका वह लक्ष्य सिद्ध ही नहीं हो सकता। अतः बोधिसत्त्वों के लिए इसका उपयोग भी है। बोधिसत्त्वों को जब आलयविज्ञान के सम्यक् स्वरूप का निर्देश किया जाता है तो इसमें उनके नैरात्म्यज्ञान में प्रकर्ष ही आता है। आत्मदृष्टि में पतन का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यही कारण है कि महायानसूत्रों में आलयविज्ञान का विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है।

(ख) क्लिष्ट मनोविज्ञान

__ इसका लक्षण एवं युक्तिप्रदर्शन इन दो भागों में विभाजन करके वर्णन किया जा रहा है।
(१) लक्षण-आलयविज्ञान को आलम्बन बनाकर उसे आत्मा के रूप में ग्रहण करने वाला निवृताव्याकृत विज्ञान ‘क्लिष्ट मनोविज्ञान’ कहलाता है। + आलय विज्ञान की आलम्बनता- क्लिष्ट मनोविज्ञान में आलयविज्ञान का प्रतिभास नहीं होता। अतः वह अपने में प्रतिभासित आलयविज्ञान को आलम्बन नहीं बनाता। अपितु वह (आलयविज्ञान) विपाकविज्ञान के वश से आत्मत्वेन ग्रहण करने वाले क्लिष्ट मनोविज्ञान का आधारमात्र है और इसी अर्थ में वह क्लिष्ट मनोविज्ञान का आलम्बन कहा जाता है।
निवृत-अनिवृत विचार- जो क्लेशों से मलिन (समल) होता है, उसे ‘निवृत’ कहते हैं। क्लिष्ट मनोविज्ञान राग, मोह, दृष्टि और मान इन चार मूल क्लेशों से मलिन किया जाता है। अतः वह ‘निवृत’ कहा जाता है। जो क्लेशों से आवित (मलिन) नहीं होता, वह ‘अनिवृत’ कहा जाता है। जैसे श्रद्धा आदि पांच इन्द्रियां बल एवं ११ कुशल चैतसिक आदि। इस तरह क्लेशों से अनाविल ‘अनिवृत’ कहा जाता है। ___ कुछ लोगों का कहना है कि आर्यों की समाहित अवस्था में क्लिष्ट मनोविज्ञान नहीं होता, किन्तु आलयविज्ञान होता है। अतः जो समाहित ज्ञान का आवरण करता है, वह ‘निवृत’ है यथा- क्लिष्ट मनोविज्ञान । तथा जो आवरण नहीं करता वह ‘अनिवृत’ है, जैसे आलयविज्ञान। इस तरह समाहित ज्ञान का आवरणकरने या न करने के आधार पर निवृत और अनिवृत की व्याख्या करते हैं। (as कुछ अन्य लोगों का मानना है कि समस्त क्लेश ‘क्लेशावरण’ है और बिना क्लेशावरण का प्रहाण किये मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। अतः क्लेशावरण मोक्ष का आवरण करने वाले हैं। इस तरह वे मोक्ष का आवरण करने या न करने के आधार पर निवृत और अनिवृत की व्याख्या करते हैं। _निवृत और अनिवृत की व्याख्या करने वाले उपर्युक्त दोनों पक्ष समीचीन नहीं है तथा उन व्याख्यानों का केन्द्रबिन्दु केवल आलयविज्ञान और क्लिष्ट मनोविज्ञान मात्र है, अतः उनकी व्याख्या सीमित है। वस्तुतः निवृत और अनिवृत के अर्थ का ग्रहण इस आधार पर योगाचार दर्शन ४२१ करना चाहिए कि वे स्वयं स्वरूपतः निवृत (आवृत या मलिन) है या अनिवृत। ऐसा नहीं कि वे दूसरों को आवृत करते हैं या नहीं अथवा दूसरों के द्वारा आवृत होते हैं या नहीं। अन्यथा आर्यों की असमाहित अवस्था के कुशल या अव्याकृत चित्त भी निवृत होने लगेंगे, क्योंकि उन्होंने समाहित अवस्था में विघ्न किया है। अपि च, पुनर्भव के नियत आक्षेपक सम्पूर्ण कर्मों का बिना प्रहाण किये तीनों प्रकार के मोक्षों (श्रावक, प्रत्येकबुद्ध और बोधिसत्व के मोक्षों) में से कोई भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। फलतः पुण्य (कुशल) कर्म और आनेज्य कर्म भी पनर्भव के नियत आक्षेपक होने से निवत’ कहलाने लगेंगे, क्योंकि उनके द्वारा भी मोक्ष का आवरण किया जाता है।
वा अव्याकृत विचार- क्लिष्ट मनोविज्ञान क्यों कुशल या अकुशन नहीं होता ? वह केवल अव्याकृत ही क्यों होता है ? IPL क्लिष्ट मनोविज्ञान क्योंकि क्लेशों से संक्लिष्ट है, अतः कुशल नहीं हो सकता। कुशलचित्तों के साथ एक ही काल में और एक ही सन्तान में प्रवृत्त होने से वह अकुशल भी नहीं हो सकता। यदि ऐसा (अव्याकृत) न माना जाएगा अर्थात् उसे कुशल या अकुशल माना जाएगा तो पृथग्जन की सन्तति में कुशल या अकुशल चित्त साक्षात् उत्पन्न नहीं हो जाएंगे, क्योंकि क्लिष्ट मनोविज्ञान आर्यमार्ग के उत्पाद पर्यन्त सर्वदा निरन्तर प्रवृत्त होता रहता है और यदि वह अकुशल होगा तो आर्यमार्ग की प्राप्ति तक किसी में भी कुशल का उत्पाद न हो सकेगा।
प्रश्न- क्लिष्ट मनोविज्ञान चित्त के साथ कितने चैतसिक सम्प्रयुक्त होते हैं। अर्थात् उसके परिवार में कुल कितने चैतसिक होते हैं ? उत्तर- स्पर्श, मनस्कार, वेदना, संज्ञा और चेतना-ये पाँच सर्वत्रग चैतसिक सभी चित्तों के साथ सम्प्रयुक्त होते हैं, अतः क्लिष्ट मनोविज्ञान के साथ भी सम्प्रयुक्त होंगे। इनके अलावा राग, अविद्या (मोह), मान और आत्मदृष्टि-ये चार चैतसिक भी उससे सम्प्रयुक्त होते हैं। इस तरह क्लिष्ट मनोविज्ञान के साथ कुल ६ चैतसिक होते हैं। अर्थात् उसके परिवार में कुल ६ चैतसिक होते हैं। ' __इसके साथ जो वेदना सम्प्रयुक्त होती है, वह मात्र उपेक्षा वेदना ही होती है, सुख या दुःख वेदना नहीं। यदि सुख वेदना होगी तो निश्चय ही वह सौमनस्य होगी, क्योंकि वह मानसिक है। मानसिक सुख वेदना को सौमनस्य कहते हैं। यदि क्लिष्ट मनोविज्ञान का सौमनस्य वेदना से सम्प्रयोग होगा तो उसी के सर्वदा साक्षात् निरन्तर प्रवृत्त होने से पृथग्जन की सन्तति में दौर्मनस्य वेदना का सर्वथा अभाव हो जाएगा तथा चतुर्थ ध्यान के ऊपर की भूमियों के सत्त्वों में भी सुख वेदना के होने से वे सुखवेदनाभौमिक होने लगेंगे। साथ ही, अवीचि नामक नरक में भी सौमनस्य वेदना साक्षात् रूप से प्रवृत्त होने लगेगी। क्लिष्ट मनोविज्ञान के परिवार में होने वाले उपर्युक्त चैतसिक समानरूप से तीनों भूमियों में होते४२२ बौद्धदर्शन हैं। क्लिष्ट मनोविज्ञान और उनसे सम्प्रयुक्त चैतसिक युगपद् उत्पन्न एवं निरुद्ध होते हैं। इन्हीं युक्तियों के आधार पर यह भी जान लेना चाहिए कि क्लिष्ट मनोविज्ञान के साथ दुःख वेदना का भी सम्प्रयोग नहीं हो सकता। क्लिष्ट मनोविज्ञान में जो प्रीत्याकार या मुदिताकार प्रतीत होता है, वह वेदना का आकार नहीं, अपितु राग (लोभ) का प्रीत्याकार है। हम प्रश्न- क्लिष्ट मनोविज्ञान की निवृत्ति कब होती है। अर्थात् उसकी निवृत्ति का कला कौन सा है? उत्तर- क्लिष्ट मनोविज्ञान की निवृत्ति दो प्रकार की होती है, यथा- १. तात्कालिकी (अस्थायी) तथा २. आत्यन्तिकी (स्थायी) निवृत्ति। आर्यों की समाहित अवस्था में तथा निरोध समापत्ति की अवस्था में क्लिष्ट मनोविज्ञान की तात्कालिकी निवृत्ति होती है। अर्थात् आर्य जब तक समाहित अवस्था में स्थित रहता है अथवा निरोधसमापत्ति में समापन्न रहता है, तब तक उसमें क्लिष्ट मनोविज्ञान निवृत्त रहता है। यह उसकी तात्कालिक या अस्थायी निवृत्ति है, क्योकि इन अवस्थाओं से व्युत्थित होने पर पुनः क्लिष्ट मनोविज्ञान प्रवृत्त होने लगता है।
वाशित्वप्राप्त बोधिस त्त्व, जो आठवीं भूमि में स्थित है, उसमें तथा वहां से लेकर बुद्धावस्था तक की सभी अवस्थाओं में क्लिष्ट मनोविज्ञान का समुदाचार (प्रवृत्ति) बिलकुल नहीं होता। श्रावक और प्रत्येकबुद्धों की अर्हत् अवस्था में भी क्लिष्ट मनोविज्ञान सर्वथा प्रवृत्त नहीं होता। यह आत्यन्तिकी निवृत्ति की अवस्था है, क्योंकि फिर कभी उनमें क्लिष्ट मनोविज्ञान प्रवृत्त नहीं होता।
___ मन की द्विविधता- मनस् दो प्रकार का होता है, यथा- १. अहं बोधक तथा २. समनन्तर मन। इन्हें क्रमशः वास्तविक और व्यावहारिक मन भी कहते हैं। प्रथम (अह-बोधक) मन अत्यन्त आध्यात्मिक (भीतरी) होता है और इसकी प्रक्रिया भीतर ही भीतर गुप्त रूप से चलती रहती है, जिसका हमारी सामान्य चेतना द्वारा अवबोध नहीं होता। इसकी वजह से हमारे चक्षुर्विज्ञान आदि छह विज्ञानगण प्रपञ्च में फंसे रहते हैं तथा क्लेश और सास्रव धर्मों की अभिवृद्धि होती रहती है। यह एक प्रकार से छह विज्ञानों का आधार होता है और शास्त्रों में यही ‘क्लिष्टमनोविज्ञान’ कहा गया है।
द्वितीय समनन्तर मन चक्षर्विज्ञान आदि छह विज्ञानों का समनन्तर प्रत्यय हआ करता है और इसी से विविध कल्पनाओं का प्रादुर्भाव हुआ करता है। फलतः अनेक कल्पना-बुद्धियां उत्पन्न होती हैं। इसी को हम ‘षष्ठ (छठवां) मनोविज्ञान’ कहते हैं। इन दोनों का भेद अवश्य जान लेना चाहिए, अन्यथा दोनों को एक समझने का भ्रम हो सकता अज्ञातव्य है कि सभी बौद्धों में क्लेश आगन्तुक ही माने जाते हैं। वे चित्त के स्वभावगत धर्म नहीं हैं, जैसे कोयले का कालापन उसका स्वभावगत धर्म होता है, किन्तु कपड़े की योगाचार दर्शन ४२३ कालिमा आगन्तुक होती है। कोयले से कालिमा को छुड़ाने के प्रयास में कोयला समाप्त हो जाता है, किन्तु वस्त्र से मैल को हटा देने पर वस्त्र अवशिष्ट रह जाता है। ठीक इसी प्रकार राग आदि क्लेशों की निवृत्ति हो जाने पर भी चित्त अवशिष्ट रहता है। उपर्युक्त समाहित आदि अवस्थाओं में यद्यपि उन राग आदि क्लेशों की निवृत्ति हो जाती है, जिनकी वजह से मनोविज्ञान ‘क्लिष्ट’ कहलाता था, फिर भी क्लेशरहित मनोमात्र अवशिष्ट रहता ही है। वही मन या विविध मानसिक बुद्धियों का अधिपतिप्रत्यय हो सकता है। फलतः आर्यों की समाहित अवस्था एवं अर्हत आदि की अवस्थाओं में मनोविज्ञान के अभाव का दोष हमारे मत में नहीं है।
__उपर्युक्त शैक्ष्य आर्य कयी समाहित आदि अवस्थाओं में विद्यमान मन, जिसका क्लिष्ट विशेषण समाप्त हो गया है, ‘वह सास्रव है कि अनासव’-इस विषय में योगाचार आचार्यों के दो मत हैं। कुछ आचार्यों का मानना है कि उक्त अवस्थाओं में सास्रव मन सम्भव नहीं है, क्योंकि अनासव ज्ञान और क्लेशों का एक काल में और एक सन्तान में युगपद् होना असम्भव है। अतः अवश्य ही वह मन अनासव होता हैं। दूसरेप्रकार के आचार्यों का कहना है कि वह मन सास्रव होता है, फिर भी क्लेशों की वजह से सास्रव नहीं होता। अर्थात् सास्रव होने पर भी क्लिष्ट नहीं है। वह सास्रव इसलिए है, क्योंकि भविष्य (पृष्ठलब्ध-अवस्था) में उससे क्लेशों का उत्पाद होता है। ज्ञातव्य है कि मन में दो प्रकार की शक्तियाँ निहित होती हैं, यथा-१. आलयविज्ञान को आत्मा के रूप में ग्रहण कर क्लेशों को उत्पन्न करने की शक्ति तथा २. विविध विकल्पात्मक बुद्धियों को उत्पन्न करने की शक्ति। पहली शक्ति क्लेशावरण की जनक होती है और उसी की वजह से क्लिष्ट मनोविज्ञान की व्यवस्था होती है। द्वितीय शक्ति ज्ञेयावरण की जनक है तथा वह समाहित अवस्था और अर्हत् आदि की अवस्थाओं में भी विद्यमान होती है। कहने का आशय यह है कि अर्हत् आदि अवस्थाओं में पुद्गलात्मदृष्टि (क्लेशावरण) का प्रहाण तो हो जाता है तथापि उनमें धर्मात्मदृष्टि (ज्ञेयावरण) अभी विद्यमान होती है। फलतः समाहित आर्य और अर्हत् आदि में समताज्ञान की प्रवृत्ति का प्रसङ्ग नहीं होगा, क्योंकि समता ज्ञान की प्राप्ति तो तब होती है, जब समस्त ज्ञेयावरणों से भी विमुक्ति हो जाती है। अर्थात् बुद्धावस्था में ही उसकी प्राप्ति होती है।
सारांश यह कि वशित्वप्राप्त बोधिसत्त्व, अर्हत् और आर्यों की समाहित अवस्था में यद्यपि क्लिष्ट मनोविज्ञान नहीं होता, फिर भी मनोमात्र तो होता ही है। इसी प्रकार यद्यपि आलयविज्ञान नहीं होता, फिर भी विपाकविज्ञान होता है।
प्रश्न यह है कि आदर्श ज्ञान, जो बुद्ध का ज्ञान है, उसमें वासना स्थापित होती कि नहीं ? यदि होती है तो पूर्व के बुद्धों में वासनाओं का सामर्थ्य अधिक और पीछे के बुद्धों में काल की अल्पता के कारण कम सामर्थ्य होगा, साथ ही, वासना के आधार को जो ४२४ बौद्धदर्शन अव्याकृत होना चाहिए, वह भी निश्चित नहीं होगा, क्योंकि आदर्शज्ञान कुशल ही होता है। यदि नहीं होती है तो उनके दशबल, चतुर्वैशारद्य आदि गुण अहेतुक होने लगेंगे ? समाधान- वज्रोपम समाधि की अवस्था में सभी अनास्रव बीजों की शक्ति एकत्र एवं पराकाष्ठा-प्राप्त हो जाती है, अतः नई वासनाओं की बिना अपेक्षा किये सभी गुण धारा के रूप में स्वतः प्रवृत्त होते रहते हैं।

