सौत्रान्तिक निकाय का उद्भव एवं विकास
सामान्यतया विद्वानों की धारणा है कि सौत्रान्तिक निकाय का प्रादुर्भाव बुद्ध के परिनिर्वाण के अनन्तर द्वितीय शतक में हुआ। पालि-परम्परा के अनुसार वैशाली की द्वितीय संगीति के तत्काल बाद कौशाम्बी में आयोजित महासंगीति में महासांघिक निकाय का गठन किया गया और बौद्ध संघ दो भागों में विभक्त हो गया। थोड़े ही दिनों के अनन्तर स्थविर निकाय से महीशासक और वृजिपुत्रक (वज्जिपुत्तक) निकाय विकसित हुए! उसी शताब्दी में महीशासक निकाय से सर्वास्तिवाद, उससे काश्यपीय; उनसे संक्रान्तिवादी, फिर उससे सूत्रवादी निकाय का जन्म हुआ। आशय यह कि सभी अठारह निकाय उसी शताब्दी में विकसित हो गये।
विभिन्न मत
(क) बुद्ध के परिनिर्वाण के तृतीय शतक में प्रायः सभी निकाय विद्यमान थे, क्योंकि सम्राट अशोक के काल में जो तृतीय संगीति आयोजित की गई थी, उस अवसर पर मुद्गलीपुत्र तिष्य ने स्थविरवाद से भिन्न सभी सत्रह निकायों का निराकरण करते हुए स्थविरवाद के समर्थन में ‘कथावत्थु’ (कथावस्तु) नामक ग्रन्थ की रचना की थी। स्थविर तिष्य ने यद्यपि सभी अन्य सिद्धान्तों की समालोचना की, किन्तु निकाय के नामों का समुल्लेख अपने ग्रन्थ में नहीं किया। यह काम उनके अनन्तर पाँचवी शताब्दी में उत्पन्न प्रसिद्ध अट्ठकथाकार आचार्य बुद्धघोष ने सम्पन्न किया। इससे यह भी सिद्ध होता है कि तिष्य स्थविर के काल में यद्यपि भिक्षु संघों में सिद्धान्तगत मतभेद थे और भिक्षुओं में अपने-अपने सिद्धान्त के प्रति दृढ़ आग्रह भी था, परस्पर विवाद भी प्रचलित थे, जिनका खण्डन स्थविर तिष्य ने किया, किन्तु फिर भी उस समय सिद्धान्तविशेष के साथ निकायविशेष का नाम सम्भवतः विकसित नहीं हुआ था। सिद्धान्त के साथ निकाय के नाम का संयोजन सम्भवतः पश्चात्कालिक है। इस तरह पालिपरम्परा के अनुसार बुद्ध के परिनिर्वाण के द्वितीय शतक में उस निकाय से सभी अन्य निकाय विकसित हो गये थे। इस क्रम में सौत्रान्तिक निकाय स्थविरवादी निकाय का अन्तिम विकास है।
(ख) इस बात की भी सम्भावना है कि निकायों के विकास के सम्बन्ध में स्थविरों में भी विभिन्न मत रहे हों, किन्तु बुद्धघोष द्वारा अट्ठकथाओं की रचना कर देने के अनन्तर वे सभी समाप्त हो गये। बुद्धघोष का मत अवश्य ही सिंहल देश में विकसित स्थविरवाद के अभयगिरिवासी, महाविहारवासी आदि उपनिकायों में से किसी एक के मत से प्रभावित
सौत्रान्तिक दर्शन
३५६ होगा, क्योंकि वहीं (सिंहल देश) में बैठकर बुद्धघोष ने अट्ठकथाओं की रचना की थी। आचार्य वसुमित्र, भव्य, विनीतदेव आदि ने अष्टादश निकायों के विकास की जो भिन्न-भिन्न प्रक्रिया और तालिकाएं प्रस्तुत की है, उनसे उपर्युक्त अनुमान की पुष्टि होती है।
(ग) अन्य निकायों के अनुसार, जिनका प्रचार-प्रसार उत्तरभारत में था, निकायभेद का यह क्रम यद्यपि आचरण सम्बन्धी विवादों के समाधानार्थ वैशाली में आयोजित द्वितीय संगीति के बाद ही प्रारम्भ हुआ, किन्तु उस संगीति के काल के विशेष में कुछ विवाद है। उनमें से कुछ के अनुसार यह संगीति बुद्ध के बाद ११०वें वर्ष में और कुछ के अनुसार ११६वें वर्ष में सम्पन्न हुई। सौत्रान्तिक निकाय का जन्म किस निकाय से हुआ? इस विषय में परम्परा में कोई स्पष्ट निर्देश उपलब्ध नहीं होता। आचार्य वसुमित्र के अनुसार जो निकायवादी धर्मोत्तर को अपना आचार्य मानते हैं, वे धर्मोत्तरीय ही कभी ‘सूत्रान्तवादी’ और कहीं ‘संक्रान्तिवादी’ कहलाते हैं। उन (वसुमित्र) के अनुसार सर्वास्तिवाद से इस सौत्रान्तिक निकाय का विकास हुआ। आशय यह है कि सौत्रान्तिक निकाय का विकास यद्यपि परम्परया स्थविरवाद से ही हुआ है, किन्तु साक्षात् जन्म सर्वास्तिवाद से हुआ।
(घ) इस निकाय-विभाजन के विषय में सर्वास्तिवादियों के दो प्रकार के मत उपलब्ध होते हैं। उनमें से एक मतानुसार मूलसंघ से स्थविरवाद, सर्वास्तिवाद आदि १० निकाय तथा महासांघिकों के साथ आठ निकाय विकसित हुए। द्वितीय मत के अनुसार मूलनिकाय चार हैं, यथा-स्थविरवाद, सर्वास्तिवाद, महासांघिक एवं सम्मितीय। इनसे सभी निकाय विकसित हुए। दोनों ही मतों के अनुसार सौत्रान्तिक निकाय द्वितीय बुद्धाब्द में उत्पन्न हुआ।
