भगवान् बुद्ध द्वारा प्रवर्तित होने पर भी बौद्ध दर्शन कोई एक दर्शन नहीं, अपितु दर्शनों का समूह है। कुछ बातों में विचारसाम्य होने पर भी परस्पर अत्यन्त मतभेद हैं। शब्दसाम्य होने पर भी अर्थभेद अधिक हैं। अनेक शाखोपशाखाओं में विभक्त होने पर भी दार्शनिक मान्यताओं में साम्य की दृष्टि से बौद्ध विचारों का चार विभागों में वर्गीकरण किया गया है, यथा-वैभाषिक, सौत्रान्तिक, योगाचार एवं माध्यमिक। यद्यपि अठारह निकायों का वैभाषिक दर्शन में संग्रह हो जाता है और अठारह निकायों में स्थविरवाद भी संगृहीत है, फिर भी उसका संक्षेप में अलग से वर्णन अपेक्षित है।
जागतिक विविध दुःखों के दर्शन से तथागत शाक्यमुनि भगवान् बुद्ध में सर्वप्रथम महाकरुणा का उत्पाद हुआ। तदनन्तर उस महाकरुणा से प्रेरित होने की वजह से ‘मैं इन दुःखी प्राणियों को दुःख से मुक्त करने और उन्हें सुख से अन्वित करने का भार अपने कन्धों पर लेता हूँ और इसके लिए बुद्धत्व प्राप्त करूंगा’-इस प्रकार का उनमें बोधिचित्त उत्पन्न हुआ। इसके बाद उन्होंने अनन्त काल तक अनेक जन्मों में छह या दस पारमिताओं की साधना द्वारा अनन्त पुण्य और ज्ञान सम्भार का अर्जन किया। उन पुण्य और ज्ञान सम्भारों द्वारा उन्होंने समस्त क्लेश और ज्ञेय आवरणों का समूल प्रहाण कर सम्यक् सम्बुद्धत्व प्राप्त किया। तदनन्तर विभिन्न रुचि, अध्याशय, इन्द्रिय और क्षमता वाले विनेय जनों के कल्याण के लिए उपायकुशल भगवान् बुद्ध ने उनकी पात्रता के अनुसार विभिन्न प्रकार की देशनाएं कीं। अनेक धर्मचक्रों का प्रवर्तन किया।
उनकी देशनाएं तीन पिटकों और तीन यानों में विभक्त की जाती हैं। सूत्र, विनय और अभिधर्म-ये तीन पिटक हैं तथा श्रावकयान, प्रत्येकबुद्धयान और बोधिसत्त्वयान-ये तीन यान हैं। श्रावकयान और प्रत्येकबुद्धयान को हीनयान और बोधिसत्त्वयान को महायान कहते हैं।
श्रावकयान-जो विनेय जन दुःखमय संसार-सागर को देखकर तथा उससे उद्विग्न होकर तत्काल उससे मुक्ति की अभिलाषा तो रखते हैं, किन्तु तात्कालिक रूप से सम्पूर्ण प्राणियों के हित और सुख के लिए सम्यक् सम्बुद्धत्व की प्राप्ति का अध्याशय (इच्छा) नहीं रखते-ऐसे विनेय जन श्रावकयानी कहलाते हैं। उनके लिए प्रथम धर्मचक्र का प्रवर्तन करते हुए भगवान् ने चार आर्यसत्व और उनके अनित्यता आदि सोलह आकारों की देशना की
और इनकी भावना करने से पुद्गलनैरात्म्य का साक्षात्कार करके क्लेशावरण का समूल प्रहाण करते हुए अर्हत्त्व को और निर्वाण की प्राप्ति का मार्ग उपदिष्ट किया।
र प्रत्येकबुद्धयान-श्रावक और प्रत्येकबुद्ध के लक्ष्य में भेद नहीं होता। प्रत्येक बुद्ध भी स्वमुक्ति के ही अभिलाषी होते हैं। श्रावक और प्रत्येकबुद्ध के ज्ञान में और पुण्य संचय
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में थोड़ा फर्क अवश्य होता है। प्रत्येकबुद्ध केवल ग्राह्यशून्यता का बोध होता है, ग्राहकशून्यता का नहीं। पुण्य भी श्रावक की अपेक्षा उनमें अधिक होता है। प्रत्येकबुद्ध उस काल में उत्पन्न होते हैं, जिस समय बुद्ध का नाम भी लोक में प्रचलित नहीं होता। वे बिना आचार्य या गुरु के ही, पूर्वजन्मों की स्मृति के आधार पर अपनी साधना प्रारम्भ करते हैं और प्रत्येकबुद्ध-अर्हत्त्व और निर्वाण पद प्राप्त करते हैं। इनकी यह भी विशेषता है कि ये वाणी के द्वारा धर्मोपदेश नहीं करते तथा संघ बनाकर नहीं रहते। अर्थात् एकाकी विचरण करते हैं।
बोधिसत्त्वयान- जो विनेय जन सम्पूर्ण सत्त्वों के हित और सुख के लिए सम्यक् सम्बुद्धत्व प्राप्त करना चाहते हैं, ऐसे विनेय जन बोधिसत्त्वयानी कहलाते हैं। उन लोगों के लिए भगवान् ने बोधिचित्त का उत्पाद कर छह या दस पारमिताओं की साधना का उपदेश दिया तथा पुद्गलनैरात्म्य के साथ धर्मनैरात्म्य का भी विभिन्न युक्तियों से प्रतिवेध कर क्लेशावरण और ज्ञेयावरण दोनों के प्रहाण द्वारा सम्यक् सम्बुद्धत्व की प्राप्ति के मार्ग का उपदेश किया। इसे महायान भी कहते हैं।
__ महायान की व्युत्पत्ति- ‘यायते अनेनेति यानम्’ अर्थात् जिससे जाया जाता है, यह ‘यान’ है। इस विग्रह के अनुसार मार्ग, जिससे गन्तव्य स्थान तक जाया जाता है, ‘यान’ है। अर्थात् यान-शब्द मार्ग का वाचक है। ‘यायते अस्मिन्नित यानम्’ अर्थात् जिसमें जाया जाता है, यह भी ‘यान’ है। इस दूसरे विग्रह के अनुसार ‘फल’ भी यान कहलाता है। फल ही गन्तव्य स्थान होता है। इस तरह यान-शब्द फलवाचक भी होता है। ‘महच्च तद् यानं महायानम्’ अर्थात् वह यान भी है और बड़ा भी है, इसलिए महायान कहलाता है।
महायान का उद्भव एवं विकास
भारत के धार्मिक एवं सांस्कृतिक जगत् में महायान का उद्भव एक अभूतपूर्व एवं क्रान्तिकारी घटना है। यह बुद्धशासन में एक नूतन परिवर्तन है। महायान के उद्भव से पूर्व बौद्ध, बौद्धेत्तर सभी दर्शनों में मोक्ष या निर्वाण ही परम पुरुषार्थ एवं जीवन का लक्ष्य माना जाता रहा है। पुरुषार्थ चार हैं धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष या दो लक्ष्य अभ्युदय एवं निःश्रेयस माने जाते हैं। इनमें मोक्ष या निःश्रेयस ही सर्वश्रेष्ठ हैं। आत्यन्तिक दुःख-विमुक्ति या सुखावाप्ति ही मोक्ष का स्वरूप है। यह मोक्ष नितान्त व्यक्तिगत होता है।
___ महायान की विशेषता उसकी लोकपरायणता, समाजोन्मुखता एवं प्राणिसेवा है। एक महायानी प्राणिमात्र को दुःखों से मुक्त एवं सुखों से समन्वित करना चाहता है। इस महान् उद्देश्य के सामने वह व्यक्तिगत मोक्ष को रसहीन एवं तुच्छ समझता है। लोक (संसार) के दोषों से लिप्त न रहते हुए संसार का त्याग न करना, उसका व्रत है। इस उद्देश्य की सिद्धि के लिए वह जन्म-जन्मान्तर पर्यन्त संसार में रहने को बुरा नहीं समझता। यहाँ तक कि
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भूमिका वह स्वेच्छया नरक में भी जाता है। उसका जन्म कर्म-क्लेशवश नहीं, अपितु स्वेच्छया दूसरों के कल्याण के लिए होता है। वह न तो लोक के दोषों से दूषित होता है और न संसार को छोड़कर निर्वाण में प्रविष्ट होता है, यही अप्रतिष्ठित निर्वाण है और यही उसका लक्ष्य है। भव (संसार) और शम (निर्वाण) दोनों अन्त (कोटियाँ) हैं और महायानी बोधिसत्व इन दोनों का परिवर्तन कर मध्य में अर्थात् अप्रतिष्ठित निर्वाण में स्थित रहता है तथा यही बुद्धत्व भी है।
या
विम __प्राणि-मात्र को दुःखों से मुक्त करने का संकल्प एक बहुत बड़ी प्रतिज्ञा है। एक व्यक्ति को या अपने परिवार को दुःख से मुक्त करना भी दुःसाध्य होता है, तब समस्त प्राणियों को मुक्त करना तो अत्यन्त कठिन है। अतः बोधिसत्त्व अपने में योग्यता और सामर्थ्य अर्जित करने का प्रयास करता है। पूर्ण योग्यता और पूर्ण सामर्थ्य की अवस्था ही बुद्धत्व है। अतः अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिए वह बुद्धत्व प्राप्त करना चाहता है। बुद्धत्व उसके लिए साध्य नहीं, अपितु साधन है। साध्य तो प्राणि-मात्र की दुःखों से मुक्ति ही है।
- बुद्धत्व की प्राप्ति का साधन भी महायान में सत्त्वों के दुःखों के निवारण के लिए आत्मसमर्पण को या लोकसेवा को ही बताया गया है। बुद्धत्व की प्राप्ति महायान का लक्ष्य है, अतः उसकी प्राप्ति के लिए लोकसेवार्थ अपने को समर्पित करके वह कोई एहसान नहीं करता। जो सत्त्व उसकी सेवा ग्रहण करते हैं, उसके प्रति वह कतज्ञता का भाव एवं विनम्रता का भाव रखता है कि उसने बुद्धत्व-प्राप्ति की साधना में सहायता की है। इस तरह उस (महायानी) में इस सेवा की वजह से न तो अभिमान या उच्चता का भाव पैदा होता है और न सेवा-ग्रहण करने वाले में हीनता का भाव। फलतः बोधिसत्त्व की सेवा अन्य लोगों की सेवा से भिन्न है। मजिसिया मार
लिया बुद्धत्त्व-प्राप्ति की साधना में संलग्न व्यक्ति बोधिसत्त्व कहलाता है। वे भी बुद्धत्त्व प्राप्ति के प्रति दृष्टिभेद के कारण तीन प्रकार के होते हैं। एक वे हैं, जो सब प्राणियों को दुःख से मुक्त करने के बाद स्वयं बुद्धत्त्व प्राप्त करना चाहते हैं। ऐसे बोधिसत्त्व को गोप (ग्वाले) के समान बोधिसत्त्व कहते हैं। जैसे गोप सभी पशुओं को गोशाला से निकाल कर अन्त में स्वयं निकलता है और सबको गोशाला में प्रविष्ट करके स्वयं अन्त में प्रवेश करता है। यह बोधिसत्त्व भी उसी प्रकार का है। दूसरे प्रकार के बोधिसत्त्व वे हैं, जो सभी सत्त्वों के साथ-साथ बुद्धत्व प्राप्त करना चाहते हैं। ऐसे बोधिसत्त्वों को नाविक के समान बोधिसत्त्व कहते हैं। जैसे नाविक नाव में सवार सभी यात्रियों के साथ स्वयं भी नदी पार करता है, उसी प्रकार यह दूसरे प्रकार का बोधिसत्त्व भी है। तीसरे प्रकार के बोधिसत्त्व वे हैं, जो सबसे पहले स्वयं बुद्धत्व प्राप्त कर लेते हैं और उसके बाद अन्य लोगों को बुद्धत्व-प्राप्ति में सहायता करते हैं। ऐसे बोधिसत्त्व को राजा के समान बोधिसत्त्व कहते हैं। जैसे राजा कहीं प्रस्थान करते हैं तो राजा ही सबसे पहले गन्तव्य स्थल पर पहुंचते हैं और उनके
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सचिव आदि उनके बाद में। उसी तरह यह तीसरे प्रकार का बोधिसत्त्व पहले बुद्धत्व प्राप्त करता है। अतः यह राजा की तरह कहा जाता है। कई । राजा की तरह बोधिसत्त्व का पहले बुद्धत्व प्राप्त करना इसलिए भी आवश्यक है, जिससे कि लोगों में बुद्धत्व के प्रति विश्वास उत्पन्न हो सके। वे यह जान सकें कि बुद्धत्व प्राप्त व्यक्ति कैसा होता है तथा यह भी कि बुद्धत्व प्राप्त किया जा सकता है, यह केवल आदर्शमात्र नहीं है। हमारे शाक्यमुनि गौतम बुद्ध इसके उदाहरण हैं। उन्होंने राजा की तरह पहले बुद्धत्व प्राप्त किया है। का हीनयान और महायान-प्रायः कहा जाता है कि वैभाषिक और सौत्रान्तिक दर्शन हीनयानी तथा योगााचार और माध्यमिक महायान दर्शन हैं। इसमें कुछ सत्यांश होने पर भी दर्शन-भेद यान-भेद का नियामक कतई नहीं होता, अपितु उद्देश्य-भेद या जीवनलक्ष्य का भेद ही यानभेद का नियामक होता है। उद्देश्य की अधिक व्यापकता और अल्प व्यापकता ही महायान और हीनयान के भेद का अधार है। यहाँ ‘हीन’ शब्द का अर्थ ‘अल्प’ है, न कि तुच्छ, नीच या अधम आदि, जैसा कि आजकल हिन्दी में प्रचलित है। महायान का साधक समस्त प्राणियों को दुःख से मुक्त करके उन्हें निर्वाण या बुद्धत्व प्राप्त कराना चाहता है। वह केवल अपनी ही दुःखों से मुक्ति नहीं चाहता, बल्कि सभी की मुक्ति के लिए व्यक्तिगत निर्वाण से निरपेक्ष रहते हुए अप्रतिष्ठित निर्वाण में स्थित होता है। जो व्यक्ति व्यक्तिगत निर्वाण प्राप्त करता है, वह भी कोई छोटा नहीं, अपितु महापुरुष होता है। इतना सौभाग्य भी कम लोगों को प्राप्त होता है। बड़े पुण्यों का फल है यह। प्रायः सभी बौद्धेतर दर्शनों का भी अन्तिम लक्ष्य स्वमुक्ति ही है। अतः यह लक्ष्य कम श्रेष्ठ नहीं है, फिर भी अपने निर्वाण को स्थगित करके सभी प्राणि-मात्र को दुःखों से मुक्ति को लक्ष्य बनाना और उसके लिए प्रयास और साधना करना, अवश्य ही अधिक श्रेष्ठ है। - कि शिऊपर कहा गया है कि दर्शनभेद से यानभेद नहीं किया जाता, इसीलिए कतिपय बौद्ध विद्वानों के मतानुसार एक ऐसा व्यक्ति भी हो सकता है, जिसने पहले महायान में प्रविष्ट होकर धर्मनैरात्म्य का ज्ञान भी प्राप्त कर लिया हो और बाद में महायान से च्युत होकर हीनयान में प्रविष्ट हो गया हो। ऐसा व्यक्ति हीनयानी होते हुए भी शून्यता को जानने वाले धर्मनैरात्म्यज्ञान से युक्त हो सकता है। क्योंकि वह व्यक्ति यद्यपि बोधिचित्त से भ्रष्ट होने के कारण महायान से च्युत हो गया है, तथापि उसके धर्मनैरात्म्य ज्ञान अर्थात् महायान दर्शन से च्युत होने का कोई कारण उपस्थित नहीं है। इस प्रकार हम देखते हैं कि महाकरुणा, बोधिचित्त, पारमिताओं की साधना और शून्यता दर्शन महायान के मूल हैं। कर हिट