मनोविज्ञान साधक युक्तियाँ

_ क्लिष्ट मनोविज्ञान न मानने पर निम्न छह अभावों का प्रसङ्ग उपस्थित होता है, यथा- (१) आवेणिक अविद्या का अभाव, (२) पाँच इन्द्रियविज्ञानों के साथ मनोविज्ञान की सदृशता का अभाव, (३) दोनों समापत्तियों में भेद (विशेष) का अभाव, (४) व्युत्पत्ति का अभाव, (५) असंज्ञी सत्त्व की सन्तान में अहं-दृष्टि का अभाव तथा (६) हमेशा अहं बोधयहोते रहने का अभाव।
(१) आवेणिक अविद्या का अभाव- आवेणिक का तात्पर्य अमिश्रित होने से है। साधारण पृथग्जन नैरात्म्य का साक्षात्कार करने में इसलिए असमर्थ रहते हैं, क्योंकि उनकी सन्तति में कुशल, अकुशल, अव्याकृत आदि सभी चित्तावस्थाओं में आत्मा का आभास होता रहता है। इससे यह सिद्ध होता है कि एक ऐसी अविद्या है, जो सर्वदा पृथग्जन की सन्तति में विद्यमान रहती है। यह अविद्या एक चैतसिक है, अतः उसे अवश्य किसी चित्त से सम्प्रयुक्त होना चाहिए। चक्षुर्विज्ञान आदि छह विज्ञानों से वह सम्प्रयुक्त नहीं हो सकती, क्योंकि वे मार्गोत्पाद पर्यन्त निरन्तर प्रवृत्त नहीं होते। वह आलयविज्ञान से भी सम्प्रयुक्त नहीं हो सकती, क्योंकि अनिवृताव्याकृत होने से उसका क्लेशों से सम्प्रयुक्त होना सम्भव नहीं है।
इस अविद्या के आवेणिक होने में आचार्यों के दो मत हैं। भदन्त निःस्वभाव का कहना है कि यह अविद्या केवल क्लिष्ट मनोविज्ञान पर ही आश्रित होती है, अतः यह आश्रयतः आवेणिक है। आचार्य निगूढार्थ के मतानुसार क्योंकि इसकी शक्ति से ही क्लेश आनीत हो सकते हैं, अन्य ज्ञानों से नहीं, अतः यह शक्तितः आवेणिक है। उपर्युक्त दोनों मतों में से प्रथम मत समीचीन है। भोट देश के सुप्रसिद्ध विद्वद्वरेण्य आचार्य चोंखापा भी इसी मत को पसन्द करते हैं। क्योंकि जब तक अविद्या (मोह) के वश से राग आदि प्रवृत्त होते हैं, तब तक उन राग आदि द्वारा अविद्या भी प्रवृत्त होती है। आगमानुयायी विज्ञानवादियों के मतानुसार क्लिष्ट मनोविज्ञान का परिवार परस्पर कार्यकारण भाव से स्थित होता है, अतः यह नहीं कहा जा सकता कि अविद्या ही राग आदि का आकर्षण करती है और अन्य राग आदि उसका आकर्षण नहीं करते। ज्ञात है कि आगमानुयायी विज्ञानवादी कार्यकारण के समकालिक होने के पक्षधर हैं। फलतः आवेणिक का तात्पर्य आश्रयतः आवेणिक होने से योगाचार दर्शन ४२५ है। अर्थात इस अविद्या का आश्रय असाधारण है। वह कभी अन्य को आश्रय नहीं बनाती। क्योंकि उक्त अविद्या केवल क्लिष्ट मनोविज्ञान से ही सर्वदा सम्प्रयुक्त होती है, अन्य विज्ञानों से नहीं, तो ऐसी स्थिति में यदि क्लिष्ट मनोविज्ञान न माना जाएगा तो उक्त अविद्या के अभाव का प्रसङ्ग होगा।
बा (२) पाँच इन्द्रियविज्ञानों के साथ मनोविज्ञान की सदृशता का अभाव – यदि क्लिष्ट मनोविज्ञान न होगा तो जैसे पाँच इन्द्रियविज्ञान अपने अधिपतिप्रत्यय से उत्पन्न होते हैं, वैसे षष्ठ मनोविज्ञान का अपने अधिपतिप्रत्यय से उत्पन्न होना असम्भव हो जाएगा। जिस प्रकार पाँच इन्द्रियविज्ञानों के आश्रय केवल अतीत ही नहीं होते, अपितु समकालीन आश्रय (अधिपतिप्रत्यय) भी होते हैं। ज्ञात है कि इन्द्रियविज्ञानों के दो आश्रय होते हैं, एक समनन्तर अतीत मनस् और द्वितीय पाँच समकालीन इन्द्रियाँ। ठीक उसी प्रकार मनोविज्ञान का आश्रय भी अतीत और समकालीन इस प्रकार द्विविधि होना चाहिए। ऐसा होने पर क्लिष्ट मनोविज्ञान अपने-आप सिद्ध हो जाता है, क्योंकि मनोविज्ञान का समकालीन आश्रय क्लिष्ट मनोविज्ञान ही हो सकता है। अन्य कोई भी ऐसा उपयुक्त विज्ञान नहीं है, जो मनोविज्ञान का सहज (साथ उत्पन्न) होते हुए उसे जन्म दे सके। उपर्युक्त मत निगूढार्थ उपाध्याय का माना जाता है। कुछ लोग ऐसा कह सकते हैं कि क्लिष्ट मनोविज्ञान न होने पर भी षष्ठ मनोविज्ञान का समकालीन आश्रय हृदयवस्तु हो सकती है। किन्तु उनका यह कथन वास्तविकता से विरुद्ध होगा. क्योंकि यदि मनोविज्ञान हृदयवस्त पर आश्रित होगा तो वह पांच इन्द्रियविज्ञानों की भाँति निर्विकल्पक ही हो जाएगा। अर्थात् सविकल्पक न हो सकेगा। बात यह है कि जिन विज्ञानों के आश्रय रूपी (जड) इन्द्रियां होती हैं, वे विज्ञान निर्विकल्पक होते हैं, जैसे पाँच इन्द्रियविज्ञान। रूपी (जड) हृदयवस्तु को मनोविज्ञान का आश्रय माना जाएगा तो वह भी निर्विकल्पक ही होन लगेगा। किन्तु स्मृति, निश्चय, तुलना आदि के रूप में सविकल्पक मनोविज्ञान भी होते हैं, उनका होना असम्भव हो जाएगा। फलतः यदि क्लिष्ट मनोविज्ञान स्वीकार नहीं किया जाता है तो मनोविज्ञान की पांच इन्द्रियविज्ञानों से समता के अभाव का प्रसङ्ग होगा।
(३) दोनों समापत्तियों में विशेषता (भेद) का अभाव- यदि क्लिष्ट मनोविज्ञान स्वीकार नहीं किया जाएगा तो असंज्ञिसमापत्ति और निरोधसमापत्ति में भेद नहीं किया जा सकेगा, क्योंकि दोनों समापत्तियों की अवस्था में छह विज्ञान निरुद्ध रहते हैं और क्लिष्ट मनोविज्ञान (पूर्वपक्ष को) स्वीकृत नहीं है। क्लिष्ट मनोविज्ञान मानने से योगाचार मत में यह दोष नहीं है। क्योंकि असंज्ञिसमापत्ति की अवस्था में अहं-दृष्टि, आत्मस्नेह (क्लिष्ट मनोविज्ञान) आदि विद्यमान रहते हैं और निरोधसमापत्ति की अवस्था में वे विद्यमान नहीं रहते। इसलिए असंज्ञिसमापत्ति अशान्त होती है और निरोधसमापत्ति शान्त। इसी आधार पर दोनों समापत्तियों में भेद किया जा सकता है। यदि क्लिष्ट मनोविज्ञान न माना जाएगा तो दोनों बौद्धदर्शन समापत्तियों में भेद का कोई आधार न मिल सकेगा। किन्तु उनमें भेद होना आवश्यक है। अतः क्लिष्ट मनोविज्ञान सिद्ध होता है।
पूर्वपक्ष- भूमि और मनस्कार में भेद होने से दोनों समापत्तियों में भेद हो जाएगा ? अर्थात् अभेद का प्रसङ्ग न होगा ? उत्तरपक्ष- यह अयुक्त है। क्योंकि इतना मात्र भेद होने पर भी उनके स्वरूप में कोई अन्तर (फर्क) नहीं होता।
पूर्वपक्ष- एक समापत्ति (निरोधसमापत्ति) आर्य की सन्तान में होती है और दूसरी (असंज्ञिसमापत्ति) पृथग्जन की सन्तान में होती है, इसलिए भेद हो जाएगा? उत्तरपक्ष- इसमें भेद नहीं हो सकेगा, क्योंकि आर्यजन असंज्ञिसमापत्ति को प्रपात की भाँति समझकर उसका परिवर्जन करते हैं, क्योंकि उसमें ‘अहं-दृष्टि’ विद्यमान रहती है और इस वजह से अशान्त रहती है। यदि छह विज्ञानों का निरोध होने मात्र से उसे छोड़ देंगे तब तो उन्हें निरोधसमापत्ति को भी छोड़ देना पड़ेगा। अर्हदृष्टि की विद्यमानता क्लिष्ट मनोविज्ञान की वजह से है। सैद्धान्तिक पक्ष के अनुसार तो शान्त एवं अशान्त का भेद होने से आर्य जन एक का ग्रहण करते हैं और दूसरी परित्याग करते हैं।
(४) व्युत्पत्ति का अभाव- क्लिष्ट मनोविज्ञान सर्वदा अहं का ग्राहक (ग्रहण करने वाला) होता है। शास्त्रों में उसे ‘सर्वदा अहंकार का कारण’ कहा गया है। वह क्योंकि अहंकार करता है, इसलिए ‘अहंकार का कारण’ कहा जाता है। यदि क्लिष्ट मनो विज्ञान न माना जाएगा तो क्लिष्ट मनोविज्ञान की उपर्युक्त व्युत्पत्ति (निर्वचन या व्याख्या) निरर्थक हो जाएगी, क्योंकि आलयविज्ञान या पाँच इन्द्रिय विज्ञानों द्वारा कभी भी अहंकार का ग्रहण नहीं होता। षष्ठ मनोविज्ञान द्वारा अहंकार का ग्रहण होने पर भी सर्वदा नहीं होता। अतः सर्वदा अहंकार का ग्राहक होने से क्लिष्ट मनोविज्ञान सिद्ध होता है।
8 (५) असंज्ञी सत्त्व की सन्तान में अहं-दृष्टि का अभाव- यदि क्लिष्ट मनोविज्ञान न होगा तो असंज्ञी-देवों के रूप में उत्पन्न सत्त्वों की सन्तान में अहंदृष्टि का अभाव हो जाएगा, जो अहं-दृष्टि उसकी सन्तान में प्रतिसन्धि से लेकर च्युति-पर्यन्त सर्वदा विद्यमान रहती है। यद्यपि प्रतिसन्धि होते समय प्रथम क्षण में अहंदृष्टि मनस् हो सकता है, किन्तु उसके बाद च्युति होने तक उसकी सन्तति में अहं-दृष्टि नहीं हो सकेगी। क्योंकि क्लिष्ट मनोविज्ञान को तो पूर्वपक्ष मानता नहीं और षड् विज्ञान तो असंज्ञीसत्त्व में निरुद्ध ही रहते हैं। यदि अहंदृष्टि उनमें न रहेगी तो वे क्लिष्ट (क्लेशों से युक्त) भी न हो सकेंगे। अर्थात् क्लेशमुक्त हो जाएंगे। किन्तु वे क्लेशमुक्त नहीं हैं, अतः उनमें अहंदृष्टि का होना सिद्ध होता है और उसी वजह से क्लिष्ट मनोविज्ञान का अस्तित्व भी सिद्ध होता है।
