०२ भगवान् बुद्ध की शिक्षा

के लोक में बुद्ध का उत्पाद अत्यन्त दुर्लभ है। ऐसा महामानव कभी-कभी ही जगतीतल में अवतीर्ण होता है। उनके उत्पाद ने निश्चय ही मानवजाति के गौरव की अभिवृद्धि की है। साधारण मनुष्य के रूप में उत्पन्न होकर, सामान्य मानवीय समस्याओं से जूझते हुए, अपने ही प्रयासों से बुद्ध के रूप में उनके आविर्भाव से चारों ओर के हाहाकार, उत्पीड़न और नैराश्य से ग्रस्त मानवजाति को एक सम्बल प्राप्त हुआ, एक आश्वासन प्राप्त हुआ और बुद्धत्व के रूप में उसे एक आदर्श भी प्राप्त हुआ। यही कारण था कि उनका धर्म उनके जीवन काल में ही अत्यन्त लोकप्रिय हो गया। लोग अहमहमिकया उसमें स्वेच्छा से प्रविष्ट होने लगे। कहीं भी किसी से किसी प्रकार का विवाद या संघर्ष नहीं हुआ। धर्मों के विकास के इतिहास में बौद्ध धर्म का प्रसार और विस्तार एक अभूतपूर्व घटना है।
__महामानव बुद्ध बाल्यावस्था से ही (अर्थात् सिद्धार्थ की अवस्था से ही) कतिपय मानवीय समस्याओं से बेहद परेशान थे। उन्हीं समस्याओं के समाधान की उधेड़बुन में वे हमेशा लगे रहते थे। वे अत्यन्त संवेदनशील एवं गम्भीर प्रकृति के थे। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि जन्म, जरा, व्याधि एवं मरण प्रधान अनेक प्रकार की विपत्तियों का जगत् में साम्राज्य व्याप्त होने पर भी व्यक्ति, सामान्य जन चिन्तित क्यों नहीं है? वे विविध मनोरंजनों में संलग्न और जागतिक क्षणिक सुख के व्यामोह में बेसुध क्यों हैं ? वे तत्कालीन समाज से निराश हुए और उन्होंने संकल्प लिया कि मैं ही इन समस्याओं का कारण (मूल) और उनके निराकरण का उपाय खोलूँगा। महामानव सिद्धार्थ इसी चिन्ता में एक दिन घर से बाहर होकर प्रव्रजित हो गए। वे तत्कालीन उन सभी महापुरुषों से मिले, जिनके बारे में प्रसिद्धि थी कि वे तत्त्व के ज्ञाता हैं। उनके साथ उन्होंने विचार-विमर्श किया, उनके द्वारा उपदिष्ट साधनाविधि का अभ्यास किया, किन्तु उनके नतीजे से उन्हें सन्तोष नहीं हुआ। दुःख की जो समस्याएं उनके मन में घर किए हुए थीं और जिनके समाधान की खोज में वे घर से बाहर हो प्रव्रजित हुए थे, उनके समाधान की दिशा में उनसे उन्हें कुछ भी महत्त्वपूर्ण उपलब्धि नहीं हुई। उन्होंने कठोर तपश्राएं कीं। उन्होंने ऐसी कोई तपस्या नहीं छोडी, जिसके बारे में सना गया हो कि अतीत में अमक ने यह तपस्या की थी। किन्त उन समस्याओं का समाधान उन्हें उनसे भी नहीं मिला, जो उन्हें बचपन से ही घेरे हुए थीं।
अन्ततोगत्वा उन्होंने अपने ही रास्ते चलने का निश्चय किया और एक सौभाग्यशाली दिन उनका मनोरथ पूर्ण हुआ। उन्हें समाधान के सूत्र प्राप्त हो गए। उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ और उन्होंने अपने दुःखों का अन्त कर दिया।
केवल अपने दुःखों का नाश करने के लिए वे घर से बेघर नहीं हुए थे। व्यक्तिगत दुःख उनकी समस्या न थी। उन्हें प्राणी-मात्र के दुःखों की चिन्ता थी। वस्तुतः वे उस व्यापक भगवान् बुद्ध की शिक्षा २७७ नियम को खोजना चाहते थे, जिसके तहत दुःखों की परम्परा या जन्म-मरण की श्रृंखला चलती रहती है। उस नियम को जानकर उसके चक्र से बाहर निकलने का उपाय वे खोज रहे थे। जैसे कोई वैज्ञानिक किसी प्राकृतिक नियम को जानने के लिए प्रयोगशाला में विविध प्रयोग करता है। उसी तरह उन्होंने अपने चित्त की प्रयोगशाला में अनेक प्रयोग किए। उन्हें असफलताएं भी मिलीं, किन्तु अन्त में उन्हें सभी प्रकार के जागतिक दुःखों के उत्पाद का सार्वभौम नियम और उनके निराकरण का उपाय (मार्ग) मालूम हो गया। उन नियमसूत्रों के आधार पर जब उन्होंने अपने दुःखों का प्रहाण कर लिया तब उन्होंने घोषणा की कि मैं बुद्ध हो गया।
जिस मार्ग से उन्होंने बुद्धत्व प्राप्त किया था, उसी मार्ग का उन्होंने करुणापूर्वक दुःखनिमग्न जगत् को यावज्जीवन उपदेश किया। उन्होंने जो ज्ञान प्राप्त किया था और जिस विधि से प्राप्त किया था, उसे बिना भेदभाव के बाहर-भीतर खोलकर लोगों के समक्ष रख दिया। उनके उपदेश में किसी तरह की आचार्यमुष्टि नहीं थी। इसे ही धर्मचक्रप्रवर्तन कहते हैं।
मनुष्य जिन दुःखों से पीड़ित है, उनमें बहुत बड़ा हिस्सा ऐसे दुःखों का है, जिन्हें मनुष्य ने अपने अज्ञान, गलत ज्ञान या मिथ्या दृष्टियों से पैदा कर लिया है। उन दुःखों का प्रहाण अपने सही ज्ञान द्वारा ही सम्भव है, किसी के आशीर्वाद या वरदान से उन्हें दूर नहीं किया जा सकता। सत्य या यथार्थता का ज्ञान ही सम्यग् ज्ञान है। अतः सत्य की खोज दुःखमोक्ष के लिए परमावश्यक है। खोज अज्ञात सत्य की ही की जा सकती है। यदि सत्य किसी शास्त्र, आगम या उपदेशक द्वारा ज्ञात हो गया है तो उसकी खोज निरर्थक होगी। ज्ञात सत्य का अनुकरण या आरोपण तो किया जा सकता है, खोज नहीं। अतः बुद्ध ने अपने पूर्ववर्ती लोगों द्वारा या परम्परा द्वारा बताए सत्य को नकार दिया और अपने लिए नए सिरे से उसकी खोज की। बुद्ध स्वयं कहीं प्रतिबद्ध नहीं हुए और न तो अपने शिष्यों को उन्होंने कहीं बांधा। उन्होंने कहा कि मेरी बात को भी इसलिए चुपचाप न मान लो कि उसे बुद्ध ने कही है। उस पर भी सन्देह करो और विविध परीक्षाओं द्वारा उसकी परीक्षा करो। जीवन की कसौटी पर उन्हें परखो, अपने अनुभवों से मिलान करो, यदि तुम्हें सही जान पड़े तो स्वीकार करो, अन्यथा छोड़ दो। यही कारण था कि उनका धर्म रहस्याडम्बरों से मुक्त, मानवीय संवेदनाओं से ओतप्रोत एवं हृदय को सीधे स्पर्श करता था।

