१३८ तृतीयाध्याये चतुर्थः पादः

का धातुसम्बन्धे प्रत्ययाः - (३.४.१) - दो धात्वर्थों का सम्बन्ध होने पर भिन्न काल में विहित प्रत्यय भी कालान्तर में साध होते हैं। धातु शब्द से यहाँ धात्वर्थ का ग्रहण करना चाहिये। वाक्य में प्रधान होने के कारण क्रिया की प्रधानता होती है और कारकों की गौणता होती है। अतः क्रिया को कहने वाले तिङन्तों की प्रधानता और सुबन्तों की गौणता होती है। इसलिये तिङन्त विशेष्य बनते हैं और सुबन्त विशेषण बन जाते हैं। अतः सुबन्त में होने वाले प्रत्यय जिस भी काल में कहे गये हों, तिङन्त का योग होने पर वे प्रत्यय तिङन्त के काल को ही कहने लगते हैं। यथा- अग्निष्टोमयाजी अस्य पुत्रो जनिता। यहाँ ‘अग्निष्टोमयाजी’ में यज् घातु से भूतकाल में करणे यजः (३.२.८५) सूत्र से ‘णिनि’ प्रत्यय हुआ है। अग्निष्टोमयाजी का अर्थ है अग्निष्टोमेन इष्टवान् । अर्थात् ऐसा व्यक्ति जिसने अग्निष्टोम यज्ञ किया है। जनिता में जन् धातु से अनद्यतन भविष्य अर्थ में ‘लुट प्रत्यय’ (३.३.१५) हुआ है। अब देखिये कि अग्निष्टोमयाजी में ‘णिनि’ प्रत्यय भूतकाल को कह रहा है और जनिता में लुट प्रत्यय भविष्यत्काल को कह रहा है। भूतकाल को कहने वाला अग्निष्टोमयाजी सुबन्त होने से विशेषण है और भविष्यत्काल को कहने वाला जनिता यहाँ तिङन्त होने से विशेष्य है। अग्निष्टोमयाजी और जनिता में जो धातु हैं, उन धातुओं के अर्थों का विशेषणविशेष्यभाव है। इस सूत्र से अग्निष्टोमयाजी शब्द अपने भूतकाल अर्थ को छोड़कर अब जनिता के भविष्यत्काल अर्थ को ही कहेगा। अतः अग्निष्टोमयाजी अस्य पुत्रो जनिता, इस वाक्य का अर्थ होगा - अग्निष्टोम यज्ञ करेगा, ऐसा उसका पुत्र होगा। कृतः कटः श्वो भविता। इसमें कृतः में कृ धातु से जो क्त प्रत्यय हुआ है वह भूते (३.२.८४) के अधिकार में होने के कारण भूतकाल अर्थ को कह रहा है। भविता में भू धातु से अनद्यतन भविष्य अर्थ में लुट् प्रत्यय (३.३.१५) हुआ है। अब देखिये कि कृतः में क्त प्रत्यय भूतकाल को कह रहा है और भविता में लुट् प्रत्यय भविष्यत्काल को कह रहा है। भूतकाल को कहने वाला कृतः सुबन्त होने से विशेषण है और भविष्यत्काल को कहने वाला भविता यहाँ विशेष्य है। कृतः और भविता का ५३६ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ विशेषणविशेष्यभाव से धात्वर्थसम्बन्ध है। अतः भिन्नकालोक्त कृतः और भविता भी साधु माने गये। इसलिये अर्थ हुआ - चटाई बनी, यह बात कल होगी। अत्यावश्यक - ३.४.२ से लेकर ३.४.८ तक के सूत्र कृत् प्रत्यय नहीं __ लगा रहे हैं, अपितु लकारार्थ को बतला रहे हैं, __अतः उन्हें छोड़कर हम आगे चलें - तुमर्थे सेसेनसेऽसेन्क्सेकसेनध्यैअध्यैन्कध्यैकध्यैन्शध्यैशध्यैन्तवैतवेङ्तवेनः - (३.४.९) - वेद विषय में धातुमात्र से तुमुन् प्रत्यय के अर्थ में, से, सेन् आदि प्रत्यय होते हैं। प्रयै रोहिष्यै अव्यथिष्यै - (३.४.१०) - प्रय, रोहिष्यै, अव्यथिष्यै ये शब्द तुमर्थ में निपातन किये जाते हैं। प्रयातुम् = प्रयै, रोढुं = रोहिष्यै, अव्यथितुम् = अव्यथिष्य । दृशे विख्ये च - (३.४.११) - दृशे और विख्ये ये शब्द भी तुमर्थ में निपातन किये जाते हैं। दृशे विश्वाय सूर्यम् । विख्ये त्वा हरामि। __ शकि णमुल्कमुलौ (३-४-१२) - शक् धातु उपपद में हो तो वेद के विषय में तुमर्थ में धातु से णमुल और कमुल् प्रत्यय होते हैं। अग्निं वै देवा विभाजम् नाशक्नुवन् (विभाजन नहीं कर सके।)। अपलुपं नाशक्नुवन्, (अपलोप नहीं कर सके।) ईश्वरे तोसुन्कसुनौ - (३.४.१३) - ईश्वर शब्द उपपद में हो तो वेद के विषय में तुमर्थ में धातु से तोसुन् और कसुन् प्रत्यय होते हैं। ईश्वरोऽभिचरितोः अभिचरितुमित्यर्थः । ईश्वरो विलिखः, विलेखितुमित्यर्थः । ईश्वरो वितृदः। __ कृत्यर्थे तवै केन्केन्यत्वनः - (३.४.१४)) - कृत्यार्थ में वेदविषय में धातु से तवै, केन, केन्य तथा त्वन् ये चार प्रत्यय होते हैं। अन्वेतवै, अन्वेतव्यमित्यर्थः । परिस्तवै परिस्तरितुमित्यर्थः । परिधातवै परिधातव्यमित्यर्थः । केन् - नावगाहे, नावगाहितव्यमित्यर्थः । दिदृक्षेण्यः, शुश्रूषेण्यः । कर्वं हविः, कर्तव्यमित्यर्थः । अवचक्षे च - (३.४.१५) - कृत्यार्थ अभिधेय हो तो अवपूर्वक चक्षिङ् धातु से शेन् प्रत्ययान्त अवचक्षे शब्द भी निपातन किया जाता है। अवचक्षे इति अवख्यातव्यमित्यर्थः। भावलक्षणे स्थेण्कृञ्वदिचरिहुतमिजनिभ्यस्तोसुन् - (३.४.१६) - भाव के लक्षण में वर्तमान स्था, इण, कृञ्, वदि, चरि, हु, तमि, जनि आदि धातुओं से तोसुन् प्रत्यय होता है। अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (चतुर्थ पाद) ५.३७ आ संस्थातोर्वेद्यां सीदन्ति । पुरा सूर्यस्योदेतोराधेयः । पुरा वत्सानामपाकर्ताः । पुरा प्रवदितोरग्नौ प्रहोतव्यम् । पुरा प्रचरितोराग्नीधे होतव्यम् । आ होतोरप्रमत्तस्तिष्ठति। आ तमितोरासीत। आ विजनितोः सम्भवामेति। सृपितृदो कसुन् - (३.४.१७) - भावलक्षण में वर्तमान सृपि तथा तृद् धातुओं से वेद विषय में तुमर्थ में कसुन् प्रत्यय होता है। पुरा क्रूरस्य विसृपो विरप्शिन् । पुरा जव॑भ्यः आतृदः। __ अलंखल्वोः प्रतिषेधयोः प्राचां क्त्वा - (३.४.१८)- प्रतिषेधवाची अलं तथा खलु शब्द उपपद रहते प्राचीन आचार्यों के मत में धातु से क्त्वा प्रत्यय होता है। अलं बाले रुदित्वा हि बालिके, मत रो)। अलं कृत्वा, (हे बालिके, मत कर)। खलु कृत्वा (ह बालिके, मत कर)। __अन्य आचार्यों का मत कहा है, अतः विकल्प से क्त्वा नहीं भी होता है। क्त्वा न होने पर भाव में ल्युट आदि प्रत्यय भी हो सकते हैं - अलं करणेन हि बालिके, मत कर), अलं रोदनेन (ह बालिके, मत रो)। खलु करणेन (ह बालिके, मत कर)।

