अष्टाध्यायी सहजबोध तृतीय भाग : कृदन्तप्रकरणम् AATRIORITERALS SAXARAC H APRAPPLEA RETTETAPEOHLESTRATI (((( الا اسا)1 ( डॉ. पुष्पा दीक्षित ᳕ (पाणिनीय अष्टाध्यायी की सर्वथा नवीन वैज्ञानिक व्याख्या) तृतीय भाग कृदन्तप्रकरणम् रचयित्री डॉ० (श्रीमती) पुष्पा दीक्षित प्रतिभा प्रकाशन दिल्ली भारत 13103 TEST तृतीय संस्करण 2011 ISBN : 978-81-7702-121-4 (तृतीय भाग) 978-81-7702-007-2 (सेट) © रचयित्री मूल्य : 1500 (Set 1-4 vols.) प्रकाशक : डॉ० राधेश्याम शुक्ल एम.ए., एम. फिल., पी-एच.डी. प्रतिभा प्रकाशन (प्राच्यविद्या-प्रकाशक एवं पुस्तक-विक्रेता) 7259/23, अजेन्द्र मार्केट, प्रेमनगर शक्तिनगर, दिल्ली-110007 दूरभाष : (O) 011-47084852, (M) 9350884227 e-mail : pratibhabooks@ymail.com टाईप सेटिंग : एस०के० ग्राफिक्स दिल्ली-84 मुद्रक : एस०के० ऑफसेट, दिल्ली ASTĀDHĀYI SAHAJABODHA A Modern & Scientific Approach To Pāṇini’s Aștādhyāyī Volume III Kệdantaprakaranam By Dr. (Smt.) Pushpa Dixit RATIBHA PRATIBHA PRAKASHAN DELHI-110007 Third Edition : 2011 © Author ISBN : 978-81-7702-121-4 ( Vol. III.) 978-81-7702-007-2 (Set) Rs. ः 1500 (Set 1-4 vols.) Published by : Dr. Radhey Shyam Shukla M.A., Ph.D. PRATIBHA PRAKASHAN (Oriental Publishers & Booksellers) 7259/23. Ajendra Market, Prem Nagar, Shakti Nagar Delhi-110007 Ph. : (0) 47084852, 09350884227 e-mail : pratibhabooks@ymail.com Laser Type Setting : S.K. Graphics, Delhi-84 Printed at : S.K. Offset, Delhi समर्पणम् आचार्य डॉ. बच्चूलाल अवस्थी, अधिष्ठाता, आचार्यकुल, कालिदास अकादमी, उज्जैन, म. प्र. BE अस्मादृशामबोधविक्लवानामनुग्रहायैवातिभया वहत्रिविधतापग्राहग्रस्तेऽस्मिन् संसारचक्रे लब्धजन्म परिग्रहेभ्यो, धर्मस्यापरविग्रहेभ्यः, सर्वशास्त्रसंशयो च्छेदकेभ्यः, स्वीयावस्थितिमात्रेणैव भारतस्य भारतत्वं प्रख्यापयट्यो, ग्रन्थस्यास्य निष्पत्तेर्मूलाधारेभ्यः, स्वीय कृपाकटाक्षलवेनैव जडानजडयद्भ्यः, विद्वच्छिरो मणिभ्यः, वैयाकरणतल्लजेभ्यः, कवीश्वरानप्यतिशयानेभ्यो, वश्यवाचामग्रणीभ्यो, गुरुवर्येभ्यः, सर्वतन्त्रस्वतन्त्रेभ्यः, श्रीमदबच्चलालावस्थिपादेभ्यो ग्रन्थमिमं सादरं समर्पये। तपःपूतचेतसां तेषामेवायं, न मम । सदाशीः आचार्य रामयत्न शुक्ल, भूतपूर्व व्याकरणविभागाध्यक्ष, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी, (उ. प्र.) व्याकरणशास्त्र सर्वशास्त्रोपकारक है, भगवान् पाणिनि के पहिले के और भगवान् पाणिनि के बाद के भी अनेक व्याकरण हैं, किन्तु लौकिक, वैदिक उभय शब्दों को साधुत्व प्रदान करने के कारण वैज्ञानिक पद्धति से लिखा गया पाणिनीय व्याकरण ही अद्यत्वे सर्वमान्य है। पुराकाल में अष्टाध्यायी के अनुसार ही सिद्धान्तकौमुदी, रूपमाला इत्यादि ग्रन्थों के अध्ययन-अध्यापन की परम्परा थी, किन्तु यह संसार ह्रासोन्मुख है, इसीलिये कालक्रम से इस परम्परा का भी ह्रास हो गया। आजकल सिद्धान्तकौमुदी के अध्येताओं और अध्यापकों के प्रमाद से अष्टाध्यायी के अनुसार कौमुदी के पठन-पाठन की परम्परा अस्त व्यस्त हो गई है, अतः इसके पुनरुद्धार की महती आवश्यकता थी। सिद्धान्तकौमुदी में एक एक सूत्र प्रायः एक एक प्रयोग का ही साधन करता है, जबकि उस सूत्रसम्बन्धी अन्य सारे प्रयोगों का साधन करना भी अत्यावश्यक है, अन्यथा सूत्रवैयर्थ्य प्राप्त