त्रिविध धर्मचक्रप्रवर्तन

भगवान् बुद्ध प्रज्ञा और करुणा की मूर्ति थे। ये दोनों गुण उनमें उत्कर्ष की पराकाष्ठा प्राप्त कर समरस होकर स्थित थे। इतना ही नहीं, भगवान् बुद्ध अत्यन्त उपायकुशल भी थे। उपायकौशल बुद्ध का एक विशिष्ट गुण है। अर्थात् वे विविध प्रकार के विनेय जनों को व २७८ बौद्धदर्शन विविध उपायों से सन्मार्ग पर आरूढ़ करने में अत्यन्त प्रवीण थे। वे यह भलीभाँति जानते थे कि किसे किस उपाय से सन्मार्ग पर आरूढ़ किया जा सकता है। फलतः वे विनेय जनों के विचार, रुचि, अध्याशय, स्वभाव, क्षमता और परिस्थिति के अनुरूप उपदेश दिया करते थे। भगवान् बुद्ध की दूसरी विशेषता यह है कि वे सन्मार्ग के उपदेश द्वारा ही अपने जगत्कल्याण के कार्य का सम्पादन करते हैं, न कि वरदान या ऋद्धि के बल से, जैसे कि शिव या विष्णु आदि के बारे में अनेक कथाएं पुराणों में प्रचलित हैं। उनका कहना है कि तथागत तो मात्र उपदेष्टा हैं, कृत्यसम्पादन तो स्वयं साधक व्यक्ति को ही करना है। वे जिसका कल्याण करना चाहते हैं, उसे धर्मों (पदार्थों) की यथार्थता का उपदेश देते थे। भगवान् बुद्ध ने भिन्न-भिन्न समय और भिन्न-भिन्न स्थानों में विनेय जनों को अनन्त उपदेश दिये थे। सबके विषय, प्रयोजन और पात्र भिन्न-भिन्न थे। ऐसा होने पर भी समस्त उपदेशों का अन्तिम लक्ष्य एक ही था और वह था विनेय जनों को दुःखों से मुक्ति की ओर ले जाना। मोक्ष या निर्वाण ही उनके समस्त उपदेशों का एकमात्र रस है।