योगाचार दर्शन ४२७ पूर्वपक्ष- प्रथम उत्पत्ति क्षण में अहंदृष्टियुक्त मनस् उत्पन्न होगा तथा बाद में न होने पर भी उसको वासना विद्यमान रहेगी। फलतः वासना होने की वजह से हम कह सकते है। कि वह अहंदृष्टिसहित है ? __उत्तरपक्ष- यह अयुक्त है, क्योंकि उस अहंदृष्टि-वासना का आश्रय क्लिष्ट मनोविज्ञान होता है और वह उसकी सन्तति में नहीं है। असंज्ञी सत्त्व की सन्तति में कोई भी विज्ञान नहीं है। उसके सभी विज्ञान निरुद्ध हो गये हैं। केवल रूपस्कन्ध सन्तति ही विद्यमान होती है। रूपस्कन्ध कभी भी वासना का आधार नहीं हो सकता। यदि असंज्ञी देवों में अहंदृष्टि न होगी तो वह क्लेशो से रहित होंगे, फलतः आर्यजन उस भूमि को अक्षण (मार्ग आदि के उत्पाद के लिए अभव्य) स्थान समझ कर उसका त्याग नहीं करेंगे। यदि छह विज्ञानों के निरोध मात्र से उसे अक्षण मानेंगे तो निरोधसमापत्ति को भी अक्षण मानकर उसका त्याग करना पड़ेगा, क्योंकि उसमें भी छह विज्ञान नहीं होते। यदि क्लिष्ट मनोविज्ञान का अस्तित्व माना जाता है तो असंज्ञी देवों में सर्वदा अहंदृष्टि प्रवृत्त होगी, षडविज्ञान नहीं होंगे। इस मिथ्यादृष्टि के कारण असंज्ञिदेवों को असंज्ञिभूमि में पाँच सौ महाकल्प तक निवास करना होता है और इस अवधि में वे अपना कुछ भी कल्याण नहीं साध सकते। फलतः वह भूमि अक्षण-स्थान सिद्ध हो सकेगी। __(६) हमेशा अहं-बोध होते रहने का अभाव- जब हम कोई पुण्य कर्म करते हैं, यथा- दान देते हैं, उस समय यह समझते हैं कि ‘मैं दान दे रहा हूँ’। जब कोई अकुशल कर्म करते हैं, यथा- प्राणतिपात (हत्या) करते हैं, उस समय यह समझते हैं कि ‘मै। जान से मार रहा हूँ’। अव्याकृत कर्म करने की अवस्था में भी ‘मैं स्नान कर रहा हूँ’ इत्यादि का भान होता रहता है। इस तरह हम देखते हैं कि कुशल, अकुशल और अव्याकृत सभी अवस्थाओं में अहं-बोध रहता है। यह तभी सम्भव है, जब क्लिष्ट मनोविज्ञान माना जाए, क्योंकि उससे अवशिष्ट सात विज्ञानों में कोई भी एक ऐसा विज्ञान नहीं है, जो सभी अवस्थाओं में समान रूप से विद्यमान रहे और अहंदृष्टि का आश्रय हो। इन उपर्युक्त सभी कारणों से क्लिष्ट मनोविज्ञान सिद्ध होता है।
(३) नौ विज्ञान तथा एक विज्ञान मानने वालों का खण्डन (क) नौ विज्ञान मानने वालों का खण्डन- श्रावकवर्गीय पिटकों में विज्ञान की संख्या छह ही कही गयी है। महायन आचार्यों के इस विषय में दो मत पाए जाते हैं। (१) आचार्य नागार्जुन आदि माध्यमिकों के मतानुसार विज्ञान छह ही होते हैं, सात या आठ नहीं। वे छह विज्ञान से अतिरिक्त विज्ञानों की सत्ता का जोरदार खण्डन करते हैं। आचार्य भव्य ने अपने - मध्यमकहृदय में कहा है- ‘छह विज्ञानों से अतिरिक्त आलयविज्ञान आदि नहीं है, चक्षुर्विज्ञान आदि छह विज्ञानों के अन्तर्गत नहीं होने से, खपुष्प के समान। (२) दूसरा मत आर्य ४२८ बौद्धदर्शन मैत्रेयनाथ और उनके अनुयायियों का है, जो सुवर्णप्रभास आदि सूत्रों पर आधृत है। इस मत के अनुयायियों में तीन पक्ष उपलब्ध होते हैं। पर माया प्रथम पक्ष- इस मत के प्रतिष्ठापक आचार्य ‘बो देलेऊ’ है। विज्ञप्तिमात्रता शास्त्रों के आधार पर उन्होंने यह प्रस्थापना की है कि चित्त या विज्ञान दो प्रकार का होता है। पहला धर्मता चित्त है, जो तत्त्वस्वभाव का होता है और सालम्बन नहीं होता। दूसरा सम्प्रयुक्त चित्त है, जो श्रद्धा आदि के शुक्ल तथा राग आदि अकुशल चैतसिकों से सम्प्रयुक्त होता है। कि द्वितीय पक्ष- इसके प्रमुख वक्ता आचार्य ‘परमार्थ’ हैं, जिन्होंने विनिश्चयकोशशास्त्र के आधार पर नौ विज्ञानों की स्थापना की है। चक्षुर्विज्ञान से लेकर मनोविज्ञान तक तो वे ही प्रसिद्ध छह विज्ञान हैं, जिनका अन्य शास्त्रों और मतों में उल्लेख मिलता है। सातवां विज्ञान आदान विज्ञान है जो अष्टमविज्ञान के प्रति आत्मा-आत्मीय दृष्टि रखता है। यह केवल क्लेशावरण से युक्त होता है, इसके द्वारा धर्मात्म ग्रहण नहीं होता। अष्टम विज्ञान आलयविज्ञान है। इसके तीन भेद होते हैं। यथा-स्वभाव-आलय, जो बुद्धत्व सिद्धि का आधार है। दूसरा विपाक-आलय है, जो अष्टादश धातुओं का आलम्बन करता है। तीसरा संक्लिष्ट आलय है जो तथता विषय को आलम्बन बनाकर चार प्रकार के मान को उत्पन्न करता है। यह केवल धर्मात्मा को ग्रहण करता है पुद्गलात्मा को नहीं। अर्थात् यह केवल धर्मात्मदृष्टि है, पुद्गलात्मदृष्टि नहीं। नवम विज्ञान विमलविज्ञान है, जो तथतास्वभाव है। तथता का तात्पर्य विषय और विषयी दोनों से है। इसमें दो अर्थ सम्मिलित हैं, एक आलम्ब्य विषयतथता है, जिसे धर्मता, तत्त्व या सम्यगन्त (बुद्धबीज) भी कहते हैं, दूसरा आलम्बक तथता है, जिसे विमलविज्ञान, आदिवित् आदि नामों से अभिहित किया जाता है।
तृतीय पक्ष- यह आर्यलकावतार आदि सूत्रों के आधार पर उपस्थित किया जाता है। इसके मतानुसार विज्ञानों की संख्या आठ मानी जाती है।
उपर्युक्त तीन पक्षों में से तृतीय पक्ष ही समीचीन है। दो विज्ञान मानने वाले प्रथम पक्ष का पृथक् खण्डन आवश्यक नहीं है, क्योंकि उन दोनों में एक जो धर्मताचित्त है, जो विचार करने पर द्वितीय पक्ष के विमलचित्त से भिन्न नहीं है। अतः विमलविज्ञान के खण्डन से उसका भी खण्डन हो जाता है। अतः विमलविज्ञान मानने वाले आचार्य परमार्थ के द्वितीय पक्ष का खण्डन किया जा रहा है : आठ विज्ञानों से अतिरिक्त यदि नवम विज्ञान का अस्तित्व स्वीकार किया जाएगा तो यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि संसार में नित्य वस्तु भी होती है, क्योंकि नवम (विमल) विज्ञान परमार्थ के अनुसार तथतास्वभाव होने के नाते नित्य भी होता है और सालम्बन होने के नाते उसका वस्तु होना भी आवश्यक है। इस तरह विमलविज्ञान संस्कृत और असंस्कृत दोनों पदार्थों का एक सम्मिलित रूप होगा, जो युक्ति और न्याय दोनों से सर्वथा विपरीत है। चाहे विज्ञानवाद हो या माध्यमिक नित्य विज्ञान कहीं भी नहीं माना जाता। जो लोग ४२६ योगाचार दर्शन शून्यता या परमार्थ सत्य को चैतन्य मानते हैं, उन्हीं पर यह दोष लागू होगा। विज्ञानवाद के प्रामाणिक शास्त्रों का सम्यग अध्ययन न होने के कारण विज्ञानवाद के मन्तव्यों के बारे में अनेक प्रकार की भ्रान्तियाँ आजकल फैली हुई हैं। कुछ लोग कहते हैं कि विज्ञानवाद के अनुसार रूप, शब्द आदि धर्मों का अस्तित्व नहीं है। सर्वत्र विज्ञान ही विज्ञान है। तथा विज्ञान ही परमार्थ सत्य है- इत्यादि। इस तरह की बातें आर्य असङ्ग आदि विज्ञानवादी आचार्यों के शास्त्रों में कहीं भी उपलब्ध नहीं होतीं, अपितु इनसे विपरीत बातें उपलब्ध होती हैं, जिनका थोड़ा-बहुत परिचय हमने पहले यत्र तत्र यथामति दिया है।
दूसरे ही पक्ष में जो सप्तम विज्ञान को ‘आदानविज्ञान’ संज्ञा प्रदान की गई है, वह भी किसी शास्त्र में उपलब्ध नहीं होती। इस तरह नौ विज्ञान मानना आर्य मैत्रेयनाथ, असङ्ग, वसुबन्धु, स्थिरमति आदि प्रामाणिक विद्वानों के अभिप्राय से सर्वथा विपरीत है, क्योंकि उनके ग्रन्थों में ऐसा उल्लेख नहीं है।
(ख) एक विज्ञान मानने वालों का खण्डन- एक ही विज्ञान की सत्ता मानने वाले कुछ आचार्य थे, जो ब्राह्मणवर्ग और द्वादशायतनसूत्र के आधार पर एक ही विज्ञान की सत्ता स्थापित करते थे, तथा हि : दूरङ्गमं एकचरं असरीरं गुहासयं। काम न मिही ती सो का ये चित्तं सचमेस्सन्ति मोक्खन्ति मारबन्धना॥

