१३७ तृतीयाध्याये तृतीयः पादः

ध्यान दें कि ‘कर्तरि कृत्’ सूत्र सारे कृत् प्रत्ययों को कर्ता अर्थ में ही कहता . है। अतः जब तक कोई अन्य वचन उन प्रत्ययों को अन्य किसी अर्थ में न कहे, तब तक कृत् प्रत्यय कर्ता अर्थ में ही होते हैं।

उणादि प्रत्यय

उणादयो बहुलम् (३.३.१) - धातुओं से उणादि प्रत्यय वर्तमान काल में संज्ञा अर्थ में बहुल करके होते हैं। विशेष - बाहुलक को पीछे ४३३ - ४३४ पृष्ठों पर देखें। अनुवृत्ति - इस सूत्र में पिछले पाद के सूत्र वर्तमाने लट् ३.२.१२३ से वर्तमाने की अनुवृत्ति आ रही है। और ‘पुवः संज्ञायाम् सूत्र ३.२.१८५’ से संज्ञायाम् की अनुवृत्ति आ रही है। सिद्धान्तकौमुदी आदि में ये उणादिसूत्र सोदाहरण व्याख्यात हैं। महाभाष्यकार ने इस सूत्र की व्याख्या करते हुए तथा ‘नाम च धातुजमाह निरुक्ते व्याकरणे शकटस्य च तोकम्’ इस वार्तिक की व्याख्या करते समय कहा है कि ये सूत्र शाकटायनमुनिप्रणीत हैं, पाणिनिप्रणीत नहीं। जो शब्द इन उणादिप्रत्ययों के द्वारा बनते है।, वे शब्द पाणिनि के मत में अव्युत्पन्न हैं। अतः भाष्य में कहा है - ‘उणादयोऽव्युत्पन्नानि प्रातिपदिकानि’। यदि ये अव्युत्पन्न हैं, तो फिर सर्पिषा, यजुषा, इत्यादि में जो ‘इदुदुपधस्य चाप्रत्ययस्य’ सूत्र के द्वारा इनमें प्रत्यय का ‘स्’ मानकर षत्व किया है, वह कैसे ? वह इसलिये कि बहुलग्रहणात् इनके स् की प्रत्यय संज्ञा हो जाती है, तथापि ये अव्युत्पन्न प्रातिपदिक ही रहते हैं। रूढ़ और वैदिक शब्दों को उणादि प्रतिपदिक मान लेने के लिये इस सूत्र में संज्ञा शब्द की अनुवृत्ति की है। इसीलिये भाष्यकार कहते हैं - वैदिका रूढशब्दाश्चौणादिकाः’ । वार्तिक भी है - नैगमरूढिभवं हि सुसाधु । __ रूढ शब्दों में यद्यपि प्रत्यय का पृथक् अवयवार्थ नहीं होता है, तथापि कर्ता अर्थ में इनकी व्युत्पत्ति होती है और ये प्रकृतिगत अर्थ को ही प्रकट करते हैं। इस प्रकार ये सारे उणादिप्रत्यय धातुओं से परे ‘कर्तरि कृत्’ से कर्ता अर्थ में वर्तमानकाल में होते हैं। ४९८ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ उदाहरण - करोतीति कारुः (कृ + उण्) । वाति गच्छति जानाति वेति वायुः (वा + उण) । पाति रक्षतीति पायुः (पा + उण्) । इसी प्रकार - जायुः । मायुः । स्वादुः । साधुः । आशुः । उणादिप्रत्यय केवल उतने ही नहीं हैं, जितने सिद्धान्तकौमुदी आदि में व्याख्यात हैं, अपितु शब्दों को देखकर वे कल्पित भी किये जा सकते हैं। यह कल्पना इस प्रकार हा सकती है - संज्ञासु धातुरूपाणि प्रत्ययाश्च ततः परे। कार्याद् विद्यादनबन्धमेतच्छास्त्रमुणादिषु ।।। डित्थ, डवित्थ आदि संज्ञाओं को देखकर उनमें यथासम्भव धातुओं का ऊह (कल्पना) कीजिये। उसके बाद उनमें प्रत्ययों की कल्पना कीजिये। गुण, वृद्धि या गुणवृद्धिनिषेध आदि कार्यों को देखकर अनुबन्धों की कल्पना कीजिये। यथा - हृषेरुलच् इस उणादिसूत्र से हृष् धातु से उलच् प्रत्यय का विधान है, किन्तु शकुला शब्द भी लोक में मिलता है, तो शक धातु से भी उलच् प्रत्यय कर लीजिये। यह प्रकृति का ऊह (कल्पना) है। फिड और फिड्ड प्रत्यय कहीं भी नहीं कहे गये हैं, किन्तु ऋफिड और ऋफिड्ड शब्दों को देखकर ऋ धातु से इन प्रत्ययों की कल्पना कर लीजिये। साथ ही प्रकृति ‘ऋ’ को गुण नहीं हुआ है, अतः इन प्रत्ययों के कित्व की भी कल्पना कीजिये। इसी प्रकार षण्डः आदि में सत्वाभाव की कल्पना कीजिये। भूतेऽपि दृश्यन्ते (३.३.२) - धातुओं से उणादि प्रत्यय भूतकाल में भी देखे जाते हैं। वृत्तमिदं वर्त्म। चरितं तच्चर्म । भसितं तदिति भस्म। __ अनुवृत्ति - यहाँ से उणादयः’ की अनुवृत्ति ३.३.३ तक जायेगी। भविष्यति गम्यादयः (३.३.३) - उणादि प्रत्ययों से निष्पन्न जो गम्यादि शब्द हैं. वे भविष्यतकाल में साध होते हैं। गमिष्यति इति गमी ग्रामम् । आगमिष्यति इति आगामी ग्रामम् (आङ् पूर्वक गम् धातु से गमेरिनिः से इनि प्रत्यय करके ‘आङि णित्’ से णिद्वद्भाव करके उपधावृद्धि की है।) भविष्यति इति भावी। प्रस्थास्यति इति प्रस्थायी। इसी प्रकार - गमी। आगमी। भावी। प्रस्थायी। प्रतिरोधी। प्रतियोधी। प्रतिबोधी। प्रतियायी। प्रतियोगी ।। एते गम्यादयः ।। (उणादिप्रत्यय बाहुल्य से वर्तमानकाल में ही होते हैं, क्वचित् भूत, भविष्य में भी हो जाते हैं, यह जानना चाहिये।) अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (तृतीय पाद) ४९९ ध्यान दें कि इन शब्दों में जो प्रत्यय हैं, वे ही प्रकृत्यर्थगत भविष्यत्कालता को बतलाते है। इन प्रयोगों में से कुछ तो उणादि प्रत्ययों से बने हैं और कुछ अष्टाध्यायीगत प्रत्ययों से बने हैं। ये इस प्रकार हैं - __ ग्रामम् गमी। इसमें गम् धातु से वर्तमानकाल अर्थ में ‘गमेरिनिः’ इस उणादि सूत्र से इनि प्रत्यय हुआ है। आगामी। इसमें भी आ + गम् धातु से ‘गमेरिनिः’ इस उणादि सूत्र से इनि प्रत्यय होकर उसे ‘आङि णित्’ से णिद्वद्भाव हुआ है। ‘प्रात्स्थः ’ इस उणादि सूत्र से वर्तमानकाल अर्थ में स्था धातु से इनि प्रत्यय होकर ‘प्रस्थायी’ बना है और भू धातु से भुवश्च सूत्र से इनि प्रत्यय होकर आङि णित् से णिद्वद्भाव होकर भावी बना है। ये चारों वर्तमान अर्थ में हैं। __ प्रतिरोधी में रुध् धातु से, प्रतिबोधी में बुध् धातु से, प्रतियोधी में युध् धातु से, प्रतियोगी में युज् धातु से, प्रतियायी, आयायी में या धातु से, सुप्यजातौ णिनिस्ताच्छील्ये सूत्र से णिनि प्रत्यय हुआ है। ये भविष्यत् अर्थ में हैं। अनद्यतन उपसंख्यानम् (वा.) - अनद्यतन भविष्यत् काल में भी गमी आदि शब्द बनाये जाते हैं। श्वो गमी ग्रामम् । सारे उणादिसूत्र सिद्धान्तकौमुदी आदि में ये सोदाहरण व्याख्यात हैं। उन्हें वहीं देख लेना चाहिये। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘भविष्यति’ की अनुवृत्ति ३.३.१५ तक जायेगी। __३.३.४ से ३.३.९ तक के सूत्रों में लकार प्रत्यय हैं, जिनका कृदन्त से प्रयोजन न होने से उन्हें छोड़कर आगे के सूत्र दे रहे हैं -

तुमुन्, ण्वल प्रत्यय

तुमुन्ण्वुलौ क्रियायां क्रियायाम् - ३.३.१० - क्रियार्था क्रिया उपपद में हो तो धातु से तुमुन् तथा ण्वुल् प्रत्यय भविष्यत् काल में होते हैं। क्रियार्था क्रिया का अर्थ है - क्रिया अर्थः प्रयोजनं यस्याः क्रियायाः सा क्रियार्था क्रिया। अर्थात् ऐसी क्रिया, जिसका प्रयोजन कोई दूसरी क्रिया हो। ‘भोक्तुं व्रजति’, इस वाक्य को देखिये। यहाँ जाने की क्रिया, खाने की क्रिया के लिये हो रही है, अतः जाने की क्रिया, क्रियार्था क्रिया है। क्रियार्था क्रिया उपपद में हो, तो उस धातु से तुमुन् और ण्वुल् प्रत्यय होते हैं, जिसके लिये यह क्रियार्था क्रिया की जा रही है। ‘व्रजति’ क्रियार्था क्रिया है। अतः इसके उपपद में रहने पर ‘भुज्’ धातु से तुमुन् ५०० अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ अथवा ण्वुल प्रत्यय कर्ता अर्थ में होते हैं, यह तात्पर्य है। तुमुन् प्रत्यय के अर्थ का विचार - कृन्मेजन्तः - मकारान्त और एजन्त कृदन्तों की अव्यय संज्ञा होती है। अतः तुमुन् प्रत्यय से बने हुए सारे शब्द अव्यय ही होंगे। इसलिये इनसे परे आने वाली स्वादि विभक्तियों का ‘अव्ययादाप्सुपः’ सूत्र से लोप हो जायेगा। __ अव्ययकृतो भावे - जिन कृदन्तों की अव्ययसंज्ञा होती है, वे कर्ता अर्थ में न होकर भाव अर्थ में होते हैं। इस प्रकार हमें जानना चाहिये कि ‘तुमुन्ण्वुलौ क्रियायां क्रियार्थायाम्’ से होने वाले तुमुन् और ण्वुल् प्रत्ययों में से तुमुन् प्रत्यय तो ‘अव्ययकृतो भावे’ से भाव अर्थ में होता है और ण्वुल् प्रत्यय कर्तरि कृत् से कर्ता अर्थ में ही होता है। कृष्णं द्रष्टुं याति (कृष्ण को देखने के लिये जाता है।) कृष्णं दर्शको याति (कृष्ण को देखने के लिये जाता है।) इसी प्रकार - अन्नं भोक्तुं व्रजति (अन्न खाने के लिये जाता है।) । अन्नं भोजको व्रजति (अन्न खाने के लिये जाता है।)। ण्वुल् प्रत्यय के अर्थ का विचार - ण्वुल्तृचौ सूत्र से होने वाला ण्वुल् प्रत्यय तथा तुमुन्ण्वुलौ क्रियायां क्रियार्थायाम् से होने वाला ण्वुल् प्रत्यय, ये दोनों ही कर्ता अर्थ में होते हैं - किन्तु दोनों का अन्तर यह होता है कि ‘ण्वुल्तृचौ’ सूत्र से होने वाले ण्वुल् प्रत्यय के योग में ‘कर्तृकर्मणोः कृति’ सूत्र से कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है। ओदनस्य पाचकः, जगतः कारकः, आदि, और तुमुन्ण्वुलौ क्रियायां क्रियार्थायाम्’ से भविष्यत् अर्थ में होने वाले ण्वुल् प्रत्यय के योग में ‘अकेनोर्भविष्यदाधमर्ण्ययोः’ सूत्र से षष्ठी का निषेध हो जाने से ‘कर्मणि द्वितीया’ सूत्र से कर्म में द्वितीया ही होती है। यथा - कृष्णं दर्शको याति। भाववचनाश्च - (३.३.११) - (आगे ‘भावे’ का अधिकार आ रहा है। यह ‘भावे’ का अधिकार ३.३.१८ से लेकर आक्रोशे नव्यनिः ३.३.११२’ सूत्र तक जाता है। अतः इस अधिकार में आने वाले सारे प्रत्यय ‘भाववचन’ कहलाते हैं।) ये भाववचनप्रत्यय अर्थात् ३.३.१८ से लेकर ३.३.११२’ तक के सूत्रों से विहित भाववाचक प्रत्यय भी, क्रियार्था क्रिया उपपद में हो, तो भविष्यत्काल में, धातु से होते हैं। अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (तृतीय पाद) ५०१ यथा - पाकाय व्रजति (भोजन पकाने के लिये जाता है)। भूतये व्रजति (सम्पत्ति के लिये जाता है।) पुष्टये व्रजति (पुष्टि के लिये जाता है।)। कार यहाँ पाकः में पच् धातु से भाव अर्थ में घञ् प्रत्यय हुआ है, भूतिः में भू धातु से भाव अर्थ में क्तिन् प्रत्यय हुआ है और पुष्टिः में पुष् धातु से भाव अर्थ में क्तिन् प्रत्यय हुआ है। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘क्रियार्था क्रिया’ की अनुवृत्ति ३.३.१३ तक जायेगी।

अण् प्रत्यय

अण्कर्मणि च - ३.३.१२ - क्रियार्था क्रिया एवं कर्म उपपद में हों तो भविष्यत् काल में धातु से अण् प्रत्यय भी होता हैं। काण्डलावः व्रजति (शाखा को काटेगा, इसलिये जाता है।) कम्बलदायः व्रजति (कम्बल देगा, इसलिये जाता है।) गोदायः (गाय देगा, इसलिये जाता है।)। अश्वदायः (अश्व देगा, इसलिये जाता है।)। बाध्यबाधकभाव - यह अण् प्रत्यय तुमुन्ण्वुलौ क्रियायां क्रियायाम्’ से होने वाले ण्वुल् प्रत्यय का अपवाद है। विशेष - यहाँ से ‘भविष्यति’ निवृत्त हो गया। भूते, वर्तमान आदि पहिले ही निवृत्त हो चुके हैं। अतः अब जो प्रत्यय होंगे, वे तीनों कालों में सामान्य हैं। अतः कर्ता अर्थ में होने वाले इन सामान्य प्रत्ययों का सम्बन्ध पुनः धातोः के अधिकार के पूर्वोक्त प्रत्ययों से करते हुए हमें बाध्यबाधकभाव का निर्णय करते हुए चलना चाहिये। क्त प्रत्ययों में से कोई सरूप प्रत्यय यहाँ प्राप्त हो तो उसका नित्य बाध होगा और यदि पूर्वोक्त प्रत्ययों में से कोई असरूप प्रत्यय यहाँ प्राप्त हो तो उसका विकल्प से बाध होगा। ३.३.१३ से ३.३.१५ तक के सूत्रों में लकार प्रत्यय हैं, जिनका कृदन्त से प्रयोजन न होने से उन्हें छोड़कर आगे के सूत्र दे रहे हैं -

