(ध्यान रहे कि भगवान् पाणिनि का पूरा शास्त्र उत्सर्गापवाद विधि से बना है। अतः केवल प्रत्ययों को विधान करने वाले सूत्र, उनके अर्थ और प्रक्रिया जान लेने से काम नहीं चल पाता। हमें यह अवश्य ज्ञात होना चाहिये कि किस धातु से किस अर्थ में होने वाला कौन सा प्रत्यय किस प्रत्यय को बाध रहा है। इसके लिये हमने बाध्यबाधक को जानने की विधि बतलाई है। उसे जानकर ही आगे बढ़ें। __ दूसरी बात यह कि अधिकार और अनुवृत्ति ही पाणिनीय अष्टाध्यायी सूत्रक्रम के प्राण हैं। अतः हमें पता होना चाहिये कि किस अधिकार और किस अनुवृत्ति की गति कहाँ से कहाँ तक है। इन्हें हमने पद पद पर स्पष्ट किया है।)
अण् प्रत्यय
कर्मण्यण् - (३.२.१) - कर्म उपपद में रहते धातुमात्र से कर्ता (करने वाला) अर्थ में अण् प्रत्यय होता है। कुम्भं करोतीति कुम्भकारः - (कुम्भ + ङस् + कृ + अण्) । नगरं करोतीति नगरकारः - (नगर + ङस् + कृ + अण्) / काण्डं लुनातीति काण्डलावः - (काण्ड + डस् + लू + अण्) / शरलावः - (शर + ङस् + लू + अण्) / वेदमधीते वेदाध्यायः - विद + ङस् + अधि + इ + अण्) / चर्चा पठतीति चर्चापाठः - (चर्चा + ङस् + पठ् + अण्)। विशेष - यद्यपि कर्ममात्र के उपपद में रहते धातुमात्र से कर्ता (करने वाला) अर्थ में अण् प्रत्यय का विधान है, तथापि आदित्यं पश्यति इति आदित्यदर्शः, हिमवन्तं शृणोति इति हिमवच्छ्रावः, ग्रामं गच्छति इति ग्रामगमी, आदि प्रयोग इसलिये नहीं बनाये जा सकते, कि इनका लोक में अभिधान नहीं है। . अनुवृत्ति - यहाँ से ‘कर्मणि’ की अनुवृत्ति ३.२.५८ तक जायेगी तथा अण् की ३.२.२ तक जायेगी। शीलिकामिभक्ष्याचरिभ्यो णः (वा.) - शीलि, कामि, भक्षि तथा आपूर्वक चर् धातुओं से कर्मोपपद में रहते ण प्रत्यय होता है। मांसशीलः, मांसशीला - (मांस + ङस् + शील् + ण)/ मांसकामः, मांसकामा अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (द्वितीय पाद) .
- (मांस + ङस् + कम् + णिङ् + ण)/ मांसभक्षः, मांसभक्षा - (मांस + ङस् + भक्ष् + णिच् + ण) / कल्याणाचारः, कल्याणाचारा - (कल्याण + आ + चर् + ण)। बाध्यबाधकभाव - यह ण प्रत्यय अण् प्रत्यय का अपवाद है। (ध्यान रहे कि अण् प्रत्ययान्त से स्त्रीलिङ्ग में टिड्ढाणञ्. सूत्र से डीप् होता है और णप्रत्ययान्त से ‘अजाद्यतष्टाप्’ से टाप् होता है। इसलिये उदाहरणों में टाप् प्रत्यय लगाकर स्त्रीलिङ्ग बनाकर दिखाया है।) ईक्षिक्षमिभ्यां चेति वक्तव्यम् (वा.) - ईक्ष् तथा क्षम् धातुओं से कर्मोपपद में ण प्रत्यय होता है तथा पूर्वपद को प्रकृति स्वर भी होता है। सुखप्रतीक्षः, सुखप्रतीक्षा (सुख + ङस् + प्रति + ईक्ष् + ण) / बहुक्षमः, बहुक्षमा (बहु + क्षम् + ण)। हावामश्च - (३.२.२) - हेञ्, वेञ्, माङ् इन धातुओं से भी कर्म उपपद में रहते अण् प्रत्यय होता है। पुत्रं यतीति पुत्रायः - (पुत्र + ङस् + हे + अण्) / तन्तुवायः - (तन्तु + ङस् + वेञ् + अण्) / धान्यमायः - (धान्य + ङस् + मा + अण्)। बाध्यबाधकभाव - अभी हमने जाना कि ‘कर्मण्यण्’ सूत्र कर्म उपपद में होने पर धातुमात्र से ‘अण्’ प्रत्यय का विधान करता है। किन्तु आगे ३.२.५८ तक जो सूत्र आ रहे हैं, वे कर्म उपपद में होने पर धातुओं से अन्य अन्य प्रत्ययों का विधान कर रहे हैं। अतः उन्हें अण् प्रत्यय का अपवाद समझना चाहिये। ऐसी स्थिति में प्रश्न होता है कि हम किस धातु से किस कर्म के उपपद में होने पर कौन सा प्रत्यय लगायें ? इसे इस प्रकार समझना चाहिये - सामान्य रूप से तो पूरे व्याकरणशास्त्र में उत्सर्ग की प्रवृत्ति इस प्रकार होती है कि जहाँ जहाँ अपवाद शास्त्र की प्रवृत्ति हो रही है, वहाँ तो अपवाद शास्त्र ही लगता है और जहाँ अपवाद शास्त्र की प्रवृत्ति नहीं हो रही है, वहाँ ही उत्सर्ग शास्त्र लगता है। किन्तु कृत् प्रत्ययों के लिये वाऽसरूपोऽस्त्रियाम्’ सूत्र कहता है कि असरूप अपवादप्रत्यय उत्सर्ग का विकल्प से बाधक होता है। और सरूप अपवाद प्रत्यय उत्सर्ग का नित्य बाधक होता है। अतः कृत् प्रत्ययों में अनुबन्धों को हटाने के बाद उत्सर्ग और अपवाद प्रत्ययों की आकृति देखना चाहिये। यदि वे एक ही समान हैं, तब तो अपवाद प्रत्यय उत्सर्ग प्रत्यय को सर्वथा बाध लेगा और अपने स्थल पर उत्सर्ग को लगने ही नहीं देगा। जैसे - अण्=अ और क=अ, ये दोनों प्रत्यय सरूप हैं, क्योंकि अनुबन्धकार्य करने ४५६ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ के बाद दोनों ही ‘अ’ हैं। सरूप अपवादप्रत्यय होने के कारण क प्रत्यय, उत्सर्ग प्रत्यय अण् का नित्य बाधक होगा। अतः जिस स्थल के लिये ‘क’ कहा जा रहा है, वहाँ ‘अण्’ बिल्कुल नहीं होगा। किन्तु यदि कृत् प्रत्ययों में अनुबन्धों को हटाने के बाद उत्सर्ग और अपवाद प्रत्ययों की आकृति अलग अलग है, तब तो अपवाद प्रत्यय और उत्सर्ग प्रत्यय दोनों ही विकल्प से लग सकते हैं।
अण् प्रत्यय के अपवाद प्रत्यय
क प्रत्यय
आतोऽनुपसर्गे कः - (३.२.३) - अनुपसर्ग आकारान्त धातुओं से कर्म उपपद में रहते क प्रत्यय होता है। गां ददातीति गोदः (गो + ङस् + दा + क) / इसी प्रकार - कम्बलदः । पाणिंत्रम् (पाणिं + ङस् + त्रा + क) / इसी प्रकार - अङ्गुलित्रम् । उपसर्ग होने पर अण् होकर - गोसंदायः, वडवासंदायः । अनुवृत्ति - यहाँ से ‘क’ की अनुवृत्ति ३.२.७ तक जायेगी। बाध्यबाधकभाव - यह क प्रत्यय अण् प्रत्यय का अपवाद है। सुपि स्थः - (३.२.४) - इस सूत्र का योग विभाग करके इसके दो सूत्र बना लेते हैं। पहिला है - सुपि - इसमें ऊपर के सूत्र से ‘आतः’ की अनुवृत्ति लेकर अर्थ हुआ - सुबन्त उपपद होने पर आकारान्त धातुओं से कर्ता अर्थ में क प्रत्यय होता है। यथा - द्वाभ्यां पिबति इति द्विपः - (द्वि + भ्याम् + पा + क)/ इसी प्रकार कच्छेन पिबति इति कच्छपः । समे तिष्ठतीति समस्थः (सम + डि + स्था + क) / इसी प्रकार - विषमस्थः । दूसरा योग बना - स्थः - इसमें ऊपर के सूत्र से सुपि की अनुवृत्ति लेकर अर्थ हुआ - सुबन्त उपपद में रहते स्था धातु से क प्रत्यय होता है। यह प्रत्यय योगविभागारम्भसामर्थ्यात् भाव अर्थ में भी हो सकता है। अतः आखूनाम् उत्थानम् आखूत्थः, चूहों की बढ़त (आखु + ङस् + उत् + स्था + क) / इसी प्रकार - शलभानाम् उत्थानम् शलभोत्थः । __प्रतिष्ठते इति प्रष्ठो गौः । द्वयोः तिष्ठति इति द्विष्ठः । त्रिषु तिष्ठति इति त्रिष्ठः । आवश्यक - यहाँ से आगे ‘सुपि’ तथा कर्मणि’ दोनों पदों की अनुवृत्ति चलती है। जिन सूत्रों में सकर्मक धातुओं का सम्बन्ध होगा, वहाँ कर्मणि की अनुवृत्ति लगाइये अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (द्वितीय पाद) ४५७ तथा जहाँ अकर्मक धातुओं का सम्बन्ध होगा, वहाँ सुपि की अनुवृत्ति लगाइये। ऐसा ही आगे सर्वत्र समझें। … अतः जहाँ जहाँ ‘कर्मणि’ की अनुवृत्ति जायेगी, उन उन प्रत्ययों को ‘अण्’ का अपवाद समझना चाहिये । जहाँ केवल सुपि’ की अनुवृत्ति जायेगी, उन उन प्रत्ययों को ‘अण्’ का अपवाद नहीं समझना चाहिये। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘सुपि’ की अनुवृत्ति ३.२.८३ तक जायेगी। तुन्दशोकयोः परिमृजापनुदोः - (३.२.