परमार्थ धर्म विचार
(अठारह निकायों में स्थविरवाद भी एक है। इन दिनों विश्व में दो ही निकाय जीवित हैं-स्थविरवाद और सर्वास्तिवाद की विनय-परम्परा। स्थविरवाद की परम्परा श्रीलङ्का, म्यामांर, थाईलैण्ड, कम्बोडिया आदि दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों में प्रभावी ढंग से प्रचलित है। उसका विस्तृत पालिसाहित्य विद्यमान है और आज भी रचनाएं हो रही हैं। अतः संक्षेप में यहाँ उसके परमार्थसत्य तथा शीलसमाधि और प्रज्ञा का परिचय दिया जा रहा है। शील, समाधि और प्रज्ञा ही मार्गसत्य है, जिससे निर्वाण (मोक्ष) जैसे परमार्थसत्य एवं परम पुरुषार्थ की प्राप्ति सम्भव है। ) ____ परमार्थ-जो अपने स्वभाव को कभी भी नहीं छोड़ता तथा जिसके स्वभाव से कभी परिवर्तन नहीं होता ऐसा तत्त्व ‘परमार्थ’ कहा जाता है। जैसे-लोभ का स्वभाव (लक्षण) आसक्ति या लालच है। यह चाहे मनष्य में हो अथवा पश में हो अपने आसक्ति या लालची स्वभाव को कभी भी नहीं छोड़ता। भौतिक (रूप) वस्तुओं में भी पृथ्वी का स्वभाव ‘कठोर’ होना है। यह पृथ्व कहीं भी किसी भी अवस्था में अपने कठोर स्वभाव को नहीं छोड़ती। इसलिए चित्त, स्पर्शवेदना आदि चैतसिक, पृथ्वी अप् आदि महाभूत और भौतिक वस्तु (रूप) तथा निर्वाण परमार्थ कहे जाते हैं।
साधारण जन (पृथग्जन) इन परमार्थ धर्मों को नहीं जान सकते, क्योंकि परमार्थ तत्त्व (धर्म) व्यवहारिक वस्तुओं से ढंका हुआ होता है। ज्ञान (प्रज्ञा) के द्वारा देखने पर ही उसे जाना जा सकता है। जैसे- ‘व्यक्ति (पुद्गल) एक व्यावहारिक सत्य है, किन्तु ज्ञान से देखने पर उस व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता है। उसमें पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु आदि भौतिक पदार्थ (रूप), आलम्बन को जानने वाला चित्त तथा आलम्बन को स्पर्श करने वाला (स्पर्श) एवं अनुभव करने वाली (वेदना) आदि चैतसिक ही विद्यमान रहते हैं। व्यक्ति नष्ट हो जाता है, परमार्थ रह जाता है। वस्तु, द्रव्य आदि का भी अस्तित्व नहीं है, केवल तत्त्वों (धर्मों) का ही अस्तित्व होता है। इन तत्वों (धर्मों) को, जो अपने स्वभाव से विपरीत नहीं होते, विचलित नहीं होते ‘परमार्थ धर्म’ कहते हैं। यद्यपि परमार्थ चार कहे गये हैं, यथा चित्त, चैतसिक, रूप और निर्वाण, तथापि इनमें से निर्वाण ही स्थायी है, शेष तीन जब तक संसार रहते हैं, तब तक क्षण क्षण में उत्पन्न होकर निवष्ट होते रहते हैं। इस तरह धारावाहिक रूप में विद्यमान रहते हैं। फिर भी चूंकि वे जब तक हैं तब तक अपने स्वभाव से कभी भी च्युत नहीं होते, इसलिए ‘परमार्थ’ कहे जाते हैं। अभिप्राय यह है- परमार्थ के स्वरूप के बारे में बौद्ध दार्शनिकों में और अन्य भारतीय दार्शनिकों में मूलतः भेद है।
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जबकि अन्य दार्शनिक यह समझते हैं कि परमार्थ धर्म वह है जो नित्य व चिरस्थायी हो, जो नश्वर स्वभाव न हो। इसके विपरीत वे (अन्य दार्शनिक) अपरमार्थ या व्यावहारिक धर्म उन्हें मानते हैं जिनकी सत्ता कुछ काल के लिए होती है।
बौद्ध दार्शनिक परमार्थ उन्हें कहते हैं जिनकी सत्ता होती है, जो अर्थ क्रियासमर्थ होते हैं। चाहे वे कुछ काल के लिए हों या हमेशा विद्यमान रहते हों। उनके यहां चूंकि सभी धर्म (निर्वाण को छोड़कर) क्षणिक होते हैं, इसलिए परमार्थ के लिए नित्य होना आवश्यक नहीं होता। इसके विपरीत अपरमार्थ या व्यावहारिक धर्म वे हैं, जिनकी किसी भी प्रकार से सत्ता नहीं रहती। उनकी स्थिति मात्र कल्पनाजन्य होती है, दिमागी होती है, यथा व्यक्ति (पुद्गल। पांच स्कन्धों (परमार्थ धर्मों) से भिन्न व्यक्ति की कुछ भी सत्ता नहीं है। व्यक्ति का अस्तित्व केवल दिमागी है। पाँच स्कन्ध नित्य न होने पर भी परमार्थ है, क्योंकि उनका एक स्वभाव होता है और वे अपने स्वभाव से कभी विचलित नहीं होते। क्षणिक अग्नि का भी दहन स्वभाव से कभी वियोग नहीं होता, केवल निर्वाण नामक परमार्थ धर्म ही एक ऐसा है जो परमार्थ भी है और स्थायी भी है। शेष चित्त, चेतसिक और रूप धर्म परमार्थ है, किन्तु नित्य नहीं है, क्षणिक है। ___ चित्त-चैतसिक - यद्यपि चित्त-चैतसिक पृथक्-पृथक् स्वभाव वाले होते हैं तथापि वे दोनों एक विषय (आलम्बन) में एक साथ उत्पन्न होकर एक साथ निरुद्ध होते हैं। इनमें से वर्ण, शब्द आदि विषयों (आलम्बन) को सामान्यरूपेण जानना मात्र ‘चित्त’ है। यहाँ चित्त द्वारा आलम्बन का ग्रहण करना या प्राप्त करना ही ‘जानना’ कहा जाता है। जानना, ग्रहण करना, प्राप्त करना, परिच्छेद (उद्ग्रहण) करना, ये पर्यायवाची हैं।
चित्त-चैतसिक दोनों के साथ-साथ उत्पन्न और निरुद्ध होने पर भी उनमें चित्त ही प्रधान और पूर्वगामी होता है। क्योंकि कुछ चैतसिकों के न होने पर भी आलम्बन ग्रहण हो सकता है, किन्तु चित्त के न होने पर आलम्बन का ग्रहण कथमपि नहीं हो सकता। यही चित्त की प्रधानता है, अतः जिसके कारण चैतसिक आलम्बन का ग्रहण कर सकते हैं, उसे ‘चित्त’ कहते हैं। स्पर्श, वेदना आदि चैतसिकों के द्वारा आलम्बन को ग्रहण करने के कारण के रूप में भी चित्त को समझा जा सकता है। इस प्रकार चित्त की प्रधानता बनी रहती है। जैसे- किसी राजा का आगमन उसके संरक्षक आदि के बिना नहीं होता, तो भी वे सहवर्ती आदि प्रधान नहीं हो जाते, इसलिए व्यवहार में ‘राजा आगतो’ के द्वारा राजा के आगमन का ही प्रधानतया उल्लेख होता है। ____ यह कहा गया है कि ‘आलम्बन’ को ग्रहण करना मात्र, चित्त है। यह ठीक भी है, क्योंकि चित्त चैतसिकों का असली स्वभाव भावसाधनविग्रह द्वारा ही भलीभाँति प्रकट होता है, जैसे- ‘चिन्तनं चित्तं’ स्पर्शनं स्पर्शः अर्थात् वे (चित्त-चैतसिक) क्रियामात्र ही होते हैं। उनमें कोई द्रव्य, संस्थान या विग्रह उपलब्ध नहीं होता। वे कारणों में प्रवृत्त होते हैं। वे न
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स्थविरवाद अपने बल से, अपने वश या शक्ति से उत्पन्न होते हैं तथा न तो दूसरों के अधीन होते हैं। वस्तुतः वे क्षण मात्र ही रहते हैं अतः उनके सम्बन्ध में यह विभाजन नहीं किया जा सकता, कि यह द्रव्य है यह संस्थान है या यह विग्रह है। यद्यपि चित्त में कर्तृशक्ति एवं करणशक्ति नहीं होती, फिर भी आत्मवादियों की आत्मदृष्टि को हटाने के लिए चित्त में कर्तृशक्ति और करणशक्ति का आरोप किया जाता है। जैसे आत्मवादी आत्मा को सिद्ध करने के लिए उसमें कर्तृशक्ति मानते हैं, यथा- आत्मा जानता है। वे कहते हैं कि यदि आत्मा कर्ता न होगा, तो कौन जानेगा। इसी तरह वे उसमें करणशक्ति भी मानते हैं, यथा ‘आत्मा की वजह से इन्द्रियां विषयों को जानती हैं। यदि आत्मा (करण) न होगा, तो इन्द्रियां विषयों को न जान सकेंगी। '
अनात्मवादी बौद्ध यद्यपि चित्त में कर्तृशक्ति और करणशक्ति नहीं मानते, अपितु वे चित्त को ‘जानना मात्र’ मानते हैं, तथापि आत्मवादियों की आत्मदृष्टि को निरस्त करने के लिए वे चित्त में कर्तृशक्ति एवं करणशक्ति का आरोप करते हैं। यथा- ‘चित्त जानता है, (कर्तृत्वारोप), ‘चित्त की वजह से चैतसिक विषयों में प्रवृत्त होते हैं (करणत्वारोप) आदि।
वस्तुतः आलम्बन को जानना यही चित्त का स्वभाव है, उसके अतिरिक्त अन्य कोई जानने वाला कर्ता (ज्ञाता) एवं जानने का करण नहीं है। है आलम्बन को जानने के तीन प्रकार होते हैं। संज्ञा द्वारा जानना, प्रज्ञा द्वारा जानना, चित्त द्वारा जानना। मिथ्या हो अथवा सत्य पूर्व में देखी हुई वस्तु को ‘यह वही है’ इस प्रकार जानना संज्ञा के द्वारा जानना है। मिथ्या न होकर सत्य को ही यथार्थ जानना प्रज्ञा के द्वारा जानना है। तथा किसी वर्ण, शब्द आदि आलम्बन मात्र को जानना चित्त के द्वारा जानना है। यद्यपि संज्ञा प्रज्ञा तथा चित्त तीनों ही सामान्यतः जानना-क्रिया करते हैं- ऐसी प्रतीति होती है, तथापि संज्ञा तथा प्रज्ञा के द्वारा जानना कृत्य से चित्त की क्रिया विशिष्ट हैं। इसी
अभिप्राय को ध्यान में रखकर चित्त को ‘विज्ञान’ भी कहते हैं।
चित्त, मन और विज्ञान एक ही अर्थ के वाचक हैं। जो संचय करता है (चिनोति), वह चित्त है। यही मनस् है, क्योंकि यह मनन करता है (मनुते)। यही विज्ञान है, क्योंकि वह अपने आलम्बन को जानता है (आलम्बनं विजानाति)। _ यद्यपि चित्त अपने ‘आलम्बनविजनानन’ इस लक्षण से एक प्रकार का है, किन्तु जाति, भूमि, सम्प्रयोग, संस्कार एवं वेदना आदि भेद से अनेक प्रकार का कहा गया है। चक्षुः, श्रोत्र आदि इन्द्रियों द्वारा चित्त आलम्बन का ग्रहण करता है। इन्द्रियां छह हैं, अतः इन्द्रियभेद से विज्ञान भी छह प्रकार के होते हैं- चक्षुर्विज्ञान, श्रोत्रविज्ञान, प्रणविज्ञान, जिह्वाविज्ञान, कायविज्ञान और मनोविज्ञान । चक्षुर्विज्ञान से उत्पन्न होने के लिए द्वार के रूप में चक्षुर्द्रिय, आलम्बन के रूप में वर्ण आवश्यक होता है। उसी प्रकार श्रोत्र से शब्द का, नाम से गन्ध का, जिह्वा से रस का, काय से स्पष्टव्य का समागम होने पर उत्पन्न चित्त
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को क्रमशः श्रोत्रविज्ञान, घ्राणविज्ञान जिह्वाविज्ञान और कायविज्ञान कहते हैं। चक्षुः आदि विज्ञानों के उत्पन्न हो जाने के अनन्तर उसके द्वारा ग्रहण किये गये आलम्बन को पुनः ग्रहण करने या मनन करने के लिए मनोद्वार (मन-इन्द्रिय) में जो विज्ञान उत्पन्न होता है, उसे ‘मनोविज्ञान’ कहते हैं। चक्षुर्विज्ञान आदि के द्वारा आलम्बन का निश्चय नहीं होता, उसके अनन्तर उत्पन्न मनोविज्ञान से ही आलम्बन का निश्चय होता है। इसलिए चक्षुर्विज्ञान, श्रोत्रविज्ञान, घमण-विज्ञान, जिह्वाविज्ञान एवं कायविज्ञान निर्विकल्पज्ञान है तथा इन्द्रिय विज्ञान के अनन्तर उत्पन्न होने वाला मनोविज्ञान सविकल्पकज्ञान होता है- ऐसा कहना चाहिए। चक्षुर्विज्ञान आदि के द्वारा विषय का ग्रहण मात्र होता है, तदनन्तर उत्पन्न मनोविज्ञान से ही विषय का निश्चय होता है, क्योंकि चक्षुर्विज्ञान आदि सर्वप्रथम उत्पन्न होकर क्षण मात्र स्थिर रहकर निरुद्ध हो जाते हैं। इसलिए आलम्बन को व्यवहारोपयोगी रूप से पूरा जानने में समर्थ नहीं होते। चक्षुरादिविज्ञानों के द्वारा गृहीत आलम्बन को पुनः पूर्ण रूप से ग्रहण करने वाला मनोविज्ञान होता है। यह ज्ञान की सविकल्प अवस्था है।
। चैतसिक-जब कोई चित्त उत्पन्न होता है, तब स्पर्श वेदना आदि चैतसिक भी उत्पन्न होते हैं। चित्त से सम्बद्ध होकर उत्पन्न होने के कारण, चित्त में होने वाले उन स्पर्श वेदना आदि धर्मों को, ‘चैतसिक’ कहते हैं। यहाँ ‘चित्त’ आधार है तथा चैतसिक उसमें होने वाले आधेय हैं- ऐसा नहीं समझना चाहिए। हाँ, यह ठीक है कि पूर्वगामी चित्त के अभाव में चैतसिक नहीं हो सकते, इस स्थिति में चित्त के न होने पर चैतसिकों के कृत्य नहीं होंगे, चित्त से सम्बद्ध होने पर ही वे सम्भव हैं, अतः चित्त में होने वाले स्पर्श वेदना आदि धर्म चैतसिक है- ऐसा भी कहा जाता है। यह ठीक भी है, क्योंकि स्पर्श वेदना आदि सदा सर्वथा चित्त में सम्प्रयुक्त होते हैं। चित्त के बिना चैतसिक अपने आलम्बनों को ग्रहण करने में असमर्थ रहते हैं। इसीलिए चित्त-चैतसिकों का साथ-सा उत्पाद निरोध माना जाता है तथा साथ ही समान आलम्बन का ग्रहण एवं समान वस्तु (इन्द्रिय) का आश्रय करना माना जाता है।
चित्त एवं चैतसिकों के साथ-साथ उत्पन्न एवं निरुद्ध होने पर भी उनके कृत्य पृथक्-पृथक् होते हैं, क्योंकि वे भिन्न स्वभाव (लक्षण) वाले परमार्थ धर्म होते हैं। यथा- जब चित्त आलम्बन का ग्रहण करता है तो उसके साथ होने वाले चैतसिकों में से स्पर्श उस आलम्बन का स्पर्श करता है, वेदना आलम्बन के रस का अनुभव करती है, संज्ञा आलम्बन का उसके नील, पीत आदि भेद से परिज्ञान (संज्ञान) करती है, चेतना अपने साथ उत्पन्न होने चित्त-चैतसिकों को आलम्बन में युक्त (अभिसन्धि) करती है, प्रवृत्त करती है तथा उत्साहित करती है। एकाग्रता आलम्बन में चित्त का सम या सम्यक् आधान करती है। जीवितेन्द्रिय अपने साथ उत्पन्न नाम-रूप धर्मों को जीवित रहने के लिए अनुपालन
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करती है तथा मनसिकार (मनस्कार) आलम्बन का मनन (आवर्जन) करता है। इसी प्रकार अन्य चैतसिकों के स्वभाव एवं लक्षणों को भी जानना चाहिए। सह
यद्यपि चित्त और चैतसिकों में चित्त प्रधान एवं पूर्वगामी होता है, तथापि चित्त विषय का सामान्यरूपेण ग्रहणमात्र करता है तथा चैतसिक उसका विशेषरूपेण ग्रहण करते हैं। आलम्बन की विशेष अवस्थाओं को छोड़कर केवल आलम्बन के सामान्य आकारमात्र का ग्रहण चित्त द्वारा होता है। आलम्बन की विशेष अवस्थाओं का जैसे आलम्बन नीलसंज्ञक है, पीतसंज्ञक है, दीर्घ है, ह्रस्व है, उन्नत है, अवनत है, सुखदायक है, दुःखप्रद है, मनोज्ञ है, अमनोज्ञ हैं, प्रिय है अप्रिय है- इत्यादि का निश्चय संज्ञा आदि चैतसिकों द्वारा होता है। इसलिए जब कोई चित्त उत्पन्न होता है तो उसके साथ उत्पन्न विशेष चैतसिकों के आधार पर उस चित्त का नामकरण किया जाता है। जब कोई चित्त उत्पन्न होता है तो सभी चित्तों से सर्वदा साथ रहने वाली स्पर्श वेदना आदि चैतसिकों (सर्वचित्तसाधारण) के अतिरिक्त लोभ, द्वेष, श्रद्धा, स्मृति आदि चैतसिक भी उत्पन्न होते हैं। लोभ, द्वेष, आदि चैतसिकों को लक्ष्य करके उस चित्त को लोभचित्त या द्वेषचित्त आदि कहते हैं तथा श्रद्धा आदि शोभन चैतसिक उत्पन्न होने पर उनके साथ होने वाले चित्त ‘शोभन चित्त’ कहलाते हैं। इसी प्रकार कुशल (पुण्य) चित्त तथा अकुशल (पाप) चित्तों को भी जानना चाहिए। इस प्रकार चित्त के प्रधान एवं पूर्वगामी होने पर भी अपने साथ उत्पन्न चैतसिकों के अनुसार उस चित्त का नामकरण भी किया जाता है।
रूप - उपर्युक्त चित्त चैतसिक मनुष्य के चेतन (अभौतिक) पदार्थ (धर्म) हैं, इन्हें बौद्ध परिभाषा में ‘अरूप धर्म’ या ‘नाम धर्म’ कहा जाता है। ये नाम धर्म यद्यपि भौतिक (रूप) धर्मों का आश्रय करके ही उत्पन्न होते हैं। तथापि वे भौतिक (रूप) धर्मों का संचालन भी करते रहते हैं। उसका अभिप्राय यह है कि यदि रूप धर्म नहीं होते हैं तो अरूप (नाम) धर्म भी नहीं होते। यदि अरूप (नाम) धर्म नहीं है तो रूप धर्म निष्प्रयोजन हो जाते हैं। यद्यपि भगवान् बुद्ध का प्रधान प्रतिपाद्य निर्वाण था और निर्वाण प्राप्ति के लिए कुशल, अकुशल अरूपधर्मों का विवेचन करना भी आवश्यक था, तथापि रूप धर्मों के विवेचन के बिना अरूपधर्मों का विवेचन सम्भव नहीं था, फलतः उन्होंने २८ प्रकर के भौतिक धर्मों का विवेचन किया। इस प्रकार मनुष्य जीवन में यद्यपि अरूपधर्म प्रधान है, तथापि रूपधर्मों की भी अनिवार्यता है। अतः सभी अभिधर्मशास्त्र रूपों का भी विश्लेषण करते हैं।
शीत, उष्ण आदि कारणों से विकार को प्राप्त होने वाली पृथ्वी, अप, तेजस् आदि भौतिक धर्मों को ‘रूप’ कहा गया है। ये रूप् धर्म मनुष्य में तथा बाह्य जगत् में व्याप्त हैं। जिस प्रकारं निरन्तर उत्पन्न एवं निरुद्ध होते हुए चित्त जलधारा की तरह प्रवाह के रूप में प्रवृत्त होता रहता है, उसी प्रकार रूप का भी क्षण-क्षण में उत्पाद निरोध होता रहता है, इसे रूप प्रवाह (रूप सन्तति) कहते हैं। पूर्वपूर्व रूप से भिन्न बाद बाद की रूप सन्तति३०२
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का उत्पन्न होना ही ‘विकार’ कहलाता है। जैसे-गर्मी के समय उष्ण रूपसन्तति प्रवृत्त होती। रहती है, यदि उसी समय शीतलता हो जाने पर रूपसन्तति धीरे-धीरे उष्णारूपसन्तति से शीतरूपसन्तति के रूप में बदल जाती है तो इस प्रकार पूर्व रूपसन्तति से भिन्न होकर नयी रूपसन्तति के प्रवृत्त होने को ही ‘विकार’ कहते हैं। इसी प्रकार शीतलरूपसन्तति से भिन्न उष्ण रूपसन्तति के रूप में परिवर्तन होने को भी जानना चाहिए। शीत ऋतु में त्वचा का फटना आदि शीत से होने वाले रूप के विकार हैं। गर्मी से रक्तवर्ण हो जाना आदि उष्ण से होने वाले रूप के विकार हैं। पूर्व कर्म से कुरूप या सुन्दर रूप आदि होना कर्म से होने वाले रूप के विकार हैं। प्रसन्न एवं क्रोध चित्त होने पर चेहरे पर प्रसन्नता, मलिनता आदि होना चित्त से होने वाले रूप के विकार हैं तथा अच्छे भोजन मिलने पर पुष्ट रूप आदि होना आहार से होने वाले रूप के विकार हैं। इस प्रकार ऋतु, कर्म, चित्त एवं आहार के रूप के विकार को जानना चाहिए। निक
