०५ वैभाषिक दर्शन (सर्वास्तिवाद)

इनका बहुत कुछ साहित्य नष्ट हो गया है। इनका त्रिपिटक संस्कृत में था। इनके अभिधर्म में प्रमुख रूप में सात ग्रन्थ हैं, जो प्रायः मूल रूप में अनुपलब्ध हैं या आंशिक रूप में उपलब्ध हैं। चीनी भाषा में इनका और इनकी विभाषा टीका का अनुवाद उपलब्ध है। वे सात ग्रन्थ इस प्रकार हैं-ज्ञानप्रस्थान, प्रकरणपाद, विज्ञानकाय, धर्मस्कन्ध, प्रज्ञप्तिशास्त्र, धातुकाय एवं संगीतिपर्याय। वैभाषिक और सर्वास्तिवादी दोनों अभिधर्म को बुद्धवचन मानते हैं।
विभाषा को प्रमाण मानने वाले वैभाषिकों के अलावा भी अन्य प्रकार के सर्वास्तिवादी विद्यमान थे। वैभाषिकों का एक प्रमुख केन्द्र कश्मीर था, अतः इनको ‘कश्मीर-वैभाषिक’ कहते हैं। कश्मीर के बाहर के जो सर्वास्तिवादी थे वे ‘बहिर्देशक’, कश्मीर से पश्चिम के सर्वास्तिवादी ‘पाश्चात्त्य’ एवं ‘अपरान्तक’ कहलाते थे। अभिधर्मकोश में अभिधार्मिकों के मत का भी उल्लेख है, जो सर्वास्तिवादी हैं, किन्तु विभाषा को प्रमाण नहीं मानते।
सर्वास्तिवादी मत के प्रतिपादक अभिधर्मकोश, अभिधर्मदीप एवं अभिधर्मामृत आदि ग्रन्थ उपलब्ध हैं, किन्तु उनमें अभिधर्मकोश ही सबसे अधिक प्रामाणिक, विस्तृत एवं पूर्णरूप में उपलब्ध है। इसके रचयिता आचार्य वसुबन्धु हैं। इन्होंने इस ग्रन्थ में कश्मीर वैभाषिक मतानुसार अभिधर्म का व्याख्यान किया है। वैभाषिक ग्रन्थ की रचना करने पर भी परम्परानुसार वसुबन्धु को वैभाषिक नहीं माना जाता, अपितु उन्हें सौत्रान्तिक माना जाता है। ग्रन्थ में भी यत्र-तत्र उनका झुकाव सौत्रान्तिक मत की ओर अभिलक्षित होता है। वे अभिधर्म के स्थान पर सूत्र को ही प्रमाण मानते हैं। अभिधर्मकोश बड़े महत्त्व का ग्रन्थ है। बौद्ध संसार पर इसका बड़ा प्रभाव पड़ा है। इसकी अनेक व्याख्याएं है। चीनी और तिब्बती भाषा में भी इसका अनुवाद उपलब्ध है।
सौत्रान्तिक पक्षपाती होने के कारण इन्होंने अपने ग्रन्थ में जगह-जगह वैभाषिक मत की आलोचना की है। अतः संघभद्र ने अपने ‘न्यायानुसार’ नामक ग्रन्थ में इसका खण्डन किया और वैभाषिक मत की प्रस्थापना की है। न्यायानुसार ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है।

परिभाषा

सर्वास्तिवाद शब्द में ‘सर्व’ का अर्थ तीनों काल तथा ‘अस्ति’ का अर्थ द्रव्यसत्ता है। अर्थात् जो निकाय तीनों कालों में धर्मों की द्रव्यसत्ता करते हैं, वे सर्वास्तिवादी हैं (तदस्तिवादात् सर्वास्तिवादा इष्टाः-अभिधर्मकोशभाष्य)। परमार्थ के अनुसार जो अतीत, वैभाषिक दर्शन ३४१ अनागत, प्रत्युत्पन्न, आकाश, प्रतिसंख्यानिरोध और अप्रतिसंख्यानिरोध-इन सबका अस्तित्व स्वीकार करते हैं, वे सर्वास्तिवादी हैं। वसुबन्धु कहते हैं कि जो प्रत्युत्पन्न और अतीत कर्म के उस प्रदेश (हिस्से) को, जिसने अभी फल नहीं दिया है, उसे सत् मानते हैं तथा अनागत और अतीत कर्म के उस प्रदेश (हिस्से) को, जिसने फल प्रदान कर दिया है, उसे असत् मानते हैं, वे विभज्यवादी हैं, न कि सर्वास्तिवादी। उनके मतानुसार जिनका वाद यह है कि अतीत, अनागत, प्रत्युत्पन्न सबका अस्तित्व है, वे सर्वास्तिवादी हैं। सर्वास्तिवादी आगम और युक्ति के आधार पर तीनों कालों की सत्ता सिद्ध करते हैं। उनका कहना है कि सूत्र में भगवान् ने अतीत, अनागत और प्रत्युत्पन्न तीनों कालों में होनेवाले रूप आदि स्कन्धों की देशना की है (रुपमनित्यमतीतमनागतम्, इत्यादि)। युक्ति प्रस्तुत करते हुए वे कहते है कि अतीत, अनागत की सत्ता न होगी तो योगी में अतीत, अनागत विषयक ज्ञान ही उत्पन्न न हो सकेगा, जबकि ऐसा ज्ञान होता है तथा यदि अतीत नहीं है तो अतीत कर्म अनागत में कैसे फल दे सकेगा ? अर्थात् नहीं दे सकेगा। अतः इन और अन्य अनेक युक्तियों के आधार पर सिद्ध होता है कि अतीत, अनागत की सत्ता है। कारण ।

सर्वास्तिवादियों के नयभेद

को इस निकाय के चार नयभेद प्रसिद्ध हैं, यथा- भावान्यथिक, लक्षणान्यथिक, अवस्थान्यथिक एवं अन्यथान्यथिक। (१) भदन्त धर्मत्रात भावान्यथात्ववादी हैं। इनके मतानुसार तीनों कालों में गमन करनेवाले धर्मों के भाव में अन्यथात्व होता है, द्रव्य में नहीं। जैसे सोने (स्वर्ण) को गलाकर दूसरा आभूषण बनाने पर केवल संस्थान (आकार) में परिवर्तन (अन्यथात्व) होता है, वर्ण में नहीं तथा जैसे दूध का दही के रूप में परिणाम होने पर केवल दूध के रस, वीर्य एवं विपाक में परिवर्तन होता है, वर्ण में नहीं। इसी तरह धर्म जब अनागत से वर्तमान में आते हैं, तब अनागत भाव का त्याग करते हैं, द्रव्य भाव का नहीं। इसी तरह प्रत्युत्पन्न से अतीत में गमन करते समय भी प्रत्युत्पन्न भाव का त्याग करते हैं, द्रव्यभाव का नहीं। द्रव्य अनन्य (अभिन्न) ही रहता है। साथ (२) भदन्त घोषक लक्षणान्यथात्ववादी हैं। इनके मतानुसार धर्म जब कालों (अध्वों) में प्रवृत्त होता है, तब अतीत धर्म यद्यपि अतीत लक्षण से युक्त होता है, फिर भी अनागत और प्रत्युत्पन्न लक्षणों से वह अवियुक्त रहता है। अनागत धर्म अनागत लक्षण से युक्त होता है, किन्तु अतीत और प्रत्युत्पन्न लक्षणों से वियुक्त नहीं होता। इसी तरह वर्तमान भी अतीत, अनागत लक्षणों से अवियुक्त रहता है। जैसे एक पुरुष किसी एक स्त्री में अनुरक्त रहने पर भी अन्य स्त्रियों में अविरक्त रहता है। (३) भदन्त वसुमित्र अवस्थान्यथात्ववादी हैं। कालों (तीनों अध्वों) में प्रवृत्त हो रहे धर्महै ३४२ बौद्धदर्शन -भिन्न-भिन्न अवस्था को प्राप्त कर भिन्न-भिन्न निर्दिष्ट होते हैं उनके द्रव्यत्व में भेद नहीं होता। अर्थात् अवस्था के अन्यथात्व से अध्वभेद होता है, न कि द्रव्य के अन्यथात्व से। जैसे एक अंक में निक्षिप्त गुलिका (गोली) एक कही जाती है, दश अंक में, सौ अंक में, सहस्र अंक में निक्षिप्त गुलिका दश, शत या सहस्र कहलाती है। (४) भदन्त बुद्धदेव अन्यथान्यथात्ववादी हैं। इनके मतानुसार अध्वों में प्रवर्तमान धर्म पूर्व, पर की अपेक्षा से अन्य निर्दिष्ट होते हैं, द्रव्यान्तर की वजह से नहीं। अर्थात् धर्म अपेक्षावश संज्ञान्तर (अन्य नाम) ग्रहण करते हैं, द्रव्यान्तर नहीं होता। जैसे एक ही _ स्त्री अपने पिता की अपेक्षा से पुत्री है और पुत्रों की अपेक्षा से माता भी है।
वसुबन्धु के अनुसार प्रथम पक्ष एक प्रकार का परिणामवाद ही है, अतः उसे सांख्यमत में निक्षिप्त करके जैसे सांख्यों का खण्डन किया जाता है, वैसे ही खण्डन करना चाहिए। दूसरे पक्ष में कालमिश्रण (अध्वसङ्कर) होता है, क्योंकि तीनों लक्षणों का योग होता है। एक पुरुष में किसी स्त्री के प्रति राग का समुदाचार होता है और अन्य स्त्रियों में केवल राग की प्राप्ति होती है-इसमें साम्य क्या है ? चतुर्थ पक्ष में भी तीनों अध्व (काल) एक ही अध्व में प्राप्त होते है। एक ही अतीत अध्व में पूर्व, अपर क्षण की व्यवस्था है, यथा पूर्व क्षण अतीत है, पश्चिम अनागत है, मध्यम क्षण प्रत्युत्पन्न है। इन सब में तृतीय अवस्थान्यथिक पक्ष, जो भदन्त वसुमित्र का है, वही शोभन या उत्तम है, जिसके अनुसार कारित्र की वजह से अध्व की व्यवस्था की जाती है। जो धर्म अपना कारित्र नहीं करता, वह अनागत है। जब वह अपना कारित्र करता है, तब वह प्रत्युत्पन्न है। जब कारित्र से उपरत हो जाता है, तब वह अतीत है। नका