R- महाकरुणा-दुःख करुणा का आलम्बन होता है तथा दुःख को सहन नहीं कर पाना इसका आकार होता है। एक करुणावान व्यक्ति किसी दुःखी प्राणी को चुपचाप देख नहीं सकता, अपितु उस दुःख को हटाने के लिए यथाशक्ति प्रयास प्रारम्भ कर देता है। इसलिए
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भूमिका करुणा कोई सामान्य दयाभाव नहीं, अपितु चित्त की सक्रिय अवस्था है। दुःख भी दुःख-दुःख, विपरिणाम दुःख एवं संस्कार दुःख के भेद से तीन प्रकार के होते हैं। विविध प्रकार की शिरोवेदना आदि शारीरिक वेदनाएं दुःख-दुःख हैं। वर्तमान में सुखवत् प्रतीत होने पर भी परिणाम में दुःखदायी धर्म विपरिणाम दुःख कहलाते हैं। सभी अनित्यों से वियोग दुःखप्रद होता है, इसलिए सभी अनित्य धर्म संस्कार-दुःख हैं। करुणा इन तीनों प्रकार की दुःखताओं से प्राणिमात्र को मुक्त करने की सक्रिय अभिलाषा है। करुणा भी प्रारम्भ में ‘सत्वालम्बना’ होती है। अर्थात् प्राणियों को और उनके दुःखों को आलम्बन बनाती है। किन्तु भावना के बल से विकसित होकर बाद में ‘धर्मालम्बना’ हो जाती है। बौद्ध दर्शन के अनुसार पुद्गल की सत्ता नहीं होती, वह जड़ और चेतना का पुञ्जमात्र होता है, फिर भी दुःखी होता है, क्योंकि उसमें इस स्थिति (धर्मता) का अज्ञान होता है। ऐसे सत्वों को दुःखों से मुक्त करने की अभिलाषा ‘धर्मालम्बना’ करुणा होती है। वस्तुतः प्रज्ञा द्वारा विचार करने पर सभी धर्म निःस्वभाव (शून्य) होते हैं। वस्तुतः सभी सत्त्व और उनके दुःख भी निःस्वभाव ही हैं, फिर भी अर्थात् शून्यता का अवबोध रखते हुए भी करुणावश बुद्ध एवं बोधिसत्त्व दुःखी प्राणियों के दुःख को दूर करने का प्रयास करते हैं। उनकी ऐसी करुणा ‘निरालम्ब’ करुणा कहलाती है। माना
बोधिचित्त-बोधिचित्त ही महायान में प्रवेश का द्वार होता है। बोधिचित्त के उत्पाद के साथ व्यक्ति महायानों और बोधिसत्त्व कहलाने लगता है तथा बोधिचित्त से भ्रष्ट होने पर महायान से च्युत हो जाता है। ‘बुद्धो भवेयं जगतो हिताय’ (अद्वयवज्रसंग्रह कुदृष्टिनिर्धातन, पृ. ६) अर्थात् सभी प्राणियों को दुःखों से मुक्त करने के लिए मैं बुद्धत्व प्राप्त करूँगा-ऐसी अकृत्रिम अभिलाषा ‘बोधिचित्त’ कहलाती है। इस प्रकार बुद्धत्व महायान के अनुसार साध्य नहीं, अपितु साधनमात्र है। साध्य तो समस्त प्राणियों की दुःखों से मुक्ति ही है। बोधिचित्त भी प्रणिधि और प्रस्थान के भेद से द्विविध होता है। ऊपर जो बुद्धत्व प्राप्ति की अकृत्रिम अभिलाषा को बोधिचित्त कहा गया है, वह ‘प्रणिधि-बोधिचित्त’ है। इसके उत्पन्न होन जाने पर साधक महायान-संवर ग्रहण करके ब्रह्मविहार, संग्रहवस्तु एवं पारमिता आदि की साधना में प्रवृत्त होता है, यह ‘प्रस्थान-बोधिचित्त’ कहलाता है। शास्त्रों में प्रणिधि-बोधिचित्त का भी विपुल फल और महती अनुशंसा वर्णित है। सो पारमिताओं की साधना-पारमिताएं दस होती हैं, किन्तु उनका छह में भी अन्तर्भाव किया जाता है। दान, शील, क्षान्ति, वीर्य, ध्यान एवं प्रज्ञा-ये छह पारमिताएं हैं। उपायकौशल पारमिता, प्रणिधान पारमिता, बल पारमिता एवं ज्ञान पारमिता-इन चार को मिलाकर पारमिताएं दस भी होती हैं। शास्त्रों में अधिकतर छह पारमिताओं की चर्चा ही उपलब्ध होती है। इन छह पारमिताओं में छठवीं प्रज्ञापारमिता ही ‘प्रज्ञा’ है तथा शेष पांच पारमिताएं ‘पुण्य’ कहलाती हैं। इन पाँचों को एक शब्द द्वारा ‘करुणा’ भी कहते हैं। प्रज्ञा और करुणा ये दोनों
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बौद्धदर्शन बुद्धत्व प्राप्ति के उत्तम उपाय हैं। अभ्यास या भावना के द्वारा विकास की पराकाष्ठा को प्राप्त कर ये दोनों बुद्धत्व अवस्था में समरस होकर स्थित होती हैं। प्रज्ञा और करुणा की यह सामरस्यावस्था ही बुद्धत्व है। त्रिकायात्मक बुद्धत्व की प्राप्ति, बिना इन पारमिताओं के, सम्भव नहीं है। धर्मकाय, सम्भोगकाय और निर्माणकाय-ये तीन कार्य हैं। बुद्धत्व की प्राप्ति के साथ इन तीन कायों की प्राप्ति होती है। महायान के पारमितानय के अनुसार अभ्यास द्वारा प्रज्ञा विकसित होते हुए अन्त में बुद्ध के ज्ञान-धर्मकाय के रूप में परिणत हो जाती है। किन्तु सम्भोग और निर्माण कार्यों की प्राप्ति पुण्य अर्थात् शेष पांच पारमिताओं के बल से ही होती है। इसीलिए बोधिसत्त्व बुद्धत्व की प्राप्ति के लिए तीन असंख्येय कल्प पर्यन्त ज्ञान और पुण्य सम्भारों का अर्जन करता है। - अकेली प्रज्ञा पारमिता से बुद्धत्व की प्राप्ति सम्भव नहीं होती और न तो प्रज्ञा के बिना शेष पारमिताओं से भी बुद्धत्व की प्राप्ति सम्भव है। अपितु इन दोनों से ही बुद्धत्व प्राप्ति सम्भव होती है। प्रज्ञापारमिता के बिना शेष पारमिताएं अन्धी होती हैं। उनसे निर्वाण नगर में प्रवेश सम्भव नहीं होता। अतः चक्षु के समान प्रज्ञापारमिता का होना आवश्यक है। अकेले प्रज्ञापारमिता भी लंगड़ी होती है। उसके द्वारा भी निर्वाण-नगर में प्रवेश सम्भव नहीं होता। जैसे अन्धा और लंगड़ा-दोनों पुरुष अभिलाषित स्थान पर पहुंचते हैं। अर्थात् अन्धे पुरुष के कन्धे पर लंगड़ा पुरुष बैठकर राह दिखाता है और दोनों गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाते हैं। इसी उपमा द्वारा प्रज्ञा और शेष पारमिताओं द्वारा बुद्धत्व लक्ष्य की प्राप्ति को समझना चाहिए। का दानपारमिता की भावना के अवसर पर प्रज्ञा द्वारा देय वस्तु, दाता और प्रतिग्राहक तीनों को जब शून्य समझकर भी दान किया जाता है, तब इसे त्रिकोटिपरिशुद्ध दान कहा जाता है। त्रिकोटिपरिशुद्ध होने पर ही दान दानपारमिता होता है और वही दानपारमिता बुद्धत्व की आवाहक अर्थात् बुद्धत्व को प्राप्त कराने वाली होती है। शील आदि पारमिताओं की त्रिकोटिपरिशुद्धता भी इसी प्रकार जानना चाहिए।
शून्यता-लौकिक, लोकोत्तर, संस्कृत, असंस्कृत सभी धर्म प्रतीत्य-समुत्पन्न हैं। अर्थात् वे अपने अस्तित्व के लिए अन्य और प्रत्ययों पर अपेक्षित हैं। अर्थात् उनका अस्तित्व अपने बल पर (स्वतः) नहीं है। अर्थात् परनिरपेक्ष अस्तित्व नहीं है। वे स्वनिर्भर नहीं है, अर्थात् वे सापेक्ष हैं। यही परनिरपेक्ष अस्तित्व नहीं होना या स्वनिर्भर नहीं होना ही उनकी प्रकृति है और यही शून्यता है। यह शून्यता सभी धर्मों का धर्म है। इसे ही धर्मता, शून्यता, तथता, भूतकोटि और परमार्थ सत्य कहते हैं। सभी सापेक्ष धर्म संवृतिसत्य हैं। शून्यता या परमार्थ सत्य के ज्ञान से सभी धर्मों की सापेक्षता या संवृतिसत्यता का स्पष्ट परिज्ञान हो जाता है।
इस शून्यता का साक्षात्कार प्रज्ञा द्वारा होता है। प्रज्ञा भी पहले श्रुतमयी होती है। अर्थात् शास्त्रों, आगमों आदि के स्वाध्याय और गुरु के उपदेश के श्रवण से इसका उत्पाद भूमिका २५१ होता है। तदनन्तर श्रवण द्वारा जात तत्त्व का विविध और विपुल युक्तियों द्वारा चिन्तन किया जाता है, इसे चिन्तामयी प्रज्ञा कहते हैं। चिन्तन के द्वारा शून्यता का सन्देहरहित निर्धारण होता है। तदनन्तर उस चिन्तामयी प्रज्ञा द्वारा निश्चित शून्यता की भावना की जाती है, इसे भावनामयी प्रज्ञा कहते हैं। भावना जब प्रकर्ष की पराकाष्ठा पर पहुँच जाती है तब शून्यता साक्षात्कार होता है और यही साक्षात्कार दर्शनमार्ग कहलाता है। तब साधक पथग्जनत्व का प्रहाण कर ‘आर्य’ कहलाने लगता है तथा महायान की प्रथम भमि में प्रविष्ट हो जाता है। तदनन्तर दर्शनमार्ग द्वारा दृष्ट तत्त्व की पुनः पुनः भावना की जाती है। यही भावनामार्ग है। भावनामार्ग द्वारा साधक दूसरी से दशम भूमि तक गमन करता है। दशम भूमि के अन्त में वज्रोपम समाधि होती है, जिसके द्वारा सूक्ष्म से सूक्ष्म ज्ञेयावरण का भी प्रहाण होता है और यही अशैक्ष मार्ग होता है। इसी के दूसरे क्षणों में त्रिकायात्मक बुद्धत्व की प्राप्ति होती है और यह समन्तप्रभ नामक बुद्धभूमि होती है। भूमियों के उत्तरोत्तर अधिरोहण के क्रम में क्लेशों और ज्ञेय आचरणों का क्रमशः प्रहाण तथा उत्तरोत्तर गुणों की प्राप्ति एवं वृद्धि होती रहती है। अन्त में बुद्ध की सर्वाकार-वरोपेत सर्वाकारज्ञता की प्राप्ति होती है।
नक महायान का प्रादुर्भाव-महायानी बौद्ध परम्परा समस्त महायान सूत्रों को निःसन्दिग्ध रूप से बुद्धवचन मानती है। यद्यपि महायान सूत्रा का बुद्धवच तो है। यद्यपि महायान सूत्रों की बुद्धवचनता के बारे में प्रारम्भ से ही विवाद रहा है। ज्ञात है कि जिस प्रकार पारमितायान से सम्बद्ध महायानी वाङ्मय तथागत के परिनिर्वाण के बाद जम्बूद्वीप भारतवर्ष में सामान्यतया प्रचलन में नहीं रहा, यद्यपि वह देवलोक और नागलोक में विद्यमान रहा, उसी प्रकार भगवान् बुद्ध द्वारा उपदिष्ट तन्त्र वाङ्मय भी सार्वजनिक रूप से भारत में प्रचलित नहीं था। आचार्य नागार्जुन आदि महापण्डितों ने जिस प्रकार महायानसूत्रों का पुनः प्रकाशन किया, उसी प्रकार बौद्ध तन्त्रों को भी धीरे-धीरे प्रकाशित किया। इसीलिए परम्परानुयायी प्रायः सभी महायानी आचार्य समस्त महायानसूत्रों और तन्त्रों को निःसन्दिग्ध रूप से बुद्धवचन मानते आए हैं। कालक्रम में इनमें कोई प्रक्षेप आदि नहीं हुए, यह निःसन्दिग्ध रूप से नहीं कहा जा सकता। कि जब नागार्जुन आदि महाचार्यों ने इनका भारत में पुनः प्रचलन किया, तभी से अन्य स्वयूथ्य स्थविरवाद आदि अठारह निकायों के महापण्डितों ने उन्हें बुद्धवचन मानने से इन्कार कर दिया। उन्होंने कहा कि जिन महायानसूत्रों में अर्हत् की निन्दा, बोधिसत्त्वों की बुद्ध से भी अधिक प्रशंसा, प्रव्रजितों द्वारा गृहस्थ लोगों को भी प्रणाम करना, आनन्तर्य पाप कर्मों से भी विशुद्धि एवं भगवान् बुद्ध का लीला के लिए पृथ्वी पर अवतरण जैसी बातें उल्लिखित हों, वे महायानसूत्र बुद्धवचन कदापि नहीं हो सकते। साथ ही महायानसूत्रों में धर्मकाय को नित्य माना गया है, यह ‘सभी संस्कार अनित्य हैं’, इस सर्वमान्य सिद्धान्त के विपरीत है। उन महायानसूत्रों में जो तथागतगर्भ और आलयविज्ञान२५२ बौद्धदर्शन वर्णित है, वह ‘आत्मा’ को मानने जैसा है, यह भी ‘सभी धर्म अनात्मक हैं’- इस सिद्धान्त से विपरीत है। महायानसूत्रों के अनुसार बुद्ध निर्वाण के बाद भी उसमें विलीन नहीं होते, अपितु अप्रतिष्ठित निर्वाण में स्थित होते हैं, यह भी ‘निर्वाण शान्त है’- इस सर्वनैकायिक सिद्धान्त से विपरीत है। इन सिद्धान्तों के प्रतिपादक महायानसूत्र कैसे बुद्धवचन हो सकते हैं। अनि अपि च, समस्त बुद्धवचन सूत्र, विनय एवं अभिधर्म- इन तीन पिटकों में संगृहीत हैं। राजगृह की प्रथम संगीति में संगीतिकारों ने महायानसूत्रों का किसी भी पिटक में संग्रह नहीं किया तथा अठारह बौद्धनिकायों में से किसी में भी महायानसूत्र संगृहीत नहीं हैं, फलतः वे बुद्धवचन नहीं हैं।