मा पृथ्वी अप् आदि २८ रूपों में से पृथ्वी अप्, तेजस, वायु वर्ण, गन्ध, रस और ओजस् ये आठ रूप सदा एक साथ रहते हैं। परमाणु, जो सूक्ष्म पदार्थ माना जाता है, उसमें भी ये आठ रूप रहते हैं। इनमें से पृथ्वी, अप् तेजस् और वायु को ‘महाभूत’ कहते हैं। क्योंकि इन चार रूपों का स्वभाव और द्रव्य अन्य रूपों से महान् होते हैं तथा ये ही मूलभूत होते हैं। इन चार महाभूतों का आश्रय लेकर ही वर्ण आदि अन्य रूपों की अभिव्यक्ति होती है। वर्ण, गन्ध आदि रूपों का हमें तभी प्रत्यक्ष हो सकता है, जबकि इनके मूल में संघातरूप महाभूत हों। जब महाभूतों का संघात रहेगा तब वर्ण गन्ध आदि का भी प्रत्यक्ष हो सकेगा। उमान मनुष्य के शरीर में विद्यमान चार महाभूतों के स्वभाव को समझने के लिए मृत्तिका से बनी हुई मूर्ति को उपमा से विचार किया जाता है। एक-एक रूप-समुदाय (कलाप) में विद्यमान इन चार महाभूतों को प्राकृत चक्षु द्वारा नहीं देखा जा सकता, वे परमाणु नामक अत्यन्त सूक्ष्म रूप-समुदाय (कलाप) होते हैं। अनेक रूपों (कलापों-रूप-समुदायों) का संघात होने पर ही उन्हें प्राकृत चक्षु द्वारा देखा जा सकता है। इस प्रकार अनेक रूप-समुदायों (कलापों) का संघात होने पर मनुष्य का भौतिक शरीर बन जाता है॥
भौतिक शरीर होने में मनुष्य के पूर्वकृत कर्म (चेतना) मुख्य कारण होते हैं।
रूप का विकार होने में कर्म, चित्त, ऋतु एवं आहार को कारण (प्रत्यय) माना जाता है। ये चार कारण रूप के उत्पाद में भी कारण हैं। इन चार कारणों में से किसी एक या दो कारणों से अथवा सभी चार कारणों से रूपों की उत्पत्ति होती है। मनुष्य जीवन भर अच्छे या बुरे कर्म करता रहता है। वे कर्म उसके पुनर्जन्म (पुनर्भव) में उत्पन्न होने के लिए कारण हो जाते हैं। जब तक वह जीवनमुक्त (अर्हत्) नहीं होता तब तक मनुष्य के द्वारा किये गये सभी कर्म भावी (अनागत) जीवन के लिए कारण (फलदायक) होते हैं। किसी एक कर्म के विपाक (फल) स्वरूप एवं नये जीवन में प्रवेश करते समय (माता के
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स्थविरवाद गर्भ में सर्वप्रथम प्रवेश के समय (प्रतिसन्धिकाल में) सबसे पहले चित्त, स्पष्टव्य रूप (काय), स्त्री या पुरुष का भाव (भावरूप) तथा आश्रयरूप (वस्तुरूप) ही उत्पन्न होते हैं। इसलिए रूप के उत्पाद में कर्म को एक कारण कहा है।
चित्त के प्रसन्न होने पर रूप भी प्रसन्न एवं स्वच्छ होता है तथा चित्त में क्रोध होने पर रूप लाल होता है। मनुष्य के मुख एवं शरीर को देखकर भीतरी चित्त के स्वभाव को जाना जा सकता है। इसलिए रूप के उत्पाद में चित्त को एक कारण कहा है। ऋतु भी रूप के उत्पाद में एक कारण है। शीत, उष्ण ऋतुओं के रूपों में उत्पत्ति प्रसिद्ध है। अनुकूल तथा प्रतिकूल भोजन मिलने से शरीर स्वस्थ तथा कृश हो जाता है, अतः आहार भी रूप के उत्पाद में एक कारण होता है।
उपर्युक्त कर्म, चित्त, ऋतु एवं आहार के कारण उत्पन्न रूपों की कुल संख्या २८ होती है। यथा-पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु ये चार महाभूत और इन चार महाभूतों को आश्रय करके उत्पन्न २४ उपादानरूप हैं। यथा- चक्षुष, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा एवं काय ये पांच प्रसाद रूप। सम्बद्ध आलम्बनों के प्रतिभासित होने के लिए कुछ रूप कलापों में स्वच्छ धातु होती है, उसे ही प्रसादरूप कहते हैं। ये प्रसादरूप भी रूपकलाप होते हैं। रूप, शब्द, गन्ध, रस तथा स्प्रष्टव्य ये पांच गोचर रूप हैं। चक्षुष आदि इन्द्रियाँ रूप, शब्द आदि विषयों में विचरण करती हैं। अतः रूप शब्द आदि को गोचररूप कहते हैं। स्त्रीत्व और पुरुषत्व ये दो भाव रूप हैं, ये दो स्त्रीभाव और पुरुषभाव का प्रकाशन करते हैं, अतः भावरूप कहलाते हैं। यह भावरूप भी कायप्रसाद की तरह प्रतिसन्धिक्षण (माता के गर्भ में सर्वप्रथम प्रवेश काल) से ही शरीर में उत्पन्न हो जाने के कारण काय प्रसाद की तरह सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त होकर विद्यमान रहने वाला रूप है। जैसे- वृक्ष के अंकुर, पत्र, पुष्प एवं फल आदि अपने बीज के अनुसार उत्पन्न होते हैं, उसी तरह प्रतिसन्धि के साथ उत्पन्न भावरूप के अनुसार ही स्त्री एवं पुरुष शरीर में लिंग, निमित्त, आकार आदि उत्पन्न होते हैं। हृदयरूप, जिस रूप द्वारा उन-उन अर्थों या अनर्थों को पूर्ण किया जाता है, उस हृदयवस्तु को ही ‘हृदयरूप’ कहते हैं। जीवितरूप जो सह उत्पन्न कर्मजरूपों (कर्म से उत्पन्न रूपों) का अनुपालन करता है अर्थात् वह कर्मजरूपों की आयु है। आहाररूप, जिस आहार का केवल (कौर) किया जाता है, उसे कवलीकार आहार कहते हैं। यहाँ कवलीकार आहार को ही
आहार कहते हैं। हम उपर्युक्त चार महाभूत, पाँच प्रसाद, चार गोचर, दो भावरूप, हृयरूप जीवित रूप एवं आहार- इन १८ रूपों को अपने स्वभाव से विद्यमान रहने के कारण स्वभावरूप, सलक्षणरूप तथा निष्पन्नरूप कहते हैं। शेष आकाशधातु (परिच्छेदरूप) कायविज्ञप्ति, वाविज्ञप्ति, रूप की लक्षुता, मृदुता, कर्मण्यता तथा रूप की उत्पत्ति (उपचय), सन्तति, जरता एवं अनित्यता-इन दस रूपों को अनिष्पन्न रूप कहते हैं, वे दस रूप अपने स्वभाव में
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विद्यमान नहीं हैं, अपितु उपर्युक्त अठारह निष्पन्न रूपों के लक्षणमात्र होते हैं। इन २८ रूपों को लोभ, द्वेष आदि हेतुओं से उत्पन्न न होने के कारण अहेतुक, कर्म, चित्त ऋतु और आहार इन चार प्रतययों से उत्पन्न होने से सत्प्रययरूप, लोभ, दृष्टि और मान इन क्लेशों को आस्रव कहते हैं। रूप इन आस्रवों के साथ उत्पन्न होते हैं, अतः इन्हें सास्रव कहते हैं। ये रूप कर्म, ऋतु एवं आहार द्वारा अभिसंस्कृत किये गये हैं, अतः इन्हें संस्कृत कहते हैं। ये रूप धर्म संसार (लोक) में संगृहीत होते हैं, अतः इन्हें लोकिय कहते हैं। ये कामतृष्णा के आलम्बन होते हैं, अतः इन्हें कामावचर कहते हैं। ये किसी आलम्बन को ग्रहण नहीं करते हैं, अतः इन्हें अनालम्बन कहते हैं तथा ये (रूप) प्रहाण करने योग्य नहीं हैं, अतः अप्रहातव्य कहते हैं।
निर्वाण :- उपर्युक्त चित्त, चैतसिक और रूप धर्मों का यथार्थ ज्ञान हो जाने पर निर्वाण का साक्षात्कार किया जा सकता है। यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति करने के लिए साधना (विपश्यना) करना चाहि। साधना (विपश्यना) के द्वारा जो ज्ञान को प्राप्त करता है, वह आर्यपुद्गल है, आर्यपुद्गल ही निर्वाण का साक्षात्कार कर सकते हैं। जिसके दुख और दुःख के कारण (तृष्णा-समुदय) निवृत्त हो जाते हैं, वही निर्वाण का साक्षात्कार कर सकता है, अतः दुःख तथा तृष्णा से आत्यन्तिकी निवृत्ति ही ‘निर्वाण’ कहलाता है। यद्यपि निर्वाण दुःखों से आत्यन्तिकी निवृत्ति मात्र का निरोध मात्र को कहते हैं, तथापि वह अभाव नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह आर्यजनों के द्वारा साक्षात् करने योग्य है अर्थात निर्वाण ज्ञानप्राप्त आर्यजनों का विषय (आलम्बन) होने से अभाव नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः वह अत्यन्त सक्ष्म धर्म होने से साधारण जनों के द्वारा जानने एवं कहने योग्य नहीं होने पर भी वह आर्यजनों का विषय होता है। इसलिए निर्वाण को एक परमार्थ धर्म कहते हैं।
- एक जीवन (भव) से दूसरे जीवन को जोड़ने में कारणभूत तृष्णा को ‘वान’ कहते हैं। उस वान (तृष्णा) से निर्गत होने के कारण वह निर्वाण कहा जाता है। निर्वाण मार्गज्ञान द्वारा प्राप्तव्य मात्र है, उत्पादनीय नहीं। वह उत्पाद, स्थिति एवं भंग लक्षणों से युक्त न होने से नित्य है। रूप स्वरूप का अभाव होने से अरूप है, सर्व प्रपञ्चों से अतीत होने से निष्प्रपञ्च है. राग. द्वेष एवं मोह के साथ नाम-रूप धर्मों से शन्य होने के कारण शन्य है, कोई आकार (संस्थान) न होने से अनियमित है तथा कर्म, चित्त, ऋतु एवं आहार से असंस्कृत है।
निर्वाण शान्ति सुख लक्षण वाला है। यहाँ सुख दो प्रकार का होता है- शान्ति सुख एवं वेदयितसुख। शान्तिसुख वेदयितसुख की तरह अनुभूतियोग्य सुख नहीं है। किसी एक विशेष वस्तु का अनुभव न होकर वह उपशमसुख मात्र है। अर्थात् दुःखों से उपशम होना ही है। निर्वाण के स्वरूप के विषय में आजकल नाना प्रकार की विप्रतिपत्तियाँ हैं। कुछ लोग निर्वाण को रूप विशेष एवं नाम विशेष कहते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि नाम-रूपात्मक स्थविरवाद ३०५ स्कन्ध के भीतर अमृत की तरह एक नित्यधर्म विद्यमान है, जो नामरूपों के निरुद्ध होने पर भी अवशिष्ट रहता है, उस नित्य, अजर, अमर, अविनाशी के रूप में विद्यमान रहना ही निर्वाण है, जैसे- अन्य भारतीय दार्शनिकों के मत में आत्मा। कुछ लोगों का मत है कि निर्वाण की अवस्था में यदि नामरूप धर्म न रहेंगे तो उस अवस्था में सुख का अनुभव भी कैसे होगा इत्यादि __ वस्तुतः निर्वाण चित्त, चैतसिक एवं रूप नामक परमार्थ धर्मों से पृथक एक परमार्थ धर्म है, अतः नाम-रूप संस्कारों से सर्वथा असम्बद्ध होने के कारण वह नाम विशेष एवं रूप विशेष नहीं हो सकता। निर्वाण स्कन्ध (शरीर) के अन्तर्गत रहने वाला अमृत की तरह कोई अविनाशी नित्यधर्म भी नहीं हो सकता। निर्वाण पुद्गल एवं सत्त्व की तरह कोई वेदक धर्म भी नहीं है और न रूप, शब्द आदि आलम्बनों की तरह वेदयितव्य धर्म ही है। अतः निर्वाण में वेदयितव्य सुख नहीं है, किन्तु उसमें उससे कोटिगुण अधिक शान्तिसुख एकान्त रूप से होता है। दुःख से निवृत्त शान्तिसुख ही परमसुख है। जैसे किसी आलम्बन को प्राप्त करने वाले किसी व्यक्ति को उस आलम्बन के विषय में यथाभूत ज्ञान होता है, उसी प्रकार निर्वाण को प्राप्त ज्ञानी आर्य ही निर्वाण के स्वरूप का यथाभूत ज्ञान कर सकते हैं तथा उसका प्रामाणिक रूप से प्रतिपादन कर सकते हैं। सामान्य जन गम्भीर निर्वाण को यथार्थ रूप से नहीं जान सकते। वे अनुमान से ही उसके स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं इसलिए जगत् के दुःखों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करके उन दुःखों से अत्यन्त निवृत्त निर्वाण के शान्तिसुख के उपशमस्वभाव को जानना चाहिये। ____ बौद्ध दुःखमय जगत् से अच्छी तरह परिचित है। संसार दुःख ही है, उसमें सुख लेशमात्र भी नहीं है दुःखों से छुटकारा पाने को सुख कहते हैं, अतः तात्कालिक सुख की कामना करना व्यर्थ है, बल्कि दुःखों से निवृत्ति के लिए ही प्रयत्न करना चाहिए। निर्वाण हो जाने पर आत्मा जैसी कोई अविनाशी वस्तु अवशिष्ट नहीं रहा करती है। जिस प्रकार दीपक के जलने के लिए आवश्यक तेल आदि पदार्थ के अवशिष्ट न रहने पर दीपज्वाला (लौ) अपने आप बुझ जाती है, उसी प्रकार निर्वाण की अवस्था में पुनः निर्वाण (निरोध) के लिए कोई नाम रूप आदि अवशिष्ट नहीं रहते॥
दुःखों के अभाव या क्लेशाभाव को जो निर्वाण कहा गया है, वह परम निर्वाण नहीं है, अपितु व्यावहारिक (प्रज्ञप्ति) निर्वाण है। परमनिर्वाण एक परमार्थ धर्म है, उस परमनिर्वाण को जानना सरल नहीं है। बुद्ध ने निर्वाण के स्वरूप की विशेषतया व्याख्या नहीं की। शायद बुद्ध के समय में लोग निर्वाण के स्वरूप को जानते होंगे, क्योंकि निर्वाण के स्वरूप के बारे में बुद्ध से प्रायः प्रश्न नहीं किये गये, केवल मुक्त व्यक्ति के मरने के बाद होने वाली दशा के बारे में हो वे प्रश्न पूछते थे। बाद में बौद्धों के लिए निर्वाण एक रहस्यमय विषय नन गया। जितने आचार्य हुए हैं, उतने ही निर्वाण के भिन्न-भिन्न स्वरूप हो गये हैं। यहाँ पर स्थविरवादी दृष्टि से निर्वाण के स्वरूप का संक्षिप्त विचार प्रस्तुत है।
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बौद्धदर्शन असंस्कृत परमनिर्वाण सभी दुःखों से अशेष निरोध (निरोध-निर्वाण) मात्र नहीं है, वह तो व्यावहारिक (प्रज्ञप्ति) निर्वाण है। तथागत और अर्हत् (मुक्त व्यक्ति) की सन्तान में उत्पन्न अर्हत्-मार्गचित्त के निर्वाण का आलम्बन करके उत्पन्न होते समय अविद्या और तृष्णा नामक क्लेश समूल नष्ट या निरुद्ध हो जाते हैं। अनादिकाल से चित्त के साथ संयुक्त रहने वाले क्लेशों के समूल निरुद्ध हो जाने पर उनसे कार्य-कारण भाव से सम्बद्ध कर्म-विपाक भी नष्ट हो जाते हैं। संसारी सामान्यजनों की सन्तान में निरन्तर उत्पन्न होने वाले पाँच स्कन्ध (नाम-रूप) भी तथागत और अर्हतों में पुनः उत्पन्न नहीं होते। वे अशेष निरुद्ध हो जाते हैं। इस प्रकार का निरोध (निरोध निर्वाण) परमनिर्वाण नहीं, अपितु परमनिर्वाण का फल (विपाक) मात्र है। उसी प्रकार का विपाक निर्वाण (निरोध निर्वाण) तो क्लेशाभाव का प्रदर्शन करने वाला व्यावहारिक (प्रज्ञप्त) अर्थमात्र है अर्थात् अभावार्थमात्र है।
यदि सभी दुःखों के अशेष निरोध को परमनिर्वाण कहेंगे तो वह बुद्ध के वचनों के विरुद्ध हो जायेगा। बुद्ध ने परमनिर्वाण को नित्य, ध्रुव, निपुण, शाश्वत्, अनुत्तर, अद्भुत आदि कहा है। जिस प्रकार दीपक (दिया) नहीं है, प्रकाश अन्धकार को हटाता है, उस अन्धकार का अभाव प्रकाश नहीं है, उसी प्रकार निरोध मात्र परमनिर्वाण नहीं है, उसे दुःखों का अभाव कहना तो व्यावहारिक अर्थमात्र है। परमनिर्वाण तो उन सबसे परे तथागत और अर्हतों के द्वारा साक्षात् करणीय होने से वह एक परमार्थ धर्म है।
निर्वाण द्विविध है- सोपधिशेष (सउपादिसेस), और अनुपधिशेष (अनुपादिसेस)। इनमें तथागत और अर्हतों की सन्तान में निर्वाण का आलम्बन करके अर्हत्-मार्गचित्त उत्पन्न होते समय सभी सांक्लेशिक धर्म अशेष निरुद्ध हो जाते हैं, केवल क्लेशों का निरोधमात्र होता है, इसे सोपधिशेष निर्वाण कहते हैं। जी
जना तथागत और अर्हत् के मरते समय (परिनिर्वाण करते समय) उनके पाँच स्कन्ध नये भव में पुनः उत्पन्न होकर अशेष निरुद्ध या उपशान्त हो जाते हैं, उन पाँच स्कन्धों के अशेष निरोध या उपशम को अनुपधिशेष निर्वाण कहते हैं। उपर्युक्त दोनों निर्वाण भी परमनिर्वाण नहीं हैं। परमनिर्वाण तो पांच स्कन्धों के अशेषनिरोध के अनन्तर उत्पन्न निर्वाण कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि निर्वाण उत्पन्न होने वाला धर्म नहीं है, यदि उत्पन्न होने वाला हो तो उनकी स्थिति और भंग भी सम्भव होगा। उत्पाद, स्थिति और भंग होने पर निर्वाण त्रैकालिक हो जायेगा। बुद्ध ने भी कहा था कि निर्वाण, अजात, अभूत, अकृत और असंस्कृत है। वस्तुतः अज्ञात (अनुत्पन्न) होने पर भी वह अभाव नहीं है। परमार्थतः उसकी सत्ता है, उसकी सत्ता होने पर भी वह चित्त, चैतसिक और रूप परमार्थों की तरह किसी एक कारण (हेतु) से उत्पन्न होन वाला नहीं है। वह नित्य ध्रुव है। नित्य ध्रुव होने से वह कब से उत्पन्न है-ऐसा भी कहा नहीं जा सकता, उत्पन्न स्वभाव नहीं होने से इसका स्थिति और भंग स्वभाव भी नहीं है, इसलिए इस परमनिर्वाण को अज्ञात, अभूत, अकृत और
स्थविरवाद
३०७ असंस्कृत कहा गया है। परम निर्वाण नित्य, ध्रुव, शाश्वत है। अतः उत्पाद निरोध से परे नित्य निर्वाण में कैसे ‘निरोध’ होगा तथा कैसे वह क्लेशक्षय मात्र होगा ? निरोधस्वभाव और क्षयस्वभाव आदि परमनिर्वाण में कथमपि नहीं हो सकते। तथागत और अर्हत् ही उस परमनिर्वाण के स्वभाव को यथार्थ जानते हैं, वह सामान्यजनों का विषय नहीं है।
ह
शील-विमर्श