धर्मप्रविचय

वैभाषिकों के मतानुसार धर्म वे हैं, जो स्वलक्षण धारण करते हैं। धर्म पुष्पों के समान बिखरे हुए हैं, उनका वर्गीकरण किया जाता है, विभाग किया जाता है। यह प्रक्रिया ‘धर्मप्रविचय’ कहलाती हैं। धर्मप्रविचय काल में प्रज्ञा यह कार्य सम्पन्न करती है, अतः प्रज्ञा ही ‘धर्मप्रविचय’ है। यही परम ज्ञान है और इसी से निःश्रेयस की प्राप्ति होती है। जैसे वैशेषिक दर्शन में तत्त्वज्ञान से निःश्रेयस की सिद्धि मानी जाती है और पदार्थों के साधर्म्य, वैधर्म्य ज्ञान से तत्त्वज्ञान उत्पन्न होता है। तदनन्तर निदिध्यासन से आत्मसाक्षात्कार और मिथ्याज्ञान आदि के नाश से मोक्ष माना जाता है। उसी प्रकार अभिधर्म के द्वारा स्वलक्षण, सामान्यलक्षण का परिज्ञान होता है। धर्मप्रविचय के अलावा क्लेशों के उपशम का अन्य उपाय नहीं है और क्लेशों की वजह से जीव दुःखमय संसार में निरन्तर भ्रमण करते हैं, अतः धर्मप्रविचय अर्थात् लौकिक, लोकोत्तर प्रज्ञा के उत्पाद के लिए भगवान् बुद्ध ने वैभाषिक दर्शन ३४३ करुणापूर्वक अभिधर्म की देशना की है, जिससे धर्मप्रविचय करके विनेय जन अपने क्लेशों का प्रहाण कर निर्वाण प्राप्त कर सकें। वैभाषिक धर्मों का अनेक प्रकार से विभाजन करते हैं, क्योंकि इसके द्वारा ही धर्मों (पदार्थों) का यथार्थ ज्ञान सम्भव होता है। इसीलिए वे विभज्यवादी भी कहलाते हैं। पदार्थों के विभाजन के उनके अन्य प्रकार निम्नलिखित हैं :

सास्रव-अनास्रव

आर्य मार्ग नानक धर्म भी संस्कृत हैं, किन्तु उन्हें छोड़कर अवशिष्ट सभी संस्कृत सास्रव हैं। वे सास्रव इसलिए हैं, क्योंकि आस्रव उन पर प्रतिष्ठित (स्थित) होकर पुष्टि-लाभ करते हैं। आस्रव ‘मलों’ को कहते हैं। अनुशय ‘आस्रव’ हैं। चित्तसन्तति में ये इतने सूक्ष्म रूप से अनुशयन करते हैं कि उनका ज्ञान ही नहीं हो पाता, इसलिए वे ‘अनुशयन’ कहलाते हैं। छह आयतन रूपी व्रणों से जो भवाग्र से लेकर अवीचि पर्यन्त क्षरित होते हैं, वे ‘आस्रव’ हैं। मार्गसत्य और तीन असंस्कृत धर्म ‘अनास्रव’ हैं, क्योंकि उनका आस्रव धर्मों से किसी तरह का सम्पर्क नहीं होता।

संस्कृत-असंस्कृत

जो हेतु और प्रत्ययों की अपेक्षा से, उनके परस्पर समागम से उत्पन्न होते हैं, वे ‘संस्कृत’ धर्म कहलाते हैं। कोई भी धर्म ऐसा नहीं है, जो एक हेतु या एक प्रत्यय से उत्पन्न होता हो। इन्हें ‘अध्व’ भी कहते हैं, क्योंकि संस्कृत धर्म ही अतीत, अनागत और प्रत्युत्पन्न काल है। वे ‘कथावस्तु’ भी हैं, क्योंकि संस्कृत धर्म ही कथा (पद, वाक्य आदि) के विषय होते हैं। संस्कृत धर्मों से निःसरण आवश्यक है, अतः वे ‘सनिःसार’ हैं तथा सहेतुक होने से वे ‘सवस्तुक’ भी कहलाते हैं।
पाँचों स्कन्ध संस्कृत होते हैं। रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान पाँच स्कन्ध हैं। जब ये सास्रव होते हैं, तो ‘उपादान स्कन्ध’ कहलाते हैं। ये पाँचों उपादान स्कन्ध ‘दुःख’, ‘समुदय’, ‘लोक’, ‘दृष्टिस्थान’ और ‘भव’ भी कहलाते हैं।

विस्तार

। चक्षुष, श्रोत्र, घ्राण, जिहा एवं काय ये पाँच इन्द्रियाँ, रूप, शब्द, गन्ध, रस एवं स्प्रष्टव्य ये पाँच विषय तथा अविज्ञप्ति = ये ११ धर्म ही ‘रूप-स्कन्ध’ है। सुख, दुःख और उपेक्षा ये वेदनाएं ‘वेदनास्कन्ध’, जिसके द्वारा नील, पीत, दीर्घ, ह्रस्व, स्त्री, पुरुष, शत्रु, मित्र, सुख, दुःख आदि संज्ञाएं गृहीत होती हैं, वह ‘संज्ञास्कन्ध’ कहलाता है। रूप, शब्द आदि विषयों का ग्रहण जिसके द्वारा होता है, वह विज्ञान स्कन्ध’ है तथा इन चारों स्कन्धों से अवशिष्ट सभी धर्म ‘संस्कार स्कन्ध’ में संगृहीत होते हैं। ‘स्कन्ध’ का अर्थ राशि है। इसमें अतीत, अनागत, प्रत्युत्पन्न सभी संगृहीत होते हैं।
३४४ बौद्धदर्शन

अविज्ञप्ति

जो धर्म काय और वाग् विज्ञप्ति के समान दूसरों को विज्ञापित नहीं करता, फिर भी विद्यमान होता है, वह ‘अविज्ञप्ति’ है। प्रश्न है कि जिस भिक्षु ने प्राणातिपात आदि अकुशलों से विरत रहने की प्रतिज्ञा ली है, किन्तु वह गहरी नींद में सो गया है, अथवा वह असंज्ञिसमापत्ति या निरोधसमापत्ति में लीन हो गया है, जहाँ कोई भी चित्त-चेतसिक नहीं है, ऐसी स्थिति में वह भिक्षु रहेगा या नहीं ? अथवा जिस पुरुष ने प्राणातिपात आदि की आज्ञा दी है और उसके बाद वह विक्षिप्त हो गया है अर्थात् उसका चित्त अन्य विषय में संसक्त हो गया है, प्रश्न है कि उसकी आज्ञानुसार प्राणातिपात हो जाने पर वह उस अवद्य (पाप) से युक्त होगा या नहीं ? इन सब प्रश्नों के समाधान हेतु वैभाषिक एक अविज्ञप्ति नामक धर्म स्वीकार करते हैं। विज्ञापित करने के अनन्तर विज्ञप्ति तो नष्ट हो जाती है, किन्तु उससे उत्पन्न एक अविज्ञप्ति धर्म विद्यमान रहता है, जिसकी वज़ह से भिक्षु भाव नष्ट नहीं होता और आज्ञा देनेवाला व्यक्ति पाप से युक्त होता है। संक्षेप में जिसका चित्त विक्षिप्त हो गया है अथवा जो अचित्तक है, उसका महाभूतहेतुक कुशल-अकुशल प्रवाह ‘अविज्ञप्ति’ है। वैभाषिक इसे रूपस्कन्ध के अन्तर्गत परिगणित करते हैं। अपराध और दण्ड की सामाजिक और नैतिक व्यवस्था के लिए वैभाषिक इसे मानना जरूरी समझते हैं।