उनका कहना है कि वस्तुतः वे महायानी उच्छेदवादी चार्वाकों की भाँति हैं, क्योंकि उनके सूत्रों में बुद्ध, धर्म, संघ अर्थात् त्रिरत्न, चार आर्यसत्य, कर्म और उसके फल की सत्यतः सत्ता नहीं मानी जाती। वे उन सभी धर्मों को निःस्वभाव या शून्य मानते हैं। फलतः ऐसा प्रतीत होता है कि लोगों की वंचना करने के लिए ये महायानसूत्र मार आदि किसी के द्वारा उपदिष्ट हैं।
आचार्य भावविवेक द्वारा प्रणीत तर्कज्वाला आदि ग्रन्थों में महायानसूत्रों के बुद्धवचन न होने के पक्ष में जो ऊपर तर्क दिये गये हैं, उनको तथा अन्य अनेक दोषारोपणों को पूर्वपक्ष में रखकर उनका साङ्गोपाङ्ग विधिवत् निराकरण किया गया है। इसके अलावा आचार्य नागार्जुन के ग्रन्थों में, आर्य मैत्रेयनाथ के महायानसूत्रालङ्कार में, आचार्य शान्तिदेव के बोधिचर्यावतार एवं आचार्य भावविवेक के मध्यमकहृदय आदि ग्रन्थों में पूर्वपक्ष का निराकरण करके महायानसूत्रों की सविधि बुद्धवचनता युक्तिपूर्वक सिद्ध की गई है। इन सबका तत्तद् ग्रन्थों में अवलोकन करना चाहिए। ला - महायानसङ्गीति-आचार्य धर्ममित्र आदि अनेक भारतीय विद्वानों के मतानुसार संगीतिकारों ने भी महायानसूत्रों की पृथक्संगीति नहीं मानी, अपितु महाकश्यप, आनन्द एवं उपालि द्वारा ही महायानसूत्रों का भी संगायन हुआ है- ऐसा उन्होंने माना है। परन्तु आचार्य भावविवेक ने अपनी तर्कज्वाला में उपर्युक्त मत का निराकरण करते हुए निम्नलिखित रूप से अपना मत प्रस्तुत किया है : “जब राजगृह के विपुलगिरि में भगवान् बुद्ध के सामान्य सूत्रों का संगायन हो रहा था, उसी समय विमलसम्भवगिरि पर समन्तभद्र, मञ्जुश्री, गुह्यकाधिपति वज्रपाणि, मैत्रेयनाथ आदि बोधिसत्त्वों द्वारा महायानसूत्रों का सङ्गायन हो रहा था तथा उसी समय वज्रपाणि द्वारा समस्त तन्त्रों का भी सङ्गायन किया गया। " या चीनी यात्री हेनसांग ने अपने ‘भारत यात्रा का विवरण’ नामक ग्रन्थ में निम्नलिखित विवरण प्रस्तुत किया है : भूमिका २५३ व “जहाँ पर महाकाश्यप ने सभा की थी, उसी स्थान से पश्चिमोत्तर में एक स्तूप है, जहाँ पर आनन्द सभा में बैठने से वर्जित किये जाने पर चले गये थे और जहाँ एकान्त में बैठकर उन्होंने अर्हत्पद प्राप्त किया था। यहीं से लगभग ३० ली जाकर पश्चिम दिशा में एक स्तूप अशोक राजा का बनवाया हुआ है। इस स्तूप पर एक बड़ी भारी सभा (महासंघ) पुस्तकों (त्रिपिटक) का संग्रह करने के लिए हुई थी। जो लोग काश्यप की सभा में सम्मिलित नहीं हो पाये थे, वे सब साधक और अर्हत् करीब एक लाख व्यक्ति उस स्थान पर आकर एकत्र हुए और उन्होंने कहा कि जब तथागत भगवान् जीवित थे, तब हम लोग एक स्वामी के अधीन थे, परन्तु अब समय पलट गया, धर्म के अधिपति का परिनिर्वाण हो गया, इसलिए हम लोग भी बुद्ध के प्रति कृतज्ञता प्रकाशित करेंगे और एक सभा करके पुस्तकों (बुद्धवचनों) को संग्रह करेंगे। इस सभा में………सूत्रपिटक, विनयपिटक, अभिधर्मपटिक, फुटकर पिटक (प्रकीर्णक) और धारणीपिटक इन पांचों पिटकों का संगायन किया गया। इस सभा में सर्व साधारण और महात्मा (श्रावण और बोधिसत्व) दोनों सम्मिलित थे। इसलिए इस सभा का नाम बृहत्-सभा (महासंघ) रखा गया’ । "
महायानसूत्रों की बुद्धवचनता
यद्यपि अठारह निकायों की परम्परा महायान सूत्रों को बुद्धवचन मानने के पक्ष में नहीं थी और ऊपर उन्हें बुद्धवचन नहीं मानने के पक्ष में अनेक तर्क दिये गये हैं। यह विरोध अत्यन्त प्राचीनकाल से ही प्रचलित था और आज भी विद्यमान है। ऐसा प्रतीत होता है कि जब एक बार भारतवर्ष में महायानसूत्र विलुप्त हो गए और आर्य नागार्जुन प्रज्ञापारमिता आदि सूत्रों को नागलोक से पुनः जम्बूद्वीप में लाए तथा उनके आधार पर उन सूत्रों के प्रज्ञा-पक्ष को माध्यमिक दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया तो सभी विपक्षी बौद्धों ने एक स्वर से उनका विरोध किया और कहा कि माध्यमिक दर्शन उच्छेदवादी है, जो बुद्ध, धर्म संघ, आर्यसत्य आदि को शून्य के रूप में प्रतिपादित करता है और कहा कि ये सूत्र बुद्धवचन नहीं हो सकते। या तो उन्हें नागार्जुन ने गढ़ लिए हैं या लोगों की वंचना के लिए मार ने उनका प्रणयन किया है।
___ यही कारण है कि नागार्जुन ने उन सूत्रों को बुद्धवचन सिद्ध करने का अथक प्रयास किया और बाद के दिग्गज पण्डितों ने भी अपनी-अपनी रचनाओं में उन्हें बुद्धवचन के
रूप में सिद्ध किया है।
र अब हम उन्हीं आचार्यों के अनुसार महायान को बुद्धवचन सिद्ध करने का और पूर्वपक्ष द्वारा प्रदत्त युक्तियों का निरास करने का अतिसंक्षेप में प्रयास कर रहे हैं।
१. द्र. (ह्वेनसांग कृत ‘भारत यात्रा का विवरण’ (हिन्दी अनुवाद) पृ. ३१३ (आदर्श हिन्दी पुस्तकालय
४६२ इलाहाबाद - १६७२)। "
२५४
बौद्धदर्शन _महायान बुद्धवचन हैं, क्योंकि वह युक्ति और आगमों में सिद्ध है। जैसे श्रावकयान और प्रत्येक बुद्धयान बुद्धवचन हैं, वैसे ही महायान भी बुद्धवचन हैं। बुद्धवचन एकमात्र वही हो सकता है, जो युक्तिसंगत हो। भगवान् युक्तिहीन वचन नहीं बोलते, जैसे युक्तिहीन होने से उच्छेदवाद बुद्धवचन नहीं है। जैसे श्रावकयानी और प्रत्येकबुद्धयानी अनित्यता, दुःखता, अनात्मता, शून्यता और चार आर्यसत्यों का अधिगम करते हैं, वैसे महायानी भी उनका बोध करते हैं। इतना अधिक है कि महायानी दुःख आदि सत्यों का निराकार निरालम्ब और समता में अधिगम करते हैं, जिसकी वजह से वे ज्ञेयावरण का भी प्रहाण करने में सक्षम होते हैं, जबकि श्रावक और प्रत्येकबुद्ध उसका प्रहाण नहीं कर पाते। ज्ञेयावरण के प्रहाण के लिए ही विशेषतः महायान का प्रादुर्भाव हुआ है, क्योंकि उसके बिना बुद्धत्व प्राप्ति असम्भव है।
_ आचार्य नागार्जुन का कथन है कि शून्यता का प्रतिपादन हीनयानी पिटकों में भी हुआ है, अतः शून्यता ही बुद्ध का असली अभिप्राय है, जैसे मूलमाध्यमिक शास्त्र में उक्त है:
कात्यायनाववादे च अस्ति नास्तीति चोभयम्।
प्रतिषिद्धं भगवता भावाभावविभाविना’॥
पुनश्च रत्नावलि में बड़े विस्तार से आर्य नागार्जुन ने महायान को बुद्धवचन सिद्ध किया है। वे बड़े अफसोस के साथ कहते हैं कि जिस महायान में भगवान ने बोधिसत्वों के लिए पुण्यसम्भार और ज्ञानसम्भार का निर्देश किया है, उस महायान की मोह और द्वेष से ग्रस्त लोग निंदा करते हैं। वे कहते हैं कि यह सब वे अज्ञान की वजह से ही करते हैं, यथा :
बोधिसत्त्वस्य सम्भारो महायाने तथागतैः।
निर्दिष्टः स तु संमूढैः प्रद्विष्टैश्चैव निन्द्यते॥
अपि च,
पुण्यज्ञानमयो यत्र बुद्धैर्बोधर्महापथः।
देशितस्तन्महायानमज्ञानाद् वै न दृश्यते॥
आर्य मैत्रेयनाथ का कहना है कि यदि महायान बुद्धवचन नहीं होता, अपितु किसी अन्य के द्वारा कथित होने से सद्धर्म में विघ्न करने वाला होता तो भगवान् ने अनागत
१. नागार्जुन, द्र.- मूलमाध्यमिककारिका, १५:७। २. नागार्जुन, द्र. - रत्नावलि, ४:६७ (मिथिला विद्यापीठ प्रकाशन-१६६०)। ३. नागार्जुन, द्र. - रत्नावलि, ४:८३ (मिथिला विद्यापीठ प्रकाशन-१६६०)।
भूमिका
२५५ भय की आशंका से उसका अवश्य व्याकरण (भविष्य कथन) किया होता। किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया, इसलिए वह अवश्य बुद्धवचन है। यह महायान और श्रावकयान दोनों एक ही काल (समकाल) में प्रवृत्त हैं। ऐसा नहीं है कि वह बाद में आविर्भूत हुआ हो। महायान अत्यन्त उदार (विस्तृत व्यापक) एवं गम्भीर है। यह तार्किकों का अगोचर है। यदि किसी अन्य ने संबोधि प्राप्त करके कहा है तो उसका बुद्धवचन होना सिद्ध है, क्योंकि बुद्ध वही है, जो संबोधि प्राप्त है। यदि महायान है तो वह बुद्धवचन ही है, क्योंकि अन्य महायान नहीं है। यदि महायान नहीं है तो श्रावकयान भी नहीं हो सकता, क्योंकि महायान (बुद्धयान) के बिना बुद्ध का उत्पाद सम्भव नहीं है। महायान की भावना से सभी निर्विकल्प ज्ञान उत्पन्न होते हैं, जो सभी क्लेशों के प्रतिपक्ष होते हैं। इसका शब्दानुसारी अर्थ नहीं होता, अपितु तात्पर्यार्थ का ग्रहण किया जाता है। अतः अबुद्धवचन होने का दोष नहीं है। इस तरह आर्यमैत्रेयनाथ ने महायान को बुद्धवचन सिद्ध करने के लिए महायानसूत्रालङ्कार में पूरा एक अधिकार लिखा है। बुद्धवचन होने का यह सामान्यतया लक्षण है कि जो सूत्र में अवतरित होता है, विनय में दिखलाई देता है और जो धर्मता (तथता-शून्यता) का विरोधी नहीं होता, वह बुद्धवचन है। आर्य असङ्ग का कहना है कि महायान में यह पूरा लक्षण घटित होता है। महायानसूत्रों में यह अवतरित है। विनय में दिखलाई देता है तथा उदार और गम्भीर होने से धर्मता का भी विरोधी नहीं है। इस बात को आर्य मैत्रेयनाथ ने निम्न पंक्तियों में प्रकट किया है…. या प्रक
स्वकेऽवतारात स्वस्यैव विनये दर्शनादपि।
औदार्यादपि गाम्भीर्यादविरुद्धैव धर्मता ॥
ज्ञातव्य है कि महायानी हीनयान और महायान दोनों सूत्रों को बुद्धवचन मानते हैं, जबकि हीनयानी महायानसूत्रों को बुद्धवचन नहीं मानते। आचार्य शान्तिदेव कहते हैं कि यदि महायान बुद्धवचन के रूप में असिद्ध है तो आपका हीनयान कैसे सिद्ध है ? यदि आप कहें कि हमारा हीनयान (हीनयान और महायान) दोनों द्वारा सिद्ध है, जबकि आपका महायान ऐसा नहीं है, क्योंकि हम उसे बुद्ध वचन नहीं मानते। इस पर आचार्य कहते हैं
१. आदावव्याकरणात् समप्रवृत्तेरगोचरात् सिद्धेः।
भावाभावेऽभावात् प्रतिपक्षत्वाद् रुतान्यत्वात् ॥
द्र. - महायानसूत्रालङ्कार महायानसिद्ध्यधिकार। २. यत्सूत्रेऽवतरति, विनेये सन्दृश्यते, धर्मतां च न विलोमयति, बुद्धवचनस्येदं लक्षणम् । द्र. - असङ्ग,
महायानसूत्रालङ्कार, महायानसिद्ध्यधिकार। म ३. द्र.-महायानसूत्रालङ्कार, महायानसिद्ध्यधिकार।
२५६