जिन आचरणों के पालन से चित्त में शान्ति का अनुभव होता है, ऐसे सदाचरणों को सदाचार (शील) कहते हैं। सामान्यतया आचरणमात्र को शील कहते हैं। चाहे वे अच्छे हों, चाहे बुरे, फिर भी रूढ़ि से सदाचार ही शील कहे जाते हैं। किन्तु केवल सदाचार का पालन करना ही शील नहीं है, अपितु बुरे आचरण भी ‘शील’ (दुःशील) हैं। अच्छे और बुरे आचरण करने के मूल में जो उन आचरणों को करने को प्रेरणा देने वाली एक प्रकार की भीतरी शक्ति होती है, उसे चेतना कहते हैं। वह चेतना ही वस्तुतः ‘शील’ है। इसके
अतिरिक्त चैतसिक ‘शील’ संवरशील और अव्यतिक्रम शील- ये तीन शील और होते हैं। इन तीनों के मूल में भी चेतना बराबर रहती है।
चेतनाशील- जीवहिंसा से विरत रहने वाले या गुरु, उपाध्याय आदि की सेवा सुश्रुषा करने वाले पुरुष की चेतना (चेतना शील) है। अर्थात् जितने भी अच्छे कर्म (सुचरित) हैं, उनका सम्पादन करने की प्रेरिका चेतना ‘चेतना शील’ है। जब तक चेतना न होगी तक तक पुरुष शरीर या वाणी से अच्छे या बुरे कर्म नहीं कर सकता। अतः अच्छे कर्म को सदाचार (शील) कहना तथा बुरे कर्म को दुराचार कहना, उन (सदाचार, दुराचार) का स्थूल रूप से कथन है। वस्तुतः उनके मूल में रहने वाली चेतना ही महत्त्वपूर्ण है, इसीलिए भगवान् बुद्ध ने ‘चेतनाहं भिक्खवे, कम्मं वदामि’ (अर्थात् भिक्षुओं, मैं चेतना को ही कर्म कहता हूँ) कहा है। स्ट चैतसिक शील - जीवहिंसा आदि दुष्टकर्मों से विरत रहने वाले पुरुष की वह विरति ‘चैतसिक शील’ है। अर्थात् दुष्कर्मों के करने से रोकने वाली शक्ति ‘विरति’ है। यह विरति भी एक प्रकार का ‘शील’ है, अतः इसे ‘विरति शील’ भी कहते हैं। अथवा लोभ, द्वेष मोह आदि का प्रहाण करने वाले पुरुष के जो अलोभ, अद्वेष, अमोह हैं, वे ‘चैतसिक शील’ हैं। अर्थात् जिस पुरुष की सन्तान में लोभ, मोह न होंगे वह काय दुच्चरित आदि दुष्कर्मों में विरत रहेगा। अतः इन्हें (अलोभ आदि को) ‘विरति शील’ कहते हैं।
_____संवरशील - बुरे विषयों की ओर प्रवृत्त इन्द्रियों की उन विषयों से रक्षा करना। अर्थात् अपनी इन्द्रियों को बुरे विषयों में न लगने देना, इस प्रकार अपने द्वारा स्वीकृत आचरणों की रक्षा करना, ज्ञान के द्वारा क्लेश (नीवरण) धर्मों को उत्पन्न होने से रोकना, विपरीत धर्मों से समागम होने पर उन्हें सहन करना तथा उत्पन्न हो गये काम-वितर्क आदि को उत्पन्न न होने देने के लिए प्रयास करना ‘संवर शील’ है।
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बौद्धदर्शन अव्यतिक्रम शील- गृहीत व्रतों (शिक्षाप्रदों) का काय और वाक् के द्वारा उल्लंघन न करना (अनुल्लंघन) अव्यतिक्रम शील कहलाता हैं। अर्थात् जिस पुरुष ने यह प्रतिज्ञा की है कि मैं प्राणी-हिंसा न करूँगा-ऐसे पुरुष का किसी भी परिस्थिति में शरीर या वाणी द्वारा अपनी प्रतिज्ञा का उल्लंघन न करना ‘अव्यतिक्रम शील’ है। ____चारित्त शील, वारित्त शील -यद्यपि शील अनेकों प्रकार के हैं, तथापि उनका चारित्त शील और वारित्त शील इन दो में संग्रह हो जाता है। जिन कर्मों का सम्पादन करना चाहिए, उनका सम्पादन करना ‘चारित्त शील’ है तथा जिन्हें नहीं करना चाहिए, उन्हें न करना ‘वारित्त शील’ है। भगवान् बुद्ध ने विनय पिटक में भिक्षुओं के लिए जो करणीय आचरण कहे हैं, उनके करने से यद्यपि ‘चारित्त शील’ पूरा हो जाता है, और निषिद्ध कर्मों के न करने से ‘वारित्त शील’ पूरा हो जाता है, तथापि उन्होंने निर्वाण प्राप्ति के लिए जो मार्ग प्रदर्शित किया है, उसे अपने जीवन में उतारने से ही चरित्त शील, भलीभांति पूरा होता है।
नित्यशील -प्राणातिपात से विरत रहना, चोरी से विरत रहना, मृषावाद से विरत रहना, काम मिथ्याचार से विरत रहना, तथा शराब आदि मादक द्रव्यों के पीने से विरत रहना- ये पाँच नित्य शील हैं। अर्थात् इनके पालन से कोई पुण्य नहीं होता, किन्तु इनका पालन न करने से दोष (आपत्ति) होता है। ये ५ शील सभी लोगों के लिए अनिवार्य हैं। गृहस्थ, प्रव्रजित (श्रामणेर), भिक्षु-भिक्षुणी सभी को इनका पालन करना चाहिए। यदि गृहस्थ श्रद्धा और उत्साह से सम्पन्न हो तो वह अष्टमी, पूर्णिमा अमावस्या (उपोसथ) के दिन ८ या १० शीलों का भी पालन कर सकता है। इन्हें अष्टाङ्गशील या दशशील कहते हैं। यो अष्टाङ्गशील-१. प्राणि-हिंसा से विरत रहना, २. चोरी न करना, ३. ब्रह्मचर्य का पालन करना, ४. झूठ बोलने से विरत रहना, ५. शराब आदि मादक द्रव्यों के सेवन से विरत रहना, ६. दोपहर १२ बजे के बाद (विकाल में) भोजन न करना, ७. नृत्य, गीत आदि न देखना, न सुनना तथा माला, सुगन्ध आदि का इस्तेमाल न करना तथा ८. ऊँचे और श्रेष्ठ आसनों का त्याग करना।
दश शील - उपर्युक्त अष्टाङ्ग शील के ७वें शील को दो भागों में विभक्त कर दिया जाता है, इस तरह वेर के स्थान पर ६ हो जाते हैं तथा उसमें स्वर्ण, चाँदी आदि का ग्रहण न करना एक शील को और जोड़ दिया जाता है, इस तरह कुल १० शील हो जाते हैं।
ये दश शील ही प्रव्रजित (श्रामणेर) और प्रव्रजिता (श्रामणेरी) के लिए अनिवार्य शील हैं। ___ भिक्षु और भिक्षुणी के लिए तो उन सभी शीलों का पालन आवश्यक है, जो विनयपिटक के प्रातिमोक्षसुत्त में भगवान् बुद्ध द्वारा उनके लिए उपदिष्ट हैं।
ऊपर जो शील कहे गये हैं, वे बौद्ध धर्म के अनुसार वर्णित हैं। इनके पालन से चित्त विशुद्ध होता है और आगे समाधि भावना आदि करने में सहायता मिलती है। किन्तु
स्थविरवाद
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शील और भी कई प्रकार के होते हैं। अपनी जाति, धर्म, देश, काल, परिस्थिति, संस्कार और परम्परा आदि के अनुसार भी कुछ आचरण आवश्यक होते हैं, वे भी सब शील ही हैं।
चातुपरिशुद्धि शील- ऊपर जो शील कहे गये हैं, वे सामान्यतया गृहस्थ आदि की दृष्टि से प्रहाण करने योग्य शील हैं। योगी भिक्षुओं के लिए विशेषतः क्लेशों के प्रहाण के लिए ४ प्रकार के परिशुद्धिशीलों का पालन करना आवश्यक होता है और सभी शील इनके
अन्तर्गत आ जाते हैं। अतः इनका यहाँ प्रतिपादन किया जा रहा है
१. प्रातिमोक्ष संवरशील - जिनके पालन से मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है, ऐसे आचरणों (शिक्षापदों) को ‘प्रातिमोक्ष’ कहते हैं। उन आचरणों की रक्षा करना ही ‘प्रातिमोक्ष संवरशील’ है। इनके पालन के लिए श्रद्धा का होना परम आवश्यक है। बुद्ध शासन के प्रति श्रद्धा होने पर ही बुद्ध के द्वारा उपदिष्ट आचरणों (शिक्षापदों का पालन किया जा सकता है। भिक्षु में जब श्रद्धा का आधिक्य होता है, तो वह बुद्ध द्वारा उपदिष्ट अपने शीलों का उसी प्रकार सावधानी के साथ आचरण करता है, जिस प्रकार चामरी गाय अपनी पूँछ की, माता अपने एकमात्र प्रिय पत्र की तथा काणा व्यक्ति अपनी एक आँख की सावधानी के साथ आचरण करता है। वह छोटे-छोटे नियमों का भी ठीक ढंग से पालन करता है और उनके उल्लंघन में भय देखता है। प्रातिमोक्ष संवर से सम्पन्न भिक्षु को केवल उतने ही नियमों का पालन आवश्यक नहीं है, जो बुद्ध द्वारा उनके लिए उपदिष्ट हैं, अपितु उसे उन सभी आचरणों का पालन करना चाहिए, जिन्हें वह अच्छा समझता है या श्रेष्ठ वृद्ध भिक्षु जिन आचरणों का पालन करते हैं या जो आचरण समाज में अच्छे माने जाते हैं या जिनके पालन से लोगों की बौद्ध धर्म के प्रति श्रद्धा बढ़े।
२. इन्द्रिय संवरशील - चक्षु आदि इन्द्रियों की रक्षा करना ‘इन्द्रिय संवरशील’ है। जब भिक्षु उपर्युक्त प्रातिमोक्ष संवरशील से सम्पन्न हो जाता है, तब वह इन्द्रिय संवरशील का भी पालन करने में समर्थ हो जाता है। ये दोनों शील वस्तुतः परस्पराश्रित होते हैं। जो प्रातिमोक्षसंवर शील से सम्पन्न होता है, वह इन्द्रिय संवरशील का भी पालन करता है तथा जो इन्द्रिय संवरशील से सम्पन्न होता है, वह प्रातिमोक्ष संवरशील का भी पालन करता है। इन्द्रिय संवरशील से सम्पन्न होने के लिए अपने चक्षु आदि इन्द्रियों की रक्षा की जाती है। जैसे- जब चक्षु के सम्मुख वर्ण (रूप) उपस्थित होता है तो उस रूप के प्रति राग आदि का उत्पाद नहीं होने देना चाहिए। इसलिए इस शील की सम्पन्नता के लिए स्मृति परम आवश्यक होती है। जब स्मृति उपस्थित रहेगी तभी इन्द्रियों के सम्मुख उपस्थित विषयों के प्रति राग आदि उत्पन्न न होने देने का सामर्थ्य हो सकता है। स्मृतिमान भिक्षु के चक्षु के
सम्मुख जब विषय (रूप) आता है, तो स्मृति के बल से वह भिक्षु यह जानता है कि विषय - और इन्द्रिय के होने पर चक्षुर्विज्ञान उत्पन्न होता है। विषय, इन्द्रिय और विज्ञान तीनों
उत्पाद-विनाश स्वभाव वाले हैं। ऐसी स्मृति की वजह से वह केवल रूप मात्र देखता है,
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बौद्धदर्शन उसके प्रति उसमें राग आदि उत्पन्न नहीं होते। उसकी स्मृति अनिष्ट आलम्बनों के प्रति होने वाली इन्द्रियों की प्रवृत्ति को भी रोकती है। स्मृति के द्वारा जब इन्द्रियों की रक्षा कर ली जाती है, तब भिक्षु के आचरण में बड़ा फर्क आ जाता है। उसकी इन्द्रियों के सम्मुख जब विषय आते हैं, तो वह उनका ग्रहण मात्र करता है वे विषय कैसे उत्पन्न हुए, कहां से आये-इत्यादि विशेष बातों की जानकारी के लिए आकृष्ट नहीं होता। इस प्रकार उनके प्रति वह राग या द्वेष आदि से युक्त नहीं होता। जब वह भिक्षाटन के लिए रास्ते में चलता है, तो ४ हाथ से अधिक दूर नहीं देखता। उसकी निगाहें या अन्य इन्द्रियां चंचल नहीं होतीं। . उसकी शारीरिक चेष्टाएं शान्त एवं अनुद्विग्न होती हैं। ___ आजीव पारिशुद्धिशील - अपनी जीविका चलाने के लिए गलत (पापमूलक) साधनों का प्रयोग न करना ‘आजीव पारिशुद्धिशील’ है। जब कोई व्यक्ति भिक्षु-दीक्षा ग्रहण करता है, तो उसे दीक्षा के साथ ही भिक्षापात्र भी मिल जाता है, जिसे लेकर वह गाँव-नगर में घूमता है और श्रद्धालु लोगों द्वारा श्रद्धापूर्वक जो भी भोजन, वस्त्र आदि दिये जाते हैं, उनसे अपनी जीविका चलाता है। उसका यह आचरण ही ‘आजीव पारिशुद्धिशील’ है ऐसा न कर यदि वह अपनी जीविका के लिए झूठ बोलता है, चापलूसी करता है तथा इसी तरह अन्य गलत साधनों का उपयोग करता है तो उसका यह आचरण आजीव पारिशुद्धिशील न होकर ‘दुराजीव’ कहलाता है। आजीव पारिशुद्धिशील की सम्पन्नता के लिए उत्साह (वीर्य) की परम आवश्यकता है। उत्साहवान् व्यक्ति ही अनुचित साधनों से प्राप्त लाभ का त्याग कर सकता है तथा कष्ट भोगकर भी जीवन-यापन कर सकता है। संघ से या गण से, धर्मोपदेश से अथवा अपने शील, समाधि, प्रज्ञा आदि गुणों को देखकर लोगों से प्राप्त भोजन आदि ही परिशुद्ध है। उनका सेवन किया जा सकता है। आजीव पारिशद्धिशील से सम्पन्न भिक्ष भोजन आदि के न मिलने से चाहे मृत्यु को प्राप्त हो जाय, किन्तु वह उन (भोजन आदि) के लिए गलत साधनों का उपयोग नहीं करता है। इस प्रकार की धारणा वाला भिक्षु ही आजीव पारिशुद्धिशील से सम्पन्न हो सकता है।
प्रत्ययसन्निश्रित शील - वस्त्र, (चीवर), भोजन (पिण्डपात), शयनासन (विहार) तथा औषधि (ग्लानप्रत्ययभैषज्य) - इन चार वस्तुओं को प्रत्यय कहते हैं। जो भिक्षु इन चार वस्तुओं को ही अपने जीवन का साधन बनाता है, उस भिक्षु का यह आचरण ही ‘प्रत्ययसन्निश्रित शील’ कहलाता है। इस शील की सम्पन्नता के लिए ‘प्रज्ञा’ की परम आवश्यकता है। यद्यपि भगवान् बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को तीन वस्त्र और भोजन आदि का आश्रय लेकर जीवन चलाने के लिए कहा है, तथापि इनका इस्तेमाल खूब सोच-विचार करके किया जाता है। जैसे-कोई भिक्षु चीवर का सेवन करता है, तब यह सोचता है कि यह चीवर शरीर की शोभा बढ़ाने के लिए नहीं है, अपितु शीत, वर्षा, धूप से तथा मच्छर, मक्खी, डंस आदि से शरीर की रक्षा के लिए है। जब वह भोजन ग्रहण करता है तब
स्थविरवाद
३११ सोचता है- यह भोजन शरीर को पुष्ट बनाने के लिए नहीं है, अपितु उस शरीर की स्थिति के लिए है, जिस (शरीर) से ब्रह्मचर्य का पालन, समाधि भावना तथा निर्वाण की प्राप्ति की जा सके। जब भिक्षु शयनासन (विहार) का सेवन करता है, तब सोचता है- ‘यह विहार (मठ) सुखभोग के लिए नहीं है, अपितु ऋतुओं के प्रतिकूल प्रभावों से बचाने के लिए है। जब भिक्षु भैषज्य (दवाई) का प्रयोग करता है, तब सोचता है- यह औषधि शरीर को पुष्ट बनाने के लिए है, अपितु शरीर में उत्पन्न वेदनाओं के शमन के लिए है। उन वेदनाओं से शरीर में पीड़ा होती है, फलतः ध्यानभावना में बाधा होती है। इसलिए वह दवा का सेवन करता है। इस तरह जब भिक्षु इन चारों चीवर आदि जीवन साधनों (प्रत्ययों) का सेवन करता है, तब उपर्युक्त प्रकार से विचार करके सेवन करता है। यदि इस प्रकार का विचार करके सेवन नहीं करता है, तो उस प्रकार का परिभोग (सेवन) ‘हीनपरिभोग’ कहलाता है। यदि दुःशील भिक्षु इन चार प्रत्ययों का परिभोग भिक्षु संघ के बीच बैठकर ही केवल नहीं करता है, तो उसका वह परिभोग ‘चौर्यपरिभोग’ (स्तेयपरिभोग) कहलाता है। अर्हत को छोड़कर अन्य आर्य पुद्गलों (शैक्ष्य) का इन चार प्रत्ययों का परिभोग ‘दायाद परिभोग’ कहलाता है। शैक्ष्य आर्य पुद्गल भगवान् बुद्ध के उत्तराधिकारी हैं। ये चार प्रत्यय भगवान् के द्वारा उपदिष्ट हैं। अतः उनकी सम्पत्ति हैं। आर्य पुद्गल ही उन (भगवान बुद्ध) की सम्पत्ति के योग्य उत्तराधिकारी हैं। अतः उनका परिभोग ‘दायाद परिभोग’ कहलाता है। क्षीणास्रव अर्हत् का परिभोग ‘स्वामी-परिभोग’ है। अर्हत् पुद्गल की अशेष तृष्णा का प्रहाण हो चुका है। उसने भगवान् की शिक्षा का पूर्ण रूप से पालन कर लिया है। अतः वह उन प्रत्ययों के विषय में स्वामी की तरह हो जाता है। फलतः उसका परिभोग ‘स्वामी परिभोग’ कहलाता है। जो भिक्षु अपने साधनापथ में अग्रसर होना चाहता है, उसके लिए इन शीलों का पालन अत्यावश्यक होता है। यदि वह इन शीलों का यथावत् पालन कर लेता है तो उसके राग आदि क्लेश क्षीण बल हो जाते हैं। फलतः ध्यान भावना आदि के मार्ग में
उत्तरोत्तर विकास करने में उसे इनसे पर्याप्त सहायता मिलती है।
धुतांग- उपर्युक्त शीलों के पालन से यद्यपि भिक्षु परिशुद्धशील हो जाता है, तथापि जो भिक्षु अल्पेच्छता, अल्पसन्तुष्टि आदि गुणों से युक्त होते हैं, वे यदि अपने शीलों को और पवित्र करना चाहते हैं, तो भगवान बुद्ध ने उनके लिए १३ प्रकार के परिशुद्ध शीलों अर्थात् धुतांगों का उपदेश किया है।
इन शीलों का पालन करने वाले जो भिक्षु दायकों द्वारा श्रद्धापूर्वक दिये गये वस्त्र का ग्रहण नहीं करते, अपितु वे गली कूचे में कूड़े आदि पर पड़े हुए वस्त्रों को इकट्ठा कर लेते हैं। तदनन्तर उन्हें धोकर साफ करते हैं। इसके बाद फटा-फटा अंश निकालकर अच्छे के टुकड़ों को जोड़कर उनसे वस्त्र (चीवर) बनाकर उन्हें धारण करते हैं। ऐसे भिक्षु को
‘पासुकूलिक’ कहते हैं और उसके इस आचरण को ‘पासुकुलिकांग’ कहते हैं। ३१२
बौद्धदर्शन
जो भिक्षु अपने लिए तीन चीवर से अधिक वस्त्र किसी भी हालत में ग्रहण नहीं करता, ऐसे भिक्षु को ‘त्रैचीवरिक’ कहते हैं और उसके आचरण को ‘त्रैचीवरिकांग’ कहते हैं। तीन चीवर ये है। - १. नीचे लुंगी की तरह पहना जाने वाला वस्त्र (अन्तरवासक), २. ऊपर धारण करने वाला वस्त्र (उत्तरासंग) तथा ३. चादर की तरह ओढ़ने-बिछाने के काम में आने वाला वस्त्र (संघाटी)।
जो भिक्षु निमन्त्रण आदि में जाकर भोजन ग्रहण नहीं करते, अपितु भिक्षाटन के द्वरा प्राप्त भोजन का ही ग्रहण करते हैं, ऐसे भिक्षुओं के आचरण को ‘पिण्डपातिकांग’ कहते
है
जो भिक्षु भिक्षाटन करते समय बीच-बीच में कुछ घरों को छोड़कर भिक्षाटन नहीं करता, अपितु बिना किसी घर को छोड़े प्रत्येक घर से भिक्षा ग्रहण करता है, ऐसे भिक्षु को सापदानचारी कहते हैं तथा उसके आचरण को ‘सापदानचारिकांग’।
जो भिक्षु एक ही आसन पर बैठकर भोजन करता है, उसे ‘एकासनिक’ कहते हैं तथा उसके आचरण को ‘ऐकासनिकांग’ कहते हैं।
जो भिक्षु अपने एक ही पात्र में स्थित भोजन को ही ग्रहण करता है। दूसरे पात्र में स्थित भोजन को ग्रहण नहीं करता उसे ‘पात्रपिण्डक’ कहते हैं और उसके आचरण को ‘पात्रपिण्डिकांग’ कहते हैं।