घञ् प्रत्यय

पदरुजविशस्पृशो घञ् - (३.३.१६) - पद्, रुज्, विश्, स्पृश्, इन धातुओं से कर्ता अर्थ में घञ् प्रत्यय होता है। पद्यतेऽसौ पादः (पद् + घञ्) । इसी प्रकार - रुजत्यसौ रोगः। विशत्यसौ वेशः । स्पृशतीति स्पर्शः। अनुवृत्ति - इसमें ऊपर से ‘घ’ की अनुवृत्ति भी आ रही है। यह ‘घ’ की अनुवृत्ति यहाँ से लेकर ‘परौ भुवोऽवज्ञाने ३.३.५५’ तक चलेगी। उसके बाद निवृत्त हो जायेगी। ५०२ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ यह भी ध्यान दें कि कर्तरि कृत्’ सूत्र सारे कृत् प्रत्ययों को कर्ता अर्थ में ही कहता है। अतः जब तक कोई अन्य सूत्र उन प्रत्ययों को अन्य किसी अर्थ में न कहे, तब तक कृत् प्रत्यय कर्ता अर्थ में ही होते हैं, यह जानना चाहिये। बाध्यबाधकभाव - ध्यान दें कि पहिले ‘नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः ३.१. १३४’ सूत्र में ‘अज्विधिः सर्वधातुभ्यः’ कहकर धातुमात्र से कर्ता अर्थ में अच् का विधान किया गया है। परन्तु यहाँ इन चार धातुओं से कर्ता अर्थ में घञ् कहा जा रहा है। देखिये कि घञ्=अ और अच्=अ, ये सरूप प्रत्यय हैं। अतः सरूप होने के कारण यह कब्रर्थक घञ् प्रत्यय, कञर्थक अच् प्रत्यय को नित्य बाधेगा। तो इन चार धातुओं से कर्ता अर्थ में घञ् होगा और शेष धातुओं से कर्ता अर्थ में से अच् होगा। ऐसा ही आगे सर्वत्र समझना चाहिये। स्पश उपताप इति वक्तव्यम् (वा.) - स्पृश् धातु से उपताप अर्थ में ही घञ् प्रत्यय का विधान है। स्पशतीति स्पर्श उपतापः । ध्यान दें कि यह ‘घञ’ प्रत्यय भी कर्ता अर्थ में हुआ है। __ सृ स्थिरे - (३.३.१७) - सृ धातु से स्थिर अर्थात् चिरस्थायी कर्ता वाच्य हो तो घञ् प्रत्यय होता है। चन्दनस्य सारः चन्दनसारः । खदिरसारः । (यह देर तक रहता हुआ कालान्तर तक सरण करता है।) यह ‘घञ्’ प्रत्यय भी कर्ता अर्थ में हुआ है। ‘सारो बले दृढांशे च’। __व्याधिमत्स्यबलेष्विति वक्तव्यम् (वा.) - व्याधि, मत्स्य तथा बल अर्थ में सृ धातु से घञ् प्रत्यय होता है। अतीसारो व्याधिः, विसारो मत्स्यः, सारो बलम् । यह ‘घञ्’ प्रत्यय भी कर्ता अर्थ में हुआ है।

‘भावे’ का अधिकार

भावे (३-३-१८)- भाव अर्थात् धात्वर्थ वाच्य हो, तो धातुमात्र से घञ् प्रत्यय होता है। यह अधिकार सूत्र है - __इस ‘भावे’ का अधिकार यहाँ से लेकर ‘आक्रोशे नव्यनिः ३.३.११२’ सूत्र तक जायेगा। इसका अर्थ है कि ३.३.१८ से ३.३.११२ सूत्रों तक भाव अर्थ में ‘घञ्’ प्रत्यय का अधिकार है। र भाव का अर्थ होता है ‘धात्वर्थ धातु का अर्थ । हम जानते हैं कि धातु का अर्थ होता है ‘क्रिया’। वही क्रिया’ अर्थ इस अधिकार में आने वाले प्रत्ययों का भी होगा। अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (तृतीय पाद) ५०३ प्रश्न होता है कि धातु जिस अर्थ को कह रहा है, ठीक उसी अर्थ को कहने के लिये प्रत्यय की क्या आवश्यकता है ? __ तो इसका उत्तर यह है कि धातु में जो अर्थ होता है, वह पूर्वापरीभूत अपरिनिष्पन्न होता है। जैसे उठना, बैठना, खाना, सोना, जागना, देखना, सुनना आदि। यह अर्थ आख्यातस्वरूप है अर्थात् साध्यरूप है। हम चाहें कि इसमें किसी लिङ्ग, वचन विभक्ति का अन्वय कर लें, तो अशक्य है। अतः इस साध्यावस्थापन्न क्रिया को सिद्धावस्थापन्न बनाने के लिये और उसमें लिङ्ग, संख्या, कारक आदि द्रव्यधर्मों का संयोग करके उन्हें सुबन्त पद बनने की योग्यता प्रदान करने के लिये इन धातुओं में भाववाची प्रत्यय लगाने की आवश्यकता है। भाववाची प्रत्यय होने का तात्पर्य यह है कि ये प्रत्यय यद्यपि उसी अर्थ को बतलाते हैं, जो अर्थ धातु में पहिले से ही है। किन्तु धातु के अर्थ में जो लिङ्ग, संख्या, कारक आदि द्रव्यधर्मों का सम्बन्ध नहीं है, उसे उसमें ये उत्पन्न कर देते हैं। इस प्रकार इन भाववाची प्रत्ययों को लगाकर बने हुए शब्दों के दो भाग होते हैं। १. धातुभाग। यह आख्यातरूप होता है। इसमें क्रिया लिङ्ग, संख्या, कारक आदि से विहीन होकर साध्यावस्था में रहती है। जैसे - पच्, त्यज्, वह, गम्, ह, नी, आदि। २. प्रत्ययभाग । यह सत्त्वरूप (द्रव्यरूप) होता है। इसमें क्रिया सिद्धावस्था में रहती है और इसका लिङ्ग, संख्या, कारक आदि से सम्बन्ध हो सकता है। अतः दोनों के अर्थ अलग अलग होने के कारण धातुओं में भाववाची प्रत्यय लगाने का औचित्य है ही। जैसे पचति’ आदि में पच्’ इस प्रकृतिभाग से क्रिया कही जाती है और प्रत्ययभाग ‘तिप्’ से उसकी साधनता (कारकता) कही जाती है, उसी प्रकार पाकः’ आदि में प्रकृतिभाग से ‘साध्यरूप अर्थ’ कहा जाता है और प्रत्ययभाग से उसकी सिद्धरूपता कही जाती है। __जैसे - पचनं पाकः ( पच् + घञ्) (पकाना) / त्यजनं त्यागः (त्यज् + घञ्) (त्यागना) / रञ्जनं रागः ( रज् + घञ्) (रँगना) / आवाहः (कन्या को विवाह करके लाना) ( वह् + घञ्) / विवाहः (ब्याहना)। इसी बात को कहा है - आख्यातशब्दे भागाभ्यां साध्यसाधनवर्तिता। प्रकल्पिता यथा शास्त्रे स घञादिष्वपि क्रमः ।। ५०४ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ साध्यत्वेन क्रिया तत्र धातुरूपनिबन्धना। सत्त्वभावस्तु यस्तस्याः स घञादिनिबन्धनः ।। घञन्बतः (पुंसि) (लिङ्गानुशासन) - घनन्त, अबन्त शब्द पुंल्लिङ्ग में होते हैं। अन्य भाववाची प्रत्ययों के लिङ्ग आगे बतलाते जायेंगे। ‘अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्’ का अधिकार अकर्तरि च कारके संज्ञायाम् (३-३-१९) - कर्ता से भिन्न कारक में धातु से संज्ञाविषय में ‘घञ्’ प्रत्यय होता है। आवाहः (कन्या को विवाह करके लाना)। विवाहः (कन्या को विवाह करके लाना)। प्रासः (भाला)। प्रसेवः (थैला), आदि। चकार कहने से कभी कभी को भवता दायो दत्तः’ को भवता लाभो लब्धः’, इत्यादि में संज्ञाभिन्न अर्थ में भी हो जाता है। यह भी अधिकार सूत्र हैं - यह अधिकार यहाँ से लेकर ‘आक्रोशे नज्यनिः ३.३.११२’ सूत्र तक जाता है। हम जानते हैं कि ‘भावे’ का अधिकार भी ३.३.११२ तक जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि ३.३.१९ से ३.३.११२ सूत्रों के बीच जो भी प्रत्यय होंगे, उनमें दोनों का अधिकार जायेगा। अतः ३.३.१९ से ३.३.११२ सूत्रों के बीच के सूत्रों से जो प्रत्यय होंगे, वे भाव अर्थ में होंगे तथा कर्ता से भिन्न कारक संज्ञा अर्थ में होंगे, यह जानना चाहिये। कर्ता से भिन्न कारक अर्थ में होने का तात्पर्य यह है ‘कर्तरि कृत् ३.४.६७’ सूत्र के अनुसार कृत् प्रत्यय कर्ता अर्थ में अर्थात् ‘करने वाला’ में होते हैं। इसीलिये तृच् का अर्थ होता है - करोति इति कर्ता । ण्वुल् का अर्थ होता है - करोति इति कारकः, आदि। किन्तु अब ‘अकर्तरि च कारके संज्ञायाम् ३.३.१९’ से लेकर ‘आक्रोशे नज्यनिः ३.३.११२’ सूत्र तक जो प्रत्यय होंगे, वे कर्ता अर्थ में नहीं होंगे। अतः उनका अर्थ ‘कर्ता अर्थात् करने वाला’ नहीं होगा। जैसे - प्रास्यन्ति तं इति प्रासः (भाला) (प्र + अस् + घञ्) (जो फेंका जाये, वह भाला), यह कर्म अर्थ है। प्रसीव्यन्ति तं इति प्रसेवः (थैला), (प्र + सिव् + घञ्) (जो सिया जाये, वह थैला), यह कर्म अर्थ है।।