  • उदीचां माडो व्यतीहारे- (३.४.१९)- व्यतीहार अर्थ वाले मेङ् धातु से उदीच्य आचार्यों के मत में क्त्वा प्रत्यय होता है। (यहाँ यह समझना चाहिये कि ‘समानकतृकयोः पूर्वकाले’ सूत्र से होने वाला क्त्वा प्रत्यय पूर्वकाल में होता है, यह क्त्वा अपूर्वकाल में हो रहा है, अतः पृथक् सूत्र बनाया।) अपमित्य याचते। (भिक्षुक पहिले माँगता है, बाद में विनिमय करता है, अतः याचना पूर्वकालिक है और विनिमय अपूर्वकालिक है। इस सूत्र से अपूर्वकालिक क्रिया से क्त्वा हो गया है।) __ अपमित्य हरति । (भिक्षुक पहिले लाता है, बाद में विनिमय करता है, अतः लाना पूर्वकालिक है और विनिमय अपूर्वकालिक है। इस सूत्र से अपूर्वकालिक क्रिया से क्त्वा हो गया है।) अन्य आचार्यों के मत में यथाप्राप्त पूर्वकालिक क्रियावाची धातु से क्त्वा भी हो सकता है। याचित्वा अपमयते। हृत्वा अपमयते। परावरयोगे च - (३.४.२०) - जब पर का योग अवर के साथ तथा पूर्व का योग पर के साथ गम्यमान हो तो भी धातु से क्त्वा प्रत्यय होता है। अप्राप्य नदी पर्वतः स्थितः (पर भाग में स्थित नदी के पूर्व में पर्वत स्थित है।)। ५३८ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ काM अतिक्रम्य तु पर्वतं नदी स्थिता (पूर्व भाग में स्थित पर्वत के बाद में नदी स्थित है।)। ,

क्त्वा तथा णमुल् प्रत्यय

जहाँ दो क्रियाओं में पौर्वापर्य होता है तथा उनका एक ही कर्ता होता है, उनमें जो पूर्वकाल में वर्तमान धातु है, उससे क्त्वा तथा णमुल् प्रत्यय होते हैं। असरूप अपवाद प्रत्यय होने के कारण विकल्प से दोनों हो सकते हैं। पर यह ध्यान रखना चाहिये कि उपसर्ग होने पर समासेऽनपूर्वे क्त्वो ल्यप्’ सूत्र से क्त्वा के स्थान पर ल्यप् आदेश हो जाता है, अतः सोपसर्ग धातुओं से ल्यप् और अनुपसर्ग धातुओं से क्त्वा प्रत्यय होगा। णमुल् प्रत्यय दोनों से ही हो सकेगा। समानकर्तृकयोः पूर्वकाले - (३.४.२१) - समान अर्थात् एक ही कर्ता है जिन दो क्रियाओं का, उनमें जो पूर्वकाल में वर्तमान धातु है, उससे क्त्वा प्रत्यय होता है। देवदत्तो भुक्त्वा व्रजति दिवदत्त खाकर जाता है।), देवदत्तः पीत्वा व्रजति, (दवदत्त पीकर जाता है।) देवदत्तः स्नात्वा भुङ्क्ते (दवदत्त नहाकर जाता है।)। यह क्त्वा पूर्वकालिक क्रिया से होता है। इसे ही पूर्वकालिक कृदन्त कहते हैं। आस्यं व्यादाय स्वपिति, चक्षुः सम्मील्य हसतीत्युपसंख्यानमपूर्वकालत्वात् । आस्यं व्यादाय स्वपिति (मुँह खोलकर सोता है।), चक्षुः सम्मील्य हसति (आँख बन्द करके हँसता है।) यहाँ यह अर्थ नहीं है कि पहिले मुँह खोलता है, तब सोता है अथवा इनमें पहिले आँख बन्द करता है, तब हँसता है। अतः यहाँ अपूर्वकालिक क्रिया से क्त्वा जानना चाहिये। आभीक्ष्ण्ये णमुल च - (३.४.२२) - आभीक्ष्ण्य अर्थात् पौनःपुन्य अर्थ में समानकर्तृक दो धातुओं में जो पूर्वकालिक धातु है, उससे णमुल् प्रत्यय होता है तथा चकार से क्त्वा प्रत्यय भी होता है । स्मारं स्मारं नमति शिवम्, स्मृत्वा स्मृत्वा नमति शिवम् (स्मरण कर करके शिव को नमन करता है।) भोजं भोजं व्रजति, भुक्त्वा भुक्त्वा व्रजति (खा खाकर जाता है।) __ नयद्यनाकाङ्क्ष (३.४.२३) - समानकर्तावाले धातुओं में से पूर्वकालिक धात्वर्थ में वर्तमान धातु से यद् शब्द के उपपद होने पर, णमुल तथा क्त्वा प्रत्यय नहीं होते हैं, यदि पूर्वोत्तर क्रियाओं को कहने वाला वाक्य, अन्य वाक्य की आकाङ्क्षा न रखता हो, तो। यदयं भुङ्क्ते, ततः पठति (यह पहले खा लेता है, तभी पढ़ता है।) यदयं अधीते, ततः शेते (यह पहले पढ़ लेता है, तभी सोता है।) अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (चतुर्थ पाद) विभाषाग्रेप्रथमपूर्वेषु - (३.४.२४) - अग्रे, प्रथम, पूर्व शब्द उपपद हों, तो समानकर्तृक पूर्वकालिक धातु से आभीक्ष्ण्य अर्थ न होने पर भी विकल्प से क्त्वा, णमुल् प्रत्यय होते हैं । अग्रे भोजं व्रजति । अग्रे भुक्त्वा व्रजति । प्रथमं भोजं व्रजति । प्रथम भुक्त्वा व्रजति । पूर्वं भोजं व्रजति । पूर्वं भुक्त्वा व्रजति । (ध्यान दें कि आभीक्ष्ण्य अर्थ न होने के कारण णमुलन्त पद को द्वित्व नहीं हुआ है।) __ कर्मण्याक्रोशे कृत्रः खमुञ् - (३.४.