(ङ) महासांघिक मतानुसार मूल निकाय तीन हैं, यथा-स्थविरवाद, सर्वास्तिवाद एवं विभज्यवाद। इनके मतानुसार सौत्रान्तिक निकाय सर्वास्तिवाद से और द्वितीय बुद्धाब्द में उत्पन्न हुआ।
(च) भदन्त वसुमित्र इन उपर्युक्त मतों से भिन्न एक स्वतन्त्र मत उपस्थापित करते हैं। उनके अनुसार सौत्रान्तिक निकाय सर्वास्तिवाद से चतुर्थ बुद्ध शताब्दी में विकसित हुआ। आचार्य धर्मोत्तर इस निकाय के प्रवर्तक थे। इसीलिए यह निकाय उत्तरापथिक या उत्तरीय भी कहलाता है। कभी-कभी सूत्रवाद और कहीं-कहीं यह निकाय संक्रान्तिवाद भी कहलाता है। अनेक स्थलों पर संक्रान्तिवाद सौत्रान्तिकवाद का पूर्ववर्ती और उसका जनक भी कहा गया है। संक्रान्तिक और सौत्रान्तिकों का पर्याय रूप में उल्लेख भी कहीं-कहीं मिलता है। किन्तु सैद्धान्तिक दृष्टि से उनमें मतभेद भी था। कालान्तर में ये स्वतन्त्र निकाय के रूप में विकसित हुए।
समीक्षा
(१) निकायों के नामों और काल के विषय में जो मतभेद उपलब्ध होते हैं। उसका
व
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बौद्धदर्शन कारण देशभेद और आवागमन की सुविधा का अभाव भी प्रतीत होता है। उदाहरणार्थ भारत के पश्चिमोत्तर में अर्थात् कश्मीर, गान्धार आदि प्रदेशों में सौत्रान्तिक निकाय कश्मीर वैभाषिकों से पृथक् होकर विलम्ब से अस्तित्व में आया, अतः वसुमित्र उसका उद्भवकाल चतुर्थ बुद्ध शताब्दी निश्चित करते हैं। उस निकाय ने मध्य देश अर्थात् मथुरा आदि स्थानों में पहले ही अपना स्वरूप प्राप्त कर लिया, अतः वसुमित्र से अन्य आचार्यों का मत भिन्न हो गया। इस प्रकार का मतभेद होने पर भी उनमें मौलिक एकरूपता दृष्टिगोचर होती है। उदाहरण के रूप में काश्यपीय निकाय के विभिन्न नाम विभिन्न प्रदेशों में थे।
(२) ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि सौत्रान्तिक निकाय के बीज बुद्धकाल में ही विद्यमान थे। पालिभाषा में उपनिबद्ध और उपलब्ध प्रामाणिक बुद्धवचनों में तथा भोटभाषा और चीनी भाषा में उपलब्ध एवं सुरक्षित उनके अनुवादों में ‘सुत्तन्तिक’, ‘सुत्तधर’ (सूत्रधर), ‘सुत्तवादी’ (सूत्रवादी) आदि शब्द बहुलतया उपलब्ध होते हैं। ज्ञात है कि उस काल में सिद्धान्तविशेष के लिए ‘वाद’ शब्द प्रयुक्त होता था। सूत्रों में ‘सुत्तधर’, ‘सुत्तवादी’, ‘सुत्तन्तिक’, ‘सुत्तन्तवादी’ आदि शब्द उन भिक्षुओं के लिए प्रयुक्त होता था, जो सूत्रपिटक के विशेषज्ञ होते थे, जिन्हें सूत्रपिटक कण्ठस्थ था और जो उसके व्याख्यान में निपुण थे। ____पाँच सौ अर्हत् भिक्षुओं की जो प्रथम संगीति राजगृह में आयोजित थी, उसके विवरण से यह भी ज्ञात होता है कि स्थविर आनन्द सूत्रान्तवादियों में तथा उपालि विनयधरों में अग्रगण्य थे। उपस्थित या सम्मिलित सभी अर्हत् भिक्षु यह भी जानते थे कि आनन्द बहुश्रुत हैं और न केवल समस्त बुद्धवचनों के ज्ञाता ही हैं, अपितु उनके आन्तरिक महत्त्व को भी जानते हैं, फिर भी विनय का संगायन उपालि द्वारा तथा मातृकाओं का संगायन महाकाशयप द्वारा सम्पन्न किया गया। आनन्द भी जब तक अर्हत् नहीं हुए तब तक सूत्र या धर्म का संगायन आरम्भ नहीं हुआ। इस घटना से आनन्द का सूत्रवादित्व या सूत्रधरत्व प्रकट होता है। इसी संगीति के विवरणों में सुत्तधर, सुत्तन्तिक, धर्मधर, विनयधर, मातृकाधर, त्रैपिटक भिक्ष आदि सम्बोधन भी भिक्षओं के उपलब्ध होते हैं। इससे यह भी निष्कर्ष प्रतिफलित होता है कि जो भिक्षु सूत्ररहस्य के मर्मज्ञ थे अथवा सूत्रपिटक को अन्य पिटकों की अपेक्षा अधिक महत्त्वशाली समझते थे, वे सूत्रवादी या सूत्रधर कहलाते थे। इसी तरह जो विनय के मर्मज्ञ थे या उसे महत्त्वशाली समझते थे, वे विनयधर कहलाते थे। यद्यपि उस समय सूत्रधरों और विनयधरों के पृथक् संघटन नहीं थे, किन्तु बौद्धिक क्षेत्र में उनका पृथक् अस्तित्व था।
इन संकेतों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सौत्रान्तिक निकाय के बीज या उसकी पृष्ठभूमि भगवान् बुद्ध के जीवनकाल में ही निर्मित हो गई थी। यद्यपि उस समय सौत्रान्तिक निकाय के नाम से कोई निकाय अलग से संघटित नहीं हुआ था, फिर भी सूत्रविशेषज्ञों की स्वतन्त्र और विशेष स्थिति दृष्टिगोचर होती है। प्रतीत होता है कि ईसा-पूर्व