५) - तुन्द तथा शोक कर्म उपपद में रहते यथासङ्ख्य करके परिपूर्वक मृज् तथा अपपूर्वक नुद् धातु से क प्रत्यय होता है। तुन्दं परिमाटि तुन्दपरिमृज आस्ते - (तुन्द + ङस् + परिमृज् + क) / शोकम् अपनुदति शोकापनुदः पुत्रो जातः - (शोक + ङस् + अपनुद् + क)। बाध्यबाधकभाव - यह क प्रत्यय अण प्रत्यय का अपवाद है। आलस्यसुखाहरणयोरिति वक्तव्यम् (वा.) - आलस्य तथा सुखाहरण अर्थ में परिपूर्वक मृज् धातु से तथा अपपूर्वक नुद धातु से भी क प्रत्यय होता है। अलसस्तुन्द परिमृज उच्यते । अन्य अर्थ होने पर अण् प्रत्यय होकर तुन्दपरिमार्जः बनता है। __ इसी प्रकार - सुखस्याहर्ता शोकापनुदः । अन्य अर्थ होने पर अण् प्रत्यय होकर शोकापनोदः ही बनता है। __ कप्रकरणे मूलविभुजादिभ्य उपसंख्यानम् (वा.) - मूलविभुजादि शब्द भी क प्रत्यय के द्वारा ही समझना चाहिये। मूलानि विभुजतीति मूलविभुजो रथः - (मूल + ङस् + वि + भुज् + क) / नखमुचानि धनूंषि - ( नख + आम् + मुच् + क) / काकगुहास्तिलाः । कौ मोदते कुमुदम् - (कु + डि + मुद् + क) / महीं धरति इति महीट प्रः - ( मही + ङस् + धृ + क)। काकगुहास्तिलाः। गिलति इति गिलः । मूलविभुज। नखमुच। काकगुह । कुमुद। महीघ्र । कुध्र । गिध्र। आकृतिगणोऽयम् ।। इति मूलविभुजादयः ।। विशेष - आकृतिगण होने का तात्पर्य यह है कि ये शब्द इतने ही नहीं हैं, अपितु इसी प्रकार के जो भी शब्द दिखें, उन्हें इसी गण का समझ लेना चाहिये। बाध्यबाधकभाव - यह क प्रत्यय अण् प्रत्यय का अपवाद है। प्रेदाज्ञः - (३.२.६)- प्रपपर्वक दा रूप धातओं से तथा ज्ञा धात से कर्म उपपद में रहते क प्रत्यय होता है। विद्यां प्रददाति विद्याप्रदः - ( विद्या + ङस् + प्र + दा + ४५८ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ क) / शास्त्राणि प्रकर्षेण जानातीति शास्त्रप्रज्ञः - ( शास्त्र + ङस् + प्र + ज्ञा + क) / इसी प्रकार पन्थानं प्रकर्षेण जानाति इति पथिप्रज्ञः। इसमें ‘अनुपसर्गे’ की अनुवृत्ति है। अतः प्र के अतिरिक्त किसी अन्य उपसर्ग के उपपद में होने पर क न होकर अण् ही होगा - गोसम्प्रदायः । बाध्यबाधकभाव - यह क प्रत्यय अण् प्रत्यय का अपवाद है। समि ख्यः - (३.२.७)- कर्म उपपद में रहते सम्पूर्वक ख्याञ् धातु से क प्रत्यय होता है। गां सञ्चष्टे गो संख्यः (गो + डस् + सम् + ख्या+क), इसी प्रकार - अविसंख्यः ।
टक् प्रत्यय
गापोष्टक् - (३.२.८)- कर्म उपपद में रहते गा तथा पा धातुओं से टक् प्रत्यय होता है। शक्रं गायति शक्रगः - (शक्र + ङस् + गै + टक्) / इसी प्रकार साम गायति सामगः। बाध्यबाधकभाव - यह टक् प्रत्यय अण् प्रत्यय का अपवाद है। सुराशीध्वोः पिबतेरिति वक्तव्यम् (वा.) - सुरा तथा शीधु शब्द उपपद में होने पर भी पा धातु से टक् प्रत्यय होता है। सुरां पिबति सुरापः - (सुरा + ङस् + पा + क) / इसी प्रकार - शीधुपः ( शीधु + ङस् + पा + क)। (ध्यान रहे कि टित् होने के कारण स्त्रीलिङ्ग में टिड्ढाणञ्-’ सूत्र से डीप होता है - सामगी, शक्रगी, सुरापी, शीधुपी) बाध्यबाधकभाव - यह टक् प्रत्यय अण् प्रत्यय का अपवाद है। बहुलं छन्दसीति वक्तव्यम् (वा.)- वेद में टक् प्रत्यय बहुल करके होता है। या ब्राह्मणी सुरापी भवति नैनां देवाः पतिलोकं नयन्ति।
अच् प्रत्यय
हरतेरनुद्यमनेऽच् - (३.२.९) - उद्यमन का अर्थ है - उत्क्षेपण अर्थात् उठाना। यह उद्यमन अर्थ न होने पर हृञ् धातु से कर्म उपपद में रहते अच् प्रत्यय होता है। भागं हरति भागहरः - (भाग + ङस् + हृ + अच्) / इसी प्रकार - रिक्थहरः । अंशहरः । उद्यमन अर्थ होने पर अण् होकर - भारहारः। __बाध्यबाधकभाव - यह अच् प्रत्यय अण् प्रत्यय का अपवाद है। __अनुवृत्ति - यहाँ से हरतेः की अनुवृत्ति ३.२.११ तक तथा अच् की अनुवृत्ति ३.२.१५ तक जायेगी। अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (द्वितीय पाद) ४५९ अप्रकरणे शक्तिलाङ्गलाकुशयष्टितोमरघटघटीधनुःषु ग्रहेरुपसंख्यानम् (वा.) - शक्ति, लाङ्गल, अकुश, यष्टि, तोमर, घट, घटी तथा धनुः शब्द उपपद में होने पर ग्रह धातु से अच् प्रत्यय होता है। शक्तिं गृह्णाति इति शक्तिग्रहः ( शक्ति + डस् + ग्रह् + अच्) / इसी प्रकार - लाङ्गलग्रहः, अकुशग्रहः, यष्टिग्रहः, तोमरग्रहः, घटग्रहः, घटीग्रहः, धनुर्ग्रहः। सूत्रे च धार्यर्थे - सूत्र उपपद में होने पर धारण करने वाला’ अर्थ होने पर ग्रह धातु से अच् प्रत्यय होता है। सूत्रं धारयति इति सूत्रग्रहः। जो केवल सूत्र को केवल पकड़े, धारण न करे, वहाँ अण् होकर - सूत्रग्राहः । वयसि च - (३.२.१०) - वयस् = अवस्था = आयु गम्यमान हो तो भी कर्म उपपद में रहते हृञ् धातु से अच् प्रत्यय होता है। · अस्थिहरः श्वा - इतना बडा कुत्ता, जो कि हड्डी ले जा सकता है। कवचहरः क्षत्रियकुमारः - इतना बड़ा क्षत्रियकुमार, जो कि कवच धारण कर सकता है।। आङि ताच्छील्ये - (३.२.११) - आपूर्वक हृञ् धातु से कर्म उपपद में रहते ताच्छील्य (तत्स्वभावता) गम्यमान हो, तो अच् प्रत्यय होता है । फलानि आहरति फलाहरः, ( फल + आम् + आङ् + हृ + अच्) / इसी प्रकार - पुष्पाहरः। ताच्छील्य (तत्स्वभावता) गम्यमान न होने पर अण् होकर - भाराहारः। अर्हः - (३.२.१२) - अर्ह पूजायाम् धातु से कर्म उपपद में रहते अच् प्रत्यय होता है। पूजां अर्हति पूजार्हा ( पूजा + ङस् + अर्ह + अच्) इसी प्रकार - __गन्धार्हा, मालार्हा, आदरार्हा।। यह अच् प्रत्यय अण् प्रत्यय का अपवाद है। यद्यपि अण् और अच् प्रत्यय लगने पर रूप समान ही बनता है, तो भी अच् इसलिये किया है कि अण् लगने पर स्त्रीलिङ्ग में टिड्ढाणञ्. सूत्र से ङीप् होता, अब अच् कर देने से ‘अजाद्यतष्टाप्’ से टाप् हुआ है। स्तम्बकर्णयो रमिजपोः - ३.२.१३ - स्तम्ब तथा कर्ण उपपद में होने पर रम् तथा जप् धातुओं से अच् प्रत्यय होता है। स्तम्बे रमते स्तम्बेरमः - (स्तम्ब + डि + रम् + अच्) । ध्यान रहे कि यहाँ तत्पुरुषे कृति बहुलम्’ (६.३.१४) से विभक्ति का अलुक् होता है। इसी प्रकार - कर्णे जपति कर्णेजपः । हस्तिसूचकयोरिति वक्तव्यम् (वा.) - रम् तथा जप् धातु से क्रमशः हस्ति तथा सूचक अर्थों में ही अच् प्रत्यय होता है। स्तम्बे रमते स्तम्बेरमः हस्ती। कर्णे जपतीति कर्णेजपः सूचकः । ४६० अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ __ शमि धातोः संज्ञायाम् - ३.२.१४ - शम् अव्यय के उपपद में रहते धातुमात्र से संज्ञाविषय में अच् प्रत्यय होता है। शम् करोति इति शङ्करः ( शम् + कृ + अच्) । सम्भवः ( सम् + भू + अच्) / शम्वदः (शम् + वद् + अच्) । बाध्यबाधकभाव - यह अच् प्रत्यय आगे कहे जाने वाले ट प्रत्यय का अपवाद है। ध्यातव्य - प्रश्न होता है कि जब ‘धातोः’ का अधिकार चल ही रहा था, तब इस सूत्र में पुनः ‘धातोः’ क्यों कहा ? इसका समाधान यह है कि आगे ‘कृञो हेतुताच्छील्यानुलोम्येषु’ सूत्र कृ धातु से हेतु, ताच्छील्य और आनुलोम्य अर्थों में ट प्रत्यय कह रहा है, किन्तु शम् उपपद में होने पर इन अर्थों में प्रत्यय करके भी यदि समुदाय का अर्थ संज्ञा ही हो, तब कृ धातु से ट प्रत्यय न होकर अच् ही हो। शंकरा नाम परिव्राजिका (शम् करना जिसका शील-स्वभाव है, ऐसी शंकरा नाम की परिव्राजिका)। इसी प्रकार - शंकरा नाम शकुनिका। फल यह है कि यदि ट प्रत्यय होता तो टित् होने के कारण स्त्रीलिङ्ग में ‘टिड्ढाणञ्-’ सूत्र से ङीप् होकर शंकरी बनता। उसे बाधकर संज्ञा अर्थ में अच् कर दिया है अतः स्त्रीलिङ्ग में अजाद्यतष्टाप् से टाप् होकर शंकरा बना है। _अधिकरणे शेते - (३.२.१५) - अधिकरण सुबन्त उपपद में रहते शीङ् धातु से अच् प्रत्यय होता है। खे शेते खशयः । ( ख + डि + शी + अच्) इसी प्रकार - गर्ते शेते गर्त्तशयः। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘अधिकरणे’ की अनुवृत्ति ३.२.१६ तक जायेगी। पार्वादिषूपसंख्यानम् (वा.)- पार्श्व आदि शब्दों के उपपद में होने पर भी शीङ् धातु से अच् प्रत्यय होता है। पार्वाभ्यां शेते पावंशयः । उदरशयः । पृष्ठशयः। पार्श्व । उदर। पृष्ठ। उत्तान । अवमूर्धन् ।। इति पार्खादि ।।। दिग्धसहपूर्वाच्च (वा.) - दिग्धसह शब्द उपपद में होने पर भी शीङ् धातु से अच् प्रत्यय होता है। दिग्धेन सह शेते दिग्धसहशयः । उत्तानादिषु कर्तृषु (वा.) - कर्तृवाचक उत्तान आदि शब्दों के उपपद में होने पर अच् प्रत्यय होता है। उत्तानः शेते उत्तानशयः (सीधा सोने वाला)। अवमूर्द्धा शेते अवमूर्द्धशयः (सिर के बल सोने वाला)। अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (द्वितीय पाद) ४६१ गिरौ डश्छन्दसि (वा.) - वेद में गिरि पूर्वक शीङ् धातु से ड प्रत्यय होता है। गिरौ शेते गिरिशः । ( गिरि + डि + शी + ड)। डित् होने के कारण टेः सूत्र से टि का लोप हुआ है। लोक में अच् प्रत्यय हाकर गिरिशयः ही बनता है। (ध्यान रहे कि ‘गिरिशमुपचचार प्रत्यहं सा सुकेशी’ इस वाक्य में गिरिः अस्य अस्ति इति इस अर्थ में गिरि शब्द से लोमादित्वात् श, यह तद्धित प्रत्यय हुआ है।)