बौद्धदर्शन कि हमारे द्वारा हीनयान को बुद्धवचन नहीं मानने के पहले वह दोनों द्वारा कहां सिद्ध था’। अध्याशयसंचोदनसूत्र में उल्लिखित है कि चार कारणों में किसी आगम को बुद्धवचन मानना चाहिए, यथा- (१) उसे अर्थ (हित) से युक्त होना चाहिए, अनर्थ से नहीं, (२) उसे धर्म से युक्त होना चाहिए, अधर्म से नहीं, (३) उसे क्लेशों का प्रहाण करने वाला होना चाहिए, बढ़ाने वाला नहीं, (४) उसे निर्वाण के गुणों को दिखाने वाला होना चाहिए, न कि संसार के गुणों को दिखलाने वाला। महायान में ये सभी कारण विद्यमान हैं, अतः बुद्धवचन के रूप में महायान के प्रति आस्था रखनी चाहिए। जो उपर्युक्त प्रकार से सभाषित है, वह सब बुद्धभाषित है, यथा- यत् किञ्चित् मैत्रेय, सुभाषितं सर्वं तद् बुद्धभाषितम् ॥
का आक्षेप-परिहार - गृध्रकूट पर्वत पर आयोजित प्रथम संगीति के अवसर पर महायानसूत्रों का सूत्र, विनय एवं अभिधर्म- इन तीन पिटकों में संग्रह नहीं किया गया, अतः वे (महायानसूत्र) बुद्धवचन न होकर वेद आदि के सदृश बौद्धबाह्य हैं - यह आक्षेप युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि महायान में भी सूत्र, विनय और अभिधर्म है और उनमें चार आर्यसत्य, पाँच इन्द्रियाँ, पांच बल, सात बोध्यङ्ग, आठ मार्ग, दस बल, चार वैशारद्य और प्रत्यात्मवेद्य ज्ञान तथा क्लेशावरण के प्रहाण की विधि भी वैसे ही वर्णित है, जैसे आपके पिटकों में वर्णित है। यही नहीं, अपितु निरालम्ब भावना के आधार पर ज्ञेयावरण के प्रहाण की विधि भी प्रतिपादित है। महायान के वचन धर्ममुद्रा के विपरीत नहीं है। क्लेशों का शमन करने वाला विनयपिटक भी वहाँ है तथा इसका अभिधर्म प्रतीत्यसमुत्पाद का अनुसरण करता है। अतः उपर्युक्त आक्षेप निरर्थक है।
अठारह निकायों में कहीं भी महायान का संग्रह नहीं होता, अतः महायान बुद्धवचन नहीं है - यह आक्षेप भी युक्तियुक्त नहीं है। स्थूल, सूक्ष्म भेद तो अठारह निकायों में भी उपलब्ध होते हैं और फिर भी आप उन्हें बुद्धवचन के रूप में स्वीकार करते हैं, ऐसी स्थिति में परोपकार के उदात्त विचार और अनुपलम्भ आदि गम्भीर दर्शन के कुछ अंश श्रावकयान में नहीं होने के कारण उन्हें (महायानसूत्रों को) बुद्धवचन न मानना उचित नहीं है, क्योंकि महायानी भी सूत्र का अनुसरण करते हैं, बोधिसत्त्व के लिए निर्दिष्ट शिक्षापदों का अनुपालन करते हैं तथा धर्मता (धर्ममुद्रा) का अतिक्रमण नहीं करते। इतना ही नहीं, महायान बुद्धवचन है, क्योंकि महायानसूत्रों के संकलनकर्ता समन्तभद्र, मञ्जुश्री वज्रपाणि एवं मैत्रेय आदि बोधिसत्त्व हैं, जिन्होंने उनका संगायन किया। अतः इस महायानसंगीति के द्वारा
१. नन्वसिद्धं महायानं कथं सिद्धस्त्वदागमः ।
यस्मादुभयसिद्धोऽसौ न सिद्धोऽसौ तवादितः॥
-
शान्तिदेव, बोधिचर्यावतार, ६:४२। । २. यदर्थवद् धर्मपदोपसंहितं त्रिधातुसंक्लेशनिवर्हणं वचः।
भवेच्च यच्छान्त्यनुशंसदर्शकं तदुक्तमार्ष विपरीतमन्यथा॥ -
अध्याशयसंचोदनसूत्र। मामलाया ३. द्र.-अध्याशयसंचोदनसूत्र।
भूमिका २५७ महायानसूत्र प्रामाणिक बुद्धवचन सिद्ध होते हैं श्रावकयानियों के द्वारा गृध्रकूट पर्वत पर महायानसूत्रों का संगायन करना सम्भव नहीं था, क्योंकि महायान उन (श्रावकयानियों) का गोचर ही नहीं है।
यह आक्षेप भी युक्तिसंगत नहीं है कि “क्योंकि महायानसूत्रों में धर्मकाय को नित्य कहा गया है, अतः यह सिद्धान्त बौद्धों के इस सर्वमान्य सिद्धान्त से कि ‘सभी संस्कार अनित्य हैं, इससे विरुद्ध है”। यह आक्षेप भी ठीक नहीं है, क्योंकि धर्मकाय को नित्य कहने का अभिप्राय ठीक-ठीक नहीं समझा गया है। वास्तविक अभिप्राय यह है कि भगवान् ने जिस यथावत् ज्ञान और यावत् ज्ञान का अधिगम किया है, उसका कभी क्षय नहीं होता, उसमें परिवर्तन नहीं होता और उसमें विकार नहीं आता’ इसलिए इसे नित्य कहा गया है, न कि आत्मा आदि की तरह कूटस्थ नित्य होने के अर्थ में। वह भगवान् द्वारा अधिगत ज्ञान तो स्वयं में अवश्य स्वभावतः अनित्य होता है। सन्तति नित्यता के अर्थ में यहाँ ‘नित्य’ शब्द प्रयुक्त है, जैसे नित्य प्रवाहशील उदकधारा या नित्य ऊर्ध्वगमनशील अग्निज्वाला आदि। तथागत का ज्ञान सभी ज्ञेयों में व्याप्त होता है। अर्थात् वह सभी ज्ञेयों में अनासक्त और अप्रतिहत होता है, अतः उसे व्यापी भी कहा जाता है, किन्तु इसका अर्थ नहीं है कि वह ब्रह्म की तरह व्यापक होता है।
महायानसूत्रों में आलयविज्ञान या तथागतगर्भ की देशना की गई है, जो आत्मा के सदृश है। अतः यह सिद्धान्त ‘सभी धर्म अनात्म है’ इस बौद्धों के सर्वमान्य सिद्धान्त के विपरीत है, - यह आक्षेप भी समीचीन नहीं है। क्योंकि तथागतगर्भ आधार की शून्यता, हेतुओं की निर्लक्षणता और फल की अप्रणिधानता के अर्थ में प्रयुक्त है, न कि आभ्यन्तर किसी शाश्वत पुरुष की स्थिति के अर्थ में । दशभूमक आदि सूत्रों में जन्म ग्रहण करने वाले आलयविज्ञान को नदी की धारा के समान प्रवाहशील कहा गया है, जो क्षणिक होता है और यह कभी भी धर्ममुद्रा और नैरात्म्य का अतिक्रमण नहीं करता। अतः वह निःसन्देह आत्म की तरह नहीं है।
_ यह आक्षेप भी निराधार है कि महायानसूत्रों में क्योंकि निरुपधिशेष निर्वाण हो जाने पर भी बुद्ध की चित्त-सन्तति का प्रवाह अवरुद्ध नहीं होता और वे अप्रतिष्ठित निर्वाण में स्थित रहते हैं, अतः यह महायानी सिद्धान्त ‘निर्वाण शान्त है’- बौद्धों के इस सर्वमान्य सिद्धान्त के विपरीत है। तथागत ने क्लेशावरण और ज्ञेयावरणों का समूल प्रहाण कर दिया है। इसलिए वे प्रज्ञा के कारण संसार के मलों से लिप्त नहीं होते और महाकरुणा के कारण संसार के सत्त्वों का परित्याग नहीं करते और संसार में स्थित रहते हुए उनके हितों का
- १. इति कारित्रवैपुल्याद् बुद्धो व्यापी निरुच्यते।
अक्षयत्वाच्च तस्यैव नित्य इत्यभिधीयते॥
द्र. - मैत्रेयनाथ, अभिसमयालङ्कार, ८:११।
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बौद्धदर्शन सम्पादन करते हैं। क्योंकि दुःखी सत्त्वों के दुःख के निवारण के लिए ही उन्होंने बुद्धत्व प्राप्ति की प्रतिज्ञा की थी। भगवान ने क्लिष्ट चित्तसन्तति का समूल नाश कर दिया है, किन्तु अक्लिष्ट चित्तसन्तति के विद्यमान रहने में क्या युक्तिविरोध है, अतः वे अप्रतिष्ठित निर्वाण में स्थित रहते हैं। इसीलिए तथागत सदा के लिए महापरिनिर्वाण को प्राप्त नहीं होते। वे विनेयजनों के अध्याशय के अनुरूप कहीं जन्म लेने, कहीं बोधि प्राप्त करने और कहीं परिनिर्वाण प्राप्त करने को दर्शाते हैं। आपके सूत्रपिटक आदि में जैसे संकेतित हैं, उसी प्रकार महायान में निर्माणकाय स्वीकृत है। इसीलिए यह कहना कि चित्तसन्तति के निरन्तर प्रवृत्त होने से यह सिद्धान्त ‘निर्वाण शान्त है’- इस सिद्धान्त के विपरीत है, यह तर्कसंगत नहीं है। .
का अठारह निकायों में प्रायः तथागत का तुषित लोक से अवतरण निर्दिष्ट है। उनमें बुद्ध के पूर्वजन्म से सम्बद्ध स्तुति भी संवर्णित है, जिनमें जन्म से पूर्व तुषित लोक में होना, तथागत दीपंकर के समय बोधिचित्त उत्पन्न करना, लुम्बिनी में उत्पन्न होते ही सात कदम चलना आदि घटनाओं का वर्णन है। इस तरह अठारह निकायों में बोधिसत्त्व अवस्था से सम्बद्ध घटनाओं का वर्णन उपलब्ध होने से कहा जा सकता है कि महायान अठारह निकायों में संगृहीत है।
जो यह आक्षेप दिया गया है कि महायान सूत्रों में व्रत, उपवास, स्नान, मन्त्र आदि का विधान है, जिसके द्वारा पापों का प्रक्षालन और मुक्ति की प्राप्ति का उल्लेख है, जैसा कि ब्राह्मण धर्म में है-यह आक्षेप भी नितान्त ही सारहीन है। क्योंकि अनन्तद्वारधारणी की साधना के अनुसार इस धारणी की भावना करने वाला साधक (बोधिसत्त्व) संस्कृत और असंस्कृत किसी भी धर्म की कल्पना नहीं करता, केवल बुद्धानुस्मृति की भावना करता है। नागराजपरिपृच्छासूत्र में भी कहा गया है कि सभी धर्म आदितः विशुद्ध हैं, इसलिए धारणी में स्थित बोधिसत्त्व शून्यस्वरूप बीजाक्षरों का अनुसरण करता है, उनकी खोज करता है
और उनमें स्थित होता है, जिससे उसमें राग, द्वेष, मोह आदि उत्पन्न नहीं होते। यह साधना भी वैसे ही है, जैसे अनित्यता, अशुचि आदि की भावना। अर्थात् धारणीमन्त्र और विद्यामन्त्र का तथागत के उपदेशानुसार जप, ध्यान एवं भावना करने से पाप का क्षय तथा चित्त सन्तति शान्त होती है। यह मार्गसत्य की भावना के समान ही है। धारणीमन्त्र के जप के समय साधक में पाप से उत्पन्न होने वाले विपाक के प्रति भय तथा पाप कर्म के प्रति हेयता का भाव होता है और अन्त में उस पाप की पुनरावृत्ति न हो, ऐसी प्रतिज्ञा करना
अनिवार्य होता है। ये सब पाप के प्रायश्चित के अंग हैं।
का गंगास्नान से पाप का प्रायश्चित्त अथवा पानी से पापों का प्रक्षालन होता हो-ऐसा नहीं है किन्तु अनवतपतनागराजपरिपृच्छासूत्र में कथित नय के अनुसार पनसा नामक झील में जन्म लेते समय बोधिसत्त्व ने प्रणिधान किया था कि ‘जो इस (झील) का जल पियेगा, इसमें
भूमिका
२५६ स्नान करेगा, उसके पापों का क्षय हो, उनमें बोधिचित्त का उत्पाद हो’-उनके इस प्रणिधान के बल से स्नान द्वारा पाप का क्षय सम्भव है। प्रणिधान का फलीभूत होना अर्थात् बोधिसत्त्व के प्रणिधान के अनुरूप फल सिद्धि होना असम्भव नहीं है। जैसे विष तत्त्व का ज्ञाता कोई गारुडिक (गरुड विद्या का ज्ञाता) अपने सिद्ध मन्त्र के सामर्थ्य से किसी लकड़ी या पत्थर के स्तम्भ को अभिमन्त्रित करके और यह संकल्प करके उसे जमीन में गाड़ दे, कि मेरे मरने के बाद यह स्तम्भ (खम्भा) ही, जो इसका स्पर्श करेगा उसका विष उतार देगा और उसके बाद वह गारुडिक मर जाए। फिर भी देखा जाता है कि उसके मरने के सैकड़ों वर्षों बाद भी वह खम्भा लोगों का विष उतार रहा है’। उपवास आदि से यद्यपि मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती, फिर भी विद्यामन्त्र की चर्या में और कायकर्मण्यता (कायिकस्फूर्ति) की सिद्धि में वे सहायक होकर मुक्ति की प्राप्ति में सहायक होते हैं। अतः यह कहना कि स्नान, उपवास आदि का विधान होने में महायान बुद्धवचन नहीं है- यह असङ्गत है। __यह भी आक्षेप किया जाता है कि महायानसूत्रों में तीन रत्न, चार आर्यसत्य, कर्म
और कर्मफल आदि की सत्यतः सत्ता का खण्डन किया गया है, अतः महायानी उच्छेदवादी चार्वाकों की तरह हैं। यह आक्षेप भी सही नहीं है। ऐसा आक्षेप देने वाले शून्यता का अर्थ अभाव समझते हैं और यह समझते हैं कि ये (महायानी) लोग अभाववादी हैं। जबकि वस्तुस्थिति यह है कि महायानी प्रतीत्यसमुत्पादवादी हैं। उनके अनुसार सभी धर्म प्रतीत्यसमुत्पन्न हैं। इसका अर्थ है कि संस्कृत, असंस्कृत, लौकिक, लोकोत्तर धर्म अपनी सत्ता के लिए दूसरों अर्थात् हेतु-प्रत्ययों पर निर्भर हैं। ऐसा नहीं कि वे अपने अस्तित्व के लिए परनिरपेक्ष न हों। अर्थात् उनकी स्वतन्त्र सत्ता हो। उनका निरपेक्ष न होना या स्वतन्त्र
अस्तित्व न होना ही शून्यता, धर्मता, परमार्थ सत्य या तथता है। इसीलिए सभी धर्म शून्य एवं निःस्वभाव हैं, फिर भी उनका सापेक्ष, व्यावहारिक या सांवृतिक अस्तित्व होता है। इसी व्यावहारिक अस्तित्व के आधार पर लौकिक, लोकोत्तर, बन्ध, मोक्ष आदि की सभी व्यवस्थाएं सुचारु रूप से सम्पन्न होती हैं। इतना ही नहीं, महायानियों का तो यहाँ तक कहना है कि सस्वभाववाद में ही कोई भी व्यवस्था नहीं बन सकती। क्योंकि स्वभाव में परिवर्तन सम्भव नहीं होता। इसीलिए नागार्जुन ने कहा है :