है
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सौत्रान्तिक दर्शन प्रथम शताब्दी में पृथक् निकाय या दर्शनप्रस्थान के रूप में इसका प्रादुर्भाव हुआ।
सौत्रान्तिक विचारों का उद्भव एवं विकास
परिभाषा-जो निकाय सूत्रों का या सूत्रपिटक का सबसे अधिक प्रामाण्य स्वीकार करता है, उसे सौत्रान्तिक कहते हैं। अट्ठसालिनी में सूत्र शब्द के अनेक अर्थ कहे गये हैं, यथा : FREE अत्थानं सूचनतो सुवुत्ततो सवनतो थ सूदनतो। सुत्ताणा सुत्तसभागतो च सुत्तं सुत्तं ति अक्खातं ॥
हा (अट्ठसालिनी, निदानकथावण्णना, पृ. ३६) सूत्र को ही ‘सूत्रान्त’ भी कहते हैं अथवा सूत्र के आधार पर प्रवर्तित सिद्धान्त ‘सूत्रान्त’ कहलाते हैं। उनसे सम्बद्ध निकाय ‘सौत्रान्तिक’ है। जिन वचनों के द्वारा भगवान् जगत् का हित सम्पादित करते हैं, वे वचन ‘सूत्र’ हैं। अथवा जैसे मणि, सुवर्ण आदि के दानों को एक धागे में पिरोकर सुन्दर हार (आभूषण) का निर्माण किया जाता है, उसी तरह नाना अध्याशय एवं रुचि वाले सत्त्वों के लिए उपदिष्ट नाना बुद्धवचनों को निर्वाण के अर्थ में जिनके द्वारा आबन्धन किया जाता है, वे सूत्र हैं। महायानी परम्परा के अनुसार बुद्ध का कोई एक भी वचन ऐसा नहीं है, जिसमें ज्ञेय, मार्ग और फल संगृहीत न हो। इसलिए बुद्धवचन ही ‘सूत्र’ है। अतः ‘सूत्र’ यह बुद्धवचनों का सामान्य नाम है। यशोमित्र ने अभिधर्मकोशभाष्य की टीका में सौत्रान्तिक शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए लिखा है : ‘कः सौत्रान्तिकार्थः? ये सूत्रप्रामाणिकाः, न तु शास्त्रप्रामाणिकास्ते सौत्रान्तिकाः’ (अभिधर्मकोशभाष्यटीका, स्फुटार्था, पृ. १५) अर्थात् सौत्रान्तिक शब्द का क्या अर्थ है ? जो सूत्र को, न कि शास्त्र को प्रमाण मानते हैं, वे सौत्रान्तिक हैं। इन्हें ही दार्टान्तिक भी कहते हैं, क्योंकि वे दृष्टान्त के माध्यम से बुद्ध वचनों का व्याख्यान करने में अत्यन्त निपुण होते हैं। इस निर्वचन के द्वारा त्रिपिटक के सम्बन्ध में सौत्रान्तिकों की दृष्टि का संकेत भी किया
गया है। मा
त्रिपिटक-इस विषय में किसी का कोई विवाद नहीं है कि महाकाश्यप आदि महास्थविरों ने बुद्धवचनों का सकंलन करके उन्हें त्रिपिटक का स्वरूप प्रदान किया। काल क्रम में आगे चलकर बुद्धवचनों के सम्बन्ध में परस्पर विरुद्ध विविध मत-मतान्तर और विविध साम्प्रदायिक दृष्टियाँ प्रस्फुटिक हुई। इस विषय में सौत्रान्तिकों की विशेष दृष्टि है। इनके मतानुसार स्थविरवादियों का अभिधर्मपिटक, जिसमें धम्मसंगणि, विभंग आदि ७ ग्रन्थ संगृहीत हैं, वह (अभिधर्मपिटक) बुद्धवचन नहीं माना जा सकता। इनका कहना है कि इन ग्रन्थों में असंस्कृत धर्मों की द्रव्यसत्ता आदि अनेक युक्तिहीन सिद्धान्त प्रतिपादित हैं। भगवान्३६२
बौद्धदर्शन बुद्ध कभी भी युक्तिहीन बातें नहीं बोलते, अतः इन्हें बुद्धवचन के रूप में स्वीकार करना असम्भव है। वस्तुतः ये (सातों) ग्रन्थ परवर्ती हैं और आभिधार्मिकों की कृति हैं। अतः ये शास्त्र हैं। उन्होंने इनके रचयिताओं के नामों का भी उल्लेख किया है, यथा-ज्ञानप्रस्थान के कर्ता आर्यकात्यायनीपुत्र, प्रकरणपाद के वसुमित्र, विज्ञानकाय के देवशर्मा, धर्मस्कन्ध के शारीपुत्र, प्रज्ञप्तिशास्त्र के मौद्गलयायन, धातुकाय के पूर्ण तथा संगीतिपर्याय के महाकौष्ठिल्ल कर्ता हैं। ये ग्रन्थ किसी प्रामाणिक पुरुष द्वारा रचित नहीं हैं और न प्रथम संगीति में इनका संगायन ही हुआ है, अतः पृथग्जनों द्वारा विरचचित होने से हम सौत्रान्तिक इन्हें बुद्धवचन नहीं मानते। इनका कहना है कि बुद्ध द्वारा उपदिष्ट सूत्र ही हमारे मत में प्रमाण हैं, न कि कोई अन्य शास्त्र। __सौत्रान्तिकों की युक्तियों में कुछ-कुछ सत्यांश भी प्रतीत होता है। यह आश्चर्य की ही बात है कि भगवान् बुद्ध के परिनिर्वाण के दो सौ वर्षों के अनन्तर (तृतीय संगीति के अवसर पर) मौद्गलीपुत्र तिष्य के द्वारा विरचित कथावत्थु नामक ग्रन्थ स्थविरवादियों के द्वारा बुद्धवचन के रूप में मान्य है। इसी तरह स्थविर धर्मत्रात द्वारा विरचित उदानवर्ग सर्वास्तिवादियों के द्वारा बुद्धवचन के रूप में माना जाता है। अपने मत की पुष्टि के लिए स्थविरवादियों द्वारा यह कहा जाता है कि भगवान् बुद्ध अनागत के ज्ञाता और त्रिकालदर्शी थे। उन्होंने यह भविष्यवाणी कर दी थी कि मेरे बाद भविष्य में मुद्गलीपुत्र तिष्य उत्पन्न होगा