ट प्रत्यय
चरेष्टः - (३.२.१६) - अधिकरण सुबन्त उपपद में होने पर चर् धातु से ट प्रत्यय होता है। कुरुषु चरति कुरुचरः (कुरु + सुप् + चर् + ट)। इसी प्रकार - मद्रचरः । टित् होने के कारण स्त्रीलिङ्ग में टिड्ढाणञ्-’ सूत्र से ङीप् होकर - कुरुचरी, मद्रचरी। अनुवृत्ति- यहाँ से ‘ट’ की अनुवृत्ति ३.२.२३ तक जायेगी तथा चरे’ की अनुवृत्ति ३.२.१७ तक जायेगी। भिक्षासेनादायेषु च - (३.२.१७) - भिक्षा, सेना, आदाय शब्द उपपद रहते भी चर् धातु से ट प्रत्यय होता है। भिक्षां चरति भिक्षाचरः ( भिक्षा + ङस् + चर् + ट)। सेनां चरति सेनाचरः ( सेना + ङस् + चर् + ट)। आदाय चरति आदायचरः (आदाय + चर् + ट)। पुरोग्रतोऽग्रेषु सर्तेः - (३.२.१८)- पुरस्, अग्रतस्, अग्रे, ये अव्यय उपपद रहते सृ धातु से ट प्रत्यय होता है। पुरः सरति = पुरस्सरः । अग्रतः सरति = अग्रतस्सरः । अग्रेसरः। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘सर्तेः’ की अनृवृत्ति ३.२.१९ तक जायेगी। पूर्व कर्तरि - (३.२.१९) - कर्तृवाची पूर्व शब्द उपपद हो तो सृ धातु से ट प्रत्यय होता है। पूर्वः सरति = पूर्वसरः ( पूर्व + सु + सृ + ट)। कर्ता अर्थ न होने पर अण् होकर - पूर्व + ङस् + सृ + अण् होकर पूर्वसारः ही बनेगा। __कृञो हेतुताच्छील्यानुलोम्येषु - (३.२.२०) - कर्म उपपद में रहते कृञ् धातु से हेतु, ताच्छील्य, आनुलोम्य अर्थ गम्यमान हों, तो ट प्रत्यय होता है। __ हेतौ - शोककरी अविद्या ( शोक + ङस् + कृ + ट), इसी प्रकार - यशस्करी विद्या। ताच्छील्ये - धर्मं करोति = धर्मकरः, अर्थकरः। आनुलोम्ये - वचनं करोति = वचनकरः पुत्रः । इसी प्रकार - आज्ञाकरः शिष्यः, प्रेषकरः। ४६२ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ अनुवृत्ति - यहाँ से ‘कृ’ की अनुवृत्ति ३.२.२४ तक जायेगी। दिवाविभानिशाप्रभाभास्कारान्तानन्तादिबहुनान्दीकिंलिपिलिबिबलिभक्ति कर्तृचित्रक्षेत्रसंख्याजङ्घाबाहहर्यत्तद्धनुररुःषु - (३.२.२१) अनुवृत्ति - इसमें सुपि और कर्मणि दोनों की अनुवृत्ति है। दिवा, विभा, निशा, इत्यादि सुबन्त कर्म उपपद में रहते कृञ् धातु से ट प्रत्यय होता है। दिवा करोति प्राणिनश्चेष्टायुक्तान् इति दिवाकरः ( दिवा + कृ + ट)। विभां करोति इति विभाकरः ( विभा + ङस् + कृ + ट)। प्रभां करोति इति प्रभाकरः। भासं करोति इति भास्करः। इसी प्रकार - कारकरः (कर एव कारः)। अन्तकरः । अनन्तकरः । आदिकरः। बहुकरः। नान्दीकरः। किङ्करः। लिपिकरः। लिबिकरः। बलिकरः। भक्तिकरः । कर्तृकरः । चित्रकरः । क्षेत्रकरः । सङ्ख्या उपपद में होने पर - एककरः, द्विकरः, त्रिकरः। जङ्घाकरः । बाहुकरः । अहस्करः। यत्करः । धनुष्करः । अरुष्करः। किंयत्तद्बहुषु कृञोऽज्विधानम् (वार्तिक) - किम्, यत्, तद् तथा बहु शब्द उपपद में होने पर कृञ् धातु से अच् प्रत्यय होता है। किंकरा ( किम् + कृ + अच्) । इसी प्रकार - यत्करा। तत्करा। बहुकरा। पुयोग में ङीष् करके - किंकरी। विशेष - यह अच् प्रत्यय ट प्रत्यय का अपवाद है। ट लगने पर स्त्रीलिङ्ग में टिड्ढाणञ्. सूत्र से डीप् होता है, और अच् लगने से अजाद्यतष्टाप् से टाप् हुआ है। कर्मणि भृतौ - (३.२.२२) - कर्मवाची कर्म शब्द उपपद रहते कृञ् धातु से ट प्रत्यय होता है, भृति वेतन गम्यमान हो तो। कर्म करोतीति कर्मकरः। न शब्दश्लोककलहगाथावरचाटुसूत्रमन्त्रपदेषु - (३.२.२३) - शब्द श्लोक आदि कर्म उपपद में रहते कृञ् धातु से ट प्रत्यय नहीं होता है। __ ध्यान दें कि कृञो हेतुताच्छील्यानुलोम्येषु ३.२.२० सूत्र से हेतु, ताच्छील्य, आनुलोम्य अर्थ में कृ धातु से जो ट प्रत्यय कहा गया है, उसका यह सूत्र प्रतिषेध कर रहा है। अतः ट प्रत्यय का प्रतिषेध होने से कर्मण्यण से यथाप्राप्त अण हो जाता है। शब्दं करोति = शब्दकारः ( शब्द + डस् + कृ + अण्) । इसी प्रकार - श्लोकं करोति = श्लोककारः । कलहं करोति = कलहकारः । गाथां करोति = गाथाकारः । वैरं करोति = वैरकारः । चाटु करोति = चाटुकारः । सूत्रं करोति अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (द्वितीय पाद) ४६३ = सूत्रकारः । मन्त्रं करोति = मन्त्रकारः। पदं करोति = पदकारः।
इन् प्रत्यय
स्तम्बशकृतोरिन् - (३.२.२४) - स्तम्ब और शकृत् कर्म उपपद में हो तो कृञ् धातु से इन् प्रत्यय होता है। व्रीहिवत्सयोरिति वक्तव्यम् (वा.) - स्तम्ब और शकृत् उपपद में होने पर कृ धातु से इन् प्रत्यय होता है, क्रमशः व्रीहि और वत्स अभिधेय होने पर। स्तम्बं करोति इति स्तम्बकरिः व्रीहिः। ( स्तम्ब + ङस् + कृ + इन्)। शकृत् करोति इति शकृत्करिः वत्सः । ( शकृत् + ङस् + कृ + इन्)। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘इन्’ की अनुवृत्ति ३.२.२७ तक जायेगी। हरतेतिनाथयोः पशौ - (३.२.२५) - दृति तथा नाथ, ये कर्म उपपद में रहते हृञ् धातु से पशु कर्ता होने पर इन् प्रत्यय होता है। दृतिं हरति इति दृतिहरिः पशुः । ( दृति + ङस् + हृ + इन्)। इसी प्रकार - नाथहरिः पशुः। __ फलेग्रहिरात्मभरिश्च - (३.२.२६) - फलेग्रहि और आत्मम्भरि शब्द इन् प्रत्ययान्त निपातन किये जाते हैं। फलानि गृह्णाति = फलेग्रहिवृक्षः । आत्मानं बिभर्ति आत्मम्भरिः। छन्दसि वनसनरक्षिमथाम् - (३.२.२७) - वेद विषय में वन, सन, रक्ष तथा मथ धातुओं से कर्म उपपद में होने पर इन् प्रत्यय होता है। ब्रह्मवनिं त्वां ब्रह्मवनिं । (ब्रह्म + ङस् + वन् + इन्) । इसी प्रकार - गोसनिः । यौ पथिरक्षी श्वानौ । हविर्मथीनाम्।
खश् प्रत्यय
__ ध्यान रहे कि खश् प्रत्यय शित् है। शित् होने के कारण धातुओं को शित् परे होने वाले सारे कार्य होंगे। यथा - पा को पिब्, घ्रा को जिघ्र, दृश् को पश्य, हा को जहा आदि। शित् होने से खश् प्रत्यय सार्वधातुक है। सार्वधातुक होने के कारण खश् परे होने पर धातुओं से उस गण का विकरण होगा, जिस गण का वह धातु है। एजेः खश् - (३.२.२८) - एजृ कम्पने इस ण्यन्त धातु से कर्म उपपद में रहते खश् प्रत्यय होता है। जनान् एजयति = जनमेजयः - (जन + ङस् + एज् + णिच् + शप् + खश्)। इसी प्रकार - अङ्गमेजयति इति अङ्गमेजयः । वृक्षमेजयः। " बाध्यबाधकभाव - यह खश् प्रत्यय अण् प्रत्यय का अपवाद है। ४६४ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ खश्प्रत्यये वातशुनीतिलशद्धेष्वजधेट्तुदजहातीनामुपसंख्यानम् (वा.) - वात, शुनी, तिल तथा शर्द्ध उपपद में होने पर अज्, धेट, तुद् तथा ओहाक् धातुओं से खश् प्रत्यय होता है। .. __ वातं अजन्ति इति वातमजा मृगाः - (वात + ङस् + अज् + शप् + खश्)। तिलं तुदति इति तिलन्तुदः (तिल + ङस् + तुद् + श+ खश्) । शर्धं जहति इति शर्द्धजहा माषाः (शर्ध + ङस् + हा + शप्श्लु + खश्) । शुनीं धयति इति शुनिन्धयः - (शुनी + ङस् + धे + शप् + खश्)। (खिदन्त परे होने पर ‘अरुद्धिषदजन्तस्य मुम्’ से मुम् का आगम होता है, तथा ‘खित्यनव्ययस्य’ से ह्रस्व होता है।) अनुवृत्ति - यहाँ से ‘खश्’ की अनुवृत्ति ३.