नाम
नाम क्या होता है -
अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम् - धातुओं तथा प्रत्ययों को छोड़कर जितने भी अर्थवान् शब्द भाषा में होते हैं, उनकी प्रातिपदिक संज्ञा होती है। वे प्रातिपदिक ही नाम कहलाते हैं । जैसे - राम, कृष्ण, वृक्ष, फल आदि शब्द, प्रातिपदिक अथवा नाम हैं। भू, पठ्, गम् आदि धातु प्रातिपदिक नहीं हैं, अतः ये नाम भी नहीं हैं।
कृत्तद्धितसमासाश्च - कृदन्त और तद्धितान्त तथा समास जो अर्थवान्, उनकी भी प्रातिपदिक संज्ञा होती है। वे प्रातिपदिक भी नाम कहलाते हैं।
इसका अर्थ यह हुआ कि धातुओं तथा प्रत्ययों को छोड़कर, संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, संख्या, कृदन्त, तद्धित, समास आदि जितने भी शब्द भाषा में हैं, उन सभी को नाम कहा जाता है।
विभक्ति - हम जानते हैं कि विभक्तियाँ दो प्रकार की होती हैं सुप् विभक्ति तथा तिङ् विभक्ति। धातुओं से तिङ् विभक्तियाँ लगाई जाती हैं तथा नामों से सुप् विभक्तियाँ लगाई जाती हैं। जैसे -
- ‘भू’ धातु है, तो इससे तिङ् विभक्तियाँ लगेंगी - भवति, भवतः, भवन्ति आदि ।
- ‘पुत्र’ यह नाम है, तो इससे सुप् विभक्तियाँ लगेंगी - पुत्रः, पुत्रौ, पुत्राः आदि।
यदि किसी प्रकार, नाम को भी धातु बना दिया जाये, तो फिर उस ‘नाम’ को हम ‘नामधातु’ कहने लगते हैं, और तब उस नामधातु से सुप् विभक्तियाँ न लगाकर तिङ् विभक्तियाँ लगने लगती हैं।
ऐसा कैसे होता है, कि नाम ही धातु बन जाये ?
जब किसी भी नाम से क्यच्, क्यङ्, काम्यच्, क्यष, क्विप्, णिङ् अथवा णिच्.प्रत्यय लगता है तब वह नाम अर्थात् प्रातिपदिक नामधातु बन जाता है और धातु बन जाने के कारण अब इसमें सुप् विभक्तियाँ न लगकर तिङ् विभक्तियाँ लगने लगती हैं। जैसे -
- भिक्षुः कुट्याम् प्रासाद इवाचरति - भिक्षुः कुट्याम् प्रासादीयति - प्रासाद का अर्थ है महल। यह संज्ञा शब्द है।
जब इस ‘प्रासाद’ शब्द से क्यच् प्रत्यय लगता है, तब प्रासाद + क्यच् = प्रासादीय की, ‘सनाद्यन्ता धातवः’ सूत्र से धातु संज्ञा हो जाती है। अब यह प्रासाद + क्यच् = प्रासादीय, नाम नहीं है, नामधातु है। अब इसमें हम तिङ् विभक्ति लगाकर - प्रासादीयति, प्रासादीयतः, प्रसादीयन्ति आदि धातुरूप बना सकते हैं।
गुरुः छात्रं पुत्र इवाचरति = गुरुः छात्रं पुत्रीयति । पुत्र का अर्थ है बेटा। यह संज्ञा शब्द है। जब इस पुत्र शब्द से क्यच् प्रत्यय लगता है तब पुत्र + क्यच = पुत्रीय की ‘सनाद्यन्ता धातवः’ सूत्र से धातु संज्ञा हो जाती है।
अब यह ‘पुत्रीय’ नाम नहीं है, नामधातु है। अब इसमें हम तिङ् विभक्ति लगाकर - पुत्रीयति, पुत्रीयतः, पुत्रीयन्ति आदि धातुरूप बना सकते हैं।
__ गर्दभी अप्सराः इवाचरति = गर्दभी अप्सरायते। अप्सरस् का अर्थ है अप्सरा । यह संज्ञा शब्द है। जब इस अप्सरस् शब्द से क्यङ् प्रत्यय लगता है, तब अप्सर + क्यङ् = अप्सराय की सनाद्यन्ता धातवः सूत्र से धातु संज्ञा हो जाती है।
अब यह ‘अप्सराय’ नाम नहीं है, अब यह नामधातु है। अतः इसमें अब सारे लकारों के प्रत्यय तथा कृत् प्रत्यय भी लगाये जा सकते हैं। यथा - लट् लकार के प्रत्यय लगाकर अप्सरायते, अप्सरायेते, अप्सरायन्ते आदि।
काकश्येन इवाचरति = काकः श्येनायते। श्येन का अर्थ है बाज । यह संज्ञा शब्द है। जब इस श्येन शब्द से क्यङ् प्रत्यय लगता है, तब श्येन + क्यङ् = श्येनाय की ‘सनाद्यन्ता धातवः’ सूत्र से धातु संज्ञा हो जाती है।
अब यह ‘श्येनाय’ नाम नहीं है, नामधातु है। अब इसमें हम तिङ् विभक्ति लगाकर - श्येनायते, श्येनायेते, श्येनायन्ते आदि धातुरूप बना सकते हैं।
अश्व का अर्थ है घोड़ा। यह संज्ञा शब्द है। जब इस अश्व शब्द से क्विप् प्रत्यय लगता है, तब अश्व + क्विप् = ‘अश्व’ की सनाद्यन्ता धातवः सूत्र से धातु संज्ञा हो जाती है। अब यह ‘अश्व’ नाम नहीं है, नामधातु है। अब इसमें हम तिङ् विभक्ति लगाकर - अश्वति, अश्वतः, अश्वन्ति आदि रूप बना सकते हैं।
अब हम प्रातिपदिकों में क्यच्, क्यङ्, काम्यच्, क्यष्, क्विप्, णिङ् अथवा णिच् प्रत्यय लगाकर नामधातु बनायें। सबसे पहिले क्यच् प्रत्यय लगायें -
अष्टाध्यायी सहजबोध,
क्यच्
क्यच् प्रत्यय लगाकर नामधातु कैसे बनायें ?
विधानम्
क्यच् प्रत्यय लगाने वाले सूत्र -
सुप आत्मनः क्यच्
- जब कोई कर्ता अपने लिये कोई इच्छा करे, तो उस इच्छा का जो कर्म हो, उस कर्म के वाचक प्रातिपादिक से क्यच् प्रत्यय लगता है।
जैसे - देवदत्तः आत्मनः पुत्रम् इच्छति। देवदत्त अपने लिये पुत्र की इच्छा करता है। यहाँ देवदत्त अपने लिये इच्छा कर रहा है। उस इच्छा का कर्म है पुत्र। इससे क्यच् प्रत्यय लगेगा - देवदत्तः पुत्रीयति।
क्यच् प्रत्यय में हलन्त्यम्’ सूत्र से च की तथा लशक्वतद्धिते सत्र से क की इत् संज्ञा करके तस्य लोपः’ सूत्र से दोनों का लोप करके ‘य’ को बचा लीजिये।
उपमानादाचारे
- उपमानवाची सुबन्त कर्म से, आचार अर्थ में विकल्प से, क्यच् प्रत्यय होता है। तात्पर्य यह है कि आचरण क्रिया के कर्म को जिसके समान माना जाये उस उपमान वाचक प्रातिपदिक से क्यच् प्रत्यय होता है।
जैसे - गुरुः पुत्रम् इव आचरति शिष्यम् । गुरु शिष्य में पुत्र जैसा आचरण करता है। यहाँ आचरण का कर्म है शिष्य।
उस शिष्य को पुत्र जैसा मान रहे हैं अतः पुत्र उपमान है। उस उपमान वाचक प्रातिपदिक पुत्र से क्यच् प्रत्यय होता है। गुरुः शिष्यं पुत्रीयति।
अधिकरणाच्चेति वक्तव्यम्
(वार्तिक)
यदि उपमान अधिकरणवाची हो, तो उससे भी आचार अर्थ में क्यच् प्रत्यय होता है। भिक्षु कुटी में महल जैसा रहता है - भिक्षुः कुट्याम् प्रासादीयति। भिक्षु महल में कुटी जैसा रहता है - भिक्षुः प्रासादे कुटीयति । देवदत्त मञ्च पर पलङ्ग जैसा आचरण करता है - देवदत्तः मञ्चे पर्यड्कीयति।
नमोवरिवसश्चित्रङः क्यच्
- नमस् इस प्रातिपदिक से ‘पूजां करोति’ इस अर्थ में / वरिवस् इस प्रातिपदिक से ‘परिचर्यां करोति’ इस अर्थ में / चित्र इस प्रातिपदिक से ‘आश्चर्यं करोति’ इस अर्थ में, क्यच् प्रत्यय होता है।
यहाँ यह ध्यान देना चाहिये कि चित्र में चूँकि ङ् की इत् संज्ञा हुई है अतः इससे क्यच् प्रत्यय लगने के बाद भी जो नामधातु बनेगा उससे ‘अनुदात्तडित आत्मनेपदम्’ सूत्र से आत्मनेपदी प्रत्यय ही लगेंगे।
नमस् - देवान् नमस्यति ।
वरिवस् - गुरून् वरिवस्यति ।
चित्र चित्रीयते।
प्रक्रिया
सनाद्यन्ता धातवः
- सन्, क्यच् ,काम्यच्, क्यष्, क्यङ्, क्विप्, णिङ्, ईयङ्, णिच्, यक, आय, यङ् ये १२ प्रत्यय जिसके भी अन्त में लगते हैं, उनका नाम, धातु हो जाता है।
यस्मात् प्रत्ययविधिस् तदादि-प्रत्ययेऽङ्गम्
- जिससे भी प्रत्यय का विधान किया जाता है, उस प्रत्यय के पूर्व में जो जो कुछ भी होता है, वह पूरा का पूरा उस प्रत्यय का अङ्ग कहलाता है। जैसे -
हम ‘पुत्र’ शब्द से क्यच् प्रत्यय लगाते हैं, तो क्यच् प्रत्यय का अङ्ग ‘पुत्र’ है।
‘अप्सरस्’ शब्द से क्यङ् प्रत्यय लगाते हैं, तो क्यच् प्रत्यय का अङ्ग ‘अप्सरस्’ है।
‘लोहित’ शब्द से क्यष् प्रत्यय लगाते हैं, तो क्यष् प्रत्यय का अङ्ग लोहित’ है। इसी प्रकार सर्वत्र जानें।
अकारान्त, आकारान्त
अकारान्त, आकारान्त प्रातिपदिकों से क्यच् प्रत्यय लगाने की विधि
क्यचि च
- प्रातिपदिक के अन्तिम अ, आ को ‘ई’ होता है, क्यच् प्रत्यय परे होने पर। इस सूत्र से, अङ्ग के अन्तिम अ, आ को ‘ई’ बनाइये -
पुत्र + क्यच् / क् च् की इत् संज्ञा होकर - पुत्र + य / पुत्री + य = पुत्रीय । अब यह पुत्रीय सनाद्यन्ता धातवः
सूत्र से नामधातु बन गया है। इसमें धातुओं से लगने वाले सारे प्रत्यय लग सकते हैं।
शेषात् कर्तरि परस्मैपदम्
- क्यच् प्रत्यय से बने हुए धातुओं से सदा परस्मैपदी प्रत्यय ही लगते हैं। यह सब ध्यान में रखकर अब हम इस ‘पुत्रीय’ नामधातु के सार्वधातुक लकारों के रूप बनायें -
कर्तरि शप्
- कर्बर्थक सार्वधातुक प्रत्यय परे होने पर, उन सारे धातुओं से शप् विकरण लगता है, जिनसे कोई अन्य विकरण न कहा जाये।
एतदनुसार सारे नामधातुओं से केवल सार्वधातुक प्रत्यय परे होने पर, शप् विकरण लगाइये - पुत्रीय + ति / पुत्रीय + शप् + ति / श्, प् की इत् संज्ञा करके - पुत्रीय + अ + ति। ‘अतो गुणे’ से पररूप करके - पुत्रीय् + अ + ति – पुत्रीयति। चार सार्वधातुक लकारों में इसके रूप इस प्रकार बने -
लट् लकार परस्मैपद
प्र.पु. पुत्रीयति पुत्रीयतः पुत्रीयन्ति
पुत्रीयसि पुत्रीयथः पुत्रीयथ
पुत्रीयामि पुत्रीयावः पुत्रीयामः
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लोट् लकार परस्मैपद
पुत्रीयतु / पुत्रीयतात् पुत्रीयताम् पुत्रीयन्तु
म.पु पुत्रीय / पुत्रीयतात् पुत्रीयतम् पुत्रीयत
उ.पु. पुत्रीयाणि पुत्रीयाव पुत्रीयाम __
लङ् लकार परस्मैपद
अपुत्रीयत् अपुत्रीयताम् अपुत्रीयन्
अपुत्रीयः अपुत्रीयतम् अपुत्रीयत
अपुत्रीयम् अपुत्रीयाव अपुत्रीयाम
विधिलिङ् लकार परस्मैपद
प्र.पु. पुत्रीयेत् पुत्रीयेताम् पुत्रीयेयुः
म.पु. पुत्रीयेः पुत्रीयेतम् पुत्रीयेत
उ.पु. पुत्रीयेम् पुत्रीयेव पुत्रीयेम
घट + क्यच् - घटीय - घटीयति /
पट + क्यच् - पटीय - पटीयति /
खटवा + क्यच - खटवीय - खटवीयति /
माला + क्यच - मालीय - मालीयति /
आदि अकारान्त तथा आकारान्त प्रातिपदिकों के रूप इसी प्रकार बनाइये।
ध्यान रहे कि आर्धधातक लकारों के प्रत्यय परे होने पर, शप विकरण नहीं लगाया जाता।
यलोप
यदि प्रातिपदिक के अन्त में अपत्यार्थ तद्धित प्रत्यय ‘य’ हो तो क्यच् प्रत्यय परे होने पर, उस तद्धित के य प्रत्यय में से ‘य’ का लोप कर दीजिये, ‘अ’ को बचा लीजिये। सूत्र है -
क्यच्च्व्योश्च
- अपत्यार्थक तद्धित प्रत्यय के यकार का लोप होता है। क्यच् तथा च्वि प्रत्यय परे होने पर।