और वह मेरे द्वारा उपदिष्ट मातृकाओं का विस्तार करते हुए कथावत्थु नामक प्रकरण का निर्माण करेगा। अतः बुद्ध की भविष्यवाणी के अनुसार निर्मित होने से यह प्रकरण बुद्धवचन है। सौत्रान्तिकों का कहना है कि स्थविरवादियों की यह युक्ति मान ली जाए तो नागार्जुन के ग्रन्थों को भी बुद्धवचन मानना होगा, क्योंकि उनके बार में भी लङ्कावतार सूत्र एवं मंजुश्रीमूलकल्प आदि में बुद्ध की भविष्यवाणी उपलब्ध है।
इस विषय में स्थविरवादी, सर्वास्तिवादी आदि सौत्रान्तिकों पर आक्षेप करते हैं कि यदि धम्मसंगणि आदि और ज्ञानप्रस्थान आदि ग्रन्थ अभिधर्मपिटक के रूप में बुद्धवचन नहीं है तथा प्रथम संगीति आदि के अवसर पर उनका संगायन भी नहीं हुआ है तो बुद्धवचनों का त्रिपिटक में संग्रह और त्रिपिटकव्यवस्था सर्वथा निरर्थक हो जाएगी। इतना ही नहीं. सूत्रविरोध भी होगा, क्योंकि सूत्रों में बहुत स्थानों पर ‘अभिधर्मपिटक’, ‘पिटक भिक्षु’ आदि शब्द (सूत्रवचन) उपलब्ध होते हैं। ये सूत्रवचन (शब्द) न तो अप्रामाणिक हैं और न निरर्थक ही। इसलिए आप (सौत्रान्तिकों) का मत समीचीन नहीं है। अपि च, आपके मत के अनुसार तो अभिधर्मपिटक का अभाव ही हो जाएगा, क्योंकि उन ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, जिन्हें अभिधर्मपिटक कहा जा सके।
दार्टान्तिक इन आक्षेपों का युक्तियुक्त समाधान प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि आपका यह कहना सही है कि उन ग्रन्थों के अलावा अभिधर्म के अन्य ग्रन्थ नहीं हैं, फिर भी
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अभिधर्म के अभाव का दोष नहीं है तथा अभिधर्म के अभाव का दोष भी हम पर लागू नहीं होता, क्योंकि धर्मसंगणि, ज्ञानप्रस्थान आदि ग्रन्थों को अभिधर्मपिटक के रूप में मानकर सूत्रों में ‘अभिधर्मपिटक’ और ‘पिटक भिक्षु’ आदि शब्दों का व्यवहार नहीं किया गया है,
और न तो भगवान् ने सूत्रपिटक और विनयपिटक से अतिरिक्त अभिधर्मपिटक की देशना ही की है, फिर भी उन्होंने अभिधर्म की देशना तो की है। सूत्रों में ही अनेक जगहों पर (अनेक सूत्रों में) उन्होंने धर्मों के स्वलक्षण और सामान्यलक्षण आदि की विवेचना की है, सूत्रों के ऐसे स्थल या वचन ही वस्तुतः अभिधर्म हैं। जिन सूत्रों में इस प्रकार का धर्मप्रविचय या धर्मों का विश्लेषण उपलब्ध होता है, ऐसे सूत्रविशेष ही हमारे मतानुसार अभिधर्म हैं, जैसे अर्थविनिश्चय आदि सूत्र, न कि धम्मसंगणि, ज्ञानप्रस्थान आदि ग्रन्थ। ‘मातृका’ शब्द भी अभिधर्म के पर्याय के रूप में सूत्रों में मिलता है। अभिधर्मधर के लिए मातृकाधर शब्द का प्रयोग स्वयं भगवान् ने ही किया। प्रथम पंचशतिका संगीति में भी अभिधर्म का संगायन महाकाश्यप आदि महास्थविरों ने मातृका के रूप में ही किया है। इसलिए ‘अभिधर्मपिटक’ ‘त्रैपिटक भिक्षु’ आदि शब्दों के आधार पर कोई दोष या सूत्रविरोध का आक्षेप हम पर नहीं दिया जा सकता। स्थविरवादी, सर्वास्तिवादी आदि द्वारा भी माना जाता है कि अभिधर्म की देशना भगवान ने प्रकीर्ण रूप में की है, आर्य कात्यायनीपत्र आदि ने बाद में उनका संकलन करके ग्रन्थरूप प्रदान किया। इसी से यह भी स्पष्ट होता है कि प्रथम संगीति के अवसर पर अभिधर्म का अस्तित्व तो था, किन्तु अभिधर्म ग्रन्थों का जैसा स्वरूप आज उपलब्ध है, वैसा उस समय नहीं था।