(धम्मपद, चित्तवग्ग, का. ५) कि द्वादशयतनसूत्र में भी उक्त है कि छहविज्ञान एक मनायतन है। उनका कहना है कि इन वचनों के द्वारा भगवान् ने एक ही चित्त दिखलाया है। फलतः समस्त चित्त एक ही मूलविज्ञान के भेद हैं। एक ही मनोविज्ञान के पृथक्-पृथक् इन्द्रिय द्वारों से प्रवृत्त होने के कारण भिन्न-भिन्न नाम पड़ जाते हैं। जैसे अनेक छिद्रों से युक्त घर में रखे हुए दीपक का प्रकाश छिद्रों की स्थिति और आकार के अनुसार नाना रूपों में निकलता हुआ दिखलाई पड़ता है, फिर भी उस घर में दीपक तो एक ही होता है, उसी प्रकार विज्ञान भी एक ही होता है। विज्ञान के एक होने पर भी उसके दो अंश होते हैं। एक वह, जिसमें विषयमात्र का प्रतिभास होता है और जिसमें कल्पनांश नहीं होता। दूसरा वह, जिसके द्वारा प्रतिभासित विषय का अध्यवसाय होता है, यह सविकल्पक होता है। फलतः एक विज्ञान मानने पर भी हमारे मत में विज्ञान के केवल निर्विकल्पक ही होने का दोष नहीं होता।
सिद्धान्त पक्ष- आपने जिस आगमों का उद्धरण किया है, उनसे एक विज्ञान की सिद्धि नहीं होती। ब्राह्मणवर्ग में चित्त को लेकर जो ‘एकचर’ कहा गया है, उसका अर्थ है- श्रुतमय अधिगम से लेकर बुद्धत्व प्राप्ति तक के सभी दर्शन और भावना आदि मार्ग मनोविज्ञान द्वारा ही निष्पन्न होते हैं। इन्द्रियविज्ञानों के अर्थों (विषयों) में भी मनोविज्ञान प्रवृत्त AI बौद्धदर्शन होता है तथा वह इन्द्रियविज्ञानों का हेतु भी होता है। यही कारण है कि मनोविज्ञान को अनेक स्थलों में प्रधान, शासक या श्रेष्ठ निर्दिष्ट किया गया है। द्वादशायतनसूत्र का अभिप्राय भी वैसा नहीं है, जैसा आपने समझा है। उस सूत्र का वास्तविक अर्थ यह है कि जब अष्टादश धातुओं का बाहर आयतनों में विभाजन किया जाता है, तब सभी छह विज्ञान मन आयतन में संगृहीत होते हैं। रूप आदि छह विषय-आयतन तथा चक्षुर्विज्ञान से मनोविज्ञान पर्यन्त छह विज्ञान विषयी-आयतन इस तरह बारह आयतन होते हैं। एक बात और ध्यान देने योग्य है कि मन और मनोविज्ञान में अन्तर है। मन तो सभी चित्तों को कह सकते हैं, किन्तु मनोविज्ञान केवल छठवें और सातवें विज्ञान एवं उनके परिवार का नाम है।
युक्ति विरोध- यदि समस्त विज्ञान द्रव्यतः एक है तो इन्द्रियविज्ञानों द्वारा भी परोक्ष विषयों का अनुमान होना चाहिए तथा उनके द्वारा अतीत, अनागत विषयों का भी ग्रहण होना चाहिए। अपि च, समस्त ज्ञान सर्वथा निर्विकल्पक हो जाएंगे, क्योंकि इन्द्रिय विज्ञान सदा निर्विकल्पक ही होते हैं और उनसे द्रव्यतः भिन्न अन्य कोई विज्ञान नहीं है। अथवा-समस्त ज्ञान सविकल्पक हो जाएंगे, क्योंकि मनोविज्ञान सविकल्पक है। और उनसे भिन्न किसी अन्य ज्ञान का अस्तित्व नहीं है। __एक ही विज्ञान के सविकल्पक और निर्विकल्पक ये दो अंश भी सम्भव नहीं हैं, क्योंकि एक ही वस्तु के परस्पर विरोधी दो स्वभाव नहीं हो सकते। यदि दो स्वभाव माने जाएंगे, तो वस्तु भी दो हो जाएंगी, क्योंकि स्वभाव ही वस्तुत्व का नियामक है। फलतः विज्ञान के एकत्व का सिद्धान्त नष्ट हो जाएगा। यदि विज्ञान एक माना जाएगा तो उसके दो स्वभाव या दो अंश होना अयुक्त होगा। फलतः एक विज्ञान मानने में न कोई आगम प्रमाण है और न युक्ति प्रमाण। सारी यर