असंस्कृत

जो धर्म हेतु-प्रत्यय से समुत्पन्न नहीं होते, ऐसे विद्यमान धर्म ‘असंस्कृत’ कहलाते हैं। आकाश, प्रतिसंख्यानिरोध और अप्रतिसंख्यानिरोध ये तीन असंस्कृत हैं। ये संस्कृत धर्मों के समान भावरूप नहीं हैं, फिर भी विद्यमान होते हैं। उत्पन्न न होने के कारण यद्यपि खर विषाण भी असंस्कृत है, किन्तु वह असंस्कृत धर्म नहीं है।
(क) आकाश- जो धर्म आवरण या प्रतिघात नहीं करता और जो स्वयं भी आवृत नहीं होता, वह ‘आकाश’ है। यह रूपी धर्मों के गमनागमन में अबाधक (अप्रतिघ) धर्म है। वैभाषिकों के अनुसार यह एक प्रकार का द्रव्य है। यह रूपाभाव मात्र है। आकाश और आकाशधातु में फर्क है। छिद्र ‘आकाशधातु’ है। द्वार, खिड़की आदि के छिद्र बाह्य आकाशधातु तथा मुख, नाक आदि के छिद्र आध्यात्मिक आकाशधातु हैं। वैभाषिक मतानुसार छिद्र नामक आकाशधातु आलोक और तमस् है अर्थात् वर्ण का, रूप का ए प्रकार है। छिद्र की उपलब्धि आलोक और तमस् से पृथक् नहीं है।
(ख) प्रतिसंख्यानिरोध- चार आर्य सत्यों का आलम्बन करनेवाली, क्लेशों की प्रतिपक्षभूत अनास्रव प्रज्ञा द्वारा जिन क्लेशों को प्रहाण किया जाता है, वह प्रहाण ‘प्रतिसंख्यानिरोध’ है। सभी क्लेशों का एक ही निरोध नहीं होता, अपितु जितने क्लेश होते हैं, उतने ही पृथक्-पृथक् निरोध होते हैं। अन्यथा जिस व्यक्ति ने दुःख दर्शनहेय क्लेशों का वैभाषिक दर्शन ३४५ प्रहाण कर लिया है, उसके लिए शेष क्लेशों के प्रहाणार्थ प्रतिपक्षभूत मार्ग की भावना व्यर्थ होगी। वैभाषिकों के अनुसार इस निरोध (सत्य) की ‘प्राप्ति’ प्रहाण से एक क्षण पूर्व ही हो जाती है। FPा (ग) अप्रतिसंख्यानिरोध- यह वह निरोध है जो अनुत्पन्न क्लेशों को उत्पन्न नहीं होने देता। जैसै दर्शनमार्ग द्वारा जिन क्लेशों का प्रहाण कर दिया गया है वे तो कभी उत्पन्न नहीं होंगे, किन्तु भावनाहेय क्लेश, जिनका प्रहाण अभी नहीं हुआ है, वे उत्पन्न हो सकते हैं, किन्तु यह निरोध मार्गक्षण में उन क्लेशों को उत्पन्न नहीं होने देता। प्रत्ययों की रहितता से उत्पाद का अत्यन्त विघ्नभूत धर्म ‘अप्रतिसंख्यानिरोध’ है।
रूपी एवं चित्त-चैतसिक धर्मों की प्रवृत्ति की दृष्टि से तीन असंस्कृत धर्मों की व्यवस्था की गई है। रूपी धर्म सप्रतिघ होते हैं। अर्थात् अपने से व्याप्त देश में अन्य रूपी धर्मों को आने नहीं देते हैं। उनके आगमन में प्रतिघात (बाधा) करते है, इसलिए सप्रतिघ कहलाते हैं। किन्तु रूपी धर्म इधर-उधर प्रवृत्त होते हैं। अतः रूपी धर्मों की प्रवृत्ति के लिए ‘आकाश’ नामक असंस्कृत धर्म माना गया है।
___ जब कुशल चित्त उत्पन्न होता है, उस समय वह अकुशल चित्त को प्रवृत्त नहीं होने देता। उसका यह प्रवृत्त न होने देना दो दृष्टियों से होता है। एक तो उस अकुशल का प्रहाण कर देना तथा दूसरा प्रहाण न करने पर भी उसे उत्पन्न न होने देना। इन दो दृष्टियों से दो निरोध की व्यवस्था की गई है।

नित्य-अनित्य

अनित्य- प्रथम क्षण में उत्पन्न, द्वितीय क्षण में स्थित एवं तृतीय क्षण में विनष्ट होने वाले धर्म ‘अनित्य’ कहलाते हैं। वस्तु की अनित्यता प्रथम या द्वितीय क्षण में नहीं होती, अपितु उसके विनाश क्षण में अर्थात् तृतीय क्षण में उत्पन्न होती है। अपि च, वह अनित्यता (नाश या ध्वंस) उस वस्तु के उत्पादक हेतुओं से उत्पन्न नहीं होती, अपितु उसके उत्पादक हेतु उनसे भिन्न होते हैं। जैसे घट के विनाशक हेतु घट के उत्पादक मिट्टी आदि हेतु न होकर दण्ड, मुद्गर आदि होते हैं। इस तरह वैभाषिक मत में विनाश सहेतुक होता है, अहेतुक नहीं, जैसे सौत्रान्तिक आदि अन्य बौद्ध अहेतुक विनाश मानते हैं। जो हेतु-प्रत्ययों से उत्पन्न नहीं होते, वे असंस्कृत धर्म ‘नित्य’ भी होते हैं।
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स्कन्ध-आयतन-धातु

स्कन्ध का अर्थ ‘राशि’ (ढेर) होता है, जैसे- तण्डुलराशि, मुद्ग-राशि आदि। स्कन्ध पाँच होते हैं, यथा- रूपस्कन्ध, वेदनास्कन्ध, संज्ञास्कन्ध, संस्कारस्कन्ध एवं विज्ञानस्कन्ध। रूपस्कन्ध में अतीत, अनागत, वर्तमान, हीन, मध्यम, उत्तम, दूरस्थ, निकटस्थ सभी रूपों का ग्रहण होता है। इसी तरह अन्य वेदना आदि स्कन्धों को भी जानना चाहिए।
३४६ बौद्धदर्शन आयतन- चित्त-चैतसिक की प्रवृत्ति के द्वार ‘आयतन’ कहलाते हैं। ये १२ होते हैं। इनमें छह आध्यात्मिक एवं छह बाह्य आयतन होते हैं।
बाह्य-आयतन आध्यात्मिक आयतन रूपायतन (७) चक्षुरायतन शब्दायतन में कहा गड (८) श्रोत्रायतन गन्धायतन घ्राणायतन रसायतन जिहायतन स्पष्टव्यायतन (११) कायायतन धर्मायतन (१२) मन-आयतन पाँच बाह्यायतन ‘विषय’ एवं पाँच आध्यात्मिक आयतन इन्द्रिय हैं। स्कन्ध की दृष्टि से इन विषय-आयतन और इन्द्रिय आयतनों अर्थात् १० आयतनों का संग्रह रूप स्कन्ध में होता है। विज्ञानस्कन्ध मन-आयतन है तथा रूप और विज्ञानस्कन्ध से अवशिष्ट वेदना, संज्ञा और संस्कार तीन स्कन्ध धर्मायतन हैं। धर्मायतन में ही निर्वाण, अविज्ञप्ति और विप्रयुक्त संस्कारों का भी ग्रहण होता है।
धातुएं- धातु का अर्थ गोत्र या बीज होता है। धातु १८ होती हैं। इसमें ६ धातु विषय, ६ धातुएं इन्द्रियाँ और छह विज्ञान होते हैं।
विषय धातु इन्द्रिय धातु विज्ञान थातु रूपधातु चक्षुर्धातु चक्षुर्विज्ञानधातु शब्दधातु की श्रोत्रधातु श्रोत्रविज्ञानधातु ना -शाली गन्धधातु घ्राणधातु घ्राणविज्ञानधातु रसधातु माया जिह्मधातु जिहाविज्ञानधातु स्प्रष्टव्यधातु कायधातु कायविज्ञानधातु धर्मधातु मनोधातुमा मनोविज्ञानधातु आयतन की दृष्टि से जो धर्मायतन है, वही धातु की दृष्टि से धर्मधातु होता है। छह विज्ञानधातु और मनोधातु विज्ञानस्कन्ध और मन आयतन है तथा शेष १० धातु रूपस्कन्ध के अन्तर्गत गृहीत हैं।
है AI मनोधातु समनन्तर निरुद्ध चक्षुरादि छह विज्ञान ‘मनोधातु’ कहलाते हैं। मनोधातु मनोविज्ञान धातु का अधिपतिप्रत्यय होता है।
वैभाषिक दर्शन ३४७