होता है। कौमुदी के सारे प्रकरणों में यही समस्या है कि सूत्रसम्बन्धी एक एक रूप के साधन के बाद भी यह शङ्का बनी ही रहती है, कि तत् तत् प्रत्ययों में अन्य धातुओं के तिङन्त अथवा कृदन्त रूप क्या होंगे ? जो माधवीय धातुवृत्ति आदि रूपावलियाँ हैं, उनमें भी सब रूप नहीं मिलते हैं, अतः कौमुदी में तथा रूपावलियों में सारे रूप न मिलने के कारण अध्येताओं के लिये बहुत बड़ी कठिनाई है। बहुत दिनों से मेरे मन में भी यह था, कि एक एक धातु के सारे तिङन्त और सारे कृदन्त रूप किसी विधि से एक ही स्थान पर दिखा दिये जायें, किन्तु अध्यापन में निरन्तर व्याप्त रहने के कारण समय ही नहीं मिल पाया। जब मैंने देखा कि परम विदुषी, व्याकरणमर्मज्ञा, भारतीय संस्कृति पर आस्थावती पुष्पा देवी जी ने अत्यन्त विचारपूर्वक यह कार्य कर दिया है, तो मुझे अत्यन्त आह्लाद हुआ। (ii) उन्होंने धातुओं को उनके अन्तिम अक्षर के वर्णक्रम से विभाजित करके तथा प्रत्ययों को अनुबन्धों के आधार पर विभाजित करके प्रत्येक धातु के सारे कृत् प्रत्ययान्त रूप तथा सारे तिङन्त रूपों की प्रक्रिया को उपस्थित कर दिया है। यह विभाजन करते समय उन्होंने भाष्य में कथित अनभिधान का भी सम्पूर्ण ध्यान रखा है। यथा - ‘क्विप् च’ सूत्र से धातुमात्र से होने वाला क्विप् प्रत्यय अनभिधान के कारण भाष्यानुक्त आकारान्त धातुओं से नहीं होता है। इस प्रकार के भाष्यवचनों की प्रामाणिकता भी उनके इस ‘अष्टाध्यायी सहजबोध’ में है। व्याकरण जगत् में इस प्रकार के समग्र विचार का सर्वथा अभाव था। पुष्पा दीक्षित जी ने इस अभाव को दूर करके और व्याकरण की इस क्षति की पूर्ति करके वह निदर्शन प्रस्तुत किया है कि इनका उपकार अनन्त काल तक स्मरण किया जायेगा। इनके इस अदम्य पुरुषार्थ को देखकर हम इन्हें लौहपुरुष कहें या इनकी देदीप्यमान कीर्ति को देखकर हम इन्हें स्वर्णपुरुष कहें, वस्तुतः ये सर्वथा अनुपम हैं। __ऐसी विदुषी की इस नवीनतम कार्यप्रणाली के प्रति, व्याकरण जगत् की ओर से उन्हें अखण्ड साधुवाद देता हुआ मैं, इस ग्रन्थ के प्रचार प्रसार के लिये और पुष्पा जी के चिरायुष्ट्व के लिये कामना करता हूँ। व्याकरण शास्त्र में उनकी आस्था अनुदिन बढ़ती जाये तथा अग्रिम सन्तान इसका लाभ ले। उनके इस कार्य का सम्मान सारे संसार को करना चाहिये। भगवान् विश्वनाथ तथा भगवती पार्वती से प्रार्थना है कि वे इनके द्वारा पाणिनीय व्याकरण का सारा कार्य सम्पन्न कराकर विश्व को आलोक प्रदान करें। वाराणसी ५.११.२००४ रामयल PM ।। पाणिनये नमः।। आचार्य डॉ. बच्चूलाल अवस्थी, पूर्व-अधिष्ठाता, आचार्यकुल, कालिदास अकादमी, उज्जैन, म. प्र. पाणिनीय अष्टाध्यायी के अध्ययन हेतु दो परिभाषाओं द्वारा दो पद्धतियाँ बतायी गई हैं - १. यथाकालं संज्ञापरिभाषम् । २. यथोद्देशं संज्ञापरिभाषम्। । __ काशिकावृत्ति की यथाकाल सरणि है और प्रक्रिया ग्रन्थों में यथोद्देशपद्धति पायी जाती है। यही कारण है कि प्रक्रियाग्रन्थों में एक प्रयोग के लिये सारे सूत्र उपस्थित होकर भी तत् तत् सूत्रविषयक सारा विवरण नहीं दे पाते हैं। वह सब बुद्धिगम्य ही रह जाता है। प्रक्रियाग्रन्थों की दूसरी विसंगति यह है कि प्रक्रिया के अनुसार प्रकरणों का विभाजन हो जाने के कारण अधिकार सूत्र वहाँ अपने स्वरूप को प्रकट नहीं कर पाते हैं, अतः प्रयोग तो सिद्ध हो जाते हैं, किन्तु अष्टाध्यायी का विज्ञान अनधिगत ही रह जाता है। सिद्धान्तकौमुदी