दो सत्य

सत्य दो हैं, यथा- संवृत्ति सत्य और परमार्थ सत्य। तीन लक्षणों में से परतन्त्रलक्षण संवृतिसत्य है। कहने का आशय यह है कि जितनी भी वस्तु हैं, अर्थक्रियासमर्थ हैं, हेतु हैं, कार्य हैं, अनित्य हैं, संस्कृत हैं, वे सब संवृत्ति सत्य हैं।
__परिकल्पित लक्षण दो प्रकार से समझा जा सकता है, जैसे- आकाश आदि यद्यपि परिकल्पित लक्षण हैं, फिर भी उनकी सत्ता होती है। बाह्य अर्थ, आत्मा, शशशृङ्ग आदि ऐसे परिकल्पित हैं, जिनकी बिलकुल भी सत्ता नहीं है, वे सर्वथा अलीक हैं। आकाश आदि संवृतिसत्य हैं। बाह्य अर्थ, आत्मा एवं शशशृङ्ग आदि संवृतिसत्य भी नहीं है। इस तरह परिकल्पित का एक अंश और परतन्त्रलक्षण संवृतिसत्य हैं।
योगाचार दर्शन ४३१ परिनिष्पन्न लक्षण एकान्त परमार्थ सत्य है। वह स्वलक्षण माना जाता है। इन आगमानुयायी विज्ञानवादियों के मत में स्वलक्षण का बाह्य वस्तु होना आवश्यक नहीं है। वह प्रत्यक्ष का विषय है, अतः स्वलक्षण है। अर्थात् स्वलक्षण होने के लिए उसे प्रत्यक्ष का विषय होना चाहिए।
आवरणद्वय- आवरण दो होते हैं, यथा- क्लेशावरण और ज्ञेयावरण। अविद्या (मोह), राग, द्वेष आदि क्लेश ‘क्लेशावरण’ कहे जाते हैं। इनके द्वारा मोक्ष का अवरण किया जाता है। क्लेशों के अतिरिक्त (बाह्यार्थों को सत् समझने वाली दृष्टि) या ग्राह्य-ग्राहक द्वय ग्राहक दृष्टि अर्थात् जो दृष्टि ग्राह्य और ग्राहक को पृथक् और सत् ग्रहण करती है, ‘ज्ञेयावरण’ है। यह दृष्टि क्लिष्ट अविद्या नहीं है। इसे अक्लिष्ट अविद्या कहा जाता है।
आत्मदृष्टिद्वय- आत्मदृष्टि दो प्रकार की है, यथा- पुद्गलात्मदृष्टि एवं धर्मात्मदृष्टि। पुद्गल- आत्मा को ग्रहण करने वाला दृष्टि नामक चैतसिक पुद्गलात्म दृष्टि कही जाती है। इसके द्वारा एक ऐसे आत्मा का अभिनिवेशय (ग्रहण) किया जाता है, जो पाँच स्कन्धों से भिन्न, एक, नित्य, शाश्वत, कर्मों का कर्ता, फलों का भोक्ता तथा बन्ध-मोक्ष का आश्रय है। तथा बाह्य अर्थ सत् हैं तथा ग्राह्य और ग्राहक की पृथक् द्रव्यसत्ता है, इस प्रकार समझने वाली दृष्टि धर्मात्मदृष्टि है।
नैरात्म्यद्वय- पुद्गलनैरात्मय और धर्मनैरात्म्य- ये दो नैरात्म्य होते हैं। ऊपर जिस प्रकार के पुद्गल का निरूपण किया गया है, उसका अभाव पुद्गलनैरात्म्य है तथा बाह्यार्थ से शून्यता या ग्राह्य-ग्राहकद्वय से रहितता धर्मनैरात्म्य है। आज यह विशेषतः ज्ञातव्य है कि यद्यपि पुद्गल नित्य, शाश्वत आदि आत्मा से रहित है, फिर भी पुद्गल का अभाव नहीं है। वह आधार है, जिसमें आत्मा से रहितता होती है। विज्ञान के गर्भ में उसका अस्तित्व होता है। इसी तरह घट, पट आदि वस्तुएं बाह्यार्थता से शून्य हैं, किन्तु उनका सर्वथा अभाव नहीं है। वे परतन्त्रलक्षण हैं। बाह्यार्थता से शून्य होने पर भी वे ज्ञानात्मक द्रव्य के रूप में सत् होते हैं। _आगमानुयायी विज्ञानवाद के अनुसार पुद्गलनैरात्म्य का स्वरूप वैभाषिक, सौत्रान्तिक दर्शनों में मान्य स्वरूप से भिन्न नहीं है। पुद्गलात्मदृष्टि का जब अशेष प्रहाण हो जाता है, तब पुद्गल अर्हत् हो जाता है, किन्तु उसमें अभी भी धर्मात्मदृष्टि के विद्यमान होने से वह सर्वज्ञ नहीं होता।

कार्यकारणव्यवस्था

। इनके मत में समकालिक कार्यकारणभाव मान्य है। जैसे क्लिष्ट मनोविज्ञान और उसके परिवार में होने वाले सम्प्रयुक्त चैतसिक परस्पर कार्यकारण के रूप में अवस्थित होते हैं। इसी प्रकार बाह्य धर्मों में भी समकालिक कार्यकारणभाव माना जाता है। ४३२ बौद्धदर्शन

प्रमाणव्यवस्था

काम प्रमाणद्वय-प्रमाण दो होते हैं, यथा- प्रत्यक्ष और अनुमान। इनके प्रत्यक्ष का लक्षण सौत्रान्तिकों से नितान्त भिन्न है। कल्पनापोढ एवं स्थिरवासना से उत्पन्न ज्ञान होना प्रत्यक्ष का लक्षण है। यहां इस लक्षण में अभ्रान्त शब्द का निवेश नहीं किया गया है, क्योंकि इनके मत में पृथग्जनों के चक्षुर्विज्ञान आदि सभी ज्ञान भ्रान्त ही हैं, क्योंकि इनमें बारार्थ का प्रतिभास होता है। जब पृथग्जनों के सभी इन्द्रियज ज्ञान भ्रान्त होते हैं तब पीतशङ्ख आदि भ्रान्त ज्ञानों से भेद करने के लिए लक्षण में ‘स्थिरवासनोत्पन्न’ यह विशेषण दिया गया है। आशय यह है कि पीत शंखज्ञान भी यद्यपि कल्पनापोढ है, फिर भी वह क्योंकि स्थिर वासना से उत्पन्न नहीं है, इसलिए प्रत्यक्ष नहीं है। अनादि काल से कल्पनाओं द्वारा प्रवृत्त वासना ‘स्थिरवासना’ कहलाती है। पीतशंखज्ञान उस प्रकार की वासना से उत्पन्न नहीं है, अपितु तात्कालिक इन्द्रियविकार से उत्पन्न है। प्रत्यक्ष- चतुर्विध है, यथा- इन्द्रिय प्रत्यक्ष, मानस प्रत्यक्ष, स्वसंवेदन प्रत्यक्ष एवं योगी-प्रत्यक्ष । इन प्रत्यक्षों का लक्षण सौत्रान्तिकों की भाँति है।
अनुमान का लक्षण, स्वरूप, भेद आदि भी सौत्रान्तिकों के समान ही है।