पदार्थ-विभाजन का अन्य प्रकार

स्कन्ध, आयतन एवं धातु के अलावा वैभाषिक समस्त धर्मों का विभाजन एक अन्य प्रकार से भी करते हैं, यथा- चित्त, चित्तसम्प्रयुक्त (चैतसिक), चित्तविप्रयुक्त, रूप एवं निर्वाण। इन पाँच धर्मों में समस्त धर्मों का संग्रह हो जाता है।
__(१) चित्त- चित्त, मनस् एवं विज्ञान एकार्थक हैं। वह कुशल, अकुशल आदि का संचय करता है, अतः ‘चित्त’ है। वह मनन करता है, अतः ‘मनस्’ है तथा वह अपने आलम्बन को जानता है, अतः ‘विज्ञान’ है।
एक अन्य निर्वचन के अनुसार क्योंकि वह शुभ-अशुभ धातुओं से चित्रित होता है, अतः ‘चित्त’ है। क्योंकि वह दूसरे चित्तों का आश्रय होता है, अतः ‘मन’ हैं। क्योंकि वह इन्द्रिय और आलम्बन पर आश्रित होता है, अतः ‘विज्ञान’ है।
___ चित्त का स्कन्धों में परिगणन करने पर वह ‘विज्ञान-स्कन्ध’ है। आयतनों में वह ‘मन आयतन’ तथा धातुओं में सात विज्ञान धातु अर्थात् चक्षुर्विज्ञानधातु, श्रोत्रविज्ञानधातु, घ्राणविज्ञानधातु, जिहाविज्ञानधातु, कायविज्ञानधातु, मनोविज्ञानधातु एवं मनोधातु है। ____ वैभाषिक चित्त का अनेकविध विभाजन करते हैं, किन्तु स्थूल रूप से चित्त १२ प्रकार के हैं। कामधातु में चार प्रकार के चित्त होते हैं, यथा- कुशल, अकुशल, निवृताव्याकृत एवं अनिवृताव्याकृत। रूपधातु और अरूपधातु में तीन प्रकार के चित्त होते हैं, यथा- कुशल, निवृताव्याकृत एवं अनिवृताव्याकृत। इनमें अकुशल चित्त नहीं होते। लोकोत्तर धातु में दो अनास्रव चित्त होते हैं, यथा- शैक्ष और अशैक्ष। इस तरह कुल १२ प्रकार के चित्त होते हैं। इनके भी अनेक भेद होते हैं।
__कुशल चित्त एक प्रकार का होता है। अकुशल चित्त के दो प्रकार हैं- (१) अविद्यामात्र से सम्प्रयुक्त और (२) राग आदि अन्य क्लेशों से सम्प्रयुक्त। अव्याकृत चित्त दो प्रकार के होते हैं- (१) निवृताव्याकृत एवं (२) अनिवृताव्याकृत। इन्हें अव्याकृत इसलिए कहते हैं, क्योंकि इनका कुशल और अकुशल में अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता। जो (अव्याकृत) सत्कायदृष्टि एवं अन्तग्राहदृष्टि से सम्प्रयुक्त होता है, वह ‘निवृताव्याकृत’ तथा विपाकज आदि चित्त ‘अनिवृताव्याकृत’ कहलाते हैं। __(२) चित्तसम्प्रयुक्त (चैतसिक)- वैभाषिक मत के अनुसार चैतसिक चित्त से पृथक् द्रव्य होते हैं। किन्तु चित्त के साथ इनका सहोत्पाद और सह निरोध होता हैं। चित्त के आश्रय को ही चैतसिक भी आश्रय बनाते हैं और चित्त के आलम्बन को ही अपना आलम्बन बनाते हैं। चित्त वस्तुमात्र या वस्तुसामान्य का ग्रहण करते हैं, जबकि चैतसिक उनके विशेष (अर्थात् नील, पीत, स्त्री, पुरुष, सुख, दुःख आदि) का ग्रहण करते हैं। अभिधर्माकोश के अनुसार चैतसिकों की संख्या ४६ होती है, यथा- १० महाभूमिक, जो ३४८ बौद्धदर्शन सभी चित्तों के साथ सम्प्रयुक्त होते हैं। १० कुशल महाभूमिक होते है, जो केवल सभी कुशल चित्तों के साथ सम्प्रयुक्त होते हैं। ६ चैतसिक क्लेश महाभूमिक होते हैं, जो सभी क्लिष्ट चित्तों से सम्प्रयुक्त होते हैं। २ अकुशल महाभूमिक होते हैं, जो अकुशल चित्तों में पाये जाते हैं। १० चैतसिक परीत्तक्लेशभूमिक होते हैं, क्योंकि इनकी भूमि परीत्तक्लेश हैं। परीत्त का अर्थ ‘अल्प’ होता है। अर्थात् ये राग, द्वेष आदि क्लेशों से सम्प्रयुक्त नहीं होते, अविद्यामात्र से सम्प्रयुक्त होते हैं। इनके अलावा कौकृत्य, मिद्ध आदि कुछ अनियत चैतसिक भी होते हैं।
(३) चित्तविप्रयुक्त- ये वे धर्म हैं, जो ज्ञानजातीय नहीं होते, अतः इनका चित्त-चैतसिकों में ग्रहण नहीं होता। ये रूपस्वभाव भी नहीं होते, अतः इनका रूप स्कन्ध में भी ग्रहण नहीं होता। ये संस्कार-स्कन्ध में संगृहीत होते हैं, अतः ‘चित्तविप्रयुक्त संस्कार’ भी कहलाते हैं। ये चित्त से विप्रयुक्त होते हैं, फिर भी अरूपी होने के कारण चित्त के समानजातीय होते हैं। अभिधर्मकोश में इनकी संख्या १४ गिनाई गई है, किन्तु अन्त में ‘आदि’ शब्द का भी प्रयोग किया है, जिसका अर्थ है ये चौदह से भी अधिक होते हैं। प्राप्ति, अप्राप्ति, सभागता, आसंज्ञिक, असंज्ञिसमापत्ति, निरोध-समापत्ति, जीवितेन्द्रिय, ४ लक्षण (उत्पाद, स्थिति, जरता एवं अनित्यता), नामकाय, पदकाय एवं व्यञ्जनकाय। इनके स्वरूप का विस्तार से ज्ञान अभिधर्मकोश आदि ग्रन्थों में प्राप्त होता है।
(४) रूप- अचेतन या जड़ होना ‘रूप’ का अर्थ है। ‘रूप्यते’ इति रूपम-अर्थात् जो रूपित होता है, वह रूप है। यहाँ आचार्यों ने ‘रूप्यते’ का अर्थ तीन प्रकार से किया हैं- (9) जो नष्ट होता है, शीत, ताप आदि से, हाथ के स्पर्श से नष्ट होता है, वह रूप है। जो विकृत होता है अर्थात् जो दूसरे ही क्षण में अपने स्वरूप में नहीं रहता, वह ‘रूप’ है। जिसमें परिणमन होता है, वह रूप है। क्षण-क्षण में परिवर्तन होना, इन सबका अर्थ है। यद्यपि नष्ट होना, विकृत होना या परिणमित होना चित्त-चैतसिकों में भी होता है, किन्तु वह अत्यन्त सूक्ष्म होने से लक्षित नहीं होता, अतः उन्हें रूप नहीं कहते। जड़ पदार्थों में नाश, विकार एवं परिणाम स्थूल होने से प्रकट होते हैं, अतः उन्हें ही ‘रूप’ कहते हैं।
(२) ‘रूप्यते’ का दूसरा अर्थ ‘निरूप्यते’ है। अर्थात् जिसका निरूपण किया जा सके। अर्थात् जिसके बारे में अंगुलि से यह निर्देश किया जा सके कि यह ‘यहाँ’ है, यह ‘वहाँ’ है-इत्यादि।
(३) ‘रूप्यते’ का तीसरा अर्थ ‘बाध्यते’ है। अर्थात् जो बाधित होता है या बाधित करता है। जिस स्थान में कोई रूप होता है, उस स्थान (देश) में वह अन्य रूप को आने नहीं देता। अर्थात् अन्य रूप को अपने देश में उत्पन्न नहीं होने देता। यही ‘बाध्यते’ का अर्थ है और इसी अर्थ में रूप सप्रतिघ कहा जाता है। ___ रूप का अर्थ ‘रूपस्कन्ध’ होता है। इसमें चक्षुष आदि पाँच इन्द्रियाँ, रूप, शब्द आदि पाँच विषय एवं अविज्ञप्ति-इस तरह ११ पदार्थ संगृहीत हाते हैं। यहाँ पाँच विषयों में जो वैभाषिक दर्शन ३४६ है रूप कहा गया है, उसका अर्थ नील, पीत, हरित, लोहित, कृष्ण, अवदात आदि वर्ण हैं। शब्द आठ प्रकार का, रस छह प्रकार का और गन्ध चार प्रकार का होता है तथा स्प्रष्टव्य ११ प्रकार का होता है। इन सबका वर्णन अभिधर्मकोश में विस्तार से किया गया है।
(५) निर्वाण-वैभाषिकों के अनुसार निर्वाण एक असंस्कृत एवं नित्य द्रव्य है। वस्तु का स्वभाव उत्पाद, स्थिति एवं भङ्ग है। निर्वाण का वस्तुस्वभाव नहीं होने के कारण उसे नित्य कहा गया है। अर्थात् वह अवस्तुस्वभाव एक द्रव्य है। मेरे विचार में वैभाषिक अभाव को भी द्रव्य मानते हैं, जैसे वैभाषिक अभाव को पदार्थ मानते हैं। फिर भी वैभाषिक सभी अभावों को अर्थात् अभावमात्र को द्रव्य नहीं मानते, किन्तु क्लेशभाव और दुःखाभाव मात्र को द्रव्य मानते हैं। क्योंकि इस अवस्था में शान्त-आकार का अनुभव होता है। यह योगी के निर्विकल्प प्रत्यक्ष का गोचर भी होता है, अतः इसे वे द्रव्य मानते हैं। किन्तु उसकी कोई अर्थक्रिया नहीं होती, वह एक निष्क्रिय द्रव्यमात्र है और यही निर्वाण है। माया की चार आर्यसत्यों में निरोध आर्यसत्य ही निर्वाण है। निरोध भी वैभाषिकों के मतानुसार दो प्रकार का होता है-प्रतिसंख्यानिरोध और अप्रतिसंख्यानिरोध। असंस्कृत का प्रतिपादन करते समय इनके स्वरूप का ऊपर प्रतिपादन किया जा चुका है।