प्रथम संगीति के प्राचीन वर्णनों के प्रसंग में अभिधर्मपिटक के संगायन का स्पष्ट उल्लेख समुपलब्ध नहीं होता। सर्वास्तिवादियों के क्षुद्रकागम में यद्यपि अभिधर्म के संगायन का उल्लेख मिलता है, तथापि वहाँ महाकाश्यप द्वारा अभिधर्म मातृकाओं के संगायन का ही उल्लेख है। हमारी इस सम्भावना का अपलाप करना शक्य नहीं है कि उस समय वर्तमान अभिधर्म ग्रन्थों का अस्तित्व ही नहीं था। सौत्रान्तिकों का यह कथन वस्तुस्थिति को ही प्रकट करता है कि सात ग्रन्थों वाला अभिधर्म शास्त्र है, न कि सूत्र तथा हम सूत्र को प्रमाण मानने वाले हैं, न कि शास्त्र को प्रमाण मानने वाले। उनका ऐसा कहना साम्प्रदायिक प्रवृत्ति का द्योतक भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जब वैभाषिक ज्ञानप्रस्थान आदि ग्रन्थों को बुद्धवचन के रूप में प्रतिपादित करते हैं, तब स्थविर धर्मत्रात द्वारा संगृहीत उदानवर्ग को दृष्टान्त के रूप में प्रस्तुत करते हैं। अर्थात् बुद्ध के द्वारा प्रकीर्ण (बिखरे हुए) रूप में उपदिष्ट वचनों का धर्मत्रात द्वारा किया हुआ ‘उदान’ नामक संग्रह जैसे बुद्धवचन माना जाता है। वैसे ही ज्ञानप्रस्थान आदि भी संगृहीत ग्रन्थ हैं। अतः उन्हें भी बुद्धवचन मानना चाहिए। किन्तु सौत्रान्तिक उदानवर्ग को भी शास्त्र ही मानते हैं, न कि सूत्र।
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बौद्धदर्शन परवर्ती सौत्रान्तिक आचार्य, जिन पर महायान का अधिक प्रभाव था, वे भी यही मानते हैं कि सर्वास्तिवादी आदि निकायों के अभिधर्मग्रन्थ बुद्धवचन नहीं है। महायानी आचार्यों का मत भी प्रायः इसी प्रकार का है। सात अभिधर्म ग्रन्थों एवं धर्मत्रातकृत उदानवर्ग का आंशिक बुद्धवचनत्व ही उन्हें मान्य है। इन ग्रन्थों में जो सूत्रवचन उद्धृत हैं, उन सूत्रवचनों को ही वे बुद्धवचन के रूप में मान्यता प्रदान करते हैं। आचार्य वसुबन्धु का मत भी उनके अभिधर्मकोश और उसके स्वभाष्य आदि में इसी प्रकार परिलक्षित होता है।
बुद्धवचनों की नेय-नीतार्थता
बुद्ध के बाद उनके अनुयायियों में उनके वचनों की व्याख्या की दो पद्धतियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। एक पद्धति में त्रिपिटक के विशिष्ट वचनों एवं सन्दर्भो की ही व्याख्या की जाती है, न कि समस्त बुद्धवचनों का सामंजस्य या समन्वय सिद्ध किया जाता है। दूसरी पद्धति में न केवल क्लिष्ट वचन और सन्दर्भो का ही अभिप्राय स्पष्ट किया जाता है, अपितु समस्त बुद्धवचनों का समन्वय भी सिद्ध किया जाता है। इसी दूसरी पद्धति द्वारा बुद्धवचनों को नेयार्थता एवं नीतार्थता का विभाजन एवं अभिप्राय और अभिसन्धि का आश्रय ग्रहण करके इष्ट की सिद्धि की गई है।
म इस दूसरी पद्धति के पुरस्कर्ता एवं प्रथम प्रमुख आचार्य महायानपथ के प्रदर्शक नागार्जुन थे। स्थविरवाद, वैभाषिक आदि निकाय-परम्परा में भी सूत्रव्याख्यान के अवसर पर नेयार्थ-नीतार्थ की चर्चा दृष्टिगोचर होती है। सौत्रान्तिक परम्परा में भी यह पद्धति उपलब्ध होती है। सौत्रान्तिकों के भी अनेक भेद-प्रभेद हैं। यह सम्भव है कि प्राचीन सौत्रान्तिकों में यह मान्यता प्रचलित न हो, किन्तु आचार्य वसुमित्र (सौत्रान्तिक) ने अपने समयभेदों-परचनचक्र नाम के ग्रन्थ में लिखा है कि क्योंकि सभी सूत्रवचन नीतार्थ विषयक नहीं हैं, अतः सभी सूत्र नीतार्थ ही न होकर वे नेयार्थ भी होते हैं। __आचार्य वसुमित्र एवं भदन्त सुभूतिघोष आदि के ग्रन्थों में यद्यपि यह लिखा हुआ है कि सौत्रान्तिकों को भी बुद्धवचनों की नेयार्थता और नीतार्थता अभीष्ट है, किन्तु कौन सूत्र नीतार्थ हैं और कौन नेयार्थ हैं-इसका स्पष्ट निर्देश नहीं है। परवर्ती आचार्य धर्मकीर्ति एवं शुभगुप्त के ग्रन्थों से प्रतीत होता है कि ये प्रथम धर्मचक्र से सम्बद्ध सूत्रों को नीतार्थ तथा प्रज्ञापारमिता सूत्रों को नेयार्थ मानते हैं, क्योंकि ये प्रज्ञापारमिता सूत्रों को बुद्धवचन मानकर उनका अभिप्राय प्रकट करते हैं। अतः वे सूत्र आभिप्रायिक अर्थात् नेयार्थ हैं।
__ आचार्य धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक में प्रमाणसमुच्चय के दुरूह स्थलों की टीका करते हुए बाह्यार्थवादी दृष्टि से प्रज्ञापारमितासूत्रों का अभिप्राय प्रकट किया है। उन्होंने कहा है कि प्रज्ञापारमितासूत्रों में शून्यता, निःस्वभावता आदि शब्दों का जो कई बार प्रयोग हुआ है, उनका अर्थ शब्दशः नहीं ग्रहण करना चाहिए। भगवान् ने उनका प्रयोग साभिप्राय किया
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है। अतः उनके अभिप्राय का अन्वेषण करना चाहिए। फलतः वे सूत्र आभिप्रायिक अर्थात् नेयार्थ हैं, न कि नीतार्थ।