  • आहरन्ति रसं तस्मादिति आहारः (भोजन) (आ + हृ + घञ्), जिससे रस निकाला जाये वह आहार। यह अपादान अर्थ है। अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (तृतीय पाद) 4 ५०५ बाध्यबाधकभाव - जो सामान्य बनकर सबके लिये कहा जाये, वह उत्सर्ग होता है और जो उसी के भीतर किसी विशेष के लिये कह दिया जाये, वह उसका अपवाद होता है। हम जानते हैं कि यहाँ से लेकर ‘आक्रोशे नज्यनिः ३.३.११२’ सूत्र तक ‘भावे’ और ‘अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्’, इन अर्थों का अधिकार है और ‘भावे’ सूत्र में घञ् की अनुवृत्ति है, इसलिये धातुमात्र से ‘भावे’ और ‘अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्’, इन अर्थों में औत्सर्गिक प्रत्यय ‘घञ्’ ही है। __ किन्तु हम देखते हैं कि ‘पदरुजविशस्पृशो घञ्’ सूत्र से जो घञ्’ प्रत्यय की अनुवृत्ति आ रही है, वह अनुवृत्ति केवल ‘परौ भुवोऽवज्ञाने ३.३.५५’ तक ही चलती है। उसके बाद ‘भावे’ और ‘अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्’, इन अर्थों में दूसरे प्रत्यय कहे जाते हैं। जैसे - ‘एरच ३.३.५६’ सूत्र ‘भावें’ और ‘अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्’, इन अर्थों में इकारान्त धातुओं से अच् प्रत्यय कहता है और ऋदोरप् ३.३.५७’ सूत्र ऋकारान्त तथा उकारान्त धातुओं से ‘भावे’ और ‘अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्’, इन अर्थों में ‘अप्’ प्रत्यय कहता है। __ अतः ‘भावे’ और ‘अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्’, इन्हीं अर्थों में कहे जाने वाले अच् और अप् प्रत्यय, घञ् प्रत्यय के अपवाद बनते हैं। अब हम ध्यान दें कि इकारान्त धातुओं से ‘एरच् ३.३.५६’ सूत्र से ‘भावे’ और ‘अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्’, इन अर्थों में अच् प्रत्यय कहे जाने के बाद भी यदि इङश्च’ सूत्र इकारान्त धातुओं से घञ् प्रत्यय कहता है, तो हमें इस प्रकार जानना चाहिये - भाव अर्थ में सारे धातुओं से घञ् प्रत्यय का विधान होने के कारण इङ् धातु से ‘भावे’ सूत्र से घञ्’ ही प्रथमतः प्राप्त होता है, उसे बाधकर ‘एरच्’ सूत्र से इङ् धातु को अच् प्रत्यय प्राप्त होता है और उस अच् प्रत्यय को पुनः बाधकर ‘इडश्च’ सूत्र से उसे ‘घञ्’ प्रत्यय होता है। इस प्रकार ‘भावे’ और ‘अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्’, इन अर्थों में होने वाले प्रत्ययों का बाध्यबाधकभाव समझते हुए चलना चाहिये। अभी ३.३.५५ तक औत्सर्गिक प्रत्यय घञ् ही है । इसलिये आगे जो भी प्रत्यय आयेंगे, वे इस घञ् के अपवाद बनकर ही आयेंगे। ५०६ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ परिमाणाख्यायाम् सर्वेभ्यः (३-३-२०)- सब धातुओं से परिमाण की आख्या = कथन, गम्यमान हो तो घञ् प्रत्यय होता है। निचीयते यः स निचायः = राशिः - तण्डुलानां निचायः तण्डुलनिचायः । एकस्तण्डुलनिचायः (एक ढेर चावल) (नि + घञ्) । द्वौ शूर्पनिष्पावौ (दो सूपे साफ किया हुआ तण्डुलादि)( निस् + पू + घञ्) । त्रयः काराः (तीन बिखेरन) (कृ + घञ्)। __ बाध्यबाधकभाव - प्रश्न होता है कि जब ३.३.५५ सूत्र तक घञ् प्रत्यय का अधिकार है ही, तब फिर उसी ३.३.५५ तक के बीच में बार बार घञ् प्रत्यय का विधान (तीन सूत्रों को छोड़कर) क्यों किया जा रहा है ? इसे इस प्रकार समझना चाहिये - पुरस्तादपवादा अनन्तरानेव विधीन् बाधन्ते नोत्तरान् (परिभाषा) यदि अपवादशास्त्र (बाधक), उत्सर्गशास्त्र (बाध्य) के पहिले ही कह दिया जाये, तब वह आगे आने वाले अनेक उत्सर्गों में से केवल उसी को बाधेगा, जो उसे सबसे पहिले प्राप्त होगा। जैसे - भाव अर्थ में तथा कर्ता से भिन्न कारक अर्थ में - इकारान्त धातुओं से एरच् ३.३.५६’ सूत्र अच् प्रत्यय का विधान कर रहा है और ऋकारान्त तथा उवर्णान्त धातुओं से ऋदोरप् ३.३.५७’ सूत्र अप् प्रत्यय का विधान कर रहा है। इनका बाधक घञ्, इनके पहिले ही ३.३.२० में बैठा हुआ है। जब अपवादसूत्र उत्सर्गसूत्र के पहिले ही बैठ जाता है, तब उसे ‘पुरस्तादपवाद’ कहा जाता है। पुरस्तादपवाद’ का अर्थ है कि इसे चलते चलते जो प्रथम बाध्य सूत्र मिलता है, उसी को यह बाध सकता है, उससे आगे वालों को छोड़ देता है। पुरस्तादपवादा अनन्तरानेव विधीन् बाधन्ते नोत्तरान्।’ यहाँ बाधक प्रत्यय घञ्’ है, उसे चलते चलते सबसे पहिले ‘एरच्’ मिलता है, तो यह उसी को बाध सकता है, उसके आगे आने वाले अप् को नहीं। परन्तु हम चाहते हैं कि यह घञ् प्रत्यय आगे आने वाले अप् को भी बाध ले, इसलिये इस सूत्र में सर्वेभ्यः’ कहा है । वह यह बतलाने के लिये ही कहा है कि इस अधिकार में यदि परिमाण अर्थ’ कहना हो, तो सारे धातुओं से घञ् ही होगा, अन्य कोई प्रत्यय नहीं। । दारजारौ कर्तरि णिलुक् च - कर्ता अर्थ में हेतुमण्ण्यन्त हृ तथा जृष् धातुओं से णिलोप तथा घञ् प्रत्यय होता है। दारयन्तीति दाराः । जरयन्तीति जाराः। अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (तृतीय पाद) ५०७ बाध्यबाधकभाव - देखिये कि भाव अर्थ में तथा कर्ता से भिन्न कारक अर्थ में ऋकारान्त तथा उवर्णान्त धातुओं से ‘ऋदोरप्’ सूत्र अप् प्रत्यय का विधान कर रहा है। इकारान्त धातुओं से ‘एरच्’ सूत्र अच् प्रत्यय का विधान कर रहा है। तब भी इस घञ् प्रत्यय के अधिकार में अर्थात् ३.३.५५ के बीच, अनेक इकारान्त, उकारान्त और ऋकारान्त धातुओं से घञ् प्रत्यय किया जा रहा है। अतः ३.३.५५ तक, इकारान्त धातुओं से होने वाले घञ् प्रत्यय को ‘एरच्’ सूत्र से होने वाले अच् प्रत्यय का अपवाद समझना चाहिये तथा उकारान्त और ऋकारान्त धातुओं से होने वाले घञ् प्रत्यय को ‘ऋदोरप्’ सूत्र से होने वाले अप् प्रत्यय का अपवाद समझना चाहिये। __इडश्च (३-३-२१)- इङ् धातु से कर्तृभिन्न कारक में संज्ञा विषय में तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है। अध्यायः (जिसका अध्ययन किया जाता है) (अधि + इङ् + घञ्) / इसी प्रकार - उपाध्यायः (जिसके समीप जाकर पढ़ा जाता है)। बाध्यबाधकभाव - हम देखते हैं कि इकारान्त धातुओं से एरच् ३.३.५६’ सूत्र अच् प्रत्यय का विधान कर रहा है अतः इकारान्त धातु ‘इङ’ से होने वाला यह घञ् प्रत्यय एरच से होने वाले अच् प्रत्यय का अपवाद है। अपादाने स्त्रियामुपसंख्यानम् तदन्ताच्च वा ङीष् (वा.) - अपादानार्थ में स्त्रीत्व विवक्षा में इङ् धातु से घञ् प्रत्यय तथा घान्त शब्द से स्त्रीत्व में ङीष् होता है। उपाध्याया, उपाध्यायी। शृ वायुवर्णनिवृतेषु (वा.) - वायु, वर्ण तथा निवृत अर्थों में शृ धातु से घञ् प्रत्यय होता है। शारो वायुः । शारो वर्णः (चितकबरा रङ्ग)। शारो निवृतम् (चितकबरी चादर)। बाध्यबाधकभाव - यह घञ् प्रत्यय ‘ऋदोरप्’ सूत्र से होने वाले अप् प्रत्यय का अपवाद है। उपसर्गे रुवः (३-३-२२) - उपसर्ग उपपद रहने पर रु धातु से घञ् प्रत्यय होता है, कर्तृभिन्न कारक में तथा भाव में। संरावः (आवाज) (रु + घञ्) / इसी प्रकार - उपरावः (आवाज) / विरावः (आवाज)। बाध्यबाधकभाव - यह घञ् प्रत्यय ऋदोरप्’ सूत्र से होने वाले अप् प्रत्यय का अपवाद है। समि युद्रुदुवः (३-३-२३) - सम् पूर्वक यु, द्रु, दु धातुओं से घञ् प्रत्यय होता है, कर्तृभिन्न कारक में, संज्ञाविषय में, तथा भाव में । संयावः (हलुवा) (सम् + यु + घञ्) । ५०८ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ इसी प्रकार - सन्द्रावः (भागना)। सन्दावः (भागना)। बाध्यबाधकभाव - यह घञ् प्रत्यय ‘ऋदोरप्’ सूत्र से होने वाले अप् प्रत्यय का अपवाद है। इसी प्रकार आगे भी घाधिकार के भीतर इकारान्त धातुओं से होने वाले घञ् प्रत्यय को एरच’ सूत्र का अपवाद समझना चाहिये, और उकारान्त और ऋकारान्त धातुओं से होने वाले घञ् प्रत्यय को ‘ऋदोरप्’ सूत्र का अपवाद समझना चाहिये। श्रिणीभुवोऽनुपसर्गे (३-३-२४) - उपसर्ग रहित श्रि, णी, भू इन धातुओं से घञ् प्रत्यय होता है, कर्तृभिन्न कारक में, संज्ञाविषय में, तथा भाव में । श्रायः (आश्रय) (श्रि + घञ्) / इसी प्रकार - नायः (ले जाना) / भावः (होना)। वौ क्षुश्रुवः (३-३-२५) - वि पूर्वक क्षु तथा श्रु धातु से घञ् प्रत्यय होता है, कर्तृभिन्न कारक में, संज्ञाविषय में, तथा भाव में । विक्षावः (शब्द करना) (वि + क्षु + घञ्) / इसी प्रकार - विश्रावः (अति प्रसिद्धि होना)। __ अवोदोर्नियः (३-३-२६) - अव और उद् उपसर्ग पूर्वक नी धातु से घञ् प्रत्यय होता है, कर्तृभिन्न कारक में, संज्ञाविषय में, तथा भाव में । अवनायः (अवनति) (अव + नी + घञ्) / इसी प्रकार - उन्नायः (उन्नति)। प्रे द्रुस्तुस्रुवः (३-३-२७) - प्र पूर्वक द्रु, स्तु, , इन धातुओं से घञ् प्रत्यय होता है, कर्तृभिन्न कारक संज्ञाविषय में, तथा भाव में । प्रद्रावः (भागना)(प्र + द्रु + घञ्) / इसी प्रकार - प्रस्तावः (प्रस्ताव) / प्रस्रावः (बहना)। __- निरभ्योः पूल्वोः (३-३-२८) - निर् तथा अभि पूर्वक पू, लू धातुओं से घञ् प्रत्यय होता है, कर्तृभिन्न कारक में संज्ञाविषय में, तथा भाव में। निष्पावः (पवित्र करना) (निस् + पू + घञ्) / इसी प्रकार - अभिलावः (काटन।)। उन्योHः (३-३-२९) - उद् नि उपपद में रहते गृ धातु से घञ् प्रत्यय होता है, कर्तृभिन्न कारक में, संज्ञाविषय में, तथा भाव में । उद्गारः (वमन, आवाज) (उद् + गृ + घञ्) / इसी प्रकार - निगारः (भोजन)। __ कृ धान्ये (३-३-३०) - उद् नि उपपद में रहते कृ धातु से धान्यविषय में घञ् प्रत्यय होता है, कर्तृभिन्न कारक में संज्ञाविषय में, तथा भाव में । उत्कारो धान्यस्य (धानों को इकट्ठा करना और ऊपर उछालना) (उत् + कृ + घञ्) / इसी प्रकार - निकारो धान्यस्य (धान का ऊपर फेंकना)। यज्ञे समि स्तुवः (३-३-३१) - यज्ञ के विषय में सम् पूर्वक स्तु धातु से घञ् अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (तृतीय पाद) ५०९ प्रत्यय होता है, कर्तृभिन्न कारक में संज्ञाविषय में, तथा भाव में । संस्तावः (सामगान करने वाले ऋत्विजों का स्तुति करने का स्थान) (सम् + स्तु + घञ्) । नाना प्रेस्रो यज्ञे (३-३-३२) - यज्ञ के विषय को छोड़कर प्र पूर्वक स्तृञ् धातु से घञ् प्रत्यय होता है, कर्तृभिन्न कारक में संज्ञाविषय में, तथा भाव में । शङ्खप्रस्तारः (शङ्खों का फैलाव, विस्तार)(प्र + स्तृ + घञ्) । प्रथने वावशब्दे (३-३-३३) - वि पूर्वक स्तृञ् धातु से अशब्दविषयक प्रथन = विस्तार, को न कहना हो तो घञ् प्रत्यय होता है, कर्तृभिन्न कारक में संज्ञाविषय में, तथा भाव में। पटस्य विस्तारः (कपड़े का फैलाव) (वि + स्तृ + घञ्)। छन्दोनाम्नि च (३-३-३४) - वि पूर्वक स्तृञ् धातु से छन्द का नाम कहना हो तो घञ् प्रत्यय होता है, कर्तृभिन्न कारक में संज्ञाविषय में, तथा भाव में। __(वि + स्तृ + घञ्) विस्तीर्यन्तेऽस्मिन्नक्षराणि इति, इस अधिकरण अर्थ में घञ् प्रत्यय करके अनन्तर उत्तरपद से कर्मधारय समास करके - विष्टारबृहती छन्दः, विष्टारपङ्क्तिश्छन्दः। उदि ग्रहः (३-३-३५) - उद् पूर्वक् ग्रह् धातु से घञ् प्रत्यय होता है, कर्तृभिन्न कारक में संज्ञाविषय में, तथा भाव में । उद्ग्राहः (विद्या का विचार)(उद् + ग्रह् + घञ्) । बाध्यबाधकभाव - ग्रह धातु से होने वाला घञ् प्रत्यय ‘ग्रहवृदृनिश्चिगमश्च’ सूत्र से होने वाले अप् प्रत्यय का अपवाद है। छन्दसि निपूर्वादपीष्यते जुगुद्यमननिपातनयोः - मुक् के उद्यमन और निपातन अर्थ में ग्रह धातु से घञ् प्रत्यय होता है। उद्ग्राभं च निग्राभं च ब्रह्म देवा अवीवृधन् । (उद् + ग्रह् + घञ्) _समि मुष्टौ (३-३-३६) - सम् पूर्वक् ग्रह् धातु से धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञाविषय में, तथा भाव में, मुष्टि = मुट्ठीविषय में घञ् प्रत्यय होता है। अहो मल्लस्य संग्राहः (अहो, पहलवान की पकड़)( सम् + ग्रह् + घञ्)। परिन्योर्नीर्णो ताभ्रेषयोः (३-३-३७) - परि तथा नि उपपद में रहते यथासंख्य करके नी तथा इण् धातु से द्यूत तथा अभ्रेष (उचित आचरण करना) के विषय में घञ् प्रत्यय होता है, कर्तृभिन्न कारक में संज्ञाविषय में, तथा भाव में । परिणायेन शारान् हन्ति (चारों ओर से जाकर पाँसों को मारता है।) (परि + नी + घञ्) । द्यूत अर्थ न होने पर अच् होकर - परिणयो विवाहः । ५१० .. अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ अभ्रेष अर्थ में - एषोऽत्र न्यायः (यहाँ यही उचित है।) (नि + इ + घञ्) । अभ्रेष अर्थ न होने पर - न्ययो नाशः। बाध्यबाधकभाव - यह घञ् प्रत्यय, ‘एरच्’ सूत्र से होने वाले ‘अच् प्रत्यय’ का अपवाद है। आगे भी ३.३.५५ तक, इकारान्त धातुओं से होने वाले घञ् प्रत्यय को इसी प्रकार अच् प्रत्यय का अपवाद समझिये। परावनुपात्यय इणः (३-३-३८) - परि पूर्वक इण् धातु से अनुपात्यय क्रम, = परिपाटी, गम्यमान होने पर घञ् प्रत्यय होता है, कर्तृभिन्न कारक में, संज्ञाविषय में, तथा भाव में । तव पर्यायः (तरी बारी) (परि + इ + घञ्) / इसी प्रकार - मम पर्यायः (मेरी बारी)। व्युपयोः शेतेः पर्याये (३-३-३९) - वि उप पूर्वक शीङ् धातु से पर्याय (प्राप्तावसरता) गम्यमान होने पर घञ् प्रत्यय होता है, कर्तृभिन्न कारक में संज्ञाविषय में, तथा भाव में । तव विशायः तरी सोने की बारी है।) (वि + शी + घञ्) । मम विशायः (मेरी सोने की बारी है।)। तव राजोपशायः । तव राजानम् उपशयितुं पर्यायः, इत्यर्थः, तेरी राजा के पास सोने की बारी है। हस्तादाने चेरस्तेये (३-३-४०) -चोरी अर्थ न हो, तो हाथ से ग्रहण करना गम्यमान होने पर चिञ् धातु से घञ् प्रत्यय होता है, कर्तृभिन्न कारक में संज्ञाविषय में, तथा भाव में। पुष्पप्रचायः (हाथ से फूल तोड़ना।)(प्र + चि + घञ्)। पुष्पावचायः ।
  • दूरी होने पर हाथ से न चुनकर यदि लाठी इत्यादि से चुना जाये तो अच् ही होगा - वृक्षशिखरे पुष्पप्रचयं करोति। चौर्य अर्थ होने पर भी अच् ही होगा - पुष्पप्रचयश्चौर्येण। __ उच्चयस्य प्रतिषेधो वक्तव्यः (वा.) - उत्पूर्वक चि धातु से उक्त अर्थ में घञ् प्रत्यय नहीं होता है। अतः एरच् से अच् होकर उच्चयः बनता है। निवासचितिशरीरोपसमाधानेष्वादेश्च कः (३-३-४१) - निवास, चिति, शरीर, उपसमाधान, इन अर्थों में चिञ् धातु से घञ् प्रत्यय होता है, तथा चिञ् के आदि चकार को ककारादेश होता है, कर्तृभिन्न कारक संज्ञाविषय में, तथा भाव में। निवास अर्थ में - काशीनिकायः । एषोऽस्य निकायः (यह इसका निवास स्थान है।) चिति (चुनना) अर्थ में - चीयतेऽस्मिन्नस्थ्यादिकम् इति कायः । आकायमग्नि अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (तृतीय पाद) ५११ चिन्वीत (श्मशान की आग का चयन किया जाये। PROPER शरीर अर्थ में - अनित्यकायः (शरीर अनित्य है।) अकायं ब्रह्म (ब्रह्म शरीररहित है।)। उपसमाधान (ढर बनाना) अर्थ में - महान् फलनिकायः (बड़ा भारी फलों का ढेर)। गोमयनिकायः। __सचे चानौत्तराधर्ये (३-३-४२) - ऐसा सङ्घ, जिसमें औत्तराधर्य (ऊपर नीचे का भेद) न हो, वाच्य होने पर, चिञ् धातु से घञ् प्रत्यय होता है, तथा आदि चकार को ककारादेश होता है। कर्तृभिन्न कारक में संज्ञाविषय में, तथा भाव में। भिक्षुकनिकायः (भिक्षुकों का समुदाय) (भिक्षुक + नि + चि + घञ्)। इसी प्रकार - ब्राहणनिकायः (ब्राहणों का समुदाय)। वैयाकरणनिकायः (वैयाकरणों का समुदाय)। इनमें औत्तराधर्य नहीं है। किन्तु सूकर के बच्चे स्तनपान के लिये एक दूसरे के ऊपर नीचे होकर लोट जाते हैं। इसमें औत्तराधर्य है। प्राणियों का ऐसा समुदाय होने पर घञ् प्रत्यय न होकर अच् ही होता है - सूकर + अच् = सूकरनिचयः । यदि सुअर के बच्चे भी भिक्षुवत् पृथक् पृथक् अवस्थित हों, तो घञ्ही होगा। सङ्घ प्राणिविषयक ही होता है, अतः कृताकृतसमुच्चयः, प्रमाणसमुच्चयः, आदि में अच् ही होगा।

