(१) आचार्य भदन्त
- साक्ष्यों के आधार पर ज्ञात होता है कि सौत्रान्तिक दर्शन के आचार्यों की लम्बी परम्परा रही है। भोटदेशीय साक्ष्य के अनुसार सौत्रान्तिकों के प्रथम आचार्य कश्मीर निवासी महापण्डित महास्थविर भदन्त थे। ये कनिष्क के समकालीन थे। उस समय कश्मीर में ‘सिंह’ नामक राजा राज्य कर रहे थे। बौद्ध धर्म के प्रति अत्यधिक श्रद्धा के कारण वे संघ में प्रव्रजित हो गये। संघ ने उन्हें ‘सुदर्शन’ नाम प्रदान किया। स्मृतिमान् एवं सम्प्रजन्य के साथ भावना करते हुए उन्होंने शीघ्र ही अर्हत्त्व प्राप्त कर लिया। उनके विश्रुत यश को सुनकर महाराज कनिष्क भी उनके दर्शनार्थ पहुँचा और उनले धर्मोपदेश ग्रहण किया। उस समय कश्मीर में शूद्र या सूत्र नामक एक अत्यन्त धनाढ्य ब्राह्मण रहता था। उसने दीर्घकाल तक सौत्रान्तिक आचार्य भदन्त प्रमुख पाँच हजार भिक्षुओं की सत्कारपूर्वक सेवा की। यद्यपि आचार्य भदन्त कनिष्ककालीन थे, फिर भी यह घटना कनिष्क के प्रारम्भिक काल की है। बहुत समय के बाद कनिष्क के अन्तिमकाल में उनकी संरक्षता में जालन्धर या कश्मीर में तृतीय संगीति (सर्वास्तिवादी सम्मत) आयोजित की गई। उसी संगीति में ‘महाविभाषा’ नामक बुद्धवचनों की प्रसिद्ध टीका का निर्माण हुआ। महाविभाषा शास्त्र में सौत्रान्तिक सिद्धान्तों की चर्चा के अवसर पर अनेक स्थानों पर स्थविर भदन्त के नाम का उल्लेख भी उपलब्ध होता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि स्थविर भदन्त सौत्रान्तिक दर्शन के महान् आचार्य थे और कनिष्ककालीन संगीति के पूर्व विद्यमान थे।
(२) श्रीलात
सौत्रान्तिक आचार्य परम्परा में स्थविर भदन्त के बाद काल की दृष्टि से दूसरे आचार्य श्रीलात प्रतीत होते हैं। ग्रन्थों में उनके श्रीलात, श्रीलाभ, श्रीलब्ध, श्रीरत आदि अनेक नाम उपलब्ध होते हैं। इनमें से उनका कौन नाम वास्तविक है, इसका निश्चय करना कठिन है। भोट-अनुवाद के अनुसार श्रीलात नाम ठीक प्रतीत होता है। अभिधर्मकोशभाष्य में अनेक जगह यही नाम प्रयुक्त हुआ है।
स्थविर श्रीलात से सम्बद्ध उनके जीवनवृत्त का व्यवस्थित और पर्याप्त विवरण कहीं उपलब्ध नहीं होता। बौद्ध धर्म के इतिहास ग्रन्थों में और हेनसांग की भारत यात्रा के विवरण में प्रसंगवश उनके नाम का उल्लेख हुआ है। अभिधर्मकोशभाष्य और उसकी टीकाओं में
जो
३७०
बौद्धदर्शन सिद्धान्तों के खण्डन या मण्डन के अवसरों पर श्रीलात या श्रीलाभ के सिद्धान्तों के उद्धरण दिखलाई पड़ते हैं। इसी तरह माध्यमिक आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में आचार्य के नाम का उल्लेख किया है। इन सब आधारों पर स्थविर श्रीलात का जीवनवृत्तान्त संक्षेप में निम्नलिखित है:
आचार्य श्रीलात कश्मीर के निवासी थे। सम्भवतः तक्षशिला में आचार्य पद पर प्रतिष्ठत थे। इनके शिष्य परिवार में बहुसंख्यक श्रामणेर और भिक्षु विद्यमान थे। इन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की थी। इससे विपरीत चीनी यात्री हेनसांग इनका निवास स्थान अयोध्या बतलाते हैं। उस समय अयोध्या प्रसिद्ध विद्याकेन्द्र था। हो सकता है कि श्रीलात जैसे प्रसिद्ध विद्वान् वहाँ भी आये हों और निवास किया हो। यह असंगत भी नहीं है, क्योंकि गान्धार देश में जन्मे आचार्य असंग और वसुबन्धु का भी विद्याक्षेत्र अयोध्या ही रहा है। अयोध्या उस समय बौद्ध और अबौद्ध सभी प्रकार के विद्वानों की समवाय-स्थली थी। हेनसांग अपने यात्राविवरण में आगे लिखते हैं कि अयोध्या से कुछ दूरी पर सम्राट अशोक द्वारा निर्मित एक संघाराम है, उसमें लगभग २०० फुट ऊँचा एक स्तूप है। उस स्तूप के समीप एक दूसरा भी भग्न (खण्डहर के रूप में) संघाराम है, जिसमें बैठकर श्रीलब्ध शास्त्री ने सौत्रान्तिक सम्प्रदाय के अनुरूप एक ‘विभाषाशास्त्र’ की रचना की थी। इस वृत्तान्त से बुद्धशासन से सम्बद्ध श्रीलात के कार्यों की सूचना मिलती है। अन्य ग्रन्थों में उनके जन्मस्थान की चर्चा नहीं मिलती, किन्तु अयोध्या या मध्यप्रदेश का सर्वत्र चारिका करने वाले बौद्ध भिक्षु का विद्याक्षेत्र अयोध्या होना आश्यर्यकर नहीं है। पाक
पाल स्थविर भदन्त और श्रीलात के काल में अधिक अन्तर नहीं है। भदन्त के कुछ ही वर्षों बाद आचार्य श्रीलात का समय निर्धारित किया जा सकता है। कनिष्क के निधन के बाद उनका पुत्र सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। उसी समय नागार्जुन के गुरु विद्वन्मूर्धन्य सरहपाद, सरोरुवज्र अथवा राहुलभद्र भी विद्यमान थे। उसी समय वाराणसी में वैभाषिक आचार्य बुद्धदेव भी हजारों भिक्षुओं के साथ विराजमान थे। ये सभी आचार्य समकालिक हैं। यह वह समय था, जब सौत्रान्तिक चिन्तन पराकष्ठा को प्राप्त था। इस तरह आचार्य श्रीलात का समय हम बुद्धाब्द चतुर्थ शतक के अन्तिम भाग अथवा ईसा-पूर्व प्रथम शताब्दी में या इसके आसपास निश्चित कर सकते हैं, क्योंकि सम्राट् कनिष्क के अवसान के समय इनके अस्तित्व का साक्ष्य उपलब्ध है। यही आचार्य नागार्जुन के जीवन का आदिम काल भी है।
कृतियाँ
ऊपर कहा गया है कि आचार्य श्रीलात ने सौत्रान्तिक सम्मत विभाषाशास्त्र की रचना की थी। इनके अतिरिक्त भी उनकी रचनाएं सम्भावित हैं, किन्तु यह मात्र कल्पना ही है सौत्रान्तिक दर्शन ३७१ इस समय विभाषाशास्त्र नहीं उपलब्ध है। आचार्य के कुछ विशिष्ट सिद्धान्त तथा दार्शनिक विशेषताएं अभिधर्मकोशभाष्य और उसकी यशोमित्रकृत स्फुटार्था टीका में उद्धरण के रूप में मिलते हैं। किन्तु इतने मात्र से उनके सम्पूर्ण दर्शन का आकलन सम्भव नहीं है।
(३) कुमारलात
बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद चौथे-पाँचवें शतक में प्रायः सभी निकाय विभिन्न स्थानों में वृद्धिंगत एवं पुष्ट होते हुए बुद्धशासन का प्रचार-प्रसार करते दृष्टिगोचर होते हैं। दक्षिण भारत में प्रायः स्थविरों का बाहुल्य और प्राबल्य था। मथुरा से लेकर मगध पर्यन्त मध्यप्रदेश में सर्वास्तिवादियों का अधिक प्रचार था। भारत के पश्चिमी भाग में जालन्धर से लेकर कश्मीर और गन्धार पर्यन्त सर्वास्तिवादी और सौत्रान्तिकों का विशेष प्रभाव था। इसी समय आचार्य कुमारलात का जन्म हुआ। विविध ग्रन्थों में कुमारलात के नाम में कुछ-कुछ परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं, यथा- कुमारलात, कुमारलाभ, कुमारलब्ध, कुमाररत आदि। भोटदेशीय परम्परा कुमारलात का जन्मस्थान पश्चिमभारत निर्दिष्ट करती है। चीनी यात्री फाहियान और हेनसांग दोनों का कहना है कि आचार्य का जन्मस्थान तक्षशिला था। हेनसांग कुमारलात के बारे में निम्न विवरण प्रस्तुत करते हैं : “तक्षशिला से लगभग १२-१३ ‘ली’ की दूरी पर महाराज अशोक ने एक स्तूप का निर्माण कराया था। यह वही स्थान है, जहाँ पर बोधिसत्त्व चन्द्रप्रभ ने अपने शरीर का दान किया था। स्तूप के समीप एक संघाराम है, जो भग्नावस्था में दिखाई देता है, उसी संघाराम में कुछ भिक्षु निवास करते हैं। इसी स्थान पर बैठकर (निवास करते हुए) सौत्रान्तिक दर्शनसम्प्रदाय के अनुयायी कुमारलब्ध शास्त्री ने प्राचीनकाल में कुछ ग्रन्थों की रचना की थी। अन्य इतिहासज्ञ भी तक्षशिला को आचार्य का जन्मस्थान कहते हैं” । हेनसांग पुनः कहते “कुमारलात ने तक्षशिला में निवास किया। बचपन से ही वे विलक्षण प्रतिभा से सम्पन्न थे। कम उम्र में ही वे विरक्त होकर प्रव्रजित हो गये थे। उनका सारा समय पवित्र ग्रन्थों के अवलोकन में तथा अध्यात्मचिन्तन में व्यतीत होता था। वे प्रतिदिन ३२००० शब्दों का स्वाध्याय और उतने ही का लेखन करते थे। अपने साथियों और सहाध्यायियों में उनकी विलक्षण योग्यता की प्रायः चर्चा होती थी। उनकी कीर्ति सर्वत्र व्याप्त हो गई थी। सद्धर्म के सिद्धान्तों को उन्होंने लोक में निर्दोष निरूपित किया और अनेक विधर्मी तैर्थिकों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। शास्त्रार्थ कला में उनके विलक्षण चातुर्य की लोक में चर्चा होती थी। शास्त्रसम्बन्धी ऐसी कोई कठिनाई नहीं थी, जिसका उचित समाधान करने में वे सक्षम न हों। सारे भारत के विभिन्न भागों से जिज्ञासु लोग उनके दर्शनार्थ आते रहते थे और उनका सम्मान करते थे। उन्होंने लगभग २० ग्रन्थों की रचना की। ये ही सौत्रान्तिक दर्शनप्रस्थान के प्रतिष्ठापक थे”। ३७२ बौद्धदर्शन मही इन विवरणों से ज्ञात होता है कि आचार्य कुमारलात पश्चिम भारत में तक्षशिला महाविहार में पण्डित पद पर प्रतिष्ठत थे। उनके अध्ययन-अध्यापन की कीर्ति विस्तृत रूप से फैली हुई थी। भोटदेशीय परम्परा भी इस मत की समर्थक है। सौत्रान्तिक दर्शन के प्रथम या प्रमुख आचार्य कौन थे ? इस विषय का हमने पहले विवेचन किया है। चीनी यात्री हेनसांग के मत का अनुसरण करते हुए प्रायः इतिहास-विशेषज्ञ स्थविर कुमारलात को ही सौत्रान्तिक दर्शन का प्रवर्तक निरूपित करते हैं।
कुमारलात का समय
आचार्य कुमारलात के काल के बारे में प्रायः सभी ऐतिहासिक स्रोत, सामग्री एवं विद्वान् एक मत है कि उनका समय ईसा की प्रथम शताब्दी का पूर्वार्द्ध है। हेनसांग का कहना है :
पूर्व दिशा में अश्वघोष, दक्षिण में आर्यदेव, पश्चिम में नागार्जुन तथा उत्तर में कुमारलात समानकालीन थे। ये चारों महापण्डित संसार-मण्डल को प्रकाशित करनेवाले चार सूर्यों के समान थे। कश्य-अन्टो (?) देश के राजा ने उनके गुणों और पण्डित्य से आकृष्ट होकर उनका (कुमारलात का) अपहरण कर लिया था और उनके लिए वहाँ एक संघाराम का निर्माण किया था।
इस विवरण से यह स्पष्ट है कि कुमारलात नागार्जुन के समकालिक थे। नागार्जुन के काल के बारे में भी विद्वानों में बहुत विवाद है। इस विषय की चर्चा यहाँ प्रासंगिक नहीं है, फिर भी उनका काल ईसा की प्रथम शताब्दी का पूर्वार्द्ध समीचीन प्रतीत होता है। यही कुमारलात का भी काल है और आर्यदेव का भी, क्योंकि आर्यदेव नागार्जुन के साक्षात् शिष्य थे।