धर्मचक्रों की नेयनीतार्थता

विज्ञानवाद और स्वातन्त्रिक माध्यमिकों के अनुसार नीतार्थसूत्र वे हैं, जिनका अभिप्राय यथारुत (शब्द के अनुसार) ग्रहण किया जा सकता है तथा नेयार्थ सूत्र वे हैं, जिनका अभिप्राय शब्दशः ग्रहण नहीं किया जा सकता, अपितु उनका अभिप्राय खोजना पड़ता है, जैसे- माता और पिता की हत्या करने से व्यक्ति निष्पाप होकर निर्वाण प्राप्त करता है। मातरं पितरं हत्वा…..अनीघो याति ब्राह्मणो (द्र.- धम्मपद, पकिण्णकवग्गो, का., २६४) इस वचन का अर्थ शब्दशः ग्रहण नहीं किया जा सकता, अपितु यहाँ पिता का अभिप्राय कर्मभव और माता का अभिप्राय तृष्णा से है। इस प्रकार की देशना आभिप्रायिकी या नेयार्था कहलाती है।
प्रासङ्गिक माध्यमिकों के मत में नेयार्थ और नीतार्थ की व्याख्या उपर्युक्त व्याख्या से किञ्चित भिन्न है। उनके अनुसार जिन सूत्रों का प्रतिपाद्य विषय परमार्थ सत्य अर्थात् शून्यता, अनिमित्तता, अनुत्पाद, अनिरोध आदि हैं, वे नीतार्थ सूत्र हैं तथा जिन सूत्रों का प्रतिपाद्य विषय संवृति सत्य है, वे नेयार्थ सूत्र हैं। नेयार्थता और नीतार्थता की व्यवस्था वे आर्य- अक्षयमतिनिर्देशसूत्र के अनुसार करते हैं।

प्रथम धर्मचक्रप्रवर्तन

काल की दृष्टि से यह प्रथम है। वाराणसी का ऋषिपतन मृगदाव इसका स्थान है। इसके विनेय जन (पात्र) श्रावकवर्गीय वे लोग हैं, जो स्वलक्षण और बाह्यार्थ की सत्ता पर आधृत चतुर्विध आर्यसत्यों की देशना के पात्र (भव्य) हैं। स्वलक्षण सत्ता एवं बाह्य सत्ता के आधार पर चार आर्यसत्यों की स्थापना इस प्रथम धर्मचक्र की विषयवस्तु है। श्रावकवर्गीय लोगों की दृष्टि से यह नीतार्थ देशना है। योगाचार और माध्यमिक इसे नेयार्थ देशना मानते हैं।
है भगवान् बुद्ध की शिक्षा २७६

द्वितीय धर्मचक्रप्रवर्तन

काल की दृष्टि से यह मध्यम है। इसका स्थान प्रमुखतः गृध्रकूट पर्वत है। इसके विनेय जन महायानी पुद्गल हैं। शून्यता, अनिमित्तता, अनुत्पाद, अनिरोध आदि उसके प्रमुख प्रतिपाद्य विषय हैं। इस देशना के द्वारा समस्त धर्म निःस्वभाव प्रतिपादित किये गये हैं। विज्ञानवादी इसे नेयार्थ देशना मानते हैं। आचार्य भावविवेक, ज्ञानगर्भ, शान्तरक्षित, कमलशील आदि स्वातन्त्रिक माध्यमिकों का इस देशना की नेयार्थता और नीतार्थता के बारे में प्रासङ्गिक माध्यमिकों से मतभेद हैं। उनके अनुसार आर्य शतसाहस्रिका प्रज्ञापारमिता आदि कुछ सूत्र नीतार्थ सूत्र हैं, क्योंकि इनमें समस्त धर्मों की परमार्थतः निःस्वभावता निर्दिष्ट है। भगवती प्रज्ञापारमिता हृदयसूत्र आदि कुछ सूत्र यद्यपि द्वितीय धर्मचक्र के अन्तर्गत संगृहीत हैं, तथापि वे नीतार्थ नहीं माने जाते, क्योंकि इनके द्वारा जिस प्रकार की सर्वधर्मनिःस्वभावता प्रतिपादित की गई है, उस प्रकार की निःस्वभावता स्वातन्त्रिक माध्यमिकों को मान्य नहीं है। यद्यपि इन सूत्रों का अभिप्राय भी परमार्थतः निःस्वभावता है, तथापि उनमें ‘परमार्थतः’ यह विशेषण स्पष्टतया उल्लिखित नहीं है. जो कि उनके मतानुसार नीतार्थ सूत्र होने के लिए परमावश्यक है। कहने का आशय यह है कि आर्य-शतसाहस्रिका प्रज्ञापारमिता आदि उनके अनुसार नीतार्थ हैं तथा भगवती-प्रज्ञापारमिताहृदय आदि कुछ सूत्र नेयार्थ सूत्र हैं। __प्रासङ्गिक माध्यमिकों के अनुसार द्वितीय धर्मचक्र सर्वथा नीतार्थ देशना है। उनके मत में जिस सूत्र का मुख्य विषय शून्यता है, वह सूत्र नीतार्थ है तथा जिसका मुख्य प्रतिपाद्य संवृतिसत्य है, वह सूत्र नेयार्थ है। अतः इनके भत में भगवती-प्रज्ञापारमिताहृदय आदि सूत्र भी नीतार्थ ही हैं तथा इनके मत में ‘परमार्थतः’ यह विशेषण अनावश्यक है।