२५) - कर्म उपपद में रहते, आक्रोश गम्यमान होने पर समानकर्तृक पूर्वकालिक कृञ् धातु से खमुञ् प्रत्यय होता है। चौरकारमाक्रोशति । (चोर है, ऐसा कहकर चिल्लाता है।) इसी प्रकार - दस्युड्कारमाक्रोशति । स्वादुमि णमुल् (३-४-२६) - स्वादुवाची शब्द उपपद में होने पर समानकर्तृक पूर्वकालिक कृञ् धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। स्वादुङ्कारम् भुङ्क्ते । इसका अर्थ है कि जो वस्तु अस्वाद्वी है, उसे स्वाद्वी बनाकर खाता है। यहाँ स्वादु शब्द को मान्तत्व निपातन हुआ है। इसी प्रकार - सम्पन्नङ्कारम् भुङ्क्ते । लवणकारम् भुङ्क्ते। अन्यथैवंकथमित्थं सुसिद्धाप्रयोगश्चेत् (३-४-२७) - अन्यथा, एवं, कथं शब्दों के उपपद में होने पर समानकर्तृक पूर्वकालिक कृञ् धातु से णमुल् प्रत्यय होता है, यदि कृ धातु का अप्रयोग सिद्ध हो, तो। __ अन्यथाकारम् भुङ्क्ते (अन्यथा करके खाता है।)। एवङ्कारम् भुङ्क्ते (इस प्रकार खाता है।) कथकारम् भुङ्क्ते (किस प्रकार खाता है।) । इत्थङ्कारम् भुङ्क्ते (इस प्रकार खाता है।) यहाँ यदि कृ धातु के बिना, केवल अन्यथा भुते कहा जाता, तब भी वही अर्थ निकल सकता था, अतः कृ धातु का प्रयोग भी अप्रयोग जैसा है। यथातथयोरसूयाप्रतिवचने (३-४-२८)- यथा, तथा शब्द उपपद रहते निन्दा से प्रत्युत्तर गम्यमान हो तो कृञ् धातु से णमुल् प्रत्यय होता है, यदि कृञ् का अप्रयोग सिद्ध हो तो। यथाकारमहम् भोक्ष्ये, तथाकारम्, किं तवानेन। कर्मणि शिविदोः साकल्ये (३-४-२९) - साकल्य = सम्पूर्णताविशिष्ट कर्म उपपद हो तो दृशिर् तथा विद् धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। यवनदर्शम् हन्ति (जिसे जिसे यवन देखता है, सबको मारता है।) ब्राह्मणवेदं भोजयति (जिसे जिसे ब्राह्मण समझता है, सबको खिलाता है।)। यावति विन्दजीवोः (३-४-३०) - यावत् शब्द उपपद में रहते विद्लु लाभे एवं जीव प्राणधारणे धातुओं से णमुल् प्रत्यय होता है। यावद्वेदं भोजयति (जितना पाता ५४० अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ है, उतना खिलाता है।) यावज्जीवमधीते (जब तक जीता है, तब तक पढ़ता है।) चर्मोदरयोः पूरे (३-४-३१) - चर्म तथा उदर कर्म उपपद में होने पर ण्यन्त पूरी धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। चर्मपूरं स्तृणाति (सब चमड़े को ढाँकता है।)। उदरपूरं भुङ्क्ते (पट को भरते हुए खाता है।) वर्षप्रमाण ऊलोपश्चास्यान्यतरस्याम् (३-४-३२)- वर्षा का प्रमाण गम्यमान हो तो कर्म उपपद में होने पर ण्यन्त पूरी धातु से णमुल् प्रत्यय होता है तथा इस पूरी धातु के ऊकार का विकल्प से लोप होता है। गोष्पदप्रम् वृष्टो देवः, गोष्पदपूरं वृष्टो देवः (भूमि में गाय के खुर से होने वाले गड्ढे के भरने जितनी वर्षा हुई।) सीताप्रम् वृष्टो देवः, सीतापूरं वृष्टो देवः (भूमि में हल के फाल से होने वाले गड्ढे के भरने जितनी वर्षा हुई।) । चेलेः क्नोपे (३-४-३३) - चेलवाची कर्म उपपद में हो तो वर्षा का प्रमाण गम्यमान होने पर ण्यन्त क्नूयी धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। चेलक्नोपम् वृष्टो देवः, वस्त्रक्नोपं, वसनक्नोपम्। (कपड़ा भीग जाये, इतनी वर्षा हुई।) निमूलसमूलयोः कषः (३-४-३४) - निमूल तथा समूल शब्द उपपद में होने ल प्रत्यय होता है। निम (जड़ को छोड़कर काटता है।) समूलकाषम् कषति (जड़ समेत काटता है।) शुष्कचूर्णरूक्षेषु कषः (३-४-३५) - शुष्क, चूर्ण तथा रूक्ष कर्म उपपद में होने पर पिष् धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। शुष्कपेषम् पिनष्टि (सूखे को पीसता है)। चूर्णपषम् (चूर्ण को पीसता है।)। रूक्षपेषम् (रूखे को पीसता है।) समूलाकृतजीवेषु हन्कृञ्ग्रहः (३-४-३६) - समूल, अकृत तथा जीव कर्म उपपद में हो तो यथासङ्ख्य करके हन्, कृञ् तथा ग्रह धातुओं से णमुल् प्रत्यय होता है। समूलघातम् हन्ति (मूल समेत मारता है।)। अकृतकारम् करोति (न किये को करता है।) जीवग्राहम् गृह्णाति (जिन्दा पकड़ता है।) __करणे हनः (३-४-३७) - करणकारक उपपद में हो तो हन् धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। पाणिभ्यामुपहन्ति इति पाण्युपघातं वेदिं हन्ति (हाथों से वेदी को कूटता है।) पादाभ्यामुपहन्ति इति पादोपघातं वेदिं हन्ति (पैरों से वेदी को कूटता है।) पूर्वविप्रतिषेधेन हन्तेहिँसार्थस्यापि प्रत्ययोऽनेनैवेष्यते (वा.)- हिंसार्थक हन् धातु से भी णमुल् प्रत्यय इसी सूत्र से, पूर्वविप्रतिषेध के कारण होता है, न कि आगे आने M P ATM OR INT IMIN " 0INT. ग

अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (चतुर्थ पाद) ५४१ वाले सूत्र हिंसार्थानां च समानकर्मकाणां’ से होता है। असिघातं हन्ति (तलवार से मारता है।) शरघातं हन्ति (बाण से मारता है।) स्नेहने पिषः (३-४-३८) - स्नेहनवाची करणकारक उपपद में हो तो पिष् धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। उदपेषं पिनष्टि (पानी से पीसता है।)। तैलपेषं पिनष्टि तिल से पीसता है।) __हस्ते वर्तिग्रहोः (३-४-३९) - हस्तवाची करणकारक उपपद में हो तो वृत् तथा ग्रह धातु से णमुल् प्रत्यय होता है । हस्तवर्तम् वर्तयति, करवर्तं वर्तयति (हाथ से गुलिका करता है।) हस्तग्राहं गृह्णाति, करग्राहं गृह्णाति (हाथ से ग्रहण करता है।)। स्वे पुषः (३-४-४०) - स्ववाची करण उपपद में होने पर पुष् धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। स्व शब्द के चार अर्थ होते हैं। आत्मा, आत्मीय, ज्ञाति और धन। __ इन चारों अर्थ वाले स्व शब्द से अथवा उसके पर्यायवाची शब्दों से भी णमुल् प्रत्यय होता है। __ आत्मा अर्थ में - स्वपोषम् पुष्णाति (अपने द्वारा पुष्ट करता है।) आत्मपोषं पुष्णाति। आत्मीय अर्थ में - गोपोषम् पुष्णाति। ज्ञाति अर्थ में - पितृपोषम् पुष्णाति । धन अर्थ में - धनपोषम् पुष्णाति, रैपोषम् पुष्णाति, आदि। अधिकरणे बन्धः (३-४-४१) - अधिकरणवाची शब्द उपपद होने पर बन्ध धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। चक्रे बध्नाति - चक्रबन्धम् बध्नाति (चके में बाँधता है।) इसी प्रकार - कूटे बध्नाति - कूटबन्धम् बध्नाति (निहाई में बाँधता है।) मुष्टौ बध्नाति - मुष्टिबन्धम् बध्नाति (मुट्ठी में बाँधता है।) चोरके बध्नाति - चोरकबन्धम् बध्नाति (चोरक में बाँधता है।) संज्ञायाम् (३-४-४२) - संज्ञाविषय में बन्ध् धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। क्रौञ्चबन्धम् बध्नाति । मयूरिकाबन्धम् बध्नाति ।अट्लालिकाबन्धम् बध्नाति। ये सब बन्धविशेष के नाम हैं। कोर्जीवपुरुषयोर्नशिवहोः - (३-४-४३) - कर्तृवाची जीव तथा पुरुष शब्द उपपद में हो तो यथासङ्ख्य करके नश् तथा वह धातुओं से णमुल् प्रत्यय होता है। जीवनाशं नश्यति (जीव नष्ट होता है।)। पुरुषवाहं वहति (पुरुष वहन करता है।) ५४२ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ ऊर्ध्वं शुषिपूरोः (३-४-४४) - कर्तृवाची ऊर्ध्व शब्द उपपद हो तो शुषि शोषणे तथा पूरी आप्यायने धातुओं से णमुल् प्रत्यय होता है। ऊर्ध्वशोषं शुष्यति (ऊपर सूखता है।)। ऊर्ध्वपूरम् पूर्यते (ऊपर भरता है)। उपमाने कर्मणि च (३-४-४५)- उपमानवाची कर्म उपपद रहते तथा चकार से कर्ता उपपद रहते भी धातुमात्र से णमुल् प्रत्यय होता है। जिससे उपमा दी जाये वह उपमान होता है। मातृधायम् धयति (जैसे माता का दूध पीता है, वैसे पीता है।)। गुरुसेवम् सेवते (जैसे गुरु की सेवा करता है, वैसे सेवा करता है।) सिंहगर्जम् गर्जति (जैसे सिंह गरजता है, वैसे गरजता है।)। बालकरोदम् रोदिति (जैसे बच्चा रोता है, वैसे रोता है।) कषादिषु यथाविध्यनुप्रयोगः (३-४-४६) - निमूलसमूलयोः कषः सूत्र से लेकर इस सूत्र तक के धातु कषादि धातु हैं। इनके लिये व्यवस्था यह है कि जिस भी धातु से णमुल् प्रत्यय करेंगे, उसी धातु का उस णमुलन्त के बाद प्रयोग करेंगे। __ उपदंशस्तृतीयायाम् (३-४-४७) - तृतीयान्त शब्द उपपद में रहते उपपूर्वक दंश धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। विशेष - उपदंशस्तृतीयायाम् (३.४.४७) सूत्र से लेकर अन्वच्यानुलोम्ये (३. ४.६४) सूत्र तक जितने भी उपपद कहे गये हैं, उनका तृतीयाप्रभृतीन्यन्यतरस्याम्’ (२.२.२१) सूत्र से विकल्प से समास होता है। अतः यहाँ से तीन तीन उदाहरण होंगे और समास हो जाने पर ‘समासेऽनपूर्वे क्त्वो ल्यप् (७.१.३७) सूत्र से क्त्वा के स्थान पर ल्यप् आदेश होगा।

  • मूलकेनोपदंशं भुङ्क्ते, मूलकोपदंशम् भुङ्क्ते । (मूली को काट काट कर भोजन करता है।) आर्द्रकेनोपदंशं भुङ्क्ते, आर्द्रकोपदंशम् भुङ्क्ते । (अदरख को काट काट कर भोजन करता है।) ल्यप् होने पर मूलकेनोपदश्य भुङ्क्ते। (यहाँ ध्यातव्य है कि मूलक आदि उपदंश क्रिया के कर्म हैं और भोजन क्रिया के करण हैं।) हिंसार्थानाम् च समानकर्मकाणाम् (३-४-४८) - अनुप्रयुक्त धातु के साथ समान कर्मवाली हिंसार्थक धातुओं से भी तृतीयान्त उपपद रहते णमुल् प्रत्यय होता है। __अनुप्रयोग किये हुए धातु का तथा जिससे णमुल् हो रहा हो उन धातुओं का समान कर्म होना चाहिये। दण्डेनोपघातं गाः कालयति। तृतीयाप्रभृतीन्यन्यतरस्याम्’ सूत्र से विकल्प से समास होकर - दण्डोपघातं गाः कालयति। अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (चतुर्थ पाद) ५४३ सप्तम्यां चोपपीडरुधकर्षः (३-४-४९) - तृतीयान्त तथा सप्तम्यन्त उपपंद हो तो उपपूर्वक पीड्, रुध् तथा भ्वादिगण के कृष् धातुओं से भी णमुल् प्रत्यय होता है। पीड् धातु से - तृतीयान्त उपपद होने पर - पार्वाभ्यामुपपीडं शेते (बगल से या बगल में दबाकर सोता है।)। सप्तम्यन्त उपपद होने पर - पार्श्वयोरुपपीडं शेते। तृतीयाप्रभृतीन्यन्यतरस्याम्’ सूत्र से विकल्प से समास होकर - पार्वोपपीडं शेते। रुध् धातु से - व्रजेनोपरोधं गाः स्थापयति / व्रजे उपरोधं गाः स्थापयति / समास होने पर - व्रजोपरोधं गाः स्थापयति।। कृष् धातु से - पाणिनोपकर्ष धानाः संगृह्णाति (हाथ से धानों को इकट्ठा करता है।)/ पाणावुपकर्षं धानाः संगृह्णाति / समास होने पर - पाण्युपकर्षं धानाः संगृह्णाति। समासत्तौ (३-४-५०) - समासत्ति अर्थात् सन्निकटता गम्यमान हो तो तृतीयान्त तथा सप्तम्यन्त उपपद रहते धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। सप्तम्यन्त उपपद होने पर - केशेषु ग्राहं युध्यन्ते / केशैाहं युध्यन्ते / तृतीयाप्रभृतीन्यन्यतरस्याम् सूत्र से विकल्प से समास होकर - केशग्राहं युध्यन्ते (केश पकड़ पकड़कर युद्ध कर रहे हैं)। इसी प्रकार हस्तेषु ग्राहं युध्यन्ते / हस्तैर्ग्राहं युध्यन्ते / हस्तग्राहं युध्यन्ते (हाथ पकड़ पकड़कर युद्ध कर रहे हैं), आदि बनाइये। प्रमाणे च (३-४-५१) - प्रमाण = लम्बाई गम्यमान हो तो भी सप्तम्यन्त तथा तृतीयान्त उपपद रहते धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। व्यङ्गुलेनोत्कर्ष खण्डिकां छिनत्ति । द्वयङ्गुल उत्कर्षं खण्डिकां छिनत्ति/ समास होने पर - व्यङ्गुलोत्कर्ष खण्डिका छिनत्ति (दो दो अङ्गुल छोड़ छोड़कर लकड़ी के टुकड़े काटता है।)