यद्यपि कुमारलात का नाम अभिधर्मकोश से सम्बद्ध भाष्य और टीकाओं में प्रचुर रूप से उपलब्ध होता है, किन्तु महाविभाषा, जो अभिधर्मपिटक की प्राचीनतम व्याख्या है, उसमें उनके नाम की चर्चा नहीं है। उसमें स्थविर भदन्त और उनके दान्तिक सिद्धान्तों की चर्चा है। यदि कुमारलात महाविभाषा की रचना के पूर्व विद्यमान होते तो यह सम्भव नहीं था कि इतने महान् और लोकविश्रुत महापण्डित के नाम का उल्लेख उसमें न होता। इसलिए यह निश्चय होता है कि कुमारलात महाविभाषाशास्त्र की रचना से परवर्ती हैं।
हमारे विचारों में कुमारलात सौत्रान्तिक दर्शन के प्रथम प्रवर्तक आचार्य नहीं थे, अपितु आचार्यपरम्परा के क्रम में उनका स्थान तृतीय है। शास्त्रनैपुण्य और गम्भीर ज्ञान की दृष्टि से उनका स्थान प्रथम हो सकता है, किन्तु काल की दृष्टि से वे प्रथम थे-विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर ऐसा कहने में हम असमर्थ हैं।
AN
सौत्रान्तिक दर्शन
३७३
कृतियाँ
आचार्य कुमारलात ने २० ग्रन्थों की रचना की थी, किन्तु उनमें से आज कोई भी उपलब्ध नहीं होते हैं। परवर्ती शास्त्रों में उनके ग्रन्थों में से कुछ संकेत अवश्य उपलब्ध होते हैं। चीनीस्रोत के आधार पर ‘दृष्टान्तपंक्ति’ नामक ग्रन्थ उनके द्वारा प्रणीत है, ऐसा उल्लेख मिलता है, किन्तु यह ग्रन्थ कुमारलात से पूर्व स्थिर भदन्त के समय विद्यमान था, इसकी भी सूचना प्राप्त होती है। ‘कल्पनामण्डितिका’ आचार्य की ही कृति है, इसका संकेत और स्रोत उपलब्ध है। भोटदेशीय विद्वान् छिम्-जम्-पई-यंग महोदय ने आचार्य कुमारलात के मतों का निरूपण करते हुए उनके ‘दुःखसप्तति’ नामक एक ग्रन्थ से एक पद्य उद्धृत किया है। इससे ज्ञात होता है कि यह ग्रन्थ भी उनकी रचना है। इनके अलावा अन्य ग्रन्थों के साथ कुमारलात के सम्बन्ध की सूचना उपलब्ध नहीं है।
अन्य प्राचीन आचार्य
किसी जीवित निकाय का यही लक्षण है कि उसकी अविच्छिन्न आचार्यपरम्परा विद्यमान रहे । यदि वह बीच में टूट जाती है तो वह निकाय समाप्त हो जाता है। यही स्थिति प्रायः सौत्रान्तिक निकाय की है। भदन्त कुमारलात के अनन्तर उस निकाय में कौन आचार्य हुए, यह अत्यन्त स्पष्ट नहीं है। यद्यपि छिटपुट रूप में कुछ आचार्यों के नाम ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं, यथा-भदन्त रत (लात), राम, वसुवर्मा आदि, किन्तु इतने मात्र से कोई अविच्छिन्न परम्परा सिद्ध नहीं होती और न तो उनके काल और कृतियों के बारे में ही कोई स्पष्ट संकेत उपलब्ध होते हैं। ये सभी सौत्रान्तिक निकाय के प्राचीन आचार्य ‘आगमानुयायी सौत्रान्तिक’ थे, यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है, क्योंकि नागार्जुनकालीन ग्रन्थों में इनके नाम की चर्चा नहीं है। यद्यपि अभिधर्मकोश आदि वैभाषिक या सर्वास्तिवादी ग्रन्थों में इनके नाम यत्र तत्र यदा कदा दिखलाई पड़ते हैं। वसुबन्धु के बाद यशोमित्र भी आगमानुयायी सौत्रान्तिक परम्परा के आचार्य माने जाते हैं। उन्होंने अपनी स्फुटार्था टीका में अपनी सौत्रान्तिकप्रियता प्रकट की है, यह अन्तःसाक्ष्य के आधार पर विज्ञ विद्वानों द्वारा स्वीकार किया जाता है।
(४) वसुबन्धु
बौद्ध जगत् में आचार्य वसुबन्धु के प्रकाण्ड पाण्डित्य और शास्त्रार्थ-पटुता की बड़ी प्रतिष्ठा है। अपनी अनेक कृतियों द्वारा उन्होंने बुद्ध के मन्तव्य का लोक में प्रसार करके लोक का महान् कल्याण सिद्ध किया है। उनके इस परहित कृत्य को देखकर विद्वानों ने उन्हें ‘द्वितीय बुद्ध’ की उपाधि से विभूषित किया। आचार्य वसुबन्धु शास्त्रार्थ में अत्यन्त निपुण थे। उन्होंने महावैयाकरण वसुरात को शास्त्रार्थ में पराजित किया था। सुना जाता है
३७४
बौद्धदर्शन कि सांख्याचार्य विन्ध्यवासी ने उनके गुरु बुद्धमित्र को पराजित कर दिया था। इस पराजय का बदला लेने के लिए वसुबन्धु विन्ध्यवासी के पास शास्त्रार्थ करने पहुंचे, किन्तु तब तक विन्ध्यवासी का निधन हो गया था। फलतः उन्होंने विन्ध्यवासी के ‘सांख्यसप्तति’ ग्रन्थ के
खण्डन में ‘परमार्थसप्तति’ नामक ग्रन्थ की रचना की। _गान्धार प्रदेश के पुरुषपुर (पेशावार) में आचार्य का जन्म हुआ था। ये कौशिकगोत्रीय ब्राह्मण थे। ये तीन भाई थे। बड़े भाई का नाम असंग, छोटे का विरिञ्चिवत्स था और ये उन दोनों के मध्य में थे। भोटदेशीय इतिहासकार लामा तारानाथ और बुदोन के अनुसार इन्होंने संघभद्र से विद्याध्ययन किया था। आचार्य परमार्थ के अनुसार इनके गुरु बुद्धमित्र थे। हेनसांग के मतानुसार परमार्थ इनके गुरु थे। सम्भव है कि इन्होंने विभिन्न गुरुओं के समीप बैठकर ज्ञानार्जन किया हो।
____ उस काल में अयोध्या प्रधान विद्याकेन्द्र के रूप प्रतिष्ठित थी। यहीं निवास करते हुए उन्होंने गम्भीर दर्शनों का तलस्पर्शी अध्ययन-अध्यापन और अभिधर्मकोश आदि प्रसिद्ध ग्रन्थों का प्रणयन किया था। तारानाथ के मतानुसार नालान्दा में प्रव्रजित होकर वहीं उन्होंने सम्पूर्ण श्रावकपिटक का अध्ययन किया था और उसके बाद विशेष अध्ययन के लिए ये आचार्य संघभद्र के समीप गये थे। इनकी विद्वत्ता की कीर्ति सर्वत्र व्याप्त थी। इनकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर अयोध्या के सम्राट् चन्द्रगुप्त सांख्य मत को छोड़कर बौद्ध मत के अनुयायी हो गये थे। उन्होंने अपने पुत्र बालादित्य को और अपनी पत्नी महारानी ध्रुवा को अध्ययन के लिए इनके समीप भेजा था। तत्त्वसंग्रह नामक ग्रन्थ की पञ्जिका के रचयिता आचार्य कमलशील ने अपने ग्रन्थ में इनके वैदुष्य की बड़ी प्रशंसा की है। अस्सी वर्ष की आयु में अयोध्या में ही इनका देहावसान हुआ। तारानाथ के मतानुसार नेपाल में और महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के मतानुसार गान्धार में इनका निधन हुआ।
को जीवन के प्रारम्भिक काल में ये सर्वास्तिवादी थे। आचार्य संघभद्र के प्रभाव से ये ‘कश्मीर-वैभाषिक’ हो गए और उसी समय इन्होंने अभिधर्मकोश का प्रणयन किया। इस ग्रन्थ का विद्वत्समाज में बड़ा आदर था। महाकवि बाणभट्ट ने अपने हर्षचरित ग्रन्थ में अभिधर्मकोश का उल्लेख किया है। सिंहलद्वीप के महाकवि श्रीराहुल संघराज ने १५वीं विक्रम शताब्दी में प्रणीत अपने ग्रन्थ मोग्गलानपंचिकाप्रदीप में अभिधर्मकोश के वचन का उद्धरण दिया है।
- आचार्य वसुबन्धु सभी अठारह निकाय के तथा महायान के दार्शनिक सिद्धान्तों के अद्वितीय ज्ञाता थे, यह बात उनकी कृतियों से स्पष्ट होती है। सर्वप्रथम वे सर्वास्तिवादी निकाय में प्रव्रजित हुए। तदनन्तर उन्होंने कश्मीर में वैभाषिक शास्त्रों का अध्ययन किया। उस समय कश्मीर में सौत्रान्तिकों का प्रभावक्षेत्र विस्तृत एवं धनीभूत हो रहा था। सौत्रान्तिकों का दार्शनिक परिवेश निश्चय ही वैभाषिकों की अपेक्षा सूक्ष्म भी था और युक्तिसंगत भी।
३७५ सौत्रान्तिक दर्शन फलतः आचार्य ने अपने अभिधर्मकोश और उसके स्वभाष्य में यत्र तत्र वैभाषिकों की विसंगतियों की ओर इंगित भी किया और उनकी आलोचना भी की है। उनकी रचनाओं के अध्ययन से एक बात निश्चय ही स्पष्ट होती है कि वे एक स्वतन्त्र विचारक एवं प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति थे सौत्रान्तिक विचारों की ओर उनकी विशेष अभिरुचि थी। यह बात इस घटना से भी पुष्ट होती है कि वैभाषिक आचार्य संघभद्र ने वसुबन्धु के अभिधर्मकोश के खण्डन में ‘न्यायानुसार’ नामक ग्रन्थ लिखा। जिन-जिन स्थलों पर वसुबन्धु वैभाषिक विचारों से दूर होते दृष्टिगोचर हुए, उन स्थलों पर संघभद्र उनकी समालोचना करते हैं। भोटदेशीय आचार्यों का कहना है कि वसुबन्धु अपने जीवन के पूर्वार्द्ध में सौत्रान्तिक दर्शन से सम्बद्ध थे। वहाँ के तक्-छङ् लोचावा शेरब्-रिन्छेन का तो यहाँ तक कहना है कि वे सौत्रान्तिक दर्शन के प्रथम आचार्य थे। किन्तु उनके इस कथन में आंशिक ही सत्यता है। क्योंकि चतुर्थ-पंचम शताब्दी के आचार्य वसुबन्धु से बहुत पहले ही सौत्रान्तिकों की दार्शनिक विचारधारा पर्याप्त विकसित हो चुकी थी। इसमें सन्देह नहीं कि आचार्य वसुबन्धु असाधारण विद्वान् थे, किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं कि वे प्रथम आचार्य थे। सौत्रान्तिकदर्शन से सम्बद्ध उनका कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं है। इतना ही नहीं, विंशतिका विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि में उन्होंने सौत्रान्तिकों का जमकर खण्डन भी किया है। निश्चय ही वसुबन्धु सौत्रान्तिक दर्शन के मर्मज्ञ, सर्वतन्त्रस्वतन्त्र एवं प्रामाणिक विद्वान् थे। वे केवल सौत्रान्तिक दर्शन के ही आचार्य नहीं थे।
समय- वसुबन्धु के काल के विषय में बहुत विवाद है। ताकाकुसू के अनुसार ४२०-५०० ईसवीय वर्ष उनका काल है। वोगिहारा महोदय के मतानुसार आचार्य ३६० से ४७० ईसवीय वर्षों में विद्यमान थे। सिलवां लेवी उनका समय पाँचवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध मानते हैं। एन. पेरी महोदय उनका समय ३५० ईसवीय वर्ष सिद्ध करते हैं। फ्राउ वाल्नर महोदय इसी मत का समर्थन करते हैं। इन सब विवादों के समाधान के लिए कुछ विद्वान् दो वसुबन्धुओं का अस्तित्व मानते हैं। उनमें एक वसुबन्धु तो आचार्य असङ्ग के छोटे भाई थे, जो महायानशास्त्रों के प्रणेता हुए तथा दूसरे वसुबन्धु सौत्रान्तिक थे, जिन्होंने अभिधर्मकोश की रचना की। विन्टरनित्ज़, मैकडोनल, डॉ. स्मिथ, डॉ. विद्याभूषण, डॉ. विनयतोष भट्टाचार्य आदि विद्वान् आचार्य को ईसवीय चतुर्थ शताब्दी का मानते हैं। परमार्थ ने आचार्य वसुबन्धु की जीवनी लिखी है। परमार्थ का जन्म उज्जैन में हुआ था और उनका समय ४६६ से ५६६ ईसवीय वर्षों के मध्य माना जाता है। ५६६ में चीन के कैन्टन नगर में उनका देहावसान हुआ था। ताकाकुसू ने परमार्थ की इस वसुबन्धु की जीवनी का न केवल अनुवाद ही किया है, अपितु उसका समीक्षात्मक विशिष्ट अध्ययन भी प्रस्तुत किया है। उनके विवरण के अनुसार वसुबन्धु का जन्म बुद्ध के परिनिर्वाण के एक हजार वर्ष के अनन्तर हुआ। इस गणना के अनुसार ईसवीय पंचम शताब्दी उनका समय निश्चित होता ३७६ बौद्धदर्शन है। इससे विक्रमादित्य-बालादित्य की समकालीनता भी समर्थित हो जाती है। महाकवि वामन ने अपने काव्यालङ्कार में भी यह बात कही है।