यद्यशून्यमिदं सर्वमुदयो नास्ति न व्ययः। का 5 HिF
चतुर्णामार्यसत्यानामभावस्ते प्रसज्यते ॥
जय काजी
१. यथा गारुडिकः स्तम्भं साधयित्वा विनश्यति।
स तस्मिंश्चिरनष्टेऽपि विषादीनुपशामयेत्॥
द्र. - शान्तिदेव, बोधिचर्यादतार, ६:३७। २. द्र. - मूलमाध्यमिककारिका, २४:२०।
२६०
बौद्धदर्शन
की अप्रतीत्य समुत्पन्नो धर्मः कश्चिन्न विद्यते। भाषामा हितमाः को कि यस्मात्तस्मादशून्यो हि धर्मः कश्चिन्न विद्यते’ ॥
ो मात बौद्धदर्शनों के कतिपय प्रमुख बिन्दुओं का संक्षिप्त तुलनात्मक विवेचन हमने ग्रन्थ में चारों बौद्ध दर्शन-प्रस्थानों की प्रामाणिक रूप-रेखा प्रस्तुत की है। अब हम किसी एक बिन्दु पर उनके पारस्परिक मतभेद दिखलाने का प्रयास कर रहे हैं। इससे प्रत्येक दर्शन का असाधारण बोध करने में सहायता मिलेगी। ज्ञात है कि बौद्धों के प्रसिद्ध अठारह निकायों के विभाजन का आधार प्रमुखतः उनको पृथक् आचार्य-परम्पराएं एवं विनय-सम्बन्धी आचार रहे हैं। दार्शनिक मान्यताओं में अधिक मतभेद नहीं है। इसलिए इन अठारहों निकायों को दार्शनिक विभाजन के अवसर पर वैभाषिक कहने की बौद्ध दार्शनिकों की परम्परा रही है। इसलिए हम भी वैभाषिक, सौत्रान्तिक, योगाचार और माध्यमिक इन प्रसिद्ध चार बौद्ध दर्शनों के विचारों को ही तुलनात्मक दृष्टि से प्रस्तुत करेंगे। यह भी ज्ञात है कि वैभाषिक और सैत्रान्तिकों को हीनयान तथा योगाचार और माध्यमिकों को महायान कहने की परम्परा है। यद्यपि हीनयान और महायान के विभाजन का आधार दर्शन बिलकुल नहीं है। निश्चय ही उसका आधार उद्देश्य की भिन्नता ही है, फिर भी प्रचलित अवधारणा के अनुसार हमने भी यहाँ वैसा ही प्रयोग किया है। अब हम कतिपय प्रमुख दार्शनिक मुद्दों को लेकर सभी के पृथक् पृथक् विचारों को प्रस्तुत कर रहे हैं।
(०१) वस्तुसत्ता
वैभाषिक बाह्यार्थवादी हैं। वे आन्तरिक एवं बाह्य सभी पदार्थों की वस्तुसत्ता स्वीकार करते हैं। सौत्रान्तिक भी बाह्यार्थवादी है और स्वभावसत्तावादी भी। सौत्रान्तिक आचार्य शुभगुप्त ने ‘बाह्यार्थसिद्धिकारिका’ नामक अपने ग्रन्थ में बड़े विस्तार से युक्तिपूर्वक विज्ञानवादियों का खण्डन करके बाह्यार्थ की सत्ता सिद्ध की है। बाह्यार्थ को सिद्ध करने में सौत्रान्तिकों ने अभूतपूर्व एवं स्तुत्य प्रयास किया है। विज्ञानवादी निर्बाह्यार्थवादी हैं। इनके मत में बाह्यार्थ परिकल्पित मात्र हैं। अर्थात् बाह्यार्थ खपुष्पवत् अलीक है। वे केवल विज्ञान-परिणाम की ही द्रव्यतः सत्ता स्वीकार करते हैं। चित्त-चैतसिकों के बाहर कोई धर्म नहीं है। परमाणु की सत्ता का उन्होंने बड़े जोरदार ढंग से निषेध किया है। फलतः परमाणुओं से संचित स्थूल बाझार्थ का निषेध अपने-आप हो जाता है।
१. द्र.- नागार्जुन, मूलमाध्यमिककारिका, २४:१६ ।
भूमिका
२६१ स्वातन्त्रिक और प्रासङ्गिक के भेद से माध्यमिक दो प्रकार के हैं। स्वातन्त्रिक भी सूत्राचार स्वातन्त्रिक माध्यमिक और योगाचार स्वातन्त्रिक माध्यमिक भेद से द्विविध हैं।
। सूत्राचार स्वातन्त्रिक माध्यमिक नय के प्रवर्तक आचार्य भावविवेक समस्त धर्मों को परमार्थतः निःस्वभाव या शून्य मानते हैं। अर्थात् उनके मतानुसार समस्त धर्म मिथ्या एवं मायावत् हैं। उनकी परमार्थिक सत्ता नहीं है, फिर भी समस्त धर्मों की व्यावहारिक सा सांवृतिक सत्ता है।
प्रश्न है उनके अनुसार व्यवहारतः सत् समस्त धर्मों की बाह्यर्थतः सत्ता है कि नहीं? इस विषय में आचार्य भावविवेक ने अपने ग्रन्थों में स्पष्ट एवं तर्कपूर्ण विवेचन किया है। उनका कहना है कि बाह्यार्थ होते हैं। वे कहते हैं कि “चित्तमात्रं भो जिनपुत्राः, यदुत त्रैधातुकम्” (दशभूमकसूत्र, पृ. ४८) इस दशभूमकसूत्र द्वारा विज्ञप्तिमात्रता की स्थापना नहीं की गई है, अपितु चित्तातिरिक्त सृष्टिकर्ता का खण्डन किया गया है, जो तैर्थिकों द्वारा मान्य है।
दृश्यं न विद्यते बाह्यं चित्तं चित्रं हि दृश्यते।
देहभोगप्रतिष्ठानं चित्तमात्रं वदाम्यहम् ॥
(लङ्कावतारसूत्र : ३:३३) इस लङ्कावतारसूत्र द्वारा भी बाह्यार्थ का निषेध नहीं होता। ‘दुश्यं न विद्यते बाह्यम्’ का तात्पर्य बाह्यार्थ के न होने से नहीं है, अपितु बाह्यार्थों के परमार्थतः निःस्वभाव होने से है। ‘चित्त चित्रं हि दृश्यते देहभोगप्रतिष्ठानम्’ का अर्थ है देह, भोग आदि में प्रवृत्त विभिन्न चित्त तत्तद् विषयाकार होते हैं। ‘चित्तमात्रं वदाम्यहम्’ का अर्थ चित्तातिरिक्त ईश्वर आदि सृष्टिकर्ता का निषेध है। उपर्युक्त बाते उन्होंने अपनी ‘प्रज्ञाप्रदीय’ नामक मूलमाध्यमिककारिका की बृहद् टीका में कही है। ऐसा प्रतीत होता है कि वे बाह्यार्थ का निषेध किसी भी सूत्र का अभिप्राय नहीं मानते॥
एक मध्यमकहृदयकारिका एवं तर्कज्वाला नामक उसके स्वभाष्य में भी उन्होंने स्पष्टतया प्रतिपादित किया है कि यह प्रत्यक्षतः सिद्ध है कि द्विचन्द्राकार चक्षुर्विज्ञान भी बिना एक चन्द्रमा से उत्पन्न नहीं होता, अतः इन्द्रयविज्ञानों का बाह्यालम्बन होना अत्यन्त आवश्यक है। अतः निश्चित होता है कि बाह्यार्थ हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि बाह्यार्थ को लेकर सूत्राधार स्वातन्त्रिक माध्यमिक व्यवहार में विज्ञानवादियों से भिन्न हो जाते हैं।
आचार्य शान्तरक्षित योगाचार स्वातन्त्रिक मत के प्रवर्तक हैं। आचार्य शान्तरक्षित ने अपने मध्यमकालङ्कार नामक ग्रन्थ के स्वभाष्य में बाह्यार्थ की सत्ता का युक्तिपूर्वक खण्डन किया है और व्यवहार में विज्ञप्तिमात्रता की स्थापना की है। बाह्यार्थों की सत्ता के साधक प्रमाणों की परीक्षा करके उन्होंने उन्हें प्रमाणाभास सिद्ध किया और विज्ञप्तिमात्रता को आर्यसन्धिनिर्माचन, आर्यघनव्यूह एवं लङ्कावतार आदि सूत्रों का अभिप्राय सिद्ध किया
के२६२
बौद्धदर्शन
है। इस प्रकार आचार्य शान्तरक्षित बाह्यार्थशून्यता मानते हैं। निःसन्देह आचार्य के विचार विज्ञानवाद से प्रभावित हैं। यद्यपि योगाचार माध्यमिक निर्बाह्यार्थवादी हैं, तथापि वे योगाचारों की भांति बाह्यार्थशून्यता को परमार्थसत्य नहीं मानते, अपितु वे उसे व्यावहारिक ही मानते हैं। व्यावहारिक क्षेत्र में अवश्य आचार्य शान्तरक्षित और विज्ञानवादियों में साम्य है। इसीलिए उन्हें योगाचार स्वातन्त्रिक माध्यमिक कहा जाता है। हम
__यद्यपि सबके कहने में थोड़ा-थोड़ा फर्क है, फिर भी प्रासंगिक मतानुसार वैभाषिक, सौत्रान्तिक, योगाचार एवं स्वातन्त्रिक माध्यमिक सभी धर्मों की स्वाभाविक सत्ता या स्वलक्षण सत्ता स्वीकार करते हैं। सभी के मूल सिद्धान्त इसी पर आधृत हैं। स्वभावतः अस्तित्व एवं स्वलक्षणतः अस्तित्व पर्यायवाची हैं। लोक में देवदत्त द्रष्टा है, श्रोता है या कर्ता है, इत्यादि व्यवहार प्रचलित हैं। प्रश्न है कि वह देवदत्त कौन है ? क्या उसके स्कन्ध देवदत्त हैं या वह स्कन्धों से भिन्न कोई सत्तावान् पदार्थ है ? इस प्रकार का अन्वेषण ‘व्यवहृत अर्थ का अन्वेषण’ या ‘प्रज्ञप्त अर्थ का अन्वेषण’ कहलाता है। इस प्रकार का अन्वेषण करने पर यदि स्कन्धों से भिन्न या अभिन्न कोई पक्ष उपलब्ध हो तो द्रष्टा, श्रोता या कर्ता आदि का अस्तित्व माना जा सकता है। यदि कोई भी पक्ष उपलब्ध न हो तो उसका अस्तित्व स्वीकार नहीं किया जा सकता। संस्कृत और असंस्कृत सभी धर्म इसी प्रकार परीक्षणीय हैं। यह स्वभावतः अस्तित्ववादी या स्वलक्षणतः अस्तित्ववादियों का सिद्धान्त है। धान के
- कुछ वैभाषिक, जैसे वात्सीपुत्रीय आदि व्यक्ति को पञ्चस्कन्धों से भिन्नत्वेन एवं अभिन्नत्वेन अनिर्वचनीय मानते हैं। साथ ही, उसे द्रव्यतः सत् भी स्वीकार करते हैं। सौत्रान्तिक आदि मनोविज्ञान को व्यक्ति या पुद्गल मानते हैं। आगमानुयायी विज्ञानवादियों के मत में आलयविज्ञान या विपाकविज्ञान पुद्गल माना जाता है। आचार्य भावविवेक आदि भी मनोविज्ञान को ही पुद्गल मानते हैं।
तैर्थिक (अबौद्ध) दार्शनिक पाँच स्कन्धों से भिन्न नित्य, शाश्वत, कूटस्थ आत्मा स्वीकार करते हैं। उनके मतानुसार आत्मा या तो ज्ञान का आश्रय है या स्वयं ज्ञानस्वरूप है। जब रूप आदि दृष्टिगोचर होते हैं, तब इन्द्रिय आदि उपकरणों द्वारा आत्मा ही द्रष्टा आदि हुआ करता है। मन, बुद्धि आदि से वह परे होता है तथा वह स्वतन्त्र एवं द्रव्यतः सत् होता है। __आचार्य चन्द्रकीर्ति आदि प्रासंगिक माध्यमिकों का मत उपर्युक्त मतों से सर्वथा भिन्न है। वे व्यवहृत अर्थ का अन्वेषण करने पर उसकी कथमपि उपलब्धि नहीं मानते। लोक में जैसा व्यवहार होता है, वस्तुओं का व्यवहार में उतना ही अस्तित्व होता है। अर्थात् वस्तुएं व्यवहारमात्र या प्रज्ञप्तिमात्र हैं। इस तथ्य को हम यों कह सकते हैं कि पदार्थों का अपनी ओर से किञ्चित् भी अस्तित्व नहीं होता। अर्थात् वस्तु की स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती। समस्त धर्म परस्पराश्रित होते हैं। ऐसा होने पर भी प्रासंगिक उच्छेदवादी नहीं हैं। वे निःस्वभाव भूमिका धर्मों का अस्तित्व स्वीकारते हैं और उसी के आधार पर संसार और निर्वाण से सम्बद्ध सारी व्यवस्था करते हैं।
यद्यपि प्रासंगिक माध्यमिक अन्वेषण करने पर व्यवहृत अर्थ की उपलब्धि नहीं मानते, तथापि लोक में वस्तु की जिस प्रकार सत्ता मानी जाती है, संवृति के क्षेत्र में वे भी उसी प्रकार की सत्ता मान लेते हैं। लोक में किसी भी पदार्थ की सत्ता प्रमाणों द्वारा परीक्षण करके या अन्वेषणय करके स्थापित नहीं की जाती, अपितु बिना विचार किये जैसे सभी लोग मानते हैं, उस प्रकार मान ली जाती है। शास्त्रों में इसी स्थिति को ‘अविचार प्रसिद्ध’ या अविचार रमणीय’ कहा गया है। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि देवदत्त नहीं है या गमन, आगमन नहीं करता, अथवा अच्छा या बुरा नहीं है या इस प्रकार का विचार नहीं किया जा सकता। लोकव्यवहार या संवृति में यह सब कुछ हो सकता है। व्यावहारिक विषयों में व्यावहारिक विचार होने में कोई आपत्ति नहीं है।
विज्ञानवादी निर्बाह्यार्थवादी हैं। प्रासंगिक माध्यमिक यद्यपि समस्त धर्मों को निःस्वभाव मानते हैं, तथापि वे निर्बाह्यार्थवादी नहीं हैं। उनके मत में घट, पट आदि समस्त धर्म निःस्वभाव हैं, तथापि वे सर्वथा अलीक नहीं हैं, उनका अस्तित्व है। अर्थात् व्यावहारिक क्षेत्र में बाह्यार्थ का अस्तित्व मान्य है। इनके मतानुसार ‘षट्केन युगपद् योगाद्’ (वसुबन्धु, विंशिका, का. १२) आदि विज्ञानवादियों की इन युक्तियों के द्वारा निरवयव बाह्यार्थ (परमाणु) का खण्डन होता है, तथापि बाह्यार्थ का निषेध नहीं होता। उनका कहना है कि विज्ञानवादियों के पास बाह्यार्थ के निषेध के लिए पर्याप्त एवं उपयुक्त युक्तियों का अभाव है। इतना ही नहीं, निर्बाह्यार्थता के पक्ष में लोकप्रसिद्धि से भी विरोध है।