  • अपादाने च परीप्सासाम् (३-४-५२) - परीप्सा = शीघ्रता गम्यमान हो तो अपादान उपपद रहते धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। शय्याया उत्थायं धावति। समास होने पर - शय्योत्थायं धावति (खाट से उठकर भागता है।) द्वितीयायां च (३-४-५३) - द्वितीयान्त उपपद रहते भी शीघ्रता गम्यमान हो तो धातु से णमुल प्रत्यय होता है। यष्टिं ग्राहं युध्यन्ते । असिं ग्राहं युध्यन्ते । लोष्टं ग्राहं युध्यन्ते। समास होने पर - यष्टिग्राहं युध्यन्ते। असिग्राहं युध्यन्ते। लोष्टग्राहं युध्यन्ते। स्वाङ्गे ध्रुवे (३-४-५४) - अध्रुव स्वाङ्गवाची द्वितीयान्त शब्द उपपद रहते धात से णमल प्रत्यय होता है। अक्षि निकाणं जल्पति (आँख बन्द करके बडबडाता है।). ध्रुवं विक्षेपं कथयति (भौंह मटकाकर कहता है।)। ५४४ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ समास होने पर - अक्षिनिकाणं जल्पति, भ्रूविक्षेपं कथयति। (जिस अङ्ग के कट जाने पर भी प्राणी मरे नहीं, उसे अध्रुव अङ्ग कहते हैं। इसलिये शिरः उत्क्षिप्य कथयति में समास नहीं होगा।) से परिक्लिश्यमाने च (३-४-५५) - चारों ओर से क्लेश को प्राप्त हो रहा हो ऐसा स्वाङ्गवाची द्वितीयान्त शब्द उपपद हो तो भी धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। उरः पेषं युध्यन्ते, उरःपेषं युध्यन्ते (सम्पूर्ण छाती को कष्ट देते हुए लड़ते हैं।) शिरः पेषं युध्यन्ते, शिरःपेषम् युध्यन्ते (सम्पूर्ण सिर को कष्ट देते हुए लड़ते हैं।)। विशिपतिपदिस्कन्दां व्याप्यमानासेव्यमानयोः (३-४-५६) - व्याप्यमान तथा आसेव्यमान गम्यमान हो तो द्वितीयान्त उपपद रहते विशि, पति, पदि तथा स्कन्द धातुओं से णमुल् प्रत्यय होता है। समास होने पर - गेहानुप्रवेशमास्ते (घर घर में घुसकर रहता है।) इसी प्रकार - गेहानुप्रपातमास्ते। गेहानुप्रपादमास्ते । गेहावस्कन्दमास्ते। __ ध्यान दें कि समास होने पर वीप्सा अर्थ समास से उक्त हो जाने के कारण ‘नित्यवीप्सयोः ८.१.४’ सूत्र से द्वित्व नहीं होता है, किन्तु समास न होने पर द्वित्व होगा। असमासपक्ष में व्याप्यमानता अर्थ होने पर द्रव्यवाची शब्द को द्वित्व होगा और आसेवा अर्थ होने पर क्रियावाची शब्द को द्वित्व होगा। व्याप्यमानता अर्थ में द्रव्यवाची शब्द को द्वित्व करके - गेहं गेहमनुप्रवेशमास्ते। गेहं गेहमनुप्रपातमास्ते। गेहं गेहमनुप्रपादमास्ते। गेहं गेहमवस्कन्दमास्ते। आसेवा अर्थ में क्रियावाची शब्द को द्वित्व करके - गेहमनुप्रवेशमनुप्रवेशमास्ते। गेहमनुप्रपातमनुप्रपातमास्ते । गेहमनुप्रपादमनुप्रपादमास्ते । गेहमवस्कन्दमवस्कन्दमास्ते। गेहं गेहमनुप्रवेशमास्ते। गेहं गेहमनुप्रपातमास्ते। गेहं गेहमनुप्रपादमास्ते। गेहं गेहमवस्कन्दमास्ते। अस्यतितृषोः क्रियान्तरे कालेषु (३-४-५७) - क्रिया के अन्तर व्यवधान में वर्तमान असु तथा तृष् धातुओं से कालवाची द्वितीयान्त शब्द उपपद रहते णमुल् प्रत्यय होता है। यहात्यासं गाः पाययति । यहमत्यासम् गाः पाययति। यह तर्षम् गाः पाचयति। द्वयहतर्षम गाः पाययति। (दो दिन के अन्तर से अथवा दो दिन प्यासे रखकर गायों को पानी पिलाता है।) नाम्न्यादिशिग्रहोः (३-४-५८) - द्वितीयान्त नाम शब्द उपपद रहते अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (चतुर्थ पाद) ५४५ आङ्पूर्वक दिश् तथा ग्रह धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। नामादेशमाचष्टे । नामग्राहमाचष्टे (नाम लेकर कहता है)। __अव्यये यथाभिप्रेताख्याने कृञः क्त्वाणमुलौ (३-४-५९)- अयथाभिप्रेताख्यान अर्थात् इष्ट का कथन जैसा होना गम्यमान हो तो अव्यय शब्द उपपद रहते कृञ् धातु से क्त्वा और णमुल प्रत्यय होते हैं। __ ब्राह्मण ! पुत्रस्ते जातः । किं तर्हि मूर्ख ! नीचैः कृत्वाचक्षे। नीचैःकारमाचक्षे। समास होने पर - नीचैःकृत्याचक्षे। (प्रिय बात को जोर से कहना चाहिये, धीरे कह रहा है, अतः यह अयथाभिप्रेत आख्यान है।) इसी प्रकार - ब्राह्मण ! कन्या ते गर्भिणी, किं तर्हि मूर्ख ! उच्चैःकारमाचक्षे, उच्चैः कृत्वाचक्षे। समास होने पर - उच्चैःकृत्याचक्षे (अप्रिय बात को धीरे से कहना चाहिये, जोर से कह रहा है, अतः यह भी अयथाभिप्रेत आख्यान है।) तिर्यच्यपवर्गे (३-४-६०) - तिर्यक् शब्द उपपद रहते अपवर्ग गम्यमान होने पर कृञ् धातु से क्त्वा तथा णमुल् प्रत्यय होते हैं। तिर्यक्कृत्वा गतः । तिर्यक्कारम्, गतः। समास होने पर - तिर्यक्कृत्य गतः। स्वाङ्गेतस्प्रत्यये कृभ्वोः (३-४-६१) - तस्प्रत्यान्त स्वाङ्गवाची शब्द उपपद हो तो कृ तथा भू धातुओं से क्त्वा तथा णमुल् प्रत्यय होते हैं। कृ धातु से - मुखतः कृत्वा गतः, मुखतः कारं गतः (सामने करके चला गया।)। समास होने पर - मुखतःकृत्य गतः। इसी प्रकार - पाणितः कृत्वा गतः । पाणितः कारं गतः । समास होने पर - पाणितःकृत्य गतः।