२.३७ तक जायेगी। नासिकास्तनयोधेिटोः - (३.२.२९)- नासिका और स्तन कर्म उपपद में रहते ध्मा और धेट धातुओं से खश् प्रत्यय होता है। नासिकां धमति इति नासिकन्धमः - (नासिका + ङस् + धे + शप् + खश्) नासिकन्धयः । स्तने धेटः (वा.) - स्तन उपपद में होने पर धेट धातु से ही खश् प्रत्यय होता है। स्तनं धयति इति स्तनन्धयः । नासिकायां तु ध्मश्च धेटश्च (वा.) - नासिका शब्द उपपद में होने पर ६ मा तथा धेट दोनों ही धातुओं से खश् प्रत्यय होता है। नासिकन्धमः । नासिकंधयः । अनुवृत्ति - यहाँ से ‘माधेटोः’ की अनुवृत्ति ३.२.३० तक जायेगी। नाडीमुष्ट्योश्च - (३.२.३०) - नाडी और मुष्टि कर्म उपपद रहते भी ध्मा तथा धेट धातुओं से खश् प्रत्यय होता है। नाडिन्धमः । नाडिन्धयः। मुष्टिन्धमः । मुष्टिन्धयः। __ उदि कूले रुजिवहोः - (३.२.३१) - उत् पूर्वक रुज् तथा वह् धातुओं से ‘कूल’ कर्म उपपद में रहते खश् प्रत्यय होता है । कूलमुद्रुजति = कूलमुद्रुजो रथः (कूल + ङस् + रुज् + श + खश्) । कुलमुद्वहति = कूलमुद्वहः (कूल + ङस् + उद् + वह् + शप् + खश्)। __वहाभ्रे लिहः - (३.२.३२) - वह तथा अभ्र कर्म उपपद में रहते लिह धातु से खश् प्रत्यय होता है। वहं लेढि = वहलिहो गौः (वह + ङस् + लिह + शब्लुक् + खश्)। इसी प्रकार - अभ्रंलिहो वायुः । अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (द्वितीय पाद) ४६५ परिमाणे पचः - (३.२.३३) - परिमाणवाची कर्म उपपद हो तो पच् धातु से खश् प्रत्यय होता है। प्रस्थं पचति प्रस्थंपचा स्थाली। (प्रस्थ + ङस् + पच् + शप् + खश्)। गर इसी प्रकार - द्रोणम्पचः, खारिम्पचः कटाहः। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘पचः’ की अनुवृत्ति ३.२.३४ तक जायेगी। मितनखे च - (३.२.३४) - मित और नख कर्म उपपद में हों, तो भी पच् धातु से खश् प्रत्यय होता है। मितं पचति मितम्पचा ब्राह्मणी। नखम्पचा यवागूः । विध्वरुषोस्तुदः - (३.२.३५) - विधु और अरुस् कर्म उपपद में हो तो तुद धातु से खश् प्रत्यय होता है। विधुन्तुदः । अरुन्तुदः। असूर्यललाटयोद्देशितपोः - (३.२.३६) - असूर्य और ललाट कर्म उपपद में हो तो दृश् तथा तप् धातु से खश् प्रत्यय होता है। असूर्यम्पश्या राजदाराः । (असूर्य + ङस् + दृश् + शप् + खश्) । इसी प्रकार - ललाटन्तपः आदित्यः । उग्रंपश्येरंमदपाणिंधमाश्च- (३.२.३७) - उग्रम्पश्य, इरम्मद तथा पाणिन्धम ये शब्द भी खश् प्रत्ययान्त निपातन किये जाते हैं। उग्रं पश्यतीति उग्रम्पश्यः। (उग्र + ङस् + दृश् + शप् + खश्)। इरया माद्यति इति इरम्मदः । (इरा + ङस् + मद् + शप् + खश्)। (खिदन्त परे होने पर ‘अरुर्द्विषदजन्तस्य मुम्’ से मुम् का आगम हुआ है, तथा खित्यनव्ययस्य से ह्रस्व हुआ है।)। पाणयो मायन्ते एष्विति पाणिन्धमाः पन्थानः । (पाणि + ङस् + ध्मा + शप् + खश्) ।
खच् प्रत्यय
ध्यान रहे कि खच् प्रत्यय शित् नहीं है। अतः यह सार्वधातुक भी नहीं है। अतः इसके लगने पर विकरणादि नहीं होंगे। किन्तु खित् होने के कारण मुम् का आगम होगा। प्रियवशे वदः खच् - (३.२.३८)- प्रिय तथा वश कर्म उपपद में हों, तो वद् धातु से खच् प्रत्यय होता है। प्रियं वदति प्रियंवदः । खशंवदः । खप्रकरणे गमेः सुप्युपसंख्यानम् (वा.) - सुबन्त उपपद में होने पर गम् धातु से भी खच् प्रत्यय होता है। मितं गच्छति इति मितंगमो हस्ती। मितंगमा हस्तिनी। विहायसो विह च (वा.) - विहायस् उपपद में होने पर गम् धातु से खच् प्रत्यय ४६६ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ होता है तथा विहायस् को विह आदेश भी होता है। विहायसा गच्छति इति विहंगमः। खच्च डिद्वा वक्तव्यः (वा.) - विहायस् उपपद में परे होने पर गम् धातु से प्राप्त खच प्रत्यय विकल्प से डितवत होता है। डित होने पर टेः सत्र से टि का लोप होगा - विहंगः - (विहायस् + ङस् + गम् + शप् + खच्) । डित् न होने पर टि का लोप नहीं होगा - विहंगमः। डे च विहायसो विहादेशो वक्तव्यः - विहायस् उपपद में परे होने पर गम् धातु से ड प्रत्यय तथा विहायस् को विह् आदेश होता है। विहायस् + गम् + ड / विह + गम् + अ / टि का लोप होकर - विह + ग् + अ = विहगः । अनुवृत्ति - यहाँ से ‘खच् की अनुवृत्ति ३.२.४७ तक जायेगी। द्विषत्परयोस्तापेः - (३.२.३९) - द्विषत् तथा पर शब्द उपपद में हो तो ण्यन्त तप धातु से खच् प्रत्यय होता है। द्विषन्तं तापयति = द्विषन्तपः। परन्तपः । वाचि यमो व्रते - (३.२.४०) - ‘वाच्’ कर्म उपपद हो तो यम् धातु से व्रत गम्यमान होने पर खच् प्रत्यय होता है। वाचं यच्छति इति वाचंयमः । वाचंयम आस्ते। पूःसर्वयोर्दारिसहोः - (३.२.४१) - पुर्, सर्व ये कर्म उपपद हो तो ण्यन्त दृ विदारणे धातु से तथा सह धातु से यथासङ्ख्य करके खच् प्रत्यय होता है। पुरं दारयति इति पुरन्दरः। (पुर् + ङस् + दृ + णिच् + खच्)। सर्वं सहते इति सर्वंसहः । (ध्यान दें कि वाच् और पुर् शब्द अजन्त नहीं हैं, अतः इन्हें अरुर्द्विषदजन्तस्य मुम् से मुम् का आगम नहीं हो सकता था, अतः वाचंयमपुरन्दरौ (६.३.६८) सूत्र से इन्हें अमन्तत्व निपातन हुआ है।) भगे च दारेरिति वक्तव्यम् (वा.) - ‘भग’ यह कर्म उपपद में हो तो ण्यन्त दारि धातु से भी खच् प्रत्यय होता है। भगं दारयति इति भगन्दरः। (भग + ङस् + दृ + णिच् + खच्)। सर्वकूलाभ्रकरीषेषु कषः- (३.२.४२) - सर्व, कूल, अभ्र, करीष ये कर्म उपपद रहते कष् धातु से खच् प्रत्यय होता है। सर्वं कषति इति सर्वकषःखलः । कूलंकषा नदी। अभ्रंकषो गिरिः । करीषंकषा वात्या। मेघर्तिभयेषु कृञः - (३.२.४३) - मेघ, ऋति, भय ये कर्म उपपद हो तो कृञ् धातु से खच् प्रत्यय होता है। मेघं करोति मेघंकरः । ऋतिंकरः । भयंकरः । उपपदविधौ भयादिग्रहणं तदन्तविधि प्रयोजयति (वा.) - भयान्त शब्द अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (द्वितीय पाद) ४६७ उपपद में होने पर भी कृञ् धातु से खच् प्रत्यय होता है। अभयंकरः। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘कृञः’ की अनुवृत्ति ३.२.४४ तक जायेगी। क्षेमप्रियमद्रेऽण्च - (३.२.४४) - क्षेम, प्रिय, मद्र ये कर्म उपपद रहते कृञ् धातु से अण् प्रत्यय होता है तथा चकार से खच् प्रत्यय भी होता है। अण् होने पर - क्षेमं करोति = क्षेमकारः। खच् होने पर - क्षेमं करोति - क्षेमकरः । इसी प्रकार - प्रियकारः, प्रियंकरः । मद्रकारः, मद्रंकरः। आशिते भुवः करणभावयोः - (३.२.४५) - आशित सुबन्त उपपद में हो तो भू धातु से करण और भाव में खच् प्रत्यय होता है। करण अर्थ में - आशितः = तृप्तो भवत्यनेन आशितंभवः ओदनः । (एसा चावल, जिसके द्वारा तृप्त हुआ जाता है।) भाव अर्थ में = आशितस्य भवनम् इति आशितंभवं वर्तते । (तृप्त होना हो रहा है) __संज्ञायां भृतृवृजिधारिसहितपिदमः - (३.२.४६) - संज्ञा गम्यमान हो तो कर्म अथवा सुबन्त उपपद में रहते भृ, तृ, वृ, जि, धारि, सह, तप, दम, इन धातुओं से खच् प्रत्यय होता है। विश्वं बिभर्ति इति विश्वम्भरः परमेश्वरः । रथेन तरति इति रथन्तरं साम। पतिं वृणुते इति पतिंवरा कन्या । शत्रु जयति इति शत्रुञ्जयः हस्ती। युगं धारयति इति युगन्धरः पर्वतः । शत्रु सहते इति शसहः । शत्रु तपति इति शतपः। अरिं दाम्यति अरिंदमः । __ ध्यान रहे कि संज्ञा अर्थ न होने पर अण ही होगा। कटम्बं बिभर्ति इति कुटुम्बभारः। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘संज्ञायाम्’ की अनुवृत्ति ३.२.४७ तक जायेगी। गमश्च - (३.२.४७) - संज्ञा गम्यमान होने पर, कर्म उपपद में रहते गम् धातु से भी खच् प्रत्यय होता है। सुतं गच्छति सुतङ्गमः । (किसी व्यक्ति का नाम)। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘गम’ की अनुवृत्ति ३.२.४८ तक जायेगी।