णच् प्रत्यय

कर्मव्यतिहारे णस्त्रियाम् (३-३-४३) - कर्मव्यतिहार = क्रिया का अदल बदल गम्यमान हो, तो स्त्रीलिङ्ग में, धातु से, कर्तृभिन्न कारक संज्ञा विषय में तथा भाव में णच् प्रत्यय होता है। णच् प्रत्यय होने पर णचः स्त्रियामञ् ५.४.१४’ सूत्र से स्वार्थिक अञ् तद्धित प्रत्यय होता है। __ व्यावक्रोशी वर्तते (वि + अव + क्रुश् + णच् + अञ् + डीप् । व्यावलेखी वर्तते (वि + अव + लिख् + णच् + अञ् + ङीप् ।) व्यावहासी वर्तते (वि + अव + हस् + णच् + अञ् + ङीप् = व्यावहासी।)। बाध्यबाधकभाव - यह णच् प्रत्यय घञ् प्रत्यय का अपवाद है।

इनुण् प्रत्यय

अभिविधौ भाव इनुण् - ३.३.४४ - अभिविधि अर्थात् अभिव्याप्ति गम्यमान हो तो धातु से भाव में इनुण् प्रत्यय होता है। सांकूटिनं वर्तते , साराविणं वर्तते । ५१२ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ बाध्यबाधकभाव - यह इनुण् प्रत्यय घञ् प्रत्यय का अपवाद है। आक्रोशे वन्योर्ग्रहः (३.३.४५)- आक्रोश गम्यमान हो तो अव तथा नि पूर्वक ग्रह धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है। आक्रोश, क्रोध से कुछ कहने को कहते हैं। अवग्राहो दुष्ट ! ते भूयात् । निग्राहो दुष्ट ! ते भूयात् । (अव + ग्रह् + घञ्) । (नि + ग्रह् + घञ्) । आक्रोश अर्थ न होने पर - अवग्रहः पदस्य। निग्रहश्चोरस्य। __ प्रेलिप्सायाम् (३-३-४६) - लिप्सा = प्राप्त करने की इच्छा, गम्यमान हो तो प्र पूर्वक ग्रह धातु से घञ् प्रत्यय होता है, कर्तृभिन्न कारक में संज्ञाविषय में, तथा भाव में। पात्रप्रग्राहेण चरति भिक्षुकोऽन्नार्थी, (पात्र + ङस् + ग्रह + घञ्) । स्रुवप्रग्राहेण चरति द्विजो दक्षिणार्थी (स्रुव + ङस् + ग्रह + घञ्) । अन्यत्र पात्रप्रग्रहः । परौ यज्ञे (३-३-४७) - यज्ञ विषय में परि उपसर्ग पूर्वक ग्रह धातु से घञ् प्रत्यय होता है, कर्तृभिन्न कारक संज्ञाविषय में, तथा भाव में । उत्तरः परिग्राहः (खड्गाकृति दारुमय पात्रविशेष से वेदिदेशको घेरना।) अधरः परिग्राहः (नधेि का निर्माण)। __ बाध्यबाधकभाव - इन सभी में ग्रह धातु से होने वाला घञ् प्रत्यय ‘ग्रहवृदृनिचिगमश्च’ सूत्र से होने वाले अप् प्रत्यय का अपवाद है। नौ वृ धान्ये (३-३-४८) - नि पूर्वक वृ धातु से धान्यविशेष को कहना हो तो घञ् प्रत्यय होता है, कर्तृभिन्न कारक में संज्ञाविषय में, तथा भाव में। नीवाराः व्रीहयः (नीवार नाम का धान्य विशेष) उदि श्रयतियौतिपूद्रुवः (३-३-४९) - उत् उपसर्ग पूर्वक श्रि, यु, पू, द्रु, इन धातुओं से घञ् प्रत्यय से होता है, कर्तृभिन्न कारक संज्ञाविषय में, तथा भाव में। __उच्छ्रायः (ऊँचाई) (उत् + श्रि + घञ्) / उद्यावः (इकट्ठा करना) (उत् + यु + घञ्) / उत्पावः (यज्ञीय पात्रों का संस्कार विशेष) (उत् + पू + घञ्) / उद्मावः (भागना) (उत् + द्रु + घञ्)। विभाषाडि रुप्लुवोः (३-३-५०) - आङ् उपसर्ग पूर्वक रु तथा प्लु धातुओं से घञ् प्रत्यय विकल्प से होता है, कर्तृभिन्न कारक में संज्ञाविषय में, तथा भाव में। इसलिये एक पक्ष में तो घञ् प्रत्यय होगा तथा एक पक्ष में अप् प्रत्यय होगा। घञ् प्रत्यय लगने पर - आरावः (आ + रु + घञ्) (आवाज)। आप्लावः (आ + प्लु + घञ्) (डुबकी मारना)। अप् प्रत्यय लगने पर - आरवः, आप्लवः । अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (तृतीय पाद) ५१३ अवे ग्रहो वर्षप्रतिबन्धे (३-३-५१) - वर्ष अभिधेय होने पर अव उपसर्ग पूर्वक ग्रह धातु से घञ् प्रत्यय विकल्प से होता है, कर्तृभिन्न कारक में संज्ञाविषय में, तथा भाव में। इसलिये एक पक्ष में तो घञ् प्रत्यय होगा तथा एक पक्ष में अप् प्रत्यय होगा। घञ प्रत्यय लगने पर - अवग्राहो देवस्य / अप प्रत्यय लगने पर - अवग्रहो देवस्य (दव का न बरसना) प्रे वणिजाम् (३-३-५२) - प्र उपसर्ग पूर्वक ग्रह धातु से घञ् प्रत्यय विकल्प से होता है, कर्तृभिन्न कारक में संज्ञाविषय में, तथा भाव में, यदि घञ् प्रत्यय से बने हुए शब्द का वाच्य वणिक् सम्बन्धी हो तो। इसलिये एक पक्ष में तो घञ् प्रत्यय होगा तथा एक पक्ष में अप् प्रत्यय होगा। घञ् प्रत्यय लगने पर - तुलाप्रग्राहेण चरति - (तराजू का मध्यसूत्र पकड़े घूमता है।) अप् प्रत्यय लगने पर - तुलाप्रग्रहेण चरति - (तराजू का मध्यसूत्र पकड़े घूमता है।) रश्मौ च (३-३-५३) - रश्मि अर्थात् घोड़े की लगाम वाच्य हो तो प्र उपसर्ग पूर्वक ग्रह धातु से घञ् प्रत्यय विकल्प से होता है, कर्तृभिन्न कारक में संज्ञाविषय में, तथा भाव में। इसलिये एक पक्ष में तो घञ् प्रत्यय होगा तथा एक पक्ष में अप् प्रत्यय होगा। घञ् प्रत्यय लगने पर - प्रग्राहः / अप् प्रत्यय लगने पर - प्रग्रहः (लगाम, रस्सी)। - वृणोतेराच्छादने (३-३-५४) - आच्छादन अर्थ में प्र उपसर्ग पूर्वक वृञ् धातु से घञ् प्रत्यय विकल्प से होता है, कर्तृभिन्न कारक में संज्ञाविषय में, तथा भाव में। इसलिये एक पक्ष में तो घञ् प्रत्यय होगा तथा एक पक्ष में अप् प्रत्यय होगा। घञ् प्रत्यय लगने पर - प्रवारः (आ + वृ + घञ्) / अप् प्रत्यय लगने पर - प्रवरः - (चादर)। परौ भुवोऽवज्ञाने (३-३-५५)- तिरस्कार अर्थ में वर्तमान परि उपसर्ग पूर्वक भू धातु से घञ् प्रत्यय विकल्प से होता है, कर्तृभिन्न कारक में संज्ञाविषय में, तथा भाव में। इसलिये एक पक्ष में तो घञ् प्रत्यय होगा तथा एक पक्ष में अप् प्रत्यय होगा। घञ् प्रत्यय लगने पर - परिभावः / अप् प्रत्यय लगने पर - परिभवः - (निरादर)। यहाँ से घञ् प्रत्यय का अधिकार निवृत्त हो गया।

अच् प्रत्यय

__ एरच् (३-३-५६) - इवर्णान्त धातुओं से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में अच् प्रत्यय होता है। जयः, चयः, नयः, क्षयः, अयः । ५१४ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ बाध्यबाधकभाव - यह अच् प्रत्यय घञ् प्रत्यय का अपवाद है। अज्विधौ भयादीनामुपसंख्यानं नपुंसके क्तादिनिवृत्त्यर्थम् (वा.)- नपुंसकलिङ्ग में परत्वात् होने वाले क्त, ल्युट आदि को रोककर अच् प्रत्ययान्त भयादि शब्द होते हैं। भयम् । वर्षम्। जवसवौ छन्दसि वक्तव्यौ (वा.) - वेद विषय में अप् को बाधकर अच्प्रत्ययान्त जव तथा सव शब्द होते हैं। ऊर्वोरस्तु मे जवः । पञ्चौदनसवः।

अप् प्रत्यय

ऋदोरप् (३-३-५७) - ऋकारान्त तथा उवर्णान्त धातुओं से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में अप् प्रत्यय होता है। करः, गरः, शरः । यवः, लवः, पवः । बाध्यबाधकभाव - यह अप् प्रत्यय घञ् प्रत्यय का अपवाद है। ग्रहवृदृनिश्चिगमश्च (३-३-५८) - ग्रह, वृ, दृ तथा निर् पूर्वक चि एवं गम् इन धातुओं से से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में अप् प्रत्यय होता है। ग्रहः, वरः, दरः, निश्चयः, गमः। बाध्यबाधकभाव - निस् + चि धातु से होने वाला अप् प्रत्यय, एरच से होने वाले अच् प्रत्यय का अपवाद है और शेष धातुओं से होने वाला अप् प्रत्यय घञ् प्रत्यय का अपवाद है। वशिरण्योरुपसंख्यानम् (वा.) - वश् तथा रण् धातुओं से भी अप् प्रत्यय होता है। वशः, रणः। बाध्यबाधकभाव - यह अप् प्रत्यय घञ् प्रत्यय का अपवाद है। घार्थे कविधानं स्थास्नापाव्यधिहनियुध्यर्थम् (वा.) - स्था, स्ना, पा, व्यध्, हन्, युध्, से घञर्थ में क प्रत्यय होता है। प्रतिष्ठितेऽस्मिन्निति प्रस्थः पर्वतस्य। प्रतिष्ठन्तेऽस्मिन् धान्यानि इति प्रस्थः । प्रस्नात्यस्मिन्प्रस्नः । प्रपिबन्त्यस्यामिति प्रपा । आविध यन्ति तेनेत्याविधः । विहन्यन्तेऽस्मिन् मनांसि इति विघ्नः । आयुध्यतेऽधेनेत्यायुधम् । इसी प्रकार क प्रत्यय से चक्रम्, चिक्लिदम्, चक्रमः, चक्नसः, आदि। उपसर्गेऽदः (३-३-५९)- उपसर्ग उपपद में रहते अद् धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में अप् प्रत्यय होता है। विघसः । प्रघसः । उपसर्ग न होने पर घञ् ही होता है - घासः। र नौ ण च (३-३-६०) - नि उपसर्ग पूर्वक अद् धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (तृतीय पाद) ५१५ में तथा भाव में ण प्रत्यय होता है तथा चकार से अप् प्रत्यय भी होता है। , नि + अद् + ण = न्यादः । नि + अद् + अप् = निघसः । (ध्यान दें कि ‘घञपोश्च’ सूत्र २.४.४८ से, केवल घञ् और अप् प्रत्यय परे होने पर अद् धातु को घस् आदेश होता है। अतः ण प्रत्यय परे होने पर अद् धातु को घस् आदेश नहीं हुआ है।) __व्यधजपोरनुपसर्गे (३-३-६१) - उपसर्गरहित व्यध तथा जप धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में अप् प्रत्यय होता है। व्यध् + अप् = व्यधः । जप् + अप् = जपः। उपसर्ग होने पर घञ् ही होता है - आव्याधः, उपजापः। बाध्यबाधकभाव - यह अप् प्रत्यय घञ् प्रत्यय का अपवाद है। स्वनहसोर्वा (३-३-६२) - उपसर्गरहित स्वन तथा हस् धातुओं से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में विकल्प से अप् प्रत्यय होता है। स्वनः, स्वानः । हसः हासः । यमः समुपनिविषु च (३-३-६३) - सम्, उप, नि, वि उपसर्ग पूर्वक तथा निरुपसर्ग भी यम् धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में विकल्प से अप् प्रत्यय होता है। संयमः, संयामः । उपयमः, उपयामः । नियमः, नियामः। वियमः, वियामः । अनुपसर्ग से भी हो सकता है - यमः, यामः।