जो भिक्षु एक बार इनकार करने के बाद फिर उस भोजन को ग्रहण नहीं करता, उसे ‘खलुपच्छाभत्तिक’ कहते हैं तथा उसके इस आचरण को ‘खलुपच्छाभत्तिकांग’ कहते
हैं
____ जो भिक्षु विहार (शयनासन) का छोड़कर केवल जंगल में ही निवास करते हैं, ऐसे भिक्षु को ‘आरण्यक’ कहते हैं तथा उनके इाचरण को ‘आरण्यकांग’ कहते हैं।
जो विहार को छोड़कर केवल वृक्ष के मूल में ही निवास करते हैं, ऐस भिक्षु को ‘वृक्षमूलिक’ कहते हैं तथा उसके आचरण को ‘वृक्षमूलिकांग’ कहते हैं।
_ जो भिक्षु छाये हुए स्थान और वृक्षमूल को छोड़कर खुले मैदान में रहता है, ऐसे भिक्षु को ‘अभ्यवकाशिक’ कहते हैं तथा उसके आचरण को ‘अभ्यवकाशिकांग’ कहते हैं।
जो भिक्षु केवल श्मशान में ही निवास करते हैं, ऐस भिक्षु को ‘श्मशानिक’ कहते हैं तथा उसके आचरण को ‘श्मशानिकांग’ कहते हैं। __जो भिक्षु अपने लिए बिछाये आसन का ही ग्रहण करते हैं, ऐसे भिक्षु को ‘यथासंस्तारिक’ कहते हैं तथा उनके आचरण को ‘यथासंस्तारिकांग’ कहते हैं।
जो भिक्षु लेटना त्याग कर केवल बैठा ही रहता है, सोता नहीं, ऐसे भिक्षु को ‘नैषदिक’ कहते हैं तथा उसके आचरण को ‘नैषदिकांग’ कहते हैं।
स्थविरवाद
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समाधि-विमर्श
समाधिः-शोभन विषयों में प्रवृत्त राग, द्वेष मोह से रहित पवित्र चित्त (कुशल चित्त) की एकाग्रता (निश्चलता) को समाधि कहते हैं। समाधि का अर्थ समाधान है। अर्थात् एक आलम्बन (विषय) में चित्त चैतसिकों का बराबर (सम्) तथा भलीभांति (सम्यक्) प्रतिष्ठित होना या रखना (आघान) ‘समाधन’ है। इसलिए जिस तत्त्व के प्रभाव से एक आलम्बन में चित्त-चैतसिक बराबर और भलीभांति विक्षिप्त और विप्रकीर्ण न होते हुए स्थित होते हैं, उस तत्त्व को ‘समाधि’ कहते हैं।
पतंजलि ने भी चित्त की वृत्तियों के निरोध को ‘योग’ कहा है। ’ व्यास ने योग को समाधि कहा है। तथा वृत्तिकार ने योग का अर्थ ‘समाधान’ बतलाया है। इस प्रकार बौद्ध
और बौद्धेत्तर आचार्यों ने ‘समाधि’ शब्द की व्युत्पत्ति समानरूप से की है।
समाधि परम निर्वाण का साक्षात्कार करने में अत्यन्त उपयोगी साधन है। अतः समाधि केवल चित्त की एकाग्रता मात्र न होकर एक निर्वाण को प्राप्त कराने वाला मार्ग है। चित्त की एकाग्रता को समाधि कहना समाधि के पूर्ण अर्थ का द्योतक नहीं है। वस्तुतः चित्त की एकाग्रता समाधि का एक लक्षणमात्र है। एकाग्रता के अलावा भी समाधि के अनेक लक्षण हैं। जैसे धम्मसंगणि और पटिसम्मिदामग्ग नामक ग्रन्थों में एकाग्रता के साथ अनाविल,
अविकम्पन, विमुक्ति आदि २५ प्रकार के समाधि के लक्षण बताये गये हैं।
___ अंगुत्तरनिकाय में बुद्ध ने समाधि की बहुलता से वर्तमान जीवन में सुखपूर्वक विहार (दृष्टिधर्म-सुखविहार), दिव्यचक्षु-ज्ञान, स्मृति-सम्प्रज्ञान से सम्पन्नता और क्लेश (आस्रव) - क्षय आदि अनेक गुण बताये हैं। इस प्रकार समाधि का अर्थ एकाग्रता से अधिक महनीय
और गम्भीर सिद्ध होता है।
__समाधि भावना कृत्य में ध्यान की प्राप्ति ही मुख्य लक्ष्य है। ध्यान की प्राप्ति के लिए कामविषयक इच्छा (कामछन्द) आदि पाँच विघ्नों (नीवरण धर्मों) का दमन अपेक्षित है। विघ्नकारक धर्मों के शमन के लिए इन्द्रियों का संयम, सन्तुष्टि और अल्पेच्छता आदि गुण भी अपेक्षित हैं। अतः शील से सम्पन्न होने पर ही समाधि भावना की जा सकती है।
कर्मस्थान-कर्मस्थान दो प्रकार के होते हैं, यथा- शमथ कर्मस्थान और विपश्यना कर्मस्थान। योगी जिन आलम्बनों को अपने भावनाकृत्य की सम्पन्नता के लिए साधन बनाता
१. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः १:२। २. योगः समाधिः १:१ पर भाष्य। ३. योगो युक्तिः समाधनम् १:१ पर भोजवृत्ति। ४. द्र.-धम्म.-२०, २२, ३०, ३२, ३३,३४, पटि.५५। ५. अंगु. चतुक्कनिपात २-४६ ।
३१४
बौद्धदर्शन
है
है, उन्हें ‘कर्मस्थान’ कहते हैं। पृथ्वी, अप आदि चालीस प्रकार के साधन ‘समाधि’ के आलम्बन’ (शमथ कर्मस्थान) हैं। तथा पंचस्कन्धात्मक नाम-रूप आदि साधन प्रज्ञा के विषय (विपश्यना कर्मस्थान) हैं।
समाधि लाभ के इच्छुक योगी को पृथ्वी आदि चालीस प्रकार के कर्मस्थानों में से किसी एक को आलम्बन बनाकर अभ्यास करना चाहिए। ज्ञान प्राप्ति के इच्छुक योगी को अपने शरीर में प्रवृत्त नामरूपात्मक संस्कार धर्मों में से किसी एक को आलम्बन बनाकर अभ्यास करना चाहिए।
____ आनापानस्मृति - बौद्ध साधना में श्वास और प्रश्वास को ‘आनापान’ कहते हैं। इसे ही पातंजल योग-दर्शन में ‘प्राणायाम’ कहा गया है। यह श्वास-प्रश्वास (आनापान) समाधिलाभ के लिए एक उत्कृष्ट साधन है। यह ठीक भी है, क्योंकि प्राण ही जीवन है। प्राण ही समस्त संसार का मूल कारण है। प्राण के बिना प्राणी का जीवित रहना असम्भव है। सभी जीवों के लिए प्राण अनिवार्य अंग है। जब से जीव जन्म लेता है, तभी से श्वास-प्रश्वास प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। इसलिए बौद्ध और बौद्धेतर भारतीय योगशास्त्र में प्राणायाम या आनापान का अत्यधिक महत्त्व प्रतिपादित किया गया है।
प्राणायाम या आनापान के द्वारा ही प्राण पर नियंत्रण किया जा सकता है। वस्तुतः प्राण को नियंत्रण करने में समर्थ योग प्रक्रिया को ही ‘प्राणायाम’ या ‘आनापान’ कहते हैं। प्राण का नियंत्रण प्राप्त हो जाने पर मनुष्य अपने चित्त पर विजय प्राप्त कर लेता है तथा उसे अपने चित्त को एकाग्र बनाने में आसानी हो जाती है। इसलिए बुद्ध ने अनेक जगह आनापान-भावना से समाधिस्थ व्यक्ति के रहने (विहार) को आर्य विहार ब्रह्मविहार तथा तथागत विहार की संज्ञा प्रदान की है। ’ ____ आनापानभावना समाधिप्राप्ति का एक उत्कृष्ट साधन है। किन्तु यह सभी व्यक्ति के लिए अनुकूल नहीं है। यह केवल उन्हीं व्यक्तियों के लिए उपयुक्त है, जो स्मृति और जागरूकता (सम्प्रज्ञान) से सम्पन्न हैं। यह आनापानभावना नाना प्रकार के वितकों के उपशम के लिए विशेषरूप से उपयुक्त है। निर्वाण (अनुत्तर योगक्षेम) की कामना करने वालों को आनापान की भावना अवश्य करनी चाहिए। जिससे मनुष्य की सन्तान में अनादि काल से वास करने वाले लोभदृष्टि, मान आदि क्लेशों का क्षय हो जाता है। तथा मनुष्य वर्तमान जीवन में ही सुखपूर्वक रहना (दृष्टधर्म सुखविहार) स्मृति और जागरूकता से सम्पन्न हो जाता है।
१. ‘आनापानस्सतिसमाधि सम्मा वदमाने वदेव्य-अरियविहारो इति पि, ब्रह्मविहारो इति पि, तथागत
विहारो इति पि-सं.-४-२७७।
स्थविरवाद
३१५
आनापान में ‘आन’ का अर्थ श्वास लेना तथ ‘अपान’ का अर्थ श्वास छोड़ना है। योग दर्शन में भी यही बात कही गयी है। ’ स्मृतिपूर्वक आश्वास-प्रश्वास की क्रिया द्वारा जो समाधि प्राप्त की जाती है, उसे ‘आनापानस्मृतिसमाधि’ कहते हैं। बुद्ध ने १६ प्रकार की आनापानस्मृतिसमाधिभावना की विधि बतलाई है। महाटीकाकार ने कहा है कि अन्य दर्शन वाले उनमें से पहले चार प्रकार ही जानते हैं। पतंजलि ने कहा है कि आसन के स्थिर हो जाने पर आश्वास-प्रश्वास की गति को रोकना ‘प्राणायाम’ है। प्राणायाम चार प्रकार हैं, यथा- रेचक, पूरक, कुम्भक और चतुर्थ प्राणायाम। इनमें से बाह्यवृत्ति प्रश्वास को रेचक, आभ्यन्तर-वृत्ति आश्वास को पूरक, स्तम्भवृत्ति आश्वास और प्रश्वास दोनों की गति के अभाव को कुम्भक तथा आश्वास और प्रश्वास दोनों करके प्राणवायु को रोकना चतुर्थ प्राणायाम है। चतुर्थ प्राणायाम से ऊपर के तीन प्राणायामों में अन्तर केवल इतना ही है कि पूर्वोत्तर रेचक, पूरक और कुम्भक प्राणायामों में देश, काल और संख्या से परिदृष्ट बाह्य विषय और आभ्यन्तर विषय है। इस जानकारी को त्यागकर चित्त को इष्ट
आलम्बन में लगा देने से देश, काल और संख्या के ज्ञान के बिना ही प्राण की गति स्वतः जिस किसी देश में रुक जाती है, वहीं चतुर्थ प्राणायाम है। अर्थात् रेचक् में कोष्ठस्थित वायु को बाहर निकाल कर रोक दिया जाता है, पूरक में श्वास अन्दर खींचकर रोक दिया जाता है तथा आश्वास-प्रश्वास की गति का अभाव ही कुम्भक है। बाहर और भीतर के कुम्भक के बिना ही रेचक-पूरक द्वारा देश, काल संख्या के ज्ञान के बिना स्वयं ही आश्वास-प्रश्वास की गति के निरोध से चतुर्थ प्राणायाम होता है।
बुद्ध के द्वारा बताये गये १६ प्रकार की आनापानविधि की संक्षिप्त प्रक्रिया इस प्रकार जानना चाहिए- ‘भिक्षु अरण्य या वृक्ष के नीचे अथवा शून्यागार में जाकर पालथी मारकर शरीर (काय) को सीधा कर स्मृतिपूर्वक आश्वास-प्रश्वास करे। जैसे- १. लम्बा आश्वास करते समय लम्बा आश्वास कर रहा हूं तथा लम्बा प्रश्वास करते समय लम्बा प्रश्वास कर रहा हूँ- ऐसा जानना। २. छोटा आश्वास करते समय छोटा आश्वास कर रहा हूँ। तथा छोटा प्रश्वास करते समय छोटा प्रश्वास कर रहा हूँ-ऐसा जानना। ३. सारे आश्वास (काय संस्कार) के आदि, मध्य अन्त को जानते हुए, प्रकट करते हुए आश्वास करना चाहिए।
१. यो. भा. २:४६। २. द.-सं. नि. ४-२७३, विसु. १८०। ३. ‘बहिरका हि तानन्ता आदितो चतुप्पकारमेव जानन्ति’- विसु. महा.-१-३१४ । ४. तस्मिन् सति श्वास-प्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः-यो. २-४६। ५. यो. २:५०, २:५१। ६. ‘देशकालसंख्याभिर्बाह्यविषयः परिदृष्ट आक्षिप्तः। तथाभ्यन्तरविषयः परिदृष्ट आक्षिप्तः। उभयया
दीर्घसूक्ष्मः। तत्पूर्वकोभूमिजयात् क्रमेणोभयोर्गत्यभावश्चतुर्थः प्राणायामः’ - यो.भा. २:५१।
३१६
बौद्धदर्शन ४. स्थूल आश्वास-प्रश्वास (कायसंस्कार) को शान्त करते हुए अथवा निरुद्ध या उपशान्त करते हुए आश्वास-प्रश्वास करना चाहिए। ५. प्रीति को भलीभांति जानते हुए आश्वास-प्रश्वास करना चाहिए। ६-८. सुख, वेदना, संज्ञा (चित्त संस्कार), स्थूल चित्तसंस्कार को शान्त करते हुए, निरुद्ध करते हुए आश्वास-प्रश्वास करना चाहिए। ६-१२ चित्त के आदि, मध्य, अन्त को जानते हुए चित्त को प्रसन्न रखते हुए आलम्बन में चित्त को बराबर (सम) रखते हुए तथा चित्त को क्लेश (नीवरण) धर्मों से विमुक्त करते हुए आश्वास-प्रश्वास करना चाहिए। १३-१६ अनित्यता को जानते हुए (अनित्यानुपश्यी), वैराग्य को जानते हुए (विरागानुपश्यी), तथा प्रीति के त्याग को जानते हुए (प्रीतिनिःसर्गानुपश्यी) आश्वास-प्रश्वास करना चाहिए।
उपर्युक्त १६ प्रकार की आनापानभावनाविधि में से पहली चार विधियाँ ही पतंजलि की चार प्रकार की प्राणायाम विधियों से समानता रखती है। __शमथ-कामविषयक इच्छा (कामच्छन्द) आदि पांच विघ्नकारक (नीवरण) धर्मों का जो उपशम करता है, वह ‘शमथ’ है। वस्तुतः ध्यान में होने वाला एकाग्रता (समाधि) चैतसिक ही ‘शमथ’ है। जब वह एकाग्रता चैतसिक विघ्नों का उपशम कृत्य करता है, उस समय वही ‘शमथ’ कहा जाता है। उपशम कृत्य के अनन्तर जब वह ध्येय वस्तु में एकाग्र हो जाता है, तब वही ‘समाधि’ कहलाता है। ध्यानप्राप्ति की पहली (उपचार) अवस्था में जो क्षणिक समाधि होती है, वह ‘शमथ’ नहीं है, किन्तु ध्यान प्राप्ति की पहली (उपचार) अवस्था में कामविषयक इच्छा (कामच्छन्द) द्वेष (व्यापाद) आदि विघ्नकारक क्लेशों (नीवरणों) को शान्त करने में समर्थ अत्यन्त समाहित समाधि को ही ‘शमथ’ कहते हैं। वस्तुतः चित्त की सम्यक् स्थिति या दृढ़ता आदि को ‘शमथ’ कहते हैं। अर्थात् चित्त की एकाग्रता को शमथ कहते हैं, चित्त को नहीं।
ध्यान- जो कामविषयक इच्छा (कामच्छन्द) आदि विरोधी विघ्नकारक (नीवरण) धर्मों का दहन करता है वह ‘ध्यान’ है। वितर्क, विचार आदि पांच चैतसिक (ध्यान के अंग) आलम्बन में दत्तचित्त होकर सूक्ष्म चिन्तन (उपनिध्यान) कृत्य करते हैं तथा प्रतिपक्षी कामच्छन्द आदि विरोधी नीवरण धर्मों का दहन कृत्य भी करते हैं, अतः इन्हें ही ‘ध्यान’ कहते हैं। ध्येय वस्तु का दत्तचित्त होकर सूक्ष्म चिन्तन करना ‘उपनिध्यान’ कृत्य कहलाता है। इस कृत्य का सम्बन्ध एकाग्रता से है। वस्तुतः यह एकाग्रता का कृत्य ही है, किन्तु
१. सं.-४,-२७३। २. ‘तत्थ कतमो कमथो ? या चित्तस्स तिति सण्ठिति अविसहारो अविक्खेपो अविसाहटमानसता समयो
समाधिन्द्रियं समाधिबलं सम्मासमाधि अयं वुच्चति समथो’- धम्म. २६। ३. ‘समथो हि चित्तेकग्गता’-अं.द. बालवग्ग, ‘शमथः चित्तैकाग्रतालक्षणः समाधि’ -बोधि. व्या. १३७, ‘न
चित्तान्येव समाधिः, येन तु तान्येकाग्राणि वर्तन्ते-स धर्मः समाधिः’-अभि. को.व्या. (स्फु.)-६६३।
स्थविरवाद
३१७ अकेले एकाग्रता उपनिध्यान कृत्य करने में समर्थ नहीं है, वह वितर्क, विचार, प्रीति एवं सुख या उपेक्षा से सम्बद्ध होकर ही उपनिध्यान कृत्य करने में समर्थ होती है। अतः वितर्क, विचार आदि सभी ध्यानांग एकाग्रता के साथ सदा रहते है। अर्थात् एकाग्रता सभी ध्यानों में अनिवार्य रूप से रहती है।
यहाँ वितर्क, विचार, प्रीति, सुख या उपेक्षा तथा एकाग्रता इन पाँच चैतसिकों को ध्यान का अंग कहते हैं। इन पाँचों का सामूहिक नाम ‘ध्यान’ है। इनमें से वितर्क आलम्बन में चित्त-चैतसिकों को प्रतिष्ठापित (आरोपित) करता है। विचार उस आलम्बन का पुनः पुनः विमर्श (अनुमज्जन) करता है। इन दोनों में वितर्क विचार का पूर्वगामी है। तथा विचार की अपेक्षा वह (वितर्क) स्थूल होता है। ’ इष्ट आलम्बन की प्राप्ति से जो एक प्रकार की तुष्टि होती है, उसे प्रीति कहते हैं। जब प्रीति उत्पन्न होती है, तब काय और चित्त में सुख की अनुभूति होती है, सुख के परिपाक से समाधि का लाभ होता है। जहाँ प्रीति है, वहाँ सुख अवश्य है, किन्तु जहाँ सुख है, वहाँ नियत रूप से प्रीति नहीं होती।
योगदर्शन में भी वितर्क, विचार, आनन्द और अस्मिता को सम्प्रज्ञात समाधि का भेद कहा गया है। यहाँ आनन्द ही प्रीति है तथा अस्मिता सुख के स्थान पर है। योगदर्शन और बौद्धदर्शन में ध्यान एवं समाधि की व्याख्या तथा विषय प्रतिपादन में अत्यधिक समानता है। पंतजलि ने चित्तवृत्ति को किसी एक ध्येय वस्तु में (एक आलम्बन में) प्रतिष्ठित रहने या ठहरने को ‘धारण’ कहा है। शरीर के किसी स्थान चाहे नासापुट हो या नाभिचक्र आदि हो या बाहर कोई अन्य आलम्बन हो, (विषय) में चित्तवृत्ति को रखना ‘धारण’ कहलाता है। अन्य विषयों को हटाकर एक ही ध्येय वस्तु पर एकाग्र रहना तथा चित्तवृत्ति और ध्येयवस्तु में तल्लीनता आ जाना ‘धारण’ है। उस धारण को ही ‘ध्यान’ कहते हैं। अर्थात् धारण द्वारा जिस ध्येय वस्तु (विषय) में चित्त लगाया गया है, उस ध्येयवस्तु में चित्तवृत्ति पानी की धारा की तरह प्रवाह रूप से निरन्तर लगी रहे, बीच में किसी अन्य विषय में चित्तवृत्ति न जाय, तो उसे ही ‘ध्यान’ कहा जाता है। जब केवल ध्येयवस्तु मात्र की प्रतीति ही होती है, चित्त का अपना स्वरूप शून्य हो जाता है तो ऐसे ध्यान को ही ‘समाधि’ कहते हैं। ’ यहाँ ध्यान करने वाला ध्याता है। ध्यान का विषय ध्येय (जिसका ध्यान किया जाता है) कहलाता है। तथा चित्त की वह वृत्ति, जिसके द्वारा विषय का ध्यान किया जाता है वह
१. ‘औदारिकतुन सुखुमटेन’-विसु.-१४२, ‘वितर्कविचारी औदार्यसूक्ष्मते’-अभि.को. २:३३, वितर्कः
चित्तस्यालम्बने स्थूल आभोगः, सूक्ष्मो विचारः यो. भा. १.१७ पर। माम २. ‘वितर्कविचारानन्दास्मितानुरूपागमात् सम्प्रज्ञातः-यो. १-१७। ३. ‘देशवन्धश्चित्तस्य धारणा’-यो. ३:१। ४. ‘तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्’-यो. ३:२॥
५. ‘तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः’-यो.-३:३।
३१८
बौद्धदर्शन वृत्ति, ‘ध्यान’ कहलाती है। जब साधक ध्यान भावना में लगता है, तब प्रारम्भ में उसे ध्याता, ध्येय और ध्यान-इन तीनों का अलग-अलग बोध होता है। किन्तु ध्यान करते-करते ध्यान करने वाले (ध्याता) का चित्त, जब ध्येय रूप में एकरस हो जाता है, अपने स्वरूप का अभाव सा हो जाता है और यह बोध नहीं रहता कि ‘मैं ध्यान कर रहा हूँ’ तथा ध्यान की अवस्था में केवल ध्येय वस्तु के स्वरूप का ही भान होता है, तब वह ध्यान ही ‘समाधि’ कहलाती है। समाधि अवस्था में केवल ध्येय मात्र ही अवभासित होता है। इसे ‘सम्प्रज्ञात’ या ‘सबीज’ समाधि कहते हैं, क्योंकि इसमें संसार का बीज (विषय) ध्येयाकारवृत्ति रूप में विद्यमान रहता है। नियमान