गार्ग्य + क्यच् - अपत्यार्थक तद्धित प्रत्यय के य का लोप होकर - गार्ग + य, क्यचि च सूत्र से अ को ई होकर गार्गी + य - गार्गीय = गार्गीयति ।
इसी प्रकार वात्स्य + क्यच् - य् होकर वात्स + य, क्यचि च सूत्र से अ को ई होकर वात्सी + य - वात्सीय - वात्सीयति बनाइये।
अशनादौ त्वरायाम्
अशनायाउदन्यधनाया बुभुक्षापिपासागर्धेषु
-
अशन (भोजन) उदक (जल) तथा धन ये तीन प्रातिपदिक ऐसे हैं, जिनसे भूख, प्यास तथा लोभ अर्थ होने पर इस प्रकार नामधातु बनते हैं -
‘अभी खाना चाहता है’, इस अर्थ में - अशना + क्यच् - अशनायति
‘अभी पीना चाहता है’, इस अर्थ में - उदक + क्यच् / उदक को उदन्य आदेश होकर - उदन्य + य = उदन्यति।
‘धन होते हुए भी पुनः धन का लोभ करता है’, इस अर्थ में - धन + क्यच् - धनायति।
यदि ये अर्थ न होकर, सामान्य इच्छा हो, तो पूर्ववत् ‘पुत्रीयति’ के समान ही रूप बनेंगे -
‘भोजन चाहता है’, इस अर्थ में - अशना + क्यच् - अशनीयति। पानी की इच्छा करता है, इस अर्थ में - उदक + क्यच् - उदकीयति । धन की इच्छा करता है, इस अर्थ में - धन + क्यच् - धनीयति।
क्यच् प्रत्यय को सुक्, असुक् का आगम
अश्ववृषयोमैथुनेच्छायाम्
- अश्व और वृष ये दो अकारान्त प्रातिपदिक ऐसे हैं, जिनसे मैथुनेच्छा अर्थ होने पर प्रातिपदिक और प्रत्यय के बीच में असुक् का आगम होता है। असुक् में उ, क्, की इत्संज्ञा होकर अस् शेष बचता है।
अश्व + क्यच / अश्व + असुक् + य / अतो गुण से अ को पररूप होकर - अश्व् + अस् + य - अश्वस्य = अश्वस्यति बडवा।
वृष + क्यच् / वृष + असुक् + य / अतो गुण से अ को पररूप होकर - वृष् + अस् + य - वृषस्य = वृषस्यति गौः।
यह अकारान्त, आकारान्त अङ्गों में क्यच् प्रत्यय लगाने की विधि पूर्ण हुई।
लालसायां सुगसुकौ
सर्वप्रतिपदिकानां क्यचि लालसायां सुगसुकौ -
देखिये, इच्छा करना और लालसा करना ये अलग अलग क्रियाएँ हैं। लालसा में लालच भी है, खाने की उत्कट अभिलाषा भी है, तो ऐसी लालसा यदि हो, तब आप केवल अश्व और वृष प्रातिपदिकों से नहीं, अपितु सारे प्रातिपदिकों से क्यच् प्रत्यय परे होने पर प्रातिपदिक और प्रत्यय के बीच में सुक् या असुक् का आगम करें। सुक् में स् तथा असुक् में अस् शेष रहेगा। जब सुक् या असुक् का आगम करें तब अकारान्त अङ्ग के ‘अ’ को ‘ई’ न बनायें।
बालक दूध की लालसा करता है - बालः क्षीरस्यति। प्रक्रिया इस प्रकार है - क्षीर + क्यच् / क्षीर + य / क्षीर + सुक् + य / क्षीर + स् + य - क्षीरस्य = क्षीरस्यति आदि।
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बालक दधि की लालसा करता है - दधि + सुक् + क्यच् / दधि + स् + य - दधिस्य /
आदेशप्रत्यययोः
- इण् अथवा कवर्ग के बाद आने वाले आदेश तथा प्रत्यय के सकार को मूर्धन्यादेश होता है। अतः दधिस्य - दधिष्य = दधिष्यति ।
दधि + असुक् + क्यच् / दधि + अस् + य / इको यणचि से यण् सन्धि होकर दध्यस्य = दध्यस्यति ।
इसी प्रकार - लवण + सुक् + क्यच् - लवण + स् + य - लवणस्य = लवणस्यति। वाक्य है - उष्ट्रः लवणस्यति ।
मधु को सुक् का आगम होने पर देवदत्तः मधुस्यति / असुक होने पर देवदत्तः मध्वस्यति बनेगा।
इकारान्त, ईकारान्त, उकारान्त, ऊकारान्त
इकारान्त, ईकारान्त, उकारान्त, ऊकारान्त प्रातिपदिकों से क्यच
प्रत्यय लगाने की विधि अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः - अजन्त अङ्ग को दीर्घ होता है कृद्भिन्न तथा सार्वधातुकभिन्न यकार परे होने पर।
क्यच् प्रत्यय परे होने पर, इस सूत्र से प्रातिपदिक के अन्त में आने वाले इ, ई, उ, ऊ को दीर्घ ‘ई’ ‘ऊ’ बनाइये।
मूर्ख में कवि जैसा आचरण करता है। कविम् इव आचरति मूर्खम् - कवीयति। प्रक्रिया इस प्रकार है -
कवि + क्यच् - कवि + य / अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः सूत्र से अजन्त अङ्ग को दीर्घ करके - कवी + य - कवीय - कवीयति।
पोखरे में नदी जैसा आचरण करता है। नदीम् इव आचरति पल्वलम् - नदीयति। प्रक्रिया इस प्रकार है -
नदी + क्यच् - नदी + य / अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः सूत्र से अजन्त अङ्ग को दीर्घ करके - नदीय - नदीयति ।
मूर्ख में गुरु जैसा आचरण करता है। गुरुम् इव आचरति मूर्खम् - गुरूयति। प्रक्रिया इस प्रकार है -
गुरु + क्यच् / गुरु + य / अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः सूत्र से अजन्त अङ्ग को दीर्घ करके - गुरूय - गुरूयति ।
ब्राह्मण में विष्णु जैसा आचरण करता है। विष्णुम् इव आचरति द्विजम् - विष्णूयति । प्रक्रिया इस प्रकार है -
विष्णु + क्यच् / विष्णु + य / अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः
सूत्र से अजन्त अङ्ग को दीर्घ करके - विष्णू + य - विष्णूय - विष्णूयति ।
ऋकारान्त
ऋकारान्त प्रातिपदिकों से क्यच् प्रत्यय लगाने की विधि
रीङ् ऋतः
- ऋकारान्त अङ्ग को रीङ् आदेश होता है, कृभिन्न तथा सार्वधातुकभिन्न यकार परे होने पर और च्वि प्रत्यय परे होने पर।
क्यच् प्रत्यय परे होने पर, इस सूत्र से प्रातिपदिक के अन्त में आने वाले ह्रस्व ‘ऋ’ को रीङ् (री) बनाइये।
जो कर्ता नहीं है, उसके साथ कर्ता जैसा आचरण करता है -
कर्तृ + क्यच् / कर्तृ + य / ऋ को रीङ् (री) आदेश करके - कर्त +री + य - कीं + य - कीय = कर्त्रीयति +++(??परीक्षणीयम्)+++।
जो माता नहीं है, उसके साथ माता जैसा आचरण करता है -
मातृ + क्यच् / मातृ + य / ऋ को रीङ् (री) आदेश करके - मात् +री + य - मात्री + य - मात्रीय = मात्रीयति।
जो भ्राता नहीं है, उसके साथ भ्राता जैसा आचरण करता है - __ भ्रातृ + क्यच् / भ्रातृ + य / ऋ को रीङ् (री) आदेश करके - भ्रात् +री+ य - भ्रात्री + य - भ्रात्रीय = भ्रात्रीयति।
ओकारान्त, औकारान्त
ओकारान्त, औकारान्त प्रातिपदिकों से क्यच् प्रत्यय लगाने की विधि
वान्तो यि प्रत्यये
- ओ, औ को क्रमशः अव् और आव् आदेश होते हैं यकारादि प्रत्यय परे होने पर।
क्यच् प्रत्यय परे होने पर, इस सूत्र से प्रातिपदिक के अन्त में आने वाले ओ, औ को क्रमशः अव् और आव् बनाइये।
जो गाय नहीं है, उसके साथ गाय जैसा आचरण करता है। गो + क्यच – गव् + य - गव्य = गव्यति।
जो नाव नहीं है, उसके साथ नाव जैसा आचरण करता है। नौ + क्यच - नाव् + य - नाव्य = नाव्यति।
यह अजन्त प्रातिपदिकों में क्यच् प्रत्यय लगाकर नामधातु बनाने का विचार पूर्ण हुआ।
हलन्त
हलन्त प्रातिपदिकों से क्यच् प्रत्यय लगाने की विधि
नकारान्त प्रातिपदिक
नः क्ये
- जो नकारान्त प्रातिपदिक होते हैं, उनकी क्यङ्, क्यच्, क्यष् प्रत्यय परे होने पर पद संज्ञा होती है।
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नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य
- पदसंज्ञक जो प्रातिपदिक, उसके अन्तिम नकार का लोप हो जाता है।
राजन् + क्यच् - नलोप होकर - राज + य / क्यचि च से ‘अ’ को ‘ई’ होकर राजी + य - राजीय = राजीयति।
करिन् + क्यच् / नलोप होकर - करि + य / अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः से दीर्घ होकर - करी + य - करीय = करीयति।
शेष
शेष हलन्त प्रातिपदिक - इनसे क्यच् प्रत्यय परे होने पर, कुछ मत कीजिये। धनुष् + क्यच् / धनुष् + य - धनुष्य = धनुष्यति। इसी प्रकार हविष् + क्यच् - हविष्यति / वाच् + क्यच् - वाच्यति / समिध् + क्यच् - समिध्यति आदि।
तिङन्त
हमने क्यच् प्रत्यय लगाकर बने हुए धातुओं के लट् लकार के केवल ‘ति’ प्रत्यय के रूप बनाकर दिये हैं। इसी प्रकार लोट, लङ्, विधिलिङ्, इन सार्वधातुक लकारों के रूप बनाइये। परन्तु ध्यान रहे कि सार्वधातुक लकारों के प्रत्यय परे होने पर ही धातुओं से कर्तरि शप्’ से शप् विकरण लगाया जाता है, आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर नहीं।
जिस भी आर्धधातुक लकार में इसके रूप बनाना हो, उस लकार के रूप बनाने की विधि इसी ग्रन्थ के प्रथम खण्ड में उस लकार के पाठ में देखें।
निषेधः
क्यच् प्रत्यय कहाँ नहीं होता ?
मान्तप्रकतिकसबन्तादव्ययाच्च क्यच न
- मकारान्त प्रातिपदिकों से बने हुए जो सुबन्त, उनसे तथा अव्यय प्रातिपदिकों से बने हुए सुबन्तों से क्यच् प्रत्यय नहीं होता। इसका अर्थ यह हुआ कि आगे कहे जाने वाले काम्यच् क्यङ् आदि प्रत्यय हो सकते हैं।
किम् इच्छति
- किम् मकारान्त प्रातिपदिक है। अतः इससे क्यच नहीं होता। इदम् इच्छति, यह इदम् मकारान्त प्रातिपदिक है। अतः इससे भी क्यच नहीं होता। स्वरिच्छति में स्वर्’ अव्यय प्रातिपदिक है। अतः इससे भी क्यच् नहीं होता।
काम्यच्
काम्यच् प्रत्यय लगाकर नामधातु कैसे बनायें ?
काम्यच्च - इच्छा करने वाले के, आत्मसम्बन्धी इच्छा के सुबन्त कर्म से, इच्छा अर्थ में, विकल्प से काम्यच् प्रत्यय होता है। तात्पर्य यह है कि कोई कर्ता जब अपने लिये कोई इच्छा करे, तो उस इच्छा का जो कर्म हो, उस कर्म के वाचक प्रातिपादिक से काम्यच् प्रत्यय भी लगता है। जैसे -
देवदत्तः आत्मनः पुत्रम् इच्छति । देवदत्त अपने लिये पुत्र की इच्छा करता है। यहाँ देवदत्त अपने लिये इच्छा कर रहा है। उस इच्छा का कर्म है पुत्र । इससे
काम्यच् प्रत्यय लगेगा। पुत्र + काम्यच् - पुत्रकाम्य।
सनाद्यन्ता धातवः सूत्र से धातुसंज्ञा होकर -
कर्तरि शप् - पुत्रकाम्य + ति, इसमें कर्तरि शप् से शप् लगाइये । पुत्रकाम्य + शप् + ति। अनुबन्ध कार्य करके पुत्रकाम्य + अ + ति। अतो गुणे से पररूप करके पुत्रकाम्यं + अ + ति - पुत्रकाम्यति । देवदत्तः पुत्रकाम्यति।
काम्यच् प्रत्यय मान्त तथा अव्यय प्रातिपदिकों से भी होता है। किम् इच्छति - किंकाम्यति
इदम् इच्छति - इदंकाम्यति । स्वः इच्छति - स्वःकाम्यति। यशः इच्छति - यशःकाम्यति। सर्पिः इच्छति - सर्पिःकाम्यति ।
क्यङ्
क्यङ् प्रत्यय लगाकर नामधातु कैसे बनायें ?