का कृदन्तप्रकरण वस्तुतः अष्टाध्यायी के तृतीय अध्याय की ही क्रमिक व्याख्या है, किन्तु इसमें प्रक्रियासूत्रों का व्यवधान आ जाने से और छान्दस सूत्रों के अलग हो जाने से अष्टाध्यायी का सूत्रानुक्रम भग्न हो गया है। डॉ. श्रीमती पुष्पा दीक्षित ने बड़ी चातुरी से अङ्गकार्यों को पृथक् कर दिया है और छान्दस सूत्रों को यथास्थान स्थापित करके लौकिक, वैदिक उभय शब्दों को एक साथ सिद्ध करते हुए अष्टाध्यायी के स्वरूप की रक्षा की है। __इसके अतिरिक्त कौमुदी का अध्येता एक प्रत्यय को एक धातु से तो लगा लेता है, किन्तु अन्य सारे धातुओं में उस प्रत्यय के क्या क्या रूप होंगे, इस विचिकित्सा से मुक्त नहीं हो पाता है। डॉ. श्रीमती पुष्पा दीक्षित ने इस ग्रन्थ में एक एक प्रत्यय को सारे धातुओं में लगाकर उसके सारे रूपों को बनाने की प्रक्रिया दे दी है। इसके लिये उन्होंने अङ्गकार्यों को आधार बनाकर धातुपाठ का जो पुनः वर्गीकरण किया है, वह अद्भुत है। (iv) इस दृष्टि से पाणिनीयशास्त्र का चिन्तन उनके पूर्व किसी ने नहीं किया है । कौमुदी में वैदिक प्रक्रिया को मूल से पृथक् कर दिया है, और उसे प्रकरणबद्ध न करके अघ्टाध्यायी के क्रम से ही रख दिया है, इस कारण सामान्यतः कौमुदी का छात्र वैदिकी प्रक्रिया को कोई अलग प्रक्रिया समझकर उससे पलायन कर जाता है। इस ग्रन्थ में लौकिक, वैदिक दोनों ही सूत्रों को साथ साथ ले लेने से लौकिक, वैदिक शब्द साथ ही सिद्ध हो जाते हैं। सम्राट अकबर के सभासद् राजा बीरबल ‘ब्रह्म’ नाम से कवि भी थे। उन्होंने उस कालखण्ड में ब्राह्मणत्व के साथ साथ शास्त्रों की भी रक्षा की। अतः उनहोंने वाराणसी से वैयाकरणधौरेय शेषश्रीकृष्ण को अपने यहाँ प्रतिष्ठा दी। शेषश्रीकृष्ण के शिष्य भट्टोजिदीक्षित और पुत्र शेषवीरेश्वर थे। वहीं से नव्यव्याकरण का सूत्रपात हुआ। भट्टोजिदीक्षित के पुत्र भानुजिदीक्षित अमरकोश के मनीषी टीकाकार हैं और हरिजिदीक्षित उनके पौत्र हैं, जिन्होंने भट्टोजिदीक्षित के महनीय ग्रन्थ प्रौढ़मनोरमा पर शब्दरत्न नाम की टीका लिखी। वे शेषवीरेश्वर के शिष्य थे। शेषवीरेश्वर के अन्य शिष्य नागोजिभट्ट ने प्रौढ़मनोरमा की शब्देन्दुशेखर टीका लिखी। इस प्रकार यथोद्देश पद्धति का नव्यव्याकरण के रूप में अब तक अध्ययन होता रहा। इस शताब्दी का आरम्भ होते न होते दोनों पद्धतियों का समागम डॉ. श्रीमती पुष्पा दीक्षित में पाया जाता है। इस प्रकार नव्यव्याकरण के सतत विकास की यह परम्परा भट्टोजिदीक्षित से लेकर पुष्पा दीक्षित तक अविच्छिन्न चल रही है। वे बीसवीं तथा इक्कीसवीं खीष्ट शताब्दी की महामहिम वैयाकरण हैं। उनकी कृतियों से यह भारतवर्ष कृतार्थ है। आगे शुभाशीर्वाद है कि वे अन्य वेदाङ्गों पर कार्य करके इस पद्धति को पूर्णता दें। शुभं भूयात् ।। उज्जयिनी, १५.११.२००४ उज्जयिनी, १५.११.२००४ HapMIO/ 27Mil जयति पाणिनिर्जयति पुष्पा अष्टाध्यायी के कुल 3183 सूत्रों में तृतीय से पञ्चम अध्याय पर्यन्त 1821 सूत्र (देखिए प्रत्ययः 3.1.1; निष्प्रवाणिश्च 5.4. 160) ‘प्रत्यय’ के अधिकारक्षेत्र में आते हैं। जहाँ तृतीय अध्याय के 631 सूत्र धातुओं से धातुरूपात्मक (तिङ्) एवं प्रातिपदिकरूपात्मक (कृत्) प्रत्ययों का (दे.