‘चित्तमात्र भो जिनपुत्राः, यदुत त्रैधातुकम्’ इस दशभूमकसूत्र द्वारा बाह्यार्थ का निषेध नहीं होता, अपितु चित्तातिरिक्त ईश्वर आदि सृष्टिकर्ता का निषेध होता है। ‘दृश्यं न विद्यते बाह्यं चित्तं चित्रं हि दृश्यते’ इत्यादि लङ्कावतारसूत्र द्वारा यद्यपि बाह्यार्थ का निषध किया गया है, तथापि यह सूत्र नेयार्थ है, नीतार्थ नहीं। प्रयोजनवश भगवान् ने वैसा कहा है। सरकार का सवारी
(०२) परमाणु
जा वैभाषिक परमाणुवादी हैं। यद्यपि परमाणु के स्वरूप के बारे में उनमें परस्पर अनेकविध मतभेद हैं, तथापि सभी परमाणु की सत्ता स्वीकार करते हैं। सौत्रान्तिक भी परमाणु मानते हैं। बाह्यार्थवादियों के लिए परमाणु मानना आवश्यक भी है।
विज्ञानवादी परमाणु नहीं मानते। बाह्यार्थ का अभाव एवं विज्ञान की सत्ता सिद्ध करने के लिए परमाणु का निषेध करना आवश्यक होता है। इसीलिए आचार्य वसुबन्धु ने विंशिका में निरवयव परमाणु का जोरदार खण्डन किया है।
२६४
बौद्धदर्शन प्रासंगिक माध्यमिक भी वैभाषिकों की भाँति परमाणुवादी हैं, तथापि दोनों के मत में मौलिक अन्तर है। सभी प्रकार के वैभाषिक निरवयव परमाणु मानते हैं। प्रासंगिक परमाणु को कल्पित मानते हैं। वह कल्पित परमाणु भी उनके मतानुसार निरवयव नहीं हो सकते, अपितु सावयव होते हैं। वे कहते हैं कि जैसे व्यवहार में घट, पट आदि की सत्ता है, उसी प्रकार परमाणु का भी अस्तित्व है।
(०३) आलयविज्ञान
स्थविरवादी यद्यपि आलयविज्ञान नहीं मानते, फिर भी कर्म, कर्मफल, पुनर्जन्म आदि की व्यवस्था के लिए एक ‘भवाङ्ग’ नामक चित्त स्वीकार करते हैं। इनके मतानुसार भावाङ्ग ही व्यक्तित्व है, जो कुछ अवस्थाओं को छोड़कर समुद्र की भाँति भीतर ही भीतर निरन्तर प्रवाहित होता रहता है। जैसे आलयविज्ञान जब तक बुद्धत्व प्राप्त नहीं होता, तब तक निरन्तर अविच्छिन्न रूप से प्रवृत्त होता रहता है, वैसे ही भवाङ्ग चित्त भी अर्हत् के निरूपधिशेष निर्वाणधातु में लीन होते तक प्रवृत्त होता रहता है। समुद्र से तरङ्गों की भांति
आलयविज्ञान से जैसे सात प्रवृत्तिविज्ञानों की की प्रवृत्ति होती है और अन्त में वे उसी में विलीन हो जाते हैं, वैसे ही भवाङ्ग चित्त से छह प्रवृत्तिविज्ञानों (वीथिचित्तों) की प्रवृत्ति होती है और प्रवृत्त होकर उसी में विलीन हो जाते हैं। विज्ञानवादी आलयविज्ञान को जैसे कुशल, अकुशल का विपाक मानते हैं, स्थविरवादियों के मत में भवाङ्ग चित्त भी कुशल, अकुशल कर्मों का विपाक होता है। आलयविज्ञान की भांति भवाङ्ग चित्त भी प्रतिसन्धि (पुनर्जन्म ग्रहण) और च्युति (मरण) कृत्य करता है। आलयविज्ञान और भवाङ्ग दोनों संस्कृत और क्षणिक होते हैं। विज्ञानवाद के अनुसार आलयविज्ञान में कुशल, अकुशल, अव्याकृत सभी चित्तों की वासनाएं निहित रहती हैं। वह समस्त धर्मो के बीजों का आधार होता है, वैसे भवाङ्ग चित्त से भी षड् विज्ञानवीथियाँ उत्पन्न होती हैं और अन्त में उसी में पतित हो जाती हैं। फलतः वह भी वासनाओं का आधार हो जाता है।
फिर भी आलयविज्ञान और भवाङ्ग के स्वरूप में कुछ फर्क भी है। विज्ञानवादियों में युगपत् अनेक विज्ञानों की उपस्थिति मानी जाती है। इनके मत में किसी भी एक क्षण में कम से कम तीन विज्ञान अवश्य उपस्थित होते हैं, यथा-आलयविज्ञान, क्लिष्ट मनोविज्ञान
और कोई एक प्रवृत्तिविज्ञान। स्थविरवादी एक काल में एक से अधिक विज्ञान की उपस्थिति नहीं मानते। अतः जब कोई प्रवृत्तिविज्ञान या वीथिचित्त उत्पन्न होता है, उस समय भवाङ्ग चित्त निरुद्ध हो जाता है, इसे ‘भवाङ्गोपच्छेद’ कहते हैं। फलतः केवल भवाङ्ग ही वासनाओं का आधार नहीं होता, अपितु लोकोत्तर चित्तों को छोड़कर समस्त चित्त यथायोग्य वासनाओं के आधार होते हैं।
हैं
भूमिका
AL
२६५ वैभाषिक और सौत्रान्तिक किसी भी तरह आलयविज्ञान की सत्ता स्वीकार नहीं करते। आगमानुयायी विज्ञानवादी आलयविज्ञान पर ही अपना दर्शन स्थापित करते हैं। युक्त्यनुयायी विज्ञानवादी आलयविज्ञान को नहीं मानते। अतः क्लिष्ट मनोविज्ञान भी नहीं मानते। फलतः ये अष्ट विज्ञानवादी नहीं, अपितु षड्विज्ञानवादी हैं। इनके मत में भी वासनाएं होती हैं, किन्तु वे उन्हें आलयविज्ञान पर नहीं, अपितु मनोविज्ञान पर आधृत मानते हैं। सूत्राचार स्वातन्त्रिक माध्यमिक बाह्यार्थ मानते हैं, अतः उन्हें आलयविज्ञान मानने की कोई आवश्यकता नहीं होती। आलयविज्ञान न मानने से क्लिष्ट मनोविज्ञान को मानने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता। आचार्य भावविवेक अपने मध्यमकहृदय ग्रन्थ में कहते हैं कि विज्ञानवादियों ने आलयविज्ञान के नाम से आत्मा को ही स्थापना कर दी है। इस तरह आचार्य भावविवेक आलयविज्ञान का खण्डन करते हैं और छह विज्ञान ही मानते हैं।
___ योगाचार स्वातन्त्रिक माध्यमिक मत के प्रवर्तक आचार्य शान्तरक्षित के ग्रन्थों से यह स्पष्ट होता नहीं होता कि वे आलयविज्ञान मानते हैं कि नहीं, तथापि उनके दर्शन के वातावरण से ऐसा प्रतीत होता है कि वे आलयविज्ञान नहीं मानते।
प्रासंगिक मत के आचार्य चन्द्रकीर्ति ने मध्यमकावतार में कहा है कि विज्ञानवादियों के आलयविज्ञान तथा ईश्वरवादियों के ईश्वर में केवल इतना ही अन्तर है कि विज्ञानवादी आलयविज्ञान को अनित्य मानते हैं और ईश्वरवादी ईश्वर को नित्य मानते हैं। इस प्रकार प्रासंगिक माध्यमिक आलयविज्ञान का खण्डन करते हैं। इससे यह भी सिद्ध होता है कि
आलयविज्ञान एक अनित्य विज्ञान है, नित्य नहीं, जैसा कि कुछ लोग उसे नित्य मानते हैं।
(०४) निर्वाण
वैभाषिक निरोध को निर्वाण मानते हैं। वह भी प्रतिसंख्यानिरोध और अप्रतिसंख्यानिरोध के भेद से द्विविध हैं। इन दोनों में प्रतिसंख्यानिरोध ही मुख्य है। निरुपधिशेषनिर्वाण की अवस्था में सभी संस्कृत धर्म निरुद्ध हो जाते हैं और वह (संस्कृत धर्मों का निरोध) अप्रतिसंख्यानिरोधस्वरूप होता है। वह असंस्कृत होता है और द्रव्यतः सत् होता है।
सौत्रान्तिकों के मत में निर्वाण अभावमात्र (प्रसज्यप्रतिषेधस्वरूप) होता है, जो समस्त क्लेशों से रहितमामात्र है।
विज्ञानवादियों के मत में निर्वाणयद्रव्यतः सत् नहीं है। वह क्लेशावरण का अभावमात्र है। महानिर्वाण भी क्लेशावरण और ज्ञेयावरण दोनों का अभावमात्र ही है और वह एक नित्य धर्म है। महायाननिर्वाण की अवस्था बुद्धत्व की अवस्था है। इस अवस्था में यद्यपि सास्रव पञ्च स्कन्ध अर्थात् सास्रव शरीर एवं चित्तसन्तति विद्यमान नहीं होते, तथापि अनास्रव पञ्च स्कन्ध विद्यमान होते हैं, जो समस्त जीवों का कल्याण सिद्ध करते हैं। माध्यमिक भी ऐसा ही मानते हैं।
२६६
बौद्धदर्शन
(०५) बुद्धवचन
वैभाषिक महायानसूत्रों को बुद्धवचन नहीं मानते, क्योंकि उनमें वर्णित विषय उन्हें अभीष्ट नहीं हैं। वे केवल हीनयानी त्रिपिटक को ही बुद्धवचन मानते हैं। प्राचीन या आगमानुयायी सौत्रान्तिक महायानसूत्रों को बुद्धवचन नहीं मानते थे, किन्तु धर्मकीर्ति के बाद के अर्वाचीन या युक्त्यनुयायी सौत्रान्तिक महायानी आचार्यों के प्रभाव से महायानसूत्रों को बुद्धवचन मानने लगे, फिर भी वे उनका अर्थ प्रकारान्तर से लेते थे। महायानी आचार्य हीनयानी और महायानी सभी सूत्रों को बुद्धवचन मानते हैं।
(०६) धर्मचक्र
__ वैभाषिक और सौत्रान्तिक एक धर्मचक्र ही मानते हैं, जिसकी देशना भगवान् ने ऋषिपतन मृगदाव में की थी। इसके विनेय जन श्रावकवर्गीय लोग हैं, जो स्वलक्षण और बाह्यसत्ता पर आधृत चतुर्विध आर्यसत्य के पात्र हैं। पुद्गल-नैरात्म्य के साक्षात्कार द्वारा निर्वाण प्राप्त कर लेना, इसका लक्ष्य है। श्रावक-वर्गीय लोगों की दृष्टि से यह नीतार्थ देशना है। योगाचार और माध्यमिक लोगों की दृष्टि से यह नेयार्थ देशना है।
महायानी तीन धर्मचक्र प्रवर्तन मानते हैं। पहला ऋषिपतन मृगदाव में, दूसरा गृध्रकूट पर्वत पर तथा तीसरा वैशाली में। द्वितीय धर्मचक्र के विनेय जन महायानी लोग हैं तथा शून्यता, अनुत्पाद, अनिरोध आदि इसकी विषयवस्तु हैं। विज्ञानवादी लोग इस द्वितीय धर्मचक्र को नेयार्थ मानते हैं, नीतार्थ नहीं। इसमें प्रमुखतः प्रज्ञापारमितासूत्र देशित हैं, जिनसे माध्यमिक दर्शन विकसित हुआ है। इसकी नेयनीतार्थता के बारे में स्वातन्त्रिक माध्यमिकों एवं प्रासंगिक माध्यमिकों में थोड़ा-बहुत मतभेद है। आचार्य भावविवेक, ज्ञानगर्भ, शान्तरक्षित आदि स्वातन्त्रिक माध्यमिकों के अनुसार प्रज्ञापारमितासूत्रों में आर्यशतसाहस्रिका प्रज्ञापारमिता आदि कुछ सूत्र नीतार्थ हैं, क्योंकि इनमें सभी धर्मों की परमार्थतः निःस्वभावता निर्दिष्ट है। भगवती प्रज्ञापारमिताहृदयसूत्र आदि यद्यपि द्वितीय धर्मचक्र में संगृहीत हैं, तथापि वे नीतार्थ नहीं माने जा सकते, क्योंकि इनके द्वारा जिस प्रकार की सर्वधर्मनिःस्वभावता प्रतिपादित की गई है उस प्रकार की निःस्वभावता स्वातन्त्रिक माध्यमिकों को इष्ट नहीं है। यद्यपि इन सूत्रों का अभिप्राय परमार्थतः निःस्वभावता ही है, तथापि उनमें ‘परमार्थतः’ यह विशेषण अधिक स्पष्ट नहीं है जो कि स्वातन्त्रिक माध्यमिकों के अनुसार नीतार्थसूत्र होने के लिए परमावश्यक है। क्योंकि ये लोग व्यवहार में वस्तु की स्वलक्षण सत्ता स्वीकार करते हैं। शान।
का प्रासंगिक माध्यमिकों के अनुसार द्वितीय धर्मचक्र नीतार्थ देशना है। वे ‘परमार्थतः विशेषण को निरर्थक मानते हैं। इनके मत में जिस सूत्र का मुख्य विषय शून्यता है, वह सूत्र नीतार्थ है। जिसका मुख्य विषय संवृति सत्य है, वह नेयार्थ सूत्र है। अतः इनके मत में भगवती प्रज्ञापारमिताहृदयसूत्र आदि सूत्र भी नीतार्थ ही हैं।
भूमिका
२६७ तृतीय धर्मचक्र का स्थान वैशाली है। श्रावक एवं महायानी दोनों इसके विनेय जन हैं। आर्य सन्धिनिर्मोचन आदि इसके प्रमुख सूत्र हैं। विज्ञानवादियों के अनुसार यह नीतार्थ देशना है। यद्यपि द्वितीय और तृतीय दोनों धर्मचक्रों में शून्यता प्रतिपादित है, तथापि द्वितीय धर्मचक्र में समस्त धर्मों को समान रूप से निःस्वभाव कहा गया है। उसमें यह भेद नहीं किया गया है कि अमुक धर्म निःस्वभाव है और अमुक धर्म निःस्वभाव नहीं है, अपितु सस्वभाव है। विज्ञानवादी समस्त धर्मो को समानरूप से निःस्वभाव नहीं मानते, अपितु पदार्थों में से कुछ निःस्वभाव हैं और कुछ सस्वभाव। अतः वे द्वितीय धर्मचक्र को नीतार्थ नहीं मानते। उनके मतानुसार जो सूत्र धर्मों की सस्वभावता और निःस्वभावता का सम्यग् विभाजन करते हैं, वे ही नीतार्थ माने जा सकते हैं। जिन सूत्रों में उक्त प्रकार का विभाजन
स्पष्ट नहीं है, उन्हें विज्ञानवादी नेयार्थ ही मानते हैं। ____ आचार्य भावविवेक शान्तरक्षित आदि इसे अर्थात् तृतीय धर्मचक्र को नीतार्थ मानते हैं, क्योंकि इसके द्वारा भगवतीप्रज्ञापारमिताहृदय आदि सूत्रों (जो सूत्र द्वितीय धर्मचक्र में संगृहीत हैं और नेयार्थ हैं) का अभिप्राय स्पष्ट किया गया है।