  • भू धातु से - मुखतो भूत्वा तिष्ठति (सामने खड़ा होता है।)। मुखतो भावं तिष्ठति। समास होने पर - मुखतोभूय तिष्ठति । इसी प्रकार - पाणितो भूत्वा गतः, पाणितोभावम् गतः । समास होने पर - पाणितोभूय गतः।। नाधार्थप्रत्यये च्व्यर्थे (३-४-६२)- च्व्यर्थ में वर्तमान नाधार्थप्रत्ययान्त शब्द उपपद हो तो कृ तथा भू धातुओं से क्त्वा तथा णमुल् प्रत्यय होते हैं। नार्थप्रत्ययान्त उपपद होने पर - अनाना नाना कृत्वा गतः - नानाकृत्य गतः, नाना कृत्वा, नानाकारम् । (जो भिन्न प्रकार का नहीं है, उसे भिन्न प्रकार का करके चला गया।) विनाकृत्य गतः, विना कृत्वा, विनाकारम् गतः (जो छोड़ने योग्य नहीं है,५४६ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ उसे छोड़कर चला गया।) । अनाना नाना भूत्वा गतः - नानाभूय, नाना भूत्वा, नाना भावम् । विनाभूय, विना भूत्वा, विनाभावम्। धार्थ प्रत्ययान्त उपपद होने पर -अद्विधा द्विधाकृत्वा गतः, द्विधाकृत्य, द्विधा कृत्वा। द्विधाकारम् । द्वैधंकृत्य, द्वैधं कृत्वा, द्वैधं कारम् (जो दो प्रकार का नहीं है, उसे दो प्रकार का करके चला गया।) । अद्विधा, द्विधा भूत्वा गतः - द्विधाभूय द्विधा भूत्वा, द्विधाभावम् । द्वैधभूय, द्वैधंभूत्वा, द्वैधंभावम्।। (विनभ्यां नानामौ न सह ५..२.५७ सूत्र से ना, नाञ् प्रत्यय होते हैं। संख्याया विधार्थे धा ५.३.४२ सूत्र से धा प्रत्यय होता है। द्वित्र्योश्च धमुञ् ५.३.४५ सूत्र से धमुञ् प्रत्यय होता है।) तूष्णीमि भुवः (३-४-६३) - तूष्णीम् शब्द उपपद हो तो भू धातु से क्त्वा, णमुल् प्रत्यय होते हैं । तूष्णीं भूय गत, तूष्णीं भूत्वा गतः (चुप होकर चला गया।) / तूष्णीं भावम्। अन्वच्यानुलोम्ये (३-४-६४) - आनुलोम्य अर्थात् अनुकूलता गम्यमान हो तो अन्वक् शब्द उपपद रहते भू धातु से क्त्वा, णमुल् प्रत्यय होते हैं। अन्वग्भूयास्ते (अनुकूल बनकर रहता है।) इसी प्रकार अन्वग्भूत्वा, अन्वग्भावम् । विशेष - यहाँ से क्त्वा, णमुल् प्रत्यय समाप्त हुए । ‘तृतीयाप्रभृतीन्यन्यतरस्याम्’ (२.२.२१) सूत्र से जिनका विकल्प से समास कहा गया है, वे उपपद यहीं तक हैं। शकधृषज्ञाग्लाघटरभलभक्रमसहास्त्यिर्थेषु तुमुन् (३-४-६५) शक, धृष, ज्ञा, ग्ला, घट, रभ, लभ, क्रम, सह, अर्ह तथा अस्ति अर्थवाले धातुओं के उपपद रहते धातुमात्र से तुमुन् प्रत्यय होता है। तुमुन्ण्वुलौ क्रियायां क्रियार्थायाम् ३.३.१० सूत्र से तुमुन् प्राप्त था। तो भी पुनर्विधान इसलिये किया कि क्रियार्था क्रिया उपपद में न होने पर भी तुमुन् हो जाये। शक्नोति भोक्तुम् (खाने में प्रवीण है।)। धृष्णोति भोक्तुम् (खाने में प्रवीण है।) जानाति भोक्तुम् (खाने में प्रवीण है।) ग्लायति भोक्तुम् (खाने में अशक्त है।) घटते भोक्तुम् (खाने में योग्य है।) आरभते भोक्तुम् (खाना शुरू करता है।) लभते भोक्तुम् (भोजन प्राप्त करता है।) प्रक्रमते भोक्तुम् (खाना आरम्भ करता है।) उत्सहते भोक्तुम् (खाने में प्रवृत्त होता है।) अर्हति भोक्तुम् (खाने में योग्य है।) अस्ति भोक्तुम् (भोजन है।) भवति भोक्तुम् (भोजन है।) विद्यते भोक्तुम् (भोजन है।) पर्याप्तिवचनेष्वलमर्थेषु (३-४-६६) - अलम् अर्थ वाले पर्याप्तिवाची शब्दों अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (चतुर्थ पाद) ५४७ के उपपद रहते धातुओं से तुमुन् प्रत्यय होता है। पर्याप्ति का अर्थ अन्यूनता या परिपूर्णता है। यह दो प्रकार से संभव है। भोजन के आधिक्य से अथवा भोक्ता के सामर्थ्य से। यहाँ पर्याप्ति शब्द भोक्ता के सामर्थ्य को बतला रहा है। पर्याप्तो भोक्तुम् । समर्थो भोक्तुम् । अलं भोक्तुम्। (खाने में समर्थ है।) अब लकारों तथा कृत् प्रत्ययों के अर्थ बतलाये जा रहे हैं - कर्तरि कृत् (३-४-६७) - इस धातु के अधिकार में सामान्यविहित कृत् संज्ञक प्रत्यय कर्ता कारक अर्थ में होते हैं। कर्ता, कारकः, नन्दनः, ग्राही, पचः। विशेष - धातोः ३.१.९१ सूत्र से लेकर पर्याप्विचनेष्वलमर्थेषु ३.४.६६ सूत्रों तक जो भी प्रत्यय कहे गये हैं, उनकी कृदतिङ् ३.१.