हेतु-फलवाद

इसे वैभाषिकों का कार्य-कारणभाव भी कह सकते हैं। इनके मत में छह हेतु, चार प्रत्यय और चार फल माने जाते हैं। छह हेतु इस प्रकार हैं-कारणहेतु, सहभूहेतु, सभागहेतु, सम्प्रयुक्तकहेतु, सर्वत्रगहेतु एवं विपाकहेतु। चार प्रत्यय हैं, यथा- हेतु-प्रत्यय, समनन्तर-प्रत्यय, आलम्बन-प्रत्यय एवं अधिपति-प्रत्यय। चार फल हैं, यथा-विपाकफल, अधिपतिफल, निष्यन्दफल एवं पुरुषकारफल।
हेतु और प्रत्यय’ के अर्थ के बारे में बौद्धों में मतभेद हैं। कुछ लोगों के अनुसार मुख्य कारण हेतु होते हैं और सहायक कारण प्रत्यय। जैसे बीज अकुर का हेतु है और मिट्टी, पानी आदि प्रत्यय। किन्तु ऐसा लगता है कि वैभाषिक इस प्रकार का विभाजन नहीं मानते। अर्थात् उनके मत में हेतु और प्रत्यय दोनों एकार्थक हैं। इसलिए वे छह हेतुओं का चार प्रत्ययों में अन्तर्भाव भी करते हैं। यथा-छह हेतुओं में कारणहेतु को छोड़कर शेष पाँच हेतु ‘हेतु-प्रत्यय’ हैं। अर्हत् के चरम च्युति-चित को छोड़कर पूर्व उत्पन्न चित्त-चैतसिक अपने बाद उत्पन्न होनेवाले चित्त-चैतसिकों के ‘समन्तर-प्रत्यय’ हैं। सभी संस्कृत, असंस्कृत धर्म चित्त-चैतसिकों के आलम्बन प्रत्यय होते हैं तथा पूर्वोक्त छह हेतुओं में कारणहेतु ‘अधिपति-प्रत्यय’ कहलाता है।
३५० बौद्धदर्शन __कारणहेतु- सभी धर्म अपने से अन्य सभी धर्मों के कारणहेतु होते हैं। कोई भी धर्म अपना कारणहेतु नहीं होता। अर्थात् सभी धर्म उत्पन्न होनेवाले समस्त संस्कृत धर्मों के कारणहेतु होते हैं, क्योंकि इनका उनके उत्पाद में अविघ्नभाव से अवस्थान होता है। आशय यह है कि कार्यों के उत्पाद में विघ्न न करना कारणहेतु का लक्षण है।
सहभूहेतु- सहभूहेतु वे धर्म हैं, जो परस्पर एक-दूसरे के फल होते हैं। जैसे चारों महाभूत परस्पर एक दूसरे के हेतु और फल होते हैं, यथा-एक तिपाही के तीनों पाँव एक-दूसरे को खड़ा रखते हैं। सभी संस्कृत धर्म यथासम्भव सहभूहेतु हैं, बशर्ते कि वे अन्योऽन्यफल के रूप में सम्बद्ध हों। विस सभागहेतु- सदृश धर्म सभागहेतु होते हैं। सदृश धर्म सदृश धर्मों के सभागहेतु होते हैं। यथा-कुशल धर्म कुशल के और क्लिष्ट धर्म क्लिष्ट धर्मों के सभागहेतु होते हैं।
__सम्प्रयुक्तकहेतु- चित्त और चैतसिक सम्प्रयुक्तक हेतु होते हैं। वे ही चित्त-चैतसिक परस्पर सम्प्रयुक्तकहेतु होते हैं, जिनका आश्रय सम या अभिन्न होता है। जैसे चक्षुरिन्द्रिय का एक क्षण एक चक्षुर्विज्ञान और तत्सम्प्रयुक्त वेदना आदि चैतसिकों का आश्रय होता है। इसी तरह मन-इन्द्रिय का एक क्षण, एक मनोविज्ञान एवं तत्सम्प्रयुक्त चैतसिकों का आश्रय होता है। वे हेतु सम्प्रयुक्तक कहलाते हैं, जिनकी सम प्रवृत्ति होती है। चित्त और चैतसिक पाँच समताओं से सम्प्रयुक्त होते हैं, क्योंकि उनके आश्रय, आलम्बन और आकार एक ही होते हैं। क्योंकि वे एक साथ उत्पन्न होते हैं। क्योंकि इनका काल भी एक ही होता है। इन पाँच समताओं में से यदि एक का भी अभाव हो तो उनकी सम-प्रवृत्ति नहीं हो सकती। ऐसी स्थिति में वह सम्प्रयुक्त नहीं हो सकते।
र सर्वत्रगहेतु- पूर्वोत्पन्न सर्वत्रग स्वभूमिक क्लिष्ट धर्मों के सर्वत्रगहेतु होते है। अर्थात् पूर्वोत्पन्न अर्थात् अतीत या प्रत्युत्पन्न स्वभूमिक सर्वत्रग बाद में उत्पन्न होने वाले स्वभूमिक क्लिष्ट धर्मों के सर्वत्रगहेतु होते हैं। सर्वत्रग हेतु क्लिष्ट धर्मों के सामान्य कारण हैं। ये निकायान्तरीय क्लिष्ट धर्मों के भी हेतु होते हैं। अर्थात् इनके प्रभाव से अन्य निकायों (शरीरों) में सपरिवार क्लेश उत्पन्न होते हैं।
विपाकहेतु- अकुशल और सास्रव कुशल धर्म विपाकहेतु होते हैं। क्योंकि विपाक देना इनकी प्रकृति है। अव्याकृत धर्म विपाकहेतु नहीं हो सकते, क्योंकि वे दुर्बल होते हैं।
____ फलव्यवस्था- विपाकफल अन्तिम विपाकहेतु से उत्पन्न होता है। इसके दो अर्थ किये जाते हैं, यथा- एक विपाक का हेतु और दूसरा विपाक ही हेतु। विपाक शब्द के दोनों अर्थ युक्त हैं। प्रथम कारण हेतु का अधिपतिफल होता है। सभाग और सर्वत्रग हेतु का निःष्यन्द फल होता है तथा सहभूहेतु और सम्प्रयुक्तकहेतु का पुरुषकार फल होता है।
AL ३५१ वैभाषिक दर्शन