गुप् तिकिझ्यः सन् 3.1.5; सनाद्यन्ता धातवः 32, कृदतिङ् 93, कृत्याः 95; ण्वुल्तृचौ 133. कर्तरि कृत् 3.4.67; छन्दस्युभयथा 117) प्रतिपादन करते हैं वहीं चतुर्थ एवं पञ्चम अध्यायों के 1190 सूत्र स्त्रीप्रत्यय-समासान्त सहित (स्त्रियाम् 4.1.3; तद्धिताः 76; समासान्ताः 5.4.68) तद्धित प्रत्ययों का साङ्गोपाङ्ग निरूपण करते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि ‘पाणिनीय महाशास्त्र’ में प्रत्ययों को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है। लगभग 50 प्रतिशत सूत्र केवल प्रत्ययों के विधिनिषेध से ही सम्बन्ध रखते हैं। तद्धित के कम से कम दो ऐसे प्रयोग (इयत्, अधुना) हैं जहाँ पाणिनीय परम्परा में प्रकृति सर्वांशतः लुप्त हो जाती है और केवल प्रत्यय ही शेष रह जाता है। किसी आचार्य ने इस प्रत्ययैकशेषविधान’ को बड़े अच्छे ढंग से ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या-इस वेदान्त वाक्य के साथ जोड़ा है ः उदितवति ‘परस्मिन्’ ‘प्रत्यये ‘शास्त्रयोनौ’ गतवति विलयं च ‘प्राकृते’ऽस्मिन् प्रपञ्चे। सपदि ‘पद’मुदीते केवलः प्रत्ययो यत् तादिय’दिति मिमीते कोऽ’धुना’ पण्डितोऽपि।। अष्टाध्यायी के तृतीय से पञ्चम अध्याय तक वर्णित प्रत्ययों को अच्छी तरह समझने के लिए उनके दृश्य और अदृश्य सहचरों (इड्विधान, अनुबन्ध, गुण, वृद्धि आदि) का ज्ञान भी आवश्यक है। सिद्धान्तकौमुदी से इन आवश्यकताओं की पूर्ति बहुत कुछ हो जाती है। किन्तु आज की स्थिति में, उन्हें और भी अधिक सरल शैली में प्रस्तुत करने की आवश्यकता है। यह बड़ी प्रसन्नता की बात है कि महामहिम राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित विदुषी डॉ. श्रीमती पुष्पा दीक्षित ने अपने अष्टाध्यायी सहजबोध के माध्यम से सरल हिन्दी में अष्टाध्यायी की गुत्थ्यिों को, प्रयोग की दृष्टि से, सुलझाने का अभिनन्दनीय प्रयास किया है। अष्टाध्यायीक्रम एवं सिद्धान्त कौमुदीक्रम-दोनों क्रमों को मिलाकर उन्होंने प्रस्तुत खण्ड में पाणिनीय प्रत्ययों एवं उनके सहचरों’ को इस तरह आलोकित किया है कि सामान्य बुद्धि वाले हिन्दी पाठकों को भी इन्हें समझने में कोई कठिनाई नहीं होगी। ‘इड्विधान’ एवं तद्धित के पाँच महोत्सर्गों के प्रतिपादन इसके उदाहरण हैं। ‘गागर में सागर’ भरने का यह अपूर्व निदर्शन है। पाणिनीय ‘सूक्ष्मेक्षिका’ आज न केवल भारत में, अपितु समस्त विश्व में भाषावैज्ञानिकों को चमत्कृत एवं प्रभावित कर रही है। अपने देश में उसे सुसज्जित और विकसित करने की दिशा में विदुषी लेखिका का यह प्रयास अत्यन्त अभिनन्दनीय है। जयति पाणिनिर्जयति पुष्पा! एमकर - रामकरण शर्मा वसन्त पञ्चमी वि.सं. 2061 14-2-05 प्रास्ताविकम् ‘ण्वुल्तृचौ’ सूत्र धातुमात्र से ण्वुल् और तृच् प्रत्ययों का विधान करता है। अतः जब तक हम सारे धातुओं से ण्वुल् और तृच् प्रत्यय न लगा लें, तब तक इस सूत्र की कृतार्थता नहीं होती। इसी प्रकार निष्ठा’ सूत्र धातुमात्र से क्त, क्तवतु प्रत्ययों का विधान करता है। अतः जब तक हम सारे धातुओं से क्त, क्तवतु प्रत्यय न लगा लें, तब तक इस सूत्र की कृतार्थता नहीं होती। इसी प्रकार तुमुन्, तव्य आदि प्रत्ययों के विषय में जानना चाहिये। कौमुदी में इन सूत्रों के कुछ उदाहरण देकर शेष सारा कार्य अध्येता की समझ पर छोड़ दिया गया है, जो कि दुष्कर है। __निष्ठा प्रत्यय की इडागम व्यवस्था अत्यन्त क्लिष्ट है। इसमें अतिदेश भी बहुत सारे हैं। अतः इस ‘अष्टाध्यायी सहज बोध’ में सर्वथा नवीन विधि से प्रक्रिया का चिन्तन है। इसमें एक एक पाठ में एक एक प्रत्यय को लेकर उसके यावत् रूपों का विचार किया गया है। जो