९३ सूत्र से कृत् संज्ञा होती है। धातुओं से ये कृत् प्रत्यय कर्ताकारक अर्थ में होते हैं। अर्थात् इनके लगने पर जो शब्द बनता है, उसका अर्थ होता है - उस कार्य को करने वाला। जैसे - कर्ता = करने वाला, कारकः = करने वाला, नन्दनः = प्रसन्न करने वाला, ग्राही = ग्रहण करने वाला, पचः = पकाने वाला। भव्यगेयप्रवचनीयोपस्थानीयजन्याप्लाव्यापात्या वा (३-४-६८) - भव्य गेयादि कृत्यप्रत्ययान्त शब्द कर्ता में विकल्प से निपातन किये जाते हैं। कर्ता अर्थ में - भवत्यसौ भव्यः । कर्म अर्थ में - भव्यमनेन । कर्ता अर्थ में - गेयो माणवकः साम्नाम। कर्म अर्थ में - गेयानि माणवकेन सामानि। कर्ता अर्थ में - प्रवचनीयो गुरुः, स्वाध्यायस्य । कर्म अर्थ में - प्रवचनीयो गुरुणा स्वाध्यायः। कर्ता अर्थ में - उपस्थानीयः शिष्यो गुरोः । कर्म अर्थ में - उपस्थानीयः शिष्येण गुरुः । कर्ता अर्थ में - जायतेऽसौ जन्यः । कर्म अर्थ में - जन्यमनेन । कर्ता अर्थ में - आप्लवतेऽसौ आप्लाव्यः । कर्म अर्थ में - आप्लाव्यमनेन। कर्ता अर्थ में - आपतत्यसौ आपात्यः । कर्म अर्थ में - आपात्यतेऽनेन। लः कर्मणि च भावे चाकर्मकेभ्यः (३-४-६९) - सकर्मक धातुओं से लकार कर्मकारक में होते हैं, चकार से कर्ता कारक में भी होते हैं तथा अकर्मक धातुओं से लकार भाव अर्थ में होते हैं तथा चकार से कर्ता कारक में भी होते हैं। सकर्मक - पठ्यते विद्या ५४८ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ ब्राह्मणेन, पठति विद्यां ब्राह्मणः । अकर्मक - आस्यते देवदत्तेन, हस्यते देवदत्तेन, आस्ते देवदत्तः, हसति देवदत्तः।। तयोरेव कृत्यक्तखलाः (३-४-७०) - कृत्यसंज्ञक प्रत्यय, क्त तथा खलर्थ प्रत्यय, भाव तथा कर्म अर्थ में ही होते हैं। कर्म अर्थ में तव्य प्रत्यय - कर्तव्यो घटः कुलालेन। भाव अर्थ में तव्य प्रत्यय - आसितव्यं भवता। कर्म अर्थ में क्त प्रत्यय - कृतो घटः कुलालेन। भाव अर्थ में क्त प्रत्यय - आसितं भविता। कर्म अर्थ में खलर्थ प्रत्यय - ईषत्पच ओदनो देवदत्तेन । भाव अर्थ में खलर्थ प्रत्यय - ईषत्स्वापं भवता। आदिकर्मणि क्तः कर्तरि च (३-४-७१) - आदिकर्म अर्थ में विहित जो क्त प्रत्यय, वह कर्ता, कर्म तथा भाव अर्थ में होता है। (यदि क्रिया प्रारम्भ हो गई है, और पूरी नहीं हुई है, अर्थात् उस क्रिया के केवल आदिक्षण भूत हो गये हैं, तब ऐसी स्थिति में सारी क्रिया को भूत नहीं कहा जा सकता, क्योंकि क्रिया एकफलोद्देशसमूहरूपा’ होती है, इसलिये क्रिया के सम्पूर्ण समूह के व्यवपृक्त होने पर ही उसमें भूतत्व का व्यवहार संभव है। _अतः ऐसी क्रिया, जिसके कुछ क्षण भूत हो चुके हैं और कुछ चल रहे हैं उसे आदिकर्म कहते हैं। आदिकर्म का वर्तमान से भेद यह है कि वर्तमानकाल में केवल क्रिया के चलते रहने का बोध होता है। उसमें भूतत्व का लेश भी नहीं होता किन्तु आदिकर्म में क्रिया के कुछ क्षण भूत हो चुके होते है। कुछ चल रहे हैं और यह भी बोध होता है कि क्रिया आगे भी चलेगी।) ऐसे आदिकर्म अर्थ में विहित जो क्त प्रत्यय, वह कर्ता, कर्म तथा भाव अर्थ में होता है। __कर्ता अर्थ में क्त प्रत्यय - देवदत्तः कटं प्रकृतः = देवदत्त ने चटाई बनाना आरम्भ कर दिया है। देवदत्तः ओदनं प्रभक्तः = देवदत्त ने भात खाना प्रारम्भ कर दिया है। कर्म अर्थ में क्त प्रत्यय - देवदत्तेन कटः प्रकृतः - देवदत्त के द्वारा चटाई बनाना प्रारम्भ कर दिया गया है। देवदत्तेन ओदनः प्रभुक्तः - देवदत्त के द्वारा भात खाना प्रारम्भ कर दिया गया है। अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (चतुर्थ पाद) ५४९ भाव अर्थ में क्त प्रत्यय - देवदत्तेन प्रकृतम् - देवदत्त के द्वारा काम करना प्रारम्भ कर दिया गया है। देवदत्तेन प्रभुक्तम् - देवदत्त के द्वारा खाना प्रारम्भ कर दिया गया है। विशेष - रामायण तथा भागवत दोनों में ही प्रयोग मिलता है - त्वां भक्ताः’ । यहाँ टीकाकारों ने समाधान किया है - त्वां प्रति भक्ताः । किन्तु यह उचित नहीं है। भक्त का अर्थ यह नहीं है कि जो भजन कर चुका है अपितु भक्त का अर्थ यह है कि जो भजन कर चुका है, कर रहा है और आगे भी करेगा। अतः ‘भक्तः’ में भज् धातु से आदिकर्म अर्थ में क्त है। इसी प्रकार ज्वलितोऽग्निः में भी आदिकर्म अर्थ में क्त है। इसका अर्थ है ‘जलता हुआ अग्नि’ । जो अग्नि जल चुकी है, जल रही है और आगे भी जलेगी। ‘ज्वलितेऽग्नौ जुहोति’ का अर्थ है - जो आग जल चुकी है, जल रही है, और आगे भी जलेगी। ऐसी आग में ही हवन करता है, जल चुकी हुई भस्म में नहीं। __जल चुकी हुई आग में कोई हवन नहीं होता, अतः ‘ज्वलितः’ में ‘आदिकर्म’ अर्थ में क्त प्रत्यय है। इस प्रकार क्त प्रत्यय के अर्थ का विचार करना चाहिये कि कहाँ वह भूतार्थ में है और कहाँ आदिकर्म अर्थ में है। जो रघुवंश में ‘पीतप्रतिबद्धवत्साम्’ प्रयोग आया है, उसमें भी पीत’ शब्द में भूतार्थ में क्त नहीं है। मल्लिनाथ ने पा धातु से भाव अर्थ में ‘नपुंसके भावे क्तः’ सूत्र से क्त प्रत्यय लगाकर भावार्थक क्त प्रत्यय लगाया है और पीतं पानमस्यास्ति इति’ इस अर्थ में ‘अर्श आदिभ्योऽच्’ सूत्र से मत्वर्थीय अच् प्रत्यय लगाकर इसे स्पष्ट किया किया जो महाभाष्य में भुक्ता ब्राह्मणाः, पीता गावः, आदि प्रयोग आये हैं, वे भी इसी प्रकार अच् प्रत्यय करके बने हैं। भुक्तं भोजनमेषामस्तीति भुक्ताः । पीतं पानमेषामस्तीति पीताः। गत्यर्थाकर्मकश्लिषशीस्थावसजनरुहजीर्यतिभ्यश्च (३-४-७२) - गत्यर्थक, अकर्मक तथा श्लिष्, शीङ्, स्था, आस्, वस्, जन्, रुह, जृ, धातुओं से होने वाला