यह सम्प्रज्ञात समाधि चार प्रकार की होती है, यथा-वितर्कानुगत विचारानुत, आनन्दानुगत एवं अस्मितानुगत। इनमें से स्थूल आलम्बन या ध्येयवस्तु (सूर्य, चन्द्र आदि) में स्थूल इन्द्रियों द्वारा ध्यान करने पर जब चित्त स्थूल विषय में स्थिर होकर उसमें तल्लीन हो जाता है, तो इस प्रकार की एकाग्रता को ‘वितर्कानुगत सम्प्रज्ञात समाधि’ कहते हैं। इसे ‘सवितर्क समाधि’ भी कहते हैं। ’ सम्प्रज्ञात समाधि की इस अवस्था में शब्द, अर्थ और ज्ञान इनकी अलग-अलग प्रतीति होती है। इस समाधि को ‘सवितर्कसमापत्ति’ भी कहते हैं। तथा सवितर्क समाधि के निरन्तर अभ्यास करने पर साधक को शब्द और ज्ञान की स्मृति लुप्त हो जाती है। इसी अवस्था में चित्त समस्त विकल्पों से रहित होकर ध्येय वस्तु में लीन हो जाता है। इस अवस्था में चित्त की एकाग्रता इतनी बढ़ जाती है कि वह (चित्त) स्वरूप शून्य सा होकर अर्थ (ध्येय) मात्र रह जाता है। ऐसी अवस्था को ‘निर्वितर्क समाधि’ कहते
वितर्कानुगत समाधि के निरन्तर अभ्यास करने पर चित्त जब सूक्ष्म विषयों (शब्द, स्पर्श आदि तन्मात्राओं) में सूक्ष्म इन्द्रियों के द्वारा ध्यान करने पर उन सूक्ष्म विषयों में स्थिर होकर तन्मय हो जाता है, तो उस अवस्था को ‘विचारानुगत समाधि’ कहते हैं। इसे ‘सविचार समाधि’ भी कहते हैं। जिस प्रकार वितर्कानुगतसमाधि के दो भेद होते हैं, उसी प्रकार विचारानुगत समाधि भी सविचार और निर्विचार भेद से दो प्रकार होते हैं। चित्त को जब सूक्ष्म ध्येय वस्तु के नाम, रूप और ज्ञान में भिन्नता प्रतीत होती है, जब उसे ‘सविचार समाधि’ कहते हैं तथा जब चित्त को नाम, ज्ञान एवं अपने स्वरूप का विस्मरण होकर केवल ध्येय वस्तु का ही अनुभव होता है, उसे ‘निर्विचार समाधि’ कहते हैं। '
१. वितर्कश्चित्तयालम्बने स्थूल आभोगः-तत्र प्रथमश्चतुष्टयानुगतः समाधिः सवितर्कः-यो. भा. १:१७ २. ‘तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः’-यो.-१:४२॥
प्रणालीमा ३. ‘स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का’-वो. १:१७। ४. ‘सूक्ष्मो विचार-द्वितीयो वितर्कविकलः’-यो.भा. १:१७। ५. ‘एतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता’-यो.सू. १:४४।
स्थविरवाद
३१६
आनन्दानुगत समाधि में विचार शून्य हो जाता है, केवल आनन्द मात्र का अनुभव होता है। इस समाधि में साधक की एकाग्रता इतनी दृढ़ हो जाती है कि वह संशय, विपर्यास रहित अहंकार का साक्षात्कार करने में समर्थ हो जाता है। यह अहंकार पंच तन्मात्रा आदि का मूल कारण है तथा तन्मात्राओं की अपेक्षा सूक्ष्म भी है।
अस्मितानुगत समाधि में आनन्द भी नष्ट हो जाता है। इस अवस्था में वह अस्मिता का साक्षात्कार करने में समर्थ हो जाता है। अस्मिता अहंकार का कारण है तथा अहंकार की अपेक्षा सूक्ष्म भी है। पातंजल दर्शन के अनुसार चार समाधि और उनका ध्येय विषय इस प्रकार है।
समाधि
ध्येय विषय १. वितर्कानुगत पंचभूतात्मक स्थूल विषय २. विचारानुगत सूक्ष्म ५ तन्मात्रायें और इन्द्रिय ३. आनन्दानुगत
अहंकार ४. अस्मितानुगत अस्मिता जिस प्रकार योगदर्शन में साधक अपना योगाभ्यास (भावनाकृत्य) स्थूल ध्येय (आलम्बन) से प्रारम्भ करता है, उसी प्रकार बौद्धसाधना में भी साधक सर्वप्रथम स्थूल (विभूत) ध्येय पृथ्वी आदि आलम्बन से प्रारम्भ करता है। समाधि ही ध्यान है। वह (ध्यान चार प्रकार है, यथा- वितर्क, विचार, प्रीति, सुख एवं एकाग्रता इन पाँच अंगों से युक्त प्रथम ध्यान, प्रीति, सुख एवं एकाग्रता-इन तीन अंगों से युक्त द्वितीय ध्यान, सुख और एकाग्रता-इन दो अंगों से युक्त तृतीय ध्यान तथा उपेक्षा और एकाग्रता- इन दो अंगों से युक्त चतुर्थ ध्यान।
इनमें से पृथ्वी, अप आदि स्थूल ध्येय (कर्मस्थान) में चित्त लगाकर निरन्तर भावना की जाती है, तो चित्त ध्येय वस्तु में तदाकार हो जाता है। कभी-कभी चित्त ध्येय वस्तु में एकाग्र हो जाता है। क्लेश (नीवरण) शान्त हो जाते हैं। जब तक वितर्क, विचार आदि ध्यानांग प्रादुर्भूत नहीं होते, तब तक चित्त चिरकाल तक समाहित नहीं हो सकता तथा उस अवस्था की समाधि दुर्बल होती है। यह अवस्था ध्यान (अर्पणा) की पूर्ववर्ती अवस्था होने से इसे ‘उपचार’ समाधि कहते हैं। जब साधक सपरिश्रम निरन्तर अभ्यास करता है, तो उसमें वितर्क, विचार आदि ध्यानांग प्रादुर्भूत हो जाते हैं तथा ध्येय वस्तु में चित्त अनुप्रविष्ट
की भाँति अर्पित हो जाता है। इस अवस्था की समाधि को ‘ध्यान’ या ‘अर्पणा’ कहते हैं। यह चिरकाल तक एकाग्र रहने वाली अवस्था है।
__ ध्यान या अर्पणा से पहले चित्त कामतृष्णा से प्रभावित रहता है। जब कामतृष्णा आदि विघ्नकारक क्लेशों का शमन कर या कामतृष्णा आदि को विषय न बनाकर ध्येय वस्तु में
३२०
बौद्धदर्शन
चित्त अनुप्रविष्ट हो जाता है, तो इस अवस्था की समाधि को ‘रूपावचर-प्रथमध्यान’ कहते हैं। यहाँ साधक यद्यपि कामतृष्णा का आलम्बन नहीं करता, फिर भी वह रूपतृष्णा को आलम्बन बनाता है। इस प्रथम ध्यान में वितर्क ध्यानांग आलम्बन में चित्त को स्थापित करता है। विचार आलम्बन को बांधे रखता है। प्रीति आलम्बन से चित्त को विक्षिप्त न होने देने के लिए उसे तृप्त करती है। सुख उस (तृप्ति) को बढ़ाता है। एकाग्रता अपने साथ होने वाले वितर्क, विचार, प्रीति और सुख को स्थापित करते रहने, बाँधे रखने, तृप्त करते रहने तथा उसे बढ़ाते रहने के लिए ध्येय में चित्त को बराबर लगाये रखती है। ये पांचों ध्यानांग ध्यान प्राप्ति के समय एक साथ अपना-अपना कृत्य करते हैं, इसलिए इन पांचों ध्यानांगों के समूह को ‘ध्यान’ कहते हैं। इस प्रथम ध्यान को ‘सवितर्क सविचार ध्यान’ भी कहते हैं।
प्रथम ध्यान में चिरकाल तक निरन्तर अभ्यास किये हुए साधक ‘योगी’ अभ्यस्त प्रथम ध्यान से उठकर ‘यह ध्यान (समापत्ति) तो कामच्छन्द आदि क्लेशों का नजदीकी है
और वितर्क विचार स्थूल होने से दुर्बल अंग है’- इस प्रकार सोचकर उस प्रथम ध्यान में दोष देखकर द्वितीय ध्यान के शान्त स्वभाव को मन में करके प्रथम ध्यान के प्रति होने वाली तृष्णा को छोड़कर द्वितीय ध्यान की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होता है। जब साधक को प्रथम ध्यान से उठकर स्मृति और सम्प्रज्ञान के साथ प्रथमध्यान के अंगों का विचार (प्रत्यवेक्षण) करते समय वितर्क, विचार स्थूल रूप से दिखलाई पड़ते हैं तथा प्रीति, सुख एवं एकाग्रता सूक्ष्म और शान्त दिखलाई पड़ते हैं, तब वह स्थूल अंगों के प्रहाण और सूक्ष्म अंगों की प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम ध्येय की ही बार-बार भावना करता है। निरन्तर अभ्यास करते-करते वितर्क, विचार शान्त हो जाते हैं तथा वितर्क, विचार रहित और प्रीति, सुख एवं एकाग्रता से युक्त द्वितीय ध्यान की प्राप्ति हो जाती है। इसे ही ‘अवितर्क अविचार ध्यान’ भी कहते हैं।
जब साधक द्वितीय ध्यान के अंगों में भी यह ध्यान (समापत्ति) तो वितर्क, विचार का नजदीकी है तथा प्रीति से युक्त चित्त हर्षात्फुल्ल होता है, इसी से यह स्थूल कहा जाता है- इस प्रकार प्रीति के प्रति दोष देखकर द्वितीय ध्यान के प्रति होने वाली आसक्ति का त्याग करके तृतीय ध्यान के अंगों को शान्त स्वभाव के रूप में मन में करके बार-बार भावना करता है तो उसे प्रतिरहित तथा सुख और एकाग्रता से युक्त तृतीय ध्यान की प्राप्ति होती है।
___ जब साधक तृतीय ध्यान के अंग सुख के प्रति दोष देखता है, तो वह तृतीय ध्यान के प्रति होने वाली आसक्ति का त्याग करके तथा चतुर्थ ध्यान के शान्त स्वभाव को मन में करके बार-बार भावना करता है, तो उसे उपेक्षा और एकाग्रता से युक्त चतुर्थ ध्यान की प्राप्ति होती है।
३२१
स्थविरवाद । उपर्युक्त प्रतिपादन ध्यानों के चतुष्क नय को दृष्टि में रखकर किया गया है। यदि पंचक नय के अनुसार ध्यानों का विभाजन किया जाता है तो ध्यान पाँच प्रकार के भी हो जाते हैं। प्रथम ध्यान में वितर्क, विचार, प्रीति सुख एवं एकाग्रता ये पाँच अंग होते हैं। इसे ‘सवितर्क सविचार ध्यान’ कहते हैं। द्वितीय ध्यान में वितर्क को छोड़कर शेष चार अंग होते हैं, इसे ‘अवितर्क सविचार ध्यान’ कहते हैं। तृतीय ध्यान में वितर्क और विचार को छोड़कर शेष तीन अंग होते हैं। चतुर्थ ध्यान में सुख और एकाग्रता-ये दो अंग होते हैं तथा पंचम ध्यान में उपेक्षा और एकाग्रता ये दो ध्यानांग होते हैं। इन तीनों ध्यानों को ‘अवितर्क
अविचार ध्यान’ कहते हैं। माना ।
योग दर्शन में ध्येय (आलम्बन) स्थूल से सूक्ष्म सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम होता जाता है, इसलिए समाधि की अवस्था उत्तरोत्तर दृढ़ होती जाती है। यहाँ पर (बौद्ध योग में) ध्येय (आलम्बन) जैसा का तैसा रहता है, किन्तु ध्यान के अंगों में परिवर्तन होता रहता है। अर्थात् स्थूल अंग क्रमशः शान्त होते जाते हैं और सूक्ष्म सूक्ष्मतर अंग ही अवशिष्ट रहते हैं। तथा स्थूल अंगों के शान्त होते रहने से समाधि की अवस्था उत्तरोत्तर दृढ़ होती जाती
चतुष्क नय के अनुसार
ध्यान ध्यानांग १. प्रथम ध्यान - २. द्वितीय ध्यान ३. तृतीय ध्यान ४. चतुर्थ ध्यान र की कि वितर्क, विचार, प्रीति, सुख, एकाग्रता प्रीति, सुख, एकाग्रता सुख, एकाग्रता उपेक्षा, एकाग्रता पर का का is in
पंचक नय के अनुसार
प्रथम ध्यान पिक कि दिन वितर्क, विचार, प्रीति, सुख, एकाग्रता २. ना द्वितीय ध्यान दिन विचार, प्रीति, सुख, एकाग्रता ३. तृतीय ध्यान
प्रीति, सुख, एकाग्रता ४. चतुर्थ ध्यान
सुख, एकाग्रता ५. पंचम ध्यान
उपेक्षा, एकाग्रता _ ध्यान प्राप्ति की पूर्व अवस्था में साधक का चित्त क्लेशों से युक्त होने से, वह कामतृष्णा को अपना विषय बनाता रहता है तथा उसके चित्त में कामविषयक इच्छा (कामच्छन्द) आदि का उदय होता रहता है। वह अवस्था ‘कामावचर’ अवस्था कहलाती है। ध्यान की अवस्था में क्लेशों के शान्त रहने से कामविषयक इच्छा आदि क्लेश उदित नहीं३२२
बौद्धदर्शन
होते तथा साधक कामविराग की भावना में लगा रहता है। कामविषयक इच्छा आदि क्लेशों के शान्त होते ही वितर्क आदि ध्यानांग उदित हो जाते हैं। साधक का चित्त ध्येय वस्तु में स्थिर हो जाता है। प्राप्त ध्यान के प्रति आसक्ति (निकन्ति) बनी रहती हैं इसे (आसक्ति को) रूपराग या रूपतृष्णा अथवा भवराग या भवतृष्णा भी कहते हैं। उस साधक के चित्त में यह तृष्णा एक प्रकार का दोष है यह अवस्था ‘रूपावचर अवस्था’ कहलाती है। रूपावचर ध्यानों के वितर्क आदि अंगों में दोष देखकर निरन्तर भावना की जाती है, तो उससे क्रमशः चतुर्थ या पंचम ध्यान तक प्राप्त किया जा सकता है। यहाँ तक साधक का ध्येय (आलम्बन) भौतिक (रूप) आलम्बन होता है। जिस ध्येय को आलम्बन बनाकर भावना प्रारम्भ की थी वही ध्येय चतुर्थ या पंचम ध्यान पर्यन्त बना रहता है। लाट ( अरूपध्यान- जब साधक उस रूप में भी दोष देखने लगता है, इससे सूक्ष्म या शान्त अरूप ध्यान प्राप्त करना चाहता है, तो उसे ‘रूप विराग भावना’ करनी पड़ती हैं। जैसे साधक अपने ध्येय पृथ्वीमण्डल को अपने मन से हटा देता है उस पृथ्वी मण्डल के हट जाने पर वहाँ उसका स्थान रिक्त हो जाता है, वही रिक्त स्थान ‘आकाश’ है। उस आकाश को ध्येय बनाकर आकाश अनन्त है-ऐसी भावना करता है। इस प्रकार पृथ्वी आदि ध्येय वस्तु (आलम्बन) को मन में न करके केवल उसके रिक्त स्थान (खाली जगह = आकाश) को ही ध्येय बनाकर निरन्तर भावना की जाती है, तो साधक उपर्युक्त रूपावचर चतुर्थ या पंचम ध्यान के प्रति आसक्ति (निकन्ति) का त्याग कर देता है। तथा अनन्त आकाश के शान्त भाव को देखकर उस आकाश में अपने चित्त को प्रविष्ट करता है। जब इसका चित्त उस ध्येय में भली भांति अनुप्रविष्ट हो जाता है, तब अति सूक्ष्म उपेक्षा और एकाग्रता-ये दो अंग उत्पन्न होते हैं। इस समाधि अवस्था को ही ‘आकाशानन्त्यायतन ध्यान’ कहते हैं। यही ‘प्रथम आरूप्य ध्यान’ है। उस समय साधक रूप, संज्ञा, प्रतिघ संज्ञा और नानात्व संज्ञा को मन में न कर केवल ‘आकाश अनन्त’ है-इस प्रकार भावना करता है। अर्थात इस समाधि के बल से सभी प्रकार की रूपतृष्णाओं के आलम्बन भूत (रूपावचर) धर्मों तथा सभी कामतृष्णाओं के आलम्बन भूत कामावचर धर्मों का प्रहाण कर दिया जाता है। अर्थात् उनके प्रति मन का झुकाव नहीं किया जाता है। साधक को आकाश के उत्पाद एवं भंग नामक दोनों अन्तों का ज्ञान नहीं रहता, अतः वह उस अनन्त आकाश में चित्त को स्थित रखता है, संस्थापित करता है और अनन्त का स्मरण करता है। इसलिए आकाश अनन्त है-यह कहा जाताहै।
जब साधक द्वितीय अरूप ध्यान को प्राप्त करना चाहता है, तो उसे प्राप्त अरूप ध्यान के प्रति बार-बार प्रथम अरूप ध्यान (प्रथम अरूप समापत्ति) रूपावचर ध्यान का
१. ‘तस्मिं आकासे चित्तं ठपेति सण्ठपेति अनन्तं फरति, तेन बुच्चति ‘अनन्तो आकासो’ ति’-विभ.-३१५।
स्थविरवाद
३२३
नजदीकी है तथा यह विज्ञान की तरह शान्त नहीं है-इस प्रकार उस आकाशानन्त्यायतन ध्यान में दोष देखकर तथा विज्ञान के शान्त भाव को मन में करके उस आकाश में स्फरित होकर प्रवृत्त विज्ञान को ही ‘अनन्तं विज्ञानं अनन्तं विज्ञानं’ इस प्रकार मन में बार-बार भावना करता है। बार-बार अभ्यास करते-करते साधक का चित्त ध्येय आकाश का अतिक्रम करके केवल विज्ञान में ही प्रवृत्त हो जाता है। ध्यान की इस अवस्था को ही ‘द्वितीय अरूप ध्यान’ या विज्ञानानन्त्यायतन ध्यान कहते हैं। '
जब साधक प्राप्त द्वितीय अरूप ध्यान में सन्तोष न कर उससे सूक्ष्म तृतीय अरूप ध्यान को प्राप्त करना चाहता है, तो वह द्वितीय अरूप ध्यान (विज्ञानानन्त्यायतन) में दोष देखकर तथा उसके प्रति आसक्ति को छोड़कर तृतीय अरूप ध्यान के शान्त भाव को मन में करके प्राप्त हुए विज्ञानन्त्यायतन ध्यान के आलम्बन भूत आकाशानन्त्यायतन चित्त (विज्ञान) के अभाव (शून्यता) को मन में करता है। जब साधक के मन में अपने ध्येय (आकाशानन्त्यायतन विज्ञान) का अतिक्रम होकर ‘कुछ भी नहीं है, शून्य है, इस प्रकार का नास्तिभाव’ ध्येय के रूप में परिवर्तित हो जाता है, तब वह अवस्था ‘तृतीय अरूप ध्यान’ या ‘आकिंचन्यायतन ध्यान’ कहलाती है।
जब साधक प्राप्त तृतीय अरूप ध्यान में भी सन्तोष न कर इससे सूक्ष्म चतुर्थ अरूप ध्यान प्राप्त करना चाहता है, तो वह ततीय अरूप ध्यान में दोष देखकर तथा ‘वह नैवसंज्ञानासंज्ञा की तरह शान्त नहीं है’-इस प्रकार मन में करके प्राप्त तृतीय ध्यान की ही भावना करता है। या ‘संज्ञा रोग है, संज्ञा फोड़ा है, संज्ञा कांटा है-यह शान्त है, यह उत्तम है, जो नैवसंज्ञानासंज्ञा है’- इस प्रकार मन में करके निरन्तर भावना करता रहता है। इससे साधक के मन से तृतीय अरूप ध्यान के प्रति होने वाली आसक्ति (निकन्ति) दूर हो जाती है तथा उसे ‘नैवसंज्ञानासंज्ञायतन’ नामक चतुर्थ अरूप ध्यान की प्राप्ति हो जाती है। इस ध्यान में संज्ञा अतिसूक्ष्मरूप में रहती है, अतः इसे ‘असंज्ञा’ नहीं कहा जा सकता तथा संज्ञा के स्थूल रूप से न होने के कारण उसे संज्ञा भी नहीं कहा जा सकता, अतः इसे ‘नैवसंज्ञानासंज्ञा’ ही कहते हैं। काशि
त: उपर्युक्त चारों अरूप ध्यानों के अंग उपेक्षा और एकाग्रता ये दो ही होते हैं। रूप ध्यानों में क्रमशः अंगों का अतिक्रमण होता है, किन्तु अरूप ध्यानों में अंग का अतिक्रमण नहीं होता, अपितु ध्येय (आलाक) पत्र ही अतिक्रमण होता है इन अरूप ध्यानों के ध्येय पातंजल योगदर्शन की तरह उत्तरोत्तर सूक्ष्म होते जाते हैं।
१. ‘सब्बसो आकासानंयातनं समतिक्कम्म अनन्तं विंञणं ति विज्ञाणं चायतनं उपसम्पज्ज
विहरति-विभ.-३५ २. ‘सब्बसो विज्ञाणं चायतनं समतिक्कम्म नत्थिं किञ्ची ति अकिञ्चायतनं उपसम्पज्ज
विहरति’-विभत्र-३६५। ३. “सब्बसो आकिञ्चायतनं समतिक्कम्म नैवसज्ञानासंञायतनं उपसम्पज्ज विहरति’-विभ.-३६५।
३२४
बौद्धदर्शन
चार अरूप ध्यान
ध्यान
अतिक्रमितव्य ध्येय आलम्बितव्य ध्येय १. आकाशानन्त्यायतन पृथ्वी आदि २. विज्ञानन्त्यायतन