प्रश्न है कि विज्ञानवादी और स्वातन्त्रिक माध्यमिक दोनों मतों में तृतीय धर्मचक्र समानरूप से नीतार्थ कैसे माना जा सकता है, जबकि दोनों के सिद्धान्त परस्पर अत्यन्त भिन्न हैं
दोनों इसे नीतार्थ तो अवश्य मानते हैं, किन्तु स्वातन्त्रिक माध्यमिक यह नहीं कहते कि तृतीय धर्मचक्र का अभिप्राय विज्ञानवादियों ने जैसा समझा है, वैसा ही है। उनका कहना है कि विज्ञानवादियों ने इसका अभिप्राय गलत ढंग से प्रस्तुत किया है।
- आचार्य बुद्धपालित, चन्द्रकीर्ति आदि प्रासंगिक माध्यमिक इस तृतीय धर्मचक्र को सर्वथा नेयार्थ देशना ही मानते हैं। उनका कहना है कि तृतीय धर्मचक्र का अभिप्राय ठीक वैसा ही है, जैसा विज्ञानवादी मानते हैं। क्योंकि विज्ञानवादियों के सिद्धान्त युक्तिहीन एवं दोषदुष्ट हैं, अतः तृतीय धर्मचक्र नेयार्थ देशना है। उनके मतानुसार तृतीय धर्मचक्र की देशना भगवान् ने ऐसे विनेय जनों के लिए की है, जो तत्काल गम्भीर शून्यता देशना के पात्र नहीं हैं, अतः तत्काल विज्ञानवाद की देशना देकर पीछे कुशलता से गम्भीर विषय (सर्वधर्मनिःस्वभावता) की ओर ले जाने के लिए उन्होंने तृतीय धर्मचक्र का प्रवर्तन किया है।
(०७) द्विविध नैरात्म्य
_ विज्ञानवाद के अनुसार पुद्गलनैरात्म्य का स्वरूप पञ्च स्कन्धों से द्रव्यतः भिन्न, नित्य, शाश्वत आत्मा का निषेधमात्र है, वैभाषिक सौत्रान्तिक आदि हीनयानी और स्वातन्त्रिक माध्यमिक भी ऐसा ही मानते हैं। विज्ञानवाद के अनुसार बाह्यार्थ से शून्यता या ग्राह्य-ग्राहकद्वय से शून्यता धर्मनैरात्म्य है तथा स्वातन्त्रिक माध्यमिकों के अनुसार धर्मों की परमार्थतः निःस्वभावता धर्मनैरात्म्य है।
२६८
बौद्धदर्शन
- प्रासङ्गिक ऐसा नहीं मानते। उनके मत में यद्यपि उक्त प्रकार की आत्मा का अस्तित्व मान्य नहीं है, तथापि उक्त प्रकार के पुद्गलनैरात्म्य के ज्ञान से सर्वविध आत्मदृष्टि का निषेध नहीं होता। उक्त ज्ञान केवल परिकल्पित आत्मृष्टि का ही प्रतिपक्ष है, जो (आत्मा) केवल सिद्धान्तविशेष से प्रेरित लोगों में ही होती है। सहज आत्मदृष्टि की इससे कुछ भी हानि नहीं होती।
इसके मतानुसार नैरात्म्य की स्थापना पुद्गल तथा धर्म के भेद से की जाती है। पुद्गलनिःस्वभावता पुद्गलनैरात्म्य तथा घटादि निःस्वभावता धर्मनैरात्म्य है।
(०८) द्विविध आवरण
सभी महायानी दर्शनों में द्विविधि आवरणों की व्यवस्था है, यथा- क्लेशावरण एवं ज्ञेयावरण। क्रमशः प्रथम आवरण मुक्ति की प्राप्ति में मुख्य बाधक है तथा दूसरा आवरण सर्वज्ञता की प्राप्ति में मुख्य बाधक है।
__विज्ञानवाद के अनुसार पुद्गलात्मदृष्टि तथा उससे सम्बद्ध क्लेश ‘क्लेशावरण’ है। बाह्यार्थदृष्टि तथा उसकी वासनाएं ‘ज्ञेयावरण’ हैं। स्वातान्त्रिक माध्यमिकमत में क्लेशावरण का स्वरूप विज्ञानवादियों से भिन्न नहीं है, किन्तु उनके मतानुसार धर्मों की सत्यतः सत्तादृष्टि ज्ञेयावरण है।
प्रासंगिक माध्यमिक मतानुसार पुद्गलात्मदृष्टि तथा धर्मात्मदृष्टि सभी क्लेशावरण हैं, क्योंकि सभी स्वभावसद्-दृष्टि क्लेश होती है। स्वभावसद्-दृष्टि मुक्ति की प्राप्ति में मुख्य बाधक है। अतः मोक्षप्राप्ति के लिए निःस्वभावता का ज्ञान अनिवार्य है। अतः श्रावक तथा प्रत्येकबुद्ध आर्यों के लिए निःस्वभावता का ज्ञाता होना निश्चित होता है।
___ स्वभावसद्-दृष्टि की वासना ज्ञेयावरण है। यही सर्वज्ञज्ञान की प्राप्ति में मुख्य बाधक है। उसके प्रहाण के लिए महाकरुणा से संगृहीत सम्भारों तथा पारिमताओं की आवश्यकता होती है। यह प्रासङ्गिकों की विशिष्ट मान्यता है।
(०९) द्विविध सत्य
दो सत्यों की चर्चा हीनयानी ग्रन्थों में भी उपलब्ध होती है। पालि-अट्ठकथा एवं अभिधर्मकोश में इनके लक्षण वर्णित हैं, किन्तु महायान में इनकी पुष्कल चर्चा हुई है। नागार्जुन इसके प्रवर्तक माने जाते हैं। सौत्रान्तिक परमार्थतः अर्थक्रियासमर्थ को परमार्थसत्य कहते हैं। निर्बाह्यार्थता या ग्राह्य-ग्राहक द्वैत से रहितता योगाचार मत में परमार्थसत्य है। स्वातन्त्रिक और प्रासङ्गिक माध्यमिक का सत्यद्वय के बारे में जो सूक्ष्म दृष्टिभेद है, उसे जान लेना आवश्यक है।
भूमिका
२६६ भावविवेक के मत में परमार्थतः निःस्वभावता ‘परमार्थसत्य’ है। केवल निःस्वभावता परमार्थसत्य नहीं मानी जाती, क्योंकि उनके मत में स्वभावसत्ता होती है।
प्रासङ्गिक माध्यमों के मतानुसार निःस्वभावता ही ‘परमार्थसत्य’ है। उनके अनुसार ‘परमार्थतः’ यह विशेषण निरर्थक है।
दोनों के मत में संवृति के दो प्रकार हैं। भावविवेक विषय की दृष्टि से तथ्यसंवृति और मिथ्यासंवृति- ये दो भेद मानते हैं। परन्तु प्रासङ्गिक मत के अनुसार विषय दो प्रकार के नहीं हो सकते, क्योंकि सभी विषय मिथ्या ही होते हैं। विषयी (ज्ञान) दो प्रकार का होता है। यह लोकव्यवस्था के अनुकूल भी है। प्रासङ्गिक की अपनी दृष्टि से तो सभी ज्ञान मिथ्या ही हैं, क्योंकि उनकी दृष्टि से सभी सांवृत ज्ञान भ्रान्त होते हैं। फिर भी लोकव्यवस्था के अनुसार ज्ञान के दो प्रकार हैं।
(१०) प्रमाण विचार
प्रमाणों की दो संख्या के बारे में प्रायः सभी बौद्ध एकमत हैं। प्रमाणों के बारे में सौत्रान्तिकों ने विस्तृत विचार किया है। प्रमाण दो हैं - प्रत्यक्ष और अनुमान। सौत्रान्तिक प्रत्यक्ष प्रमाण को चतुर्विध मानते हैं। योगाचार दार्शनिक भी सौत्रान्तिकों के समान ही मानते हैं। परन्तु प्रासङ्गिक माध्यमिक स्वसंवेदन प्रत्यक्ष नहीं मानते। वैभाषिक भी ऐसा ही मानते हैं। इनके मत में प्रत्यक्ष त्रिविध ही है, यथा- इन्द्रियप्रत्यक्ष, मानसप्रत्यक्ष और योगिप्रत्यक्ष ।
___ कुछ विद्वानों का कहना है कि प्रासङ्गिक केवल दो ही प्रमाण नहीं मानते, अपितु प्रत्यक्ष अनुमान, उपमान और आगम-इन चार प्रमाणों को मानते हैं। वे अपने बात की पुष्टि के लिए प्रसन्नपदा के एक श्लोक को उद्धृत भी करते हैं।
- आचार्य चोखापा का कहना है कि प्रसन्नपदा का वचन विग्रहव्यावर्तनी पर आधृत है, वह चार प्रमाण होने का सबूत नहीं है। क्योंकि उपमान और आगम का अनुमान में ही
अन्तर्भाव हो जाता है। माना
प्रमाणवार्तिक में आगम को कितनी सीमा तक तथा किस प्रकार परीक्षित होने पर गृहीत किया जा सकता है और आप्त लिङ्ग की व्यवस्था तथा उसका स्वरूप क्या है ? इन सबका स्पष्टतया वर्णन किया गया है।
निष्कर्षतः प्रासङ्गिक द्विविध प्रमाणवादी हैं। ‘मानं द्विविधं मेयद्वैविध्यात्’ (प्रमाणवार्तिक, प्रत्यक्षपरिच्छेद) इस नियम को प्रासङ्गिक भी मानते हैं।
(११) त्रिकाय व्यवस्था
बुद्धत्व महायान का अन्तिम प्राप्तव्य पद है। महायान के अनुसार निरुपधिशेष निर्वाण
है
२७०
बौद्धदर्शन
प्राप्त होने पर भी व्यक्ति की रूपसन्तति एवं चित्तसन्तति का निरोध नहीं होता, जैसे कि हीनयानी दर्शनों के अनुसार होता है। महायानियों का कहना है कि निरुपधिशेष निर्वाण होने पर व्यक्ति की केवल क्लिष्ट सन्तति का ही निरोध होता है। अनास्रव पञ्चस्कन्ध सन्तति तो सवा प्रवहमान होती ही रहती है।
a बोधिसत्त्व जब बुद्धत्व प्राप्त करता है तो बुद्धत्व-प्राप्ति के साथ ही तीन कार्यों की प्राप्ति होती है, यथा- (१) धर्मकाय, (२) सम्भोग काय एवं (३) निर्माण काय। (१) धर्मकाय __जैसे एक सामान्य व्यक्ति में चित्त (चेतनांश) और शरीर (जडांश) दोनों होते हैं, वैसे ही बुद्ध की अवस्था में भी ये दोनों होते हैं। उनमें से चित्त (चेतनांश) धर्मकाय है तथा उनके सम्भोग काय और निर्माणकाय ये शरीरस्थानीय हैं। सांसारिक अवस्था में व्यक्ति के चक्षुर्विज्ञान आदि विज्ञान रूप, शब्द आदि विभिन्न विषयों में प्रवृत्त होते रहते हैं। उसका आलयविज्ञान समस्त वासनाओं और दौष्ठुल्यों का आश्रय हुआ करता है। क्लिष्ट मनोविज्ञान, जो एक विषम विज्ञान है, वह सर्वदा आलयविज्ञान को आत्मत्वेन ग्रहण करता रहता है। बुद्धावस्था में इन समस्त विज्ञानों की समाप्ति हो जाती है और उनके स्थान पर नए-नए विज्ञानों का उत्पाद हो जाता है। इस प्रक्रिया को ही ‘आश्रयपरावृत्ति’ कहते हैं।
था में आलयविज्ञान समस्त विज्ञानों का आश्रय हुआ करता है, उसी तरह बुद्धावस्था में सर्वज्ञज्ञान ही उनके समस्त ज्ञानों का आधार होता है और उसमें ही समस्त बुद्धगण विद्यमान रहते हैं। आलयविज्ञान के स्थान पर बुद्धावस्था में सर्वज्ञज्ञान उत्पन्न होता है, जो अप्रतिष्ठित निर्वाण का आधार होता है। क्लिष्ट मनोविज्ञान के स्थान पर समता ज्ञान का उत्पाद होता है, जो समस्त धर्मों को समानरूप से शून्य जानता है। सांसारिक अवस्था चक्षुरादिविज्ञानों के स्थान पर अतिविशुद्ध चक्षुरादिविज्ञान उत्पन्न होते हैं, जो एक-एक भी समस्त धर्मों और उनकी शून्यता को जानते हैं। ये समस्त ज्ञान सामूहिक रूप से ‘ज्ञान धर्मकाय’ कहलाते हैं। इस ज्ञानकाय में सर्वज्ञज्ञान ही प्रमुख है। हम
पर ज्ञातव्य है कि धर्मकाय त्रिविध है, यथा- ज्ञानधर्मकाय, आगन्तुक विशुद्ध स्वभाव धर्मकाय एवं स्वभावविशुद्ध स्वभाव धर्मकाय । इनमें प्रथम ज्ञानधर्मकाय का स्वरूप अभी कहा गया है। अब आगन्तुकविशुद्ध स्वभावधर्मकाय का स्वरूप कहा जा रहा है। यह
उस उपर्युक्त सर्वज्ञज्ञान में स्थित आवरणों का क्षय भी धर्मकाय है, उसे ‘आगन्तुक विशुद्ध स्वभाव धर्मकाय’ कहते हैं। विज्ञानवादी मत में धर्मकाय तीन प्रकार का नहीं माना जा जाता. जैसा ऊपर कहा गया है, अपित दो ही प्रकार का माना जाता है, यथा (१) ज्ञानधर्मकाय एवं (२) आगन्तुक विशुद्ध स्वभावधर्मकाय। इस मत में स्वभावविशुद्ध स्वभावधर्मकाय नहीं होता, क्योंकि सर्वज्ञज्ञान में स्थित बाह्यार्थशून्यता इन विज्ञानवादियों के
भूमिका
२७१ मत में धर्मकाय नहीं है। इसका कारण यह है कि सर्वज्ञज्ञान में स्थित बाह्यार्थशून्यता उस सर्वज्ञज्ञान के विषय रूप आदि की भी बाह्यार्थशून्यता है। ज्ञातव्य है कि इस मत में रूप और रूप को जानने वाला चक्षुर्विज्ञान ये दोनों रूप के परतन्त्रलक्षण हैं और दोनों की शून्यता एक ही है। इसीलिए रूप को जानने वाला सर्वज्ञज्ञान भी रूप का परतन्त्रलक्षण है और उसमें स्थित शून्यता रूप की भी शून्यता है। ऐसी स्थिति में जब कि सर्वज्ञज्ञान में स्थित शून्यता रूप में भी विद्यमान है, तो वह कैसे धर्मकाय हो सकती है। अर्थात् सर्वज्ञज्ञान में स्थित शून्यता धर्मकाय नहीं है।
- यह सिद्धान्त माध्यमिक मत से बहुत भिन्न है। माध्यमिकों के मत में एक धर्म की शून्यता दूसरे धर्म की शून्यता कथमपि नहीं हो सकती। फलतः उनके मत में सर्वज्ञज्ञान में जो शून्यता स्थित है, वह धर्मकाय होती है, जिसे ‘स्वभावविशुद्ध स्वभावधर्मकाय’ कहते हैं। ऐसा होने के कारण माध्यमिकों के मत में त्रिविध धर्मकाय होते हैं, यथा-द्विविधस्वभाव धर्मकाय और ज्ञानधर्मकाय। द्विविध स्वभाव धर्मकाय ये हैं-स्वभावविशुद्ध स्वभाव धर्मकाय एवं आगन्तुक विशुद्ध स्वभावधर्मकाय। (२) सम्भोग काय