तृतीय धर्मचक्रप्रवर्तन

काल की दृष्टि से यह अन्तिम है। इसका स्थान वैशाली आदि प्रमुख हैं। श्रावक एवं महायानी दोनों प्रकार के पुद्गल इसके विनेय जन हैं। शून्यता, अनुत्पाद, अनिरोध आदि इसके विषयवस्तु हैं। विज्ञानवादियों के अनुसार यह नीतार्थ देशना है। यद्यपि द्वितीय और तृतीय दोनों धर्मचक्रों में शून्यता प्रतिपादित की गई है, तथापि द्वितीय धर्मचक्र में समस्त धर्मों को समान रूप से निःस्वभाव कहा गया है, जबकि इस तृतीय गर्मचक्र में यह भेद किया गया है कि अमुक धर्म अमुक दृष्टि से निःस्वभाव है और अमुक धर्म निःस्वभाव नहीं, अपितु सस्वभाव है। इसी के आधार पर विज्ञानवादी दर्शन प्रतिष्ठित है। इस कारण विज्ञानवादी समस्त धर्मों को समानरूप से निःस्वभाव नहीं मानते। उनके अनुसार धर्मों में से कुछ निःस्वभाव हैं और कुछ सस्वभाव हैं। अतः वे समान रूप से सर्वधर्मनिःस्वभावता प्रतिपादक द्वितीय धर्मचक्र को नीतार्थ नहीं मानते। उनके मतानुसार जो सूत्र धर्मों की निःस्वभावता और सस्वभावता का सम्यग् विभाजन करते हैं, वे ही नीतार्थ माने जाते हैं। इनमें आर्यसन्धिनिर्मोचनसूत्र प्रमुख है।
आचार्य भावविवेक, शान्तरक्षित आदि इस तृतीय धर्मचक्र को नीतार्थ देशना मानते * २८० बौद्धदर्शन हैं, क्योंकि इसके द्वारा भगवती प्रज्ञापारमिताहृदय आदि सूत्रों (जो द्वितीय धर्मचक्र में संगृहीत हैं और जो नेयार्थ हैं) का अभिप्राय स्पष्ट किया गया है। इनके मतानुसार भगवती प्रज्ञापारमिताहृदय आदि सूत्र नेयार्थ हैं, क्योंकि उनमें ‘परमार्थतः’ यह विशेषण न लगाकर सामान्यतः सर्वधर्मनिःस्वभावता का प्रतिपादन किया गया है। इस तृतीय धर्मचक्र में उस विशेषण को स्पष्ट रूप से लगाकर उसका अभिप्राय प्रकट किया गया है। अतः उनके अनुसार यह (तृतीय धर्मचक्र) नीतार्थ देशना है। तमा प्रश्न है कि विज्ञानवादी और स्वातन्त्रिक माध्यमिक दोनों मतों में तृतीय धर्मचक्र समानरूप से नीतार्थ कैसे माना जा सकता है, जबकि दोनों के सिद्धान्त परस्पर अत्यन्त भिन्न हैं ? यद्यपि दोनों इसे नीतार्थ अवश्य मानते हैं, फिर भी स्वातन्त्रिक माध्यमिक यह नहीं कहते कि तृतीय धर्मचक्र का अभिप्राय जैसा विज्ञानवादियों ने समझा है, ठीक वैसा ही है। उनका कहना है कि उन्होंने उसका अभिप्राय गलत ढंग से प्रस्तुत किया है। मध्यमकालोक में इस विषय पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।
__ आचार्य बुद्धपालित, चन्द्रकीर्ति आदि प्रासङ्गिक माध्यमिक तृतीय धर्मचक्र को सर्वथा नेयार्थ देशना मानते हैं। उनका कहना है कि तृतीय धर्मचक्र का अभिप्राय ठीक वैसा ही है, जैसा विज्ञानवादी मानते हैं, क्योंकि विज्ञानवादियों के सिद्धान्त युक्तिहीन और दोषग्रस्त हैं, अतः तृतीय धर्मचक्र नेयार्थ देशना है। इनके मतानुसार तृतीय धर्मचक्र का प्रवर्तन भगवान् बुद्ध ने ऐसे विनेय जनों पर अनुग्रह करने के लिए किया है, जो तत्काल शून्यता जैसे गम्भीर विषय की देशना के पात्र नहीं हैं। अतः ऐसे विनेय जनों को तत्काल विज्ञानवाद की देशना देकर पीछे कुशलता से उन्हें गम्भीर विषय (सर्वधर्मनिःस्वभावता) की ओर ले जाने के लिए उपायकुशल भगवान् बुद्ध ने तृतीय धर्मचक्र का प्रवर्तन किया है। आचार्य चन्द्रकीर्ति ने अपने मध्यमकावतार-भाष्य में इस विषय का सुस्पष्ट एवं विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया है।
लम भगवान् बुद्ध द्वारा प्रवर्तित होने पर भी बौद्ध दर्शन कोई एक दर्शन नहीं, अपितु दर्शनों का समूह है। विभिन्न दार्शनिक मुद्दों पर उनमें परस्पर मतभेद भी है। कोई परमाणुवादी हैं तो कोई परमाणु की सत्ता नहीं मानते। कोई साकार ज्ञानवादी हैं तो कोई निराकार ज्ञानवादी। कुछ बातों में विचारसाम्य होने पर भी मतभेद अधिक हैं। शब्दसाम्य होने पर भी अर्थभेद अधिक हैं। अनेक शाखोपशाखाओं के होने पर भी दार्शनिक मान्यताओं के साम्य की दृष्टि से बौद्ध विचारों का चार विभागों में वर्गीकरण किया गया है, यथा (१) वैभाषिक, (२) सौत्रान्तिक, (३) योगाचार (विज्ञानवाद) और (४) माध्यमिक (शून्यवाद)। अब हम यहाँ उनके दार्शनिक मन्तव्यों का संक्षेप में विवरण प्रस्तुत करने से पहले भगवान् २८१ भगवान् बुद्ध की शिक्षा बुद्ध की उन सामान्य शिक्षाओं की चर्चा करना चाहते हैं, जो सभी चारों दार्शनिक प्रस्थानों में समानरूप से मान्य हैं, यद्यपि उनकी व्याख्या में मतभेद हैं।