मार्ग-फलव्यवस्था

मार्ग के तीन प्रकार हैं, यथा- श्रावकयान, प्रत्येकबुद्धयान एवं महायान (या बोधिसत्त्वयान)।
श्रावकयान- इसमें सम्भारमार्ग, प्रयोगमार्ग, दर्शनमार्ग, भावनामार्ग एवं अशैक्षमार्ग ये पांचों मार्ग होते हैं। इनकी भावना का मुख्य विषय (अनुभाव्य) पुद्गलनैरात्म्यमात्र होता है। इसलिए इनकी फलावस्था में भी क्लेशक्षयमात्र ही प्राप्त होता है। अर्थात् इनके मत में निर्वाण क्लेशक्षयमात्र या क्लेशाभावमात्र ही होता है। जब श्रावक अर्हत्व पद प्राप्त करता है तब पहले सोपधिशेष निर्वाण प्राप्त करता है। उस अर्हत् को भी सोपधिशेष अर्हत् कहते हैं। जब अर्हत् का परिनिर्वाण होता है, तब उसकी ज्ञानधारा और जड़धारा दोनों निरुद्ध हो जाती है। इसे निरुपधिशेष निर्वाण कहते हैं। यदि परिनिर्वाण के बाद भी चित्तसन्तति अवशिष्ट रहेगी तो श्रावकयान की दृष्टि से यह दोष होगा कि उसे अवश्य जन्म ग्रहण करना होगा। इसलिए उस (निरूपधिशेष) अवस्था में सभी प्रपञ्चों से शान्त, जिसमें सभी संस्कारों की प्रवृत्ति निरुद्ध हो गई है, ऐसी अनिमित्तधातु निर्वाण ही विद्यमान होती है। उस अनिमित्त धातु (तथता) में वेदनात्मक सुख नहीं है, किन्तु दुःखों से अत्यन्त वियोग रूपी शान्त सुख होता है। वह निर्वाण प्रसज्यप्रतिषेध रूप भी नहीं है तथा द्रव्यसत् भी नहीं है। प्रसज्यप्रतिषेध के निषेध से सौत्रान्तिक प्रस्थान का तथा द्रव्यसत्ता के निषेध से वैभाषिक प्रस्थान का निराकरण किया गया है। वह अवस्था नित्य, अचल एवं अक्षर है। विज्ञानवाद के अनुसार निरुपधिशेष निर्वाण प्राप्त पुद्गल कभी भी महायान में प्रवेश नहीं करेगा।
योगाचार दर्शन ४३३ मित प्रत्येकबुद्धयान- इस यान में भी पूर्वोक्त सम्भारमार्ग से लेकर अशैक्षमार्ग तक पांचो मार्ग होते हैं, इनकी भावना का विषय (अनुभाव्य) भी मुख्यतः पुद्गलनैरात्म्य ही होता है। इस यान का श्रावकयान से भेद पुण्यसंचय की दृष्टि से होता है, मुख्यतः ज्ञान की दृष्टि से नहीं। तीक्ष्णेन्द्रिय श्रावक तीन जन्मों में अर्हत् पद प्राप्त कर लेता है। वह इन तीन जन्मों में ही पुण्यसंचय कर पाता है, जब कि प्रत्येकबुद्ध सौ महाकल्पों तक पुण्यसंचय करने के अनन्तर अर्हत् होता है। वह अन्तिम जन्म में उपदेशक या मार्गदशर्क की बिना अपेक्षा किये बोधि का लाभ करता है। इसमें भी सोपधिशेष और निरुपधिशेष भेद श्रावकयान की भांति ही होते हैं। श्रावकयान और प्रत्येकबुद्धयान दोनों के अनुयायी धर्मनैरात्म्य बिलकुल नहीं जानते।
सो महायान या बोधिसत्त्वयान- इस यान में भी सम्भारमार्ग से लेकर अशैक्षमार्ग तक पांचों मार्ग होते हैं। इस यान की भावना का मुख्य विषय (अनुभाव्य) धर्मनैरात्म्य होता है। दर्शनमार्ग से लेकर सभी समाहित ज्ञानों का आलम्बन धर्मनैरात्म्य ही होता है। जैसे सौत्रान्तिक मत में लोकोत्तर मार्ग का साक्षात् विषय तो पञ्चस्कन्धात्मक संस्कृत पुद्गल होता है, और उस प्रत्यक्ष के बल से उसमें आत्मशून्यता का स्पष्ट अवबोध हो जाता है, वैसे यहां नहीं होता, अपितु महायानी पुद्गल को धर्मनैरात्म्य का प्रत्यक्ष में साक्षात् प्रतिभास होता है। दर्शन मार्ग के अनन्तर भावनामार्ग की अवस्था में दस भूमियाँ होती हैं। पारमितायान (महायान) के अनुसार एक पुद्गल को बोधिसत्त्वसम्भारमार्ग से दर्शनमार्ग तक प्राप्त करने में एक असंख्येय महाकल्प लगता है। अष्टम भूमि से सर्वज्ञ होने तक या दशमभूमि तक एक असंख्येय महाकल्प लगता है। इस प्रकार तीन असंख्येय महाकल्पों में भावना एवं पुण्यसंचय करने पर बुद्धत्व की प्राप्ति होती है। ये तीन असंख्येय महाकल्प भी तीक्ष्ण बुद्धि एवं वीर्य वाले बोधिसत्त्वों की दृष्टि से हैं। अन्य मन्दवीर्य बोधिसत्त्वों को बुद्धत्व प्राप्ति में इससे अधिक समय भी लग सकता है। ___ फलव्यवस्था- दशमभूमि में स्थित बोधिसत्त्व अन्तिम जन्म अकनिष्ठ भूमि में ग्रहण करता है। उक्त भूमि में बोधिसत्त्व ने यद्यपि अभी बुद्धत्व प्राप्त नहीं किया है, अभी वह बोधिसत्त्व ही है, तथापि वह बत्तीस लक्षणों और अस्सी अनुव्यञ्जनों से विभूषित होकर सम्भोगकाय की तरह उत्पन्न होता है। जिस क्षण उसे बुद्धत्व प्राप्त होगा, उससे पहले वह वज्रोपम समाधि द्वारा सूक्ष्म ज्ञेयावरणों का प्रहाण करके बुद्ध होता है। जिस क्षण वह बुद्ध होगा, उस क्षण में वह सम्भोगकाय के रूप में परिणत होगा। जिस क्षण बुद्ध का सम्भोगकाय निष्पन्न होता है, उसी क्षण में इस ब्रह्माण्ड की समस्त लोकधातुओं में जितने जम्बूद्वीप हैं, सभी में एक ही काल में उतनी ही संख्या में निर्माणकाय निर्मित होते हैं। उस सम्भोगकाय और निर्माणकायों में विद्यमान सर्वज्ञ ज्ञान बुद्ध का ज्ञानधर्मकाय कहलाता है। उस ज्ञानधर्मकाय में दो शून्यताएं रहती हैं- आवरणद्वय शून्यता अर्थात् पुद्गलात्म शून्यता तथा बौद्धदर्शन धर्मात्मशून्यता। इन दोनों शून्यताओं को स्वभाव काय कहते हैं। इस प्रकार स्वभावकाय, ज्ञानधर्मकाय, सम्भोगकाय और निर्माणकाय- ये चार काय होते हैं।
जो इस आगमानुयायी मत में अन्तिम रूप से तीन यानों की व्यवस्था की जाती है। ऐसा नहीं है कि अन्तिम रूप से एक ही यान (बुद्धयान) माना जाता हो, जैसा कि एकयानी बौद्ध मानते हैं। अपितु ये लोग त्रियानवादी होते हैं, यथा- श्रावकयान, प्रत्येकबुद्धयान और बोटि सत्त्वयान या महायान । अन्तिम यान का तात्पर्य यह है कि तीनों यानों के साधक अपने-अपने यान के अनुसार साधना करते हुए जब अन्तिम फल प्राप्त कर लेते हैं, तब उनकी अग्रगति समाप्त हो जाती है। ऐसा नहीं है कि उनका अन्य यान में प्रवेश हो जाता हो। अतः पूर्वोक्त तीनों यानों को अन्तिम यान कहा गया है। इतना अवश्य है कि श्रावकयानी या प्रत्येकबुद्धयानी पुद्गल चाहें तो निरुपधिशेष निर्वाण से पहले अर्थात् सोपष्टि शेिष अवस्था में महायान में प्रविष्ट हो सकते हैं। किन्तु निरुपधिशेषनिर्वाण प्राप्त हो जाने पर यह असम्भव है, क्योंकि उस अवस्था में पहुँचने पर पुद्गल की गति समाप्त हो जाती है। (२) युक्त्यनुयायी विज्ञानवाद hि F FREE मा DIET दोनों प्रकार के विज्ञानवादियों में ऐसे अनेक दार्शनिक मुद्दे हैं, जिन पर उनका ऐकमत्य है। फिर भी ऐसे अनेक मुद्दे हैं, जिन पर उनका मतभेद है। यदि ऐसा न होता तो युक्त्यनुयायियों का पृथक् प्रस्थान विकसित न होता। हमने ऊपर आगमानुयायी विज्ञानवाद का यथासम्भव प्रतिपादन किया है। अतः जिन विषयों में दोनों का समान दृष्टिकोण है, हम उनकी चर्चा नहीं करेंगे, अन्यथा पुनरुक्ति दोष होगा और माहक विस्तार होगा। अब हम केवल उन्हीं विषयों की चर्चा करने जा रहे हैं, जिनमें मतभेद के कारण युक्त्यनुयायी आचार्य आगमानुयायियों से पृथक् होते हैं। कि काहिल FIRइनके मत में भी सभी पदार्थों के तीन स्वभाव माने जाते हैं, यथा परिकल्पितलक्षण, परतन्त्रलक्षण और परिनिष्पन्न लक्षण। इनके स्वरूप के विषय में दोनों प्रकार के विज्ञानवादियों में प्रायः समानमति है –भास्कर BF मि(२) ये (युक्त्यनुयायी) विज्ञालों की संख्या छह ही मानते हैं, आठ नहीं, जैसे आगमानुयायी विज्ञानवादी मानते हैं। ये आलयविज्ञान की सत्ता का खण्डन करते हैं। आलयविज्ञान खण्डित होने पर क्लिष्ट मनोविज्ञान भी अपने-आप खण्डित हो जाता है। क्योंकि आलयविज्ञान का ही क्लिष्ट मनोविज्ञान आत्मत्वेन ग्रहण करता है। फलतः चक्षुर्विज्ञान से लेकर मनोविज्ञान तक छह विज्ञान ही नके मत में मान्य हैं। सामान 5 PM (३) आलयविज्ञान नहीं होने पर वासनाओं का आधार कौन होगा । इस विषय में इनका कहना है कि छठवां मनोविज्ञान ही वासना का आधार होगा। वह यद्यपि कुशल, अकुशल एवं अव्याकृत तीनों प्रकार का होता है, तथापि बासना का आधार हो सकता है। अर्थात उसमें वासना स्थापित (अहित) हो सकती है। 153) Pाप नाद योगाचार दर्शन ४३५ (४) आलयविज्ञान का निराकरण- इनका कहना है कि छह विज्ञानों से अतिरिक्त आलयविज्ञान नामक कोई विज्ञान होगा तो वह आत्मा ही हो जाएगा। पांच स्कन्धों से भिन्न, संसार और मोक्ष के आधार के रूप में आलयविज्ञान को मानना आत्मा को मानने की तरह ही है। विज्ञान होने के लिए उसका कोई स्पष्ट आकार या आलम्बन होना चाहिए, किन्तु उसका न कोई आकार उपलब्ध है और न आलम्बन तथा न वह किसी विषय का निश्चय ही कर पाता है, अतः उसे विज्ञान मानना ही अयुक्तिसंगत है। अपि च, अनादिकाल से प्रवृत्त उस आलयविज्ञान में न तो किसी तरह का कोई स्वरूप-परिवर्तन ही परिलक्षित होता है, अतः उसके नित्य होने का प्रसङ्ग होगा। ज्ञान का नित्य होना सम्भव नहीं, ऐसा होने पर अनेक दोष होंगे। ज्ञान को अवश्य ही अनित्य होना चाहिए-इत्यादि अनेक युक्तियों द्वारा वे आलयविज्ञान का खण्डन करते हैं। _(५) बाह्यार्थ निराकरण- घट, पट आदि सभी वस्तुएं ज्ञानात्मक या बुद्धिद्रव्यात्मक हैं, बाह्यार्थ बिलकुल नहीं हैं। यह दोनों मानते हैं, किन्तु उनकी बुद्धिद्रव्यात्मकता सिद्ध करने के लिए विशेष रूप से ये सहोपलम्भनियम का हेतु के रूप में प्रयोग करते हैं। तथा हि -नील और नीलज्ञ बुद्धि (पक्ष), भिन्न द्रव्य नहीं है (साध्य), सहोपलम्भ होने से (हेतु) यथा-चन्द्रद्वय और उसका ज्ञान (सपक्ष दृष्टान्त)। नील और पीत इसका विपक्ष दृष्टान्त है। जा इस सहोपलम्भ हेतु की पक्षधर्मता (अर्थात् नील और नीलज्ञबुद्धि पक्ष में रहना) प्रत्यक्षतः सिद्ध है। अर्थात् नील और नीलज्ञ बुद्धि का युगपद् (एक साथ) उपलब्ध होना (सहोपलम्भ) स्वसंवेदन प्रत्यक्ष द्वारा सिद्ध है। जब नीलबुद्धि होती है, तब नील भी होता है और जब नील होता है, तब नीलबुद्धि भी होती है-इस प्रकार का दोनों में रहने वाला सम्बन्ध प्रत्यक्ष द्वारा ज्ञात होता है। दिन जो द्रव्य भिन्न-भिन्न होते हैं, उनकी सर्वदा युगपद् उपलब्धि निश्चित नहीं होती। जैसे नील और पीत दोनों द्रव्यतः भिन्न-भिन्न हैं, अतः उन दोनों का युगपद् उपलम्भ स्वसंवेदन प्रत्यक्ष द्वारा निश्चित है। अतः हेतु और साध्य की व्याप्ति निश्चित होती है। यह सहोपलम्भ नियम दोनों प्रकार के विज्ञानवादियों का बाह्यार्थ का निरास करने के लिए प्रधान हेतु है।
बाह्यार्थ का निराकरण करने के लिए अन्य युक्तियों का भी प्रयोग किया जाता है, यथा- (१) एक द्रव (तरल) पदार्थ को जब देव, मनुष्य और प्रेत एक साथ देखते हैं तो उनमें तीन प्रकार की बुद्धियाँ उत्पन्न होती हैं। अर्थात् देव उसे (तरल पदार्थ को) अमृत के रूप में ग्रहण करता है, मनुष्य जल के रूप में तथा प्रेत उसे पूय या रुधिर के रूप में ग्रहण करता है। तीनों की वे तीन प्रकार की बुद्धियाँ मिथ्या हैं- यह नहीं कहा जा सकता। उनके (बुद्धियों के) यथार्थ ज्ञान होने से उनके विषय भी तीन प्रकार के होते हैं। एक ही तरल विषय एक ही काल में तीनों (अमृत, जल ओर पूय-रुधिर) नहीं हो सकता। अतः यह सिद्ध होता है कि वे तीनों विषय उन उन बुद्धियों के ही अंश हैं। यदि वे बाह्यार्थ ४३६ बौद्धदर्शन सत्य होंगे तो देव को भी पूय-रुधिर दिखलाई पड़ना चाहिए और प्रेत को भी अमृत दिखलाई पड़ना चाहिए। अतः वे बाह्यार्थतः सत्य नहीं हैं, अपितु ज्ञानांश के रूप में सत्य अपि च, जब किसी एक व्यक्ति को शत्रु और मित्र-इन दो व्यक्तियों द्वारा देखा जाता है तो वह दो प्रकार से दिखाई देता है, यथा- शत्रु को वह कुत्सित रूप में तथा मित्र को मनोज्ञ रूप में दिखाई देता है। किन्तु एक व्यक्ति एक साथ कुत्सित और मनोज्ञ दोनों नहीं हो सकता। अतः सिद्ध होता है कि विषय की बाह्यार्थतः अर्थात् ज्ञान से निरपेक्ष सत्ता नहीं होती, अपितु ज्ञानसापेक्ष, ज्ञानांश के रूप में या ज्ञान के गर्भ में सत्ता होती है।