ड प्रत्यय
अन्तात्यन्ताध्वदूरपारसर्वानन्तेषु डः - (३.२.४८) - अन्त, अत्यन्त, अध्व, दूर, पार, सर्व, अनन्त, कर्म उपपद में रहते ड प्रत्यय होता है। डित् होने पर ‘टेः’ सूत्र से टि का लोप होता है - अन्तं गच्छति इति अन्तगः । (अन्त + ङस् + गम् + ड)। इसी प्रकार - अत्यन्तगः । अध्वगः। दूरगः । पारगः । सर्वगः । अनन्तगः । डप्रकरणे सर्वत्रपन्नयोरुपसंख्यानम् (वा.) - सर्वत्र तथा पन्न शब्दों के उपपद ४६८ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ में रहने पर भी ड प्रत्यय होता है। सर्वत्रगः। पन्नगः । उरसो लोपश्च (वा.) - उरस् शब्द उपपद में होने पर गम् धातु से ड प्रत्यय होता है तथा उरस् के सकार का लोप हो जाता है। उरसा गच्छतीत्युरगः - (उरस् + टा + गम् + ड)। सुदुरोरधिकरणे (वा.) - सु तथा दुर् उपपद में होने पर गम् धातु से अष्टि करण गम्यमान होने पर ड प्रत्यय होता है। सुखेन गच्छत्यस्मिन् इति सुगः । दुर्गः। निरो देशे (वा.) - निर् शब्द उपपद में होने पर भी गम् धातु से देश अर्थ में ड प्रत्यय होता है। निर्गः देशः। डप्रकरणेऽन्येष्वपि दृश्यते (वा.) - अन्य कई शब्दों के उपपद में रहने पर भी ड प्रत्यय होता है। स्त्र्यगारगः । ग्रामगः । गुरुतल्पगः। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘ड’ की अनुवृत्ति ३.२.५० तक जायेगी। आशिषि हनः - (३.२.४९) - आशीर्वचन गम्यमान होने पर हन् धातु से कर्म उपपद में रहते ड प्रत्यय होता है। ‘शत्रून् वध्यात्’ इस अर्थ में हन् धातु से ड प्रत्यय होकर - शत्रुहस्ते पुत्रो भूयात् । (शत्रु + ङस् + हन् + ड = शत्रुहः)। (तुम्हारा ऐसा पुत्र हो, जो शत्रु को मारे।) दुःखहस्त्वं भूयाः । (तुम दुःख को दूर करने वाले बनो।) दारावाहनोऽणन्तस्य च टः संज्ञायाम् (वा.) - दारु शब्द के उपपद में होने पर आङ्पूर्वक हन् धातु से अण् प्रत्यय होता है तथा अन्त को ट आदेश भी हो जाता है। दारु आहन्ति दार्वाघाटः। (दारु + ङस् + आ + हन् + ड)। चारौ वा (वा.) - चारु शब्द के उपपद में होने पर आङ्पूर्वक हन् धातु से अण् प्रत्यय होता है तथा अन्त को ट आदेश भी हो जाता है। चारु आहन्ति चार्वाघाटः, चार्वाघातः। समि कर्मणि च (वा.) - कर्म उपपद में होने पर सम्पूर्वक हन् धातु से अण् प्रत्यय होता है तथा विकल्प से टकारान्तादेश भी होता है। वर्णान् संहन्ति वर्णसंघाटः, वर्णसंघातः । पदानि संहन्ति पदसंघाटः, पदसंघातः । अनुवृत्ति - यहाँ से ‘हन’ की अनुवृत्ति ३.२.५५ तक जायेगी। अपे क्लेशतमसोः - (३.२.५०)- क्लेश तथा तमस् कर्म उपपद रहते अपपूर्वक हन् धातु से ड प्रत्यय होता है। क्लेशापहः पुत्रः (क्लेश + ङस् + अप + हन् + ड)। इसी प्रकार - तमोपहः सूर्यः । (तमस् + ङस् + अप + हन् + ड)। अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (द्वितीय पाद)
णिनि प्रत्यय
कुमारशीर्षयोर्णिनिः - (३.२.५१) - कुमार तथा शीर्ष कर्म उपपद में हो तो हन् धातु से णिनि प्रत्यय होता है। कुमारघाती। (कुमार + ङस् + हन् + णिनि)। शीर्षघाती। (शिरस् + ङस् + हन् + णिनि)। यहाँ शिरस् को निपातन से शीर्ष आदेश हुआ है। लक्षणे जायापत्योष्टक् - (३.२.५२) - जाया तथा पति कर्म उपपद हो तो लक्षणवान् कर्ता अभिधेय हो तो हन् धातु से टक् प्रत्यय होता है। जायाघ्नो वृषलः। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘टक् की अनुवृत्ति ३.२.५४ तक जायेगी। अमनुष्यकर्तृके च - (३.२.५३) - मनुष्य से भिन्न कर्ता है जिसका उस हन् धातु से भी कर्म उपपद में रहते टक् प्रत्यय होता है। श्लेष्मघ्नं मधु । शक्तौ हस्तिकपाटयोः - (३.२.५४) - हस्तिन् तथा कपाट कर्म उपपद में रहते शक्ति गम्यमान हो तो हन् धातु से टक् प्रत्यय होता है। हस्तिनं हन्तुं शक्नोति हस्तिघ्नो मनुष्यः । कपाटं हन्तुं शक्नोति कपाटघ्नश्चौरः । __ पाणिघताडघौ शिल्पिनि- (३.२.५५)- शिल्पी कर्ता वाच्य हो तो पाणि तथा ताड शब्द उपपद में होने पर हन् धातु से क प्रत्यय तथा हन् धातु की टि का लोप तथा ह को घ् निपातन किया जाता है। पाणिघः। (पाणि + ङस् + हन् + क)। इसी प्रकार - ताडघः। राजघ उपसंख्यानम् (वा.) - राजघ शब्द भी निपातन किया जाता है। राजानं हन्ति राजघः।
ख्युन् प्रत्यय
आढ्यसुभगस्थूलपलितनग्नान्धप्रियेषु च्व्यर्थेष्वच्चौ कृञः करणे ख्युन् - (३.२.५६) - आढ्य, सुभग, स्थूल, पलित, नग्न, अन्ध और प्रिय शब्द, च्व्यर्थ में वर्तमान हों किन्तु च्विप्रत्ययान्त न हों, ऐसे कर्म उपपद रहते कृञ् धातु से करण कारक में ख्युन् प्रत्यय होता है। अनाढ्यम् आढ्यं कुर्वन्त्यनेन आढ्यंकरणम् - आढ्य + ङस् + कृ + ख्युन्, (जो धनाढ्य नहीं है, उसे धनाढ्य बनाया जाता है, जिसके द्वारा)। सुभगंकरणम् (जो कल्याणयुक्त नहीं है, उसे कल्याणयुक्त बनाया जाता है, जिसके द्वारा)। स्थूलंकरणम् (जो स्थूल नहीं है, उसे स्थूल बनाया जाता है, जिसके द्वारा)। पलितंकरणम् (जो वृद्ध नहीं ४७० अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ है, उसे वृद्ध बनाया जाता है, जिसके द्वारा)। इसी प्रकार - नग्नकरणम् । अन्धकरणम् । प्रियंकरणम्, आदि। विशेष - च्यव्यर्थ न होने पर ‘करणाधिकरणयोः’ सूत्र से करण अर्थ में ल्युट् होगा - आढ्यीकुर्वन्त्यनेन। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘आढ्यसुभगस्थूलपलितनग्नान्धप्रियेषु व्यर्थेष्वच्वौ’ की अनुवृत्ति ३.२.५७ तक जायेगी।
खिष्णुच्, खुकञ् प्रत्यय
कर्तरि भुवः खिष्णुच्खुकौ - (३.२.५७) - च्व्यर्थ में वर्तमान अच्व्यन्त आढ्यादि सुबन्त उपपद में होने पर, कर्ताकारक में भू धातु से खिष्णुच् तथा खुकञ् प्रत्यय होते हैं। अनाढ्य आढ्य भवति आढ्यंभविष्णुः, आढ्यंभावुकः । इसी प्रकार - पलितंभविष्णुः पलितंभावुकः । नग्नं भविष्णुः नग्नंभावुकः ।
क्विन् प्रत्यय
स्पृशोऽनुदके क्विन् - (३.२.५८) - उदक भिन्न सुबन्त उपपद में हो तो स्पृश् धातु से क्विन् प्रत्यय होता है । मन्त्रेण स्पृशति मन्त्रस्पृक् । (मन्त्र + टा+ स्पृश् + क्विन्)। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘क्विन्’ की अनुवृत्ति ३.२.६० तक जायेगी। ऋत्विग्दधृक्स्रग्दिगुष्णिगञ्चुयुजिक्रुञ्चां च - (३.२.५९) - ऋत्विक, दधृक्, स्रक दिक. उष्णिक ये पाँच शब्द क्विन प्रत्ययान्त निपातन किये जाते हैं तथा अञ्च. यजि. क्रुञ्च् धातुओं से भी क्विन् प्रत्यय होता है। ऋतुं यजति अथवा ऋतुप्रयुक्तो यजति इति ऋत्विक् । धृष्णोति इति दधृक् । सृजन्ति तां सा स्रक् । दिशन्ति तां सा दिक् । उष्णिक् । प्राङ्, प्रत्यङ्, उदङ् । युङ्, युञ्जौ, युञ्जः । क्रुङ्, क्रुञ्चौ, क्रुञ्चः।
कञ्, क्विन्, क्स प्रत्यय
त्यदादिषु दृशोऽनालोचने कञ्च - (३.२.६०) - त्यदादि शब्द उपपद में रहने पर, अनालोचन अर्थ में वर्तमान दृश् धातु से कञ् प्रत्यय होता है तथा चकार से क्विन् प्रत्यय भी होता है। त्यादृक्, त्यादृशः । तादृक्, तादृशः । यादृक्, यादृशः। र समानान्ययोश्चेति वक्तव्यम् (वा.) - समान तथा अन्य शब्दों के उपपद में होने पर भी उपर्युक्त दोनों प्रत्यय होते हैं। सदृक्, सदृशः । अन्यादृक्, अन्यादृशः ।अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (द्वितीय पाद) ४७१ दृशेः क्सश्च वक्तव्यम् - त्यादादि उपपद में होने पर दृश् धातु से क्स प्रत्यय होता है। यादृक्षः, तादृक्षः, अन्यादृक्षः, कीदृक्षः ।
क्विप् प्रत्यय