आचार्य कुमारजीव ने वसुबन्धु के अनेक ग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद किया है। वे ३४४ से ४१३ ईसवीय वर्ष में विद्यमान थे। सुना जाता है कि कुमारजीव ने अपने गुरु सूर्यसोम से वसुबन्धु के सद्धर्मपुण्डरीकोपदेशशास्त्र का अध्ययन किया था। आर्यदेवविरचित शतशास्त्र की वसुबन्धुरचित व्याख्या का चीनी भाषा में अनुवाद ४०४वें ईसवीय वर्ष में तथा वसुबन्धुप्रणीत बोधिचित्तोत्पादशास्त्र का ४०५वें वर्ष में चीनी भाषा में अनुवाद हुआ था। बोधिरुचि ने वसुबन्धु वज्रच्छेदिकाप्रज्ञापारमिताशास्त्र की वज्रर्षिकृत व्याख्या का अनुवाद ५३५ ईसवीय वर्ष में सम्पन्न किया था। इन प्रमाणों के आधार पर महायान-ग्रन्थों के रचयिता वसुबन्धु का समय चतुर्थ ईसवीय शताब्दी निश्चित होता है। चतुर्थ शतक में उत्पन्न वसुबन्धु अभिधर्मकोशकार वसुबन्धु से भिन्न प्रतीत होते हैं। अभिधर्मकोश के व्याख्याकार यशोमित्र अपनी व्याख्या में वसुबन्धु नामक एक अन्य आचार्य की सूचना देते हैं। वे उन्हें ‘वृद्धाचार्य वसुबन्धु’ कहते हैं। तिब्बती परम्परा आचार्य को बुद्ध के नवम शतक में विद्यमान मानती है। बीसवीं शताब्दी में भोटदेशीय इतिहासकार गे-दुन्-छोस्-फेल महोदय का कहना है कि भोटदेशीय सम्राट् स्रोङ्-चन्-गम्पो, भारतीय सम्राट् श्रीहर्ष, आचार्य दिङ्नाग, कवि कालिदास, आचार्य दण्डी, इस्लाम धर्मप्रवर्तक मोहम्मद साहब ये सब महापुरुष कुछ काल के अन्तर से प्रायः समान कालिक थे। परमार्थ, हेनसांग, तारानाथ, ताकाकुसू आदि इतिहासवेत्ताओं का कहना है दो वसुबन्धुओं की कल्पना निरर्थक है, वसुबन्धु एक ही थे और वे ४२० से ५०० ईसवीय वर्षों के मध्य विद्यमान थे। आधुनिक इतिहासकार भी इसी मत का समर्थन करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। आचार्य वसुबन्धु की अनेक कृतियाँ है।
परवर्ती परम्परा
आचार्य वसुबन्धु के बाद सभी अठारह बौद्ध निकायों में तत्त्वमीमांसा की प्रणाली में कुछ नया परिवर्तन दिखाई देता है। तत्त्वचिन्तन के विषय में यद्यपि इसके पहले भी तर्कप्रधान विचारपद्धति सौत्रान्तिकों द्वारा आरम्भ की गई थी और आचार्य नागार्जुन ने इसी तर्कपद्धति का आश्रय लेकर महायान दर्शनप्रस्थान को प्रतिष्ठित किया था, स्वयं आचार्य वसुबन्धु भी प्रमाणमीमांसा, ज्ञानमीमांसा और वादविधि के प्रकाण्ड पण्डित थे, फिर भी वसुबन्धु के बाद ज्ञानमीमांसा के क्षेत्र में कुछ इस प्रकार का विकास दृष्टिगोचर होता है, जिससे सौत्रान्तिकों की वह प्राचीन प्रणाली अपने स्थान से किञ्चित् परिवर्तित सी दिखाई देती है। उनके सिद्धान्तों और पूर्व मान्यताओं में भी परिवर्तन दिखलाई पड़ता है। अपनी तर्कप्रियता, विकासोन्मुख प्रकृति एवं मुक्तचिन्तन की पक्षपातिनी दृष्टि के कारण वे अन्य दर्शनों की समकक्षता में आ गये। ज्ञात है कि प्राचीन सौत्रान्तिक ‘आगमानुयायी’ कहलाते ३७७ सौत्रान्तिक दर्शन थे। उनका साम्प्रदायिक परिवेश अब बदलने लगा। यह परिवर्तन सौत्रान्तिकों में विचारों की दृष्टि से संक्रमण काल कहा जा सकता है। इसी काल में आचार्य दिङ्नाग का प्रादुर्भाव होता है। उन्होंने प्रमाणमीमांसा के आधार पर सौत्रान्तिक दर्शन की पुनः परीक्षा की और उसे नए तरीके से प्रतिष्ठापित किया। दिङ्नाग के बाद सौत्रान्तिकों को प्राचीन आगमानुयायी परम्परा प्रायः नामशेष हो गई। उस परम्परा में कोई प्रतिभासम्पन्न आचार्य उत्पन्न होते दिखलाई नहीं देता।
(५) आचार्य दिङ्नाग
__आचार्य दिङ्नाग का जन्म दक्षिण भारत के काञ्चीनगर के समीप सिंहवक्त्र नामक स्थान पर विद्या-विनयसम्पन्न ब्राह्मण कुल में हुआ था। उन्होंने अपने आरम्भिक जीवन में परम्परागत सभी तैर्थिकों शास्त्रों का विधिवत् अध्ययन किया था और उनमें पूर्ण पारंगत पण्डित हो गये थे। इसके बाद वे वात्सीपुत्रीय निकाय के महास्थविर नागदत्त से प्रव्रज्या ग्रहण कर बौद्ध भिक्षु हो गये। ‘दिङ्नाग’ यह नाम प्रव्रज्या के अवसर पर दिया हुआ उनका नाम है। महास्थविर नागदत्त से ही उन्होंने समस्त श्रावक पिटकों एवं शास्त्रों का अध्ययन किया था और उनमें परम निष्णात हो गये थे। एक दिन महास्थविर नागदत्त ने उन्हें शमथ
और विपश्यना विषय को समझाते हुए अनिर्वचनीय पुद्गल की देशना की। दिङ्नाग अत्यन्त तीक्ष्ण बुद्धि के स्वतन्त्र विचारक पण्डित थे। उन्हें अनिर्वचनीय पुद्गल का सिद्धान्त रुचिकर प्रतीत नहीं हुआ। गुरु के उपदेश की परीक्षा के लिए अपने निवास स्थान पर आकर उन्होंने दिन में सारे दरवाजों-खिड़कियों को खोलकर तथा रात में चारों ओर दीपक जलाकर कपड़ों को उतार कर सिर से पैर तक सारे अंगों को बाहर-भीतर सूक्ष्म रूप में निरीक्षण करते हुए अनिर्वचनीय पुद्गल को देखना शुरु किया। अपने साथ अध्ययन करने वाले साथियों के यह पूछने पर कि ‘यह आप क्या कर रहे हैं’ ? दिङ्नाग ने कहा- ‘पुद्गल की खोज कर रहा हूँ’। सूक्ष्मतया निरीक्षण करने पर भी उन्होंने कहीं पुद्गल की प्राप्ति नहीं की। शिष्यपरम्परा से यह बात महास्थविर गुरु नागदत्त तक पहुँच गई। नागदत्त को लगा कि दिङ्नाग हमारा अपमान कर रहा है और अपने निकाय के सिद्धान्तों के प्रति उसे
अविश्वास है। गुरु ने दिङ्नाग पर कुपित होकर उन्हें संघ से बाहर निकाल दिया। निकाल दिये जाने के बाद क्रमशः चारिका करते हुए वे आचार्य वसुबन्धु के समीप पहुँचे।
इस अनुश्रुति से यह निष्कर्ष निकलता है कि दिङ्नाग पहले वात्सीपुत्रीय निकाय में प्रव्रजित हुए थे, किन्तु उस निकाय के दार्शनिक सिद्धान्त उन्हें रुचिकर प्रतीत नहीं हुए। इसके बाद आचार्य वसुबन्धु के समीप रहकर उन्होंने समस्त श्रावक और महायान पिटक, सम्पूर्ण बौद्ध शास्त्र और विशेषतः प्रमाणशास्त्र का गम्भीर अध्ययन किया।
__कहा जाता है कि आचार्य वसुबन्धु के चार शिष्य अपने-अपने विषयों में वसुबन्धु
३७८
बौद्धदर्शन से भी अधिक विद्वान् थे। जैसे-(१) आचार्य गुणप्रभ विनय-शास्त्रों में, (२) आचार्य स्थिरमति अभिधर्म विषय में, (३) आचार्य विमुक्तिसेन प्रज्ञापारमिताशास्त्र में तथा (४) आचार्य दिङ्नाग प्रमाणशास्त्र में। कुछ विद्वानों की राय है कि आचार्य विमुक्तिसेन दिङ्नाग के शिष्य थे, वसुबन्धु के नहीं। भोटदेशीय विद्वत्परम्परा तो उन्हें वसुबन्धु का शिष्य ही निर्धारित करती है। भारतीय इतिहास के मर्मज्ञ भोटविज्ञान् लामा तारानाथ का कहना है कि त्रिरत्न दास
और संघदास भी वसुबन्धु के शिष्य थे।
समय
___ आचार्य दिङ्नाग के समय को लेकर विद्वानों में विवाद अधिक है। डॉ. सतीशचन्द्र विद्याभूषण उनका काल ईसवीय सन् ४५० से ५२० के बीच निर्धारित करते हैं। डॉ. एस. एन. दास गुप्त उन्हें ईसवीय पाँचवीं शताब्दी के अन्त में उत्पन्न मानते हैं। डॉ. विनयघोष भट्टाचार्य मानते हैं कि वे ३४५ से ४२५ ईसवीय वर्षों में विद्यमान थे। पण्डित दलसुखभाई मालवणियाँ इस मत का समर्थन करते हैं। न्यायसूत्रों के भाष्यकार वात्स्यायन और प्रशस्तपाद के मतों की दिङ्नाग ने युक्तिपूर्वक समालोचना की है तथा न्यायवार्तिकार उद्योतकर ने दिङ्नाग के मत की समालोचना दिङ्नाग की रचनाओं का अनुवाद चीनी भाषा में ५५७ से ५६६ ईसवीय वर्षों में सम्पन्न हो गया था। इन सब साक्ष्यों के आधार पर आचार्य दिङ्नाग का काल ईसवीय पाँचवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध मानना समीचीन मालूम होता है। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन भी उन्हें ४२५ ईसवीय वर्ष में विद्यमान मानते हैं। आचार्य दिङ्नाग की अनेक रचनाएं हैं। उन्होंने विभिन्न विषयों पर ग्रन्थों का प्रणयन किया है।
युक्त्यनुयायी सौत्रान्तिक
- आचार्य दिङ्नाग के प्रायः सभी ग्रन्थ विशुद्ध प्रमाणमीमांसा से सम्बद्ध तथा स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्थ हैं। इसीलिए वे भारतीय तर्कशास्त्र के प्रवर्तक महान् तार्किक माने जाते हैं। इन ग्रन्थों में जिन विषयों को आचार्य ने प्रतिपादित किया है, वे सौत्रान्तिक दर्शन सम्मत ही हैं। बाह्यार्थ की सत्ता एवं ज्ञान की साकारता को मानते हुए उन्होंने विषय का निरूपण किया है। प्रमाणसमुच्चय के अवलोकन से यह निश्चित होता है कि केवल प्रमाणफल के निरूपण के अवसर पर ही उन्होंने विज्ञानवादी दृष्टिकोण अपनाया है। प्रमाण और प्रमेयों
की स्थापना उन्होंने विशेषतः सौत्रान्तिक दर्शन के अनुरूप ही की है। दिङ्नाग के इन विचारों ने सौत्रान्तिक निकाय के चिन्तन की एक अपूर्व दिशा उद्घाटित की है, जिससे उक्त निकाय के चिन्तन में नूतन परिवर्तन परिलक्षित होता है। दिङ्नाग के इस प्रयास से तत्त्वचिन्तन के क्षेत्र में तर्कविद्या की महती प्रतिष्ठा हुई और ज्ञान की परीक्षा के नए नियम विकसित हुए तथा वे नियम सभी शास्त्रीयपरम्पराओं और सम्प्रदायों में मान्य हुए। वास्तव में दिङ्नाग से ही विशुद्ध तर्कशास्त्र प्रारम्भ हुआ। फलतः सौत्रान्तिक निकाय ने आगम की
सौत्रान्तिक दर्शन
३७६ परिधि से बाहर निकल कर अभ्युदय और निःश्रेयस के साधक दार्शनिक क्षेत्र में पदार्पण किया।