वैशिष्ट्य

वैभाषिकों को छोड़कर अन्य सभी बौद्ध कार्य और कारण को एककालिक नहीं मानते। किन्तु वैभाषिकों की यह विशेषता है वे कि हेतु और फल को एककालिक भी मानते हैं, यथा-सहजात (सहभू) हेतु।

सत्यद्वय व्यवस्था

वैभाषिक भी अन्य बौद्धों की भाँति दो सत्यों की व्यवस्था करते हैं। सत्य दो हैं, यथा संवृतिसत्य एवं परमार्थसत्य।
संवृतिसत्य- अवयवों का भेद अर्थात् उन्हें अलग-अलग कर देने पर जिस विषय में तबुद्धि का नाश हो जाता है, उसे संवृति-सत्य कहते हैं, जैसे घट या अम्बु (जल)। जब घट का मुद्गर आदि से विनाश कर दिया जाता है और जब वह कपाल के रूप में परिणत हो जाता है, तब उस (घट) में जो पहले घटबुद्धि हो रही थी, वह नष्ट हो जाती है। इसी तरह अम्बु का बुद्धि द्वारा विश्लेषण करने पर अम्बुबुद्धि भी समाप्त हो जाती है। इसी प्रकार उपकरणों द्वारा या बुद्धि द्वारा विश्लेषण करने पर जिन विषयों में तद्विषयक बुद्धि का विनाश हो जाता है, वे धर्म संवृतिसत्य कहलाते हैं। सांवृतिक दृष्टि से घट या अम्बु कहने वाला व्यक्ति सत्य ही बोलता है, मिथ्या नहीं, अतः इन्हें ‘संवृतिसत्य’ कहते हैं।

परमार्थ सत्य

___ संवृतिसत्य से विपरीत सत्य परमार्थसत्य है। अर्थात् उपकरण या बुद्धि द्वारा भेद कर देने पर भी जिन विषयों में तद्विषयक बुद्धि का नाश नहीं होता, वे धर्म ‘परमार्थसत्य’ यथा रूप, वेदना, ज्ञान, निर्वाण आदि। रूप का परमाणु में विभाजन कर देने पर भी रूपबुद्धि नष्ट नहीं होती। इसी तरह अन्य विषयों के बारे में भी जानना चाहिए। ये धर्म परमार्थतः सत्य होते हैं, अतः ‘परमार्थसत्य’ कहलाते हैं। अथवा जो धर्म आर्य योगी के समाहित लोकोत्तर ज्ञान द्वारा जैसे गृहीत होते हैं, उसी रूप में पृष्ठलब्ध ज्ञान द्वारा भी गृहीत होते हैं, वे ‘परमार्थसत्य’ हैं। यदि वैसे ही गृहीत नहीं होते तो वे संवृति सत्य हैं।
_ दुःखसत्य, समुदयसत्य, निरोधसत्य एवं मार्गसत्य-इस तरह चार सत्य होते हैं। ऊपर जो दो सत्य कहे गये हैं, उनसे इनका कोई विरोध नहीं है। चार आर्यसत्य दो में या दो सत्य चार में परस्पर संगृहीत किये जा सकते हैं। जैसे निरोध सत्य परमार्थ सत्य है तथा शेष तीन संवृतिसत्य।
ਕਿ ਮਨਕੀਰ ਨੂੰ ਸ਼ਕ ਰੂ ਜਸ ਨ ਲ ਵ ਨ ਨੂੰ३५२ बौद्धदर्शन

परमाणु विचार

वैभाषिक मत में परमाणु निरवयव माने जाते हैं। संघात होने पर भी उनका परस्पर स्पर्श नहीं होता। परमाणु द्विविध हैं, यथा- द्रव्यपरमाणु एवं संघातपरमाणु। अकेला निरवयव परमाणु द्रव्यपरमाणु कहलाता है। संघात परमाणु में कम से कम आठ परमाणु अवश्य रहते हैं, यथा ४ महाभूतों (पृथ्वी, अप, तेजस् और वायु) के तथा चार उपादाय रूपों (रूप, गन्ध, रस, स्प्रष्टव्य) के परमाणु एक कलाप (संघात) में निश्चित रूप से रहते हैं। यह व्यवस्था कामधातु के संघात के बारे में है। कामधातु का एक परमाणुकलाप, जिसमें शब्द और इन्द्रिय परमाणु नहीं है, वह निश्चय ही अष्टद्रव्यात्मक होता है। को का सौत्रान्तिक द्रव्यपरमाणु की सत्ता नहीं मानते, वे केवल संघात परमाणु ही मानते हैं। आचार्य वसुबन्धु भी सौत्रान्तिक के इस मत से सहमत हैं। जिस । परमाणु सप्रतिघ होता है। अभिप्राय यह है कि जब परमाणु किसी स्थान (देश) में स्थित होता है, तब वह किसी दूसरे सजातीय परमाणु को अपने देश में आने नहीं देता। किन्तु विजातीय परमाणु के आने में बाधा नहीं करता। अर्थात् सजातीय की दृष्टि से परमाणु सप्रतिघ है, विजातीय की दृष्टि से नहीं। आठ विजातीय परमाणु एक स्थान में स्थित रह सकते हैं। इनके बीच में आकाश नहीं होता-ऐसा एक प्रकार के वैभाषिक मानते हैं।
दूसरे प्रकार के वैभाषिकों का कहना है कि अणु विजातीय परमाणुओं की दृष्टि से भी सप्रतिघ होता है। अन्यथा सहस्रों परमाणुओं का संयोग होने पर भी स्थौल्य नहीं हो सकेगा तथा रूप और स्प्रष्टव्य परमाणु के एक देश में रहने पर उनमें अभेद हो जाएगा। फलतः संघात के अन्तर्गत होने वाले परमाणु परस्पर सन्निहित तो रहते हैं, किन्तु उनका देश एक ही नहीं होता। ऐसा प्रतीत होता है कि इनके मत में उनके मध्य आकाश रहता है।
र उपर्युक्त दोनों मतों में संघातपरमाणुओं में स्पर्श नहीं होता। दूसरे मत से आचार्य वसुबन्धु सहमत हैं। ऐसा उनके भाष्य से स्पष्ट होता है।
सौत्रान्तिकों के अनुसार संघातपरमाणु एक और अविभक्त होता है। उसमें आठ द्रव्य शक्तिरूप में निहित रहते हैं। अर्थात् उसमें ८ द्रव्यों में परिणत होने का सामर्थ्य होता है। उसमें जिस द्रव्य की शक्ति या बीज प्रबल होता है, वह उसी का परमाणु कहलाता है। जैसे किसी में तेजस् की शक्ति उद्भूत है तथा अन्य शक्ति उद्भूत नहीं है तो वह तेजस् का परमाणु कहलाता है। इस मत से आचार्य वसुबन्धु भी सहमत हैं।