विधानम्
कर्तुः क्यङ् सलोपश्च
-
हमने क्यच् प्रत्यय में देखा है कि जब भी कोई, कर्म का उपमान बनता है, तब उस उपमान कर्मवाचक प्रातिपदिक से क्यच् प्रत्यय लगता है।
यह सूत्र कह रहा है कि जब कोई कर्ता का उपमान बनता है तब उस उपमानकर्ता के वाचक प्रातिपदिक से क्यच् प्रत्यय न लगकर क्यङ् प्रत्यय लगाता है।
साथ ही यदि यह क्यङ् प्रत्यय किसी सकारान्त प्रातिपदिक से लगा है, तो उस प्रातिपदिक के अन्तिम सकार का इसी सूत्र से लोप भी हो जाता है।
अनुदात्तङित आत्मनेपदम
- क्यङ प्रत्यय चॅकि ङित है अतः इसे लगाकर बने हुए जो नामधातु होते हैं, उनसे केवल आत्मनेपदी प्रत्यय ही लगाये जाते हैं।
प्रक्रिया
पुंवद्भावः
स्त्रीलिङ्ग प्रातिपदिकों में क्यङ् प्रत्यय लगाने की विधि -
क्यङ्मानिनोश्च
- क्यङ् प्रत्यय परे होने पर यदि क्यङ् का पूर्ववर्ती अङ्ग स्त्रीलिङ्ग है, तो उसे पुल्लिङ्ग हो जाता है, बशर्ते कि उस शब्द में पुल्लिङ्ग बन सकने का सामर्थ्य हो।
सामर्थ्य का तात्पर्य यह है कि हंसी शब्द का पुल्लिङ्ग हंस बन सकता है, मयूरी का मयूर बन सकता है, तो इन्हें पुल्लिङ्ग बना दिया जायेगा, परन्तु जिन शब्दों का पुल्लिङ्ग होता ही नहीं है जैसे स्त्री शब्द, लक्ष्मी शब्द, तो इन्हें [[५६४]] हम पुल्लिङ्ग बनाने की चेष्टा न करें।
ऐसे शब्द जिनके दोनों लिङ्ग बन सकते हैं, उन्हें भाषितपुंस्क शब्द कहा जाता है। उन्हें ही आप क्यङ् लगने पर पुल्लिङ्ग बनायें। जैसे -
हंसी इव आचरति। हंसी + क्यङ् / पुंवद्भाव करके - हंस + क्यङ् / हंस + य / अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्धः से दीर्घ करके - हंसाय / हंसाय + शप् + ते / अतो गुणे से पररूप करके - हंसाय + ते = हंसायते।
सपत्नी इवाचरति - सपत्न + क्यच् / सपत्नी का पुंवद्भाव करके सपत्न बनाया। सपत्न + य / अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्धः से दीर्घ करके - सपत्नायते ।
सपत्नी का पुंवद्भाव करके सपति बनाया। सपति + क्यच् / सपति + य / अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्धः से दीर्घ करके - सपतीयते।
कुमारी इव आचरति । यहाँ कुमारी को पुंवद्भाव किया तो बना - कुमार + य । अब अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्धः से दीर्घ करके - कुमाराय - कुमारायते बनाइये।
हरिणी इव आचरति । यहाँ हरिणी को पुंवद्भाव किया तो बना - हरित + य। अब अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्धः से दीर्घ करके - हरिताय - हरितायते।
हरिणी इव आचरति । यहाँ हरिणी को पुंवद्भाव किया तो बना - हरिण + य। अब अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्धः से दीर्घ करके - हरिणाय -हरिणायते।
गुर्वी इव आचरति - यहाँ गुर्वी को पुंवद्भाव किया तो बना - गुरु + य। अब अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्धः से दीर्घ करके - गुरूय - गुरूयते।
युवती इव आचरति युवायते। यहाँ युवती को पुंवद्भाव किया तो बना - युवन् + य। नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य से न् का लोप करके - युव + य। अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्धः से दीर्घ करके - युवाय - युवायते।।
पट्वीमृद्व्यौ इव आचरति पट्वीमृदूयते। यहाँ पट्वीमृद्वी को पुंवद्भाव किया तो बना - पट्वीमृदु + य। अब अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्धः से दीर्घ करके - पट्वीमृदूय - पट्वीमृदूयते।
इसके अपवाद
न कोपधायाः
- यहाँ यह ध्यान रखें कि जिन शब्दों की उपधा में अर्थात् अन्तिम वर्ण के ठीक पूर्व में ‘क’ आया है ऐसे कोपध शब्दों को पुंवद्भाव नहीं होता। पाचिका इवाचरति पाचिकायते । यहाँ पाचिका को पाचक नहीं बनायेंगे।
- सदा ध्यान रहे कि धातु बन जाने के बाद, यदि उस धातु से परे कोई सार्वधातुक लकार का प्रत्यय आ रहा हो, तो धातु से ‘कर्तरि शप्’ सूत्र से ‘शप्’ विकरण अवश्य लगायें और इस शप् = अ के पूर्व यदि ‘अ’ हो, तो पूर्व वाले ‘अ’ को अतो गुणे सूत्र से पररूप कर दें।
अ इ उ
अब हम प्रातिपदिकों से क्यङ् प्रत्यय’ लगायें -
अकारान्त, इकारान्त, उकारान्त, प्रातिपदिकों से क्यङ् प्रत्यय लगाने की विधि क्यङ् प्रत्यय परे होने पर -
क्यच् के ही समान क्यङ् प्रत्यय परे होने पर भी प्रातिपदिकों के अन्त में आने वाले अ, इ, उ को अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः सूत्र से दीर्घ कर दें -
श्येन इव आचरति काकः श्येनायते - श्येन + क्यङ् / श्येन + य / अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः सूत्र से अ को दीर्घ करके श्येनाय = श्येनायते।
कृष्ण इव आचरति गोपालः कृष्णायते - कृष्ण + क्यङ् / कृष्ण + य / अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः सूत्र से अ को दीर्घ करके कृष्णाय = कृष्णायते।
पुष्करम् इव आचरति कुमुदम् पुष्करायते - पुष्कर + क्यङ् / पुष्कर + य / अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः सूत्र से अ को दीर्घ करके पुष्कराय = पुष्करायते।
अवगल्भ इव आचरति देवदत्तः अवगल्भायते - अवगल्भ + क्यङ् / अवगल्भ + य / अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः सूत्र से अ को दीर्घ करके अवगल्भाय = अवगल्भायते।
होड इव आचरति देवदत्तः होडायते - होड + क्यङ् / होड + य / अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः सूत्र से अ को दीर्घ करके होडाय = होडायते।
क्लीब इव आचरति देवदत्तः क्लीबायते + क्यङ् / क्लीब + य / अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः सूत्र से अ को दीर्घ करके क्लीबाय = क्लीबायते।
अश्व इवाचरति गर्दभः अश्वायते - अश्व + क्यङ् / अश्व + य / अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः सूत्र से अ को दीर्घ करके अश्वाय = अश्वायते।
हरिः इव आचरति पौण्ड्रकः - हरि + क्यङ् / हरि + य / अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः सूत्र से अ को दीर्घ करके हरीय = हरीयते।
गुरुः इव आचरति शिष्यः - गुरु + क्यङ् / गुरु + य / अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः सूत्र से अ को दीर्घ करके गुरूय = गुरूयते।
ऋकारान्त
ऋकारान्त प्रातिपदिकों से क्यङ् प्रत्यय लगाने की विधि
क्यच् के ही समान क्यङ् प्रत्यय परे होने पर भी प्रातिपदिकों के अन्त में आने वाले ऋ को रीङ् ऋतः’ सूत्र से रीङ् बना दें। [[५६६]]
स्वयं कर्ता न होकर भी कर्ता जैसा आचरण करता है। कर्तृ + क्यच् / कर्तृ + य / ऋ को रीङ् (री) आदेश करके - क + री + य - कीं + य - कम्य +++(??)+++ = कर्त्रीयते।
स्वयं माता न होकर भी माता जैसा आचरण करती है।
मातृ + क्यच् / मातृ + य / ऋ को रीङ् (री) आदेश करके - मात् + री + य - मात्री + य - मात्रीय = मात्रीयते।
स्वयं भ्राता न होकर भी भ्राता जैसा आचरण करता है। भ्रातृ + क्यच् / भ्रातृ + य / ऋ को रीङ् (री) आदेश करके - भ्रात् + री + य - भ्रात्री + य - भ्रात्रीय = भ्रात्रीयते।
नकारान्त
नकारान्त, प्रातिपदिकों से क्यङ् प्रत्यय लगाने की विधि
नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य सूत्र से न् का लोप कर दें। नलोप करने के बाद यदि प्रातिपदिक के अन्त में अ, इ, उ दिखें तो उन्हें अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः सूत्र से दीर्घ कर दें -
स्वयं राजा न होकर भी राजा जैसा आचरण करता है। राजन् + क्य / राज + य / राजाय = राजायते।
स्वयं हाथी न होकर भी हाथी जैसा आचरण करता है। करिन् + क्यङ् / करि + य / करीय = करीयते।
सकारान्त
सकारान्त, प्रातिपदिकों से क्यङ् प्रत्यय लगाने की विधि
ओजसोऽप्सरसो नित्यमितरेषां विभाषया
- क्यङ् प्रत्यय परे होने पर सकारान्त प्रातिपदिकों में से ओजस् तथा अप्सरस् के स् का तो नित्य लोप होता है किन्तु शेष सकारान्त प्रातिपदिकों के सकार का विकल्प से लोप होता है।
स्वयं अप्सरा न होकर भी अप्सरा जैसा आचरण करती है। अप्सरस् + क्यङ / सलोप करके - अप्सर + य / दीर्घ होकर अप्सराय / अप्सरायते।
इसी प्रकार - ओजस् + क्यङ् / सलोप करके - ओज + य / अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः सूत्र से अ को दीर्घ करके ओजाय = ओजायते।
शेष सकारान्त प्रातिपदिकों के सकार का क्यङ् प्रत्यय परे होने पर विकल्प से लोप होता है। यथा -
सलोप होने पर - पयस् + क्यङ् / पय + य / पयाय / पयायते। सलोप न होने पर - पयस् + क्यङ् / पयस्य = पयस्यते । इसी प्रकार यशस् + क्यङ् - यशायते / यशस्यते।
विद्वस् + क्यङ् - विद्वायते / विद्वस्यते, आदि बनाइये।
युष्मद् अस्मद्
युष्मद् अस्मद् प्रातिपदिकों से क्यङ् प्रत्यय लगाने की विधि
प्रत्ययोत्तरपदयोश्च - एकवचन में युष्मद् को त्वद्, अस्मद् को मद् आदेश होते हैं। त्वं इव आचरति त्वद्यते / अहम् इव आचरति मद्यते।
किन्तु बहुवचन में युस्मद्, अस्मद् ही रहेंगे - यूयम् इव आचरति - युष्मद्यते / वयम् इव आचरति अस्मद्यते।
अर्थान्तरे विधिः
अभी तक जो ‘क्यङ्’ प्रत्यय बतलाया, उसका अर्थ ‘आचरति’ है। अब जो ‘क्यङ्’ प्रत्यय बतला रहे हैं, उसके अन्य अन्य अर्थ हैं -
भृशादिभ्यो भुव्यच्वेर्लोपश्च हलः
- ‘जो जैसा नहीं है, वह वैसा हो जाता है’ इस अर्थ में वस्तुतः च्चि प्रत्यय का विधान होता है, किन्तु यहँ च्चि प्रत्यय के बिना ही भृश आदि २० प्रातिपदिकों से ‘भवति’ अर्थ में क्यङ् प्रत्यय होता है। साथ ही यदि प्रातिपदिक के अन्त में हल हो, तो उसका लोप भी होता है।
अभी हमने जो क्यङ् प्रत्यय लगाया है उसका अर्थ ‘आचरति’ है। इस सूत्र से जो क्यङ् प्रत्यय होता है उसका अर्थ ‘आचरति’ न होकर भवति’ होता है। यथा - अभृशो भृशो भवति भृशायते । भृशायते का अर्थ है, जो भृश नहीं है, वह भृश हो जाता है।
ये २० भृशादि प्रातिपदिक इस प्रकार हैं - भृश, शीघ्र, मन्द, चपल, पण्डित, उत्सुक, अधर, शुधि, उन्मनस्, अभिमनस्, सुमनस्, दुर्मनस्, रहस्, रेहस्, शश्वत्, वेहत्, बृहत्, नृषत्, ओजस्, वर्चस् । इनसे क्यङ् प्रत्यय लगाकर, अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः सूत्र से ‘अ’ को दीर्घ करके इस प्रकार रूप बनेंगे -
- अभृशो भृशो भवति भृशायते ।
- शीघ्र अशीघ्रो शीघ्रो भवति शीघ्रायते।
- मन्द अमन्दो मन्दो भवति मन्दायते।
- पण्डित - अपण्डितः पण्डितो भवति पण्डितायते।
उत्सुक - अनुत्सुकः उत्सुको भवति उत्सुकायते। अधर - अनधरः अधरो भवति अधरायते आदि बनाइये। शुधि - अशुधिः शुधिः भवति शुधीयते
‘भृशादिभ्यो भुव्यच्वेर्लोपश्च हलः’ इस सूत्र में जो ‘लोपश्च हलः’ कहा है, उसी से उन्मनस् आदि के अन्तिम हल् का लोप होता है -
[[५६८]]
- अनुन्मनाः उन्मनाः भवति उन्मनायते - उन्मनस् + क्यङ् / उन्मनस् + य / स् का लोप करके - उन्मन + य /
अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः
सूत्र से अ को दीर्घ करके - उन्मनाय - उन्मनायते।
इसी प्रकार - अभिमनस् - अनभिमनाः अभिमनाः भवति अभिमनायते। सुमनस् - दुर्मनाः सुमनाः भवति सुमनायते। दुर्मनस् - सुमनाः दुर्मनाः भवति दुर्मनायते आदि बनाइये।
इसी प्रकार रहस् + क्यङ् - रहायते / रेहस् + क्यङ् - रेहायते / शश्वत् + क्यङ् - शश्वायते / वेहत् + क्यङ् - वेहायते / नृषत् + क्यङ् - नृषायते / ओजस् + क्यङ् - ओजायते / वर्चस् + क्यङ् - वर्चायते / बृहत् + क्यङ् - बृहायते / आदि बनाइये।
भश
निषेधाः
लोहितडाज्भ्यः क्यष्वचनं, भृशादिष्वितराणि
- आगे ‘लोहितादिडाज्भ्यः क्यष्’ सूत्र आ रहा है। इस लोहितादिगण में लोहित, श्याम, सुख, दुःख, गर्व, हर्ष, मूर्छा, निद्रा, कृपा, धूम, करुणा, नित्य, चर्मन्, शब्द हैं। इनसे क्यष् होना चाहिये।
किन्तु इस वार्तिक के अनुसार इनमें से लोहितादिगण में केवल लोहित तथा डाजन्त शब्द ही आते हैं। शेष सारे शब्द भृशादिगण के ही समझे जाते हैं।
अतः इन शेष शब्दों से भी क्यङ् प्रत्यय होकर आत्मनेपद ही होता है। ये इस प्रकार हैं
- अश्यामः श्यामो भवति श्याम + क्यङ् - श्यामायते