5 दिङ्नाग के बाद आचार्य धर्मकीर्ति ने दिङ्नाग के ग्रन्थों में छिपे हुए गूढ तथ्यों का प्रकाशन करते हुए सात ग्रन्थों (सप्त प्रमाणशास्त्र) की रचना की। उन ग्रन्थों में न्यायपरमेश्वर धर्मकीर्ति ने बुद्धवचनों की नेयार्थता और नीतार्थता का विवेचन करते हुए शतसाहस्रिका प्रज्ञापारमिता आदि प्रज्ञापारमिता सूत्रों को बुद्धवचन के रूप में प्रमाणित किया। आचार्य धर्मकीर्ति के इस सत्प्रयास से दिङ्नाग के बारे में जो मिथ्यादृष्टियाँ और भ्रम उत्पन्न हो गये थे, उनका निरास हुआ। लोग कहते थे कि दिङ्नाग ने केवल वाद-विवाद एवं जय-पराजय मूलक तर्कशास्त्रों की रचना की है। उनमें मार्ग और फल का निरूपण नहीं है और ऐसे शास्त्रों की रचना करना अध्यात्मप्रधान बौद्ध धर्म के अनुयायी एक भिक्षु को शोभा नहीं देता। धर्मकीर्ति की व्याख्या की वजह से दिङ्नाग समस्त बुद्ध वचनों के उत्कृष्ट व्याख्याता और महान् रथी सिद्ध हुए। साथ ही, सौत्रान्तिकों की दार्शनिक परम्परा का नया आयाम प्रकाशित हुआ। फलतः इन दोनों के बाद सौत्रान्तिक दर्शन के जो भी आचार्य उत्पन्न हुए, वे सब ‘युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिक’ कहलाए। इसी परम्परा में आगे चलकर प्रसिद्ध सौत्रान्तिक आचार्य शुभगुप्त भी उत्पन्न हुए। __यक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिक दर्शन-प्रस्थान के विकास में निःसन्देह आचार्य धर्मकीर्ति का योगदान रहा है, किन्तु इसका प्राथमिक श्रेय आचार्य दिङ्नाग को जाता है। यह सही है कि प्रमाणशास्त्र और न्यायप्रक्रिया के विकास में आचार्य धर्मकीर्ति के विशिष्ट मत और मौलिक उद्भावनाएं रही हैं, किन्तु सभी पारवर्ती आचार्य और विद्वान् उन्हें दिङ्नाग के व्याख्याकार ही मानते हैं। धर्मकीर्ति द्वारा प्रणीत सभी ग्रन्थों के विषय वे ही रहे हैं, जो दिङ्नाग के प्रमाणसमुच्चय के हैं। यद्यपि धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक के प्रथम परिच्छेद में प्रमेयव्यवस्था और प्रमाणफल की स्थापना के सन्दर्भ में विज्ञप्तिमात्रता की चर्चा की है और इस तरह विज्ञानवाद की प्रतिष्ठा की है, किन्तु इन थोड़े स्थानों को छोड़कर शेष सम्पूर्ण ग्रन्थ में सौत्रान्तिक दृष्टि से ही विषय की स्थापना की है। इसलिए आचार्य दिङ्नाग और धर्मकीर्ति यद्यपि महायान के अनुयायी हैं, फिर भी यह कहा जा सकता है कि ये दोनों सौत्रान्तिक आचार्य थे। युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिक दर्शनपरम्परा का स्वरूप उसके दर्शन के स्वरूप का निरूपण करते समय आगे विवेचित है।
आचार्य धर्मकीर्ति के प्रमेय सम्बन्धी विचार आचार्य दिङ्नाग के समान ही हैं। धर्मकीर्ति द्वारा प्रणीत प्रमाणवार्तिक, प्रमाणविनिश्चय, न्यायबिन्दु, हेतुबिन्दु, सम्बन्धपरीक्षा, सन्तानन्तरसिद्धि और वादन्याय सातों प्रसिद्ध ग्रन्थ प्रमाणसमुच्चय की टीका के रूप में उपनिबद्ध हैं। यद्यपि इन ग्रन्थों में प्रमेयव्यवस्था के अवसर पर युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिक और युक्ति-अनुयायी विज्ञानवादियों की विचारधारा के अनुरूप तत्त्वमीमांसा की विशेष रूप से चर्चा की गई है, तथापि ये ग्रन्थ मुख्य रूप से प्रमाणमीमांसा के प्रतिपादक ही हैं।
३८० बौद्धदर्शन प्रमाणसमुच्चय-यह ग्रन्थ आचार्य दिङ्नाग की कृति है। यह आचार्य की अनेक छिटपुट रचनाओं का समुच्चय है और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह महनीय भावी बौद्ध न्याय के विकास का आधार और बौद्ध विचारों में नई उत्क्रान्ति का वाहक रहा है। इस ग्रन्थ के प्रभाव से भारतीय दार्शनिक चिन्तनधारा में नए एवं विशिष्ट परिवर्तन का सूत्रपात हुआ। ज्ञान के सम्यक्त्व की परीक्षा, पूर्वाग्रहमुक्त तत्त्वचिन्तन, प्रमाण के प्रामाण्य आदि का निर्धारण आदि वे विशेषताएं हैं, जिनका विश्लेषण दिङ्नाग के बाद प्रायः सभी भारतीय दर्शनों में बहुलता से प्रारम्भ होता है। इस प्रकार हम विशुद्ध ज्ञानमीमांसा और निरपेक्ष प्रमाणमीमांसा का प्रादुर्भाव दिङ्नाग के बाद घटित होते हुए देखते हैं। __इस ग्रन्थ में छह परिच्छेद हैं, यथा- प्रत्यक्षपरिच्छेद, स्वार्थनुमान परिच्छेद, परार्थनुमान परिच्छेद, दृष्टान्तपरीक्षा, अपोहपरीक्षा एवं जात्युत्तर परीक्षा। इन परिच्छेदों के विषय उनके नाम से ही प्रकट है। इनमें स्वसंवेदन प्रत्यक्ष की सुस्पष्ट स्थापना, प्रमाणद्वय का स्पष्ट निर्धारण, ज्ञान की ही प्रमाणता, साधन और दूषण का विवेचन, शब्दार्थ-विषयक चिन्तन (अपोहविचार), प्रमाण और प्रमाणफल की एकात्मकता एवं प्रसंग के स्वरूप का निर्धारण आदि विषय विशेष रूप से चर्चित हुए हैं।
(६) आचार्य शुभगुप्त
इतिहास में इनके नाम की बहुत कम चर्चा हुई। ‘कल्याणरक्षित’ नाम भी ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। वस्तुतः भोट भाषा में इनके नाम का अनुवाद ‘द्गे-सुङ्’ हुआ है। ‘शुभ’ शब्द का अर्थ ‘कल्याण’ तथा ‘गुप्त’ शब्द का अर्थ ‘रक्षित’ भी होता है। अतः नाम के ये दो पर्याय उपलब्ध होते हैं। शान्तरक्षित के तत्त्वसंग्रह की ‘पंजिका’ टीका में कमलशील ने ‘शुभगुप्त’ इस नाम का अनेकथा व्यवहार किया है। अतः यही नाम प्रामाणिक प्रतीत होता है, फिर भी इस विषय में विद्वान् ही प्रमाण हैं।
शुभगुप्त कहाँ उत्पन्न हुए थे, इसकी प्रामाणिक सूचना नहीं है, फिर भी इनका कश्मीर-निवासी होना अधिक संभावित है। भोटदेशीय परम्परा इस सम्भावना की पुष्टि करती है। धर्मोत्तर इनके साक्षात् शिष्य थे, अतः तक्षशिला इनकी विद्याभूमि रही है। आचार्य धर्मोत्तर की कर्मभूमि कश्मीर-प्रदेश थी, ऐसा डॉ. विद्याभूषण का मत है।
६
समय
इनके काल के बारे में भी विद्वानों में विवाद है, फिर भी इतना निश्चित है कि आचार्य शान्तरक्षित और आचार्य धर्मोत्तर से ये पूर्ववर्ती थे। आचार्य धर्माकरदत्त और शुभगुप्त दोनों धर्मोत्तर के गुरु थे। भोटदेश के सभी इतिहासज्ञ इस विषय में एकमत हैं। परवर्ती भारतीय विद्वान् भी इस मत का समर्थन करते हैं। आचार्य शुभगुप्त शान्तरक्षित से
सौत्रान्तिक दर्शन
३८१ पूर्ववर्ती थे, इस विषय में शान्तरक्षित का ग्रन्थ ‘मध्यमकालङ्कार’ ही प्रमाण है। सौत्रान्तिक मतों का खण्डन करते समय ग्रन्थकार ने शुभगुप्त की कारिका का उद्धरण दिया है।
यो पण्डित सुखलाल संघवी का कथन है कि आचार्य धर्माकरदत्त ७२५ ईसवीय वर्ष से पूर्ववर्ती थे। जैन दार्शनिक आचार्य अकलक ने धर्मोत्तर के मत की समीक्षा की है। पण्डित महेन्द्रमार के मतानुसार अकलङ्क का समय ईसवीय वर्ष ७२०-७८० है। इसके अनुसार धर्मोत्तर का समय सातवीं शताब्दी का उत्तरार्ध निश्चित होता है। धर्मोत्तर शुभगुप्त के शिष्य थे, अतः उनके गुरु शुभगुप्त का काल ईसवीय सप्तम शतक निर्धारित करने में कोई बाधा नहीं दिखती। म _ डॉ. एस.एन. गुप्त धर्मोत्तर का समय ८४७ ईसवीय वर्ष निर्धारित करते हैं तथा डॉ. विद्याभूषण उनके गुरु शुभगुप्त का काल ईसवीय ८२६ वर्ष स्वीकार करते हैं। डॉ. विद्याभूषण के कालनिर्धारण का आधार महाराज धर्मपाल का समय है। किन्तु ये कौन धर्मपाल थे, इसका निश्चय नहीं है। दूसरी ओर आचार्य शान्तरक्षित जिस शुभगुप्त की कारिका उद्धृत करके उसका खण्डन करते हैं, उनका भोटदेश में ७६० ईसवीय वर्ष में निधन हुआ था। ७६२ ईसवीय वर्ष में भोटदेश में शान्तरक्षित के शिष्य आचार्य कमलशील का ‘सम्या छिम्बु’ नामक महाविहार में चीन देश के प्रसिद्ध विद्वान् ‘हशंग’ के साथ मा यमिक दर्शन पर शास्त्रार्थ हुआ था। इस शास्त्रार्थ में हशंग की पराजय हुई थी, इसका उल्लेख चीन और जापान के प्रायः सभी इतिहासवेत्ता करते हैं। इन विवरणों से आचार्य शान्तरक्षित का काल सुनिश्चित होता है। फलतः डॉ. विद्याभूषण का मत उचित एवं तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि जिनके सिद्धान्तों का खण्डन शान्तरक्षित ने किया हो
और जिनका निधन ७६० ईसवीय वर्ष में हो गया हो, उनसे पूर्ववर्ती आचार्य शुभगुप्त का काल ८२६ ईसवीय वर्ष कैसे हो सकता है?
महापण्डित राहुल सांकृत्यायन आचार्य धर्मकीर्ति का काल ६०० ईसवीय वर्ष निश्चित करते हैं। उनकी शिष्य-परम्परा का वर्णन उन्होंने इस प्रकार किया है, यथा-देवेन्द्रबुद्धि, शाक्यबुद्धि, प्रज्ञाकर गुप्त तथा धर्मोत्तर। आचार्य देवेन्द्रबुद्धि का काल उनके मतानुसार ६५० ईसवीय वर्ष है। गुरु-शिष्य के काल में २५ वर्षों का अन्तर सभी इतिहासवेत्ताओं द्वारा मान्य है। किन्तु यह नियम सभी के बारे में लागू नहीं होता। ऐसा सुना जाता है कि देवेन्द्रबुद्धि आचार्य धर्मकीर्ति से भी उम्र में बड़े थे। और उन्होंने आचार्य दिङ्नाग से भी न्यायशास्त्र का अध्ययन किया था। धर्मोत्तर के दोनों गुरु धर्माकरदत्त और शुभगुप्त प्रज्ञाकरगुप्त के समसामयिक थे। ऐसी स्थिति में शुभगुप्त का समय ईसवीय सप्तम शताब्दी निश्चित किया जा सकता है। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन की भी इस तिथि में विमति नहीं है। बौद्धदर्शन
कृतियाँ
भदन्त शुभगुप्त युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिकों के अन्तिम और लब्धप्रतिष्ठ आचार्य थे। उनके बाद ऐसा कोई आचार्य ज्ञात नहीं है, जिसने सौत्रान्तिक दर्शन पर स्वतन्त्र और मौलिक रचना की हो। यद्यपि धर्मोत्तर आदि भारतीय तथा जमयङ्-जद्-पई, तक्-छङ्-पा आदि भोट आचार्यों ने बहुत कुछ लिखा है, किन्तु वह पूर्व आचार्यों की व्याख्यामात्र है, नूतन और मौलिक नहीं है। आज भी दिङ्नागीय परम्परा के सौत्रान्तिक दर्शन के विद्वान् थोड़े-बहुत हो सकते हैं, किन्तु मौलिक शास्त्रों के रचयिता नहीं हैं। वरना आचार्य शुभगुप्त ने कुल कितने ग्रन्थों की रचना की, इसकी प्रामाणिक जानकारी नहीं है। उनका कोई भी ग्रन्थ मूल संस्कृत में उपलब्ध नहीं है। भोट भाषा और चीनी भाषा में उनके पाँच ग्रन्थों के अनुवाद सुरक्षित हैं, यथा-(१) सर्वज्ञसिद्धिकारिका, (२) बाह्यार्थसिद्धिकारिका, (३) श्रुतिपरीक्षा, (४) अपोहविचारकारिका एवं (५) ईश्वरभङ्गकारिका। के ये सभी ग्रन्थ लघुकाय हैं, किन्तु अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इनका प्रतिपाद्य विषय इनके नाम से ही स्पष्ट है, यथा- सर्वज्ञसिद्धिकारिका में विशेषतः जैमिनीय दर्शन का खण्डन है, क्योंकि वे सर्वज्ञ नहीं मानते। ग्रन्थ में युक्तिपूर्वक सर्वज्ञ की सिद्धि की गई है। बाह्यार्थसिद्धि कारिका में जो विज्ञानवादी बाह्यार्थ नहीं मानते, उनका खण्डन करके सप्रमाण बाह्यार्थ की सत्ता सिद्ध की गई है। श्रुतिपरीक्षा में शब्दनित्यता, शब्दार्थ सम्बन्ध की नित्यता और शब्द की विधिवृत्ति का खण्डन किया गया है। ‘श्रुति’ का अर्थ वेद है। वेद की अपौरुषेयता का सिद्धान्त मीमांसकों का प्रमुख सिद्धान्त है, उसका ग्रन्थ में युक्तिपूर्वक निराकरण प्रतिपादित है। अपोहविचारकारिका में शब्द और कल्पना की विधिवृत्तिता का खण्डन करके उन्हें अपोहविषयक सिद्ध किया गया है। अपोह ही शब्दार्थ है, यह बौद्धों की प्रसिद्ध सिद्धान्त है, इसका इसमें मण्डन किया है। वैशिषिक सामान्य को शब्दार्थ स्वीकार करते हैं, ग्रन्थ में सामान्य का विस्तार के साथ खण्डन किया गया है। ईश्वरभङ्गकारिका में इस बात का खण्डन किया गया है, कि ईश्वर जो नित्य है, वह जगत् का कारण है। ग्रन्थ में नित्य को कारण मानने पर अनेक दोष दर्शाए गये हैं। ___ इन ग्रन्थों से सौत्रान्तिक दर्शन की विलुप्त परम्परा का पर्याप्त परिचय प्राप्त होता है।