भगवान् की शिक्षा की सार्वभौमिकता

(१) भाषा

भगवान् बुद्ध ने किस भाषा में उपदेश दिए, इसे जानने के लिए हमारे पास पुष्कल प्रामाणिक सामग्री का अभाव है, फिर भी इतना निश्चित है कि उनके उपदेशों की भाषा कोई लोकभाषा ही थी। इसके अनेक कारण हैं। पहला यह कि वह अपना सन्देश जन-जन तक पहँचाना चाहते थे, न कि विशिष्ट जनों तक ही। इसके लिए आवश्यक था कि वे जनभाषा में ही उपदेश देते। दूसरा यह कि भाषा विशेष की पवित्रता पर उनका विश्वास न था। वे यह नहीं मानते थे कि शुद्ध भाषा के उच्चारण से पुण्य होता है, जैसा कि कुछ लोगों का आग्रह है। यह आश्चर्य है कि आज से इतने हजार वर्ष पूर्व ही भाषा विशेष की पवित्रता, क्षेत्रविशेष की पवित्रता या वर्णविशेष की पवित्रता की मान्यताओं के विरोध में उन्होंने अपनी आवाज बुलन्द की थी। इस विषय में एक उल्लेख उपलब्ध होता है कि दो भिक्षुओं ने भगवान् बुद्ध से निवेदन किया कि उनके उपदेशों को छन्दस् (वैदिक संस्कृत) में परिवर्तित कर दिया जाए, जिससे वे सुरक्षित रह सकें और लोग अपनी इच्छानुसार उनको भिन्न-भिन्न रूप न दे सकें। बुद्ध ने उनकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की और कहा कि मैं अपनी-अपनी भाषा में उन्हें संगृहीत करने की अनुमति प्रदान करता हूँ “अनुजानामि भिक्खवे, सकाय निरुत्तिया बुद्धवचनं परियापुणितुं ति” (द्र.-चुल्लवग्ग, पृ. २२८)। फलतः उनके उपदेश पैशाची, संस्कृत, अपभ्रंश, मागधी आदि अनेक भाषाओं में संकलित हुए।