  • नौ गदनदपठस्वनः (३-३-६४) - नि पूर्वक गद्, नद्, पठ् तथा स्वन् धातुओं से विकल्प से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में अप् प्रत्यय होता है। निगदः, निगादः । निनदः, निनादः । निपठः, निपाठः ।। __ क्वणो वीणायां च (३-३-६५) - निपूर्वक क्वण धातु से, अनुपसर्ग क्वण् धातु से तथा वीणा विषय होने पर निभिन्न उपसर्ग पूर्वक भी क्वण् धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में विकल्प से अप् प्रत्यय होता है। विकल्प कहने से पक्ष में घञ् होगा। निपूर्वकाद् - नि + क्वण् + अप् = निक्वणः, नि + क्वण् + घञ् = निक्वाणः । अनुपसर्गात् - क्वण् + अप् = क्वणः, क्वण् + घञ् = क्वाणः । वीणायाम् - कल्याणप्रक्वणा वीणा, कल्याणप्रक्वाणा। नित्यं पणः परिमाणे (३-३-६६) - ‘पण व्यवहारे स्तुतौ च’ इस धातु से परिमाण गम्यमान होने पर नित्य ही अप प्रत्यय होता है, कर्तभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में। मूलकपणः, शाकपणः । (विक्रय के लिये जो शाक, मूली आदि को मुट्ठी में लेकर बाँध दिया जाता है, ५१६ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ उसे ही शाकपण, मूलकपण, आदि कहा जाता है।) मदोऽनुपसर्गे (३-३-६७) - उपसर्गरहित मद् धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में अप् प्रत्यय होता है। विद्यया मदः विद्यामदः । धनेन मदः धनमदः । कुलेन मदः कुलमदः । उपसर्ग होने पर घञ् प्रत्यय ही होता है। उन्मादः, प्रमादः । प्रमदसंमदौ हर्षे (३-३-६८) - हर्ष अभिधेय होने पर प्रमद और सम्मद ये शब्द अप् प्रत्ययान्त निपातन किये जाते हैं, कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में। कन्यानां प्रमदः । कोकिलानां सम्मदः।। हर्ष अर्थ न होने पर घञ् ही होता है - संमादः, प्रमादः। समुदोरजः पशुषु (३-३-६९)- सम्, उत् उपसर्गपूर्वक अज् धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में अप् प्रत्यय होता है, समुदाय से पशुविषय प्रतीत हो तो। . सम् पूर्वक अज् धातु का अर्थ समुदाय होता है - सम् + अज् + अप् = समजः पशूनाम् । (पशुओं का समुदाय।) उद् पूर्वक अज् धातु का अर्थ प्रेरित करना होता है - उद् + अज् + अप् = उदजः पशूनाम्। (पशुओं को हाँकना, प्रेरित करना।) पशु अर्थ न होने पर घञ् ही होता है - ब्राह्मणानां समाजः । क्षत्रियाणां उदाजः । अक्षेष ग्लहः (३-३-७०) - अक्ष शब्द का अर्थ है देवन अर्थात जआ खेलना। उस जुए में जो पणरूप से ग्राह्य हो, उस अर्थ में ग्रह धातु से अप् प्रत्यय होता है तथा निपातन से लत्व होता है, कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में । अक्षस्य ग्लहः (द्यूतक्रीडा में लगाई गई वस्तु, जिसे जीतने वाला ग्रहण करता है)। (‘ग्रहवृदृनिश्चिगमश्च ३-३-५८’ सूत्र से अप् प्रत्यय तो सिद्ध ही था, अतः यह सूत्र लत्व निपातन के लिये ही है।) प्रजने सर्तेः (३-३-७१) - प्रजन अर्थ में वर्तमान सृ धातु से अप् प्रत्यय होता है, कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में । गवामुपसरः (गायों का प्रथम बार गर्भग्रहण)। पशूनामुपसरः (पशुओं का प्रथम बार गर्भग्रहण)। (जो अवसरः, प्रसरः आदि शब्द बनते हैं, वे पुंसि संज्ञायां घः प्रायेण ३.३.११८, सूत्र से घ प्रत्य । करके बनते हैं।) हः सम्प्रसारणं च न्यभ्युपविषु (३-३-७२) - नि, अभि, उप तथा वि पूर्वक अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (तृतीय पाद) ५१७ हृञ् धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में अप् प्रत्यय होता है तथा हृञ् धातु को सम्प्रसारण भी हो जाता है। नि + हृञ् + अप् = निहवः । इसी प्रकार - अभिहवः । उपहवः । विहवः। आङि युद्धे (३-३-७३) - युद्ध अभिधेय हो तो आङ्पूर्वक हे धातु को सम्प्रसारण होता है तथा धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में अप् प्रत्यय होता है। आहूयन्तेऽस्मिन् = आहवः । निपानमाहावः (३-३-७४) - निपान अभिधेय हो तो आङ् पूर्वक हेञ् धातु से अप् प्रत्यय सम्प्रसारण तथा वृद्धि भी निपातन से करके ‘आहावः’ शब्द सिद्ध करते हैं, कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में। आ + हृञ् + अप् = आहावः । आहूयन्ते पशवो जलपानाय यत्र स आहावः । आहावस्तु निपानं स्यादुपकूपजलाशये। भावेऽनुपसर्गस्य (३-३-७५) - उपसर्गरहित हृञ् धातु से भाव में अप् प्रत्यय तथा सम्प्रसारण हो जाता है। हवः । हवे हवे सुहवं शूरमिन्द्रम् । उपसर्ग होने पर घञ् होकर आह्वायः ही बनेगा। (‘भावे’ का अधिकार चल ही रहा था, तब भी भावे इसलिये कहा कारक संज्ञा में यह न हो।) अनुवृत्ति - ‘भावेऽनुपसर्गस्य’ की अनुवृत्ति ३.३.७६ तक जायेगी। हनश्च वधः (३-३-७६) - अनुपसर्ग हन् धातु से भाव अर्थ में अप् प्रत्यय होता है तथा अप् प्रत्यय होने पर हन् को वध आदेश भी होता है। वधश्चौराणाम्, कंसस्य वधः । हन + अप = वधः । चकाराद घत्र प्रत्यय भी होता है। हन + घन = घातः । मूर्ती घनः (३-३-७७) - मूर्ति अभिधेय होने पर हन् धातु से भाव अर्थ में अप् प्रत्यय होता है और अप् प्रत्यय लगने पर हन् धातु को घन् आदेश भी होता है। हन् + अप् - घन् + अ = घनो मेघः / घनं वस्त्रम् । अभ्रघनः (अभ्रस्य काठिन्यम्) । सैन्धवघनमानय, इसमें घन धर्म है, उसका आनयन संभव नहीं है। अतः धर्म शब्द से धर्मी का आनयन समझना चाहिये। _अब यहाँ से पुनः कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भावे, ये दोनों अर्थ चलने लगेंगे। व अन्तर्घनो देशः (३-३-७८) - देश अभिधेय होने पर कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा में भाव में अन्तर्घन शब्द अन्तर् पूर्वक हन् धातु से अप् प्रत्यय तथा हन् को घन् आदेश करके किया जाता है। अन्तर्घनो देशः । ५१८ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ अगारैकदेशे प्रघणः प्रघाणश्च (३-३-७९) - गृह का एकदेश वाच्य हो तो प्र उपसर्ग पूर्वक हन् धातु से अप् प्रत्यय और हन् को घन आदेश कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में निपातन किये जाते हैं। प्र + हन् + अप् = प्रघणः / प्र + हन् + घञ् = प्रघाणः । __उद्घनोत्याधानम् (३-३-८०) - अत्याधान वाच्य हो, तो कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा में भाव में हन् धातु से अप् प्रत्यय तथा हन् को घन् आदेश होता है। उद्घनः (जिस काष्ठ पर काष्ठ को रखकर बढ़ई लोग छीलते हैं, वह काष्ठ)। __यह अप् प्रत्यय अधिकरण अर्थ में हुआ है। (जिस काष्ठ को फाड़ना होता है, उसके नीचे एक काष्ठ और रखने की क्रिया को अत्याधान करना कहते हैं।) अपघनोऽङ्गम् (३-३-८१)- अपपूर्वक हन् धातु से अङ्ग = शरीर का अवयव अभिधेय हो, तो हन् धातु से अप् प्रत्यय तथा हन् को घन् आदेश करके अपघन शब्द निपातन किया जाता है। अपहन्यतेऽनेनेति अपघनः । (हाथ या पैर।) करणेऽयोविद्रुषु (३-३-८२) - अयस्, वि तथा द्रु उपपद में रहते हन् धातु से करण कारक में अप् प्रत्यय होता है तथा हन् के स्थान में घनादेश भी होता है। अयो हन्यतेऽनेनेति अयोघनः (हथौड़ा)। विघनः (हथौड़ा)। द्रुघनः (कुल्हाड़ा)। अनुवृत्ति - यहाँ से करणे की अनुवृत्ति ३.३.८४ तक जायेगी। स्तम्बे क च (३-३-८३) - स्तम्ब शब्द उपपद में रहते करण कारक में हन् धातु से क प्रत्यय तथा अप् प्रत्यय भी होता है। स्तम्बो हन्यतेऽनेनेति स्तम्बघ्नः । स्तम्ब + ङस् + हन् + क । स्तम्बो हन्यतेऽनेनेति स्तम्बघनः । स्तम्ब + ङस् + हन् + अप्। (जिससे घास काटी जाये, वह खुरपी।) स्त्रियां स्तम्बना, स्तम्बघना इति इष्यते- स्त्रीलिङ्ग में स्तम्बघ्ना, स्तम्बघना शब्द निपातन से बनते हैं। __ परौ घः (३-३-८४) - परिपूर्वक हन् धातु से करण कारक में अप् प्रत्यय होता है तथा हन् के स्थान में घ आदेश भी होता है। परि + हन् + अप् - परि + ध + अ = परिघः। उपघ्न आश्रये (३-३-८५)- उपघ्न शब्द में उपपूर्वक हन् धातु से अप् प्रत्यय तथा हन् की उपधा का लोप निपातन किया जाता है, आश्रय सामीप्य होने पर, कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में। पर्वतेन उपहन्यते - पर्वतोघ्नः (पर्वत के समीपस्थ)। ग्रामेण उपहन्यते ग्रामोपघ्नः (ग्राम के समीपस्थ)। यह अप् प्रत्यय कर्म अर्थ में हुआ है। अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (तृतीय पाद) ५१९ संघोद्धौ गणप्रशंसयोः (३-३-८६)- सङ्घ और उद्घ शब्द यथासङ्ख्य करके गण अभिधेय होने पर तथा प्रशंसा गम्यमान होने पर निपातन किये जाते हैं, कर्तृभिन्न कारक संज्ञा विषय में तथा भाव में । संहननं सङ्घः (सम् + हन् + अप्) । सङ्घः पशूनाम् (पशुओं को इकट्ठा करना)। यह अप् प्रत्यय भाव अर्थ में हुआ है। उद्हन्यते उत्कृष्टो ज्ञायत इति उद्घो मनुष्याणाम् । (मनुष्यों में प्रशस्त)। यह अप् प्रत्यय कर्म अर्थ में हुआ है। निघो निमित्तम् (३-३-८७) - निमित अभिधेय होने पर नि पूर्वक हन् धातु से अप् प्रत्यय, टि भाग का लोप तथा घ आदेश निपातन करके निघ शब्द सिद्ध होता __ जो सब प्रकार से मित है, अर्थात् जिसकी ऊँचाई और स्थूलता समान हैं, उसे निमित कहते हैं। निर्विशेषं हन्यन्ते ज्ञायन्ते इति निघा वृक्षाः। यह अप् प्रत्यय कर्म अर्थ में हुआ है।

वित्र प्रत्यय

ड्वितः वित्र (३-३-८८) - जिन धातुओं में डु इत् संज्ञक है, उन धातुओं से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में चित्र प्रत्यय होता है। डुपचष् - पाकेन निवृत्तम् पवित्रमम् । उप्त्रिमम् । कृत्रिमम्। (मप् प्रत्यय के बिना कित्र प्रत्यय का प्रयोग कहीं नहीं होता है।)

अथुच् प्रत्यय

ट्वितोऽथुच् (३-३-८९) - जिन धातुओं में टु इत् संज्ञक है, उन धातुओं से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में अथुच् प्रत्यय होता है । टुवेपृ + अथुच् = वेपथुः । टुओश्वि + अथुच् = श्वयथुः । टुक्षु + अथुच् = क्षवथुः ।

नङ् प्रत्यय

यजयाचयतविच्छप्रच्छरक्षो नङ् (३-३-९०) - यज, याच आदि धातुओं से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में नङ् प्रत्यय होता है। यज् + नङ् = यज्ञः । याच् + नङ् = याच्ञा। यत् + नङ् = यत्नः । विश् + नङ् = विश्नः । प्रच्छ् + नङ् = प्रश्नः । रक्ष् + नङ् = रक्ष्णः ।

नन् प्रत्यय

स्वपो नन् (३-३-९१) - जिष्वप् शये धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा ५२० अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ भाव में नन् प्रत्यय होता है। स्वप् + नन् = स्वप्नः।

कि प्रत्यय

उपसर्गे घोः कि (३-३-९२) - उपसर्ग उपपद में रहते घुसंज्ञक धातुओं से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में कि प्रत्यय होता है। वि+ धा + कि = विधिः । नि + धा + कि = निधिः । इसी प्रकार - प्रतिनिधिः । अन्तर्द्धिः । प्र + दा + कि = प्रदिः । उपाधीयतेऽनेन इति उपाधिः । कर्मण्यधिकरणे च (३-३-९३) - कर्म उपपद में रहते अधिकरण कारक में भी घुसंज्ञक धातुओं से कि प्रत्यय होता है। जलानि धीयन्तेऽस्मिन्निति जलधिः । शरा धीयन्तेऽस्मिन्निति शरधिः । उदकं धीयतेऽस्मिन्निति उदधिः ।