सांसारिक अवस्था में बोधिसत्त्व का जो सास्रव शरीर होता है, वह दश भूमियों की अवस्था में क्रमशः शुद्ध होता जाता है। आखिरी जन्म में बोधिसत्त्व ‘चरमभविक बोधिसत्त्व’ कहलाता है। वह चरमभविक बोधिसत्त्व अपने आखिरी जन्म में कामधातु और रूपधातु के स्थानों में उत्पन्न नहीं होता, अपितु केवल अकनिष्ठ घनक्षेत्र में ही जन्मग्रहण करता है। वहाँ उसका शरीर अत्यन्त दिव्य होता है और कर्म-क्लेशों का उस पर कोई प्रभाव नहीं होता। उसी दिव्य जन्म में वह बुद्ध हो जाता है। बुद्ध होते ही व्यक्ति सम्भोगकाय हो जाता है और उसका शरीर ३२ महापुरुष लक्षणों और ८० अनुव्यञ्जनों से विभूषित हो जाता है। वह सम्भोगकाय निम्न पाँच विनियतों से युक्त होता है। (१) स्थानविनियत-वह सर्वदा केवल अकनिष्ठ घनक्षेत्र में ही स्थित रहता है। (२) कायविनियत-उसका शरीर ३२ महापुरुषलक्षण और ८० अनुव्यञ्जनों से सर्वदा
युक्त रहता है। (३) परिवारविनियत-उनके परिवार में केवल महायानी आर्य बोधिसत्त्व ही रहते हैं। (४) वाग्-विनियत-यह सदा महायान धर्म का ही उपदेश देते हैं। (५) कालविनियत-वह यावत्-संसार अर्थात् जब तक संसार है, तब तक उसी रूप में
स्थित रहते हैं।
(३) निर्माण काय यद्यपि उपर्युक्त सम्भोगकाय सर्वदा अकनिष्ठ घनक्षेत्र में ही स्थित रहता है, तथापि वह सकल जगत् के कल्याणार्थ समस्त क्षेत्रों में शाक्यमुनि गौतम बुद्ध आदि के रूप में२७२ ता बौद्धदर्शन अनेक बुद्धों का निर्माण करता है। ऐसे बुद्धों को निर्माणकाय’ कहते हैं। इनके स्थान आदि नियत नहीं होते। वाराणसी, मगध आदि अनेक स्थलों में वे भ्रमण करते रहते हैं। वे निर्माणकाय पशु, पक्षी, पृथग्जन आदि सभी जीवों के दृष्टिगोचर होते हैं तथा समस्त विनेय जनों के कल्याणार्थ श्रावक, प्रत्येक बुद्ध बोधिसत्त्व आदि सभी यानों का उपदेश करते हैं। वे यावत्-संसार स्थित नहीं रहते, अपितु कुछ ही काल में कुशीनगर आदि स्थानों में महापरिनिर्वाण प्राप्त कर लेते हैं। निर्माणकाय तीन प्रकार के होते हैं, यथा : (9) उत्तम निर्माणकाय-उत्तम निर्माणकाय का सम्भोगकाय से साक्षात् सम्बन्ध होता है। वे जम्बूद्वीप आदि विभिन्न लोकों में द्वादश (१२) चरित (लीला) प्रदर्शित करते हैं। इन चरितों के द्वारा वे विनेय जनों का कल्याण सिद्ध करते हैं। यह काय भी ३२ महापुरुषलक्षण और ८० अनुव्यञ्जनों से विभूषित होता है। शाक्यमुनि गौतम बुद्ध इसके निदर्शन (उदाहरण) हैं। द्वादश चरित इस प्रकार हैं-१. तुषित लोक से च्युति, २. मातृकुक्षि में प्रवेश, ३. लुम्बिनी उद्यान में अवतरण, ४. शिल्प कला में निपुणता एवं कौमार्योचित ललित क्रीडाएं, ५. रानियों के परिवार के साथ राज्यग्रहण, ६. चार निमित्तों (वृद्ध, रोगी, मृत आदि) को देखकर ससंवेग प्रव्रज्या, ७. नेरञ्जना नदी के तट पर छह वर्षों तक कठोर तपश्चरण, ८. बोधिवृक्ष के मूल में उपस्थिति, ६. मार की सम्पूर्ण सेना का दमन, १०. वैशाख पूर्णिमा के दिन बोधि की प्राप्ति, ११. ऋषिपतन मृगदाव (सारनाथ) में धर्मचक्र प्रवर्तन एवं १२. कुशीनगर में महापरिनिर्वाण। __(२) शैल्पिक निर्माणकाय - उत्तम निर्माणकाय को आधार बनाकर उत्तम कलाकार के रूप में प्रकट होना ‘शैल्पिक निर्माणकाय’ कहलाता है। एक समय शाक्यमुनि ने अपनी कला के अभिमानी गन्धर्वराज प्रमुदित का दमन करने के लिए स्वयं को वीणावादक के रूप में प्रकट किया था। यह ‘शैल्पिक निर्माणकाय’ का उदाहरण है।
(३) नैर्याणिक निर्माणकाय-उत्तम निर्माणकाय एवं शैल्पिक निर्माणकाय के अतिरिक्त बुद्ध का अन्य सत्त्व के रूप में जन्म लेना ‘नैर्याणिक निर्माणकाय’ कहलाता है। उत्तम निर्माणकाय के रूप में राजा शुद्धोदन के पुत्र होने के पहले बुद्ध तुषित क्षेत्र में देवपुत्र सच्छ्वेतकेतु के रूप में उत्पन्न हुए थे। उनका यह जन्म नैर्याणिक निर्माणकाय का उदाहरण है।
उपर्युक्त कायों में से धर्मकाय और उसके भेदों को सामान्य विनेय जन देख नहीं पाते। सम्भोगकाय और निर्माणकाय इन दो रूपी कायों को ही विनेय जन अपने पुण्यों के अनुसार देख सकते हैं। सम्भोगकाय केवल आर्य बोधिसत्त्वों का ही दृष्टिगोचर होता है तथा निर्माणकाय पृथग्जन सहित सभी जीवधारियों का गोचर होता है।
बुद्धगुण
बुद्ध में अनन्तानन्त गुण होते हैं। उन्हें चार भागों में वर्गीकृत किया जाता है, यथा कायगुण, वाग्-गुण, चित्तगुण एवं कर्मगुण। यहाँ संक्षेप में उनका निर्देश किया जा रहा है।
हैं
भूमिका
२७३ (१) काय-गुण-३२ महापुरुषलक्षण एवं ८० अनुव्यञ्जन बुद्ध के कायगुण हैं। उनमें से प्रत्येक यहाँ तक कि प्रत्येक रोम भी सभी ज्ञेयों का साक्षात् दर्शन कर सकता है। बुद्ध विश्व के अनेक ब्रह्माण्डों में एक-साथ कायिक लीलाओं का प्रदर्शन कर सकते हैं। इन लीलाओं द्वारा वे विनेयजनों को सन्मार्ग में प्रतिष्ठित करते हैं।
(२) वाग्-गुण-बुद्ध की वाणी स्निग्ध वाक्, मृदुवाक, मनोज्ञवाक्, मनोरम वाक्, आदि कहलाती है। इस प्रकार बुद्ध की वाणी के ६४ अंग होते हैं, जिन्हें ‘ब्रह्मस्वर’ भी कहते हैं। ये सब बुद्ध के वाग्-गुण हैं।
न (३) चित्त-गुण-बुद्ध के चित्त-गुण ज्ञानगत भी होते हैं और करुणागत भी। कुछ गुण साधारण भी होते हैं, जो श्रावक और प्रत्येकबुद्ध में भी होते हैं। कुछ गुण असाधारण होते हैं, जो केवल बुद्ध में ही होते हैं। उनका यहाँ नामोल्लेख किया जा रहा है।
दश बल, चतुवैशारद्य, तीन असम्भिन्न स्मृत्युपस्थान, तीन अगुप्त नास्ति मुषितस्मृतिता, सम्यक् प्रतिहतवासनत्व, महाकरुणा, अष्टादश आवेणिक गुण आदि बुद्ध के ज्ञानगत गुण हैं। दुःखी सत्त्वों को देखकर बुद्ध की महाकरुणा अनायास स्वतः प्रवृत्त होने लगती है। महाकरुणा के इस अजस्र प्रवाह से जगत् का अविच्छिन्न रूप से कल्याण हाता रहता है। यह उनका करुणागत गुण है।
(४) कर्म-गुण-ये दो प्रकार के होते हैं, यथा- १. निराभोग कर्म और २. अविच्छिन्न कर्म। निराभोग कर्म से तात्पर्य उन कर्मों से है, जो बिना प्रयत्न या संकल्प के सूर्य से प्रकाश की भांति स्वतः अपने-आप प्रवृत्त होते हैं। बुद्ध के कर्म बिना कालिक अन्तराल के लगातार सर्वदा प्रवृत्त होते रहते हैं, अतः ये अविच्छिन्न कर्म कहलाते हैं।
(१२) एकयानवाद
र संसार में कोई भी ऐसा प्राणी नहीं है, जो किसी न किसी दिन बुद्धत्व प्राप्त न कर लेगा। श्रावक और प्रत्येकबुद्ध भी, जिन्होंने निरुपधिशेष निर्वाण भी प्राप्त कर लिया है, यह सम्भव है कि अनेक कल्पों तक वे निर्वाणधातु में लीन रहें, फिर भी उनका एक न एक दिन महायान में प्रवेश होगा और वे अवश्य बुद्धत्व प्राप्त करेंगे। आचार्य धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक में जीवों की चित्तसन्तति को अनादि एवं अनन्त सिद्ध किया है (१:४६-४७)। इससे सिद्ध होता है कि निरुपधिशेषनिर्वाण की अवस्था में भी चित्तसन्तति विद्यमान होती है। जब चित्तसन्तति का उच्छेद नहीं होता, तब कोई कारण नहीं कि बुद्धत्व प्राप्त न किया जा सके। दोनों प्रकार के विज्ञानवादियों में आलयविज्ञान का मानना या न मानना ही सबसे बड़ा अन्तर है। किन्तु आलयविज्ञान मानने वाले विज्ञानवादी एकयानवादी न होकर त्रियानवादी होते हैं, यह भी बड़ा अन्तर है। विज्ञानवाद की स्थापना या विज्ञप्तिमात्रता सिद्ध
करने में भी यद्यपि दोनों के युक्तियों में भेद है, तथापि यह शैलीगत भेद है, मान्यताओं ’ में नहीं।
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बौद्धदर्शन
कृतज्ञता-ज्ञापन
सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में अपने अध्ययन और अध्यापन के सम्पूर्ण काल में मेरे मन में यह विचार बराबर बना रहा कि बौद्ध दर्शन के सभी प्रस्थानों पर एक प्रामाणिक और गम्भीर ग्रन्थ लिखना चाहिए। इधर लोगों में बौद्ध विचारों को जानने की इच्छा बलवती हुई है। वे पढ़ने के लिए हिन्दी ग्रन्थ की मांग करते हैं।
इधर इस तरह के हिन्दी में कुछ ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं, लेकिन वे ज्यादातर इतिहास और समीक्षा प्रधान तो हैं, किन्तु उनमें दार्शनिक गम्भीर चिन्तन का अभाव दिखता है। इसका कारण अध्ययन की परम्परा का अभाव तथा अंग्रेजी के ग्रन्थों पर निर्भरता प्रतीत होता है।
ज्ञात है कि बौद्ध धर्म का मूल देश भारत है। यहीं से बौद्ध धर्म विश्व में फैला, किन्तु अनेक ऐतिहासिक कारणों से बौद्ध परम्परा -६ शताब्दियों से भारत में विलुप्त हो गई। १६वीं शताब्दी से मनीषियों के सत्प्रयास से कुछ कुछ ग्रन्थ उपलब्ध होने लगे, किन्तु परम्परा के अभाव में उनका प्रामाणिक अवबोध नहीं हो पा रहा है। तिब्बती विद्वानों के सम्पर्क से कई दुरूह स्थलों का खुलासा हुआ। मुझे इस ग्रन्थ की रचना में उनसे पर्याप्त सहायता मिली है।
उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ की ओर से ‘संस्कृत वाङ्मय का बृहद् इतिहास’ प्रकाशित करने की योजना है। इसके अन्तर्गत इस योजना के पूर्व प्रधान सम्पादक पूज्यपाद आचार्य स्व. बलदव उपाध्याय जी ने ‘बौद्धदर्शन, उसके सम्प्रदाय और ऐतिहासिक विवरण’ लिखने का कार्य सम्पन्न करने का भार मुझे सौंपा था। तदनुसार मैंने जब कार्य सम्पन्न करके उन्हें दिखाया तो उन्होंने कहा कि इसे संक्षिप्त करके लाइये। मैंने उनसे कहा कि मैं संक्षिप्त तो कर दूंगा, किन्तु आप अनुमति दें तो इस विस्तृत कार्य को अन्यत्र छपवा दूं। उन्होंने सहर्ष अनुमति प्रदान कर दी। किन्तु यह कार्य उनके निधन से बीच में कुछ दिन अवरुद्ध हो गया।
इधर संस्थान के निदेशक श्री पी.के. पाण्डेय जी और सहायक निदेशक श्री चन्द्रकान्त द्विवेदी ने वाराणसी में एक गोष्ठी की, जिसमें मुझे पुनः इस कार्य को शीघ्र सम्पन्न कर देने का निर्देश दिया। तदनुसार स्व. उपाध्याय जी के परामर्श के अनुसार मैंने पुनः पूर्व कार्य में संशोधन, परिवर्धन करके इसे सम्पन्न किया है। इसके गुण-दोषों का मूल्यांकन सुधी जन स्वयं करेंगे।
_ मैं इन दोनों महानुभावों के प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता हूँ।
रामशंकर त्रिपाठी
भूमिका
२७५
कुल्लूपमं वो भिक्खवे, धम्मं देसेस्सामि, नित्थरणत्थाय, नो गहणत्थाय । कुल्लूपमं वो भिक्खवे, भ्रम्मं देसितं आजानन्तेहिधम्मापि वो महातम्बा पगेव अधम्मा।
(मज्झिम निकाय, मूलपण्णासक, अलगद्दूपमसुत्त)
नाहमेकधर्ममपि अनभिज्ञाय अपरिज्ञाय दुःखस्यान्तक्रिया वदामि।
(भगवद्वचन, उद्धृत अभिधर्मकोश - भाष्य, पृ. ४६ (बौ.भा.)
शून्यमध्यात्मकं पश्य शून्यं पश्य बहिर्गतम्। न लभ्यते सोऽपि कश्चिद् यो भावयति शून्यताम्॥
(अभिधर्मकोश, नवम कोशस्थान) हिताशंसनमात्रेण बुद्धपूजा विशिष्यते। किं पुनः सर्वसत्त्वानां सर्वसौख्यमुधमात् (बोधिचर्यावतार, १:२७) आकाशस्य स्थितिर्यावद् यावच्च जगतः स्थितिः। जाता तावन्मम स्थिति याद् जगदुःखानि निघ्नतः॥
(बोधिचर्यावतार, १० : ५५)