आकाश
विज्ञान ३. आकिंचायतन प्रथम आरूप्यविज्ञान नास्तिभाव ४. नैवसंज्ञानासंज्ञायतन नास्तिभाव तृतीय आरूप्य विज्ञान।
उपर्युक्त चार रूपावचर एवं चार अरूपावचर ध्यानों को ही ‘आठ समापत्तियाँ’ कहते हैं। अर्थात् योगी ध्यानों का पुनः पुनः विचार या मनन (समावर्जन) करता है। अतः वे ध्यान ही ‘समापत्ति’ कहलाते हैं।
पंतजलि ने भी कहा है कि ‘जिसकी वृत्तियाँ नष्ट हो गयी हैं, उसका चित्त निर्मल स्फटिक मणि की तरह होता है तथा वह (साधक) ग्रहीता (आत्मा) ग्रहणशक्ति (बुद्धि) और ग्राह्य (विषय) इन तीनों में एकाग्र होकर तदाकार हो जाता है तो यही ‘समापत्ति’ (सम्प्रज्ञात समाधि) है। '
योगदर्शन में सम्प्रज्ञात (सबीज) समाधि और असम्प्रजात समाधि भेद से समाधि के दो प्रकार बतलाये गये हैं। सम्प्रज्ञात समाधि की तुलना उपर्युक्त ध्यानों से करना चाहिए तथा असम्प्रज्ञात समाधि की तुलना ज्ञानी योगी (अनागामी तथा अर्हत्) की निरोधसमापत्ति से करना चाहिए।
- आचार्य बलदेव उपाध्याय ने अपने भारतीय दर्शन नामक ग्रन्थ (पृ. ५६५) में सम्प्रज्ञात समाधि और असम्प्रज्ञात समाधि के अन्तर को बौद्ध धर्म के प्रतिसंख्या निरोध
और अप्रतिसंख्या निरोध के अन्तर के समान कहा है। यह समीचीन प्रतीत नहीं होता, क्योंकि प्रतिसंख्यानिरोध और अप्रतिसंख्यानिरोध समाधि नहीं है, अपितु वैभाषिक बौद्धों के निरोध (निर्वाण) के प्रभेद हैं। __नीवरण- मनुष्य का चित्त विविध विषयों का ग्रहण करते रहने से सदा अशान्त रहता है। इन विविध विषयों (आलम्बनों) के कारण अनेक प्रकार की चित्तवृत्तियों का उत्पाद होता रहता है, तथापि लोभ (कामच्छन्द), द्वेष (व्यापाद), आलस्य (स्त्यान एवं मिद्ध), अनवस्थितता एवं पश्चात्ताप (औद्धत्य एवं कौकृत्य) और संशय (विचिकित्सा)- ये ही पाँच क्लेश (नीवरण) ध्यान के विघ्नकारक हैं। ध्यानांग के उत्पाद में विघ्नभूत होने से ‘नीवरण’ कहे जाते हैं। जा ध्यानचित्त (एकाग्रता) का आवरण करते हैं या उन्हें उत्पाद का अवसर नहीं
१. ‘झीणवृत्तेरभिजातस्येव मणेर्गृहीतृग्रहणग्राह्येषु तत्स्थतदंजनता समापत्तिः’ यो. १:४१। पाका कितना २. अभि. को.-१:६।
स्थविरवाद ३२५ देते, वे लोभ, द्वेष आदि ही ‘नीवरण’ कहे जाते हैं। जब इन नीवरणों का प्रहाण हो जाता है, तब ध्यानांग उत्पन्न होते हैं। ध्यानप्राप्ति की पूर्व अवस्था (उपचार समाधि) में भी यद्यपि नीवरणों का प्रहाण हो जाता है, किन्तु वितर्क आदि ध्यान के अंग प्रादुर्भूत नहीं होते। यान की अवस्था (अर्पणा समाधि) में ही वितर्क आदि ध्यानांगों का प्रादुर्भाव होता है। यद्यपि ६ प्रकार के नीवरणों में एक अविद्या भी है, तथापि वह अविद्या ध्यानों का आवरण नहीं करती, अपितु वह सत्यों के ज्ञान, प्रतीत्यसमुत्पाद आदि के ज्ञान का ही आवरण करती है। अतः ध्यानों के द्वारा प्रहातव्य नीवरणों में उस (अविद्या) की गणना नहीं की गयी है। योगदर्शन में भी चित्त को विक्षिप्त करने वाले समाधि के अन्तरायों के रूप में व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थित्व- इन ६ धर्मों को बतलाया गया है। यही समाधि के विघ्नभूत ६ नीवरण हैं। इनमें से व्याधि ज्वरादि रोग हैं। चित्त में काम न करने की इच्छा स्त्यान है। किसी एक का निश्चय न कर पाना ‘संशय’ है, समाधि के साधनों का पालन न करना, अर्थात् उनके लिए यत्न न करना, ‘प्रमाद’ है। कफ आदि के कारण शरीर का भारी होना ‘आलस्य’ है। विषयों से विरत न होने की इच्छा ‘अविरति’ है। अविद्या आदि विपर्यय ज्ञान ‘भ्रान्तिदर्शन’ है। समाधि का लाभ न होना ही ‘अलब्धभूमिकत्व है तथा समाधि का स्थिर न होना ‘अनवस्थितत्व’ है।
वितर्क विचार आदि पाँच ध्यानांग उपर्युक्त पाँच नीवरणों का शमन करते हैं तथा निषेध करते हैं। यथा- वितर्क द्वारा आलस्य (स्त्यान एवं मिद्ध) का निवारण किया जाता है। विचार द्वारा संशय (विचिकित्सा) का, प्रीति द्वेष (व्यापाद) का, सुख द्वारा अनवस्थितत्व और पश्चात्ताप (औद्धत्य एवं कौकृत्य) का तथा एकाग्रता द्वारा लोभ (कामच्छन्द) का निवारण शमन, या निषेध किया जाता है। यह ठीक भी है, क्योंकि चित्त में कर्मरहित रहने की इच्छा वाले स्त्यान एवं मिद्ध का स्वभाव आलस्य का होता है। इसके विपरीत वितर्क का स्वभाव सर्वदा विषयों में चित्त को लगाना (आलम्बन ग्रहण करना) है। अतः विपरीत स्वभाव होने के कारण वितर्क आलस्य स्वभाव वाले स्त्यान एवं मिद्ध का निवारण करता है। वितर्क जिन धर्मों को विषय बनाता है, विचिकित्सा उनमें संशय उत्पन्न कर देती है और विचार चित्त को विषय से न हटने देने के लिए उस विषय का पुनः पुनः विचार-विमर्श करता है। अतः विपरीत स्वभाव होने के कारण विचार विचिकित्सा को शान्त करता है तथा आलम्बन का विमर्श भी करता है। द्वेष (व्यापाद) चण्डलक्षण वाला है। विचार के द्वारा पुनः पुनः विमर्श करने पर भी यदि द्वेष उसमें विघ्न उपस्थित करता है, तो विचार आलम्बन का भलीभांति विमर्श नहीं कर सकता। प्रीति आलम्बन के प्रति प्रिय स्वभाव वाली - १. ‘व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्यविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थिचानि चित्तविक्षेपास्तेन्तरायाः’
-यो. १:३०।
३२६ बौद्धदर्शन है। अतः विपरीत स्वभाव होने के कारण प्रीति द्वेष का शमन करती है तथा पुनः विमर्श किये गये आलम्बन में अत्यन्त प्रीति उत्पन्न करती है। अनवस्थितता (औद्धत्य) का स्वभाव अनुपशम है तथा पश्चात्ताप (कौकृत्य) का स्वभाव अनुताप है। सुख आलम्बन के रस का अनुभव करने वाला है। अतः विपरीत स्वभाव वाला होने से सुख औद्धत्य और कौकृत्य का शमन करता है तथा चित्त को पुष्ट भी करता है। काम विषयों के प्रति आसक्ति उत्पन्न करने वाला लोभ (कामच्छन्द) अस्थिर (चंचल) स्वभाव वाला होता है। चित्त का आलम्बन से विचलित न होना एकाग्रता है। अतः विपरीत स्वभाव वाली होने के कारण एकाग्रता लोभ (कामच्छन्द) का निवारण करती है। धीमा निजि जी कामा २ अभिज्ञा- समाधि भावना से जब साधक रूपावचर चतुर्थ या पंचम ध्यान तक प्राप्त कर लेता है, तो उसमें विशेष प्रकार की शक्तियों का प्रादुर्भाव हो जाता है। योगी के समाधिप्राबल्य के कारण शक्तियों के तीव्र हो जाने से एक विशिष्ट ज्ञान उत्पन्न हो जाता है, उसे ‘अभिज्ञा’ कहते हैं। अभिज्ञा प्राप्त योगी को ऋद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। योगदर्शन इन्हें ‘सिद्धि’ कहते हैं। योगदर्शन के अनुसार धारणा (ध्येय) ध्यान और समाधि-इन तीनों का एक विषय में होना ‘संयम’ कहलाता है। इस संयम पर विजय प्राप्त होने से प्रज्ञा प्रकाशित होती है। इस समाधि-जन्य प्रज्ञा को बौद्ध दर्शन में ‘अभिज्ञा’ कहते हैं।
तदनुसार अभिज्ञायें ६ प्रकार की होती हैं, यथा- १. ऋद्धिविध-यह नाना प्रकार के रूपों को धारण करने में समर्थ ज्ञान है। दिव्यश्रोत्र-यह अत्यन्त दूर एवं धीमे शब्दों को सुनने में समर्थ ज्ञान है। ३. परिचित विजानन-यह दूसरों के चित्त को जानने में समर्थ ज्ञान है। ४. दिव्यचक्षु-यह अत्यन्त दूर, परोक्ष एवं आवृत वस्तुओं को देखने में समर्थ ज्ञान है। ५. पूर्वनिवासज्ञान- यह पूर्व अनेक जन्मों को जानने में समर्थ ज्ञान है। तथा ६. अनागतांश ज्ञान-यह भविष्य में होने वाले जन्म आदि को जानने में समर्थ ज्ञान है।
पतंजलि के योग सूत्र के विभूतिपाद में भी इन सब अभिज्ञाओं का वर्णन उपलब्ध होता है, ऋद्धियों की प्राप्ति योगी का लक्ष्य नहीं होता। परम निर्वाण का साक्षात्कार करना ही उनका चरम लक्ष्य होता है। फिर भी ऋद्धियाँ इस बात की पुष्टि करती हैं कि योगी अपने मार्ग में प्रगति कर रहा है। इन्हें (ऋद्धियों को) भावना में लगे सभी उत्साही योगी प्राप्त कर सकते हैं। बुद्ध ने इन ऋद्धियों के प्रदर्शन से अपने भिक्षुओं को न केवल रोका ही है, अपितु उसकी निन्दा भी की है। इन ध्यान (समाधि) एवं अभिज्ञाओं के सम्पन्न होने मात्र से दुःखों की अत्यधिक निवृत्ति नहीं हो सकती। जब प्रज्ञा (विपश्यना) द्वारा प्रगति कर ली जाती है, तभी दुःखों से अशेष निवृत्त होकर परम निर्वाण का साक्षात्कार किया जा १. ‘त्रयमेकत्र संयमः’-यो.-३:४ २. ‘तज्जयात् प्रज्ञालोकः’ - यो.-३:५।
स्थविरवाद રૂ૨૭ सकता है। ये ऋद्धियां ज्ञान की प्राप्ति या परम निर्वाण के साक्षात् करने में विघ्नभूत भी होती हैं। इस बात को पतंजलि ने भी स्वीकार किया है। उन्होंने कहा है कि ‘ऋद्धियां’ पुरुष (आत्म) ज्ञान को प्राप्त करने में विघ्न होती हैं। ’ ण ा समाधि-भावना करने वाले योगी के मार्ग में ऋद्धियां स्वतः उपस्थित होती हैं। इन ऋद्धियों में हर्ष, गौरव आदि रखने से योगी अपने मार्ग में शिथिल एवं विचलित हो जात सकता है, अतः परम निर्वाण का साक्षात्कार करने के इच्छुक योगी को इन ऋद्धियों का परित्याग कर सत्यज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रज्ञा (विपश्यना) करनी चाहिए। समाज लागार निशाना भिम विकास का काम
प्रज्ञा-विमर्श
विपश्यना- समाधि का लाभ हो जाने पर संस्कार (नाम-रूप) धर्मों को प्रज्ञा द्वारा अनित्य, दुःख एवं अनात्म आदि विविध आकारों से बार-बार देखना या अभ्यास करना ‘विपश्यना-भावना’ कहलाता है। केवल समाधि के लाभ से निर्वाण का साक्षात्कार असम्भव है, इसके लिए प्रज्ञा भावना (विपश्यना भावना) की परम आवश्यकता होती है। यद्यपि प्रज्ञा शब्द द्वारा साधारण मनुष्य के ज्ञान से लेकर सर्वज्ञ के ज्ञान तक का ग्रहण होता है, किन्तु विपश्यना प्रज्ञा द्वारा धर्मविचय, सम्यक्दृष्टि आदि २१ प्रकार की प्रज्ञाओं का ही ग्रहण होता है।
शमथयानिक और विपश्यनायानिक भेद से योगी दो प्रकार के होते हैं। पहले समाधि लाभ करके बाद में जो विपश्यना भावना करता है, उसे शमथयानिक तथा समाधि के लिए अभ्यास न करके शुरू से ही जो विपश्यना भावना करता है उसे ‘विपश्यनायानिक’ कहते हैं। यद्यपि विपश्यना-यानिक के लिए प्रथम-ध्यान आदि समाधि (अर्पणा) आवश्यक नहीं है, फिर भी विपश्यना करते-करते उसे विपश्यना के बल से सामान्य समाधि (उपचार-समाधि)
का लाभ हो जाता है।
विपश्यनाकर्मस्थान- प्रज्ञा द्वारा जिन संस्कार (नाम-रूप) धर्मो को ध्येय (आलम्बन) बनाकर भावना की जाती है, उस ध्येय (नामरूप) को या आलम्बन को ‘विपश्यना कर्मस्थान’ कहते हैं। समाधि की प्राप्ति के लिए आश्वास-प्रश्वास (प्राणायाम-आनापान) को सबसे उत्कृष्ट साधन (कर्मस्थान) माना जाता है। नासापुट के साथ घर्षण करके प्रविष्ट एवं निर्गत होने वाले वायु (आश्वास-प्रश्वास) को ध्येय बनाकर अभ्यास किया जाता है, तो समाधि का लाभ आनायास हो सकता है। विपश्यना भावना में केवल आश्वास-प्रश्वास वायु की ही भावना नहीं करनी चाहिए, अपितु उस आश्वास-प्रश्वास (आपापान) को आधार करके संस्कार (नामररूप) धर्मों की भावना करनी चाहिए। जैसे- आश्वास-प्रश्वास वायु
१. ‘ते समाधावुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धयः’-यो. ३:३७। जान मालोर मिल पान
३२८
बौद्धदर्शन (रूप) के द्वारा घर्षण होने पर शरीर में जो स्प्रष्टव्य वेदना आदि होते हैं, उन्हें भी साधन बनाकर भावना करनी चाहिए। इस प्रकार नाम-रूप धर्मों के लक्षण आदि को निरन्तर ध्यान लगाकर देखते रहने पर, क्षण-क्षण में उत्पन्न होकर निरुद्ध हो जाने वाले नाम-रूप धर्मों का ज्ञान हो जाता है तथा रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार एवं विज्ञान इन पांच स्कन्धों में
अनित्यता, दु:खता एवं अनात्मता का ज्ञान भी हो जाता है।
जो समाधि की प्राप्ति के अन्तर विपश्यना भावना करता है (शमथयानिक) उसे सर्वप्रथम अपने द्वारा प्राप्त ध्यान (समाधि) में से वितर्क आदि ‘नाम’ धर्मों को विपश्यना का आलम्बन बनाकर भावना करनी चाहिए। जो समाधि की प्राप्ति नहीं होने पर भी विपश्यना-भावना करना चाहता है उसे (विपश्यनायानिक को) सर्वप्रथम रूप से अभ्यास करना चाहिए, तदनन्तर नाम की भावना करनी चाहिए। इस प्रकार नाम-रूप धर्मों के लक्षण आदि को निरन्तर ध्यान लगाकर देखते रहने पर, क्षण-क्षण में उत्पन्न होकर निरुद्ध हो जाने वाले नाम-रूप धर्मों का ज्ञान हो जाता है तथा रूप, वेदना, संज्ञा एवं विज्ञान इन पाँच स्कन्धों में अनित्यता, दुःखता एवं अनात्मता का ज्ञान भी हो जाता है।
समाधि तथा विपश्यना-भावना- सदाचार (शील) द्वारा मनुष्य कायिक, वाचिक और मानसिक दुराचरणों से परिशुद्ध हो जाता है। समाधि-भावना द्वारा अनादिकाल से मनुष्य की चित्तसन्तति में वास करने वाले राग-द्वेष आदि क्लेशधर्म शान्त हो जाते हैं तथा विपश्यना-भावना द्वारा वे क्लेश धर्म समूल नष्ट हो जाते हैं। मनुष्य जब तक समाधि की स्थिति में रहता है तब तक उसकी चित्तसन्तति में रागादि क्लेश शान्त रहते हैं, किन्तु जब समाधि भंग होती है तो क्लेशधर्मों की पुनरावृत्ति की संभावना रहती है। विपश्यना-भावना से ज्ञान प्राप्त होने पर यह बात नहीं होती। विपश्यना-भावना के द्वारा जब साधक को सत्यज्ञान (मार्गज्ञान) प्राप्त हो जाता है तो क्लेशधर्म नष्ट हो जाते हैं, उनकी पुनरावृत्ति नहीं होती। अविद्या (मूल क्लेश) का नाश तो प्रज्ञा-भावना (विपश्यना-भावना) से ही हो सकता है। अविद्या को सर्वथा शान्त भी नहीं किया जा सकता। शील से पाप का, समाधि से कामतृष्णा (काम्थातु) का तथा प्रज्ञा से समस्त भव (संसार) का अतिक्रम हो जाता है। यहाँ किसी आलम्बन को बार-बार देखना, मनन करना या अभ्यास करना ही भावना है। समाधि में यह बार-बार देखने वाली क्रिया किसी एक ध्येय को आलम्बन बनाकर होती है. किन्तु विपश्यना-भावना में ध्येय का एक होना आवश्यक नहीं है। वस्तुतः चित्त में उत्पन्न होने वाले नामरूप धर्मों के उत्पाद और विनाश को विभिन्न ध्येयों में निरन्तर देखना, बार-बार मनन करना या अभ्यास करना ही विपश्यना-भावना है। समाधि-भावना में ध्येय बाह्य और आन्तर दोनों हो सकते हैं, लेकिन विपश्यना-भावना में केवल आन्तरिक ध्येय ही होता है। समाधि और विपश्यना भावना दोनों परम निर्वाण की प्राप्ति के लिए अत्यन्त उत्कृष्ट मार्ग (प्रतिपदा) हैं। विपश्यना-भावना के लिए अर्थात् नामरूप धर्मों के यथार्थज्ञान
स्थविरवाद
३२६
के लिए समाधि की परम आवश्यकता होती है, क्योंकि जिस साधक का चित्त अचंचल एवं अविचलित अर्थात् समाधिस्थ होता है, उसी में विपश्यना की भावना सम्भव है। इसलिए समाधि चित्त की वह अवस्था है, जिसमें किसी विषय (ध्येय) पर चित्त अविचलित रूप से
प्रवृत्त होता है।
अविद्यादि क्लेशों का नाश- जिस प्रकार बौद्ध साधना मार्ग में समाधि द्वारा रागादि क्लेशों का उपशम होता है तथा विपश्यना-भावना द्वारा ही अविद्या सहित समस्त क्लेश समूल नष्ट होते हैं, उसी प्रकार योगदर्शन में भी सम्प्रज्ञातसमाधि की अवस्था में अविद्यादि क्लेशों का समूल विनाश नहीं होता। विवेकज्ञान के उदय होने पर ही धर्ममेघसमाधि की अवस्था में अविद्यादि क्लेशों का समूल नाश हो जाता है। योगदर्शन के अनुसार अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश इन पांचों क्लेशों में अविद्या ही अन्य चार का मूल कारण है। अनित्य, अपवित्र, दुःख तथा अनात्म विषयों में क्रमशः नित्य, पवित्र, सुख तथा आत्मबुद्धि रखना अविद्या है। अविद्या मूलक्लेश है। चारों सम्प्रज्ञात समाधियों में जो समाधिप्रज्ञायें उत्पन्न होती हैं, वे सभी अविद्या से मिश्रित होती हैं। किसी भी सम्प्रज्ञातसमाधि प्रज्ञा में अविद्या अवश्य विद्यमान रहती है, वह चाहे प्रकट रूप से हो अथवा अप्रकट रूप से। यहाँ तक कि अविद्या के आधार के बिना समाधिप्रज्ञा भी प्रकाशित नहीं होती। सम्प्रज्ञातसमाधियों में किसी न किसी ध्येय का आलम्बन होने से तथा हर अवस्था में अविद्या बीज रूप से विद्यमान रहने के कारण इन सम्प्रज्ञातसमाधियों को सबीज समाधि भी कहते हैं। अन्तिम निर्विचार-समाधि की ऊँची अवस्था में योगी की बुद्धि अत्यधिक निर्मल हो जाती है। उस अवस्था में अविद्या आवरण के समाप्त हो जाने से रजस्तमो रूप मल का भी क्षय हो जाता है। चित्त की मलिनता मिट जाती है। सत्त्वगुण का प्रादुर्भाव होने से साधक का अन्तःकरण प्रसन्नता से भर जाता है। इस अवस्था में योगी प्रकृतिपर्यन्त सभी पदार्थों का एक ही काल में साक्षात्कार कर लेता है। इसे अध्यात्मप्रसाद कहते हैं। इस प्रकार के अध्यात्म प्रसाद (निर्मलता) से ही योगी को ऋतम्भराप्रज्ञा प्राप्त होती है। अध्यात्मप्रसाद प्राप्त कर लेने पर अविद्यादि से रहित सत्य को धारण करने वाली प्रज्ञा उत्पन्न होती है। इसे ऋतम्भराप्रज्ञा कहते हैं। (यो. १:४८)। ऋतम्भराप्रज्ञा का उदय होने के अनन्तर योगी उस अवस्था विशेष पर पहुंच जाता है जो उसे संसारचक्र से निकाल कर कैवल्य की ओर ले जाती है। इसे विवेकख्याति कहते हैं। यह अत्यन्त महत्त्व की अवस्था है। विवेकख्याति की परिपक्व अवस्था धर्ममेघ समाधि कही जाती है। धर्ममेघ समाधि द्वारा ही अविद्या आदि समस्त क्लेश विनष्ट हो जाते हैं। धर्ममेघसमाधि सूक्ष्म रूप से विद्यमान अविद्या (मिथ्या ज्ञान) को समूल नष्ट कर देती है। अविद्या का क्षेत्र धर्ममेघसमाधि तक रहता है। इस अवस्था