स्त्रियाम् का अधिकार

यहाँ से अर्थात् ३.३.९४ से ‘स्त्रियाम् क्तिन्’ सूत्र से लेकर ‘स्त्रियाम्’ का अधिकार आगे आने वाले ‘कृत्यल्युटो बहुलम्’ के पहिले तक अर्थात् ३.३.११२ तक चलेगा। तात्पर्य यह कि ३.३.११२ तक जो प्रत्यय होंगे, वे स्त्रीलिङ्ग में ही होंगे। हम जानते हैं कि पूरी अष्टाध्यायी की यह व्यवस्था है कि जहाँ अपवाद सूत्र प्राप्त है, वहाँ उत्सर्ग सूत्र कार्य नहीं कर सकता। अतः अपवादसूत्र उत्सर्गसूत्रों के नित्य बाधक होते हैं। किन्तु वाऽसरूपोऽस्त्रियाम् ३.१.९४’ सूत्र के अनुसार कृत् प्रत्ययों के लिये व्यवस्था यह है, कि अनुबन्धों को हटाने के बाद यदि उत्सर्ग और अपवाद प्रत्ययों का स्वरूप अलग अलग प्रकार का है, तब तो अपवाद प्रत्यय, उत्सर्ग प्रत्यय को विकल्य से बाधता है। अर्थात् हम चाहें तो उत्सर्ग प्रत्यय भी लगा सकते हैं, और चाहें तो अपवाद प्रत्यय भी लगा सकते है। किन्तु यदि अनुबन्धों को हटाने के बाद उत्सर्ग और अपवाद प्रत्ययों का स्वरूप बिल्कुल एक सा है, तब तो अपवाद प्रत्यय, उत्सर्ग प्रत्यय को नित्य ही बाधता है। अर्थात् तब हम केवल अपवाद प्रत्यय ही लगा सकते हैं, उत्सर्गप्रत्यय नहीं लगा सकते। जैसे - ‘ण्यत्’, ‘क्यप्’ और ‘यत्’ प्रत्ययों के अनुबन्धों को हटाने के बाद तीनों में ‘य’ ही शेष बचता है। अतः जब ‘ण्यत्’ का अपवाद बनकर यत्’ आता है, तब यत्’ प्रत्यय ‘ण्यत्’ प्रत्यय का नित्य बाधक बनता है। अर्थात् अब हम अदुपध पवर्गान्त धातुओं से केवल अपवाद प्रत्यय यत्’ ही लगा सकते हैं, उत्सर्गप्रत्यय ‘ण्यत्’ नहीं लगा सकते।अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (तृतीय पाद) ५२१ इसी प्रकार, ‘कर्मण्यण’ और ‘आतोऽनुपसर्गे कः’ सूत्रों से कहे जाने वाले अण् और क प्रत्ययों में अनुबन्धों को हटाने के बाद ‘अ’ ही शेष बचता है। अतः अपवाद प्रत्यय ‘क’, उत्सर्ग प्रत्यय ‘अण्’ को नित्य ही बाधता है। अर्थात् अब हम अनुपसर्ग आकारान्त धातुओं से केवल अपवाद प्रत्यय ‘क’ ही लगा सकते हैं, उत्सर्गप्रत्यय ‘अण्’ नहीं लगा सकते। अस्त्रियाम् - सूत्र में दिये हुये ‘अस्त्रियाम्’ शब्द का अर्थ है कि यदि कृत् प्रत्यय स्त्रीलिङ्ग में हुए हैं, तब तो अपवाद प्रत्यय असरूप होने के बाद भी उत्सर्ग प्रत्यय का नित्य बाधक होगा। जैसे - ‘स्त्रियां क्तिन्’ सूत्र से धातुमात्र से स्त्रीलिङ्ग में क्तिन् प्रत्यय होता है। धातुमात्र से होने के कारण यह उत्सर्ग प्रत्यय है। इसी प्रकरण में ‘अ प्रत्ययात्’ सूत्र आता है। यह प्रत्ययान्त धातुओं से स्त्रीलिङ्ग में ‘अ’ प्रत्यय का विधान करता है। देखिये कि अनुबन्धों को हटाने के बाद ‘ति’ तथा ‘अ’ की आकृति सर्वथा भिन्न-भिन्न है, तब भी स्त्रीप्रत्यय होने के कारण यह ‘अ’ प्रत्यय ‘क्तिन्’ प्रत्यय का नित्य ही बाधक होता है। इसलिये प्रत्ययान्त धातुओं से ‘अ’ ही होगा और शेष धातुओं से ‘क्तिन्’ ही होगा। इसी प्रकार जागृ धातु से जागर्तेरकारो वा’, इस वार्तिक से स्त्रीलिङ्ग में श (अ) प्रत्यय तथा ‘अ’ प्रत्यय विकल्प से विहित हैं। इनकी आकृति क्तिन’ से सर्वथा भिन्न है, तब भी स्त्रीप्रत्यय होने के कारण ये ‘श’ और ‘अ’ प्रत्यय ‘क्तिन्’ प्रत्यय के नित्य ही बाधक होंगे, तो ‘श’ लगाकर जागर्या और ‘अ’ लगाकर जागरा प्रयोग बनेंगे, क्तिन्’ बिल्कुल नहीं लगेगा। इसी प्रकार जो धात निष्ठा में सेट हों साथ ही हलन्त गरुमान भी हों उनसे ‘गुरोश्च हलः’ सूत्र स्त्रीलिङ्ग में ‘अ’ प्रत्यय कहता है। आकृति भिन्न होने के कारण यह ‘अ’ प्रत्यय क्तिन्’ प्रत्यय का नित्य ही बाधक होगा। अतः निष्ठा में सेट हलन्त गुरुमान् धातुओं से स्त्रीलिङ्ग में ‘अ’ प्रत्यय ही होगा, ‘क्तिन्’ बिल्कुल नहीं लगेगा। __इसे स्मरण रखकर ही हम निर्णय करें कि ३.३.९४ से ३.३.११२ के बीच जो भी भाववाची कृत् प्रत्यय स्त्रीलिङ्ग में कहे गये हैं, उनमें से किस धातु से कौन सा भाववाची कृत् प्रत्यय हमें लगाना है। स्त्रियां क्तिन् (३-३-९४) - धातुमात्र से स्त्रीलिङ्ग में, कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में क्तिन् प्रत्यय होता है। ५२२ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ हम जानते हैं कि इकारान्त धातुओं से भाव अर्थ में ‘एरच’ सत्र से अच प्रत्यय का विधान है। उसे परत्वात् बाधकर इस सूत्र से इकारान्त धातुओं से स्त्रीलिङ्ग में भाव अर्थ में क्तिन प्रत्यय होता है - चि+ क्तिन = चितिः। हम जानते हैं कि उकारान्त तथा ऋकारान्त धातुओं से भाव अर्थ में ‘ऋदोरप्’ सूत्र से ‘अप्’ प्रत्यय का विधान है। उसे परत्वात् बाधकर इस सूत्र से उकारान्त तथा ऋकारान्त धातुओं से स्त्रीलिङ्ग में भाव अर्थ में क्तिन्’ प्रत्यय होता है - कृ + क्ति = कृतिः। भू + क्तिन् = भूतिः। हम जानते हैं कि हलन्त धातुओं से भाव अर्थ में हलश्च’ (३.३.१२१) सूत्र से घञ् प्रत्यय का विधान है। उसे अपवादत्वात् बाधकर इस सूत्र से हलन्त धातुओं से भाव अर्थ में स्त्रीलिङ्ग में क्तिन् प्रत्यय होता है - मन् + क्तिन् = मतिः । गम् + क्तिन् = गतिः । स्फाय् + क्तिन् = स्फातिः । चर् + क्तिन् = चूर्तिः । फल् + क्तिन् = फुल्तिः । अप् + चाय् + क्तिन् = अपचितिः। इस प्रकार यह क्तिन् प्रत्यय, घञ्, अच् और अप् प्रत्ययों का अपवाद है। अतः पुंस्त्वविशिष्ट भावादि अर्थ होने पर यथाप्राप्त घञ्, अच् और अप् प्रत्यय होते हैं और स्त्रीत्वविशिष्ट भावादि अर्थों में धातुओं से क्तिन् प्रत्यय होता है। क्तिन्नाबादिभ्यश्च वक्तव्या (वा.) - आप आदि धातुओं से स्त्रीलिङ्ग में, कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में क्तिन् प्रत्यय होता है। ये आप् आदि प्रयोग से जानना चाहिये। आप्तिः । राद्धिः । दीप्तिः । स्रस्तिः । ध्वस्तिः । आस्तिः । लब्धिः । __ (आगे ‘गुरोश्च हलः सूत्र ३.३.१०३’ से, हलन्त गुरुमान् धातुओं से स्त्रीलिङ्ग कर्तृ भिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में ‘अ’ प्रत्यय कहा जायेगा, उसका अपवाद यह क्तिन् प्रत्यय है।) व श्रुयजिस्तुभ्यः करणे (वा.)- श्रु, यज् तथा स्तु धातुओं से करण कारक में क्तिन् प्रत्यय होता है। श्रूयतेऽनयेति श्रुतिः । इज्यतेऽनयेति इष्टिः । स्तूयतेऽनयेति स्तुतिः । (स्त्रियां क्तिन् ३-३-९४ सूत्र, कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में क्तिन् प्रत्यय का विधान कर रहा है, किन्तु यह सूत्र श्रु, यज् तथा स्तु धातुओं से केवल करणकारक अर्थ में क्तिन् प्रत्यय का नियमन कर रहा है।)