ज्ञानमीमांसा

वैभाषिक भी दो ही प्रमाण मानते हैं, यथा- प्रत्यक्ष और अनुमान। प्रत्यक्ष इनके मत में तीन ही हैं, यथा- इन्द्रियप्रत्यक्ष, मानसप्रत्यक्ष एवं योगिप्रत्यक्ष। ये स्वसंवेदनप्रत्यक्ष नहीं वैभाषिक दर्शन ३५३ मानते, जैसा कि सौत्रान्तिक आदि न्यायानुसारी बौद्ध मानते हैं। इसका कारण यह है कि ये ज्ञान में ग्राह्याकार नहीं मानते, इसलिए ग्राहकाकार (स्वसंवेदन) भी नहीं मानते। इनके मत में ज्ञान निराकार होता है। स्वसंवेदन नहीं मानने से इनके अनुसार ज्ञान की सत्ता का निश्चय परवर्ती ज्ञान द्वारा हुआ करता है। यह परवर्ती ज्ञान स्मृत्यात्मक या कल्पनात्मक ही होता है। आशय यह है कि इनके अनुसार ज्ञान स्मृत हुआ करता है। वह स्वयंप्रकाश नहीं होता।
___ इन्द्रियप्रत्यक्ष- इन्द्रियों से उत्पन्न ज्ञान इन्द्रियप्रत्यक्ष है। इनके मत में यद्यपि चक्षुष् ही रूप को देखता है, तथापि ये चक्षुर्विज्ञान को ही प्रमाण मानते हैं। इन्द्रियप्रत्यक्ष पाँच हैं, यथा- चक्षुर्विज्ञान, श्रोत्रविज्ञान, घ्राणविज्ञान, जिहाविज्ञान एवं कायविज्ञान।
मानसप्रत्यक्ष- इन्द्रिय विज्ञानों के अनन्तर उन्हीं के विषय को ग्रहण करता हुआ यह मानसप्रत्यक्ष उत्पन्न होता है। समनन्तर अतीत छह विज्ञान अर्थात् मनोधातु इसका अधिपतिप्रत्यय होता है।
____योगिप्रत्यक्ष- योगी दो प्रकार के होते हैं- लौकिक एवं लोकोत्तर। इनमें से लोकोत्तर योगी का प्रत्यक्ष ही योगिप्रत्यक्ष होता है, इसे लोकोत्तर मार्गज्ञान भी कह सकते हैं। चार आर्यसत्य, निर्वाण एवं नैरात्म्य इसके विषय होते हैं। लौकिक योगी की दिव्यश्रोत्र, दिव्यचक्षुष आदि अभिज्ञाएं मानसप्रत्यक्ष ही हैं, योगिप्रत्यक्ष नहीं। __कल्पना- जो ज्ञान वस्तु से उत्पन्न न होकर शब्द को अधिपतिप्रत्यय बनाकर उत्पन्न होता है अथवा जो ज्ञान चक्षुरादि प्रत्यक्ष विज्ञानों के अनन्तर अध्यवसाय करते हुए उत्पन्न होता है, वह ‘कल्पना’ या ‘विकल्प’ है।
वैभाषिक मत में शब्द सुनकर जो प्रतिभासाकार उत्पन्न होता है, उस आकार को ये लोग सौत्रान्तिकों की भाँति नित्य या अवस्तु नहीं मानते, अपितु उसे एक प्रकार की वस्तु ही मानते हैं। इसलिए इनका कहना है कि भगवान् ने ८० हजार धर्मस्कन्ध कहे हैं।
ज्ञानाकार- इनके मत में ज्ञान में आकार नहीं माना जाता। ये ज्ञान को साकार नहीं, अपितु निराकार मानते हैं। इसी प्रकार ये वस्तु में भी आकार नहीं मानते। निराकार ज्ञान परमाणु-समूह को देखता है। परमाणु वस्त्वाकार नहीं होते। यदि ज्ञान साकार वस्तु का ग्रहण करेगा तो आकारमात्र का दर्शन करेगा, वस्तु का नहीं। शिम मार्ग-फल-व्यवस्था- मार्ग पाँच होते हैं, यथा- प्रयोगमार्ग, दर्शनमार्ग, भावनामार्ग एवं अशैक्षमार्ग। प्रथम दो मार्ग पृथग्जन अवस्था के मार्ग हैं और ये लौकिक मार्ग कहलाते हैं। शेष तीन मार्ग आर्य पदगलल के मार्ग हैं और लोकोत्तर हैं। आर्य के मार्ग ही वस्तुतः ‘मार्गसत्य’ हैं। प्रथम दो मार्ग यद्यपि मार्ग हैं, किन्तु मार्गसत्य नहीं।
सैंतीस बोधिपाक्षिक धर्मों में १२ (४ स्मृत्युपस्थान, ४ प्रहाण और ४ ऋद्धिपाद) ये ३५४ बौद्धदर्शन सम्भारमार्ग में संगृहीत होते हैं। ये भी मृदु, मध्य एवं अधिमात्र भेद से त्रिविध हैं। अर्थात् ४ स्मृत्युपस्थान ‘मृदु’, ४ प्रहाण ‘मध्य’ तथा ४ ऋद्धिपाद ‘अधिमात्र’ होते हैं।
५ इन्द्रिय और ५ बल ये १० प्रयोगधर्म के अन्तर्गत परिगणित हैं। प्रयोगमार्ग की चार अवस्थाएं होती है- ऊष्मगत, मूर्धा, शान्ति और अग्रधर्म। इन चारों अवस्थाओं में ये १० बोधिपाक्षिक धर्म होते हैं। ७ बोध्यङ्ग और ८ आर्याष्टांगिक मार्ग ये १५ दर्शनमार्ग और भावनामार्ग के अन्तर्गत आते हैं। इस प्रकार सभी ३७ बोधिपक्षीय धर्म ४ मार्गों में संगृहीत हो जाते हैं। ये चारों मार्ग ‘शैक्षमार्ग’ कहलाते हैं।
वैभाषिकों के मत में प्रतिपक्ष (मार्ग) के काल में ही हेय धर्मों का भी अस्तित्व माना जाता है, जो (प्रतिपक्ष) हेय का प्रहाण करते हैं। प्रतिपक्ष के विनाश-क्षण में हेय का भी विनाश होता है।
अशैक्षमार्ग- अशैक्षमार्ग के क्षण में कोई हेय क्लेश अवशिष्ट नहीं रहता। केवल शरीर ही अवशिष्ट रहता है। अशैक्ष मार्ग लोकोत्तर प्रज्ञा है, जिसका आलम्बन केवल निर्वाण होता है।
त्रियानव्यवस्था- श्रावकयान, प्रत्येकबुद्धयान एवं बोधिसत्त्वयान-ये तीन यान होते हैं। श्रावकगोत्रीय पुद्गल का लक्ष्य प्रायः पुद्गलनैरात्म्य का साक्षात्कार करनेवाली प्रज्ञा द्वारा अपने क्लेशों का प्रहाण कर चार्य आर्यसत्यों का साक्षात्कार करके श्रावकीय अर्हत्त्व पद प्राप्त करना है। इसके लिए सर्वप्रथम अकृत्रिम निर्याण चित्त का उत्पाद आवश्यक है। सम्भारमार्ग प्राप्त होने के अनन्तर अत्यन्त तीक्ष्णप्रज्ञ पुद्गल तीन जन्मों में अर्हत्त्व प्राप्त कर लेता है। स्रोतापत्ति मार्ग प्राप्त होने के अनन्तर आलसी साधक भी कामधातु में सात से अधिक जन्मग्रहण नहीं करता। मकदार __कम से कम १०० कल्पों तक पुण्यसंचय करके पुद्गल प्रत्येकबुद्ध होता है। इसके अतिरिक्त श्रावक और प्रत्येकबुद्ध अर्हत् दोनों की सारी प्रक्रियाएं और अवस्थाएं प्रायः समान होती हैं।
अर्हत् भी तीन प्रकार के होते हैं- श्रावक अर्हत्, प्रत्येकबुद्ध अर्हत् एवं महा अर्हत् अर्थात् बुद्ध । आयु के ह्रास काल में जब मनुष्य की आयु १०० वर्ष होती है, तब बुद्ध का आविर्भाव होता है, इससे पहले प्रत्येकबुद्ध होते हैं।
श्रावकयान में चतुर्विध आर्य पुद्गल होते हैं, यथा- स्रोतापन्न, सकृदागामी, अनागामी और अर्हत्। विभाग करने पर इनकी संख्या २० हो जाती है। ये पुद्गल ‘संघ’ कहलाते हैं।
बोधिसत्त्व कम से कम तीन असंख्येय कल्पपर्यन्त पुण्यसम्भार का संचय करके जब मनुष्य की आयु १०० वर्ष या उससे कम होती है, तब बुद्धत्व प्राप्त करता है। जिस जन्म में बुद्धत्व प्राप्त करता है, उस अन्तिम भव में पुद्गल सम्भारमार्ग की अवस्था में मातृकुक्षि में प्रवेश करता है और उसी अवस्था में मातृकुक्षि से निर्गत होता है। बुद्धत्व प्राप्त करने वैभाषिक दर्शन ३५५ के लिए जब वह बोधिवृक्ष के नीचे आसन लगाकर बैठता है, तब उसी एक आसन पर समाहित अवस्था में उसे प्रयोगमार्ग से लेकर अशैक्ष मार्ग तक की प्राप्ति होती है। बीच में वह उस आसन से व्युत्थित नहीं होगा और न उसकी समाधि टूटेगी। इसी पूरी प्रक्रिया में अधिक से अधिक ४ याम (प्रहर = १२ घंटे) लगते हैं।