प्रमुख सौत्रान्तिक सिद्धान्त
__सौत्रान्तिकों की जो प्रमुख विशेषताएं हैं, जिनकी वजह से वे अन्य बौद्ध, अबौद्ध दार्शनिकों से भिन्न हो जाते हैं, अब हम उन विशेषताओं की ओर संकेत करना चाहते हैं।
_ज्ञात है कि बौद्ध धर्म में अनेक निकायों का विकास हुआ। यद्यपि उनकी दार्शनिक मान्यताओं में भेद हैं, फिर भी बुद्धवचनों के प्रति गौरव बुद्धि सभी में समान रूप से पाई
सौत्रान्तिक दर्शन
३८३
जाती है। सभी निकायों के पास अपने-अपने त्रिपिटक थे। ऐतिहासिक क्रम में महायान का भी उदय हो गया। यह निःसन्दिग्ध है कि पुरुषार्थ-सिद्धि सभी भारतीय दर्शनों का परम लक्ष्य है। इसी लक्ष्य को ध्यान में रख कर बौद्धों में यानों की व्यवस्था की गई है। उनके दर्शनों का गठन भी यानव्यवस्था पर आधारित है। इसके आधारभूत तत्त्व तीन होते हैं, यथा-(१) आश्रय, वस्तु आलम्बन या पदार्थ, (२) आश्रित मार्ग (शील, समाधि, प्रज्ञा), (३) प्रयोजन या लक्ष्यभूत फल।
(१) आश्रय, वस्तु या पदार्थ-मीमांसा के अवसर पर दो सत्यों अर्थात् परमार्थ सत्य और संवृति सत्य की चर्चा की जाती है। __परमार्थ सत्य- सौत्रान्तिकों की दो धाराओं में से आगम-अनुयायी सौत्रान्तिकों के अनुसार यन्त्र आदि उपकरणों के द्वारा विघटन कर देने पर अथवा बुद्धि द्वारा विश्लेषण करने पर जिस विषय की पूर्व बुद्धि नष्ट नहीं होती, वह ‘परमार्थ सत्य’ है। यथा-नील, पीत, चित्त, परमाणु, निर्वाण आदि का कितना ही विघटन या विश्लेषण किया जाए, फिर भी नीलबुद्धि, परमाणुबुद्धि या निर्वाणबुद्धि नष्ट नहीं होती, अतः ऐसे पदार्थ उनके मत में परमार्थ सत्य माने जाते हैं। इस मत में चारों आर्यसत्यों के जो सोलह आकार होते हैं, वे परमार्थतः सत् माने जाते हैं। ज्ञात है कि प्रत्येक सत्य के चार आकार होते हैं। जैसे दुःखसत्य के अनित्यता, दुःखता, शून्यता एवं अनात्मता ये चार आकार हैं। समुदय सत्य के समुदय, हेतु, प्रत्यय और प्रभव ये चार आकार, निरोध सत्य के निरोध, शान्त, प्रणीत एवं निःसरण ये चार आकार तथा मार्गसत्य के मार्ग, न्याय, प्रतिपत्ति और निर्याण ये चार आकार होते हैं। इस तरह कुल १६ आकार होते हैं।
__ युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिक मत के अनुसार जो परमार्थतः अर्थक्रिया-समर्थ है और प्रत्यक्ष आदि प्रामाणिक बुद्धि का विषय है, वह ‘परमार्थ सत्य’ है, जैसे- घट आदि। इस मत के अनुसार योगी का समाहित ज्ञान संस्कार (हेतु-प्रत्यय से उत्पन्न) स्कन्धों का ही साक्षात् प्रत्यक्ष करता है तथा उनकी आत्मशून्यता और निर्वाण का ज्ञान तो उस प्रत्यक्ष के सामर्थ्य से होता है।
संवृतिसत्य- इस मत में पाँच स्कन्ध संवृतिसत्य हैं। परमार्थतः अर्थक्रियासमर्थ न होना संवृतिसत्य का लक्षण है। संवृतिसत्य, सामान्यलक्षण, नित्य, असंस्कृत एवं अकृतक धर्म पर्यायवाची हैं। संवृति का तात्पर्य विकल्प ज्ञान से है। उसके प्रतिभास स्थल में जो सत्य है, वह संवृतिसत्य है। विकल्प को संवृति इसलिए कहते हैं, क्योंकि वह वस्तु की यथार्थ स्थिति के ग्रहण में आवरण करता है। आगमानुयायी सौत्रान्तिकों के अनुसार यन्त्र आदि
उपकरणों द्वारा विघटन करने पर या बुद्धि द्वारा विश्लेषण करने पर जिन पदार्थों की , पूर्वबुद्धि नष्ट हो जाती है, वे संवृतिसत्य हैं, यथा- घट, अम्बु आदि।
३८४
बौद्धदर्शन इस दर्शन में पाँच प्रकार के प्रमेय माने जाते हैं, यथा- रूप, चित्त, चैतसिक, विप्रयुक्त संस्कार एवं असंस्कृत निर्वाण। ये स्कन्ध, आयतन और धातुओं में यथायोग्य संगृहीत होते
(२) आश्रित मार्ग
जिस मार्ग की भावना की जाती है, वह मार्ग वस्तुतः सम्यग् ज्ञान ही है। नैरात्म्य ज्ञान, चारों आर्यसत्यों के सोलह आकारों का ज्ञान, सैंतीस बोधिपक्षीय धर्म, चार अप्रमाण, नौ अनुपूर्व समापत्तियाँ-ये धर्म यथायोग्य लौकिक और अलौकिक मार्गों में संगृहीत होते हैं।
(३) फल
स्रोत आपन्न, सकृदागामी, अनागामी और अर्हत् ये चार आर्य पुद्गल होते हैं। ये चारों मार्गस्थ और फलस्थ दो प्रकार के होते हैं, अतः आर्यपुद्गलों की संख्या आठ मानी जाती है। सोपधिशेष निर्वाण प्राप्त और निरुपधिशेष निर्वाण प्राप्त-इस तरह अर्हत् पुद्गल भी द्विविध होते हैं। प्रत्येकबुद्धत्व और सम्यक् संबुद्धत्व भी फल माने जाते हैं। बुद्धत्वप्राप्ति
और अर्हत्वप्राप्ति के मार्ग में यद्यपि ज्ञानगत कोई विशेषता इस मत में नहीं मानी जाती, किन्तु पारमिताओं की पूर्ति का दीर्घकालीन अभ्यास अर्थात् पुण्यसंचय बुद्धत्वप्राप्ति के मार्ग
की विशेषता मानी जाती है।
फलस्थ पुद्गल
जैसे श्रावकयान में चार मार्गस्थ और चार फलस्थ आठ आर्यपुद्गल माने जाते हैं, वैसे ही इस मत के अनुसार प्रत्येकबुद्धयान में भी आर्य पुद्गलों की व्यवस्था की जाती है। किन्तु खगोपम प्रत्येकबुद्ध निश्चय ही अर्हत् से भिन्न होता है। वह बुद्ध आदि के उपदेशों की बिना अपेक्षा किये आन्तरिक स्वतः स्फूर्त ज्ञान द्वारा निर्वाण का अधिगम करता है। उसका निरुपधिशेष निर्वाण बुद्ध से शून्य देश और काल में होता है। मार्गस्थ और फलस्थ आर्य पुद्गलों के पारमार्थिक संघ में बीस प्रकार के पुद्गल होते हैं। इनका विस्तृत विवेचना अभिसमयालङ्कार और अभिधर्मकोश आदि ग्रन्थों में उपलब्ध है।
सौत्रान्तिक दर्शन की दस विशेषताएं
(०१) क्षणभङ्ग सिद्धि
_ बौद्ध लोग, जो प्रत्येक वस्तु के उत्पाद, स्थिति और भङ्ग ये तीन लक्षण मानते हैं, उनको लेकर बौद्धेतर दार्शनिकों के साथ उनके बहुत व्यापक, गम्भीर और दीर्घकालीन विवाद हैं। सौत्रान्तिकों के अनुसार उत्पाद के अनन्तर विनष्ट होनेवाली वस्तु ही क्षण है। उनके अनुसार उत्पादमात्र ही वस्तु होती है। वस्तु की त्रैकालिक सत्ता नहीं होती।
३८५
सौत्रान्तिक दर्शन कारण-सामग्री के जुट जाने पर कार्य का निष्पन्न होना ही उत्पाद है। उत्पन्न की भी स्थिति नहीं होती, अपितु उत्पाद के अनन्तर वस्तु नहीं रहती, यही उसकी भङ्गावस्था है।
(०२) सूत्रप्रामाण्य
सौत्रान्तिकों के मतानुसार ज्ञानप्रस्थान आदि सात अभिधर्मशास्त्र बुद्धवचन नहीं हैं, अपितु वे आचार्यों की कृति हैं। वसुमित्र आदि आचार्य उन ग्रन्थों के प्रणेता हैं, अतः वे शास्त्र हैं, न कि बुद्धवचन या आगम। ऐसा मानने पर भी अर्थात् सूत्रपिटक मात्र को प्रमाण मानने पर भी इनके मत में अभिधर्म का आभाव या त्रिपिटक का अभाव नहीं है। जिन सूत्रों में वस्तु के स्वलक्षण और सामान्यलक्षण आदि की विवेचना की गई है, वे सूत्र ही अभिधर्म हैं, जैसे अर्थविनिश्चयसूत्र आदि। बुद्धवचन ८४,००० धर्मस्कन्ध, १२ अङ्ग एवं तीन पिटकों में संगृहीत होते हैं। परवर्ती सौत्रान्तिक सूत्रों का नेयार्थ और नीतार्थ में विभाजन भी करते हैं।
(०३) परमाणुवाद
सौत्रान्तिक मत में परमाणु निरवयव एवं द्रव्यसत् माने जाते हैं। ये परमाणु ही स्थूल रूपों के आरम्भक होते हैं। जब परमाणुओं से स्थूल रूपों का आरम्भ होता है, तब एक संस्थान में विद्यमान होते हुए भी इनमें परस्पर स्पर्श नहीं होता। सौत्रान्तिक मत में ऐसा कोई रूप नहीं होता, जो अनिदर्शन और अप्रतिघ होता हो, जैसा कि अविज्ञप्ति नामक रूप की सत्ता वैभाषिक मानते हैं। इनके अनुसार अविज्ञप्तिरूप की स्वलक्षणसत्ता नहीं है, उसकी मात्र प्रज्ञप्तिसत्ता है।
(०४) द्रव्यसत्त्व-प्रज्ञप्तिसत्त्व
सौत्रान्तिकों के अनुसार वे ही पदार्थ द्रव्यसत् माने जाते हैं, जो अपने स्वरूप को स्वयं अभिव्यक्त करते हैं तथा जिनमें अध्यारोपित स्वरूप का लेशमात्र भी नहीं होता। उदाहरणस्वरूप रूप, वेदना आदि धर्म वैसे ही हैं। जब रूप आदि धर्म अपने स्वरूप का या अपने आकार का अपने ग्राहक ज्ञानों में, ज्ञानेन्द्रियों अथवा आर्य ज्ञानों में आधान (अर्पण) करते हैं, तब वे किसी की अपेक्षा नहीं करते, अपितु स्वतः अपने बल से करते हैं। अपि च, चक्षुरादि प्रत्यक्ष ज्ञान अथवा योगिज्ञान जब रूप आदि का साक्षात्कार करते हैं, तब वे भी उसमें किसी कल्पित आकार का आरोपण नहीं करते। इसलिए रूप, वेदना आदि इनके मत में द्रव्यसत् या परमार्थसत् माने जाते हैं। पुद्गल आदि धर्म वैसे नहीं हैं। वे अपने स्वरूप का स्वतः ज्ञान में आधान नहीं करते। न तो ज्ञान में पुद्गल आदि का आभास होता है। जब यथार्थ की परीक्षा की जाती है, तब उनका स्वरूप विशीर्ण होने लगता
३८६
बौद्धदर्शन
है
है। केवल उनके अधिष्ठान नाम-रूप आदि धर्म ही उपलब्ध होते हैं। पुद्गल कहीं उपलब्ध नहीं होता। अतः ऐसे धर्म प्रज्ञप्तिसत् माने जाते हैं। ____ यद्यपि सौत्रान्तिक भी वैभाषिकों के समान चैतसिकों की संख्या ४६ ही मानते हैं, फिर भी वे वैभाषिकों के समान सभी की पृथक् द्रव्यसत्ता नहीं मानते। उनके मत में कुछ चैतसिकों की ही द्रव्यसत्ता होती है, शेष प्रज्ञप्तिसत् होते हैं। जैसे वेदना, संज्ञा और मनस्कार ये तीन चैतसिक द्रव्यसत् हैं। बाकी के चैतसिक चित्त की अवस्था विशेष में प्रज्ञप्त होते हैं-ऐसा उपशमरक्षित नामक सौत्रान्तिक आचार्य का कहना है। इनके अनुसार चित्त एवं चैतसिक द्रव्यतः अभिन्न होते हैं। उनकी निरपेक्ष रूप से पृथग् उपलब्धि नहीं होती।
सामान्यतः चित्तों की संख्या छह है। धर्मसंग्रह के अनुसार चैतसिक चालीस होते हैं। अभिधर्मकोश के अनुसार उनकी संख्या ४६ है। अभिधर्मसमुच्चय में ५२ और पालि अभिधर्म में भी चैतसिक ५२ माने जाते हैं। विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि में ५१ चैतसिक वर्णित हैं। इन भेदों का कारण चैतसिकों का चित्त की अवस्थाविशेष में प्रज्ञप्त होना है। इसीलिए संख्या