  • ग्लाम्लाज्याहाभ्यो निः (वा.) - ग्ला, म्ला, ज्या, हा इन धातुओं से स्त्रीलिङ्ग में, कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में नि प्रत्यय होता है । ग्लानिः, म्लानिः, ज्यानिः, हानिः। अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (तृतीय पाद) ५२३. ऋकारल्वादिभ्यः क्तिन्निष्ठावद् भवति इति वक्तव्यम् (वा.) - ऋकारान्त तथा ल्वादि धातुओं से परे आने वाला क्तिन् प्रत्यय, निष्ठा के समान होता है। कृ + क्तिन् / ‘रदाभ्यां निष्ठातो नः पूर्वस्य च दः’ सूत्र से निष्ठा के तकार को नकार करके - कीर्णिः । इसी प्रकार - शीणिः, गीर्णिः, जीर्णः, लूनिः, पूनिः। प्र + ह्लाद् + क्तिन् = प्रह्लन्निः। संपदादिभ्यः क्विप् (वा.)- सम् आदिपूर्वक पद् धातु से स्त्रीलिङ्ग में, कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में क्विप् प्रत्यय होता है। संपत्, विपत्, प्रतिपत्। संपद् । विपद् । आपद् । प्रतिपद् । परिषद् ।। एते संपदादय।। क्तिन्नपीष्यते (वा.) - सम् उपपदपूर्वक पद् धातु से क्तिन् प्रत्यय भी होता है। संपत्तिः। विपत्तिः। स्थागापापचो भावे (३-३-९५)- स्था, गा, पा, पच् इन धातुओं से स्त्रीलिङ्ग भाव में क्तिन् प्रत्यय होता है। प्रस्थितिः, उद्गीतिः, संगीतिः, प्रपीतिः, सम्पीतिः, पक्तिः । (भाव अर्थ न होने पर अङ् ही होगा - प्रपिबन्ति अस्यां प्रपा।) बाध्यबाधकभाव - आगे ‘आतश्चोपसर्गे’ (३.३.१०६) सूत्र सोपसर्ग आकारान्त धातुओं से स्त्रीलिङ्ग भाव में क्तिन् प्रत्यय को बाधकर ‘अङ्’ प्रत्यय का विधान कर रहा है। उस अङ् का अपवाद यह क्तिन् प्रत्यय है। अतः सोपसर्ग स्था, गा, पा, धातुओं से स्त्रीलिङ्ग भाव में क्तिन् ही होगा। जो स्था धातु से अवस्था, संस्था, आदि शब्द अङ् प्रत्ययान्त बनते हैं, उन्हें इस प्रकार जानना चाहिये कि - ‘पूर्वपरावरदक्षिणोत्तरापराधराणि व्यवस्थायामसंज्ञायाम् १.१.३४’ इस सूत्र में अवस्था शब्द का प्रयोग आचार्य ने किया है, उसी के ज्ञापन से हम भी अवस्था, संस्था शब्द बना लेंगे। डुपचष् धातु से षित्वात् अङ् प्राप्त था, उसका अपवाद यह क्तिन् है। अतः पच् धातु से क्तिन् ही होगा। मन्त्रे वृषेषपचमनविदभूवीरा उदात्तः (३-३-९६) - मन्त्रविषय में वृष् इष आदि धातुओं से स्त्रीलिङ्ग में, कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में क्तिन् प्रत्यय होता है, और वह उदात्त होता है। वृष्टिः, इष्टिः, पक्तिः, मतिः, वित्तिः, भूतिः, यन्ति वीतये, रातिः। __(नित्यादिनित्यम् (६.१.१९१)’ इस सूत्र से नित् प्रत्ययान्त शब्द को आधुदात्त प्राप्त था, उसे बाधकर यहाँ प्रत्यय को उदात्त कर दिया है।) _ ऊतियूतिजूतिसातिहेतिकीर्तयश्च (३-३-९७) - ऊत्यादि शब्द भी अन्तोदात्त निपातन किये जाते हैं। ५२४ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ अव् + क्तिन् = ऊतिः । यु + क्तिन् = यूतिः । जु + क्तिन् = जूतिः । षो + क्तिन् = सातिः । हा + क्तिन् = हेतिः । कृत् + क्तिन् = कीर्तिः । ध्यान दें कि ‘क्तिन्’ प्रत्यय तो सामान्य सब धातुओं से सिद्ध ही था, इनमें होने वाले विशेष कार्य ही निपातन से करते हैं। व्रजयजो वे क्यप् च (३-३-९८)- व्रज् तथा यज् धातुओं से स्त्रीलिङ्ग भाव में क्यप् प्रत्यय होता है, और वह उदात्त होता है। व्रज्या, इज्या। संज्ञायां समजनिषदनिपतमनविदषुञ्शीभृञिणः (३-३-९९) - संज्ञाविषय में सम् पूर्वक अज्, नि पूर्वक षद् तथा पत् आदि धातुओं से स्त्रीलिङ्ग में कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में क्यप् प्रत्यय होता है, और वह उदात्त होता है। __ समजन्त्यस्याम् = समज्या। निषीदन्त्यस्याम् = निषद्या (आपण)। निपत्या (फिसलनी या ऊँची नीची भूमि)। मन्यते तया मन्या (गलपार्श्वशिरा)। विदन्त्यिनया = विद्या (वदादिक शास्त्र) । सुन्वन्ति तस्यां सुत्या (सोमेज्या)। शेरते तस्यां शय्या । भरणं = भृत्या (जीविका)। ईयते गम्यतेऽनया इत्या (शिबिका)।
  • विशेष - १. यहाँ स्थागापापचो भावे’ से ‘भावे’ की अनुवृत्ति नहीं है किन्तु भावे’ का अधिकार है, अतः इस सूत्र से विधीयमान क्यप् प्रत्यय का वाच्य भाव ही होता है, कर्म नहीं। अतः कर्म अर्थ में ऋहलोर्ण्यत्’ सूत्र से ण्यत् होकर भार्या शब्द बनता है। २. यद्यपि स्त्र्यधिकार में उत्सर्ग प्रत्यय का नित्य बाध होता है, किन्तु ‘मतिबुद्धिपूजार्थेभ्यश्च’ ‘कर्मणि भृतौ’ और ‘रजःकृष्यासुति’ सूत्रों के ज्ञापन से मति, भृति और आसुति, ये क्तिन् प्रत्ययान्त शब्द भी बन सकते हैं। ३. इस सत्र से संज्ञा अर्थ में स्त्रीलिड’, में क्यप कहा जा रहा है, अतः संज्ञा अर्थ में पुंल्लिङ्ग में ण्यत् ही होगा। भार्या नाम क्षत्रियाः । कृञः शः च (३-३-१००)- कृञ् धातु से स्त्रीलिङ्ग में कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में श प्रत्यय होता है तथा चकार से क्यप् भी होता है। _ भाष्य में वावचनं क्तिन्नर्थं कहकर क्तिन् का भी विधान होने से कृ धातु से तीन प्रत्यय हुए। कृ + श = क्रिया। कृ + क्यप् = कृत्या। कृ + क्तिन् = कृतिः। __ इच्छा (३-३-१०१) - भाव स्त्रीलिङ्ग में इष् धातु से श प्रत्ययान्त इच्छा शब्द निपातन किया जाता है। भावार्थक प्रत्यय होने के कारण श परे होने पर ‘सार्वधातुके यक्’ सूत्र से यक् भी प्राप्त था। उसका अभाव भी निपातन से होता है। परिचर्यापरिसर्यामृगयाऽटाट्यानामुपसंख्यानम् - श प्रत्ययान्त परिचर्या, अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (तृतीय पाद) परिसर्या, मृगया, अटाट्या शब्दों को भी निपातन किया जाता है। परि + चर् + श + यक् = परिचर्या । परि + सृ + श + यक् = परिसर्या । मृग + श+ यक् = मृगया। अट् + श + यक् = अटाट्या। (अट् धातु से श, यक् परे होने पर, टकार को द्वित्व, पूर्वभाग में यकार की निवृत्ति, और दीर्घ, ये सारे कार्य निपातन से होते हैं।) __जागर्तेरकारो वा - जागृ धातु से विकल्प से ‘अ’ प्रत्यय तथा ‘श’ प्रत्यय होते हैं। जागृ + अ = जागरा। जागृ + श + यक् = जागर्या । अप्रत्ययात् (३-३-१०२)- प्रत्ययान्त धातुओं से स्त्रीलिङ्ग कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में अप्रत्यय होता है। चिकीर्ष + अ = चिकीर्षा । इसी प्रकार - जिहीर्ष + अ = जिहीर्षा । पुत्रीय + अ = पुत्रीया। पुत्रकाम्य + अ = पुत्रकाम्या। लोलूय + अ = लोलूया। कण्डूय + अ = कण्डूया। गुरोश्च हलः (३-३-१०३) - हलन्त जो गुरुमान् धातु, उनसे भी स्त्रीलिङ्ग कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में अ प्रत्यय होता है। कुण्ड् + अ = कुण्डा। इसी प्रकार - हुण्डा, ईहा, ऊहा। __ निष्ठायां सेट इति वक्तव्यम् (वा.) - जो निष्ठा प्रत्यय परे होने पर सेट हों, ऐसे जो हलन्त गुरुमान् धातु, उनसे ही स्त्रीलिङ्ग कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में अ प्रत्यय होता है। अतः हमें निष्ठा प्रत्यय में जाकर, निष्ठा प्रत्ययों की इडागम व्यवस्था देखकर, निष्ठा प्रत्यय परे होने पर सेट हलन्त गुरुमान् धातुओं का निर्णय करना चाहिये और उनसे ही ‘अ’ प्रत्यय लगाना चाहिये। यथा - अश् धातु हलन्त गुरुमान् है, किन्तु यह निष्ठा प्रत्यय परे होने पर, ‘अर्देः संनिविभ्यः’ सूत्र से सम्, नि, वि, उपसर्गों के साथ अनिट् होता है तथा ‘अभेश्चाविदूर्ये’ सूत्र से अभि उपसर्ग के साथ आविदूर्य अर्थ में भी अनिट् होता है। अन्यत्र यह सेट् होता है। अतः सम्, नि, वि, अभि उपसर्गों के साथ होने पर इससे क्तिन् प्रत्यय होना चाहिये और अन्यत्र ‘अ’ प्रत्यय होना चाहिये। अञ्च् धातु निष्ठा प्रत्यय परे होने पर, ‘अञ्चेः पूजायाम्’ सूत्र से पूजा अर्थ में सेट होता है, अन्यत्र अनिट् होता है। अतः पूजा अर्थ होने पर इससे ‘अ’ प्रत्यय होना चाहिये और अन्यत्र क्तिन्’ प्रत्यय होना चाहिये। प्रक्रिया खण्ड में सारे हलन्त गुरुमान् पातुओं से ‘अ’ प्रत्यय लगाकर रूप ५२६ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ दिये गये हैं। उन्हें वहीं देखें। षिद्भिदादिभ्योऽङ् (३-३-१०४) - षकार इत्संज्ञक है जिनका, ऐसे धातुओं से तथा भिदादिगण पठित धातुओं से स्त्रीलिङ्ग में अङ् प्रत्यय होता है कर्तृ भिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में। जृष् - जरा। त्रपूष् - त्रपा। भिदादिभ्यः - भिदा, छिदा, विदा। भिदादिगण - भिदा विदारणे। छिदा द्वैधीकरणे। विदा क्षिपा। गुहा गिर्योषध्योः । श्रद्धा। मेधा। गोधा । आरा। शख्याम् । हारा। कारा। बन्धने । क्षिया। तारा ज्योतिषि। धारा प्रपातने । रेखा। चूडा। पीडा। वपा। वसा । मृजा। कृपेः संप्रसारण च, कृपा ।। इति भिदादिः।। क्रपेः संप्रसारणम् (गणसूत्र) - क्रप् धातु से अङ् प्रत्यय होता है तथा प्रकृति को सम्प्रसारण भी हो जाता है। कृप् + अङ् = कृपा। चिनतपूजिकथिकुम्बिचर्चश्च (३-३-१०५) - चिन्त्, पूज्, कथ्, कुम्ब, चर्च् धातुओं से स्त्रीलिङ्ग में अङ् प्रत्यय होता है कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में। चिन्ता, पूजा, कथा, कुम्बा, चर्चा । आतश्चोपसर्गे (३-३-१०६) - उपसर्ग उपपद में रहते आकारान्त धातुओं से स्त्रीलिङ्ग में अङ् प्रत्यय होता है कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में । संज्ञायतेऽनेनेति संज्ञा (सम् + ज्ञा + अङ्)। इसी प्रकार - उपधा। प्रदा। उपधा। प्रधा। श्रदन्तरोरुपसर्गवद्वृत्तिः (वा.) - अङ्विधि में श्रत् तथा अन्तर् शब्दों को उपसर्गवत् माना जाता है। अतः श्रत् तथा अन्तर् शब्द उपपद में होने पर भी आकारान्त धातुओं से स्त्रीलिङ्ग में अङ् प्रत्यय होता है कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में । श्रद्धा। अन्त । ण्यासश्रन्थो युच् (३-३-१०७) - ण्यन्त धातुओं से तथा आस उपवेशने, श्रन्थ विमोचनप्रतिहर्षयोः धातुओं से युच् प्रत्यय होता है कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में। . ण्यन्त कृ धातु - कृ + णिच् - कारि / कारि + युच् = कारणा। इसी प्रकार - हारणा। आस् + युच् = आसना। इसी प्रकार - श्रन्थना। घट्टिवन्दिविदिभ्यः उपसंख्यानम् (वा.) - घट्ट, वन्द् तथा विद् धातुओं से भी स्त्रीलिङ्ग में युच् प्रत्यय होता है। घटना। वन्दना। वेदना। इषेरनिच्छार्थस्य उपसंख्यानम् (वा.)- अनिच्छार्थक इष् धातु से भी युच् प्रत्यय होता है। अध्येषणा। अन्वेषणा। परेर्वा - परिपूर्वक इष् धातु से विकल्प से युच् प्रत्यय होता है । पर्येषणा, परीष्टिः । अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (तृतीय पाद) ५२७ रोगाख्यायां ण्वुल्बहुलम् (३-३-१०८)- रोगविशेष की संज्ञा होने पर, धातुओं से स्त्रीलिङ्ग में भाव अर्थ में ण्वुल् प्रत्यय बहुल करके होता है । यथा - प्रच्छर्दिका । (वमन)। विचर्चिका। (दाद)। प्रवाहिका। पिचिश) व धात्वर्थनिर्देशे ण्वुल् वक्तव्यः (वा.)- धात्वर्थ के निर्देश के लिये धातु से ण्वुल् प्रत्यय होता है। आशिका, शायिका। इश्तिपौ धातुनिर्देशे इति वक्तव्यम् (वा.) - धातुमात्र के निर्देश के लिये धातु से इक् तथा तिप् प्रत्यय होते हैं। इक् प्रत्यय - भिदिः । छिदिः। क्तिन् प्रत्यय - पचतिः । पठतिः । वर्णात्कारः (वा.)- वर्णवाचक शब्दों से कार प्रत्यय होता है। अकारः । इकारः । रादिफः (वा.) - र शब्द से इफ प्रत्यय होता है। रेफः मत्वर्थाच्छः (वा.) - मत्वर्थ शब्द से छ प्रत्यय होता है। मत्वर्थीयः । इणजादिभ्यः (वा.) - अज् आदि धातुओं से इण् प्रत्यय होता है। आजिः, आतिः, __ आदिः । इक् कृष्यादिभ्यः (वा.) - कृष् आदि धातुओं से इक् प्रत्यय होता है। कृषिः, करिः । संज्ञायाम् - (३.३.१०९) - संज्ञा विषय में धातुओं से स्त्रीलिङ्ग में भाव अर्थ में ण्वुल् प्रत्यय होता है। उद्दालकपुष्पभजिका, वारणपुष्पप्रचायिका, अभ्यूषखादिका, आचोषखादिका, शालभञ्जिका, तालभञ्जिका। (ये सब खेलों के नाम हैं।) विभाषाख्यानपरिप्रश्नयोरिञ्च - (३.३.११०) - उत्तर तथा प्रश्न गम्यमान होने पर, धातु से स्त्रीलिङ्ग में, कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में, तथा भाव अर्थ में विकल्प से ण्वुल् तथा इञ् प्रत्यय होते हैं। विभाषा कहने के कारण पक्ष में अन्य भाववाची प्रत्यय भी हो सकते हैं। __ परिप्रश्न अर्थ में इञ् प्रत्यय - त्वं कां कारिम् अकार्षीः ? (तुमने क्या काम किया?) परिप्रश्न अर्थ में ण्वुल् प्रत्यय - त्वं कां कारिकाम् अकार्षीः? (तुमने क्या काम किया ?) परिप्रश्न अर्थ में श प्रत्यय - त्वं कां क्रियाम् अकार्षीः? (तुमने क्या काम किया?) परिप्रश्न अर्थ में क्तिन् प्रत्यय - त्वं कां कृतिम् अकार्षीः ? (तुमने क्या काम किया ?) परिप्रश्न अर्थ में क्यप् प्रत्यय - त्वं कां कृत्याम् अकार्षीः ? (तुमने क्या काम किया ?)। ५२८ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ आख्यान अर्थ में सारे प्रत्यय - अहं सर्वां कारिं, कारिकां, क्रियां, कृति, कृत्यां वा अकार्षम्। (मैंने सब काम कर लिया।) इसी प्रकार - कां गणिम्, गणिकाम्, गणनाम्, वा त्वम् अजीगणः ? (तुमने क्या गिनती की ?) अहं सर्वां गणिम्, गणिकाम्, गणनाम्, वा अजीगणम् ? (मैंने सब गिनती कर ली।) कां पाठिम्, पाठिकां, पठितिम्, वा त्वम् अपठीः? (तुमने क्या पाठ पढ़ा ?) अहं सर्वां पाठिम्, पाठिकां, पठितिम्, वा अपठिषम् ? (मैंने सब पाठ पढ़ लिया।) कां याजिम्, याजिकां, यष्टिम्, वा त्वम् अयक्षीः ? अहं सर्वां याजिम्, याजिकां, यष्टिम्, वा अयक्षम्। __ पर्यायार्हणोत्पत्तिषु ण्वुच् (३-३-१११) - पर्याय, अर्ह, ऋण, उत्पत्ति, इन अर्थों में धातु से स्त्रीलिङ्ग में, कर्तृभिन्न कारक संना में, तथा भाव अर्थ में विकल्प से ण्वुच् प्रत्यय होता है। यथा - पर्याये - भवतः शायिका (आपके सोने की बारी)। भवतः अग्रग्रासिका (आपके प्रथम भोजन की बारी)। भवतः जागरिका (आपके जागने की बारी)। __ अर्हे - भवान् इक्षुभक्षिकाम् अर्हति (आप गन्ना खाने के योग्य हैं।)। भवान् पयःपायिकाम् अर्हति (आप दूध पीने के योग्य हैं।)। ऋणे - भवान् इक्षुभक्षिकां मे धारयति (मुझे गन्ना खिलाने का ऋण आपके ऊपर है।) भवान् ओदनभोजिकां मे धारयति (मुझे भात खिलाने का ऋण आपके ऊपर है।)। उत्पत्तौ - इक्षुभक्षिका मे उदपादि। ओदनभोजिका मे उदपादि। पयःपायिका मे उदपादि। पक्षे - तव चिकीर्षा। मम चिकीर्षा । आक्रोशे नव्यनिः (३-३-११२) - आक्रोश = क्रोधपूर्वक चिल्लाना, गम्यमान हो, तो नञ् उपपद में रहते धातु से स्त्रीलिङ्ग में कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में, तथा भाव अर्थ में विकल्प से अनि प्रत्यय होता है। अकरिणस्ते वृषल ! भूयात् । (नीच ! तेरी करनी नष्ट हो जाये।) इसी प्रकार - अजीवनिस्ते शठ भूयात् । अप्रयाणिः। – (यहाँ से ‘भावे’ ‘अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्’ और स्त्रियाम्’ ये तीनों निवृत्त हो गये।) कृत्यल्युटो बहुलम् (३.