१. ‘निर्विचारवैशारद्येऽध्यात्मप्रसादः’-यो.-१:४७।
३३०
बौद्धदर्शन
को प्राप्त करने पर अविद्या की पुनरावृत्ति नहीं होती। विवेकख्याति अथवा धर्ममेघसमाधि के द्वारा अविद्या समूल नष्ट हो जाती है तथा अविद्या की निवृत्ति से ही मोक्ष प्राप्त होता है।
बौद्ध-साधना-मार्ग में भी समाधि लाभ होने के अनन्तर भी अविद्या आदि क्लेशों के विनाश के लिए विपश्यना-भावना करनी पड़ती है। विपश्यनाभावना से ज्ञान का क्रमिक विकास हो जाता है। प्रथम मार्गज्ञान प्राप्त करने के लिए साधक को १३ प्रकार के लौकिक विपश्यनाज्ञानों को प्राप्त करना अनिवार्य होता है। प्रथममार्गज्ञान (स्रोतापत्तिमार्गज्ञान) प्राप्त होने पर यद्यपि साधक एक काल में चार आर्यसत्यों का ज्ञान हो जाने से परम निर्वाण का साक्षात्कार कर लेता है, तथापि वह अविद्या आदि क्लेशों को विनष्ट नहीं कर सकता, केवल मिथ्यादृष्टि एवं विचिकित्सा का प्रहाण करता है। द्वितीय मार्ग ज्ञान एवं तृतीयमार्ग ज्ञान में भी स्थूल क्लेशों का प्रहाण किया जा सकता है। चतुर्थ मार्ग (अर्हत्) ज्ञान प्राप्त कर लेने पर ही अविद्या आदि क्लेश समूल नष्ट हो जाते हैं। बौद्ध विचारधारा में भी अविद्या को मूल क्लेश कहा जाता है। अविद्या के समूल विनष्ट हो जाने पर साधक जीवन-मरण रूपी संसार-चक्र से विमुक्त हो जाता है। उसका पुनर्भव नहीं होता। आयुःक्षय होने पर परम निर्वाण का लाभ हो जाता है।
योगदर्शन एवं बौद्धदर्शन का चरमलक्ष्य है सभी दुःखों से आत्यन्तिकी निवृत्ति। दुःखों की आत्यन्तिकी निवृत्ति के लिए अविद्या को समूल नष्ट करना तथा अविद्या को नष्ट करने के लिए मार्गज्ञान प्राप्त करना परमावश्यक होता है। मार्गज्ञान प्राप्त करने के लिए विपश्यना-भावना की अनिवार्यता होती है, क्योंकि विपश्यना-भावना के द्वारा नामरूप (संस्कार) धर्मों का यथार्थज्ञान होने पर ही मार्गज्ञान की सम्भावना है।
विपश्यना ज्ञान- विपश्यना-भावना के प्रसंग में योगी को सत्यज्ञान (मार्गज्ञान) की प्राप्ति से पूर्व क्रमशः उच्च-उच्चतर १३ ज्ञानों की प्राप्ति होती है। एक
4 (१) नामरूपपरिच्छेद ज्ञान- जिसने ध्यान प्राप्त किया है, उस शमथयानिक को शुरू से ही सूक्ष्म ‘नाम’ धर्मों से भावना करनी चाहिए। निरन्तर अभ्यास (भावना) करते रहने पर उसे ‘यह नाम है’, ‘यह रूप है’, इस प्रकार का ज्ञान हो जाता है। जिसने ध्यान प्राप्त नहीं किया है, उसके लिए स्थूल ‘रूप’ से ही भावना का प्रारम्भ करना चाहिए। निरन्तर अभ्यास करने पर उसे भी ‘यह रूप है’, ‘यह नाम है’, इस प्रकार का ज्ञान हो जाता है। इस प्रकार का ज्ञान ही ‘नामरूपपरिच्छेद ज्ञान’ कहलाता है।
(२) प्रत्ययपरिग्रह ज्ञान- नाम-रूप परिच्छेद ज्ञान होने अनन्तर जब आगे भावना की जाती है तो योगी को यह कारण (प्रत्यय) है, यह कार्य (फल) है, इसके होने पर यह होता है, रूप कारण है, नाम कार्य है, इस प्रकार कारण (प्रत्यय) के साथ नामरूपों का ज्ञान हो जाता है। इसे ही प्रत्यय-परिग्रह-ज्ञान कहते हैं।
स्थविरवाद
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भाऊ। (३) सम्मर्शन ज्ञान- नाम-रूप धर्मों का विमर्श करने वाला ज्ञान ‘सम्मर्शन ज्ञान’ कहलाता है। यह चार प्रकार का होता है। यथा-कलाप सम्मर्शन, अध्वसम्पर्शन, सन्तति सम्मर्शन तथा क्षण सम्मर्शन। इनमें अतीत आदि के द्वारा विभाजन कर ‘यह रूप समूह है’, यह वेदना समूह है’, यह संज्ञा समूह है’- इत्यादि प्रकार से विमर्श या विचार करने वाला ज्ञान ‘कलाप सर्मशन ज्ञान’ है। ‘यह अतीतकालिक रूप-समूह (रूपस्कन्ध) है, यह वर्तमानकालिक रूप-समूह है, यह अनागतकालिक रूपसमूह है’ इत्यादि प्रकार से पाँच स्कन्धों का काल की दृष्टि से विभाजन करके विचार करने वाला ज्ञान ‘अध्वसम्मर्शन ज्ञान’ है। एक जीवन (भव) में होने वाले रूपसमूह (रूपस्कन्ध) के प्रवाह (सन्तति) को देखकर यह शीतरूप सन्तति है, यह उष्ण रूप सन्तति है’ इत्यादि प्रकार से सभी स्कन्ध-सन्तति का विचार-विमर्श करने वाला ज्ञान ही सन्ततिसम्मर्शन ज्ञान है। (एक प्रवाह के अन्तर्गत विद्यमान रूप आदि को) यह उत्पाद क्षण है, यह स्थिति क्षण है, यह विनष्ट (भंग) क्षण है’ इत्यादि प्रकार से सभी नाम-रूप धर्मों का क्षण की दृष्टि से विचार-विमर्श करने वाला ज्ञान ‘क्षण सम्मर्शन’ कहलाता है। सिमा
(४) उदयव्ययज्ञान- जब योगी सम्मर्शन में अभ्यस्त हो जाता है, तब उसे नाम-रूप धर्मों के उत्पाद (उदय) एवं नाश (व्यय) का ज्ञान हो जाता है। अर्थात् अभ्यास करते-करते योगी को नाम-रूप धर्मों का केवल उत्पाद (उदय) एवं नाश (भंगव्यय) ही दृष्टिगोचर होने लगता है। उसे नाम-रूप धर्मों का स्थितिक्षण दिखलाई नहीं देता, यह उदयव्ययज्ञान की अवस्था है। इस अवस्था में योगी को प्रकाश (अवभास) प्रीति, सुख आदि विपश्यना के विघ्न करने वाले उपक्लेश उत्पन्न होते हैं। योगी को इनसे बचना आवश्यक है, अन्यथा विपश्यना से उसके गिर जाने का भय है। माता (५) भंगज्ञान- जब योगी उदय-व्यय ज्ञान द्वारा धर्मों के उदय एवं नाश (व्यय) की भावना करता है, तब अभ्यास करते-करते ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि योगी नाम-रूप धर्मों के उत्पाद-क्षण को पकड़ नहीं पाता है, क्योंकि नाम धर्मों का उत्पाद क्षण अत्यन्त शीघ्रता से घटित होता है। वह केवल उनके नष्ट (भंग) क्षण को ही देख पाता है, यह भंगज्ञान की अवस्था है।
(६) भयज्ञान-उन नाम-रूप धर्मों के केवल नाश (भंग) को ही देखने वाले योगी को ऐसा प्रतीत होता है कि नाम-रूप धर्मों का अतीत-काल में भी निरोध (भंग) हुआ था। वर्तमान काल में भी भंग हो रहा है। भविष्य (अनागत) काल में भी भंग होगा, इन नाम-रूप धर्मों के भंगज्ञान से योगी को भय उत्पन्न होता है, यह अभयज्ञान की अवस्था है।
(७-६) आदीनव ज्ञान, निर्वेदज्ञान, मुञ्चितुकाम्यता- नाम-रूप-धर्म भयोत्पादक धर्म हैं, इस प्रकार के भयज्ञान के उत्पाद के अनन्तर उन नाम-रूप धर्मों में दोष (आदीनव) देखने वाला ‘आदीनव ज्ञान’ उत्पन्न होता है। आदीनव ज्ञान उत्पन्न हो जाने पर उन धर्मों३३२
बौद्धदर्शन के प्रति संवेग ‘निर्वेद’ ज्ञान की उत्पत्ति होती है। तदनन्तर उन धर्मों से छुटकारा चाहने वाले ज्ञान (मुञ्चितुकाम्यता ज्ञान) की उत्पत्ति होती है।
(१०) प्रतिसंख्याज्ञान- संस्कार (नाम-रूप) धर्मों के प्रति उनके अनित्यभाव, दुःख-भाव एवं अनात्मभाव को देखने वाला ज्ञान, प्रतिसंख्याज्ञान है। मुञ्चितुकाम्यता ज्ञान से यद्यपि वह (योगी) मुक्ति चाहता है, किन्तु वह संस्कार धर्मों से मुक्त नहीं हो पाता है। इस प्रतिसंख्या ज्ञान के द्वारा योगी मुक्त होने के लिए संस्कार धर्मों के अनित्य, दुःख एवं अनात्म लक्षणों द्वारा पुनः पुनः भावना करता है, इस प्रकार की भावना करने वाला ज्ञान प्रतिसंख्याज्ञान है।
(११) संस्कारोपेक्षाज्ञान- प्रतिसंख्याज्ञान द्वारा संस्कार धर्मों को छोड़ देने के बाद उन संस्कार(नाम-रूप) धर्मों को भय, आदीनव आदि ज्ञानों द्वारा न देखकर योगी केवल उनकी उपेक्षा ही करता है। नाम रूप धर्मों की उपेक्षा करने में समर्थ ज्ञान ‘संस्कारोपेक्षाज्ञान’ है। उपेक्षा का तात्पर्य योगाभ्यास न करने से नहीं है। अनित्य आदि लक्षणों द्वारा भावना तो करता ही रहता है। किन्तु नाम-रूप धर्मों में न तो उसे अनुराग होता है और न भय, आदीनव (दोष) आदि होते हैं।
(१२) अनुलोमज्ञान- इस संस्कारोपेक्षा ज्ञान के अनन्तर योगी को सत्य ज्ञान (मार्ग एवं फल ज्ञान) की प्राप्ति होती है। यह ज्ञान मार्ग एवं फल ज्ञान के अनुकूल है तथा उदयव्यय आदि नीचे के ज्ञानों के भी अनुरूप है इसलिए इसे ‘अनुलोम ज्ञान’ कहते हैं। यह अपने पूर्ववर्ती ज्ञानों की तरह संस्कार ‘नाम-रूप’ धर्मों का अनित्य आदि लक्षणों के द्वारा ही विपश्यना-भावना करता है।
(१३) गोत्रभूज्ञान- अनुलोम ज्ञान के अनन्तर प्रवृत्त चित्त को ‘गोत्रभूचित्त’ कहते हैं। यह चित्त निर्वाण का आलम्बन बनाकर उत्पन्न होता है। इसके द्वारा योगी साधारण मनुष्य (पुथुज्जन) गोत्र का अभिनव करके आर्य गोत्र में प्रविष्ट हो जाता है, इसलिए इसे ‘गोत्रभूज्ञान’ कहते हैं। यह गोत्रभूज्ञान निर्वाण का सर्वप्रथम द्रष्टा होने के कारण सत्यज्ञान (मार्ग-ज्ञान) का पूर्ववर्ती चित्त (आवर्जन चित्त) है। सत्यज्ञान (आर्यमार्गज्ञान) के पूर्वगामी उपर्युक्त सभी ज्ञान ‘लौकिक ज्ञान’ हैं। ये ‘विपश्यनाप्रज्ञा’ कहलाते हैं। तथा विपश्यना भूमि के ज्ञान भी कहलाते हैं।
गोत्रभूचित्त (गोत्रभूज्ञान) के निरोध होने के अनन्तर ४ कृत्यों को एक साथ उत्पन्न करने वाला मार्गचित्त उत्पन्न होता है। जिस प्रकार दीपक बत्ती को जलाना, अन्धकार को नष्ट करना, प्रकाश को उत्पन्न करना एवं तेल आदि को समाप्त करना-इन कृत्यों एक साथ सिद्ध करता है, उसी प्रकार मार्गचित्त भी दुःख सत्य का ‘यह दुःख सत्य है, ये नाम-रूप सब दुःख ही हैं। इस प्रकार परिच्छेद करके जानना (परिज्ञाकृत्य), दुःख का कारण (समुदय) तृष्णा (समुदयसत्य) का प्रहाण करना (प्रहाण कृत्य), निरोध (निर्वाण) सत्य का
स्थविरवाद
साक्षात्कार करना (साक्षात्क्रियाकृत्य) एवं मार्ग सत्य को स्वसन्तान में उत्पन्न करना (भावना-कृत्य)-इस प्रकार इन चार कृत्यों को एक साथ सम्पन्न करता है। योगी में निर्वाण का साक्षात् करने वाले मार्ग एवं फल चित्तों की प्रवृत्ति अतिशीघ्र घटित हो जाती है, अतः पूर्व दृष्ट निर्वाण तथा मार्ग एवं फल का पुनः विचार (आवर्जन) करने वाला (प्रत्यवेक्षण) ज्ञान उत्पन्न होता है। इस प्रकार प्रत्यवेक्षण पर्यन्त ज्ञान-सम्पन्न व्यक्ति आर्य-अष्टाङ्गिक मार्ग रूपी स्रोतस् (प्रवाह) में सर्वप्रथम प्रवेश (प्राप्त) करने वाला पुद्गल (स्रोत-आपन्न पुद्गल) कहलाता है। यह पुद्गल नाम-रूप धर्मों में आत्मग्रह (सत्काय दृष्टि), बुद्ध, धर्म, संघ एवं आर्य मार्ग में संशय (विचिकित्सा) और अमार्ग को निर्वाण का मार्ग समझना (शीलव्रतपरामर्श) नामक तीन बन्धनों (संयोजनों) से विमुक्त हो जाता है। उनका जीवन दुर्गति (अपाय) में कभी नहीं जाता। वह संसार (कामभूमि) में अधिक से अधिक सात बार जन्म लेता है। इस बीच वह अर्हत् होकर निर्वाण प्राप्त कर लेता है। यही दर्शनमार्ग है।
प्रथम लोकोत्तरज्ञान (मार्गज्ञान) से सम्पन्न योगी में सम्यग्दृष्टि आदि आठ अंग उत्पन्न हो जाते हैं, अतः इसे ‘मार्ग ज्ञान’ कहते हैं। इस प्रकार के ज्ञान को योगदर्शन में ‘ऋतम्भरा प्रज्ञा’ कहते हैं। पतञ्जलि ने सत्य को धारण करने वाली प्रज्ञा को ऋतम्भरा प्रज्ञा कहा है। ’ मिथ्या ज्ञान (मिथ्या दृष्टि) का प्रहाण कर सम्यक् ज्ञान (सम्यग्दृष्टि) को धारण करना ‘मार्ग ज्ञान’ है। यही ऋतम्भरा प्रज्ञा है। हनी
को वह आर्य (स्रोतापन्न) पुद्गल यदि शेष क्लेशों के प्रहाण के लिए एवं ऊपर के मार्गज्ञान एवं फलज्ञान की प्राप्ति के लिए भावना (साधना) करना चाहता है तो उसे अपने शरीर (स्कन्ध) में होने वाले नाम-रूप धर्मों (उपादान स्कन्धों) को ध्येय बनाकर भावना करनी चाहिए। उनको ऊपर कथित १३ विपश्यना ज्ञानों में से उदयव्ययज्ञान से गोत्रभूज्ञान तक उत्पन्न करने के अनन्तर द्वितीय मार्ग एवं फल ज्ञान की उत्पत्ति होती है। मार्ग ज्ञान होने पर वह एक बार संसार (कामभूमि) में जन्म लेने वाला (सकृदागामी) आर्यपुद्गल कहलाता है। इनकी सन्तान में स्थूल कामविषयक इच्छा (कामराग = लोभ), द्वेष (व्यापाद) का उपशम हो जाता है, अतः वह इस संसार (कामभूमि) में एक से अधिक बार जन्म नहीं ले सकता। यह भावनामार्ग है।
वह सकृदागामी आर्यपुद्गल भी आगे के मार्ग एवं फल ज्ञान के लिए नाम-रूप संस्कार धर्मों को प्रज्ञा द्वारा देखता है (विपश्यना करता है) तो उसमें भी उदयव्यय ज्ञान से गोत्रभूज्ञान तक उत्पन्न होने के अनन्तर तृतीय मार्ग एवं फलज्ञान उत्पन्न होता है। इसके अनन्तर वह संसार (कामभूमि) में फिर नहीं आने वाला आर्यपुद्गल (अनागामी) कहलाता है। उसने काम, द्वेष का अशेष प्रहाण किया है, अतः वह इस भूलोक (काम भूमि) में पुनः
१.
यो. सू.-१:४८ ।
३३४
बौद्धदर्शन उत्पन्न न होकर ब्रह्मलोक में ही उत्पन्न होता है तथा वहीं अर्हत् होकर निर्वाण प्राप्त कर लेता है।
का वह (अनागामी) आर्य भी अन्तिम मार्ग एवं फल ज्ञान के लिए नाम-रूप (संस्कार) धर्मों को प्रज्ञा से देखता (विपश्यना-भावना करता ) है तो उपर्युक्त उदयव्ययज्ञान से गोत्रभज्ञान तक उत्पन्न होने के अनन्तर अन्त में चतर्थ मार्ग एवं फल ज्ञान होता है। उसका अब कुछ सीखना नहीं है, अतः यह अशैक्ष मार्ग है। यह क्लेशों का हनन (नाश) करने वाला अर्हत् आर्य पुद्गल कहलाता है। अर्हत् पुद्गल में रूपराग (रूपतृष्णा) अरूपराग (अरूपतृष्णा), मान, अविद्या आदि सभी क्लेश प्रहीण हो जाते हैं। फलतः अर्हत् का पुनः भव नहीं होता। पुनः भव न होने से जन्म-मरण आदि समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है। इस जीवन में ही आयुःक्षय होने पर परम निर्वाण का लाभी होता है। यही स्थविरवादी बौद्धों का चरमलक्ष्य है।
जब योगी को चतुर्थ (अन्तिम) मार्ग एवं फल ज्ञान प्राप्त हो जाता है तब उनके लिए जीवन के कोई कृत्य शेष नहीं रहता है। अविद्या आदि क्लेश या संस्कार (अनुशय) सदा के लिए समूल नष्ट हो जाते हैं। योग-दर्शन में इस अवस्था को ‘धर्ममेघ समाधि’ कहते हैं। यह ठीक भी है। जब योगी जीवनमुक्त हो जाता है तो जन्म-मरण चक्र से छुटकारा पा जाता है। विवेक ज्ञान के उदय होने पर योगी का क्लेशों के बन्धनों से मुक्त हो जाना स्वाभाविक ही है। सम्प्रज्ञातसमाधि की ऊँची स्थिति को ‘विवेकख्याति’ कहते हैं। विवेकख्याति की अवस्था परिपक्व होने पर क्लेश, कर्म, कर्माशय (संस्कार-अनुशय) की समूल निवृत्ति होती है। '
समस्त विषयों से रागरहित होकर ध्येय पर एकाग्र होना सम्प्रज्ञातसमाधि कही जाती है, जिसकी पराकाष्ठा विवेकख्याति है। विवेकख्याति की अवस्था स्थायी होने पर धर्ममेघ समाधि कहलाती है। सम्प्रज्ञातसमाधि की अवस्था में क्लेश नष्ट नहीं होते, अपितु शान्त हो जाते हैं. यदि ध्येय वस्त से चित्त विचलित हो जाता है तो क्लेश पनः उत्पन्न होते हैं, क्योंकि अभी क्लेशों का मूल संस्कार या कर्माशय (अनुशय) नष्ट नहीं हुआ है। धर्ममेघ समाधि में ही क्लेश समूल नष्ट होते हैं, पुनः उत्पाद के लिए कोई बीज शेष नहीं रहता। इसी प्रकार बौद्ध साधना में भी यद्यपि रूपावचर और अरूपावचर ध्यान (समाधि) की अवस्था में चित्त के ध्येय आलम्बन पर एकाग्र हो जाने से उसमें रागादि क्लेश नहीं होते हैं, तथापि यदि चित्त ध्येय से हटकर दूसरे विषयों पर चला जाता है तो क्लेश उत्पन्न हो जाते हैं, क्योंकि क्लेश का मूल (जड़) विद्यमान रहता है। केवल समाधि के बल से वे क्लेश उदित नहीं हो पाते। इसलिए जो धर्म क्लेशों को शान्त (उपशम) करता है, उसे समाधि कहते हैं। समाधि
१.