क्त प्रत्यय, ‘कर्ता, कर्म, भाव’, इन तीनों अर्थों में होता है। __इन धातुओं से, कर्ता अर्थ में क्त प्रत्यय - गत्यर्थक धातु कर्ता अर्थ में - देवदत्तः ग्रामं गतः - देवदत्त गाँव को गया। ५५० अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ अकर्मक धातु कर्ता अर्थ में - देवदत्तः ग्लानः - देवदत्त ने ग्लानि की। श्लिष धातु कर्ता अर्थ में - माता कन्यां उपश्लिष्टा - माता ने कन्या का आलिङ्गन किया। शीङ् धातु कर्ता अर्थ में - देवदत्तः गुरुं उपशयितः - देवदत्त गुरुजी के पास रहा। स्था धातु कर्ता अर्थ में - देवदत्तः गुरुं उपस्थितः - देवदत्त गुरुजी के पास रहा। आस् धातु कर्ता अर्थ में - देवदत्तः गुरुं उपासितः - देवदत्त ने गुरुजी की उपासना की। वस् धातु कर्ता अर्थ में - देवदत्तः गुरुं अनूषितः - देवदत्त गुरुजी के पास रहा। जन् धातु कर्ता अर्थ में - पुत्रः कन्यां अनुजातः - पुत्र कन्या के बाद पैदा हुई। रुह् धातु कर्ता अर्थ में - देवदत्तः वृक्षं आरूढः - देवदत्त पेड़ पर चढ़ा। जृ धातु कर्ता अर्थ में - देवदत्तः दुर्जनं अनुजीर्णः - देवदत्त ने दुर्जन को मार मार कर क्षीण कर दिया। इन धातुओं से, कर्म अर्थ में क्त प्रत्यय - गत्यर्थक धातु कर्म अर्थ में - देवदत्तेन ग्रामः गतः - देवदत्त के द्वारा गाँव जाया गया। श्लिष् धातु कर्म अर्थ में - मात्रा कन्या उपश्लिष्टा - माता के द्वारा कन्या का आलिङ्गन किया गया। शीङ् धातु कर्म अर्थ में - देवदत्तेन गुरुः उपशयितः - देवदत्त के द्वारा गुरुजी के पास रहा गया। स्था धातु कर्म अर्थ में - देवदत्तेन गुरुः उपस्थितः - देवदत्त के द्वारा गुरुजी के पास रहा गया। आस् धातु कर्म अर्थ में - देवदत्तेन गुरुः उपासितः - देवदत्त के द्वारा गुरुजी की उपासना की गयी। वस् धातु कर्म अर्थ में - देवदत्तेन गुरुः अनूषितः - देवदत्त के द्वारा गुरुजी के पास निवास किया गया। जन् धातु कर्म अर्थ में - पुत्रेण कन्या अनुजाता - पुत्र ने कन्या के बाद जन्म लिया। रुह धातु कर्म अर्थ में - देवदत्तेन वृक्षः आरूढः - देवदत्त के द्वारा पेड़ पर चढ़ा गया। अष्टाध्यायी चतुर्थाध्याय (चतुर्थ पाद) ५५१ जृ धातु कर्म अर्थ में - देवदत्तेन दुर्जनः अनुजीर्णः - देवदत्त के द्वारा दुर्जन को मार मार कर क्षीण . कर दिया गया। इन धातुओं से, भाव अर्थ में क्त प्रत्यय - गत्यर्थक धातु भाव अर्थ में - देवदत्तेन गतम् - देवदत्त के द्वारा जाया गया। अकर्मक धातु भाव अर्थ में - देवदत्तेन ग्लानम् - देवदत्त के द्वारा ग्लानि की गई। श्लिष धातुः भाव अर्थ में - मात्रा उपश्लिष्टम् - माता के द्वारा आलिङ्गन किया गया। शीङ् धातु भाव अर्थ में - देवदत्तेन उपशयितम् - देवदत्त के द्वारा रहा गया। स्था धातु भाव अर्थ में - देवदत्तेन उपस्थितम् - देवदत्त के द्वारा रहा गया। आस् धातु भाव अर्थ में - देवदत्तेन उपासितम् - देवदत्त के द्वारा उपासना की गयी। वस् धातु भाव अर्थ में - देवदत्तेन अनूषितम् - देवदत्त के द्वारा रहा गया। जन् धातु भाव अर्थ में - पुत्रेण अनुजातम् - पुत्र के द्वारा बाद में पैदा हुआ गया। रुह धातु भाव अर्थ में - देवदत्तेन आरूढम् - देवदत्त के द्वारा चढ़ा गया। जृ धातु भाव अर्थ में - देवदत्तेन अनुजीर्णम् - देवदत्त के द्वारा क्षीण हुआ गया। दाशगाजौ संप्रदाने (३-४-७३) - दाश तथा गोघ्न कृदन्त शब्द संप्रदान कारक में निपातन किये जाते हैं। दाशन्ति तस्मै दाशः । गां हन्ति तस्मै गोघ्नोऽतिथिः। भीमादयोऽपादाने (३-४-७४) - भीमादि उणादिप्रत्ययान्त शब्द अपादान कारक में निपातन किये जाते हैं । बिभ्यति जनाः अस्माद् इति भीमः, भीष्मो वा। प्रस्कन्दति अस्मादिति प्रस्कन्दनः । प्ररक्षति अस्मादिति प्ररक्षः । मुह्यति अस्मादिति मूर्खः । भीम। भीष्म । भयानक । वह । चर । प्रस्कन्दन । प्रपतन । समुद्र । स्रुव । सुक्। वृष्टि । दृष्टि । रक्षः । संकसुक । शङ्कुसुक । मूर्ख । खलति ।। आकृतिगणोऽयम् इति भीमादिः ।। आकृतिगण होने का तात्पर्य यह है कि जो भी शब्द इस प्रकार के दिखें, उन्हें इसी गण के समझ लेना चाहिये। अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ ताभ्यामन्यत्रोणादयः (३-४-७५) - ताभ्याम् पद से यहाँ उपर्युक्त सम्प्रदान तथा अपादान कारक लिये गये हैं। उणादि प्रत्यय सम्प्रदान तथा अपादान कारकों से अन्यत्र कर्मादि कारकों में भी होते हैं। कृष्यतेऽसौ कृषिः । ततो असौ भवति तन्तुः । वृत्तं तद् इति वर्म। चरितं तद् इति चर्म। क्तोऽधिकरणे च धौव्यगतिप्रत्यवसानार्थेभ्यः (३-४-७६) - ध्रौव्यार्थक (अकर्मक) गत्यर्थक तथा प्रत्यवसानार्थक (भोजनार्थक) धातुओं से विहित जो क्त प्रत्यय, वह अधिकरण कारक में होता है तथा चकार से कर्ता, कर्म, भाव कारक में भी होता है। मुकुन्दस्यासितमिदमिदं यातं रमापतेः । भुक्तमेतदनन्तस्येत्यूचुर्गोप्यो दिदृक्षवः ।। ध्रौव्यार्थक - आस्यतेऽस्मिन्निति आसितम् = आसनम्। गत्यर्थक यायतेऽस्मिन्निति यातम् = मार्गः। प्रत्यवसानार्थक - भुज्यतेऽस्मिन्निति भुक्तम् = भोजनम्। ।। श्रीकृष्णार्पणमस्तु ।।