सम्भारमार्ग और प्रयोगमार्ग की प्राप्ति के अनन्तर दर्शनमार्ग की प्राप्ति में १६ क्षण लगते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि १६वाँ क्षण भावनामार्ग होता है, अतः दर्शनमार्ग १५ क्षणों का ही होता है। इन मार्ग के क्षणों में चारों आर्यसत्यों का साक्षात्कार होता है और उसके बल से दर्शनहेय क्लेशों का प्रहाण होता है। प्रत्येक सत्य के साक्षात्कार में चार क्षण होते हैं, यथा- दुःखसत्य के साक्षात्कार में (१) दुःखे धर्मक्षान्ति, (२) दुःखे धर्मज्ञान, (३) दुःखे अन्वयक्षान्ति और (४) दुःखे अन्वयज्ञान । इसी तरह समुदय सत्य आदि अवशिष्ट तीन सत्यों में ४-४ क्षण होने से कुल १६ क्षण होते हैं। इन १६ क्षणों में ८ क्षान्ति क्षण होते हैं और ८ ज्ञान क्षण। ८ क्षान्तिक्षण अनान्तर्य मार्ग कहलाते हैं और ८ ज्ञानक्षण विमुक्ति मार्ग। क्षान्तिक्षणों (आनन्तर्य मार्ग की अवस्था) में दर्शन हेय क्लेशों का प्रहाण होता है। ८ क्षान्ति क्षणों में भी ४ धर्मक्षान्ति क्षण और ४ अन्वयक्षान्ति क्षण होते हैं। अर्थात् प्रत्येक सत्य में एक धर्मक्षान्ति क्षण और एक अन्यवयक्षान्ति क्षण होता है। धर्मक्षान्ति में कामभूमिक क्लेशों का तथा अन्वयक्षान्ति क्षण में रूप-अरूप भूमि के क्लेशों का प्रहाण होता है। उदाहरणार्थ प्रथम क्षान्तिक्षण में दुःखालम्बन कामक्लेशों का तथा द्वितीय क्षान्तिक्षण में समुदयालम्बन कामक्लेशों का प्रहाण होता है। इसी प्रकार अन्य दो धर्म क्षान्ति क्षणों में निरोध और मार्ग का आलम्बन करनेवाली कामक्लेशों का प्रहाण जानना चाहिए। इसी तरह प्रथम अन्वयक्षान्ति के क्षण में रूप-अरूप भौमिक दुःखालम्बन क्लेशों का, द्वितीय अन्वय क्षान्तिक्षण में समुदयालम्बन रूप-अरूप-भूमिक क्लेशों का प्रहाण होता है। इसी तरह अन्य अन्वय क्षान्ति क्षणों में प्रहेय क्लेशों को जानना चाहिए। ८ विमुक्तिमार्ग किसी भी क्लेश का प्रहाण नहीं करते. अपित वे केवल अपने पूर्ववर्ती क्षान्ति क्षणों द्वारा प्रहीण क्लेशों के प्रहाण का साक्षात्कार करते हुए स्थित रहते हैं या क्लेश प्रहाण को धारण करते हैं। उपर्युक्त १६ क्षणों में १५ क्षणपर्यन्त मुख्य दर्शनमार्ग हैं तथा १६वाँ क्षण भावना-मार्ग का प्रारम्भ है। दर्शनमार्ग प्राप्त पुद्गल (व्यक्ति) स्रोत-आपन्न कहलाता है।
भावनामार्ग की प्राप्ति में क्षणों की चर्चा नहीं है, फिर भी इसमें १८ क्षण होते हैं। भावनामार्ग के तीन भेद होते हैं, यथा- मृदुभावना मार्ग, मध्य-भावनामार्ग एवं अधिमात्र भावनामार्ग। मृदु-भावनामार्ग के पुनः तीन भेद होते हैं, यथा- मृदु-नृदुभावनामार्ग, मध्य मृदुभावनामार्ग तथा अधिमात्र मृदुभावनामार्ग। इसी तरह मध्य और अधिमात्र भावनामार्ग के भी तीन-तीन भेद होते हैं। इस तरह भावनामार्ग कुल ६ प्रकार का होता है। इसके भी आनन्तर्यमार्ग और विमुक्तिमार्ग ये दो भेद होते हैं। अर्थात् ६ आनन्तर्यमार्ग और ६ ३५६ बौद्धदर्शन विमुक्तिमार्ग होते है। कामभूमि १, रूपभूमि ४ एवं अरूपभूमि ४ इस तरह कुल ६ भूमियों के भावनाहेय क्लेशों का ६ आनन्तर्यमार्गों द्वारा प्रहाण होता है। इनमें से जब कामराग, प्रतिघ, दृष्टि, शीलव्रतपरामर्श एवं विचिकित्सा नामक अवरभागीय संयोजन दुर्बल कर दिये जाते हैं, तब पुद्गल सकृदागामी तथा जब इनका सम्यक् प्रहाण कर दिया जाता है और ऊपर के रूपराग, अरूपराग, मान, औद्धत्य और अविद्या नामक ऊर्ध्वभागीय संयोजन दुर्बल हो जाते हैं, तब पुद्गल अनागामी हो जाता है। भावनामार्ग के आनन्तर्य मार्ग द्वारा भावनाहेय क्लेशों का प्रहाण किया जाता है और विमुक्तिमार्ग उस क्लेशनिरोध का साक्षात्कारी या आधार (धारण करने वाला) होता है। वें भावनामार्ग का आनन्तर्य मार्गक्षण ‘वज्रोपमसमाधि’ कहलाता है। इसके द्वारा सूक्ष्म से सूक्ष्म भी भावनाहेय क्लेशों का सर्वथा प्रहाण हो जाता है और पुद्गल अर्हत् हो जाता है। इस अवस्था का पुद्गल अशैक्ष होता है। अर्हत्-मार्ग की प्राप्ति के साथ उसका शैक्ष्यत्व समाप्त हो जाता है। इसके पहले की अवस्थाओं में वह पुद्गल शैक्ष्य होता है। स्रोतापत्ति मार्ग द्वारा पुद्गल पृथग्जन गोत्र का प्रहाण कर ‘आर्य’ हो जाता है।
__ वैभाषिक मतानुसार अर्हत्त्व की प्राप्ति के बाद भी उससे च्युति सम्भव है, किन्तु उसकी स्रोतापन्नत्व से च्युति नहीं होती। उसकी दर्शनमार्ग से च्युति नहीं होती। वह स्रोतापन्न बना रहता है। मन्दप्रज्ञ पुद्गल, जो बिना ध्यान प्राप्त किये लोकोत्तर मार्ग द्वारा अर्हत् हो गया है, वह अत्यधिक सुखसाधन उपलब्ध होने पर अर्हत्त्व से च्युत हो सकता है। अर्हत् भी दो प्रकार के होते हैं- सोपधिशेष अर्हत् एवं निरुधिशेष अर्हत्। च्युति से पूर्व सोपधिशेष एवं च्युति के अनन्तर निरुधिशेष अर्हत् होता है। या बुद्ध-वैभाषिक मतानुसार बोधिसत्त्व जब बुद्धत्व प्राप्त कर लेता है, तब भी उसका शरीर सास्रव ही होता है तथा वह दुःखसत्य और समुदयसत्य होता है, किन्तु उसकी सन्तान में क्लेश सर्वथा नहीं होते। क्लेशावरण के अलावा ज्ञेयावरण का अस्तित्व ये लोग बिल्कुल नहीं मानते। बुद्ध के १२ चरित्र होते हैं। उनमें से १. तुषित क्षेत्र से च्युति, २. मातृकुक्षिप्रवेश, ३. लुम्बिनी उद्यान में अवतरण, ४. शिल्प विषय में नैपुण्य एवं कौमार्योचित ललित क्रीड़ा तथा ५. रानियों के परिवार के साथ राज्यग्रहण-ये पाँच गृहस्थपाक्षिक चरित्र हैं तथा ६. रोगी, वृद्ध आदि चार निमित्तों को देखकर ससंवेग प्रव्रज्या, ७. नेरंजना के तट पर ६ वर्षों तक कठिन तपश्चरण, ८. बोधिवृक्ष के मूल में उपस्थिति, ६. मार का सेना के साथ दमन, १०. वैशाख पूर्णिमा की रात्रि में बुद्धत्वप्राप्ति, ११. धर्मचक्र प्रवर्तन तथा १२. कुशीनगर में महापरिनिर्वाण-ये सात चरित्र प्रव्रज्यापाक्षिक हैं।
श्रावक-अर्हत्, प्रत्येकबुद्ध अर्हत् एवं बुद्ध इन तीनों को जब अनुपधिशेषनिर्वाण की प्राप्ति हो जाती है, तब इनकी जड़ सन्तति एवं चेतन-सन्तति दोनों धाराएं सर्वथा समाप्त हो जाती हैं। इन दोनों धाराओं का अभाव ही अनुपधिशेषनिर्वाण है और इसकी भी द्रव्यसत्ता ३५७ वैभाषिक दर्शन वैभाषिक स्वीकार करते हैं। इनके मत में सभी धर्म द्रव्यसत् और अर्थक्रियाकारी माने जाते हैं। आकाश, निर्वाण आदि सभी धर्म इसी प्रकार के होते हैं। जो सर्वथा नहीं होते, जैसे शशविषाण, वन्ध्यापुत्र आदि असत् होते हैं। कुछ ऐसे भी वैभाषिक थे, जो निरुधिशेषनिर्वाण के अनन्तर भी चेतनधारा का अस्तित्व मानते थे। वैभाषिकों के मत में सम्भोगकाय एवं धर्मकाय नहीं होता। केवल निर्माणकाय ही होता है।