आचार्य वसुमित्र के अनुसार महायानसूत्रों के सर्वधर्म-निःस्वभावता, शून्यता आदि पदों का अभिप्राय स्वतन्त्र सृष्टिकर्ता (ईश्वर), कर्मकर्ता और फलभोक्ता (आत्मा) का निषेध है तथा सभी धर्मों की क्षणभङ्गता का प्रतिपादन है और अतीत, अनागत धर्मों की द्रव्यसत्ता का निषेध है। निःस्वभावता, शून्यता आदि निषेधावाचक पद खपुष्प के समान अत्यन्ताभाव का प्रकाशन नहीं करते, अपितु अल्पता प्रकट करते हैं। जैसे धन की अल्पता को धन का अभाव कहा जाता है। अथवा ये निषेधवचन कुत्सित अर्थ को प्रकट करते हैं, जैसे कुपुत्र को अपुत्र कहते हैं। क्योंकि सभी संस्कृत धर्मों की सत्ता अत्यल्प क्षणमात्र होती है और असंस्कृत धर्मों की तो सत्ता होती ही नहीं, अतः सभी संस्कृत, असंस्कृत धर्मों को भगवान् ने शून्य कहा है। क्योंकि निर्वाण से अतिरिक्त सभी धर्म रिक्त, तुच्छ एवं निःसार हैं, अतः कुत्सित एवं निरुपादेय होने से भी वे निःस्वभाव या शून्य कहे गये हैं।
_आचार्य धर्मकीर्ति ने अन्य प्रकार से उनका अभिप्राय प्रकट किया है। उनका कहना है कि धर्मों में जो सामान्य-विशेषभाव, कार्यकारणभाव, लक्ष्यलक्षणभाव, आश्रयाश्रयिभाव आदि दिखालाई पड़ते हैं, उन सारे सम्बन्धों की द्रव्यसत्ता या परमार्थसत्ता बिल्कुल नहीं है-इसी बात को ध्यान में रखकर भगवान् ने प्रज्ञापारमितासूत्रों में सभी धर्मों को निःस्वभाव या शून्य कहा है, जैसे प्रमाणवार्तिक में उन्होंने कहा है :
व्यापारोपाधिकं सर्वं स्कन्धादीनां विशेषतः। लक्षणं स च तत्त्वं न तेनाप्येते विलक्षणाः॥
(प्रमाणवार्तिक २ : २१६) धर्मकीर्ति के बाद जो सौत्रान्तिक आचार्य हुए, उन सभी ने इन्हीं युक्तियों का अनुसरण किया है। मध्यमकालंकार और उसकी पंजिका में सौत्रान्तिकों के बारे में यही लिखा है कि वे बुद्धवचनों की नेयार्थता और नीतार्थता का विभाजन करते हैं। ऐसा कहकर
वहाँ सौत्रान्तिक आचार्य शुभगुप्त के मतों का खण्डन भी किया गया है। __संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि नागार्जुन से पूर्ववर्ती सौत्रान्तिक सभी बुद्धवचनों को नीतार्थ ही मानते थे। भद्रचर्या-प्रणिधानसूत्र, षडायतन आदि सूत्र ही उनके आधारभूत प्रमुख सूत्र थे। महायानसूत्रों को वे बुद्धवचन मानने के पक्ष में नहीं थे। परवर्ती सौत्रान्तिक अन्य निकायवादियों के समान बुद्धवचनों की नेयनीतार्थता पर विचार करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। इस प्रक्रिया में उनकी प्रमुख युक्तियाँ क्या थीं, इसका उल्लेख उपलब्ध नहीं है। आचार्य शुभगुप्त, धर्मकीर्ति आदि की युक्तियाँ ही प्रधान प्रतीत होती हैं। इतना होने पर भी ऐसा लगता है कि नेयार्थ-नीतार्थ विषयक चर्चा का सौत्रान्तिक मत में उतना महत्त्व नहीं है, जितना योगाचार और माध्यमिक मतों में है।
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बौद्धदर्शन निष्कर्ष- सौत्रान्तिक निकाय का अस्तित्व तो तृतीय संगीति के अवसर पर सम्राट अशोक के काल में विद्यमान था, किन्तु दार्शनिक प्रस्थान के रूप में उसका विकास सम्भवतः ईसा पूर्व प्रथम शतक में सम्पन्न हुआ।
निकाय के साथ सौत्रान्तिक शब्द का प्रयोग तो सम्भवतः तब प्रारम्भ हुआ, जब अन्य निकायों और मान्यताओं के बीच विभाजन-रेखा अधिक सुस्पष्ट हुई। सात अभिधर्म ग्रन्थों का संग्रह परवर्ती है, इसलिए बुद्धवचनों के रूप में सौत्रान्तिकों ने उन्हें मान्यता प्रदान नहीं की। सूत्रपिटक और विनयपिटक को प्रामाणिक बुद्धवचन मानकर सौत्रान्तिकों ने अपने सिद्धान्तों की अन्य निकायों से अलग स्थापना की। तभी से सौत्रान्तिक निकाय की परम्परा प्रारम्भ हुई। ऐसा लगता है कि अन्य लोगों ने जब बुद्धवचनों का अभिधर्मपिटक के रूप में संग्रह किया और उन्हें बुद्धवचन के रूप में माना, तब प्रारम्भ में सौत्रान्तिकों ने विरोध किया होगा, किन्तु अन्य निकाय वालों ने उनका विरोध मानने से इन्कार कर दिया होगा, तब विवश होकर उन्होंने पृथक् निकाय की स्थापना की। यह घटना द्वितीय बुद्धाब्द में घटनी चाहिए। महाराज अशोक के काल में सभी निकायों के त्रिपिटक अस्तित्व में आ गये थे। इसीलिए अशोक के समय कथावत्थु नामक ग्रन्थ में अन्य मतों को समालोचना सम्भव हो सकी। इसलिए यह निश्चित होता है कि अभिधर्म का बुद्धवचन सम्बन्धी विवाद एवं सौत्रान्तिक निकाय का गठन उससे पूर्ववर्ती है। यही विवाद अन्ततोगत्वा अन्य निकायों से सौत्रान्तिक निकाय के पृथक् होने के रूप में परिणत हुआ। यही सौत्रान्तिक निकाय के उद्गम का हेतु और काल है।