- असुखवान् सुखवान् भवति सुख + क्यङ् - सुखायते
- अदुःखवान् दुःखवान् भवति दुःख + क्यङ् - दुःखायते
- अगर्वः गर्ववान् भवति गर्व क्यङ् गर्वायते
- अहर्षो अहर्षवान् भवति हर्ष + हर्षायते
- अनिद्रो निद्रावान् भवति निद्रा + क्यङ् - निद्रायते
- अकरुणो करुणावान् भवति करुणा + क्यङ् - करुणायते
- अकृपः कृपावान् भवति कृपा + क्यङ् - कृपायते
इसी प्रकार मूर्छा - मूर्छायते / धूमा - धूमायते / नित्य - नित्यायते / चर्मन् - चर्मायते आदि बनाइये।
यह आकृतिगण है, अतः इसी आकृति के अन्य शब्द भी यदि मिलें, तो उन्हें भी लाहितादिगण का समझिये। यथा - नील - नीलायते / पीत - पीतायते / हरित - हरितायते / मद्र - मद्रायते / आदि भी बनाइये।।
उत्साह
कष्टाय क्रमणे
- चतुर्थ्यन्त कष्ट शब्द से उत्साह अर्थ में क्यङ् प्रत्यय होता है। कष्टाय क्रमते - कष्ट + क्यङ् = कष्टाय - कष्टायते। इसका अर्थ होगा - पापं कतुं उत्सहते।
पापचिकीर्षायाम्
सत्रकक्षकृच्छ्रगहनेभ्यः पापचिकीर्षायाम् इति वक्तव्यम् - (वार्तिक) -
सत्र, कक्ष, कृच्छ्र, गहन इन शब्दों से पाप करने की इच्छा अर्थ में क्यङ् प्रत्यय होता है। सत्रायते / कक्षायते / कृच्छ्रायते / गहनायते।
कर्मणो रोमन्थतपोभ्यां वर्तिचरोः
- जब वृत् धातु का कर्म रोमन्थ करना हो और चर् धातु का कर्म तपस् हो तब रोमन्थ शब्द से वर्तयति अर्थ में तथा तपस् शब्द से चरति अर्थ में क्यङ् प्रत्यय होता है।
यहाँ यह विशेष है कि तपस् से क्यङ् लगने पर भी परस्मैपद ही होता है - तापसः तपश्चरति - तपस्यति / रोमन्थ से क्यङ् लगने पर आत्मनेपद ही होता है - कीटो रोमन्थं वर्तयति - रोमन्थायते।
वाष्पोष्मभ्यामुद्वमने - वाष्प और ऊष्मन् इन कर्म वाचक प्रातिपदिकों से उद्वमन अर्थ में क्यङ् प्रत्यय होता है।
वाष्पम् उद्वमति - वाष्पायते / ऊष्माणं उद्वमति - ऊष्मायते।
फेनाच्चेति वक्तव्यम् - फेन से भी उद्वमन अर्थ में क्यङ् होता है - फेनम् उद्वमति - फेनायते।
शब्दवैरकलहाभ्रकण्वमेघेभ्यः करणे - इन प्रातिपदिकों से करोति’ अर्थ में क्यङ् प्रत्यय होता है।
शब्दं करोति - शब्दायते / वैरं करोति - वैरायते / कलहं करोति - कलहायते। इसी प्रकार अभ्रायते, कण्वायते, मेघायते आदि बनाइये।
__सुदिनदुर्दिननीहारेभ्यश्च वक्तव्यम् - (वार्तिक) सुदिन, दुर्दिन, नीहार, इन प्रातिपदिकों से करोति’ अर्थ में क्यङ् प्रत्यय होता है - सुदिनं करोति सुदिनायते / दंर्दिनं करोति दुर्दिनायते / नीहारं करोति नीहारायते।
__ अटाट्टाशीकाकोटापोटासोटाकष्टासृष्टाधृष्टापृष्टाग्रहणं कर्तव्यम् (वार्तिक) - इन प्रातिपदिकों से भी करोति अर्थ में क्यङ् प्रत्यय होता है -
अटायते / अट्टायते / शीकायते / कोटायते / पोटायते / सोटायते / सृष्टायते / घृष्टायते / पृष्टायते।।
__ सुखादिभ्यः कर्तृवेदनायाम् - सुख । दुःख । तृप्त । गहन । कृच्छ्र । अस्त्र। अलीक। प्रतीप। करुण। कृषण। सोढ। ये प्रातिपदिक सुखादि गण में हैं। इनसे ‘अनुभव करना’ इस अर्थ में क्यङ् प्रत्यय होता है। [[५७०]]
सुखं वेदयते (अनुभवति) सुखायते । इसी प्रकार - दुःखायते, तृप्तायते आदि बनाइये। यह समस्त प्रातिपदिकों में क्यङ् प्रत्यय लगाने की विधि पूर्ण हुई।
क्यष्
क्यष् प्रत्यय लगाकर नामधातु कैसे बनायें ?
क्यष् प्रत्यय लगाने वाले सूत्र -
लोहितादिडाज्भ्यः क्यष् - लोहित प्रातिपदिक से तथा डाजन्त प्रतिपदिकों से ‘भवति’ अर्थ में क्यष् प्रत्यय होता है।
क्यष् प्रत्यय में हलन्त्यम् सूत्र से की तथा लशक्वतद्धिते सूत्र से क् की इत् संज्ञा करके तस्य लोपः सूत्र से दोनों का लोप कर दीजिये और ‘य’ शेष बचा लीजिये।
वा क्यषः - क्यष् प्रत्यय लगाकर बने हुए नामधातुओं से आत्मनेपदी प्रत्यय अथवा परस्मैपदी प्रत्यय में से कोई से भी प्रत्यय लगाये जा सकते हैं।
किसी भी प्रातिपदिक से क्यष् प्रत्यय परे होने पर पुंवद्भाव को छोड़कर वे सारे कार्य होते हैं, जो कार्य क्यङ् प्रत्यय परे होने पर बतलाये गये हैं। लोहित + क्यष् - लोहितायति / लोहितायते। लोहिनी + क्यष् - लोहिनीयति / लोहिनीयते।
अव्यक्तानुकरणाद्यजवरार्धादनितौ डाच् - कृशो द्वितीयतृतीयशम्बबीजात्कृषौ -
ये दो सूत्र डाच् प्रत्यय का विधान करते हैं। ऐसी ध्वनियाँ जिनमें अकारादि वर्गों की स्पष्ट प्रतीति न हो जैसे - खटखट / सर्सर् / पट्पट, आदि, उनसे डाच् प्रत्यय होता है।
ऐसे ध्वन्यात्मक शब्दों से डाच् प्रत्यय लगाकर खटखटा, पटपटा, खरटखरटा आदि रूप बनते हैं तथा ऐसे डाजन्त प्रातिपदिकों से ‘भवति’ अर्थ में क्यष् प्रत्यय लगाकर वा क्यषः’ सूत्र से इसके रूप दोनों पद में बनते हैं - पटपटा + क्यष् - पटपटायति - पटपटायते खटखटा + क्यष् - खटखटायति - खटखटायते त्रपटत्रपटा + क्यष् - त्रपटत्रपटायति - त्रपटत्रपटायते खरटखरटा + क्यष् - खरटखरटायति - खरटखरटायते दमदमा + क्यष् - दमदमायति - दमदमायते मटमटा + क्यष् - मटमटायति - मटमटायते
यह क्यष् प्रत्यय लगाकर नामधात बनाने की विधि पूर्ण हुई।
क्विप्
क्विप् प्रत्यय लगाकर नामधातु कैसे बनायें ?
सर्वप्रातिपदिकेभ्यो क्विब्वा वक्तव्यः - समस्त प्रातिपदिकों से ‘आचरति’ अर्थ में क्विप् प्रत्यय होता है।
क्विप् प्रत्यय में हलन्त्यम् सूत्र से प् की लशक्वतद्धिते सूत्र से क् की तथा उपदेशेऽजनुनासिक इत् सूत्र से इ की इत् संज्ञा करके तस्य लोपः सूत्र से तीनों का लोप कर दीजिये और बचे हुए व् का वेरपृक्तस्य सूत्र से लोप कर दीजिये।
इस प्रकार क्विप् प्रत्यय में कुछ भी शेष नहीं बचता। जब प्रत्यय में कुछ भी शेष न बचे, तो कहना चाहिये कि प्रत्यय का सर्वापहारी लोप हो गया है।
शेषात्कर्तरि परस्मैपदम् - क्विप् प्रत्यय लगाकर बने हुए जो नामधातु होते हैं, उनसे केवल परस्मैपदी प्रत्यय ही लगाये जाते हैं।
अश्व + क्विप् - अश्वति / गर्दभ + क्विप् - गर्दभति आदि ।
आचारेऽवगल्भक्लीबहोडेभ्यः क्विब्वा वक्तव्यः - अवगल्भ, क्लीब, होड प्रातिपदिकों से ‘आचरति’ अर्थ में क्विप् तथा क्यङ् प्रत्यय विकल्प से होते हैं।
अवगल्भ, क्लीब, होड इन तीन प्रातिपदिकों से क्विप् प्रत्यय लगाकर बने हुए जो नामधातु बनते हैं उनसे केवल आत्मनेपदी प्रत्यय ही लगाये जाते हैं।
अवगल्भ से क्विप् लगने पर अवगल्भते, क्यङ् लगने पर अवगल्भायते । क्लीब से क्विप् लगने पर क्लीबते, क्यङ् लगने पर क्लीबायते। होड से क्विप् लगने पर होडते, क्यङ् लगने पर होडायते। अब हम प्रातिपदिकों में क्विप् प्रत्यय लगाकर नामधातु बनायें - अजन्त प्रातिपदिकों में क्विप् प्रत्यय लगाने की विधि - अकारान्त प्रातिपदिक -
गर्दभः इव आचरति गर्दभति / गर्दभ + क्विप् / क्विप् का सर्वापहारी लोप होकर - गर्दभ /
सनाद्यन्ता धातवः - सन्, क्यच् ,काम्यच्, क्यष्, क्यङ्, क्विप्, णिङ्, ईयङ्, णिच्, यक्, आय, यङ् ये १२ प्रत्यय जिसके भी अन्त में लगते हैं उनका नाम, धातु हो जाता है।
अतः गर्दभ + क्विप् से बना हुआ ‘गर्दभ’ शब्द अब नामधातु है।
इसलिये अब सार्वधातुक लकारों के रूप बनाने के लिये इसमें कर्तरि शप्’ सूत्र से शप् विकरण लगाइये -
ध्यान रहे कि केवल सार्वधातुक लकारों के प्रत्यय परे होने पर ही धातुओं [[५७२]] से शप् विकरण लगाया जाता है, आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर नहीं।
गर्दभ + शप् - अतो गुणे से अ को पररूप होकर - गर्दभ् + अ - गर्दभ / गर्दभ + ति = गर्दभति। इसी प्रकार - अश्व + क्विप् - अश्वति / गज + क्विप् = गजति आदि बनाइये। __ आकारान्त प्रातिपदिक -
माला इव आचरति मालाति। माला + क्विप् / क्विप् का सर्वापहारी लोप होकर - माला / माला + शप् - माला + अ / अकः सवर्णे दीर्घः से दीर्घ होकर - माला = मालाति। इसी प्रकार - शाला + क्विप् = शालाति / चटका + क्विप् = चटकाति / खट्वा + ति = खट्वाति आदि बनाइये।
इकारान्त प्रातिपदिक -
कविः इव आचरति कवयति। कवि + क्विप् / क्विप् का सर्वापहारी लोप होकर - कवि / कवि + शप् - कवि + अ / सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से ‘इ’ को गुण होकर - कवे + अ / एचोऽयवायावः सूत्र से ए को अयादेश होकर - कवय् + अ - कवय = कवयति। इसी प्रकार - वि + क्विप् - वय्
- अ - वय = वयति / हरि + क्विप् = हरयति आदि बनाइये।
- ईकारान्त प्रातिपदिक - __श्रीः इव आचरति श्रयति। श्री + क्विप् / क्विप् का सर्वापहारी लोप होकर - श्री / श्री + शप् - श्री + अ / सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से ‘ई’ को गुण होकर - श्रे + अ - एचोऽयवायावः सूत्र से ए को अयादेश होकर - श्रय् + अ - श्रय = श्रयति। इसी प्रकार - लक्ष्मी + क्विप् = लक्ष्मयति / ६ पी + क्विप् = धयति आदि बनाइये।
उकारान्त प्रातिपदिक -
भानुः इव आचरति भानवति। भानु + क्विप् - क्विप् का सर्वापहारी लोप होकर - भानु / भानु + शप् - सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से गुण होकर - भानो + अ / एचोऽयवायावः सूत्र से ओ को अवादेश होकर - भान + अ - भानव = भानवति। इसी प्रकार कृशानु + क्विप् = कृशानवति / गुरु + क्विप् = गुरवति आदि बनाइये।
ऊकारान्त प्रातिपदिक -
वधूः इव आचरति वधवति । वधू + क्विप् - क्विप् का सर्वापहारी लोप होकर - वधू / वधू + शप् - सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से गुण होकर - वधो
- अ - एचोऽयवायावः सूत्र से ओ को अवादेश होकर - वधव् + अ - वधव = वधवति । इसी प्रकार श्वश्रू + क्विप् = श्वश्रवति आदि बनाइये।
ऋकारान्त प्रातिपदिक -
माता इव आचरति मातरति । मातृ + क्विप् - क्विप् का सर्वापहारी लोप होकर - मातृ / मातृ + शप् - सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से गुण होकर - मातर् + अ - मातर = मातरति । इसी प्रकार पितृ + क्विप् = पितरति / कर्तृ + क्विप् = कर्तरति आदि बनाइये।
ऐकारान्त प्रातिपदिक -
राः इव आचरति रायति। रै + क्विप् - क्विप् का सर्वापहारी लोप होकर - रै / रै + शप् - एचोऽयवायावः सूत्र से ऐ को आयादेश होकर - राय् + अ __ - राय = रायति। ।
_ओकारान्त प्रातिपदिक -
__ गौः इव आचरति गवति । गो + क्विप् - क्विप् का सर्वापहारी लोप होकर - गो / गो + शप् - एचोऽयवायावः सूत्र से ओ को अवादेश होकर - गव् + अ - गव = गवति।
औकारान्त प्रातिपदिक -
नौः इव आचरति नावति । नौ + क्विप् - क्विप् का सर्वापहारी लोप होकर - नौ / नौ + शप् - एचोऽयवायावः सूत्र से औ को आवादेश होकर - नाव् + अ - नाव = नावति।
हलन्त प्रातिपदिकों में क्विप् प्रत्यय लगाने की विधि -
अनुनासिकान्त प्रातिपदिक - अनुनासिकस्य क्विझलोः क्डिति - प्रातिपदिकों के अन्त में अनुनासिक व्यञ्जन अर्थात् ञ्, म, ङ, ण, न् आने पर इन प्रातिपदिकों की उपधा को दीर्घ हो जाता है। इदम् + क्विप् - इदाम् + शप् - इदाम् + अ = इदामति राजन् + क्विप् - राजान् + शप् - राजान् + अ = राजानति मथिन् + क्विप् - मथीन् + शप् - मथीन् + अ = मथीनति ऋभुक्षिन् + क्विप् - ऋभुक्षीन् + शप् - ऋभुक्षीन् + अ = ऋभुक्षीणति करिन् + क्विप् - करीन् + शप् - करीन् + अ = करीणति पथिन् + क्विप् - पथीन् + शप् - पथीन् + अ = पथीनति
वकारान्त प्रातिपदिक - वकारान्त प्रातिपदिको में क्विप् प्रत्यय लगने पर
[[५७४]]
अष्टाध्यायी सहजबोध वकारान्त प्रातिपदिकों के अन्तिम व् को च्छ्वोः शूडनुनासिके च सूत्र से ऊठ हो जाता है।
__ दिव् + क्विप् - दि + ऊ - इको यणचि से यण् करके - यू / द्यू + शप् / सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से ऊ’ को गुण होकर - द्यो + अ - एचोऽयवायावः सूत्र से ‘ओ’ को अवादेश होकर - द्यव् + अ - द्यव = द्यवति ।
__शेष हलन्त प्रातिपदिक - शेष हलन्त प्रातिपदिकों से क्विप् प्रत्यय जोड़ने पर कुछ नहीं होता -
क्षुध् + क्विप् - क्षुध् - क्षुधति / तृष् + क्विप् - तृषति / सरित् + क्विप् = सरितति आदि। यह सारे प्रातिपदिको में क्विप् प्रत्यय जोड़कर नामधातु बनाने की विधि पूर्ण हुई।
णिच् णिङ्
णिच् तथा णिङ् प्रत्यय लगाकर नामधातु कैसे बनायें ?