बाह्यार्थ के निरास के लिए अन्य युक्तियाँ

न (१) नाम-सङ्केत से पूर्व बुद्धि का उत्पाद होगा- घट वस्तु घटशब्द का अभिधेय है, इसमें कोई विप्रतिपत्ति नहीं, किन्तु घट में स्थित शब्दाभिधेयता वस्तुसत् नहीं, घट वस्तुसत् है। घट अभिधेयत्व को स्वलक्षणसत् (वस्तुसत्) मानना बाह्यार्थ मानना है। अभिधेयस्वलक्षणता और बाह्यार्थता पर्यायवाची हैं। यदि घटशब्द का अभिधेयत्व वस्तुसत् होगा तो उसे कम्वुग्रीवादिमान् पिण्ड (वस्तु) का स्वभाव होना चाहिए। फलतः उसे नाम एवं कल ना से अनपेक्ष होना चाहिए। अर्थात् जैसे अभिधेयत्व नाम और कल्पना-सापेक्ष होता है, वैसा नहीं होना चाहिए। ऐसी स्थिति में कम्बुग्रीवादिमान् पिण्ड में ‘यह घट है’ इस प्रकार के संकेतग्रह से पूर्व भी ‘यह घट है’-इस प्रकार की बुद्धि का उत्पाद होना चाहिए। किन्तु ऐसा होता नहीं, अपितु ‘यह घट है’ ऐसी बुद्धि तभी उत्पन्न होती है, जब कम्बुग्रीवादिमान् पिण्ड में ‘यह घट शब्द का अभिधेय है’-इस प्रकार पहले से ही संकेतग्रह हआ रहता है। फलतः यह सिद्ध होता है कि घट का घटशब्द का अभिधेय होना सर्वथा सङ्केत पर निर्भर करता है, न कि वस्तुवशात् वह घटशब्द का अभिधेय है। यदि वस्तुवशात् अभिधेय होगा तो घटबुद्धि का उत्पाद नाम-सङ्केत की बिना अपेक्षा किये नाम-सङ्केत से पूर्व भी होने लगेगा। होने (२) एक वस्तु में अनेक वस्तुओं की प्रवृत्ति होगी- यदि शब्दाभिधेय की वस्तुवशात् प्रवृत्ति होगी तो एक ही वस्तु में अनेक वस्तु होने का प्रसङ्ग होगा। ज्ञात है कि एक ही चन्द्र के शशी, हिमांशु राकेश आदि या एक ही इन्द्र के शतक्रतु, पुरन्दर, गोत्रभिद्, सहस्राक्ष आदि अनेक नाम-पर्याय होते हैं। यदि चन्द्र या इन्द्र का उन नामों का अभिधेय होना वस्तुवशात् होगा तो उन नामों से जो बुद्धियाँ पैदा होती हैं और उन बुद्धियों में जैसा प्रतिभास होता है, वैसा स्वरूप चन्द्र या इन्द्र में भी विद्यमान होना चाहिए। शशी-बुद्धि शशी-आकार वाली है, हिमांशु आकारवाली नहीं है। इसी तरह शतक्रतु-आकारवाली है, सहस्राक्ष-आकारवाली नहीं। किन्तु इन्द्र या चन्द्र का उन-उन नामसंकेतों का अभिधेय होना योगाचार दर्शन ४३७ वस्तु-वश किया जाएगा तो एक ही चन्द्र या इन्द्र वस्तु में अनेक वस्तु होने का प्रसङ्ग होगा।
मा (३) अनेक वस्तुएं एक नाम से व्यवहृत न हो सकेंगी- कभी-कभी दो व्यक्तियों के लिए एक ही नाम प्रवृत्त होता है। जैसे किन्हीं दो व्यक्तियों को ‘उपगुप्त’ कहा जाता है। यदि उन दोनों व्यक्तियों का ‘उपगुप्त’ नाम का अभिधेय होना वस्तुवशात् होगा तो वे दोनों व्यक्ति एक पुरुष हो जाएंगे। क्योंकि वे दोनों उपगुप्त-बुद्धि में भिन्न-भिन्न प्रतिभासित नहीं होते। किन्तु वे दोनों एक नहीं हैं, अतः वस्तु का शब्दाभिधेय होना वस्तुवशात् नहीं होता।

मार्ग एवं फल व्यवस्था

मार्ग के आधार गोत्र का विचार- सभी सत्त्वों की सन्तान में निश्चित रूप में बुद्धगोत्र होता है। चित्त की स्वभावतः निर्मलता की ‘बुद्धगोत्र’ है। पृथग्जन एवं शैक्ष की अवस्था में यद्यपि गोत्र आगन्तुक मलों से मलिन रहता है, फिर भी प्रकृति (स्वभाव) से वह निर्मल ही होता है। यदि वह स्वभावतः मलिन होगा तो प्रतिपक्ष (मार्गों) का अभ्यास (भावना) करने पर वह निर्मल न हो सकेगा, जैसे कोयले को कितना भी साफ किया जाए, धोया जाए फिर भी वह सफेद नहीं होता। वह गोत्र फलावस्था में बुद्ध के सर्वज्ञ ज्ञान या ज्ञानधर्मकाय के रूप में परिणत हो जाता है। यही गोत्र मार्ग का आश्रय है।
। इनके मत में भी तीन यान होते हैं, यथा- श्रावकयान, प्रत्येकबुद्धयान एवं महायान (बोधिसत्त्वयान)। इनका स्वरूप आगमानुयायी विज्ञानवादियों की ही तरह है। किन्तु इनकी एक विशेषता है। ये एकयानवादी होते हैं। अर्थात तीनों यानों के अनुसार साधना करते हुए जब साधक अन्तिम फल प्राप्त कर लेता है तो गन्तव्य की इतिश्री नहीं हो जाती, अपितु अभी गन्तव्य अवशिष्ट रहता है। आशय यह है कि श्रावकयानी या प्रत्येकबुद्धयानी पुद्गल जब निरुपधिशेषनिर्वाण प्राप्त कर लेता है, तो उस पुद्गल के सास्त्रव स्कन्धों की धारा यद्यपि समाप्त हो जाती है, किन्तु धारा समाप्त नहीं होती, अपितु अनास्रव स्कन्धों की धारा प्रवृत्त होते रहती है। अर्थात् चित्तधारा कभी समाप्त नहीं होती। कालान्तर में बुद्ध की महाकरुणा के बल से साधक का महायान में प्रवेश होता है और अन्त में बुद्धत्व का लाभ होता है। इस तरह इनके मत में एक ही यान अर्थात् महायान या बुद्धयान होता है। क्योंकि परवर्ती ज्ञान का उपादान पूर्ववर्ती ज्ञान होता है, अतः ज्ञानधारा के समाप्त होने का प्रश्न ही नहीं है। इसी के आधार पर ये लोग पुनर्जन्म सिद्ध करते हैं।
पुनर्जन्म की व्यवस्था- ज्ञान का उपादान कारण अवश्य पूर्ववर्ती ज्ञान ही होता है। ऐसा नहीं हो सकता कि ज्ञान का उपादान जड़ पदार्थ हो। अर्थात् जड़ आदि पदार्थ ज्ञान के रूप में परिणत नहीं होते। यदि जड़ पदार्थ ज्ञान के कारण होंगे तो चार महाभूतों से भी ज्ञान उत्पन्न होने लगेगा। यदि महाभूत ज्ञान के कारण होंगे तो पृथ्वी आदि सविज्ञानक क ४३८ बौद्धदर्शन (सजीव) होने लगेंगे और मृतशरीर भी ज्ञान से युक्त होने लगेगा। प्रकाश और वित्ति ज्ञान का लक्षण है। सूर्य में प्रकाश है, वित्ति नहीं; पुद्गल में वित्ति है, किन्तु प्रकाश नहीं। जिसमें वित्ति और प्रकाश दोनों होते हैं, वह धर्म ‘ज्ञान’ कहलाता है। फैलना, सिकुड़ना आदि क्रियायें भी ज्ञान के लक्षण नहीं हैं। ये क्रियाएं शीत, ऊष्मा एवं वायु के संघात आदि से निष्पन्न होती हैं। फलतः महाभूतों में ज्ञान नहीं होता। अन्यथा शिक्षा देने पर वृक्षों आदि को भी भाषाज्ञान हो जाता, किन्तु ऐसा नहीं होता। अतः सिद्ध होता है कि पूर्ववर्ती ज्ञान परवर्ती ज्ञान का उपादान कारण होता है-यह व्याप्ति निश्चित होती है। माता के गर्भ से उत्पन्न शिशुओं की बुद्धियों में तीक्ष्णता, मन्दता आदि भेद होते हैं। ये भेद किसी पूर्ववर्ती अभ्यास से ही हो सकते हैं, अन्यथा महाभूत तो सबमें समान ही होते हैं। विश्व के सभी कर्म अभ्यास से ही होते हैं, उत्पन्न होते ही शिशु का हंसना, रोना, स्तनपान करना आदि भी पूर्वाभ्यास से ही होते हैं। ये पूर्वाभ्यास पूर्व जन्म मानने पर ही हो सकते हैं। अतः पूर्वजन्म सिद्ध होता है।