सत्सूद्विषद्रुहदुहयुजविदभिदच्छिदजिनीराजामुपसर्गेऽपि क्विप् - (३.२.६१) सुबन्त उपपद में होने पर सोपसर्ग अथवा निरुपसर्ग सद्, सू, द्विष् आदि सूत्रपठित धातुओं से क्विप् प्रत्यय होता है। सद् - वेद्यां सीदति वेदिषत् । शुचिषत् । अन्तरिक्षे सीदति अन्तरिक्षसत् । प्रसत् । सू - वत्सं सूते वत्ससूः गौः । अण्डसूः । शतसूः । प्रसूः । द्विष् - मित्रं द्वेष्टि मित्रद्विट, प्रद्विट् । द्रुह् - मित्रध्रुक्, प्रध्रुक् । दुह् - गोधुक्, प्रधुक् । युज् - अश्वयुक्, प्रयुक् । विद् - वेदवित्, ब्रह्मवित् । भिद् - काष्ठभित्, प्रभित् । छिद् - रज्जुच्छित्, प्रच्छित् । जि- शत्रुजित्, प्रचित् । नी - सेनां नयति सेनानीः, अग्रणीः, ग्रामणीः । (यहाँ पूर्वपदात् संज्ञायामगः’ सूत्र से णत्व हुआ है।) राज् - विश्वं राजयति विश्वराट, विराट, सम्राट् । (सम्राट् में मो राजि समः क्वौ’ सूत्र से सम् के मकार को मकार हुआ है।) अनुवृत्ति - यहाँ से ‘उपसर्गेऽपि’ की अनुवृत्ति ३.२.७७ तक जायेगी।
ण्वि प्रत्यय
भजो ण्विः - (३.२.६२) - सोपसर्ग अथवा निरुपसर्ग भज् धातु से ण्वि प्रत्यय होता है। अर्द्ध भजते अर्धभाक् । (अर्ध + ङस् + भज् + ण्वि) इसी प्रकार - प्रभाक् । अनुवृत्ति - यहाँ से ‘ण्विः’ की अनुवृत्ति ३.२.६४ तक जायेगी। छन्दसि सहः - (३.२.६३) - सह् धातु से वेदविषय में सुबन्त उपपद में रहते ण्वि प्रत्यय होता है। तुराषाट् । (तुरा + ङस् + सह् + ण्वि)। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘छन्दसि’ की अनुवृत्ति ३.२.६७ तक जायेगी। वहश्च - (३.२.६४) - वह धातु से वेदविषय में सुबन्त उपपद में रहते ण्वि प्रत्यय होता है। प्रष्ठं वहति प्रष्ठवाट । इसी प्रकार दित्यवाट् । अनुवृत्ति - यहाँ से वहः’ की अनुवृत्ति ३.२.६६ तक जायेगी।
ञ्युट् प्रत्यय
कव्यपुरीषपुरीष्येषु ज्युट - (३.२.६५) - कव्य, पुरीष तथा पुरीष्य सुबन्त उपपद में रहते वह धातु से ज्युट प्रत्यय होता है। कव्यं वहति इति कव्यवाहनः । (कव्य + ङस् + वह् + ज्युट)। इसी प्रकार - पुरीषवाहनः । पुरीष्यवाहनः आदि। ४७२ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ अनुवृत्ति - यहाँ से ‘ड्युट’ की अनुवृत्ति ३.२.६६ तक जायेगी। हव्येऽनन्तःपादम् - (३.२.६६) - वेदविषय में हव्य सुबन्त उपपद में रहते वह धातु से ज्युट प्रत्यय होता है, यदि वह् धातु पाद के अन्तर अर्थात् मध्य में विद्यमान न हो तो। दूतश्च हव्यवाहनः ।
विट् प्रत्यय
जनसनखनक्रमगमो विट् - (३.२.६७) - जन, सन, खन, क्रम, गम इन धातुओं से सुबन्त उपपद में रहते विट् प्रत्यय होता है। अप्सु जायते अब्जाः । गोषु जायते गोजाः । गाः सनोति गोषाः । नृन् सनोति इति नृषाः । विसं खनति इति विसखाः, कूपंखनति इति कूपखाः । दधि क्रामति इति दधिक्राः । अग्रे गच्छति इति अग्रेगाः उन्नेतृणाम् । इन सबमें विड्वनोरनुनासिकस्यात्’ से आकार अन्तादेश हुआ है। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘विट्’ की अनुवृत्ति ३.२.६९ तक जायेगी। अदोऽनन्ने - (३.२.६८) - अन्न सुबन्त उपपद में रहते अद् धातु से विट् प्रत्यय होता है। आमम् अत्ति इति आमात् । (आम + अद् + विट)। इसी प्रकार - सस्यम् अत्ति इति सस्यात्। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘अदः’ की अनुवृत्ति ३.२.६९ तक जायेगी। क्रव्ये च - (३.२.६९) - क्रव्य सुबन्त उपपद में रहते भी अद् धातु से विट् प्रत्यय होता है। क्रव्यं अत्ति इति क्रव्यात् ।
कप् प्रत्यय
दुहः कब्धश्च - (३.२.७०) - दुह् धातु से सुबन्त उपपद रहते कप् प्रत्यय होता है तथा धातु के हकार को घकारादेश भी होता है। कामान् दोग्धि - कामदुघा धेनुः । धर्मदुघा।
ण्विन् प्रत्यय
मन्त्रे श्वेतवहोक्थशस्पुरोडाशो ण्विन् - (३.२.७१) - वेदविषय में श्वेतवह, उक्थशस् तथा पुरोडाश् ये शब्द ण्विन् प्रत्ययान्त निपातन किये जाते हैं। श्वेता एनं वहन्ति श्वेतवा इन्द्रः। उक्थानि, उक्थैर्वा शंसति - उक्थशाः यजमानः। पुरो दाशन्त एनम् पुरोडाः। श्वेतवहादीनां डस् पदस्येति वक्तव्यम् - श्वेतवह आदि शब्दों से पदसंज्ञा होने पर ण्विन् प्रत्यय के स्थान पर डस् प्रत्यय होता है। अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (द्वितीय पाद) ४७३ हलादि विभक्ति परे होने पर पूर्व की पद संज्ञा होती है। पद संज्ञा होने पर डस् प्रत्यय होता है। डस् प्रत्यय होने पर टेः सूत्र से टि का लोप होता है। श्वेतवह् + भ्याम् / डस् प्रत्यय होकर - श्वेतवह् + डस् + भ्याम् / टि का लोप होकर - श्वेतव् + अस् + भ्याम् / श्वेतवस् + भ्याम् / स् को रुत्व, उत्व होकर - श्वेतवोभ्याम् । श्वेतवोभिः। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘मन्त्रे ण्विन्’ की अनुवृत्ति ३.२.७२ तक जायेगी। अवे यजः - (३.२.७२) - वेदविषय में अव उपपद रहते यज् धातु से ण्विन् प्रत्यय होता है। त्वं यज्ञे वरुणस्यावया असि । अवयजते इति अवयाः (अव + यज् + ण्विन् = अवयाः ।) अनुवृत्ति - यहाँ से ‘यज’ की अनुवृत्ति ३.२.७३ तक जायेगी।
विच् प्रत्यय
विजुपे छन्दसि - (३.२.७३) - उप उपपद रहते यज् धातु से वेद विषय में विच् प्रत्यय होता है। उपयड्भीरूचं वहन्ति । उपयजते इति उपयड् (उप + यज् + ण्विन् = उपयड्।) __ अनुवृत्ति - यहाँ से ‘छन्दसि’ की अनुवृत्ति ३.२.७४ तक जायेगी तथा विच्’ की ३.२.७५ तक जायेगी।
मनिन्, क्वनिप्, वनिप्, विच् प्रत्यय
आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च - (३.२.७४) – आकारान्त धातुओं से सुबन्त उपपद में रहते वेद विषय में मनिन्, क्वनिप्, वनिप्, विच् प्रत्यय होते हैं। शोभनं ददातीति - सुदामा (सु + दा + मनिन्) । शोभनं दधातीति - सुधामा। शोभनं दधाति इति सुधीवा (सु + धा + क्वनिप्) । शोभनं पातीति - सुपीवा। भूरि ददाति इति भूरिदावा (भूरि + दा + वनिप्) । घृतं पातीति - घृतपावा। कीलालं पिबति कीलालपाः (कीलाल + पा + विच्)। शुभं यातीति - शुभंयाः । अनुवृत्ति - यहाँ से ‘मनिन्क्वनिब्वनिपः’ की अनुवृत्ति ३.२.७५ तक जायेगी। अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते - (३.२.७५) - आकारान्त धातुओं से जो अन्य धातु, उनसे भी मनिन्, क्वनिम्, वनिप्, विच्, प्रत्यय देखे जाते हैं। विशेष - यद्यपि ‘धातोः’ का अधिकार होने से ये प्रत्यय धातुमात्र से होना चाहिये, किन्तु सूत्र में ‘दृश्यन्ते’ कहा है, अतः इन प्रत्ययों से बने हुए जो शब्द लोक में देखे जाते ४७४ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ हैं, उन्हीं से ये प्रत्यय होंगे। यथा - सुष्ठु शृणातीति सुशर्मा (सु + शृ + मनिन्) । प्रातः एतीति प्रातरित्वा (प्रातर् + इ + क्वनिप्) । विजायत इति विजावा (वि + जन् + वनिप्)। इसी प्रकार - प्रजावा, अग्रेगावा। रेडसि पर्णं नयेः। (रिष् + + विच्), आदि। क्विप्च - (३.२.७६) - सब सोपपद तथा निरुपपद धातुओं से क्विप् प्रत्यय होता है। उखायाः स्रंसते = उखास्रत्। (उखा + ङस् + स्रेस् + क्विप्)। पर्णध्वत् (पर्ण + ङस् + ध्वंस् + क्विप्)। अत्यावश्यक - यद्यपि ‘धातोः’ का सामान्य अधिकार होने से क्विप् प्रत्यय धातुमात्र से होना चाहिये, किन्तु जिन आकारान्त धातुओं को ‘घुमास्थागापाजहातिसां हलि ६.४.६६’ इस सूत्र से ईत्व प्राप्त है, उन आकारान्त धातुओं से क्विप् प्रत्यय नहीं होता है। ध्यै धातु से क्विप् प्रत्यय करके - ध्यायति इति धीः बनता है तथा प्यै धातु से क्विप् प्रत्यय करके प्यायते इति पीः बनता है, यहाँ ‘ध्याप्योः सम्प्रसारणं च’ वार्तिक से यकार को सम्प्रसारण होता है। __ अनुवृत्ति - यहाँ से ‘क्विप्’ की अनुवृत्ति ३.२.७७ तक जायेगी। स्थः क च - (३.२.७७) - सुबन्त उपपद में रहते सोपपद तथा निरुपपद स्था धातु से क तथा क्विप् प्रत्यय होते हैं।