प्रातिपदिकों से णिच्, णिङ् प्रत्यय लगाने वाले सूत्र तथा इनके उदाहरण हम अन्त में देंगे। उसके पहिले हम णिच, णिङ प्रत्यय लगाने के लिये बुद्धि में कुछ बातें स्थिर कर लें -
- णिच् प्रत्यय में हलन्त्यम् सूत्र से च की, तथा चुट सूत्र से ण की इत संज्ञा करके तस्य लोपः सूत्र से दोनों का लोप करके ‘इ’ शेष बचता है।
- णिङ् प्रत्यय में हलन्त्यम् सूत्र से ङ् की, तथा चुटू सूत्र से ण् की इत् संज्ञा करके तस्य लोपः सूत्र से दोनों का लोप करके ‘इ’ शेष बचता है।
- णिच्, णि इन दोनों में ही ‘णि’ है। अतः ध्यान दें कि जब किसी सूत्र में ‘णौ’ कहा जाता है, तब उससे णिच् तथा णिङ्, इन दोनों को समझना चाहिये।
णिच् प्रत्यय लगने पर पद का निर्णय णिचश्च - णिच् प्रत्यय से बने हुए नामधातुओं से उभयपदी प्रत्यय लगते हैं। कुमारयति / कुमारयते।
णिङ् प्रत्यय लगने पर पद का निर्णय अनुदात्तडित आत्मनेपदम् - णिङ् प्रत्यय चूँकि ङित् है, अतः इसे लगाकर बने हुए जो नामधातु होते हैं, उनसे केवल आत्मनेपदी प्रत्यय ही लगाये जाते हैं। उत्पुच्छयते / सम्भाण्डयते आदि । - जब प्रातिपदिकों से णिच् तथा णिङ् प्रत्यय लगाकर नामधातु बनाये जाते हैं, तब कहीं तो ‘टि’ का लोप होता है और कहीं नहीं। अतः आवश्यक है कि हम ‘टि’ को जानें।
टि किसे कहते हैं -
अचोऽन्त्यादि टि - किसी भी शब्द में जो अन्तिम अच् होता है, वह ‘टि’ कहलाता है। जैसे - अश्व में अ, हरि में इ, विधु, लघु, पटु में उ, मातृ, पितृ, भ्रातृ में ऋ ‘टि’ हैं।
__ यदि शब्द के अन्तिम अच् के बाद कोई हल हो, तो वह हल भी उस अच् के साथ मिलकर टि कहलाने लगता है। जैसे मनस् में अन्तिम अच् ‘अ’ है। इसके बाद स्’ यह हल् है। अतः इस स् के सहित ‘अ’ की अर्थात् ‘अस्’ की टि संज्ञा होती है।
इसी प्रकार विद्वस् में अस्, महत् में अत्, राजन् में अन्, करिन् में इन् ‘टि’ है। इस टि का लोप कहाँ करें, कहाँ न करें, यह आगे विस्तार से बतलायेंगे। ये णिच् तथा णिङ् प्रत्यय, प्रातिपदिकों से लगने के कारण
__ आर्धधातुक प्रत्यय नहीं हैं प्रातिपदिकों से णिच् तथा णिङ् प्रत्यय लगाकर भी नामधातु बनाये जाते हैं। किन्तु णिच् तथा णिङ् प्रत्यय लगाकर नामधातु बनाते समय, हमें बहुत सावधानी से यह समझ लेना चाहिये, कि जब ये णिच् तथा णिङ् प्रत्यय, धातुओं से लगते हैं, तब इनका नाम आर्धधातुक प्रत्यय होता है।
जब ये णिच् तथा णिङ् प्रत्यय, धातुओं से न लगकर, प्रातिपदिकों से लगते हैं, तब इनका नाम आर्धधातुक प्रत्यय नहीं होता है।
__ अतः प्रातिपदिकों से लगने वाले, इन णिच् तथा णिङ् प्रत्ययों का नाम, आर्धधातुक प्रत्यय नहीं है।
णौ प्रातिपदिकस्य इष्ठवत् कार्य भवतीति वक्तव्यम् -
जब ये णिच् तथा णिङ् प्रत्यय, प्रातिपदिक से लगते हैं, तब उस प्रातिपदिक को वे सारे कार्य किये जाते हैं, जो कार्य तद्धित के इष्ठन् प्रत्यय परे होने पर प्रातिपदिकों को किये जाते हैं।
अतः हमें जानना चाहिये कि वे कौन से कार्य हैं, जो तद्धित के इष्ठन् प्रत्यय परे होने पर प्रातिपदिक को किये जाते हैं।
यचि भम्
देखिये कि अष्टाध्यायी के चतुर्थ तथा पञ्चम अध्याय में जो भी प्रत्यय प्रातिपदिकों से कहे गये हैं, उन प्रत्ययों में से जो यकारादि प्रत्यय हैं, उनके परे होने पर, जो अजादि प्रत्यय हैं, उनके परे होने पर, तथा सु, औ, जस् अम्, औट, शस् को छोड़कर जो १६ स्वादि प्रत्यय हैं, उनके परे होने पर, पूर्व [[५७६]] की ‘भ’ संज्ञा होती है। अतः जब भी किसी प्रातिपदिक से णिच् - इ’ यह अजादि प्रत्यय लगेगा, तब उस प्रातिपदिक की यचि भम्’ सूत्र से ‘भ’ संज्ञा होगी, यह जानिये।
इन ‘भ’ संज्ञक प्रातिपदिकों को जो भी अङ्गकार्य किये जाना चाहिये, वे सारे कार्य पाणिनीय अष्टाध्यायी में ६. ४. १२९ से लेकर ६.४.१७५ के सूत्रों में एक साथ हैं। अतः किसी भी प्रातिपदिक में ‘णिच् - इ’ प्रत्यय लगाकर नामधातु बनाने वाले सूत्र इसी ‘भाधिकार’ में ही देखना चाहिये।
परन्तु प्रातिपदिकों से णिच् अथवा णिङ् प्रत्यय परे होने पर कभी कभी ऐसा होता है, कि अनेक सूत्रों से होने वाले कार्य एक साथ प्राप्त होने लगते हैं। अतः शङ्का होती है कि हम उनमें से कौन सा कार्य पहिले करें और कौन
सा कार्य बाद में करें ? . जैसे - प्रिय + णिच् में, प्रिय शब्द के ‘अ’ को ‘अचो णिति’ सूत्र से वृद्धि प्राप्त है, ‘टेः’ सूत्र से प्रिय शब्द की ‘टि’ का लोप प्राप्त है तथा प्रियस्थिरस्फिरोरु- बहुलगुरुवृद्धतप्रदीर्घवृन्दारकाणां प्रस्थस्फवहिगर्षित्रब्दाघिवृन्दाः’ इस सूत्र से प्रिय शब्द को ‘प्र’ आदेश भी प्राप्त है। इनमें से हम क्या करें ?
गुरु + णिच् में, गुरु शब्द के ‘उ’ को ‘अचो णिति’ सूत्र से वृद्धि प्राप्त है, ‘टेः’ सूत्र से गुरु शब्द की टि’ का लोप प्राप्त है तथा प्रियस्थिरस्फिरोरुबहुलगुरु वृद्धतृप्रदीर्घवृन्दारकाणां प्रस्थस्फवबहिगर्वर्षित्रब्दाधिवृन्दाः’ इस सूत्र से गुरु शब्द को ‘गर्’ आदेश भी प्राप्त है। इनमें से हम क्या करें ?
स्थूल + णिच् में, ‘अचो णिति’ सूत्र से वृद्धि प्राप्त है, स्थूल शब्द की ‘टि’ का ‘टेः’ सूत्र से लोप भी प्राप्त है, तथा स्थूलदूरयुवह्रस्वक्षिप्रक्षुद्राणां यणादिपरं पूर्वस्य च गुणः’ इस सूत्र से स्थूल शब्द को ‘स्थो’ ऐसा आदेश भी प्राप्त है, इनमें से हम क्या करें ?
__ रवि + णिच् को देखिये। यहाँ ‘अचो ञ्णिति’ सूत्र से ‘इ’ को वृद्धि भी प्राप्त है तथा ‘टेः’ सूत्र से ‘टि’ का लोप भी प्राप्त है। इनमें से हम क्या करें?
. पयस्विनी + णिच् में ‘अचो णिति’ सूत्र से ‘ई’ को वृद्धि भी प्राप्त है, ‘टेः’ सूत्र से ‘टि’ का लोप भी प्राप्त है तथा ‘भस्याढे तद्धिते पुंवद्भावः’ से पुंवद्भाव
भी प्राप्त है। इनमें से हम क्या करें ?
स्रग्विन् + णिच् में ‘टेः’ सूत्र से ‘टि’ का लोप भी प्राप्त है तथा ‘विन्मतोलुंक’ सूत्र से विन् प्रत्यय का लुक भी प्राप्त है। इनमें से हम क्या करें?
इसकी व्यवस्था इस प्रकार है - णिच् अथवा णिङ् प्रत्यय परे होने पर, कार्य
इस क्रम से होते हैं - १. यदि किसी शब्द को प्रकृत्यादेश प्राप्त हो, तो सबसे पहिले उसे प्रकृत्यादेश ही कीजिये -
_ णिच् प्रत्यय परे होने पर स्थूल, दूर, युव, ह्रस्व, आदि अनेक शब्दों की आकृति परिवर्तित हो जाती है। इस आकृति बदलने को ही प्रकृत्यादेश होना कहते हैं। प्रकृत्यादेश करने वाले ये सूत्र पृष्ठ ५८५ से ५८८ पर बतलाये जा रहे हैं।
यदि ऐसे शब्दों से णिच् प्रत्यय लगे, तो सबसे पहिले इन शब्दों की आकृति पृष्ठ ५८५ से ५८८ पर बतलाये जा रहे सूत्रों के अनुसार बदल दीजिये। जैसे - प्रिय + णिच् = प्र + णिच् / अन्तिक + णिच् = नेद् + णिच् / बाढ + णिच् = साध् + णिच् / वृद्ध + णिच् = ज्या + णिच् / युवन् + णिच् = कन्
- णिच् आदि।
२. यदि शब्द स्त्रीप्रत्ययान्त हो, तो उसे पुंवद्भाव कीजिये -
भस्याढे तद्धिते पुंवद्भावः - जिस स्त्रीलिङ्ग शब्द के अन्त में कोई स्त्रीप्रत्यय होता है, उसे भाषितपुंस्क स्त्रीलिङ्ग शब्द कहते है। ऐसे भाषितपुंस्क स्त्रीलिङ्ग प्रातिपदिक से परे ‘ढ’ से भिन्न तद्धित प्रत्यय आने पर, प्रातिपदिक को पुंवद्भाव होता है।
__ णिच् प्रत्यय ‘ढ’ से भिन्न तद्धित प्रत्यय है। अतः इसके परे होने पर, यदि प्रातिपदिक स्त्रीलिङ्ग है, तो उसे इस सूत्र से पुंवद्भाव कर दीजिये।
पुनः प्रश्न होता है कि णिच् प्रत्यय तद्धित प्रत्यय कैसे हो गया ?