(२) मानव-समता

भगवान् बुद्ध के अनुसार धार्मिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में सभी स्त्री एवं पुरुषों में समान योग्यता एवं अधिकार हैं। इतना ही नहीं, शिक्षा, चिकित्सा और आजीविका के क्षेत्र में भी वे समानता के पक्षधर थे। उनके अनुसार एक मानव का दूसरे मानव के साथ व्यवहार मानवता के आधार पर होना चाहिए, न कि जाति, वर्ण, लिङ्ग आदि के आधार पर। क्योंकि सभी प्राणी समानरूप से दुःखी हैं, अतः सब समान हैं। दुःख प्रहाण ही उनके धर्म का प्रयोजन है। अतः संवेदना और सहानुभूति ही इस समता के आधारभूत तत्त्व हैं। उन्होंने कहा कि जैसे सभी नदियाँ समुद्र में मिलकर अपना नाम, रूप और विशेषताएं खो देती हैं, उसी प्रकार मानवमात्र उनके संघ में प्रविष्ट होकर जाति, वर्ण आदि विशेषताओं को खो देते हैं और समान हो जाते हैं। निर्वाण ही उनके धर्म का एकमात्र रस है।

(३) मानवश्रेष्ठता

बुद्ध के अनुसार मानवजन्म अत्यन्त दुर्लभ है। मनुष्य में वह बीज निहित है, जिसकी वजह से यदि वह चाहे तो अभ्युदय एवं निःश्रेयस अर्थात् निर्वाण 4२८२ बौद्धदर्शन और बुद्धत्व जैसे परम पुरुषार्थ भी सिद्ध कर सकता है। देवता श्रेष्ठ नहीं हैं, क्योंकि वे व्यापक तृष्णा के क्षेत्र के बाहर नहीं हैं। अतः मनुष्य उनका दास नहीं है, अपितु उनके उद्धार का भार भी मनुष्य के ऊपर ही हैं। इसीलिए उन्होंने कहा कि भिक्षुओं, बहुजन के हित और सुख के लिए तथा देव और मनुष्यों के कल्याण के लिए लोक में विचरण करो। ऋषिपतन मृगदाव (सारनाथ) में अपने प्रथम वर्षावास के अनन्तर भिक्षुओं को उनका यह उपदेश मानवीय स्वतन्त्रता और मानवश्रेष्ठता का अप्रतिम उद्घोष है।

(४) व्यावहारिकता

बुद्ध की शिक्षा अत्यन्त व्यावहारिक थी। उसमें किसी भी तरह के रहस्यों और आडम्बरों के लिए कोई स्थान न था। उनका चिन्तन प्राणियों के व्यापक दुःखों के कारण की खोज से प्रारम्भ होता है, न कि किसी अत्यन्त निगूढ, गुहाप्रविष्ट तत्त्व की खोज से। वे यावज्जीवन दुःखों के अत्यन्त निरोध का उपाय ही बताते रहे। उन्होंने ऐसे प्रश्नों का उत्तर देने से इन्कार कर दिया और उन्हें अव्याकरणीय (अव्याख्येय) करार दिया, जिनके द्वारा यह पूछा जाता था कि यह लोक शाश्वत है कि अशाश्वत; यह लोक अनन्त है कि सान्त अथवा तथागत मरण के पश्चात् होते हैं या नहीं-इत्यादि। उनका कहना था कि ऐसे प्रश्न और उनका उत्तर न अर्थसंहित है और न धर्मसंहित। इन दृष्टियों के होते हुए भी मनुष्य, जन्म, जरा, मरण आदि दुःखों से दुःखी रहते हैं, जिनका वे विघात कर सकते हैं। उन्होंने पूछा कि किसी विष-बुझे बाण से विद्ध और दर्द से छटपटाते हुए व्यक्ति का क्या वह कहना उचित है कि पहले मुझे यह बताया जाए कि यह बाण किसने बनाया, किस धातु से बनाया गया और किस दिशा से आया ? इसके बाद मुझे वैद्य के पास ले जाया जाए अथवा यह उचित है कि पहले उसे वैद्य के पास ले जाकर दर्द से मुक्त कराया जाए ? भिक्षुओं ने कहा कि प्राथमिकता के आधार पर वैद्य के पास ले जाकर दर्द से मुक्त कराना ही उचित है। क्योंकि ऐसे प्रश्नों का एक तो उत्तर पाना आसान नहीं है और साथ ही, वह निर्विवाद भी नहीं होगा। तब भगवान् ने कहा कि मनुष्य क्योंकि विविध दुःखों से दुःखी है, अतः अन्य सारे प्रश्नों को छोड़कर सर्वप्रथम उसे दुःखों से मुक्ति का उपाय ही खोजना और कार्यान्वित करना चाहिए।