युक्ति प्रयोग

(१) अभी उत्पन्न शिशु की बुद्धि (पक्ष), बुद्धिपूर्वगामिनी है (साध्य), बुद्धि होने से (हेतु), प्रत्युत्पन्न बुद्धि के समान (दृष्टान्त)।
(२) अभी उत्पन्न शिशु के श्वास-प्रश्वास (पक्ष), पूर्व श्वास-प्रश्वासानुगामी हैं (साध्य), श्वास-प्रश्वास होने से (हेतु), वर्तमान श्वास-प्रश्वास के समान (दृष्टान्त)।
(३) अर्भ. उत्पन्न शिशु की इन्द्रियाँ (साध्य), इन्द्रिय-पूर्वगामिनी हैं (साध्य), इन्द्रिय होने से (हेतु), वर्तमान इन्द्रिय के समान (दृष्टान्त)।
पूर्व जन्म सिद्ध हो जाने पर उन्हीं युक्तियों से अपर जन्म भी अपने-आप (स्वतः) सिद्ध हो जाता है। ___ मरणकालिक अन्तिम चित्त (पक्ष), अपने से पश्चाद्वर्ती चित्त का उपादान कारण (उत्पादक) है (साध्य), चित्त होने से (हेतु), प्रत्युत्पन्न चित्त के समान (दृष्टान्त)।
इन युक्तियों से यह सिद्ध हो जाता है कि चित्तसन्तति सर्वदा प्रवृत्त होती रहती है, कभी विच्छिन्न नहीं होती। इन युक्तियों के विस्तृत ज्ञान के लिए प्रमाणवार्तिक देखना चाहिए।
आत्मदृष्टि की संसारमूलकता- चित्त में विद्यमान दोषों का प्रहाण किया जा सकता है कि नहीं ? जब विचार किया जाता है तो ऐसा प्रतीत होता है कि उनका प्रहाण किया जा सकता है, क्योंकि वे राग, अविद्या आदि दोष किन्हीं हेतुओं से उत्पन्न होते हैं, अतः अनित्य एवं आगन्तुक हैं। जब यह विचार प्रवृत्त होता है कि ये राग, द्वेश आदि दोष और दुःख किन हेतुओं से उत्पन्न होते हैं तो यह निश्चित होता है कि इन सारे दोषों और दुःखों का मूल आत्मदृष्टि है। जब हम इस विषय पर विचार करते हैं कि यह आत्मदृष्टि हैं योगाचार दर्शन ४३६ सम्यग्ज्ञान है कि नहीं तो यह सोचना पड़ता है कि आत्मदृष्टि का विषय क्या है। यदि कहा जाए कि आत्मदृष्टि का विषय ‘आत्मा’ है, तब विचार करना होता है कि आत्मा की सत्ता है या नहीं ? नाना युक्तियों से चिन्तन करने पर यह सिद्ध होता है कि आत्मा नहीं है और नैरात्म्य (निरात्मकता) ही सत्य है। फलतः आत्मदृष्टि एक प्रकार का मिथ्याज्ञान है यह निश्चित हो जाता है।
६ फ लगा कि युक्तिप्रयोग- आत्मदृष्टि (पक्ष), अवश्य प्रहीण होगी (साध्य), क्योंकि उसका प्रबल प्रतिपक्ष विद्यमान है अर्थात् नैरात्म्यज्ञान (= प्रज्ञा) विद्यमान है (हेतु), जैसे सूर्य रूपी प्रतिपक्ष के विद्यमान होने से अन्धकार नष्ट हो जाता है (दृष्टान्त)। णागर का FY इस युक्तिप्रयोग से मोक्ष भी सिद्ध हो जाता है। क्योंकि इससे यह सिद्ध होता है कि अविद्या, राग आदि का क्षय होता है और अविद्या तृष्णा आदि का क्षय ही मोक्ष’ है। महायान का उद्देश्य क्लेशावरण और ज्ञेयावरण का अशेष प्रहाण कर बुद्ध प्राप्त करना है। इसे ही ‘महामोक्ष’ भी कहते हैं। बाह्यार्थ दृष्टि ही इस महामोक्ष या सर्वज्ञता की बाधक है। विज्ञप्तिमात्रता के सम्यग् ज्ञान से बाझार्थदृष्टि का प्रहाण होता है, अतः महामोक्ष भी सिद्ध होता है।
गाणा : काजी –ए युक्तिप्रयोग- बाह्यार्थदृष्टि (पक्ष), अवश्य समाप्त होगी (साध्य), मिथ्यादृष्टि होने से (हेतु), रज्जुसर्पदृष्टि के समान (दृष्टान्त) किंकी B Fs की क क कोना इससे ज्ञेयावरण का प्रहाण होना सिद्ध होता है और ज्ञेयावरण के प्रहाण से व्यक्ति बुद्ध होता है।
डिए कोगाज गिर । है किs -शाम ली इन उपर्युक्त हेतुओं से यान एक ही है और वह महायान ही एकमात्र अन्तिम यान है, यह भी सिद्ध होता है। जी bbp ती IEFIN Ep पिछी __इतना ज्ञान होने पर व्यक्ति का महायान में प्रवेशा होता है। इस महागान में भी सम्भारमार्ग से लेकर अशैक्षमार्ग तक पाँच मार्ग होते हैं। उनके लक्षण और स्वरूप आदि वैसे ही हैं, जैसे आगमनानुयायी विज्ञानवाद के प्रतिपादन के अवसर पर पहले कहे गये हैं। ' R EFSSR FEIF 185 funs FFFSP FIRIEN HER

प्रमाण और प्रमाणफल व्यवस्था

“गणार कागज (बौद्धन्याय) फकीरी फोक गणकालाजागा गि मार इनके मत में भी दो प्रमाण और प्रत्यक्ष के चार प्रकार वैसे ही माने जाते हैं, जैसे सौत्रान्तिक मानते हैं। आजार . - मिडाकार का प्रमाण- अविसंवादकता और अपूर्वगोचरता प्रमाण का लक्षण है। अर्थात् वही ज्ञान प्रमाण कहला सकता है, जिसमें यह सामर्थ्य हो कि अपने द्वारा दृष्ट वस्तु को प्राप्त करा सके तथा जो अपने बल से वस्तु को जाने, अन्य पर निर्भर होकर नहीं।
लाद काशी तिEि OF या पार ४४० बौद्धदर्शन र प्रामाण्य- ज्ञान की अविसंवादकता और अपूर्वगोचरता स्वतः सिद्ध होती है या परतः (अर्थात् अन्य प्रमाणों से) ? यदि स्वतः प्राणाण्य निश्चित होता है तो किसी भी व्यक्ति को प्रमाण और अप्रमाण के विषय में कभी अज्ञान ही नहीं होगा। यदि परतः (दूसरे प्रमाण से) प्रामाण्य निश्चित होता है तो उस दूसरे प्रमाण के प्रामाण्य के लिए अन्य (तीसरे) प्रमाण की आवश्यकता होगी। इस तरह अनवस्था दोष होगा ? - का समाधान- जितने प्रमाण होते हैं, वे सभी न तो एकान्त रूप से स्वतः प्रमाण होते और न परतः प्रमाण होते हैं। उनमें कुछ स्वतः प्रमाण होते हैं और कुछ परतः। का परतः प्रामाण्य क्या है ? याने प्रमाण स्वबल से विषय का निश्चय करता है या विषयी का निश्चय करता है ? अर्थात् विषय के निश्चय से प्रामाण्य निश्चित होता है कि विषयी के निश्चय से ? ने पति समाधान- जो प्रमाण अपनी अविसंवादकता का निश्चय स्वतः अपने बल से कर लेता है. वह ‘स्वतः प्रमाण’ तथा जिसकी अविसंवादकता परतः (दूसरे प्रमाण से) निश्चित होती है, वह ‘परतः प्रमाण’ कहलाता है।
प्रश्न - यदि स्वतः या परतः प्रमाण का लक्षण उक्त प्रकार का है तो अनुमान स्वतः प्रमाण नहीं हो सकेगा, जब कि सिद्धान्ततः अनुमान स्वतः प्रमाण माना जाता है, क्योंकि चार्वाक का कहना है कि धूम हेतु से वह्नि को जानने वाला अनुमान अपनी अविसंवादकता का निश्चय स्वतः नहीं कर सकता ? समाधान- दोष नहीं है। यद्यपि चार्वाक पूछने पर यह कहेगा कि अनुमान प्रमाण नहीं है, फिर भी उसकी चित्तसन्तति में धूम से वह्नि को जानने वाला ज्ञान उत्पन्न होता है और उससे वह जानता है कि पर्वत में वह्नि है और उस ज्ञान को वह सही ज्ञान भी समझता है। अतः अनुमान स्वतः प्रमाण सिद्ध होता है।

  • सभी स्वसंवेदन स्वतः प्रमाण हैं, क्योंकि वे अपनी अविसंवादकता को स्वयं निश्चयपूर्वक जानते हैं। योगी प्रत्यक्ष स्वतः प्रमाण है। पृथग्जन का मानस प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है। भज्ञाप्राप्त पृथग्जन योगी का मानस प्रत्यक्ष स्वतः प्रमाण होता है। आर्य का मानस प्रत्यक्ष भी स्वतः प्रमाण है।
    साधनप्रवृत्त, अपोहप्रवृत्त, सामान्यलक्षण, सविकल्प, निर्विकल्प इत्यादि का स्वरूप एवं विचार सौत्रान्तिकों के समान ही इस मत में भी मान्य हैं।
    ___ ज्ञान सात प्रकार के होते हैं, यथा- १. प्रत्यक्ष, २. अनुमान, ३. अधिगतविषयक ज्ञान, ४. मनोविचार, ५. प्रतिभास-अनिश्चयाक, ६. मिथ्याज्ञान एवं ७. सन्देह ।
    १. और २. स्पष्ट है।
    ३. चक्षुर्विज्ञान आदि ज्ञान अपने उत्पादन के द्वितीय क्षण से लेकर जब तक उनकी धारा समाप्त नहीं होती, ‘अधिगतविषयक ज्ञान’ हैं।
    ४४१ योगाचार दर्शन ४. जो ज्ञान सम्यक् लिङ्ग पर आश्रित (अनुमान) नहीं होता तथा अनुभवात्मक (प्रत्यक्ष) भी नहीं होता, किन्तु अपने विषय का बिना संशय के ग्रहण करता है, ऐसा अध्यवसायात्मक ज्ञान ‘मनोविचार’ कहलाता है। इसके तीन प्रकार हैं- (क) अहेतुक मनोविचार, (ख) अनैकान्तिक मनोविचार, (ग) विरुद्ध मनोविचार।
    (क) अहेतुक मनोविचार- बिना किसी हेतु के और बिना संशय के यह जानना कि ‘शब्द अनित्य है’ या ‘सर्वज्ञ होता है’- यह ‘अहेतुक मनोविचार’ कहलाता है।
    __ (ख) अनैकान्तिक मनोविचार- ‘शब्द अनित्य है, क्योंकि वह प्रमेय है’- इस प्रकार के अनैकान्तिक प्रमेय हेतु से उत्पन्न शब्दानित्यता का ज्ञान ‘अनैकान्तिक मनोविचार’ है। __(ग) विरुद्ध मनोविचार- ‘शब्द अनित्य है, क्योंकि अकृतक है’- इस प्रकार के विरुद्ध हेतु से उत्पन्न शब्दानित्यता का ज्ञान ‘विरुद्ध मनोविचार’ है।
    ५. प्रतिभास-अनिश्चायक- विषय का प्रतिभास होने पर भी जब निश्चय नहीं होता, तो ऐसे ज्ञान को ‘प्रतिभास-अनिश्चायक’ कहते हैं। उदाहरणार्थ दूर से आते हुए अपने गुरु का ज्ञान में प्रतिभास होने पर भी यह निश्चय नहीं होता कि प्रतिभासित व्यक्ति गुरु ही है तथा अन्यगतमानस पुद्गल का श्रोत्रविज्ञान और पृथग्जन का रुपज्ञ, शब्दज्ञ आदि मानस प्रत्यक्ष ‘प्रतिभास-अनिश्चायक’ ज्ञान है।
    ६. और ७. स्पष्ट है। पर सभी मनोविचार अविसंवादी ज्ञान नहीं होते, क्योंकि वे संशय एवं विपर्यय आदि मिथ्या विप्रतिपत्तियों का निरास कर विषय का स्पष्ट परिच्छेद (अवबोध) नहीं करते। अविसंवादी ज्ञान होने के लिए विप्रतिपत्तियों का निरास करना आवश्यक है। अन्यथा परवादी द्वारा संशय पैदा किया जा सकता है।
    व प्रमाणफल- इसकी दो प्रकार से व्यवस्था की जाती है, - (१) बाह्यार्थवादी-साधारण और (२) असाधारण। । (१) बाह्यार्थवादी-साधारण- नीन प्रमेय में अनधिगत अविसंवादी नीलाकार ज्ञान प्रमाण तथा विप्रतिपत्तिनिरास पूर्वक नील-परिच्छेद (अवपिरीत अवबोध) प्रमाणफल है। भोट (२) असाधारण- प्रज्ञप्त नील प्रमेय में अनधिगत अविसंवादी ज्ञान प्रमाण तथा प्रज्ञप्त नील का परिच्छेद ‘प्रमाणफल’ हैं।