- विशेष - जब सुपि स्थः से ही क प्रत्यय सिद्ध था और ‘अन्येभ्योऽभ्योऽपि दृश्यन्ते’ सूत्र से क्विप् प्रत्यय सिद्ध था, तब इस सूत्र की क्या आवश्यकता थी ? यह कि ‘शमि धातोः संज्ञायाम्’ सूत्र शम् उपपद में रहने पर धातुमात्र से संज्ञा अर्थ में अच् प्रत्यय कर रहा है। उस अच् को बाधकर यह स्था धातु से क और क्विप् कर रहा है। शंस्थः (शम् + स्था + क)। शंस्थाः (शम् + स्था + क्विप्)। __ जहाँ ‘घुमास्थागापाजहातिसां हलि ६.४.६६’ इस सूत्र से ईत्व प्राप्त है, उनसे यदि क्विप् प्रत्यय कहा भी जाये, तो उसे ‘क्विबिवाचरति इति क्विप्’ ऐसा आचारे क्विप् करके उस क्विप् प्रत्यय को विच् मान लेना चाहिये। यथा - ‘स्थः क च’ सूत्र आकारान्त स्था धातु से क्विप् प्रत्यय कह रहा है, अतः यहाँ उस क्विप् प्रत्यय को विच् मानकर स्था धातु से विच् ही होगा - शम् + स्था + विच् = शंस्थाः ।
णिनि प्रत्यय
सुप्यजातौ णिनिस्ताच्छील्ये - (३.२.७८) - अजातिवाची सुबन्त उपपद हो तो ताच्छील्य एसा स्वभाव उसका है’, यह अर्थ गम्यमान होने पर सब धातओं से णिनि प्रत्यय होता है। उष्णं भोक्तुं शीलमस्य उष्णभोजी (उष्ण + ङस् + भुज् + णिनि)। इसी अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (द्वितीय पाद) ४७५ प्रकार - शीतं भोक्तुं शीलमस्य शीतभोजी। प्रियं वक्तुं शीलमस्य प्रियवादी। धर्मम् उपदेष्टुं शीलमस्य धर्मोपदेशी। उत्प्रतिभ्यामाङि सर्तेरुपसंख्यानम् (वा.) - उत् तथा प्रति उपपद में होने पर आङ्पूर्वक सृ धातु से भी णिनि प्रत्यय होता है। उदासारिण्यः (उद् + आ + सृ + णिनि)। इसी प्रकार - प्रत्यासारिण्यः। साधुकारिणि च (वा.) - साधुपूर्वक कृ धातु से अताच्छील्यादि अर्थों में णिनि प्रत्यय होता है। साधु करोतीति साधुकारी (साधु + कृ+ णिनि)। इसी प्रकार - साधुदायी। ब्रह्मणि वदः (वा.) - ब्रह्मन् शब्द उपपद में होने पर भी वद धातु से णिनि प्रत्यय होता है। ब्रह्मवादिनो वदन्ति। (ब्रह्म + ङस् + वद् + णिनि)। अनुवृत्ति - यहाँ से णिनि’ की अनुवृत्ति ३.२.८६ तक जायेगी। कर्तर्युपमाने- (३.२.७९)- उपमानवाची कर्ता उपपद हो तो धातुमात्र से णिनि प्रत्यय होता है। उष्ट्र इव क्रोशति उष्ट्रकोशी / (उष्ट्र + सु + क्रुश् + णिनि)। इसी प्रकार - ध्वाङ्क्षरावी। व्रते - (३.२.८०) - व्रत गम्यमान हो तो सुबन्त उपपद रहते धातु से णिनि प्रत्यय होता है। स्थण्डिले शेते इति स्थण्डिलशायी (स्थण्डिल + डि + शी + णिनि)। बहुलमाभीक्ष्ण्ये - (३.२.८१) - आभीक्ष्ण्य अर्थात् पौनः पुन्य गम्यमान हो तो धातु से बहुल करके णिनि प्रत्यय होता है। कषायपायिणो गान्धाराः (कषाय + ङस् + पा + णिनि)। इसी प्रकार - क्षीरपायिण उशीनराः। मनः - (३.२.८२) - सुबन्त उपपद रहते मन् धातु से णिनि प्रत्यय होता है। दर्शनीयं मन्यते दर्शनीयमानी (दर्शनीय + ङस् + मन् + णिनि)। इसी प्रकार - शोभनमानी। सुरूपमानी। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘मनः’ की अनुवृत्ति ३.२.८३ तक जायेगी। आत्ममाने खश्च- (३.२.८३) - ‘अपने आप को मानना’ इस अर्थ में वर्तमान मन् धातु से खश् प्रत्यय होता है तथा चकार से णिनि प्रत्यय होता है। खश् प्रत्यय शित् है। अतः इसके लगने पर विकरण अवश्य होगा। खित् होने से अरुद्विषदजन्तस्य मुम् से अजन्त अङ्ग को मुम् का आगम भी होगा। आत्मानं पण्डितं मन्यते = पण्डितम्मन्यः (पण्डित + ङस् + मुम् + मन् + श्यन् + खश्)। दर्शनीयम्मन्यः । (दर्शनीय + डस् + मुम् + मन् + श्यन् + खश्)। णिनि प्रत्यय होने पर - पण्डितमानी। दर्शनीयमानी। ४७६ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ भूते - (३.२.८४) - यह अधिकार सूत्र है। यहाँ से आगे ३.२.१२३ तक भूते का अधिकार जाता है अर्थात् वहाँ तक जितने प्रत्यय विधान करेंगे वे सब कर्ता अर्थ में भूतकाल में होंगे। करणे यजः - (३.२.८५)- करण कारक उपपद होने पर यज् धातु से णिनि प्रत्यय भूतकाल में होता है। अग्निष्टोमेन इष्टवान् अग्निष्टोमयाजी। (अग्निष्टोम + टा + यज् + णिनि)। कर्मणि हनः - (३.२.८६)- कर्म उपपद रहते हन् धातु से णिनि प्रत्यय भूतकाल में होता है। पितृव्यं हतवान् पितृव्यघाती। (पितृ + ङस् + हन् + णिनि)। इसी प्रकार - मातुलं हतवान् मातुलघाती। अनुवृत्ति - यहाँ से कर्मणि’ की अनुवृत्ति ३.२.८८ तक जायेगी तथा हन’ की ३.२.९५ तक जायेगी।
क्विप् प्रत्यय
ब्रह्मभ्रूणवृत्रेषु क्विप् - (३.२.८७) - ब्रह्म, भ्रूण, वृत्र ये कर्म उपपद रहते हन् धातु से भूतकाल में क्विप् प्रत्यय होता है। ब्रह्माणं हतवान् ब्रह्महा (ब्रह्म + ङस् + हन् + क्विप्)। इसी प्रकार - वृत्रं हतवान् वृत्रहा। भ्रूणं हतवान् भ्रूणहा। जब ‘क्विप् च’ सूत्र से सभी धातुओं से क्विप् सिद्ध है, तब इस सूत्र से अलग क्विप् का विधान क्यों किया ? इसलिये कि इससे चार प्रकार के नियम सिद्ध होते हैं। धातु, काल, उपपद और विषय। ये क्रमशः इस प्रकार हैं। १. ब्रह्मादि उपपद में होने पर ही हन् धातु से क्विप् होता है, अन्य उपपद होने पर नहीं। अतः पुरुषं हतवान् में नहीं होगा। २. ब्रह्मादि उपपद में होने पर हन् धातु से - क्विप् होता है, अन्य धातुओं से नहीं। अतः ब्रह्म अधीतवान् में नहीं होगा। ३. ब्रह्मादि उपपद में होने पर हन् धातु से भूतकाल में ही क्विप् होता है, अन्य कालों में नहीं। अतः ब्रह्माणं हन्ति, हनिष्यति में वर्तमान और भूतकाल में क्विप नहीं होगा। ४. ब्रह्मादि उपपद में होने पर हन् धातु से भविष्यत्काल में क्विप् प्रत्यय ही होता है, अन्य प्रत्यय नहीं। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘क्विप्’ की अनुवृत्ति ३.२.९२ तक जायेगी। बहुलं छन्दसि - (३.२.८८) - वेद विषय में कर्म उपपद में रहते हन् धातु अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (द्वितीय पाद) ४७७ से बहुल करके क्विप् प्रत्यय होता है। क्विप् प्रत्यय होने पर - मातृहा सप्तमं नरकं प्रविशेत्, पितृहा। बहुल करके क्विप् प्रत्यय न होने पर अण् ही होगा - मातृघातः । पितृघातः। सुकर्मपापमन्त्रपुण्येषु कृञः - (३.२.८९) - सु, कर्म, पाप, मन्त्र, पुण्य ये कर्म उपपद में हों, तो कृञ् धातु से भूतकाल में क्विप् प्रत्यय होता है। के सुष्ठु कृतवान् सुकृत् (सु + कृ + क्विप्)। इसी प्रकार - कर्मकृत् । पापकृत् । मन्त्रकृत् । पुण्यकृत् । यहाँ उपपद के अलावा तीन नियम समझना चाहिये। अर्थात् इनसे भिन्न उपपद होने पर भी कृ धातु से भूतकाल में क्विप् होता है। अतः शास्त्रकृत्, मन्त्रकृत् आदि भी बनेंगे। शेष तीन नियम पूर्ववत् जानना चाहिये - १. सुकर्मादि उपपद में होने पर कृ धातु से ही क्विप् होता है, अन्य धातुओं से नहीं। अतः मन्त्रम् अधीतवान् में क्विप नहीं होगा। मन्त्रम् अधीतवान् मन्त्राध्यायः । २. सुकर्मादि उपपद में होने पर कृ धातु से भूतकाल में ही क्विप् होता है, अन्य कालों में नहीं। अतः मन्त्रं करोति, करिष्यति में वर्तमान और भविष्यत्काल में क्विप नहीं होगा। ३. सुकर्मादि उपपद में होने पर कृ धातु से भूतकाल में क्विप प्रत्यय ही होता है, अन्य प्रत्यय नहीं। सोमे सुञः - (३.२.९०) - सोम कर्म उपपद में रहते षुञ् धातु से भूतकाल में क्विप् प्रत्यय होता है। सोमं सुतवान् - सोमसुत्, सोमसुतौ । यहाँ भी पूर्ववत् चार प्रकार के नियम सिद्ध होते हैं। धातु, काल, उपपद और विषय। अग्नौ चेः - (३.२.९१) - अग्नि कर्म उपपद में रहते चिञ् धातु से भूतकाल में क्विप् प्रत्यय होता है। अग्नि चितवान् - अग्निचित्, अग्निचितौ। (अग्नि + चि + क्विप्)। अनुवृत्ति - यहाँ से चेः’ की अनुवृत्ति ३.२.९२ तक जायेगी। कर्मण्यग्न्याख्यायाम् - (३.२.९२) - कर्म उपपद में रहते, कर्म कारक में चिञ् धातु से भूतकाल में क्विप् प्रत्यय होता है। श्येन इव चीयते अग्निः श्येनचित्, कङ्कचित् ।
इनि प्रत्यय