और नाम में भेद हो जाता है। यदि इनकी द्रव्यसत्ता होती तो इतना अधिक भेद सम्भव नहीं होता-ऐसा प्रतीत होता है।
चैतसिकों को जब प्रज्ञप्तिसत् कहा जाता है तो उसका यह अर्थ नहीं होता कि उनकी सत्ता ही नहीं है। चित्त और चैतसिक द्रव्यतः अथवा स्वभावतः अभिन्न होते हैं। जब चित्त द्रव्यतः सत् माना जाता है तो चित्त की अवस्थाएं, जो उससे अभिन्न हैं और जो चैतसिक कहलाती हैं, निश्चय ही वे भी द्रव्यसत् ही हैं। उन (चैतसिकों) का स्वभावतः चित्त से पृथक्त्व (भेद) और नामकरण आदि अवश्य प्रज्ञप्त है। वस्तुतः वेदना, संज्ञा आदि, करुणा, मुदिता आदि, राग, द्वेष आदि कुशल, अकुशल धर्म स्वसंवेदनप्रत्यक्ष द्वारा अनुभूत होते हैं। स्वसंवेदन द्वारा जो जैसा अनुभूत होता है, वैसा ही उसका स्वरूप होता है, अन्यथा स्वसंवेदन के प्रमाणत्व की हानि होगी। चित-चैतसिकों की प्रकाशात्मकता, जड़ से भिन्नता, विषय के आकार से आकारित ज्ञानस्वरूपता स्वतः (स्वसंवेदन द्वारा) अनुभूत हैं, अतः उनका स्वरूप वैसा ही है। संक्षेप में चित्त-चैतसिकों के प्रामाण्य, अप्रमाण्य, प्रत्यक्षत्व, अप्रत्यक्षत्व, यह चित्त है, यह चैतसिक है, यह वेदना है, यह संज्ञा हैं-इस प्रकार के भेद और नाम ये सब व्यवहार द्वारा सिद्ध होते हैं। अतः भेद और नामकरण आदि ही प्रज्ञप्तिसत् हैं। इस प्रकार सभी सम्प्रयुक्त धर्म (चैतसिक), विप्रयुक्त संस्कार, असंस्कृत धर्म, शब्द और कल्पना के विषय अर्थात् अपोह ये सब प्राज्ञप्तिक धर्मों में परिगणित होते हैं। वस्तुतः युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिकों के मत में सभी पराश्रित या द्रव्याश्रित धर्म प्रज्ञप्तिस्वभाव माने जाते हैं।
(०५) ज्ञान की साकारता
वैभाषिक आदि दर्शन के अनुसार रूप आदि विषयों का ग्रहण चक्षु आदि इन्द्रियों के
सौत्रान्तिक दर्शन
३८७
द्वारा होता है, ज्ञान द्वारा नहीं। इन्द्रियों के द्वारा गृहीत नील, पीत आदि विषयों का चक्षुर्विज्ञान आदि इन्द्रिय-विज्ञान अनुभव करते हैं। अर्थात् इन्द्रियों में प्रतिबिम्बित आकार ही इन्द्रियविज्ञानों का विषय हुआ करता है, अन्यथा विज्ञान बिना आकार के ही होता है।
सौत्रान्तिक दर्शन के अनुसार नील, पीत आदि विषय अपना आकार स्वग्राहक ज्ञान में अर्पित करते हैं, फलतः विज्ञान विषयों के आकार से आकारित हो जाते हैं। ज्ञानगत
आकार के द्वारा ही विषय अपने को प्रकाशित करते हैं। यदि ऐसा नहीं माना जाएगा तो विज्ञान की बिना अपेक्षा किये ही विषय का प्रकाश होने लगेगा। अतः जहाँ विषय का अवभास होता है, वह ज्ञान ही है। फलतः ज्ञान में प्रतिभासित नील, पीत आदि विषयों की बाह्यसत्ता सिद्ध होती है।
साकार ज्ञानों के भेद
ज्ञानगत आकार के बारे में तीन प्रकार के मत पाये जाते हैं, यथा- ग्राह्य-ग्राहक समसंख्या वाद, नाना अद्वैत वाद तथा नाना अनुपूर्वग्रहण वाद, इसे अर्धाण्डाकार वाद भी कहते हैं।
(क) ग्राह्य-ग्राहक समसंख्या वाद- नील, पीत आदि अनेक वर्णों से युक्त चित्र का दर्शन करते समय चित्र में जितने वर्ण होते हैं, उतनी ही संख्या में वर्णप्रतिबिम्बित विज्ञान भी होते हैं। जैसे चित्र के वर्ण परस्पर भिन्न और पृथक्-पृथक् अवस्थित होते हैं, वैसे ही वे विज्ञान भी होते हैं. अन्यथा विषय और ज्ञान का निश्चित नियम नहीं बन सकेगा। इस वाद के अनुसार चित्र में जितने वर्ण होते हैं, उतने ही विज्ञान एक साथ उत्पन्न होते हैं।
(ख) नाना अद्वैत वाद- यद्यपि नाना वर्ण वाले चित्रपट को आलम्बन बनाकर अनेक आकारों से युक्त विज्ञान उत्पन्न होता है, तथापि वह चक्षुर्विज्ञान एक ही होता है। एक विज्ञान का अनेक आकारों से युक्त होना न तो असम्भव है और न विरुद्ध ही। क्योंकि अनेक वर्णों का आभास ज्ञान में एकसाथ ही होता है। ज्ञान के अन्दर विद्यमान वे अनेक आकार एक ज्ञान के ही अंश होते हैं, न कि पृथक् । इस मत के अनुसार वह चित्र भी अनेक वर्णवाला होने पर भी द्रव्यतः एक और अभिन्न ही होता है। उसमें स्थित सभी वर्ण उस चित्र के अंश ही होते हैं।
(ग) नाना अनुपूर्वग्रहण वाद- जिस प्रकार एक चित्र में नील, पीत आदि अनेक वर्ण अलग-अलग स्थित होते हैं, वैसे ज्ञान में भी अनेकता होना आवश्यक नहीं है। उस चित्र को ग्रहण करनेवाला चक्षुर्विज्ञान एक होते हुए भी उन सभी वर्गों का साक्षात्कार करता है। इस मत के अनुसार अनेक वर्गों के ज्ञान के लिए ज्ञान का अनेक होना आवश्यक नहीं है।
यह विषय बड़ा गम्भीर है। घट, पट आदि अनेक वस्तुओं को एक साथ देखने वाला चक्षुर्विज्ञान क्या एक होता है या अनेक। फिर केवल एक विषय को देखनेवाला चक्षुर्विज्ञान
३८८
बौद्धदर्शन तो सम्भव ही नहीं है। क्योंकि प्रत्येक विषय के अपने अवयव होते हैं। चक्षुर्विज्ञान जब एक विषय को देखता है तो उसके अवयवों को भी देखता है। तब क्या उन अवयवों के अनुरूप अनेक चक्षुर्विज्ञान होते हैं अथवा एक ही चक्षुर्विज्ञान होता है ? इस विषय में विद्वानों के अनेक मत हैं।
यह उपर्युक्त मत आगमानुयायी सौत्रान्तिकों का प्रतीत होता है। धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक में युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिकों की दृष्टि से समीक्षा की है। इस मत के अनुसार चक्षुर्विज्ञान क्रमशः नीचे के, मध्य के तथा ऊपर के भाग को ग्रहण करता है। इसलिए समसंख्या वाद के और नाना अद्वैतवाद के दोष इस मत में नहीं आते।
यदि ज्ञान अनुक्रम से विषय का ग्रहण करता है तो एक साथ ग्रहण करने की प्रतीति कैसे होती है ? शीघ्रता से घटित होने के कारण एकसाथ ग्रहण करने की भ्रान्ति होती है, जैसे अलीतचक्र के ग्रहण के समय होती है।
(०६) कार्य और कारण की भिन्नकालिकता
कारण हमेशा कार्य से पूर्ववर्ती होता है, इस पर सौत्रान्तिकों का बड़ा आग्रह है। कार्य सर्वदा कारण के होने पर होता है (अन्वय) और न होने पर नहीं होता है (व्यतिरेक)। यदि कार्य और कारण दोनों समान काल में होंगे तो कारण में कार्य को उत्पन्न करने के स्वभाव की हानि का दोष होगा, क्योंकि कारण के काल में कार्य विद्यमान ही है। इस स्थिति में कारण की निरर्थकता का भी प्रसंग (दोष) होगा। इसलिए वैभाषिकों को छोड़कर सौत्रान्तिक आदि सभी बौद्ध दार्शनिक परम्पराएं कारण को कार्य से पूर्ववर्ती ही मानती हैं। वैभाषिक कारण को कार्य का समकालिक तो मानते ही हैं, कभी-कभी तो कार्य से पश्चात्कालिक कारण भी मानते हैं। स्थविरवादी भी सहभू हेतु, पश्चाज्जात हेतु आदि मानते हैं।
(०७) प्रहाण और प्रतिपत्ति
वैभाषिक आदि जैसे अर्हत् के द्वारा प्राप्त क्लेशप्रहाण और प्राप्त आर्यज्ञान की हानि (पतन) मानते हैं, वैसे सौत्रान्तिक नहीं मानते। सौत्रान्तिकों का कहना है कि क्लेशप्रहाण और आर्यज्ञान का अधिगम चित्त के धर्म हैं और चित्त के दृढ़ होने से उनके भी दृढ़ होने के कारण उनकी हानि की सम्भावना नहीं है। इस विषय का विस्तृत विवरण प्रमाणवार्तिक (१ : २०६) और उसके अलंकारभाष्य में अवलोकनीय है।
(०८) ध्यानाङ्गों की विशेषता
नौ समापत्तियाँ (४ रूपी, ४ अरूपी और निरोधसमापत्ति) होती हैं। इसमें सौत्रान्तिकों और वेभाषिकों में मतभेद नहीं है। किन्तु निरोधसमापत्ति के बारे में सौत्रान्तिकों की कुछ
सौत्रान्तिक दर्शन
३८६ विशेषता है। वैभाषिकों के अनुसार निरोधसमापत्ति अवस्था में चित्त और चैतसिकों का सर्वथा निरोध हो जाता है, यहाँ तक कि उनकी वासनाएं भी अवशिष्ट नहीं रहतीं। क्योंकि वासनाओं की आधार चित्तसन्तति का सर्वथा निरोध हो चुका है। हाँ, उनकी प्राप्ति आदि विप्रयुक्त संस्कार अवशिष्ट रह सकते हैं।
व सौत्रान्तिकों के मतानुसार निरोधसमापत्ति चित्त की सूक्ष्म अवस्था है। ऐसा नहीं है कि उस अवस्था में केवल विप्रयुक्त संस्कार ही अवशिष्ट रहते हों। हाँ, वेदना, संज्ञा आदि स्थूल चित्त-चैतसिकों का उस अवस्था में अवश्य निरोध हो जाता है। इस प्रकार निरोधसमापत्ति सौत्रान्तिकों के अनुसार सूक्ष्म सचित्तावस्था है। उनका कहना है कि यदि ऐसा नहीं माना जाएगा तो उस अवस्था में निर्जीव हो जाने का प्रसंग होगा और शरीर के सूखने और सड़ जाने का भी प्रसंग होगा। और भी, यदि निरोधसमापत्ति अवस्था में चित्त की कुछ भी सत्ता नहीं होगी तो समापत्ति से उठते समय पुनः चित्त का उत्पाद भी न हो सकेगा, क्योंकि पूर्ववर्ती चित्त ही परवर्ती चित्त का उत्पादक होता है, न कि शरीर, इन्द्रिय आदि। समापत्ति अवस्था में व्यक्ति समापन्न होता है और उस समय समाधि उसका आहार होती है।
ध्यानागों के बारे में भी सौत्रान्तिकों की वैभाषिकों से कुछ विशेषता है। ध्यानाङ्ग पाँच होते हैं, यथा- वितर्क, विचार, प्रीति, सुख एवं एकाग्रता। वैभाषिकों के अनुसार ‘प्रीति’ नामक ध्यानाङ्ग मनोविज्ञान से सम्प्रयुक्त सुखा वेदना है, सौत्रान्तिकों के अनुसार वह सौमनस्य है। ‘सुख’ नामक ध्यानाङ्ग भी वैभाषिकों के अनुसार कायप्रश्रब्धि स्वरूप है। उन (वैभाषिकों) के मतानुसार इन्द्रियविज्ञानों से सम्प्रयुक्त वेदनाएं बाह्यमुखी होती हैं और ध्यानाङ्गों में परिगणित धर्मों का बहिर्मुखी होना युक्त नहीं है, अतः ध्यानावस्था की सुखा वेदना प्रश्रब्धिस्वरूप ही है। सौत्रान्तिकों के मत में वह ‘सुख’ ध्यानाङ्ग चैतसिक न होकर कायिक सुख ही होता है। अर्थात् वह सुख वेदना कायविज्ञान से सम्प्रयुक्त होती है। उनके अनुसार यह सही है कि इन्द्रियविज्ञान बहिर्मुखी होते हैं, किन्तु ध्यान के बल से उत्पन्न वे विज्ञान समाधि के उपकारक हो जाते हैं। प्रीति तो सभी बौद्ध दार्शनिकों के मतानुसार श्रद्धागत द्रव्य होती है। अर्थात् श्रद्धाविशेष ही प्रीति है।
(०९) प्रमाण आदि सम्यग्ज्ञान