. निकाय के लिए सौत्रान्तिक नाम अत्यन्त सार्थक है। श्रवण मात्र से उनके विचारों
और सिद्धान्तों का स्थूल अवबोध हो जाता है। समय-समय पर उनके लिए अन्य नाम भी प्रयुक्त हुए, जैसे कभी हेतुवादी, कभी उत्तरापथिक आदि। दार्टान्तिक भी एक अत्यधिक प्रचलित उनका नाम है। यशोमित्र ने सौत्रान्तिकों के लिए ‘दान्तिक-विशेष’ शब्द का प्रयोग किया है। इसका यह मतलब नहीं है कि दार्टान्तिक नाम का सौत्रान्तिकों में कोई सम्प्रदाय था, अपितु ऐसा कहने के पीछे यशोमित्र का अभिप्राय यह था कि यह मत कुछ विशिष्ट सौत्रान्तिक आचार्यों का है। क्योंकि ये लोग बुद्धवचनों का अभिप्राय जनता के बीच दृष्टान्त के माध्यम से स्पष्ट करते थे, अतः इस विशेषता के कारण उनका नाम ‘दार्टान्तिक’ पड़ा। यह उचित भी था, क्योंकि भगवान् बुद्ध ने भी अधिकतर दृष्टान्तों के द्वारा ही अपना अभिमत प्रकाशित किया था। इस विधि से बड़ी आसानी से लोग तत्त्व का अवबोध कर लेते हैं। भगवान् बुद्ध की इसी शैली का सौत्रान्तिकों ने अनुकरन किया। यही शैली आगे चलकर बौद्ध न्याय शास्त्र के विकास को आधार बनी। बौद्ध न्यायशास्त्र के विकास में सौत्रान्तिकों का योगदान विद्वानों से छिपा नहीं है। दार्शनिक प्रस्थान के रूप में उसका विकास चतुर्थ या पंचम बुद्धाब्द में सम्पन्न हुआ।
सौत्रान्तिक दर्शन
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सारांश- भगवान् बुद्ध का आविर्भाव ऐसी परिस्थिति में हुआ था, जब मानवीय मूल्य गिर गये थे और सांस्कृतिक दृष्टि से समाज संकटापन्न अवस्था में था। बुद्धत्व-प्राप्ति के बाद ४५ वर्षों तक उन्होंने गाँव-गाँव और नगर-नगर में चारिका करके अनाथ, अनाश्वस्त और दुःखी जनों को अपने उपदेश रूपी अमृत से तृप्त एवं आश्वस्त किया। ८० वर्ष की आयु में जगत् के एक मात्र शरण और जगत् के एकमात्र हितैषी बुद्ध ने परिनिर्वाण प्राप्त कर लिया। उनके अनुयायियों ने अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार उनके उपदेशों का संग्रह किया, संरक्षण किया और देश-विदेश में उनके विचारों का प्रचार-प्रसार किया। मानव-कल्याण का जो लक्ष्य बुद्ध के सम्मुख था, उसकी पूर्ति वे शताब्दियों तक करते रहे
और आज भी अपनी शक्तिभर सम्पन्न कर रहे हैं। उनके अनुयायियों में बड़े-बड़े विद्वान्, साधक और अर्हत् हुए, जिन्हें सूत्रधर, विनयधर, धर्मधर और मातृकाधर कहते थे। कालक्रम में उनके अनुयायियों की वह परम्परा अनेक निकायों में विभक्त हो गई। उसी क्रम में सूत्रधरों की परम्परा पहले सौत्रान्तिक निकाय के रूप में और आगे चलकर सौत्रान्तिक दर्शनप्रस्थान के रूप में विकसित हुई।
सौत्रान्तिक आचार्य और उनकी कृतियाँ
_ सभी बौद्ध दार्शनिक प्रस्थान बुद्धवचनों को ही अपने-अपने प्रस्थान के आरम्भ का मूल मानते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि विश्व के चिन्तन क्षेत्र में बुद्ध के विचारों का अपूर्व और मौलिक योगदान है। बुद्ध की परम्परा के पोषक, उन-उन दर्शन-सम्प्रदायों के प्रवर्तक आचार्यों और परवर्ती उनके अनुयायियों का महत्त्व भी विद्वानों से छिपा नहीं है। यहाँ हम सौत्रान्तिक दर्शन के प्रवर्तक और प्रमुख आचार्यों का परिचय प्रस्तुत हैं।