(५) मध्यमा प्रतिपदा

भगवान् बुद्ध ने जिस धर्मचक्र का प्रवर्तन किया अथवा जिस मार्ग का उन्होंने उपदेश किया, उसे ‘मध्यमा प्रतिपदा’ कहा जाता है। परस्पर-विरोधी दो अन्तों या अतियों का निषेध कर भगवान् ने मध्यम मार्ग प्रकाशित किया है। मनुष्य का स्वभाव है कि वह बड़ी आसानी से किसी अन्त में पतित हो जाता है और उस अन्त को अपना पक्ष बनाकर उसके प्रति आग्रहशील हो जाता है। यह आग्रहशीलता ही सारे मानवीय विभेदों, संघर्षों और दुःखों का मूल है। मध्यमा प्रतिपद् अनाग्रहशीलता है और समस्याओं से मुक्ति का सर्वोत्तम राजपथ है। इसका क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है और इसमें अनन्त सम्भावनाएं निहित है। सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं के समाधन में भी है भगवान् बुद्ध की शिक्षा २८३ इसकी उपयोगिता सम्भावित है, किन्तु अभी तक उन दिशाओं में इसका अध्ययन और प्रयोग नहीं किया जा सका। शील, समाधि और प्रज्ञा या दर्शन के क्षेत्र में ही उसकी प्राचीन व्याख्याएं उपलब्ध होती हैं। शील की दृष्टि से अत्यन्त ऐश-आराम के बीच लापरवाही के साथ जीवन बिताना एक अन्त है, जिसे ‘कामसुखल्लिकानुयोग’ कहते हैं तथा निर्वाण के लिए अत्यन्त कष्टदायक और शरीरोपतापक तपश्चरण का अनुष्ठान करना दूसरा अन्त है, जिसे ‘आत्मक्लमथानुयोग’ कहते हैं। भगवान् ने वीणा की उपमा देते हुए कहा कि यदि वीणा के तारों को ढीला रखा जाए तो उनसे मधुर ध्वनि उत्पन्न नहीं होती, यदि उन्हें अधिक कस दिया जाए तो उनके टूटने का खतरा होता है, अतः उन्हें न अधिक ढीला और न अधिक कसा हुआ होना चाहिए, तभी मधुर ध्वनि का उत्पाद होगा, उसी तरह समाधि में लगे योगी का चित्त न अधिक शिथिल, आलस्य से युक्त या नींद में डूबे हुए की तरह होना चाहिए और न तो अत्यधिक उत्साह (दुरुत्साह) से युक्त बेचैन, परेशान या अशान्त होना चाहिए। लीनता और उद्धव (औद्धत्य) ये दोनों दोष हैं, जो समाधि के बाद क हैं। समाधि चित्त का समप्रवाह है। यह समाधि की दृष्टि से मध्यमप्रतिपदा है। प्रज्ञा की दृष्टि से शाश्वतवाद (नित्यता के प्रति आग्रह) एक अन्त है और उच्छेदवाद (ऐहिकवाद) दूसरा अन्त है। इन दोनों अन्तों का निरास मध्यमा प्रतिपद् है। यही सम्यग् दृष्टि है। इसके बिना अभ्युदय और निःश्रेयस कोई भी पुरुषार्थ सिद्ध नहीं किया जा सकता। सभी बौद्ध दार्शनिक मध्यम-प्रतिपदा स्वीकार करते हैं, किन्तु वे शाश्वत और उच्छेद अन्त की भिन्न-भिन्न व्याख्याएं करते हैं। इस तरह उनकी मध्यमा-प्रतिपद् के स्वरूप में भिन्नता आ जाती है। इसका आगे यथास्थान निरूपण किया जाएगा।
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(६) प्रतीत्यसमुत्पाद