यो.सू.-४-२६-३०।
स्थविरवाद
लाभ से क्लेशों का शमन तो होता है, किन्तु उनका समूल नाश नहीं होता। मार्ग ज्ञान से ही क्लेशों का नाश होता है इसलिए बौद्ध साधना में अर्हत् पद प्राप्त योगी और योग-दर्शन में धर्ममेघ समाधि प्राप्त योगी को जीवनमुक्त कहते हैं। वह जो कुछ कर्म करता है वह पाप या पुण्य कर्म नहीं है। उसका कोई कर्मफल (विपाक) देने वाला नहीं है, अतः उस योगी के कर्म को बौद्ध परिभाषा में ‘क्रियामात्र’ कहते हैं। जो करना मात्र है जिसका कोई फल नहीं है, वह कर्म ‘क्रिया’ कहलाता है। संसार का कारण अविद्या और तृष्णा के नष्ट हो जाने से उसे पुनर्जन्म भी लेना नहीं है। उनके लिए कोई कृत्य शेष नहीं है, अतः वह ‘कृतकृत्य’ आर्यपुद्गल कहा जाता है। या तामा
निरोधसमापत्ति- इस लोक में पुनः नहीं आने वाला आर्य (अनागामी) पुद्गल तथा जीवनमुक्त आर्य (अर्हत्) पुद्गल-ये दोनों ही निरोध समापत्ति का समावर्जन कर सकते हैं। उपर्युक्त अनागामी एवं अर्हत् पुद्गल भी समाधि प्रकरण में वर्णित (आठ या नव) ध्यानों को प्राप्त करने वाला होना चाहिए। अर्थात् ध्यान प्राप्त अनागामी एवं अर्हत् ही निरोधसमापत्ति का समावर्जन कर सकते हैं। योग दर्शन की परिभाषा में सम्प्रज्ञात समाधि प्राप्त होने के बाद ही योगी सभी वृत्तियों के निरोध स्वरूप असम्प्रज्ञात समाधि प्राप्त कर सकता है।
- जब योगी प्रज्ञा भावना (विपश्यना) से सत्यज्ञान (मार्गज्ञान) प्राप्त करता है, उस समय वह निर्वाण का साक्षात्कार कर लेता है। किन्तु वह साक्षात्कार स्थायी नहीं होता क्षण-मात्र के लिए होता है, क्योंकि मार्ग ज्ञान की अवस्था ही क्षण मात्र रहती है। जब वही आर्य अनागामी एवं अर्हत् हो जाता है तो मार्ग अवस्था में साक्षात्कृत निरोध (निर्वाण) को अपनी सन्तान में पुनः उत्पन्न करना चाहता है। नामरूपात्मक इस शरीर को धारण करके रहना अनागामी और अर्हत के लिए बहुत भारस्वरूप प्रतीत होता है। वे कभी-कभी नामरूप (संस्कारों) से निवृत्त होकर रहना चाहते हैं। वे नामरूप (संस्कारों) के अनुत्पाद (निरोध) की अवस्था को परम शान्ति मानते हैं। अतः वे पहले प्राप्त ध्यानों को अपनी सन्तान में उत्पन्न करके अपने चित्त को किसी विषय में न रखकर रोक लेते हैं। चित्त बिना आलम्बन के कभी भी उत्पन्न नहीं हो सकता, अतः समाधि के बल से किसी विषय (आलम्बन) को ग्रहण न कर वे चित्तवृत्ति को रोक लेते हैं। आलम्बन (विषय) के न होने पर चित्त से उत्पन्न रूप (चित्तजरूप) भी निरुद्ध हो जाते हैं। इसे ‘निरोध समापत्ति’ कहते हैं। योगी निरोध समापत्ति में अधिक से अधिक एक सप्ताह तक रह सकता है। निरोध समापत्ति की अवस्था में चित्त-चैतसिक एवं चित्त से उत्पन्न रूप (चित्तजरूप) के निरुद्ध हो जाने के
कारण उस योगी के सन्तान में रागादि क्लेश निरुद्ध हो जाते हैं। अपने पूर्व निर्धारित समय * के पूर्ण होने पर अपने चित्त को पुनः उत्पन्न कर लेते हैं। निरोध समापत्ति की अवस्था में केवल कर्म से उत्पन्न रूप (कर्मजरूप), आहार से उत्पन्न रूप (आहारजरूप) तथा ऋतु
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बौद्धदर्शन
AL
से उत्पन्न रूप (ऋतुजरूप) रह जाते हैं। यहाँ प्रश्न होता है कि मृत व्यक्ति और निरोध समापत्ति का समावर्जन करने वाले व्यक्ति में क्या अन्तर है? मृत व्यक्ति का आश्वास-प्रश्वास (काय संस्कार), वितर्क-विचार (वाक् संस्कार) तथा संज्ञा-वेदना (चित्त संस्कार) निरुद्ध हो जाते हैं, शान्त हो जाते हैं, आयु क्षीण हो जाती है, ऊष्मा शान्त हो जाती है तथा इन्द्रियाँ उच्छिन्न हो जाती हैं। निरोध समापत्ति का समावर्जन करने वाले योगी का भी आश्वास-प्रश्वास (काय संस्कार) वितर्क-विचार (वाक् संस्कार) तथा संज्ञा, वेदना (चित्त संस्कार) निरुद्ध हो जाते हैं, शान्त हो जाते हैं, किन्तु आयु क्षीण नहीं होती, ऊष्मा शान्त नहीं होती तथा इन्द्रियाँ निर्मल होती हैं। ’ वस्तुतः योगी वर्तमान जीवन में भी शान्ति से रहना चाहता है अर्थात् निर्वाण को आलम्बन बनाकर सुखपूर्वक रहना चाहता है, अतः वह निरोध समापत्ति का
समावर्जन कर विहार करता है।
ना योग-दर्शन में इस अवस्था (समापत्ति) को असम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं सम्प्रज्ञात समाधि में सभी वृत्तियों का निरोध नहीं होता। असम्प्रज्ञात समाधि में ही समस्त चित्तवृत्तियाँ निरुद्ध हो जाती हैं, केवल संस्कार मात्र शेष रहते हैं। इस अवस्था में योगी चित्तवृत्तियों को उदय करने में असमर्थ होता है। केवल स्वरूप मात्र ही शेष रहता है। चित्त की यह अवस्था परम वैराग्य के अभ्यास से प्राप्त होती है। इस अवस्था को ही असम्प्रज्ञात निर्बीज समाधि कहा जाता है। परम वैराग्य ही समस्त वृत्तियों के निरोध का कारण भी है। निरोध समाधि में समस्त वृत्तियों का निरोध होने पर संस्कारों का निरोध नहीं होता। यह संस्कार भी निरोध संस्कार है। यह वृत्तियों को समाप्त करने वाला है। असम्प्रज्ञात समाधि की पूर्ण अवस्था ही निर्बीज समाधि है। इस अवस्था में परवैराग्य के द्वारा ऋतम्भरा प्रज्ञा से उत्पन्न संस्कारों का भी निरोध हो जाता है तथा सभी संस्कार निरुद्ध हो जाने से इस अवस्था को निर्बीज समाधि कहते हैं।
11 सप्तविशुद्धियाँ- विशुद्धियाँ सात होती हैं। यथा- शीलविशुद्धि, चित्त-विशुद्धि, दृष्टिविशुद्धि, कांक्षावितरणविशुद्धि, मार्गामार्गज्ञानदर्शनविशुद्धि, प्रतिपदा-ज्ञानदर्शनविशुद्धि तथा ज्ञानदर्शनविशुद्धि। इनमें से योगी जब सदाचार (शील) से सम्पन्न रहता है। तब उनका सदाचार (शील) परिशुद्ध कहा जाता है। अतः उस योगी का निर्मल सदाचार ‘शीलविशुद्धि’ कहलाता है। योगी का चित्त समाहित होने पर राग-द्वेष आदि क्लेश उत्पन्न नहीं होते हैं, अतः समाधिस्थ योगी का चित्त ‘निर्मल चित्त’ या ‘चित्तविशुद्धि’ कहलाता है। अर्थात् क्लेशों से चित्त की परिशुद्धि को ही चित्तविशुद्धि कहते हैं। ‘यह आलम्बन की ओर अभिमुख (नमन) करने वाला ‘नाम’ है तथा यह भौतिक द्रव्य रूप है’-इस प्रकार नामरूप धर्मों को परिच्छेद १. म. महावेदल्लसुत। २. ‘विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः’- यो. १:१८॥
३. ‘तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीजः समाधिः-१:५१
प्राण
लामा
स्थविरवाद
३३७ करके जानने वाला योगी का ज्ञान (दृष्टि) विशुद्ध होता है। अथवा- ‘रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान-इन पांच स्कन्धों से अतिरिक्त ‘आत्मा’ नामक कोई धर्म नहीं है’ इस प्रकार का ज्ञान आत्मग्रह या आत्मोपादान नामक मल से विशुद्ध होने के कारण ‘ज्ञान (दृष्टि) विशुद्धि’ कहलाता है। मैं अतीत में था कि नहीं ? या सर्वज्ञ बुद्ध हुए कि नहीं ? इत्यादि प्रकार के सन्देहों के विनाश से होने वाली विशुद्धि, ‘कांक्षावितरण विशुद्धि’ कहलाती है। निर्वाण प्राप्त करने के मार्ग तथा अमार्ग को जानने वाला ज्ञान ही ‘मार्गामार्गज्ञानदर्शनविशुद्धि’ कहलाता है। मार्गज्ञान तथा फलज्ञान प्राप्त करने में कारणभूत उपाय (प्रतिपदा) को जानने वाला ज्ञान ही ‘प्रतिपदाज्ञानदर्शनविशुद्धि’ कहलाता है, चार आर्यसत्यों को जानने वाला ज्ञान ही ‘ज्ञानदर्शन विशुद्धि’ कहलाता है।
उपर्युक्त सात विशुद्धियों में से सदाचार की परिशुद्धि (शीलविशुद्धि तथा निर्मल चित्त (चित्तविशुद्धि) ही सब विशुद्धियों के मूल हैं। यदि ये दो विशुद्धियाँ नहीं प्राप्त होती, तो शेष विशुद्धियों का उत्पाद सम्भव नहीं है। अतः योगी में सर्वप्रथम सदाचार की परिशुद्धि (शीलविशुद्धि ) होना चाहिए तथा चित्त को क्लेशमलों से विशुद्ध होना चाहिए। अर्थात् समाधिस्थ (चित्तविशुद्धि) होना चाहिए। सदाचार और चित्तविशुद्धि हो जाने पर ही प्रज्ञा-भावना (विपश्यना) करनी चाहिए। प्रज्ञा-भावना के नाम और रूप का पृथक्-पृथक् ज्ञान (नामरूप-परिच्छेद ज्ञान) होने पर दृष्टिविशुद्धि होती है। नामरूप धर्मों के कार्यकारणभाव का ज्ञान (प्रत्यय-परिग्रहज्ञान) उत्पन्न होने पर शंकाओं से विशुद्धि (कांक्षवितरण विशुद्धि) होती है। नाम-रूप धर्मों का विचार-विमर्श करने वाला ज्ञान (सम्मर्शन ज्ञान) तथा नाम-रूप के उत्पाद और भंग स्वभाव का ज्ञान (उदयव्ययज्ञान) होने पर ही ‘यह निर्वाण का साक्षात्कार करने वाला मार्ग है या यह अमार्ग है’- ऐसा ज्ञान (मार्गामार्गज्ञानविशुद्धि) उत्पन्न होता है। नाम-रूप के उत्पाद-भंग स्वभाव के ज्ञान (उदयव्ययज्ञान) की परिपक्व अवस्था, नामरूप धर्मों के नाशस्वभाव का ज्ञान (भंगज्ञान), भयज्ञान, दोष देखने वाला (आदीनव) ज्ञान, निर्वेदज्ञान, नामरूप धर्मों से मुक्ति पाने की इच्छा वाला (मुञ्चितुकाम्यता) ज्ञान, संस्कार (नामरूप) धर्मों के अनित्य स्वभाव, दुःखस्वभाव तथ अनात्म-स्वभाव को जानने वाला (प्रतिसंख्या) ज्ञान, संस्कर (नाम-रूप) धर्मो को छोड़ने की इच्छा से उपेक्षा करने वाला (संस्कारोपेक्षा) ज्ञान तथा उत्पन्न हुए नामरूपों के परिच्छेद का ज्ञान आदि तथा आगे होने वाले सत्य (मार्ग) के अनुरूप (अनुलोम) ज्ञान के उत्पन्न होने पर ही ‘प्रतिपदाज्ञान दर्शन विशुद्धि’ उत्पन्न होती है। निर्वाण का साक्षात्कार करने वाले गोत्रभूज्ञान तथा मार्गज्ञान के उत्पन्न होने पर ‘ज्ञानदर्शन विशुद्धि’ होती है। ज्ञानदर्शन विशुद्धि में कोई विपश्यना ज्ञान नहीं होता, क्योंकि निर्वाण का आलम्बन करने से नामरूप (संस्कार) धर्मों को अनित्य, दुःख एवं अनात्मा की दृष्टि से नहीं देखा जाता अर्थात् नामरूपों की भावना नहीं होती है। )
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बौद्धदर्शन
विशुद्धि और ज्ञान
१. शीलविशुद्धि
शीला का २. चित्तविशुद्धि
समाधि ३. दृष्टिविशुद्धि
नामरूपपरिच्छेदज्ञान ४. कांक्षावितरणविशुद्धि
प्रत्ययपरिग्रहज्ञाना ५. मार्गामार्गज्ञानविशुद्धि सम्मर्शनज्ञान
उदयव्ययज्ञान भंगज्ञानं भयज्ञान
आदीनवज्ञान ६. प्रतिपदाज्ञानदर्शनविशुद्धि निर्वेदज्ञान
मुञ्चतुकाम्यताज्ञान प्रतिसंख्याज्ञान संस्कारोपेक्षाज्ञान
अनुलोमज्ञान __७. ज्ञानदर्शनविशुद्धि
गोत्रभू ज्ञान
मार्गज्ञान दर्शनमार्ग विमोक्ष- क्लेश धर्मों से युक्त मार्ग एवं फल को ‘विमोक्ष’ कहते हैं। इस मार्ग एवं फल नामक विमोक्ष में प्रवेशद्वार की भांति होने से विविध प्रकार से देखने वाली प्रज्ञा (व्युत्थानगामिनी विपश्यना) ‘विमोक्ष मुख’ कहलाती है। यह तीन प्रकार की होती है। यथा-शून्यतानुपश्यना, अनिमित्तानुपश्यना तथा अप्रणिहितानुपश्यना। संस्कार (नामरूप) धमों को अनित्य और दुःख और अनात्मक के रूप में देखने को ‘अनुपश्यना’ कहते हैं। यदि योगी संस्कार धर्मों को अनात्मा के रूप में देखता है, तो उस प्रकार का देखना (अनुपश्यना) आत्मा में दृढ़ विश्वास (आत्माभिनिवेश) का त्याग करने में समर्थ होता है। अतः इस प्रकार की अनुपश्यना (अनात्मानुपश्यना) शून्यतानुपश्यना नामक ‘विमोक्ष मुख’ कही जाती है। अनित्य स्वभाव वाले नाम-रूप (संस्कार) धर्मों को नित्य समझने वाली संज्ञा, चित्त और दृष्टि को ‘विपर्यास’ कहते हैं। इन संज्ञा, चित्त और दृष्टि को क्लेश धर्मों की उत्पत्ति के कारण या निमित्त होने के कारण (विपर्यास निमित्त) भी कहते हैं। यदि योगी संस्कार धर्मों को अनित्य के रूप में देखता है, तो उसका उस प्रकार का देखना (अनुपश्यना) विपर्यासनिमित्त का त्याग करने में समर्थ होता है। अतः इस प्रकार की अनुपश्यना (अनित्यानुपश्यना) अनिमित्तानुपश्यना नामक ‘विमोक्ष मुख’ कहलाती है। संस्कार धर्मों में ही
स्थविरवाद
३३६ चित्त को दृढ़तापूर्वक रखने वाली या उनकी अभिलाषा करने वाली तृष्णा ‘तृष्णाप्रणिधि’ कहलाती है। यदि योगी संस्कार धर्मों को दुःख के रूप में देखता है तो उसका उस प्रकार का देखना (अनुपश्यना) तृष्णा-प्रणिधि का त्याग करने में समर्थ होता है, अतः इस प्रकार की अनुपश्यना (दुःखानुपश्यना) ‘अप्रणिहितानुपश्यना, नामक ‘विमोक्ष मुख’ कहलाती है। यदि योगी संस्कार धर्मो को अनात्म के रूप में देखते हुए (विपश्यना करते हुए) मार्ग ज्ञान प्राप्त कर लेता है तो यह मार्ग ‘शून्यताविमोक्ष’ कहलाता है। यदि योगी संस्कार धर्मों को अनित्य के रूप में देखते-देखते मार्ग ज्ञान को प्राप्त कर लेता है तो वह मार्ग ज्ञान ‘अनिमित्तविमोक्ष’ कहलाता है। यदि योगी संस्कार धर्मों को दुःख के रूप में देखते-देखते (विपश्यना करते हुए) मार्ग ज्ञान प्राप्त कर लेता है तो वह मार्ग ज्ञान ‘अप्रणिहित विमोक्ष’ कहलाता है। इस प्रकार विपश्यना के त्रिविध होने से मार्ग भी तीन प्रकार का हो जाता है। उसी प्रकार मार्गज्ञान के अनन्तर उत्पन्न फल ज्ञान के अनुसार ही शून्यता आदि विमोक्ष होते हैं। श्रद्धा-आधिक्य योगी प्रायः अनित्यता की विपश्यना करने वाला होता है। समाधि-आधिक्य योगी प्रायः दुःख की विपश्यना करने वाला होता है। तथा प्रज्ञा-आधिक्य योगी प्रायः अनात्म की विपश्यना करने वाला होता है। अतः श्रद्धा समाधि और प्रज्ञा- इन तीनों इन्द्रियों के भेद से मार्ग एवं फल क्रमशः अनिमित्तविमोक्ष, अप्रणिहितविमोक्ष तथा
शून्यताविमोक्ष होते हैं।
मार्ग एवं फलज्ञान प्राप्त योगी का आलम्बन निर्वाण है। यदि योगी का मार्ग एवं फल अनिमित्तवविमोक्ष होता है तो उसका आलम्बन भूत निर्वाण भी ‘अनिमित्त’ कहा जाता है। उसी प्रकार मार्ग एवं फलज्ञान अप्रणिहित विमोक्ष अथवा शून्यता विमोक्ष होता है तो उसका आलम्बन निर्वाण भी अप्रणिहित अथवा शून्य कहा जाता है। मार्ग एवं फल ज्ञान अपने स्वभाव से भी शून्यताविमोक्ष होते हैं। यथा-मार्ग एवं फल राग आदि क्लेशों से सर्वथा रहित (शून्य) होते हैं। संस्कार निमित्त का आलम्बन न कर सर्वथा निर्वाण का ही आलम्बन करने के कारण वे स्वभावतः अनिमित्तविमोक्ष ही होते हैं तथा राग आदि क्लेशों की अभिलाषा न करने के कारण वे स्वभावतः अप्रणिहितविमोक्ष ही होते हैं।
__ यहाँ योगी नाम-रूप संस्कार धर्मों के प्रति केवल अनित्य या दुःख या अनात्म की भावनामात्र से मार्ग एवं फल ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता, अपितु उसे संस्कार धर्मों की अनित्य, दुःख एवं अनात्म-इन तीन स्वभावों (लक्षणों) से विपश्यना-भावना करनी पड़ती है। मार्ग प्राप्ति के पूर्व-क्षण में यदि संस्कार धर्मों के अनित्य स्वभाव को देखता है तो वह मार्ग एवं फल अनिमित्तविमोक्ष कहलाता है। यदि मार्ग प्राप्ति के पूर्व-क्षण में संस्कार धर्मों को दुःख स्वभाव अथवा अनात्म स्वभाव देखता है तो वह मार्ग एवं फल अप्रणिहित अथवा शून्यताविमोक्ष कहलाता है।
जोनाथन काम किया
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