हम पढ़ चुके हैं कि ‘प्रातिपदिकाद् धात्वर्थे बहुलमिष्ठवच्च’ इस गणसूत्र से प्रातिपदिकों से णिच् प्रत्यय लगने पर, प्रकृति को वे सारे कार्य होते हैं, जो कार्य तद्धित के इष्ठन् प्रत्यय परे होने पर प्रकृति को होते हैं।
अतः यदि प्रातिपदिक स्त्रीलिङ्ग है, तो सबसे पहिले उस प्रातिपदिक के स्त्रीप्रत्यय का लोप करके उसे पुल्लिङ्ग बना लीजिये। यथा -
पयस्विनीं करोति - पयस्विनी + णिच् / भस्याढे तद्धिते पुंवद्भावः से पुंवद्भाव करके अर्थात् स्त्री प्रत्यय का लोप करके - पयस्विन् + णिच् /
इसी प्रकार - कुमारीम् आचष्टे - कुमारी + णिच् - कुमार + णिच् / हंसी आचष्टे - हंसी + णिच् - हंस + णिच् / एनीम् आचष्टे - एनी + णिच् - एत + णिच् / आदि बनाइये।
[[५७८]]
३. विन् तथा मतुप प्रत्ययों का लुक् कीजिये -
विन्मतोलृक् - यदि किसी प्रातिपदिक के अन्त में विन् प्रत्यय हो, अथवा मतुप् प्रत्यय हो और ऐसे विन्नन्त या मतुबन्त प्रातिपदिकों से णिच् प्रत्यय लगे, तब उस णिच् प्रत्यय के परे होने पर, विन्नन्त प्रातिपदिक के विन् का तथा मतुबन्त प्रातिपदिक के मतुप् का लोप हो जाता है।
स्रग्विणं करोति (माला वाला बनाता है) स्रग्विन् + णिच् / विन्मतोलुक् से विन् का लोप करके - स्रज् + णिच् /
पयस्विनीं करोति - पयस्विनी + णिच् / भस्याढे तद्धिते पुंवद्भावः से पुंवद्भाव करके अर्थात् स्त्री प्रत्यय का लोप करके - पयस्विन् + णिच् / विन्मतोलुंक् से विन् का लुक् करके - पयस् + णिच् /
४. उसके बाद ‘टिलोप’ करने वाले इन सूत्रों में से यदि कोई सूत्र प्राप्त हो, तो उससे टिलोप कीजिये -
टेः - इष्ठन्, इमनिच्, तथा ईयसुन् इन तद्धित प्रत्ययों के परे होने पर ‘अनेकाच् अङ्ग’ की ‘टि’ का लोप होता है।
_ ‘प्रातिपदिकाद् धात्वर्थे बहुलमिष्ठवच्च’ इस गणसूत्र से प्रातिपदिकों से णिच् प्रत्यय लगने पर, प्रकृति को वे सारे कार्य होते हैं, जो कार्य तद्धित के इष्ठन् प्रत्यय परे होने पर प्रकृति को होते हैं। अतः इस णिच् प्रत्यय के परे होने पर अनेक अच् वाले प्रातिपदिक की टि का ‘टेः’ सूत्र से लोप कीजिये। यथा -
विद्वस् + णिच् - टिलोप होकर - विद् + णिच् / हरि + णिच् - टिलोप होकर - हर् + णिच् / विधु + णिच् - टिलोप होकर - विध् + णिच् / महत् + णिच् - टिलोप होकर - मह + णिच् / करिन् + णिच् - टिलोप होकर - कर् + णिच् / रवि + णिच् - टिलोप होकर - रव् + णिच् आदि।
अव्ययानां भमात्रे टिलोपः - यदि प्रातिपदिक अव्यय है, तब णिच् प्रत्यय परे होने पर, ‘अनेकाच् न होते हुए भी उसकी ‘टि’ का लोप हो जाता है। स्वर् + णिच् - टिलोप होकर - स्व् + णिच् ।
नस्तद्धिते - यदि प्रातिपदिक नान्त हो, तो ‘अनेकाच् न होते हुए भी’ उसकी ‘टि’ का लोप हो जाता है। श्वन् + णिच् - श्व् + णिच् ।
टिलोप कहाँ नहीं करें - क. प्रकृत्यैकाच् - यदि प्रातिपदिक एकाच् हो तो णिच् प्रत्यय परे होने पर उस एकाच अङ्ग
समस्त धातुओं के नामधातु बनाने की विधि
की टि का लोप नहीं होता। यथा - स्व + णिच् - स्व + णिच् / गो + णिच् - गो + णिच् । यहाँ प्रातिपदिक एकाच हैं, अतः इनकी ‘टि’ का लोप नहीं होगा।
ख. यदि किसी सूत्र से अनेकाच् प्रातिपदिक को एकाच बना दिया जाता है, तब एकाच् हो जाने के कारण, उसकी टि का भी लोप नहीं होता है।
जैसे - स्थूल शब्द अनेकाच् है किन्तु स्थूल शब्द से णिच् लगने पर ‘स्थूलदूरयुवह्रस्वक्षिप्रक्षुद्राणां यणादिपरं पूर्वस्य च गुणः’ सूत्र से स्थूल शब्द को स्थो’ हो जाता है। अब यह ‘स्थो’ एकाच हो गया है, तब भी इसकी टि का लोप नहीं होता है। स्थूल + णिच् - स्थो + णिच् - इसकी टि का लोप नहीं होगा।
इसी प्रकार - दूर + णिच् - दो + णिच् - इसकी टि का लोप भी नहीं होगा। युवन् + णिच् - यो + णिच् - इसकी टि का लोप भी नहीं होगा। युवन् + णिच् - कन् + णिच् - इसकी टि का लोप भी नहीं होगा, क्योंकि आदेश हो जाने के बाद अब ये प्रातिपदिक ‘एकाच’ हो गये हैं।
ग. अनेकाच् प्रातिपदिक की ‘टि’ का, एक बार लोप करने के बाद भी यदि प्रातिपदिक अनेकाच् ही बच जाये तो भी उस अनेकाच् प्रातिपदिक की टि का, दुबारा लोप नहीं होता है। जैसे - देवद्रि अङ् + णिच् - टि का लोप करके - देवद्रि + णिच् - यहाँ टि का दुबारा लोप नहीं होगा।
__ घ. लुका लुप्ते टिलोपो न - यदि किसी प्रातिपदिक के अन्त में विन् प्रत्यय हो अथवा मतुप् प्रत्यय हो, और ऐसे प्रातिपदिकों से णिच् प्रत्यय लगे तब विन्मतोलृक् सूत्र से विन्, मतुप् प्रत्ययों का लुक् अर्थात् लोप होता है।
‘विन्मतोलुंक्’ सूत्र से विन्, मतुप् प्रत्ययों का लुक् अर्थात् लोप होने के बाद जो प्रातिपदिक बचता है, वह चाहे एकाच हो, चाहे अनेकाच्, उसकी ‘टि’ का लोप नहीं होता। जैसे - पयस्विनं करोति / आचष्टे वा - पयस्विनी + णिच् / भस्याढे तद्धिते पुंवद्भावः से पुंवद्भाव करके - पयस्विन् + णिच् / विन्मतोलुंक् से विन् का लोप करके - पयस् + णिच् ।
__ ध्यान दें कि यहाँ ‘पयस्विन्’ अनेकाच् है। विन् का लुक् होने के बाद यह पयस् + णिच्, भी अनेकाच् ही है, तो भी इसकी टि का लोप नहीं होता - पयसयति। निष्कर्ष -
__ एकाच् प्रातिपदिक
अनेकाच् प्रातिपदिक एकाच अव्यय प्रातिपदिक की टि. सारे अनेकाच् प्रातिपदिकों की टि का लोप का लोप होता है।
होता है। [[५८०]] एकाच नान्त प्रातिपदिकों की टि किन्तु अनेकाच् प्रातिपदिक की टि का का लोप होता है।
एक बार लोप हो जाने के बाद जो . अन्य एकाच् प्रातिपदिकों की टि अनेकाच् प्रातिपदिक बचे, उसकी टि का का लोप नहीं होता।
दोबारा लोप नहीं होता। विन्, मतुप् प्रत्ययों का लोप होने के बाद जो अनेकाच् प्रातिपदिक बचे, उसकी टि
का भी लोप नहीं होता। यह विचार करके ही आप प्रातिपदिकों की टि का लोप करें।
५. जिन शब्दों को प्रकृत्यादेश, पुंवद्भाव, विन्, मतुप् प्रत्ययों का लुक् तथा टिलोप प्राप्त न हों, उनमें इस प्रकार वृद्धि कीजिये -
अचो णिति - अजन्त अङ्ग को वृद्धि होती है जित्, णित् प्रत्यय परे होने पर। यथा स्व + णिच् - स्वा + णिच् / प्र + णिच् - प्रा + णिच् / गो
- णिच् - गौ + णिच् आदि।
अत उपधायाः - उपधा के ‘अ’ को वृद्धि होती है, जित्, णित् प्रत्यय परे होने पर। त्वद् + णिच् - त्वाद् + णिच् /
__ प्रश्न होता है कि जहाँ वृद्धि, टिलोप तथा प्रकृत्यादेश, ये तीनों एक साथ प्राप्त हों, वहाँ वृद्धि तथा टिलोप को रोककर हम प्रकृत्यादेश करते हैं।
जैसे - प्रिय + णिच् में ‘अचो णिति’ सूत्र से होने वाली वृद्धि तथा ‘टेः’ सूत्र से प्राप्त होने वाले टिलोप को रोककर प्रिय के स्थान पर ‘प्र’ आदेश करते हैं। गुरु + णिच् में ‘अचो णिति’ सूत्र से होने वाली वृद्धि तथा ‘टेः’ सूत्र से प्राप्त होने वाले टिलोप को रोककर गुरु शब्द को ‘गर्’ ऐसा प्रकृत्यादेश करते हैं।
परन्तु कभी कभी होता यह है कि प्रकृत्यादेश कर लेने के बाद पुनः यह वृद्धि प्राप्त हो जाती है। ऐसे स्थलों में क्या करें ?
जैसे - प्रिय + णिच् में वृद्धि तथा टिलोप को रोककर, प्रकृत्यादेश करके जब हम प्र + णिच् बना लेते हैं, तब हमें पुनः ‘अचो णिति’ सूत्र से वृद्धि प्राप्त होती है। स्थूल + णिच् में हम टिलोप को रोककर, प्रकृत्यादेश करके जब स्थो + णिच् बना लेते हैं, तब हमें पुनः ‘अचो णिति’ सूत्र से वृद्धि प्राप्त होती है।
गुरु + णिच् में वृद्धि तथा टिलोप को रोककर, प्रकृत्यादेश करके जब हम गर् + णिच् बना लेते हैं, तब हमें पुनः ‘अत उपधायाः’ सूत्र से उपधा को वृद्धि प्राप्त होती है। ये वृद्धि हम करें या नहीं ?
समस्त धातुओं के नामधातु बनाने की विधि
इसके लिये इस परिभाषा को जानना अत्यावश्यक है -
संज्ञापूर्वको विधिरनित्यः - ‘अचो णिति’ अथवा ‘अत उपधायाः’ सूत्र से प्राप्त होने वाली वृद्धि, चूँकि वृद्धि’ इस संज्ञा शब्द के द्वारा कही जा रही है, अतः यह अनित्य है। अनित्य होने का अर्थ होता है - जो कभी हो और कभी न हो। अतः यह वृद्धि कभी होती है और कभी नहीं होती।
अतः हम आगे उदाहरण देते समय बतलाते चलेंगे कि एक अङ्गकार्य कर चुकने के बाद यह वृद्धि कहाँ होती है और कहाँ नहीं होती।
अब हम सारे प्रातिपदिकों में णिच्’ प्रत्यय लगाना जान चुके हैं। अतः प्रातिपदिकों का वर्गीकरण करके उनमें इस प्रकार णिच् प्रत्यय लगायें -
__ एकाच अकारान्त प्रातिपदिक - स्व + णिच् । यहाँ एकाच होने के कारण टिलोप नहीं होगा। अचो णिति से वृद्धि होकर - स्वा + णिच् /
अर्तिहीब्लीरीक्नूयीक्ष्मायातां पुणौ - ऋ धातु, ब्ली, ह्री, री ,क्नूयी, क्ष्मायी, तथा आकारान्त अगों को पुक् का आगम होता है णि परे होने पर।
पुक् का आगम होकर - स्वाप् + इ - स्वापि -
सनाद्यन्ता धातवः - सन्, क्यच् ,काम्यच्, क्यष्, क्यङ्, क्विप्, णिङ्, ईयङ्, णिच्, यक, आय, यङ् ये १२ प्रत्यय जिसके भी अन्त में लगते हैं, उसका नाम, धातु हो जाता है।
__अतः स्व + णिच् से बना हुआ यह स्वापि’ अब ‘सनाद्यन्ता धातवः’ सूत्र से धातुसंज्ञक है। धातुसंज्ञा हो जाने से, अब हम इनके किसी भी लकार के रूप बना सकते हैं। ध्यान दें कि लट, लोट, लङ्, विधिलिङ्, इन लकारों के प्रत्यय सार्वधातुक हैं। सार्वधातुक प्रत्यय परे होने पर धातु + प्रत्यय के बीच में ‘शप्’ विकरण लगता है। सत्र है -
- कर्तरि शप् - कञर्थक सार्वधातुक प्रत्यय परे होने पर, धातु + प्रत्यय के बीच में शप् विकरण लगता है। आर्धधातुक लकारों के प्रत्यय परे होने पर धातु प्रत्यय के बीच में कभी भी विकरण नहीं लगता।
शप् प्रत्यय में हलन्त्यम् सूत्र से प् की, तथा लशक्वतद्धिते सूत्र से श् की इत् संज्ञा करके तस्य लोपः सूत्र से दोनों का लोप होकर ‘अ’ शेष बचता है।
अब इसके लट् लकार के रूप इस प्रकार बने -
स्वम् आचष्टे - स्व + णिच् - स्वापि / लट् लकार में स्वापि + शप् + ति / सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से ‘इ’ को गुण करके - स्वापे + अ + ति
[[५८२]]
- एचोऽयवायावः सूत्र से ए को अय् आदेश करके = स्वापयति।
पूरे रूप इस प्रकार बने - स्वापयति
स्वापयतः
स्वापयन्ति स्वापयसि
स्वापयथः
स्वापयथ स्वापयामि स्वापयावः स्वापयामः इसी प्रकार लोट, लङ्, विधिलिङ्, लकारों के रूप बनायें।
ध्यान दें कि प्रातिपदिकों में जब भी णिच् या णिङ्’ प्रत्यय लगाकर नामधातु बनते हैं, तब वे धातु इकारान्त ही रहते हैं।
अतः प्रातिपदिकों में णिच् लगाकर इकारान्त नामधातु बन जाने के बाद, धातुरूप बनाने की प्रक्रिया स्वापयति के समान ही होगी। अतः आगे के उदाहरणों में हम इकारान्त नामधातु बन जाने तक की क्रिया तो बतलायेंगे, उसके बाद बना बनाया धातुरूप लिख देंगे।