विज्ञान की साकारता के आधार पर सौत्रान्तिक प्रमाणों की व्यवस्था करते हैं। विज्ञान की साकारता का प्रतिपादन पहले किया जा चुका है। प्रमाणों में स्वसंवेदन प्रत्यक्ष की स्थापना सौत्रान्तिकों की विशेषता है। सौत्रान्तिकों की ज्ञानमीमांसा पर आगे पृथक् शीर्षक देकर लिखने जा रहे हैं। वहाँ ज्ञान और उनके भेदों की चर्चा की जाएगी।
के
है
३६०
बौद्धदर्शन
(१०) बुद्ध, बोधिसत्त्व और बुद्धकाय
पारमिताओं की साधना के आधार पर बोधिसत्त्वों की चर्या का वर्णन सूत्रपिटक में प्रायः जातकों में उपलब्ध होता है। बुद्धत्व ही बोधिसत्त्वों का अन्तिम पुरुषार्थ है। क्योंकि उसके द्वारा ही वे बहुजन का हित सम्पादन करने में पूर्ण समर्थ होते हैं। इसके लिए वे तीन असंख्येय कल्प पर्यन्त ज्ञानसम्भार और पुण्यसम्भार का अर्जन करते हैं। जम्बूद्वीप का आर्य बोधिसत्त्व बुद्धत्व के सर्वथा योग्य होता है। कामधातु के अन्य द्वीपों में तथा अन्य धातु और योनियों में उत्पन्न काय से बुद्धत्व की प्राप्ति सम्भव नहीं है।
काय
व महायान से अतिरिक्त अन्य बौद्ध निकायों की इस विषय में प्रायः समान मान्यता है कि भगवान् बुद्ध के दो काय होते हैं, यथा-रूपकाय और धर्मकाय। वैभाषिकों की यह मान्यता है कि भगवान् बुद्ध का रूपकाय, जो बत्तीस लक्षणों और अस्सी अनुव्यञ्जनों से प्रतिमण्डित है, वह सास्रव होता है तथा माता-पिता के शुक्र-शोणित से उत्पन्न ‘करज काय’ होता है। सौत्रान्तिक में कुछ आगमानुयायी भी प्रायः इसी मत के हैं। स्थविरवादी भी ऐसा ही मानते हैं। युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिक रूपकाय को ‘बुद्ध’ ही मानते हैं, क्योंकि वह अनेक कल्पों तक सम्भारों का सम्भरण करने से पुण्यपुञ्जात्मक होता है। धर्मकाय के स्वरूप के बारे में वैभाषिकों और सौत्रान्तिकों में विशेष मतभेद नहीं है, किन्तु धर्मकाय से सम्बद्ध जो निर्वाण तत्त्व है, उसे वैभाषिक द्रव्यसत् मानते हैं। सौत्रान्तिकों के अनुसार निर्वाण समस्त क्लेशों और उपक्लेशों का अभाव, मलों और आवरणों से रहितता मात्र है। अर्थात् निर्वाण का अभावस्वरूप होना, उसकी धर्मता है और यही सर्व प्रपञ्चों का उपशम है। बुद्ध के कायिक, वाचिक और चैतसिक गुण, दस बल, दस वशिताएं, चार वैशारद्य, अष्टादश आवेणिक धर्म-इन सबकी चर्चा अभिधर्मकोश, धर्मसङ्ग्रहसूत्र, अर्थविनिश्चयसूत्र, अभिधर्मसमुच्चय आदि ग्रन्थों में विपुलता से चर्चित हैं।
ज्ञानमीमांसा
सौत्रान्तिकों की ज्ञानमीमांसा के विकास में आचार्य दिङ्नाग का योगदान विद्वानों से तिरोहित नहीं है। यद्यपि उनसे पहले भी न्यायविद्या से सम्बद्ध प्रमाणविद्या का अस्तित्व था, किन्तु वह इतना मिला-जुला था कि उसमें वैदिक, अवैदिक, आदि भेद करना सम्भव नहीं था। दिङ्नाग के बाद हम उनमें स्पष्ट विभाजन देख सकते हैं। बौद्धेतर शास्त्रों में आगम, शब्द, ऐतिह्य आदि ज्ञान से भिन्न साधन भी प्रमाण माने जाते हैं किन्तु आचार्य दिङ्नाग में सम्यग् ज्ञान को ही सर्वप्रथम प्रमाण निर्धारित किया।
सौत्रान्तिक दर्शन
३६१
विविध ज्ञान
(१) निर्विकल्प ज्ञान-अतीत, अनागत को विषय बनाने पर और प्रत्यक्षयके बाद वस्तु का जो आकार ज्ञान में भासित होता है, वह अर्थप्रतिबिम्ब ‘अर्थसामान्य’ कहलाता है तथा शब्द सुनने के अनन्तर वस्तु का जो आकार ज्ञान में भासित होता है, वह अर्थबिम्ब ‘शब्दसामान्य’ कहलाता है। जो ज्ञान इन बिम्बों (सामान्यों) से रहित होता है या इन अर्थबिम्बों से संसृष्ट (युक्त) होने योग्य नहीं होता, वह ज्ञान ‘निर्विकल्प’ कहलाता है।
(२) सविकल्प ज्ञान-जो ज्ञान उपर्युक्त शब्दसामान्य और अर्थसामान्य से संसृष्ट या संसृष्ट होने योग्य होता है, वह ज्ञान ‘सविकल्पक’ कहलाता है।
(३) वस्तु-प्रवृत्त ज्ञान-जो ज्ञान वस्तु के बल से उत्पन्न होता है और वस्तु में प्रवृत्त होता है, वह ज्ञान ‘वस्तुप्रवृत्त ज्ञान’ कहलाता है, जैसे-चक्षुर्विज्ञान आदि प्रत्यक्ष ज्ञान । ये ज्ञान
शब्द के बल से उत्पन्न नहीं होते।
(४) अपोह-प्रवृत्त ज्ञान-जो ज्ञान साक्षात् वस्तु में प्रवृत्त नहीं होता, अपितु एक वस्तु का जो अन्य वस्तुओं से भेद (व्यावृत्ति) होता है, उस भेद में या उस भेद की वजह से भिन्न हुई भेदगर्भित वस्तु में प्रवृत्त होता है, वह ज्ञान ‘अपोहप्रवृत्तज्ञान’ कहलाता है।
(५) सम्यग् ज्ञान-जो ज्ञान अपने विषय के प्रति अविसंवादक होता है। अर्थात् अपने विषय को प्राप्त कराने की क्षमता रखता है, उसे ‘सम्यग् ज्ञान’ या यथार्थ ज्ञान कहते हैं। ऐसा ज्ञान प्रमाण भी होता है।
ज्ञान के विषय तीन प्रकार के होते हैं, यथा- (१) प्रतिभास विषय या ग्राह्य विषय, (२) अध्यावसाय (निश्चय) विषय अर्थात् ज्ञान जिसका निश्चय करता है तथा (३) प्रवृत्ति विषय, अर्थात् ज्ञान प्रवृत्त होकर जिस विषय को प्राप्त कराता है। जो ज्ञान निर्विकल्प होते हैं, उनके दो ही प्रकार के विषय होते हैं; अर्थात् प्रतिभासविषय और प्रवृत्ति विषय। उनका अध्यवसाय विषय सर्वथा नहीं होता। अर्थात् वे किसी विषय का निश्चय नहीं करते। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है-चक्षुर्विज्ञान का रूप ही प्रतिभास विषय भी होता है और वही प्रवृत्तिविषय भी। रूप की अनित्यता, कृतकता आदि प्रतिभास विषय तो होते हैं, किन्तु प्रवृत्तिविषय नहीं। यदि अनित्यता, कृतकता आदि प्रवृत्तिविषय भी माने जाएंगे तो उनके ज्ञान के लिए अनुमान का प्रयोग करना व्यर्थ होगा। श्वेत शंख को पीत शंख समझने वाले चक्षुर्विज्ञान का पीत शंख प्रतिभासविषय भी होता है और प्रवृत्तिविषय भी। किन्तु बाहर स्थित शंख पीत नहीं होता। इसलिए चक्षुर्विज्ञान प्रान्त भी होता है। इस प्रकार ज्ञान के क्षेत्र में निर्विकल्प ज्ञान भी भ्रान्त हुआ करता है।
शब्दसामान्य और अर्थसामान्य सविकल्प ज्ञानों के प्रतिभासविषय होते हैं, किन्तु वे प्रवृत्तिविषय नहीं होते। प्रवृत्तिविषय तो बाह्य घट आदि ही होते हैं। अध्यवसायविषय भी वे३६२
बौद्धदर्शन ही होते हैं। बाह्य घट सविकल्प ज्ञानों के प्रतिभास विषय नहीं होते, क्योंकि अनावृत घट सविकल्प ज्ञानों में प्रतिभासित नहीं होता। शब्दसामान्य और अर्थसामान्य वहां आवरण होते हैं। सविकल्प ज्ञान प्रतिभास की दृष्टि से भले ही भ्रान्त हों, किन्तु प्रवृत्ति और अध्यवसाय की दृष्टि से भ्रान्त नहीं होते। उनके द्वारा अध्यवसित (निश्चित) विषय में प्रवृत्त होने पर कभी उस विषय की प्राप्ति भी होती है, अतः वे ज्ञान अविसंवादक भी होते हैं। किन्तु गृहीत का ग्रहण करने से वे प्रमाण नहीं माने जाते। - इसी तरह अनुमान भी यद्यपि सविकल्पक ज्ञान है और प्रतिभास की दृष्टि से भ्रान्त भी माना जाता है, किन्तु प्रवृत्ति और अध्यवसाय की दृष्टि से वह भ्रान्त नहीं होता अपितु अभ्रान्त होता है तथा क्योंकि वह अगृहीत का ग्रहण करता है, इसलिए प्रमाण भी होता है।
सम्यग् ज्ञान का तात्पर्य अविपरीत ज्ञान से है। वस्तु की जैसी स्थिति है, वैसा अवबोध सम्यग् ज्ञान है। सम्यग् ज्ञान ही अभ्युदय और निःश्रेयस (मोक्ष) आदि पुरुषार्थ की सिद्धि का मुख्य उपाय है। वह सभी प्रकार से संशय, विपरीत या मिथ्या ज्ञानों से रहित होता है। वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानने की उसमें क्षमता होती है।
__(६) प्रमाण ज्ञान-सम्यग् ज्ञान ही प्रमाण होता है। वही ज्ञान अविसंवादक भी होता है। अवसिंवादकत्व ही प्रामाण्य का नियामक होता है। विसंवाद का अर्थ वञ्चना है। जिस ज्ञान में वञ्चना (विसंवाद) का योग होता है, वह ज्ञान विसंवादी कहलाता है। जो विसंवादी नहीं होता, वह ज्ञान अविसंवादी या अविसंवादक कहा जाता है। कहने का आशय यह है कि ज्ञान में यदि अपने द्वारा दिखलाई गई वस्तु को प्राप्त कराने की क्षमता है तो वह ज्ञान वञ्चक नहीं होता, अपितु अविसंवादक होता है और वही ज्ञान प्रमाण होता है। ज्ञान जिस प्रकार वस्तु को देखता है, उसी प्रकार यदि वस्तु की स्थिति है तो यही अविसंवादन है, इस
अविसंवादन का योग होने से ज्ञान अविसंवादी कहलाता है। ___ जो ज्ञान अपने बल से संशय, विपर्यास आदि का निराकरण करके वस्तु के स्वरूप को जानता हुआ, उस वस्तु को प्राप्त कराने में समर्थ होता है, वही ज्ञान अविसंवादक होता है।
__प्रमाण शब्द में ‘प्र’ शब्द का अर्थ प्रथम भी होता है। अर्थात् जो ज्ञान पहले-पहल वस्तु को जानता है, वह प्रमाण कहलाता है। अर्थात् किसी पूर्व ज्ञान द्वारा अगृहीत, अज्ञात या अप्रकाशित अर्थ (विषय) को जानने वाला ज्ञान ‘प्रमाण’ है। इस प्रकार अगृहीतग्राहिता, अज्ञातार्थप्रकाशकता या अपूर्वग्राहिता भी प्रमाण का दूसरा लक्षण है।
वास्तव में ये दोनों लक्षण एक ही वस्तु को कहने की शैली के भेद से है। वस्तुतः जो ज्ञान अविसंवादी होता है, वह अज्ञात अर्थ का प्रकाशक भी होता है। जो अज्ञातार्थप्रकाशक होता है, वह अविसंवादक भी होता है।
अलङ्कारभाष्य के रचनाकार प्रज्ञाकर गुप्त के मतानुसार अग्नि, वायु आदि
सौत्रान्तिक दर्शन
३६३ व्यावहारिक वस्तु को जो ज्ञान ठीक-ठीक जानता है, वह ‘अविसंवादक’ है। अर्थात् अविसंवादकत्व व्यवहारप्रमाण का लक्षण है तथा विज्ञप्तिमात्रता या वस्तु का पारमार्थिक स्वरूप जो अभी तक अज्ञात है, उसको जानने वाला ज्ञान ‘अज्ञातार्थप्रकाशक’ है। अर्थात् अज्ञातार्थप्रकाशकत्व जो प्रमाण का द्वितीय लक्षण है, वह ‘परमार्थप्रमाण’ का लक्षण है। वस्तु का स्वरूप दो प्रकार का होता है- एक व्यावहारिक तथा दूसरा पारमार्थिक। प्रमाण के उक्त दोनों लक्षणों द्वारा वस्तु के सर्वाङ्गीण स्वरूप का बोध हो जाता है। इसलिए एक ही प्रमाणज्ञान के ये दोनों स्वरूप होते हैं। बौद्ध नैयायिक ज्ञान को ही प्रमाण मानते हैं। अतः इन्द्रियाँ, जो जड़स्वभाव होती हैं, वे प्रमाण नहीं मानी जातीं। जबकि गौतम और कणाद के अनुयायी बौद्धेतर नैयायिक इन्द्रियों को भी प्रमाण मानते हैं। सौत्रान्तिकों का कहना है कि क्योंकि जड़ वस्तुओं में अर्थबोध का सामर्थ्य नहीं होता, अतः वे प्रमाण नहीं हो सकतीं तथा ज्ञान ही विषय के आकार से आकारित हो सकता है, अतः वही प्रमाण हो सकता है, इन्द्रियां नहीं। यदि ज्ञान विषयाकार न हो तो वस्तु ज्ञात नहीं हो सकती, क्योंकि वस्तु में स्वयं को अभिव्यक्त करने का सामर्थ्य नहीं होता, नहीं तो ज्ञान के बिना भी उनकी अभिव्यक्ति होने लगेगी। पुनश्च, प्रहेय (प्रहाण करने योग्य) धर्मों का प्रहाण करने की तथा उपादेय (ग्रहण करने योग्य) धर्मों का उपादान (ग्रहण) करने की जो स्वाभाविक प्रवृत्ति मनुष्यों में होती है, उसका मूल ज्ञान ही होता है। इन्द्रिय होने मात्र से मनुष्य प्रवृत्त नहीं होते, अपितु ज्ञान होने से प्रवृत्त होते हैं। इसलिए इस प्रवृत्ति में साधकतम होने से ज्ञान में ही प्रामाण्य स्वीकार करना उचित है। अपि च, ज्ञानगत आकारों में भिन्नता की वजह से ही विषयों का भेद व्यवस्थापित होता है, यथा-यह नील है, यह पीत है-इत्यादि। अतः ज्ञान को ही प्रमाण मानना चाहिए। ____ प्रमाण के भेद-