३.११३) - कृत्य प्रत्यय और ल्युट् प्रत्यय जिन प्रकृतियों अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (तृतीय पाद) ५२९ से जिन अर्थों में विहित हैं, उनसे भिन्न अर्थों में भी बहुल करके हो जाते हैं। यथा - स्नान्ति अनेन स्नानीयं चूर्णम् । यहाँ ल्युट प्रत्यय करण अर्थ में हुआ है। दीयते अस्मै दानीयो विप्रः । यहाँ ल्युट प्रत्यय सम्प्रदान अर्थ में हुआ है। नपुंसके भावेक्तः - (३.३.११४) - नपुंसकलिङ्ग भाव में धातुमात्र से क्त प्रत्यय होता है। हसितम् (हँसना), सुप्तम् (सोना), जल्पितम् (कहना, बकना)। ल्युट् च - (३.३.११५) - नपुंसक लिङ्ग भाव में धातुमात्र से क्त प्रत्यय होता है। हसनं छात्रस्य शोभनम् (छात्र का हँसना सुन्दर है।)। शयनम् (सोना)। आसनम् (बैठना)। कर्मणि च येन संस्पर्शात्शरीरसुखम् - (३.३.११६) - जिस कर्म के संस्पर्श से संस्पृश्यमान कर्ता को शरीर का सुख उत्पन्न हो, ऐसे कर्म के उपपद में रहतें भी धातु से ल्युट प्रत्यय होता है। ध्यान रहे कि जब उपपद के रहते किसी धातु से किसी कृत् प्रत्यय का विधान होता है, तब उपपदमतिङ् २.२.१९’ सूत्र से उस उपपद के साथ कृत्प्रत्ययान्त शब्द का नित्य समास होता है। अतः कर्म के साथ ल्युडन्त का नित्य समास करके - पयःपानं सुखम् / ओदनभोजनं सुखम्।। करणाधिकरणयोश्च- (३.३.११७) - धातुमात्र से करण तथा अधिकरण कारक अर्थ में भी ल्युट् प्रत्यय होता है। (यहाँ से करणाधिकरणयोश्च की अनुवृत्ति ३.३.१२५ तक जायेगी।) करण अर्थ में - इध्मप्रव्रश्चनः (प्रवृश्च्यते अनेन इति प्रव्रश्चनः। इध्मानां प्रव्रश्चनः इध्मप्रव्रश्चनः कुठारः)। इसी प्रकार - पलाशशातनः (शात्यते अनेन इति शातनः । पलाशानां शातनः पलाशशातनः कुठारः)। , __ अधिकरण अर्थ में - गोदोहनी। (दुह्यन्ते अस्याम् इति दोहनी। गवां दोहनी गोदोहनी स्थाली)। इसी प्रकार - सक्तुधानी (धीयन्ते अस्याम् इति धानी। सक्तूनां धानी सक्तुधानी)। पुंसि संज्ञायां घः प्रायेण - (३.३.११८) - धातुमात्र से करण तथा अधिकरण कारक अर्थ में पुंल्लिङ्ग में प्रायः करके घ प्रत्यय होता है, यदि समुदाय से संज्ञा प्रतीत होती हो तो। करण अर्थ में - दन्ताः छाद्यन्तेऽनेनेति दन्तच्छदः । उरः छाद्यतेऽनेनेति उरश्छदः। ५३० अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ अधिकरण अर्थ में - एत्य तस्मिन् कुर्वन्तीति आकरः । आलीयतेऽस्मिन्निति आलयः। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘घः’ की अनुवृत्ति ३.३.११९ तक, ‘पुंसि संज्ञायाम्’ की अनुवृत्ति ३.३.१२५ तक और ‘प्रायेण’ की अनुवृत्ति ३.३.१२१ तक जाती है।) बाध्यबाधकभाव - ‘करणाधिकरणयोश्च’ सूत्र से धातुमात्र से करण तथा अधिकरण कारक अर्थ में ल्युट प्रत्यय कहा गया है, उसका अपवाद यह घ प्रत्यय है। गोचरसंचरवहव्रजव्यजापणनिगमाश्च - (३.३.११९) - गोचर आदि शब्द भी करण या अधिकरण कारक में संज्ञाविषय में ‘घ’ प्रत्ययान्त पुंल्लिङ्ग, निपातन किये जाते हैं। बाध्यबाधकभाव - आगे हलश्च’ (३.३.१२१) सूत्र करणाधिकरण अर्थ में हलन्त धातुओं से घञ् प्रत्यय कह रहा है। उसका अपवाद यह ‘घ’ प्रत्यय है। . करण अर्थ में - गावश्चरन्ति अस्मिन्निति गोचरः (जहाँ गायें चरती हैं)। सञ्चरन्तेऽनेनेति सञ्चरः (मार्ग)। वहन्ति तेन वहः (स्कन्ध)। व्रजन्ति तेन व्रजः (गाड़ी)। व्यजन्ति तेन व्यजः (पङ्खा) । आपणन्ते तस्मिन् इति आपणः (बाजार)। निगच्छन्ति अनेन इति निगमः छन्दः (वद)। (निपातित शब्दों में जो कार्य प्रक्रिया से न बनें उन कार्यों को ही निपातन से जानना चाहिये। यथा व्यजः में अज् को वी आदेश न होना आदि।) __ अवे तृस्रोर्घञ् - (३.३.१२०) - अवपूर्वक तृञ्, स्तृञ् धातुओं से करण और अधिकरण कारक में पुंल्लिङ्ग में संज्ञाविषय में प्रायः करके घञ् प्रत्यय होता है । अवतरन्ति अनेन इति अवतारः (कुएँ में उतरने की सीढ़ियाँ)। अवस्तारः (जवनिका या परदा)। बाध्यबाधकभाव - यह घञ् प्रत्यय ‘पुंसि संज्ञायां घः प्रायेण’ सूत्र से होने वाले ‘घ’ प्रत्यय का अपवाद है। हलश्च - (३.३.१२१) - हलन्त धातुओं से भी संज्ञाविषय होने पर करण तथा अधिकरण कारक में पुंल्लिङ्ग में प्रायः करके घञ् प्रत्यय होता है। लिख + घञ् = लेखः । विद् + घञ् = वेदः (विद्येते ज्ञायते अनेन धर्माधर्मौ इति वेदः) । वेष्ट + घञ् = वेष्टः । बन्ध् + घञ् = बन्धः । मृज् + घञ् = मार्गः । अप + मृज् + घञ् = अपामार्गः (अपमृज्यते अनेन व्याधिरिति अपामार्गः)। वि + मृज् + घञ् = वीमार्गः । अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (तृतीय पाद) ५३१ (अपामार्गः और वीमार्गः में ‘उपसर्गस्य घज्यसनुष्ये बहुलम् ६.३.१२२’ सूत्र से दीर्घ हुआ है।) बाध्यबाधकभाव - ‘पुंसि संज्ञायां घः प्रायेण’ सूत्र से धातुमात्र से करण तथा अधिकरण कारक अर्थ में पुंल्लिङ्ग में ‘घ’ प्रत्यय कहा गया है। उसका अपवाद यह ‘घञ्’ प्रत्यय है। अध्यायन्यायोद्यावसंहाराश्च - (३.३.१२२) - अधिपूर्वक इङ् धातु से अध्यायः, नि पूर्वक इण् धातु से न्यायः, उत्पूर्वक यु धातु से उद्यावः तथा सम्पूर्वक हृ धातु से संहारः ये घान्त शब्द भी पुंल्लिङ्ग में करण तथा अधिकरण कारक संज्ञा में निपातन किये जाते हैं। अधीयतेऽस्मिन्निति अध्यायः । नीयन्तेऽनेन कार्याणि इति न्यायः । उद्युवन्ति अस्मिन्निति उद्यावः । संहरन्त्यनेन इति संहारः। (अजन्त धातुओं से पुंल्लिङ्ग में करण तथा अधिकरण कारक संज्ञा में घ प्रत्यय प्राप्त था, इस सूत्र से निपातन से घञ् प्रत्यय होता है।) अवहाराधारावायानामुपसंख्यानम् (वा.) - ये शब्द भी घञन्त निपातित होते हैं। आध्रियतेऽस्मिन्निति आधारः । आवयन्त्यस्मिन्निति आवायः।। उदकोऽनुदके - (३.३.१२३) - उदक विषय न हो तो पुल्ँलिङ्ग में उत् पूर्वक अञ्चु धातु से घञ् प्रत्ययान्त उदक शब्द निपातन किया जाता है, अधिकरण कारक में संज्ञाविषय होने पर। तैलम् उदच्यते उध्रियतेऽस्मिन्निति तैलोदकः (तल रखने का कुप्पा) । घृतम् उदच्यते उद्धियतेऽस्मिन्निति घृतोदङ्कः (घी रखने का कुप्पा)। __जालमानायः - (३.३.१२४) - जाल अभिधेय हो तो आपूर्वक नी धातु से संज्ञा अर्थ में घञ प्रत्ययान्त आनाय शब्द निपातन किया जाता है। आनयन्त्यनेनेति आनायो मत्स्यानाम् (मछलियों का जाल)। आनायो मृगाणाम् (मृगों का जाल)। खनो घ च - (३.३.१२५) - खन् धातु से करण और अधिकरण कारक में पुंल्लिङ्ग में संज्ञाविषय में घ प्रत्यय होता है तथा चकार से घञ् प्रत्यय होता है। आ + खन् + घ = आखनः । आ + खन् + घञ् = आखानः । डो वक्तव्यः (वा.) - खन् धातु से ड प्रत्यय भी होता है। आखः। डरो वक्तव्यः (वा.) - खन् धातु से डर् प्रत्यय भी होता है। आखरः। इको वक्तव्यः (वा.) - खन् धातु से इक् प्रत्यय भी होता है। आखनिकः । इकवको वक्तव्यः (वा.) - खन् धातु से इकवक प्रत्यय भी होता है। आखनिकवकः। ५३२ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ (यहाँ से ‘पुंसि संज्ञायाम्’ ‘करणाधिकरणयोश्च’ ‘घञ्’ ‘घ’ आदि सब निवृत्त हो गये।) __blanata ENR EN FAAN3-3-1262& कृच्छ्र अर्थवाले तथा अकृच्छ्र अर्थ वाले, ईषत्, दुर् तथा सु ये उपपद हों, तो धातु से खल् प्रत्यय होता है। ईषत्करो भवता कटः (ईषत् + कृ + खल्) (आपके द्वारा चटाई सरलता से बनती है)। दुष्करः । सुकरः । ईषत्भोजः (ईषत् + भुज् + खल्) सुगमता से खाना। दुर्भोजः । सुभोजः। जाम (‘न लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतनाम्’ २.३.६९’ सूत्र से लादेश कृत् प्रत्ययों के योग में अनुक्त कर्म में षष्ठी न होकर द्वितीया कही गई है। अतः खलर्थ प्रत्ययान्तों के अनुक्त कर्म में द्वितीया ही होगी।) अनुवृत्ति - यहाँ से ईषदुःसुषु कृच्छ्राकृच्छ्रार्थेषु की अनुवृत्ति ३.३.१२९ तक जायेगी। कर्तृकर्मणोश्च भूकृञोः - (३.३.१२७) - कर्ता उपपद में होने पर भू धातु से तथा कर्म उपपद में होने पर कृञ् धातु से, कृच्छ्र तथा अकृच्छ्र अर्थ में वर्तमान ईषद्, दुर्, सु उपपद होने पर खल् प्रत्यय होता है। कर्ता उपपद में होने पर भू धातु से खल् - अनाढ्येन भवता ईषदाढ्येन शक्तं भवितुम् = ईषदाढ्यंभवं भवता (आप सुगमता से धनाढ्य होने के योग्य हैं।) अनाढ्येन भवता दुराढ्येन शक्तं भवितुम् = दुराढ्यंभवं भवता (आप कठिनता से धनाढ्य होने के योग्य हैं।)। इसी प्रकार - स्वाढ्यंभवं भवता। कर्म उपपद में होने पर कृञ् धातु से खल् - अनाढ्यः, ईषदाढ्यः, क्रियते इति ईषदाढ्यंकरो देवदत्तः । इसी प्रकार - दुराढ्यंकरः । स्वाढ्यंकरो देवदत्तः । कर्तृकर्मणोश्च्व्यर्थयोरिति वक्तव्यम् (वा.)- अभूततद्भावार्थक कर्ता तथा कर्म उपपद में होने पर भू तथा कृञ् धातुओं से ही खल् प्रत्यय होता है। अतः स्वाढ्येन भूयते आदि में खल् नहीं होगा। आतो युच् - (३.३.१२८) - आकारान्त धातुओं से कृच्छ्र तथा अकृच्छ्र अर्थ में ईषदादि उपपद रहते युच् प्रत्यय होता है। ईषत्पानः सोमो भवता । दुष्पानः । सुपानः । ईषद्दानो गौर्भवता। दुर्दानः । सुदानः । छन्दसि गत्यर्थेभ्यः - (३.३.१२९) - वेदविषय में गत्यर्थक धातुओं से कृच्छ्र तथा अकृच्छ्र अर्थ में ईषदादि उपपद हो तो युच् प्रत्यय होता है। सूपसदनोऽग्निः । (सु + उप + सद् + युच्) सूपसदनमन्तरिक्षम्। अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (तृतीय पाद) ५३३ अन्येभ्योऽपि दृश्यते- (३.३.१३०)- वेदविषय में गत्यर्थक धातुओं से भी कृच्छ्र तथा अकृच्छ्र अर्थ में ईषदादि उपपद में रहते युच् प्रत्यय होता है। सुदोहनाम् अकृणोद् ब्रह्मणे गाम् । सुवेदनाम् अकृणोद् ब्रह्मणे गाम्। __भाषायां शासियुधिदृशिधृषिमृषिभ्यो युज् वक्तव्यः - लोक में भी शास्, युध्, दृश्, धृष्, मृष् धातुओं से युच् प्रत्यय होता है। दुःशासनः । दुर्योधनः । दुर्दर्शनः । दुर्घषणः । दुर्मर्षणः। अत्यावश्यक - ३.३.१३१ से ३.३.१५७ तक के सूत्रों में लकार प्रत्यय हैं, जिनका कृदन्त से प्रयोजन न होने से उन्हें छोड़कर आगे के सूत्र दे रहे हैं - समानकर्तृकेषु तुमुन् (३.३.१५८) - समान है कर्ता जिनका, ऐसे इच्छार्थक धातुओं के उपपद रहते, धातुमात्र से तुमुन् प्रत्यय होता है। देवदत्तः इच्छति भोक्तुम् । देवदत्तः कामयते भोक्तुम् । देवदत्तः वाञ्छति भोक्तुम् । देवदत्तः वष्टि भोक्तुम्। (दवदत्त खाना चाहता है।) __ इन वाक्यों में इच्छति, कामयते, वाञ्छति, वष्टि आदि क्रियाओं के उपपद में रहने पर भुज् धातु से तुमुन् प्रत्यय हुआ है। यहाँ ध्यान दें कि जो कर्ता इच्छा का है, वही कर्ता भोजन का भी है। अतः इच्छ और भुज, ये दोनों धातु समानकर्तक हैं। अतः इच्छार्थक धातुओं के उपपद में रहने पर भुज् धातु से तुमुन् प्रत्यय हुआ है। प्रैषातिसर्गप्राप्तकालेषु कृत्याश्च (३.३.१६३) - प्रैष = प्रेरणा करना, अतिसर्ग = कामाचारपूर्वक आज्ञा देना, प्राप्तकाल = समय आ जाना, इन अर्थों में धातु से कृत्यसंज्ञक’ प्रत्यय होते हैं तथा चकार से लोट् प्रत्यय भी होता है। अज्ञातज्ञापनं विधिः । प्रेषणं प्रैषः । कृत्य प्रत्यय - भवता कटः करणीयः । कटः कर्तव्यः, कटः कृत्यः । कटः कार्यः । लोट् प्रत्यय- करोतु कटं भवान् इह प्रेषितः । करोतु कटं भवान् इह अतिसृष्टः । भवतः प्राप्तकालः कटकरणे। इसी प्रकार - प्रेषितो भवान् गच्छतु ग्रामम् (हमारी प्रेरणा है कि आप गाँव जायें।)। अतिसृष्टो भवान् गच्छतु ग्रामम् आदि (हमारी प्रेरणा से आप गाँव जायें।) भवतः प्राप्तकालः कटकरणे (आपका चटाई बनाने का समय आ गया है।) कालसमयवेलासु तुमुन् (३.३.१६७) - काल, समय, वेला, ये शब्द उपपद रहते धातु से तुमुन् प्रत्यय होता है । कालो भोक्तुम् (खाने का समय हो गया है।)। समयो भोक्तुम् । वेला भोक्तुम् । (खाने का समय है।) अनेहा भोक्तुम्। _ अर्हे कृत्यतृचश्च (३.३.१६९) - अर्ह अर्थात् योग्य कर्ता वाच्य हो या गम्यमान हो तो धातु से कृत्यसंज्ञक तथा तृच् प्रत्यय होते हैं तथा चकार से लिङ् भी होता है। ५३४ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ भवता खलु पठितव्या विद्या, पाठ्या, पठनीया वा। तृच् - पठिता विद्याया भवान्। भवान् विद्यां पठेत्। विशेष - ३.१.९५ से ३.१.१३२ सूत्रों के द्वारा सामान्य रूप से कृत्य प्रत्ययों का विधान हो चुकने के बाद भी इस सूत्र से जो अर्ह अर्थ में कृत्य का विधान किया जा रहा है, वह इसलिये कि अर्ह अर्थ में लिङ् के द्वारा कृत्य प्रत्यय बाधित न हो जायें। आवश्यकाधमर्ण्ययोर्णिनिः (३.३.१७०) - आवश्यक और आधमर्ण्य = ऋण विशिष्ट कर्ता वाच्य हो तो धातु से णिनि प्रत्यय होता है। धर्मोपदेशी, प्रातःस्नायी, अवश्यङ्कारी। आधम] - शतंदायी, सहस्रंदायी, निष्कंदायी। __कृत्याश्च (३.३.१७१) - आवश्यक और आधमर्ण्य = ऋण विशिष्ट कर्ता वाच्य हो तो धातु से कृत्यसंज्ञक प्रत्यय होते है। आवश्यक अर्थ में - भवता खलु अवश्यं कटः कर्तव्यः, करणीयः, कार्यः, कृत्यः । आधमर्ण्य अर्थ में - भवता शतं दातव्यम्, सहस्रं देयम्। विशेष - ३.१.९५ से ३.१.१३२ सूत्रों के द्वारा सामान्य रूप से कृत्य प्रत्ययों का विधान हो चुकने के बाद भी इस कृत्याश्च’ सूत्र से आवश्यक तथा आधमर्ण्य अर्थ में कर्तरि कृत्य का विधान इसलिये किया जा रहा है कि जो ‘भव्यगेय.’ सूत्र से ‘भव्यः’ ‘गेयः’ ‘प्रवचनीयः’ उपस्थानीयः’ ‘जन्यः’ ‘आप्लाव्यः’ ‘आपात्यः’ शब्द का अर्थ में निपातन से बनते हैं, ‘अजर्यं संगतम्’ सूत्र से ‘अजर्यम्’ शब्द कर्ता अर्थ में निपातन से बनता है, ‘राजसूयसूर्यमृषोद्यरुच्य.’ सूत्र से ‘रुच्यः’ ‘कुप्यः’ कृष्टपच्यः’ ‘अव्यथ्यः’ शब्द कर्ता अर्थ में निपातन से बनते हैं, इनमें होने वाले कृत्य प्रत्यय का बाध ‘आवश्यकाधमयॆयोणिनिः’ सूत्र से होने वाले ‘कर्तरि णिनि’ प्रत्यय के द्वारा न हो जाये। __ शकि लिङ् च (३.३.१७२)- शक्यार्थ गम्यमान हो, तो धातु से लिङ् प्रत्यय होता है तथा चकार से कृत्यसंज्ञक प्रत्यय भी होते हैं। जैसे - भवान् शत्रु जयेत् । (आप शत्रुओं को जीत सकते हैं।) __आशिषि लिङ्लोटौ (३.३.१७३) - आशीः का अर्थ होता है - अप्राप्त को पाने की इच्छा, न कि आशीर्वाद देना। इस अर्थ में लिङ् तथा लोट् लकारों का प्रयोग होता है। यथा - लोट् - चिरं जीवतु भवान् । लिङ् - चिरं जीव्याद् भवान् / इसी प्रकार - आयुष्यं भूयात् । शत्रुः म्रियात्। क्तिच्क्तौ च संज्ञायाम् (३.३.१७४)- आशीर्वाद विषय में धातु से क्तिच् तथा क्त प्रत्यय भी होते हैं। तनुतात् तन्तिः । सनुतात् सन्तिः । भवतात् भूतिः । क्त - देवा एनं देयासुः देवदत्तः। BOB