अनेकाच् अकारान्त प्रातिपदिक - अश्व + णिच् । यहाँ अनेकाच् होने के कारण टिलोप होगा। टिलोप होकर - अश्व् + णिच् - अश्वि + शप् + ति - सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से गुण करके - अश्वे + अ + ति - एचोऽयवायावः सूत्र से अश्वय् + अ + ति - अश्वयति ।
त्वच + णिच् । ध्यान दें कि यह अदन्त शब्द है, हलन्त नहीं । यहाँ अनेकाच् होने के कारण टिलोप होगा। टिलोप होकर - त्वच् + णिच् - त्वचि + शप् + ति - सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से गुण करके - त्वचे + अ + ति - एचोऽयवायावः सूत्र से त्वचय् + अ + ति - त्वचयति ।
एकाच इकारान्त, ईकारान्त प्रातिपदिक -
वि + णिच् / यहाँ एकाच होने के कारण टिलोप नहीं होगा। अतः अचो ञ्णिति से वृद्धि होकर - वै + इ / एचोऽयवायावः से आयादेश होकर वायि +
शप् + ति - वाययति।
धी + णिच् - अचो णिति से वृद्धि होकर - धै + इ / एचोऽयवायावः से आयादेश होकर - धायि + शप् + ति - धाययति।
अनेकाच् इकारान्त, ईकारान्त प्रातिपदिक -
कवि + णिच् । यहाँ अनेकाच् होने के कारण टिलोप होगा। टिलोप होकर - कव् + णिच् - कवि + शप् + ति - कवयति ।
नदी + णिच् । यहाँ अनेकाच् होने के कारण टिलोप होगा। टिलोप होकर
- नद् + णिच् - नदि + शप् + ति - नदयति ।
एकाच् उकारान्त, ऊकारान्त प्रातिपदिक -
भू + णिच् / यहाँ एकाच होने के कारण टिलोप नहीं होगा, अतः अचो ञ्णिति से वृद्धि होकर - भौ + इ, एचोऽयवायावः से आवादेश होकर - भावि + शप् + ति - भावयति।
अनेकाच् उकारान्त, ऊकारान्त प्रातिपदिक -
भानु + णिच् । यहाँ अनेकाच् होने के कारण टिलोप होगा। टिलोप होकर . - भान् + णिच् - भानि + शप् + ति - भानयति ।
इसी प्रकार - लघु - लघयति, वसु - वसयति आदि बनाइये।
वधू + णिच् । यहाँ अनेकाच् होने के कारण टिलोप होगा। टिलोप होकर - वध् + णिच् - वधि + शप् + ति - वधयति ।
__एकाच् ऋकारान्त प्रातिपदिक - नृ + णिच् / यहाँ एकाच होने के कारण टिलोप नहीं होगा, अतः अचो णिति से वृद्धि होकर - नार् + इ - नारि + शप् + ति - नारयति।।
अनेकाच् ऋकारान्त प्रातिपदिक - मातृ + णिच् - यहाँ अनेकाच् होने के कारण टिलोप होगा। टिलोप होकर - मात् + णिच् - माति + शप् + ति - मातयति। इसी प्रकार - भ्रातृ + णिच् - भ्रातृ + शप् + ति - भ्रातयति । स्वसृ + णिच् - स्वसि + शप् + ति - स्वसयति आदि बनाइये।
एकाच ऐकारान्त प्रातिपदिक - रै+ णिच् / यहाँ एकाच होने के कारण टिलोप नहीं होगा, अतः अचो णिति से वृद्धि होकर रै + इ , एचोऽयवायावः
से आयादेश होकर रायि + शप् + ति - राययति ।
एकाच ओकारान्त प्रातिपदिक - गो + णिच् / यहाँ एकाच होने के कारण टिलोप नहीं होगा, अतः अचो ञ्णिति से वृद्धि होकर गौ + इ , एचोऽयवायावः से आवादेश होकर गावि + शप् + ति - गावयति।
- विशेष - गोमत् + णिच् में जब विन्मतोलृक् से मतुप् का लुक् होकर गो + णिच् बचेगा तब संज्ञापूर्वको विधिरनित्यः’ इस परिभाषा से अचो णिति से होने वाली वृद्धि नहीं होगी। अतः एचोऽयवायावः सूत्र से अवादेश होकर गो + णिच् - गव् + णिच् - गवयति ही बनेगा।
एकाच औकारान्त प्रातिपदिक - नौ + णिच् / यहाँ एकाच होने के कारण टिलोप नहीं होगा, अतः अचो णिति से वृद्धि होकर नौ + इ , एचोऽयवायावः [[५८४]] से आवादेश होकर नावि + शप् + ति - नावयति।
अनेकाच् हलन्त प्रातिपदिक - इनकी टि का लोप कीजिये -
सरित् + णिच् - टिलोप करके - सर् + णिच् - सरि - शप् + ति - सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से गुण करके - सरे + शप् + ति - एचोऽयवायावः सूत्र से सरय् + अ + ति - सरयति । ध्यान रहे कि ‘टिलोप’ होने के बाद वृद्धि नहीं होती।
इसी प्रकार - हस्तिन् + णिच् - टिलोप करके - हस्त् + णिच् - हस्ति - शप् + ति - सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से गुण करके - हस्ते + शप् + ति - एचोऽयवायावः सूत्र से हस्तय् + अ + ति - हस्तयति।
__करिन् + णिच् - टिलोप करके - कर् + णिच् - करि - शप् + ति - सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से गुण करके - करे + शप् + ति - एचोऽयवायावः सूत्र से करय् + अ + ति - करयति।
वचस् + णिच् - टिलोप करके - वच् + णिच् - वचि - शप् + ति - सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से गुण करके - वचे + शप् + ति - एचोऽयवायावः सूत्र से वचय् + अ + ति - वचयति।
एकाच् हलन्त प्रातिपदिक -
हम जानते हैं कि ‘टिलोप’ होने के बाद वृद्धि नहीं होती है। हम यह भी जानते हैं कि एकाच् प्रातिपदिकों में ‘प्रकृत्यैकाच्’ सूत्र से टिलोप नहीं होता है, अतः यहाँ वृद्धि होना चाहिये।
पर ऐसा नहीं होता है, क्योंकि ‘अत उपधायाः’ सूत्र से होने वाली वृद्धि अनित्य है। अनित्य होने का अर्थ होता है - जो कभी हो और कभी न हो।
अतः यहाँ एकाच हलन्त प्रातिपदिकों में ‘अत उपधायाः’ सूत्र से होने वाली वृद्धि को सावधानी से कीजिये -
__ त्वद् + णिच् - अत उपधायाः से उपधा को वृद्धि करके - त्वाद् + णिच् - त्वादि + शप् + ति - त्वादयति बनाइये।।
मद् + णिच् - अत उपधायाः सूत्र से उपधा को वृद्धि करके - माद् + णिच् - मादि + शप् + ति - मादयति बनाइये।
शेष एकाच हलन्त प्रातिपदिकों की उपधा के ‘अ’ को कुछ मत कीजिये - कन् + णिच् - कनयति / गर् + णिच् - गरयति / ह्रस् + णिच् - ह्रसयति / क्षुध् + णिच् - क्षुधयति, आदि।
यह प्रातिपदिकों में णिच् प्रत्यय लगाने की विधि पूर्ण हुई। उन प्रातिपदिकों के रूप, जिनकी आकृति णिच् प्रत्यय परे
होने पर बदल जाती है णिच् प्रत्यय परे होने पर - वृद्धस्य च - वृद्ध को ज्य तथा वर्ष ये दो आदेश होते हैं।
वृद्ध को ज्य आदेश होने पर - वृद्ध + णिच् / ज्य + इ / अचो णिति सूत्र से ‘अ’ को वृद्धि करके - ज्या + इ /
__अर्तिहीब्लीरीक्नूयीक्ष्मायातां पुणौ - ऋ धातु, ब्ली, ह्री, री ,क्नूयी, क्ष्मायी, तथा आकारान्त अगों को पुक् का आगम होता है णि परे होने पर।
ज्या + इ - ज्याप् + इ - ज्यापि - ज्यापयति ।
वृद्ध को वर्ष आदेश होने पर - वृद्ध + णिच् - वर्ष + णिच् - वर्षि - वर्षयति
अन्तिकबाढयोर्नेदसाधौ - अन्तिक और बाढ शब्दों को नेद् और साध् आदेश होते हैं। अन्तिक + णिच् - नेद् + णिच् - नेदि - नेदयति बाढ + णिच् - साथ् + णिच् - साधि - साधयति
युवाल्पयोः कनन्यतरस्याम् - युवन् और अल्प शब्दों को नेद् और साध् आदेश होते हैं। युवन् + णिच् - कन् + णिच् - कनि - कनयति अल्प + णिच् - कन् + णिच् - कनि - कनयति
ये सारे आदेश एकाच् हैं। इन आदेशों के एकाच होने से इनकी टि का लोप नहीं हुआ है।
स्थूलदूरयुवहस्वक्षिप्रक्षुद्राणां यणादिपरं पूर्वस्य च गुणः - स्थूल, दूर, युव, ह्रस्व, क्षिप्र, क्षुद्र को क्रमशः स्थो, दो, यो, ह्रस्, क्षेप, क्षोद् आदेश होते हैं, इष्ठन्, इमनिच्, अथवा ईयसुन् प्रत्यय परे होने पर।
स्थूलं करोति - स्थूल + णिच् - स्थो + णिच् / एचोऽयवायावः से अवादेश होकर स्थव् + इ - स्थवि - स्थवयति।
इसी प्रकार - दूर + णिच् - दो + णिच् से दवयति / युवन् + णिच् - यो + णिच् से यवयति बनाइये।
ह्रस्व + णिच् - ह्रस् + णिच् - ह्रसि - ह्रसयति। [[५८६]] +
इसी प्रकार - क्षिप्र + णिच् - क्षेप् + णिच् - क्षेपि - क्षेपयति / क्षुद्र + णिच् - क्षोद् + णिच् - क्षोदि - क्षोदयति बनाइये।
प्रियस्थिरस्फिरोरुबहुलगुरुवृद्धतृप्रदीर्घवृन्दारकाणां प्रस्थस्फवबहिगर्वर्षि त्रन्द्राघिवृन्दाः - प्रिय, स्थिर, स्फिर, उरु, बहुल, गुरु, वृद्ध, तृप्र, दीर्घ, वृन्दारक को क्रमशः प्र, स्थ, स्फ, वर्, बंह, गर्, वर्ष, त्रप्, द्राच्, वृन्द् आदेश होते हैं, इष्ठन्, इमनिच्, अथवा ईयसुन् प्रत्यय परे होने पर।
प्रिय + णिच् - प्र + णिच् / अचो णिति सूत्र से अजन्त अङ्ग को वृद्धि करके - प्रा + णिच् - प्रा + इ / ‘अर्तिह्रीब्लीरीक्नूयीक्ष्मायातां पुणौ’ सूत्र से पुक् का आगम करके - प्राप् + इ - प्रापि - प्रापयति। इसी प्रकार - स्थिर + णिच् - स्थ + णिच् - स्थापि - स्थापयति स्फिर + णिच् - स्फ + णिच् - स्फापि - स्फापयति
उरु + णिच् / वर् + णिच् - वरि / वरि + शप् + ति - सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से इ को गुण करके - वरे + अ + ति - एचोऽयवायावः सूत्र से ए को अय् आदेश करके - वरयति। इसी प्रकार - बहुल + णिच् - बंह् + णिच् - बंहि - बंहयति गुरु + णिच् - गर् + णिच् - गरि - गरयति तृप्र + णिच् - त्रप् + णिच् - त्रपि - त्रपयति दीर्घ + णिच् - द्राच् + णिच् - द्राघि - द्राघयति वृन्दारक + णिच् - वृन्द् + णिच् - वृन्दि - वृन्दयति
बहोर्लोपो भू च बहोः - बहु को भू आदेश होता है। बहु + णिच् - भू + णिच् - भाव - भावयति
बहयति र ऋतो हलादेर्लघोः - पृथु मृदु भृश कृश दृढ तथा परि + वृढ शब्दों के लघु ऋ के स्थान पर र आदेश होता है। अनेकाच् होने के कारण टेः सूत्र से टि का लोप भी होता है।
_ + णिच् - प्रथ् + णिच् - प्रथि - प्रथयति
-
णिच् - म्रद् + णिच् - म्रदि - मृदयति भृश + णिच् - भ्रश् + णिच् - भ्रशि - भ्रशयति
-
णिच् - क्रश् + णिच् - क्रशि क्रशयति + णिच् - दृढ़ + णिच् - द्रढि - द्रढयति
पृथु
मृदु
__ +
परि + वृढ + णिच् - परिवढ् + णिच् - परिवढि - परिवढयति
प्रत्ययोत्तरपदयोश्च - युष्मद्, अस्मद् शब्दों को एकवचन में त्वद् मद् आदेश होते हैं। त्वद् + णिच् - अत उपधायाः से उपधा को वृद्धि करके - त्वाद् + णिच् - त्वादि + शप् + ति - त्वादयति।।
__मद् + णिच् - अत उपधायाः से उपधा को वृद्धि करके - माद् + णिच् - मादि + शप् + ति - मादयति।
__ बहुवचन में - युवाम् युष्मान् वा आचष्टे युष्मयति - युष्मद् + णिच् - अनेकाच् होने के कारण टिलोप करके - युष्म् + णिच् - युष्मि + शप् - सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से गुण करके - युष्मे + शप् + ति - एचोऽयवायावः सूत्र से युष्मय् + अ + ति - युष्मयति।
__ अस्मान् आचष्टे अस्मयति - अस्मद् + णिच् - अनेकाच् होने के कारण टिलोप करके - अस्म् + णिच् - अस्मि + शप् + ति - सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से अस्मे + शप् + ति - एचोऽयवायावः सूत्र से अस्मय् + अ + ति - अस्मयति ।
विद्वस् शब्द - इसके रूप तीन प्रकार से बनते हैं।
१. विद्वांसम् आचष्टे विद्वयति - विद्वस् + णिच् - टिलोप करके विद् + णिच् - विद्वि + शप् + ति - सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से विद्वे + शप् + ति
- एचोऽयवायावः सूत्र से विद्वय् + अ + ति - विद्वयति।
२. विद्वांसम् आचष्टे विदावयति - विद्वस् + णिच् - टिलोप करके - विद् + णिच् - वसोः सम्प्रसारणम् सूत्र से संप्रसारण करके - विदु + णिच् - अचो ञ्णिति से वृद्धि करके - विदौ + णिच् - एचोऽयवायावः सूत्र से आवादेश करके - विदाव् + इ - विदावि / विदावि + शप् + ति - सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से विदावे + शप् + ति - एचोऽयवायावः सूत्र से विदावय् + अ + ति - विदावयति ।