बुद्ध ने अपने अनुयायियों को जो विचारों की स्वतन्त्रता प्रदान की, स्वानुभव की प्रामाणिकता पर बल दिया और किसी भी शास्ता, शास्त्रों के वचनों को विना परीक्षा किये ग्रहण न करने का जो उपदेश दिया, उसकी वजह से उनका शासन उनके निर्वाण के कुछ ही वर्षों के भीतर अनेक धाराओं में विकसित हो गया। अनेक प्रकार की हीनयानी और महायानी संगीतियों का आयोजन इसका प्रमाण है। दो सौ वर्षों के भीतर १८ निकाय विकसित हो गये। इस क्रम में यद्यपि सूत्रवादियों का मत प्रभावशाली और व्यापक रहा है, फिर भी जब उन्होंने देखा कि दूसरे नैकायिकों के मत बुद्ध के साक्षात् उपदेशों से दूर होते जा रहे हैं तो उन्होंने शास्त्रप्रामाण्य का निराकरण करते हुए बुद्ध के द्वारा साक्षात् उपदिष्ट सूत्रों के आधार पर स्वतन्त्र निकाय के रूप में अपने मत की स्थापना की। इस प्रकार उन्होंने सूत्रों में अनेक प्रकार के प्रक्षेपों से बुद्धवचनों की रक्षा की और लोगों का ध्यान मूल बुद्धवचनों की ओर आकृष्ट किया। प्रथम और तृतीय संगीतियों के मध्यवर्ती काल में रचित धम्मसंगणि, कथावत्थु, ज्ञानप्रस्थान आदि ग्रन्थों की बुद्धवचन के रूप में प्रामाणिकता
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बौद्धदर्शन
का उन्होंने जम कर खण्डन किया। उन्होंने कहा कि ये ग्रन्थ आचार्यों द्वारा रचित शास्त्र हैं, न कि बुद्धवचन। जबकि सर्वास्तिवादी और स्थविरवादी उन्हें बुद्धवचन मानने के पक्ष में थे।
के आचार्य परम्परा-सामान्य रूप से आचार्य कुमारलात सौत्रान्तिक दर्शन के प्रवर्तक माने जाते हैं। तिब्बती और चीनी स्रोतों से भी इसकी पुष्टि होती है। किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर प्रतीत होता है कि कुमारलात से पहले भी अनेक सौत्रान्तिक आचार्य हुए हैं। आचार्य कुमारलात कश्मीर के निवासी थे। ये नागार्जुन, आर्यदेव आदि के समकालीन थे। यह ज्ञात ही है कि सौत्रान्तिक मत अशोक के काल में पूर्णरूप से विद्यमान था। वसुमित्र आदि आचर्यों ने यद्यपि सौत्रान्तिक, धर्मोत्तरीय, संक्रान्तिवाद आदि का उद्भवकाल बुद्ध की तीसरी-चौथी शताब्दी माना था, किन्तु गणनापद्धति कैसी थी, यह सोचने की बात है। पालिपरम्परा और सर्वास्तिवादियों के क्षुद्रकवर्ग से ज्ञात होता है कि धर्माशोक के समय सभी १८ निकाय विद्यमान थे। उन्होंने तृतीय संगीति में प्रविष्ट अन्य मतावलम्बियों का निष्कासन सबसे पहले किया, उसके बाद संगीति आरम्भ हुई। महान् अशोक सभी १८ बौद्ध निकायों के प्रति समान श्रद्धा रखता था और उनका दान-दक्षिणा आदि से सत्कार करता था। इस विवरण से यह सिद्ध होता है कि अशोक के समय सौत्रान्तिक मत सुपुष्ट था और आचार्य कुमारलात निश्चय ही अशोक से परवर्ती हैं, इसलिए अनेक आचार्य निश्चय ही कुमारलात से पहले हुए होंगे, अतः कुमारलात को ही सर्वप्रथम प्रवर्तक आचार्य मानना सन्देह से परे नहीं है। इसमें कहीं कुछ विसंगति प्रतीत होती है।
किसा 3 सौत्रान्तिकों में दो परम्पराएं मानी जाती हैं-आगमानुयायी और युक्ति-अनुयायी। आगमानुयायियों की भी दो शाखाओं का उल्लेख आचार्य भव्य के प्रज्ञाप्रदीप के भाष्यकार अवलोकितेश्वर ने अपने ग्रन्थों में किया है, यथा-क्षणभङ्गवादी और द्रव्यस्थिरवादी। किन्तु इस द्रव्यस्थिरवाद के नाममात्र को छोड़कर उनके सिद्धान्त आदि का उल्लेख वहाँ नहीं है। इस शाखा के आचार्यों का भी कहीं उल्लेख नहीं मिलता। संक्रान्तिवादी निकाय का काल ही इसका उद्भव काल है।
शा ऐसा संकेत मिलता है कि बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद तीन चार सौ वर्षों तक निकाय के साथ आचार्यों के नामों के संयोजन की प्रथा प्रचलित नहीं थी। संघनायक ही प्रमुख आचार्य हुआ करता था। संघशासन ही प्रचलित था। आज भी स्थविरवादी और सर्वास्तिवादी परम्परा में संघ प्रमुख की प्रधानता दिखलाई पड़ती है। ऐसा ही अन्य निकायों में भी रहा होगा। सौत्रान्तिकों में भी यही परम्परा रही होगी, ऐसा अनुमान किया जा सकता है। म सौत्रान्तिक प्रायशः सर्वास्तिवादी मण्डल में परिगणित होते हैं, क्योंकि वे उन्हीं से निकले हैं। सर्वास्तिवादियों के आचार्यों की परम्परा शास्त्रों में उपलब्ध होती है। और भी अनेक आचार्य सूचियाँ उपलब्ध होती हैं। उनमें मतभेद और विसंगतियाँ भी हैं, किन्तु इतना
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३६६ निश्चित है कि बुद्ध से लेकर अश्वघोष या नागार्जुन तक के आचार्य पूरे बौद्ध शासन के प्रति निष्ठावान् हुआ करते थे।