क्तिन् आदि प्रत्यय सारे धातुओं से नहीं लगते, उनमें धातुओं को इदमित्थम् विभाजित करके यह दिखा दिया है कि किस धातु से कौन सा प्रत्यय लगेगा। सारे धातओं के रूपों की सिद्धि के लिये सारे धातओं को १३ वर्गों में बाँट दिया सारे गया है। इनमें से एक वर्ग के एक धातु का रूप बनते ही उस वर्ग के सारे धातुओं के रूप स्वतः निष्पन्न हो जाते हैं। ऐसा कर देने से अत्यन्त लाभ यह हुआ है कि एक धातु के रूप बनाने की प्रक्रिया जानते ही छात्र उसी के समान सैकड़ों रूप स्वयं बोलने लगता है क्योंकि पाणिनीय शास्त्र वस्तुतः गणितीय विधि से व्यवस्थित है। जैसे ऋकारान्त ‘कृ’ धातु से कृत बनता है, वैसे ही अन्य ऋकारान्त हृ, वृ, भृ, धृ, मृ आदि धातुओं से हृत, वृत, भृत, धृत, मृत रूप ही बनेंगे। अनिट् मकारान्त गम् धातु से गत बनता है, तो अनिट् मकारान्त रम्, यम्, नम्, से रत, यत, नत ही बनेंगे, यह बात एक बच्चा भी समझ सकता है, किन्तु यदि हम इनमें से कृत को ककारादि धातुओं में डाल दें, हृत को हकारादि धातुओं में डाल दें, मृत को मकारादि धातुओं में डाल दें, . धृत को धकारादि धातुओं में डाल दें, वृत को वकारादि धातुओं में डाल दें, तो इनके रूप तो छात्र जान जायेगा, किन्तु उन्हें बनाने का विज्ञान क्या है, जिसे जानकर वह स्वयं बना ले, कभी नहीं जान पायेगा। अध्येता का परिश्रम उसके लिये बोझ न बने, इसके लिये आवश्यक है कि धातुरूप तथा कृदन्त रूप बनाने का कार्य धातुओं के अन्तिम अक्षर के क्रम से ही किया जाये। अष्टाध्यायी में धातु सम्बन्धी अङ्गकार्य भी इसी क्रम से हैं। __इस कृदन्त खण्ड के दो वर्ग हैं। पूर्वार्ध में एक एक प्रत्यय को लेकर उसे सारे धातुओं में लगाने की प्रक्रिया का विचार है तथा उत्तरार्ध में सूत्रों की अष्टाध्यायी क्रम से व्याख्या है। विश्वभाषा संस्कृत के विराट् वाङ्मय में जन जन का प्रवेश हो सके, इस दिशा में यह यत्न है। जिन्हें प्रक्रिया के बिना सीधे किसी भी कृत् प्रत्यय का तैयार रूप देखना है, उनके लिये ‘कृदन्तसरणिः’ है। इसमें धातुओं के इसी क्रम को अङ्गीकार करके सारे कृदन्तरूप हैं। इस क्रम से सारे समानाकार रूप एक साथ इकट्ठे हो जाने से यह सरणि कविकर्म के लिये नितान्त उपयोगी हो जाने से इसका अपर नाम ‘कविकर्मरसायनम्’ भी रखा है। पाणिनीय शास्त्र को गणितीय विधि से देखने की दृष्टि पूज्यपाद पिताजी, प्राणाचार्य पण्डित सुन्दरलाल जी शुक्ल ने बाल्यावस्था में ही दे दी थी। उसके बाद जब पूज्यपाद गुरुवर्य आचार्य पण्डित विश्वनाथ जी त्रिपाठी से सिद्धान्तकौमुदी का अध्ययन किया, तब भी वह संस्कार चित्त में स्थिर था। इन दोनों महनीय आचार्यों के पूज्य श्रीचरण ही इस कार्य के बीज हैं। __ जिनके गर्भ में वास ही पाणिनीयशास्त्र में प्रवेश का हेतु बना, उन पूजनीया जननी सौ. जानकीदेवी के ऋण से मुक्त होने के लिये अनन्त जन्म भी अत्यल्प हैं। _अपनी प्रतिभा से पण्डित समुदाय को निस्तेज कर देने वाले, पिताजी और गुरुदेव के समवेत विग्रह, अपरपाणिनि, आचार्य डॉ. बच्चूलाल जी अवस्थी ने इस कार्य को करने की दिव्यदृष्टि मुझे दी है, और पदे पदे मेरी शङ्काओं को निर्मूल किया है। उनके श्रीचरणों में मैं कोटिशः प्रणाम अर्पित करती हूँ। पूज्य पतिदेव प्रो. शिवप्रसाद जी दीक्षित का अखण्ड सहयोग इस कार्य में रहा है है। उन्होंने सर्वतोभावेन इस कार्य की पूर्णता की कामना की है। हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर के आचार्य डॉ. राधावल्लभ जी त्रिपाठी जो मेरे अनुजकल्प हैं, उनकी प्रेरणा ही इसे ग्रन्थबद्ध करने का हेतु है। जिनकी शास्त्रसाधना से काशी की विद्वत्परम्परा अखण्ड है, ऐसे परमपूज्य गुरुदेव आचार्य डॉ. रामयत्न शुक्ल जी तथा सुप्रसिद्ध वैयाकरण पूज्य आचार्य डॉ. रामकरण जी शर्मा, इस कार्य में मेरे पथप्रदर्शक हैं। पाणिनीय शास्त्र में जिनकी गति निर्बाध है, ऐसी प्रिय मित्र डॉ. मनीषा पाठक का इस कार्य में जो असीम सहयोग मिला है, वह शब्दवाच्य नहीं हैं। पूज्याग्रजा श्रीमती कृष्णकान्ता वाजपेयी, श्रीमती चन्द्रकान्ता मिश्र, श्रीमती सुशीला वाजपेयी श्रीमती सूर्यकान्ता वाजपेयी, डॉ. ज्ञानवती अवस्थी तथा अनुज डॉ. शिवदत्त शुक्ल और डॉ. विष्णुदत्त शुक्ल ने पूज्य पिताजी का प्रतिबिम्ब मुझ जैसे अल्पज्ञ में देखना चाहा है। मुझे विश्वास है कि वे मेरे इस कार्य से अवश्य तुष्ट होंगे। - मैं अपने महाविद्यालय की प्राचार्या डॉ. शीला तिवारी की भी कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने इस कार्य की गुरुता को समझकर, मुझे निर्विघ्न कार्य करने का अवसर दिया। पूज्य गुरुवर्य डॉ. कृष्णकान्त जी चतुर्वेदी (जबलपुर), वेद, भारतीय दर्शन, भारतीय इतिहास तथा गणित के विद्वान् मनीषी अग्रजकल्प डॉ. विष्णुकान्त वर्मा (बिलासपुर), संस्कृत के प्रकृष्ट विद्वान् आचार्य डॉ. ओमप्रकाश त्रिवेदी, आई. पी. एस. (बिलासपुर), श्रीमती गीता त्रिवेदी, कविराज डॉ. अभिराज राजेन्द्र मिश्र तथा डॉ. श्रीमती राजेश मिश्र (वाराणसी), डॉ. श्रीमती सत्यवती त्रिपाठी, सागर, कविवर डॉ. रमाकान्त शुक्ल (दिल्ली), डॉ. इच्छाराम द्विवेदी (दिल्ली), डॉ. भास्कराचार्य त्रिपाठी (भोपाल), वैयाकरण डॉ. किशोरचन्द्र पाढी (पुरी), डॉ. अच्युतानन्द दाश (सागर), संगणकयन्त्र से शास्त्रों को सम्बद्ध करने वाले श्री पी. रामानुजन् बिंगलोर), डॉ. सरोजा भाटे (पुणे), वैयाकरण श्रीनिवासाचार्य जी त्रिपाठी (बिलासपुर), वैयाकरण डॉ. कमलाप्रसाद पाण्डेय (बिलासपुर), संस्कृत के महाकवि डॉ. पूर्णचन्द्र शास्त्री (बरगढ़), वैयाकरण डॉ. कामताप्रसाद त्रिपाठी, (खैरागढ़) प्रभृति प्रभृति देश के मूर्धन्य संस्कृत विद्वज्जनों का समग्र भावजगत् ही इस कार्य की आकृति में प्रकट हुआ है। मैं उन सभी की कृतज्ञ हूँ। दर्शनशास्त्र की आचार्या अनन्य मित्र कु. ललिता वर्मा (जबलपुर), पुत्र श्री अजेय त्रिवेदी और स्नुषा डॉ. पद्मा त्रिवेदी का समग्र अन्तर्मन इस कार्य के साथ अनवरत संलग्न था, अतः ये सभी इस कार्य के कारण हैं। जिसके कण्ठ में पाणिनीय शास्त्र विद्यमान है, जिसकी विद्या रसनाग्रनर्तकी है और मध्यप्रदेश का संस्कृत भविष्य जिसके हाथों में है, ऐसी पुत्रीकल्पा डॉ. पूर्णिमा केलकर, का भी इस ग्रन्थ में अपार सहयोग है। __ जब इस कार्य को प्रारम्भ किया था, तब शिष्य अभिजित् दीक्षित तीन वर्ष का था। आज वह २१ वर्ष का है। उसने इस ग्रन्थ के उट्टकण के कार्य में समग्र सहयोग दिया है। वह पाणिनीयविज्ञान को भी आरपार जानता है। अष्टाध्यायी की इस नवीन विधि का वह प्रत्यक्ष निदर्शन है। डॉ. राजकुमार तिवारी, डॉ. राजुल जैन, कु. वर्षा जैन, डॉ. दीप्ति तिवारी, डॉ. अनीता जैन, टी. एम. नरेन्द्रन्, गिरधारीलाल शर्मा, प्रभृति छात्रों के सतत सहयोग से इसका लेखन यथासमय सम्पन्न हो सका है। अल्पज्ञजीव की कृति परिपूर्ण हो नहीं सकती अतः समग्र अवधानता के बाद भी कमियाँ बहुत सी रह ही गई होंगी। विद्वज्जन