३. विद्वांसम् आचष्टे विदयति - विद्वस् + णिच् - वस् को संप्रसारण करके - विदु अस् + णिच् - सम्प्रसारणाच्च से पूर्वरूप करके - विदुस् + णिच् - टिलोप करके विद् + णिच् - विदि + शप् + ति - सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से विदे + शप् + ति - एचोऽयवायावः सूत्र से विदय् + अ + ति - विदयति।
अञ्चु धातु से बने हुए शब्द -
विष्वव्यङ् + णिच् - विष्वव्यङ् + णिच् - इसमें ‘अङ्’ टि है। अर्थात् यह शब्द विष्वद् ि + अ + णिच् है। इसकी टि का लोप करके - विष्वद्रि + णिच् / अचो ञ्णिति से वृद्धि करके - विष्वदै + णिच् / एचोऽयवायावः सूत्र [[५८८]] से आवादेश करके - विष्वद्राय् + इ - विष्वदायि / विष्वदायि + शप् + ति - - विष्वद्राययति।
इसी प्रकार देवव्यङ् से देवद्राययति, तव्यङ् से तद्राययति, यव्यङ् से यद्राययति आदि बनाइये।
सम्यङ् को समीच होता है - सम्यङ् + णिच् - समीच् + णिच् - समीचि - समीचयति।
__ प्रत्यङ् को प्रतीच होता है - प्रत्यङ् + णिच् - प्रतीच् + णिच् - प्रतीचि - प्रतीचयति।
उदङ् को उदीच् होता है - उदङ् + णिच् - उदीच् + णिच् - उदीचि - उदीचयति।
सध्यङ् को सध्रि होता है - सध्यङ् + णिच् - सध्रि + णिच् / अचो ञ्णिति से वृद्धि करके सधै + णिच् - एचोऽयवायावः सूत्र से आयादेश करके - सध्राय् + इ - सध्रायि - सध्राययति।
तिर्यङ् को तिरिं’ होता है - तिरि + णिच् - अचो णिति से वृद्धि करके - तिरै + णिच् - एचोऽयवायावः सूत्र से आयादेश करके - तिराय् + इ - तिरायि - तिराययति बनाइये।
श्वन् + णिच् - इसके रूप दो प्रकार से बनते हैं -
१. श्वानम् आचष्टे शावयति - श्वन् + णिच् - नस्तद्धिते सूत्र से टि का लोप करके - श्व् + णिच् - श्वयुवमघोनामतद्धिते सूत्र से व् को संप्रसारण करके - शु + णिच् - अचो णिति से वृद्धि करके - शौ + णिच् - एचोऽयवायावः सूत्र से आवादेश करके - शाव् + इ - शावि - शावयति।
२. श्वानम् आचष्टे शुनयति - श्वन् + णिच् - श्वयुवमघोनामतद्धिते सूत्र से व् को संप्रसारण करके - शु अन् + णिच् - संप्रसारणाच्च से अ को पूर्वरूप करके - शुन् + णिच् - शुनि - शुनयति।
यह णिच् प्रत्यय लगाकर नामधातु बनाने की विधि पूर्ण हुई। अब सबसे अन्त में हम प्रातिपदिकों में णिच् प्रत्यय लगाने वाले सूत्र पढ़ें। इससे हम यह जान सकेंगे कि किस शब्द से किस अर्थ में यह णिच् प्रत्यय लगता है तथा णिच् प्रत्यय के कौन कौन से अर्थ होते हैं।
प्रातिपदिकों में णिच् प्रत्यय लगाने वाले सूत्र प्रातिपदिकाद् धात्वर्थे बहुलमिष्ठवच्च - प्रातिपदिकों से धातु के ही अर्थ
में णिच् प्रत्यय होता है तथा इस णिच् प्रत्यय के परे होने पर, प्रकृति को वे कार्य होते हैं, जो कार्य प्रकृति को, तद्धित के इष्ठन् प्रत्यय परे होने पर किये जाते हैं।
धात्वर्थ का तात्पर्य है - दर्शन, वचन, श्रवण, आख्यान, करण आदि । अर्थात् देखना, सुनना, बोलना, करना आदि। इन अर्थों में किसी भी प्रातिपदिक से णिच्’ प्रत्यय लगता है।
तत्करोति तदाचष्टे - प्रातिपदिकों से तत्करोति / तदाचष्टे अर्थ में भी णिच् प्रत्यय होता है। युद्धं आचष्टे - युद्ध + णिच् / अनेकाच् होने के कारण टेः सूत्र से टिलोप करके - युद्ध् + इ - युद्धि = युद्धयति । कविम् आचष्टे - कवि + णिच् / अनेकाच् होने के कारण टेः सूत्र से टिलोप करके - कव् + इ - कवि = कवयति।
तेनातिक्रामति - प्रातिपदिकों से तेनातिक्रामति अर्थ में भी णिच् प्रत्यय होता है। अश्वेन - अतिक्रामति - अश्व + णिच् / अनेकाच् होने के कारण टेः सत्र से टिलोप करके - अश्व + इ - अश्वि = अश्वयति।
__इसी प्रकार - हस्तिना अतिक्रामति - हस्तिन् + णिच् - ‘नस्तद्धिते’ सूत्र से टिलोप करके - हस्त् + इ - हस्ति = हस्तयति ।
विशेष - यदि शब्द नान्त हो, तब तद्धित प्रत्यय परे होने पर नान्त अङ्ग की ‘टि’ का लोप नस्तद्धिते’ सूत्र से होता है।
कर्तकरणाद् धात्वर्थे - प्रातिपदिकों से कर्ता के व्यापार’ अर्थ में भी णिच् प्रत्यय होता है। असिना हन्ति - असि + णिच् / अनेकाच् होने के कारण टेः सूत्र से टिलोप करके - अस् + इ - असि = असयति।
‘शब्दवैरकलहाभ्रकण्वमेघेभ्यः करणे’
- इन प्रातिपदिकों से करोति’ अर्थ में क्यङ् प्रत्यय होता है। क्यङ् प्रत्यय लगाकर हम शब्दं करोति - शब्दायते बना चुके हैं। न्यासकार के अनुसार इन प्रातिपदिकों से करोति’ अर्थ में णिच् प्रत्यय भी होता है। शब्दं करोति - शब्द + णिच् - शब्दयति।
इसी प्रकार वैरं करोति - वैर + णिच् = वैरयति / कलहं करोति = कलहयति आदि बनाइये।
मुण्डमिश्रश्लक्ष्णलवणव्रतवस्त्रहलकलकृततूस्तेभ्यो णिच् - मुण्ड, मिश्र, श्लक्ष्ण, लवण, व्रत, वस्त्र, हल, कल, कृत, तूस्त, इन प्रातिपदिकों से तत्करोति अर्थ में णिच् प्रत्यय होता है।
मुण्डं करोति - मुण्ड + णिच् - अनेकाच् होने के कारण टिलोप करके [[५९०]]
-
मुण्डयति।
-
मिश्रं करोति - मिश्र + णिच् - अनेकाच् होने के कारण टिलोप करके - मिश्रयति। इसी प्रकार हलयति, कलयति, श्लक्ष्णयति, लवणयति बनाइये।
इस सूत्र की व्याख्या इस प्रकार है -
व्रताद् भोजने तन्निवृत्तौ च - व्रत शब्द से भोजन तथा उपवास अर्थों में णिच् प्रत्यय होता है। पयो व्रतयति, वृषलान्नं व्रतयति।
__ वस्त्रात्समाच्छादने - वस्त्र शब्द से समाच्छादनअर्थ में णिच् प्रत्यय होता है। संवस्त्रयति।
हल्यादिभ्यो ग्रहणे - हलिं गृह्णाति - हलि + णिच् - टिलोप करके - हलयति, इसी प्रकार - कलिं गृह्णाति कलयति।
तूस्तानि विहन्ति - तूस्त + णिच् - टिलोप करके - केशान् वितूस्तयति (विशदीकरोति)।
सत्यापपाशरूपवीणातूलश्लोकसेनालोमत्वचवर्मवर्णचूर्णचुरादिभ्यो णिच्
सत्याप, पाश, रूप, वीणा, तूल, श्लोक, सेना, लोम, त्वच्, वर्मन्, वर्ण, चूर्ण, प्रतिपदिकों से तथा चुरादिगण पठित धातुओं से णिच् प्रत्यय होता है।
इनमें इस प्रकार ‘णिच्’ लगाइये -
• पाशाद् विमोचने - पाशाद् विमोचयति - विपाश + णिच् - अनेकाच् होने के कारण टेः सूत्र से टिलोप करके - विपाशि - विपाशयति।
रूपाद् दर्शने - रूपं दर्शयति - रूप + णिच् - अनेकाच् होने के कारण टेः सूत्र से टिलोप करके - रूपि - रूपयति।
वीणया उपगायति - उपवीणा + णिच् - अनेकाच् होने के कारण टेः सूत्र से टिलोप करके - उपवीणि - उपवीणयति।
तूलेन अनुकुष्णाति - अनुतूल + णिच् - अनेकाच् होने के कारण टेः सूत्र से टिलोप करके - अनुतूलि - अनुतूलयति।
श्लोकैः उपस्तौति - उपश्लोक + णिच् - अनेकाच् होने के कारण टेः सूत्र से टिलोप करके - उपश्लोकि - उपश्लोकयति।
सेनया अभियाति - अभिषेण + णिच् - अनेकाच् होने के कारण टेः सूत्र से टिलोप करके - अभिषेणि - अभिषेणयति।
लोमानि अनुमाष्टि - अनुलोम + णिच् - अनेकाच् होने के कारण टेः सूत्र से टिलोप करके - अनुलोमि - अनुलोमयति।
[[५९१]]
समस्त धातुओं के नामधातु बनाने की विधि
वर्मणा संनह्यति - संवर्मन् + णिच् - अनेकाच् होने के कारण टेः सूत्र से टिलोप करके - संवर्म + इ - संवर्मि - संवर्मयति ।
चूर्णैः अवध्वंसयति - अवचूर्ण + णिच् - अनेकाच् होने के कारण टेः सूत्र से टिलोप करके - अवचूर्णि - अवचूर्णयति।
__ वर्णं गृह्णाति - वर्ण + णिच् - अनेकाच् होने के कारण टेः सूत्र से टिलोप करके - वर्णि - वर्णयति।
त्वचं गृह्णाति - त्वच + णिच् - अनेकाच् होने के कारण टेः सूत्र से टिलोप करके - त्वचि - त्वचयति। (ध्यान दें कि यह त्वच’ अदन्त प्रातिपदिक है, चकारान्त नहीं।)
अर्थवेदयोरापुरवक्तव्यः - सत्य शब्द तो आपुक लगाकर सूत्र में दिया ही है। अर्थ, वेद शब्दों से भी आपुक् होता है। आपुक् के विधानसामर्थ्य से आपुक्
की टि का लोप नहीं होता।
सत्यम् आचष्टे - सत्य + आपुक् - सत्यापयति । अर्थम् आचष्टे - अर्थ + आपुक् - अर्थापयति। वेदम् आचष्टे - वेद + आपुक् - वेदापयति । तत्करोति इत्युपसंख्यानम् सूत्रयत्याद्यर्थम् -
सूत्रं करोति
- सूत्रयति । आख्यानात्कृतस्तदाचष्टे कुल्लुक् प्रकृतिप्रत्ययापत्तिः प्रकृतिवच्च कारकम् । कंसवधम् आचष्टे - कंसं घातयति। बलिबन्धम् आचष्टे - बलिं बन्धयति। राजागमनमाचष्टे
राजानमागमयति। आङ्लोपश्च कालान्तसंयोगे मर्यादायाम् - आरात्रि विवासम् आचष्टे - रात्रिं विवासयति
चित्रीकरणे प्रापि - उज्जयिन्या प्रस्थितो माहिष्मत्यां सूर्योद्गमनम् संभावयते - सूर्यम् उद्गमयति।
नक्षत्रयोगे ज्ञि - पुष्ययोगं जानाति - पुष्येण योजयति ।
इस प्रकार णिच् प्रत्यय के अनेक अर्थ हैं। इन निर्देशों के साथ णिच प्रत्यय से नामधातु बनाकर उनका प्रयोग करना चाहिये । यथा -
मधुर - मधुरयति / बधिर - बधिरयति / शिथिल - शिथिलयति आदि। ये णिच् प्रत्यय लगाने वाले सूत्र तथा वार्तिक पूरे हुए। [[५९२]]
णिङ्
णिङ् प्रत्यय लगाकर नामधातु कैसे बनायें
पुच्छभाण्डचीवराण्णिङ् - पुच्छ, भाण्ड, चीवर, इन प्रातिपदिकों से णि प्रत्यय लगाकर करोति अर्थ में नामधातु बनाये जाते हैं। प्रक्रिया बिल्कुल णिच् के समान ही होती है।
अनुदात्तडित आत्मनेपदम् - णिङ् प्रत्यय चूँकि डित् है अतः इसे लगाकर बने हुए जो नामधातु होते हैं उनसे केवल आत्मनेपदी प्रत्यय ही लगाये जाते
इनके अर्थ इस प्रकार हैं -
पुच्छादुसने पर्यसने वा - विविधं विरुद्धं वा पुच्छम् उत्क्षिपति - उत्पुच्छ + णिङ् / टिलोप करके - उत्पुच्छयते।
भाण्डात् समाचयने - भाण्डं संचिनोति - सम्भाण्ड + णि / टिलोप करके - सम्भाण्डयते।
चीवरादर्जने परिधाने वा - वस्त्रेण सम्यग् आच्छादयति - संचीवर + णिङ् - टिलोप करके - संचीवरयते भिक्षुः ।
यह णिङ् प्रत्यय लगाकर नामधातु बनाने की विधि पूर्ण हुई।
हमने प्रातिपदिकों में क्यच्, क्यङ्, काम्यच्, क्यष्, क्विप्, णिङ्, णिच् प्रत्यय लगाकर जो नामधातु बनाये हैं उनके लट् लकार के रूप बनाना सीखा. है। चूँकि ये नामधातु भी धातु हैं अतः इनमें सभी लकारों के प्रत्यय तथा सभी कृत् प्रत्यय लगाये जा सकते हैं। जैसे -
पुत्र + क्यच् - पुत्रीय यह नामधातु बनाया है इससे लट् लकार में पुत्रीयति, लोट् लकार में पुत्रीयतु, लङ् लकार में अपुत्रीयत्, विधिलिङ् लकार में पुत्रीयेत्, लिट् लकार में पुत्रीयाञ्चकार, लुट् लकार में पुत्रीयिता, लृट् लकार में पुत्रीयिष्यति, आशीर्लिङ् लकार में पुत्रीय्यात्, लुङ् लकार में अपुत्रीयीत्, लङ् लकार में पुत्रीयिष्यत् । प्राप्त होने पर लेट् लकार में पुत्रीयति, पुत्रीयाति, पुत्रीयिषति, पुत्रीयिषाति । पन्तु ध्यान दें कि वेद में जो शब्द दृष्ट है, उसी के रूप हमें बनाना चाहिये, स्वेच्छा से नहीं।
__ इंन धातुओं का जिस भी लकार में रूप बनाना हो उस लकार के रूप बनाने की विधि उस लकार के प्रकरण में देखिये। हमने प्रत्येक लकार का रूप बनाना अलग अलग प्रकरणों में बताया है।