प्रतीत्यसमुत्पाद सारे बुद्ध विचारों की रीढ़ है। बुद्ध पूर्णिमा की रात्रि में इसी के अनुलोम-प्रतिलोम अवगाहन से बुद्ध ने बुद्धत्व का अधिगम किया। प्रतीत्यसमुत्पाद का ज्ञान ही बोधि है। यही प्रज्ञाभूमि है। अनेक गुणों के विद्यमान होते हुए भी आचार्यों ने बड़ी श्रद्धा और भक्तिभाव से ऐसे भगवान् बुद्ध का स्तवन किया है, जिन्होंने अनुपम और अनुत्तर प्रतीत्यसमुत्पाद की देशना की है। जैसा कि अक्सर कहा जाता है, यह बौद्धों का कार्यकारणभाव है, किन्तु वस्तुतः यह कार्यकारणभावमात्र नहीं है, बल्कि उससे अधिक है। कारण से कार्य के उत्पाद के नियम को सामान्यतया ‘कार्यकारणभाव’ कहा जाता है। जबकि प्रतीत्यसमुत्पाद से कारणों से कार्य के अनुत्पाद का सिद्धान्त भी प्रतिफलित होता है। इस सिद्धान्त की आचार्य नागार्जुन ने युक्तिपूर्वक स्थापना की है। अतः यह सिद्धान्त अत्यन्त व्यापक है और इसमें अनेक सम्भावनाएं निहित हैं। आचार्यों ने प्रतीत्यसमुत्पाद की व्याख्या द्वारा ही अपने-अपने विशिष्ट दर्शनप्रस्थानों की स्थापनाएं की हैं। वैभाषिक, सौत्रान्तिक, योगाचार और माध्यमिकों की अपनी-अपनी विशिष्ट व्याख्याएं है। आज भी इसके विशिष्ट व्याख्यान द्वारा नवीन बौद्ध दर्शन-प्रस्थान की उद्भावना सम्भावित है।
+ २८४ बौद्धदर्शन ___ चार आर्यसत्य, अनित्यता, दुःखता, अनात्मता, क्षणभगवाद, अनात्मवाद, अनीश्वरवाद आदि बौद्धों के प्रसिद्ध दार्शनिक सिद्धान्त इसी प्रतीत्यसमुत्पाद के प्रतिफलन हैं, इनका यथास्थान आगे हम प्रतिपादन करेंगे।

(७) कर्मस्वातन्त्र्य

बौद्धों का कर्म-सिद्धान्त भारतीय परम्परा में ही नहीं, अपितु विश्व की धार्मिक परम्परा में बेजोड़ एवं सबसे भिन्न है। प्रायः सभी लोग कर्म को जड़ मानते हैं, अतः कर्मों के कर्ता को उन कर्मों के फल से अन्वित करने के लिए एक अतिरिक्त चेतन या ईश्वर के अस्तित्व की आवश्यकता महसूस करते हैं। उनके अनुसार ऐसे अतिरिक्त चेतन के अभाव में कर्म-कर्मफल व्यवस्था बन नहीं सकेगी और सारी व्यवस्था अस्तव्यस्त हो जाएगी। जबकि बौद्ध लोग कर्म को जड़ ही नहीं मानते। भगवान् बुद्ध ने कर्म को ‘चेतना’ कहा है (चेतनाहं भिक्खवे, कम्मं वदामि) (द्र.-अंगुत्तरनिकाय, भाग ३, पृ. १२०)। कर्म क्योंकि चेतना है, अतः वह अपने फल को स्वयं अंगीकार या आकृष्ट कर लेती है। चेतना-प्रवाह में कर्म-कर्मफल की सारी व्यवस्था सुचारुतया सम्पन्न हो जाती है। इसलिए फल देने के लिए एक अतिरिक्त चेतन या ईश्वर को मानने की उन्हें कतई आवश्यकता नहीं है। इसीलिए विश्व के सारे आध्यात्मिक धर्मों के बीच में बौद्ध एकमात्र अनीश्वरवादियों में प्रमुख हैं।
। अपने सुख-दुःखों के लिए प्राणी स्वयं ही उत्तरदायी हैं। अपने अज्ञान और मिथ्यादृष्टियों से ही उन्होंने स्वयं अपने लिए दुःखों का उत्पाद किया है, अतः कोई दूसरी शक्ति ईश्वर या महेश्वर उन्हें मुक्त नहीं कर सकता। इसके लिए उन्हें स्वयं प्रयास करना होगा। किसी के वरदान या कृपा से दुःखमुक्ति असम्भव है। कोई महापुरुष, जिसने अपने दुःखों का प्रहाण कर लिया है, अपने अनुभव के आधार पर दुःखमुक्ति का मार्ग अवश्य बता सकता है, किन्तु उसकी बातों की परीक्षा कर, सही प्रतीत होने पर उस मार्ग पर प्राणी को स्वयं चलना होगा। इस कर्म सिद्धान्त के द्वारा मानव-स्वतन्त्रता और आत्म-उत्तरदायित्व का विशिष्ट बोध प्रतिफलित होता है। यह भारतीय संस्कृति में बौद्धों का अनुपम योगदान है।