इसे मेरी अल्पज्ञता समझकर क्षमा करें तथा उनका समाधान करके उपकृत करें, यही निवेदन है। अनन्त शब्दव्योम में यह अल्पज्ञ जीव कितनी दूर तक उड़ सका है, इसे विज्ञ पाठक ही तय कर सकेंगे। पाणिनीयमहाशास्त्र का एक भी जिज्ञासु, यदि इससे कुछ पा सका, तो यही इसकी कृतार्थता होगी। जो अव्यक्त, सर्वकारण, सर्वज्योतिः, निर्गुण, निर्विकार, अनिर्वचनीय, निष्क्रिय, केवल, विशुद्धसत्तास्वरूप होते हुए भी जगत् की प्रत्येक क्रिया में लीलारत हैं, उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र की यह कृति है। मेरा कहने को कुछ भी नहीं। विजयादशमी, विक्रमाब्द २०६१ २३. १०. २००४ पारित्र विषयानुक्रमणिका विषय पृष्ठसंख्या १ - ७ १ - २२ २३ - ७६ ७७ - ४१९ ७७ - ८१ २०६ - २११ ३४३ - ३८५ १७३ १७४ १६४ १५३ भूमिका विषयप्रवेश धातुओं में सार्वधातुक कृत् प्रत्यय लगाने की विधि । धातुओं में आर्धधातुक कृत् प्रत्यय लगाने की विधि - आर्धधातुक कृत् प्रत्यय लगाने की सामान्य विधि कित्, ङित्, गित् प्रत्यय सम्बन्धी अङ्गकार्य स्त्र्यधिकार के प्रत्यय अतिदेश अङ्गकार्य इडागम हल् सन्धि धात्वादेश अष्टाध्यायी की संरचना अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय - प्रथमपाद की व्याख्या अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय - द्वितीयपाद की व्याख्या अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय - तृतीयपाद की व्याख्या अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय - चतुर्थपाद की व्याख्या धातुओं में कृत् प्रत्यय लगाने की विधि अ प्रत्यय लगाने की विधि अङ् प्रत्यय लगाने की विधि अच् प्रत्यय लगाने की विधि अण् प्रत्यय लगाने की विधि अतुन् प्रत्यय लगाने की विधि १७२ ४२० ४३५ ४५४ ४९७ ५३५ १३६, ३४६ ३५२, ४१७ १२८ ११० १३६ xii १३५ १४१ १४१ १३४, ३५७ १२० १३१ १४१ १४१ १३६ १३५ अथुच् प्रत्यय लगाने की विधि अध्यै प्रत्यय लगाने की विधि अध्यैन् प्रत्यय लगाने की विधि अनि प्रत्यय लगाने की विधि अनीयर् प्रत्यय लगाने की विधि अप् प्रत्यय लगाने की विधि असे प्रत्यय लगाने की विधि असेन् प्रत्यय लगाने की विधि आरु प्रत्यय लगाने की विधि आलुच् प्रत्यय लगाने की विधि इक प्रत्यय लगाने की विधि इकवक प्रत्यय लगाने की विधि इक प्रत्यय लगाने की विधि इञ् प्रत्यय लगाने की विधि इण् प्रत्यय लगाने की विधि इत्र प्रत्यय लगाने की विधि | इन् प्रत्यय लगाने की विधि इनि प्रत्यय लगाने की विधि इनुण प्रत्यय लगाने की विधि इष्णुच् प्रत्यय लगाने की विधि इष्यै प्रत्यय लगाने की विधि उ प्रत्यय लगाने की विधि उकञ् प्रत्यय लगाने की विधि उण् प्रत्यय लगाने की विधि ऊक प्रत्यय लगाने की विधि क प्रत्यय लगाने की विधि कञ् प्रत्यय लगाने की विधि कध्यै प्रत्यय लगाने की विधि १३८ १३८ ३५६ ११३, ३५६ ३५६ १३५ १३५ १३५ ११४ १३७ १३७ १३७ ११२ ११२ १५० ४०९ ४०८ ४१९ xiii ४१९ ४०९ ३९४ ४११ ४१९ ३९२ ४१३, ४१५ ४१३ ४१३ ४१३ ४१३ ४१३ ४१३ कध्यैन् प्रत्यय लगाने की विधि कप् प्रत्यय लगाने की विधि कमुल् प्रत्यय लगाने की विधि कसुन् प्रत्यय लगाने की विधि कसेन् प्रत्यय लगाने की विधि कानच् प्रत्यय लगाने की विधि कि प्रत्यय लगाने की विधि किन् प्रत्यय लगाने की विधि करच प्रत्यय लगाने की विधि कै प्रत्यय लगाने की विधि के प्रत्यय लगाने की विधि केन् प्रत्यय लगाने की विधि केन्य प्रत्यय लगाने की विधि केलिमर् प्रत्यय लगाने की विधि क्तिच् प्रत्यय लगाने