बौद्ध नैयायिकों के अनुसार प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो प्रमाण के भेद होते हैं। सांख्य तीन प्रमाण मानते हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान शब्द और उपमान। उन चार के अलावा अनुपलब्धि के साथ पांच प्रमाण प्रभाकर के अनुयायी मीमांसक मानते हैं। कुमारिल भट्ट के अनुयायी मीमांसक अभाव के साथ छह प्रमाण मानते हैं। ऐतिह्य आदि के साथ पौराणिक आठ प्रमाण मानते हैं। __दो प्रमाण-प्रमेय की सिद्धि प्रमाण के अधीन है, इस बात को प्रायः सभी दार्शनिक मानते हैं, किन्तु बौद्ध दार्शनिक प्रमाण की सिद्धि प्रमेय के अधीन भी स्वीकार करते हैं। प्रमेय दो प्रकार के होते है, यथा-स्वलक्षण और सामान्य लक्षण। कुछ विषय अर्थक्रिया में समर्थ होते हैं और कुछ असमर्थ। उनमें जो अर्थक्रियासमर्थ होते हैं, वे ही स्वलक्षण तथा जो अर्थक्रियासमर्थ नहीं होते, वे सामान्यलक्षण होते हैं। इसी तरह जो असाधारण होता है तथा शब्द का विषय होता, वह स्वलक्षण तथा इसके विपरीत जो साधारण होता है, शब्द का विषय होता है, वह सामान्य लक्षण होता है। स्वलक्षण और सामान्य लक्षण को छोड़कर कोई तीसरे प्रकार का विषय नहीं होता, अतः प्रमाण की संख्या भी दो में ही निश्चित है।
बौद्धदर्शन
स्वलक्षण प्रत्यक्षय पत्र तथा सामान्य लक्षण अनुमान का विषय होता है। बौद्ध दार्शनिक प्रमाण
और उसके विषय के बारे निश्चयवादी होते हैं। प्रत्यक्ष स्वलक्षण को छोड़कर कभी भी सामान्यलक्षण को विषय नहीं बनाता और न अनुमान भी सामान्यलक्षण को छोड़कर स्वलक्षण को कभी साक्षात् विषय बनाता है। जब कि नैयायिक-वैशेषिक आदि दार्शनिकों की स्थिति इससे भिन्न है। उनके मत में प्रत्यक्ष न केवल विशेष (स्वलक्षण) को ही विषय बनाता है, अपितु सामान्य को भी विषय बनाता है। इतना ही नहीं, उनके मत में एक ही विषय अनेक प्रमाणों का विषय हो सकता है। अतः इनके मत में प्रमाण और प्रमेय की नियत व्यवस्था नहीं है। बौद्धो के मत में यह व्यवस्था निश्चित होती है। फलतः प्रमाणों के विषय में नैयायिक सम्लववादी तथा बौद्ध व्यवस्थावादी होते हैं।
प्रत्यक्षप्रमाण-यद्यपि वैभाषिक इन्द्रियों को प्रत्यक्ष मानते हैं, किन्तु बौद्ध नैयायिक उसकी समालोचना करते हैं और युक्तिपूर्वक ज्ञान की प्रमाणता का प्रतिपादन करते हैं। फलतः जो ज्ञान अर्थाकार होते हुए कल्पनारहित (कल्पनापोढ) एवं अभ्रान्त होता है, वह ‘प्रत्यक्ष’ है। शब्द से संसृष्ट होने योग्य प्रतीति ‘कल्पना’ है। प्रत्यक्ष उस प्रकार की कल्पना से विरहित बिलकुल अछूता होता है।
व्युत्पत्ति-इन्द्रियों पर आश्रित विज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है। किन्तु यह प्रत्यक्ष शब्द का अर्थ केवल शब्द (व्युत्पत्ति) पर आश्रित है। उसका वास्तविक या पारिभाषिक अर्थ तो ‘अर्थसाक्षात्कारी’ ज्ञान है। फलतः जो ज्ञान कल्पनारहित एवं अभ्रान्त होते हुए अर्थ का साक्षात्कारी होता है, वह ‘प्रत्यक्ष’ है।
प्रत्यक्ष के भेद
(१) इन्द्रियप्रत्यक्ष-चक्षुष आदि इन्द्रियों को अधिपतिप्रत्यय बनाकर जो ज्ञान कल्पनारहित और अभ्रान्त रूप में उत्पन्न होता है, वह ‘इन्द्रियप्रत्यक्ष’ है। यह पांच प्रकार का होता है, यथा-नील पीत आदि रूप को विषय (आलम्बन) बनाने वाला चक्षुर्विज्ञान, शब्दग्राही श्रोत्रविज्ञान, गन्धग्राही घ्राणविज्ञान, रसग्राही जिह्वाविज्ञान तथा स्पर्शग्राही कायविज्ञान। यहाँ ज्ञान और विषय की निश्चित व्यवस्था होती है। अर्थात् चक्षुर्विज्ञान रूप का ही ग्रहण करता है। वह कभी भी शब्द का ग्रहण नहीं कर सकता-इत्यादि।
(२) मानस प्रत्यक्ष-इन्द्रियप्रत्यक्षों के अव्यवहित समनन्तर(तत्काल बाद) मानस-प्रत्यक्ष उत्पन्न होता है। समनन्तर निरुद्ध पूर्ववर्ती इन्द्रियप्रत्यक्ष उसके समननन्तर प्रत्यय होते हैं
और मन इन्द्रिय कहलाये हैं। मन-इन्द्रिय ही इस मानसप्रत्यक्ष की अधिपतिप्रत्यय होती है। इन्द्रिय-प्रत्यक्षों के ही विषय जो द्वितीययक्षण में उत्पन्न है, मानस-प्रत्यक्ष के विषय होते हैं। इस मान-प्रत्यक्ष की अनुभूति पृथग्जनों की सन्तति में नहीं होती। आगम से ही इसके अस्तित्व की जानकारी होती है। बौद्ध न्याय के सभी ग्रन्थों में इसका निरूपण किया जाता
हैं
सौत्रान्तिक दर्शन
३६५ है। पृथग्जन की सन्तति में होने वाले मानसप्रत्यक्ष की प्रामाणिकता मान्य नहीं है। जितने इन्द्रियप्रत्यक्ष होते हैं, उनके अनन्तर होने वाला मानसप्रत्यक्ष भी उतनी ही संख्या में होता है। अर्थात् इन्द्रियप्रत्यक्ष पांच होते हैं। अतः मानसप्रत्यक्ष के भी पांच भेद माने जाते हैं।
(३) स्वसंवेदन प्रत्यक्ष-सभी चि त्त-चैतसिक याने सभी ज्ञान अपने स्वरूप को स्वयं जानते हैं। उनका स्वयं अपने स्वरूप को जानना ‘स्वसंवेदन’ कहलाता है। अपने स्वरूप का साक्षात्कारी होने से, कल्पनापोढ और अभ्रान्त होने से तथा अतिसंवादक होने से यह ‘स्वसंवेदन-प्रत्यक्ष’ कहलाता है। स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के बारे में बौद्धों में बहुत आपसी वाद-विवाद है। सौत्रान्तिक और विज्ञानवादी (योगाचार) इसकी प्रमाणिकता स्वीकार करते हैं, जबकि वैभासिक और प्रासङ्गिक माध्यमिक इसे नहीं मानते। स्वान्त्रितक माध्यमिकों में भावविवेक स्वसंवेदन का खण्डन करते हैं, किन्तु योगाचार स्वातन्त्रिक माध्यमिकों को अपने दर्शन के स्वभाव के अनुसार इसकी प्रमाणिकता माननी चाहिए, यद्यपि उनके ग्रन्थों में इस बारे में स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध नहीं है।
(४) योगि-प्रत्यक्ष-शमथ-विपश्यना युगनद्ध समाधि को अधिपतिप्रत्यय बनाकर आर्यसत्यों का साक्षात्कार करते हुए उत्पन्न आर्यों का ज्ञान जो कल्पनाभेद और अभ्रान्त होता है, वह ‘योगि-प्रत्यक्ष’ है। यह वस्तु के यथार्थ स्वरूप नैरात्म्य का आलम्बन करता है तथा समाहित अवस्था में ही उत्पन्न होता है। योग का अर्थ समाधि है, चित्त की एकाग्रता इसका लक्षण है और वस्तुतत्त्व की साक्षात्कार कर नेवाली प्रज्ञा भी योग है। यह योग जिसमें होता है, वह ‘योगी’ कहलाता है। ऐसे योगी का जो ज्ञान होता है, वह प्रत्यक्ष ही होता है। सास्रव अथवा लौकिक तथा अनासव अथवा अलौकिक भेद से यह दो प्रकार का होता है। अभिज्ञा,समापत्ति आदि लौकिक तथा दर्शनमार्ग आदि अलौकिक प्रत्यक्ष है।
___ अनुमान प्रत्यक्ष-लिङ्ग (साधन) के ग्रहण और साध्य-साधन सम्बन्धय (अर्थात व्याप्ति के) स्मरण के पश्चात् उत्पन्न ज्ञान ‘अनुमान’ कहलाता है। सम्यग् लिङ्ग (कार्य स्वभाव और अनुपलब्धि) से उत्पन्न परोक्ष-अर्थ-विषयक अविसंवादी ज्ञान ‘अनुमान’ है।
अनधिगत वस्तु को विषय बनाने पर वही ‘अनुमान प्रमाण’ होता है। ___ अनुमान के भेद-स्वार्थानुमान और परार्थानुमान ये अनुमान के दो भेद है। जिसके द्वारा व्यक्ति स्वयं परोक्ष अर्थ का ज्ञान करता है, वह ‘स्वार्थानुमान’ है। परार्थानुमान वचनात्मक होता है। व्याप्ति और पक्षधर्मतायका कथन करने वाला वचन अनुमान का उत्पादक होता है, अतः कारण में कार्य का उपचार करके वचन को भी अनुमान कहा जाता है।
जो ज्ञान कल्पनाभेद और अभ्रान्त नहीं होता, वह ‘प्रत्यक्षाभास’ तथा जो ज्ञान सम्यग् लिङ्ग से उत्पन्न नहीं होता, वह ‘अनुमानाभास’ कहलाता है।
३६६
बौद्धदर्शन
मार्ग और फलव्यवस्था
श्रावकमार्ग, प्रत्येकबुद्धमार्ग एवं बोधिसत्वमार्ग तथा उन मार्गों से प्राप्त होने वाले फलों की व्यवस्था सौत्रान्तिक मत में प्रायः वैभाषिकों के समान ही है। दर्शनमार्ग आदि की अवस्था में उसके विषय चार आर्यसत्य एवं उन सत्यों के सोलह आकार आदि ही माने जाते हैं। इनसे अतिरिक्त मार्गज्ञान के अन्य विषय नहीं होते। उल या पिका
ना मार्ग की दो अवस्थाएं होती हैं-समाहित अवस्था एवं पृष्ठलब्ध अवस्था। समाहित मार्ग की अवस्था में मार्गज्ञान के विषय आर्यसत्व एवं नैरात्मय आदि ही होते हैं।
। यहाँ पर प्रश्न हो सकता है कि नैरात्म्य तो आत्माभावमात्र है और मार्गज्ञान तो सत्यविषयक ही होता है तथा सौत्रान्तिकों के मतानुसार तो परमार्थ सत्य एकमात्र स्वलक्षण (वस्तु) ही होता है। नैरात्म्य तो स्वलक्षण-स्वरूप होता नहीं, अतः नैरात्म्य कैसे मार्गज्ञान
का विषय हो सकता है ?
उत्तर-मार्गज्ञान का विषय निश्चय ही पुद्गलारोप के आधार पाँच स्कन्ध ही होते है। जो संस्कृत और स्वलक्षण ही होते हैं। यद्यपि मार्गज्ञान (प्रत्यक्ष) में साक्षात् प्रतिभास तो पाँच स्कन्धों का ही होता है, किन्तु उसके बल से नैरात्म्य का स्पष्ट अवबोध (परिच्छेद) भी मार्गज्ञान द्वारा हो जाता है। ज्ञान द्वारा परिच्छेद (अवबोध) दो प्रकार का हुआ करता है एक साक्षात् परिच्छेद तथा उसके बल से होने वाला परिच्छेद। नैरात्म्य का अवबोध पञ्च स्कन्ध के साक्षात परिच्छेद के बल (सामर्थ्य) से ही होता है। ज्ञात है कि पाँच स्कन्ध ही पुद्गलारोप के आधार होते हैं। अतः पुद्गलाभाव (पुद्गलनैरात्म्य) के आधार भी वे पाँच स्कन्ध ही होंगे, अतः उन्हीं में नैरात्म्य भासित होता ह। बोधिसत्व जब बुद्धत्व प्राप्त कर लेता है, तब उसके स्वरूप एवं कृत्य आदि वैभाषिकों की तरह ही सौत्रान्तिक मत में मान्य है।
काफी