की विधि क्तिन् प्रत्यय लगाने की विधि क्त्वा प्रत्यय लगाने की विधि वित्र प्रत्यय लगाने की विधि क्नु प्रत्यय लगाने की विधि क्मरच् प्रत्यय लगाने की विधि क्यप् प्रत्यय लगाने की विधि कू प्रत्यय लगाने की विधि क्लुकन् प्रत्यय लगाने की विधि क्वनिप् प्रत्यय लगाने की विधि क्वरप् प्रत्यय लगाने की विधि क्वसु प्रत्यय लगाने की विधि क्विन् प्रत्यय लगाने की विधि क्विप् प्रत्यय लगाने की विधि ४११ ३९४ ३५७ २८३ ४१७ ४११ ४१२ ३४४,३९५ ४१५ ४१५ ४११ ४१२ ३८६ ४०६ ३४३, ३९७ xiv ४०९ ४१९ १४३ ११५ १४५ १४६ १४६ ४१५ १५० २३ १०७ १५० क्स प्रत्यय लगाने की विधि क्से प्रत्यय लगाने की विधि खच् प्रत्यय लगाने की विधि खमुञ् प्रत्यय लगाने की विधि खल् प्रत्यय लगाने की विधि खिष्णुच् प्रत्यय लगाने की विधि खुकञ् प्रत्यय लगाने की विधि ख्युन् प्रत्यय लगाने की विधि ग्स्नु प्रत्यय लगाने की विधि घ प्रत्यय लगाने की विधि घञ् प्रत्यय लगाने की विधि घिनुण् प्रत्यय लगाने की विधि घुरच् प्रत्यय लगाने की विधि वनिप् प्रत्यय लगाने की विधि ज्युट प्रत्यय लगाने की विधि ट प्रत्यय लगाने की विधि टक प्रत्यय लगाने की विधि ड प्रत्यय लगाने की विधि डर प्रत्यय लगाने की विधि डु प्रत्यय लगाने की विधि ण प्रत्यय लगाने की विधि णच् प्रत्यय लगाने की विधि णमुल प्रत्यय लगाने की विधि णिनि प्रत्यय लगाने की विधि ण्यत् प्रत्यय लगाने की विधि ण्यूट प्रत्यय लगाने की विधि ण्वि प्रत्यय लगाने की विधि ण्विन् प्रत्यय लगाने की विधि ४११ ११३ १३८ ४१६ १४८ १४९ १४८ १०९ ११६ XV ९०, ३५६ ८२, ३५५ ४१९ १५२ १५२ १७५ १७५ ३५६ १७५ १७५ १७५ . १५२ ण्वुच् प्रत्यय लगाने की विधि ण्वुल् प्रत्यय लगाने की विधि तवेङ् प्रत्यय लगाने की विधि तवेन् प्रत्यय लगाने की विधि तवै प्रत्यय लगाने की विधि तव्य प्रत्यय लगाने की विधि तव्यत् प्रत्यय लगाने की विधि तिप् प्रत्यय लगाने की विधि तुमुन् प्रत्यय लगाने की विधि तुच् प्रत्यय लगाने की विधि तुन् प्रत्यय लगाने की विधि तोसुन् प्रत्यय लगाने की विधि त्वन् प्रत्यय लगाने की विधि थकन् प्रत्यय लगाने की विधि नङ् प्रत्यय लगाने की विधि नन् प्रत्यय लगाने की विधि नजिङ प्रत्यय लगाने की विधि नि प्रत्यय लगाने की विधि निष्ठा प्रत्यय निष्ठा प्रत्यय सम्बन्धी धात्वादेश निष्ठा प्रत्यय सम्बन्धी इडागम निष्ठा प्रत्यय सम्बन्धी नत्व विधि निष्ठा प्रत्यय सम्बन्धी अतिदेश निष्ठा प्रत्यय लगाने की विधि मनिन् प्रत्यय लगाने की विधि यत् प्रत्यय लगाने की विधि युच् प्रत्यय लगाने की विधि र प्रत्यय लगाने की विधि १५२ १४१ ४१७ १४१ ४१६ ३४३ २१२ २१३ २२७ २२९ २३१ १४० १४२ १३३, ३५४ १४१xvi १४१ ३३० १२७ १२६ १४० १४१ १४० १३९ ८९ रु प्रत्यय लगाने की विधि ल्यप् प्रत्यय लगाने की विधि ल्यु प्रत्यय लगाने की विधि ल्युट प्रत्यय लगाने की विधि वनिप् प्रत्यय लगाने की विधि वरच् प्रत्यय लगाने की विधि विच् प्रत्यय लगाने की विधि विट् प्रत्यय लगाने की विधि वुञ् प्रत्यय लगाने की विधि वुन् प्रत्यय लगाने की विधि षाकन् प्रत्यय लगाने की विधि ष्ट्रन् प्रत्यय लगाने की विधि ष्वन् प्रत्यय लगाने की विधि से प्रत्यय लगाने की विधि सेन् प्रत्यय लगाने की विधि परिशिष्ट - णिजन्त प्रक्रिया धातुपाठ १३४ १३२ १५१ १३४ १४१ १४१ ५५३ ५६८ धातुसूची ६०७ ६२२ सूत्रवार्तिकानुक्रमणिका अष्टाध्यायी सहजबोध, तृतीयखण्ड कृदन्तप्रकरण - पूर्वार्ध कृत् प्रत्ययों को लगाने की प्रक्रिया ।।श्रीहरिः।।