कर्मणीनिर्विक्रियः - (३.२.९३) । कुत्सितग्रहणं कर्तव्यम् - (वा.) - कर्म उपपद में रहते वि पूर्वक क्रीम धातु ४७८ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ से भूतकाल में कुत्सा (निन्दा) अर्थ में इनि प्रत्यय होता है। सोमं विक्रीतवान् सोमविक्रयी। (सोम + वि + क्री + इनि)। इसी प्रकार - घृतं विक्रीतवान् घृतविक्रयी। रसविक्रयी, आदि। (धर्मशास्त्रानुसार रसविक्रय निन्दनीय है।) दृशेः क्वनिप् - (३.२.९४) - कर्म उपपद में रहते दृश् धातु से भूतकाल में क्वनिप् प्रत्यय होता है। परलोकं दृष्टवान् परलोकदृश्वा (परलोक + ङस् + दृश् + क्वनिप्)। इसी प्रकार - पाटलिपुत्रदृश्वा।। ‘अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते’ से क्वनिप् प्रत्यय सिद्ध था, पुनः क्वनिप् ग्रहण के कारण इससे अन्य मनिन्, वनिप्, अण् आदि प्रत्यय नहीं होंगे। ध्यान रहे कि यहाँ सोपपद धातु से नियम हो रहा है, अतः सोपपद धातुओं से विहित अण् आदि प्रत्यय यहाँ नहीं होंगे, किन्तु निरुपपद से विहित निष्ठा प्रत्यय तो होंगे ही। पारं दृष्टवान् । अनुवृत्ति - यहाँ से ‘क्वनिप्’ की अनुवृत्ति ३.२.९६ तक जायेगी। राजनि युधि कृञः - (३.२.९५) - राजन् कर्म उपपद में रहते अन्तर्भावित ण्यर्थ युध् धातु से तथा कृञ् धातु से भूतकाल में क्वनिप् प्रत्यय होता है। राजानं योधितवान् राजयुध्वा (राजन् + युध् + णिच् + क्वनिप्)। राजानं कृतवान् राजकृत्वा (राजन् + डस् + कृ + क्वनिप्)। यहाँ भी ‘अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते’ से क्वनिप् प्रत्यय सिद्ध था, पुनः क्वनिप् ग्रहण नियमार्थ है। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘युधि कृञः’ की अनुवृत्ति ३.२.९६ तक जायेगी। सहे च - (३.२.९६) - सह उपपद में रहते अन्तर्भावित ण्यर्थ युध् धातु से तथा कृञ् धातु से भूतकाल में क्वनिप् प्रत्यय होता है। सह योधितवान् सहयुध्वा, सहकृत्वा। यहाँ भी ‘अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते’ से क्वनिप् प्रत्यय सिद्ध था, पुनः क्वनिप् ग्रहण नियमार्थ है। ऐसा ही आगे भी विवेक करते चलना चाहिये।
ड प्रत्यय
_ सप्तम्यां जनेर्डः - (३.२.९७) - सप्तम्यन्त उपपद हो तो जन् धातु से ड प्रत्यय होता है। उपसरे जातः उपसरजः (उपसर + डि + जन् + ड)। मन्दुरायां जातः मन्दुरजः (मन्दुरा + डि + जन् + ड)। कटजः । वारिणि जातः वारिजः । सरसि जातं सरसिजम्। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘जनेर्डः’ की अनुवृत्ति ३.२.१०१ तक जायेगी। पञ्चम्यामजातौ- (३.२.९८)- अजातिवाची पञ्चम्यन्त उपपद हो तो भूतकाल ४७९ अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (द्वितीय पाद) में जन् धातु से ड प्रत्यय होता है। शोकात् जातः शोकजो रोगः (शोक + ङसि + जन् + ड)। संस्कारजः । दुःखजः । बुद्धः जातः बुद्धिजः । उपसर्गे च संज्ञायाम् - (३.२.९९) - उपसर्ग उपपद रहते भी संज्ञाविषय में जन् धातु से भूतकाल में ड प्रत्यय होता है। अथेमा मानवीः प्रजाः (प्र + जन् + ड)। वयं प्रजापतेः प्रजा अभूम। प्रजाता इति प्रजाः । __ अनौ कर्मणि - (३.२.१००) - कर्म उपपद रहते अनुपूर्वक जन् धातु से ड प्रत्यय होता है। पुमांसमनुजातः पुमनुजः (पुम् + अनु + जन् + ड)। अन्येष्वपि दृश्यते - (३.२.१०१) - सूत्र में अपि शब्द का तात्पर्य यह है कि पूर्वसूत्रों से जिन जिन स्थितियों के होने पर ड प्रत्यय कहा गया है, उन सबके अभाव में भी ड प्रत्यय हो जाता है। यथा - ‘पञ्चम्यामजातौ’ से अजाति अर्थ में ड कहा गया है, वह जाति अर्थ में भी हो जाता है। ब्राह्मणजो धर्मः (ब्राह्मण + डि + जन् + ड)। इसी प्रकार - क्षत्रियजं युद्धम् । ‘सप्तम्यां जनेर्डः’ सूत्र से जन् धातु से ड कहा गया है, वह अन्य धातुओं से भी हो जाता है। परितः खाता परिखा। (परि + खन् + ड)। सप्तमी न होने पर भी हो जाता है। ‘भूते’ से भूतकाल अर्थ में ड कहा गया है, वह भूतकाल न होने पर भी हो जाता है। यथा - न जायते इति अजः । द्विर्जातो द्विजः । ‘अनौ कर्मणि’ सत्र से कर्म उपपद रहते धात से ड कहा गया है. वह अन्य उपपदों के रहते भी हो जाता है। अनु जातः अनुजः । उपसर्गे च संज्ञायाम्’ सूत्र से संज्ञा अर्थ में ड कहा गया है, वह असंज्ञा अर्थ में भी हो जाता है। अभितो जाताः अभिजाः केशाः । परितो जाताः परिजाः केशाः, आदि।
निष्ठा अर्थात् क्त, क्तवत प्रत्यय
निष्ठा - (३.२.१०२) - धातुमात्र से भूतकाल में निष्ठासंज्ञक प्रत्यय होते हैं। अभेदि इति भिन्नः (तोड़ा गया) (भिद् + क्त) । अभैत्सीत् इति भिन्नवान् (टूटा) (भिद् + क्तवतु)। अकृत इति कृतः, अकार्षीत् इति कृतवान् । इसी प्रकार - भुक्तः, भुक्तवान्। __ सामान्यतः क्त का अर्थ है किया गया’ और क्तवतु का अर्थ है ‘किया’ । अतः अर्थ को देखिये और कर्म अर्थ होने पर लुङ् लकार कर्मवाच्य से इसे बतलाइये । कर्ता अर्थ होने पर लुङ् लकार कर्तृवाच्य से इसे बतलाइये। ४८० अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ यह जो ‘निष्ठा’ (३.२.१०२) सूत्र है, वह भूतकालिक क्रिया को बतलाने के लिये धातुमात्र से निष्ठा का विधान करता है, क्योंकि वह ‘भूते’ सूत्र के अधिकार में आता है। अतः जब सारी क्रिया भूत हो जाये, तभी उससे निष्ठा का विधान होता है। किन्तु यदि क्रिया प्रारम्भ हो गई है, और पूरी नहीं हुई है, अर्थात् उस क्रिया के केवल आदिक्षण भूत हो गये हैं, तब ऐसी स्थिति में सारी क्रिया को भूत नहीं कहा जा सकता, क्योंकि क्रिया एकफलोद्देशसमूहरूपा होती है। अतः क्रिया के सम्पूर्ण समूह के व्यवपृक्त होने पर ही उसमें भूतत्व का व्यवहार संभव है। अतः ऐसी क्रिया, जो अभी चल रही है, उस क्रिया को कहने के लिये भी निष्ठा प्रत्यय हों, इसके लिये वार्तिक है - आदिकर्मणि निष्ठा वक्तव्या (वार्तिक - ३.२.१०२) - धातुओं से आदिकर्म अर्थ में निष्ठा प्रत्यय होते हैं। आदिकर्म का अर्थ होता है - ‘काम करना आरम्भ कर दिया है और काम अभी पूरा नहीं हुआ है। आदिकर्म के उदाहरणों को ‘प्र’ उपसर्ग के साथ बतलाइये सूत्र में कर्म का अर्थ क्रिया ही है। आदिकर्म अर्थ में क्त प्रत्यय होने पर वाक्य इस प्रकार बनते हैं - देवदत्तः कटं प्रकृतः = देवदत्त ने चटाई बनाना आरम्भ कर दिया है। देवदत्तः ओदनं प्रभुक्तः = देवदत्त ने भात खाना प्रारम्भ कर दिया है। इसका वर्तमान से भेद यह है कि वर्तमानकाल में केवल क्रिया के चलते रहने का बोध होता है। उसमें भूतत्व का लेश भी नहीं होता किन्तु आदिकर्म में क्रिया के कुछ क्षण भूत हो चुके होते है। कुछ चल रहे हैं और यह भी बोध होता है कि क्रिया आगे भी चलेगी।
ङ्वनिप् प्रत्यय
सुयजोर्ध्वनिप् - (३.२.१०३) - षुञ् तथा यज् धातु से भूतकाल में ड्वनिप् प्रत्यय होता है। सुतवान् इति सुत्वा (सु + वनिप्)। इष्टवान् इति यज्वा (यज् + वनिप्)।
अतृन् प्रत्यय
जीर्यतेरतृन् - (३.२.१०४) - जृष् वयोहानौ धातु से भूतकाल में अतृन् प्रत्यय होता है। जीर्णवान् इति जरन्, जरन्तौ। (जृ + अतृन्)। अत्यावश्यक - जिन अर्थों में लकार प्रत्यय होते हैं, उन्हीं अर्थों में कृत् प्रत्यय अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (द्वितीय पाद) ४८१ भी हो जाते हैं। अतः अर्थ को दो बार न कहना पड़े, इस लाघव के लिये अष्टाध्यायी के तृतीय अध्याय में कृत् प्रत्यय तथा लकार प्रत्यय एक साथ कह दिये गये हैं। लकार प्रत्ययों की सिद्धि अष्टाध्यायी सहजबोध के प्रथम और द्वितीय खण्डों में की जा चुकी है। अतः हम लकार प्रत्यय विधायक सूत्रों को छोड़ते हुए केवल कृत् प्रत्यय विधायक सूत्रों को कहेंगे।
कानच् प्रत्यय
लिटः कानज्वा- (३.२.१०६) - वेदविषय में भूतकाल में विहित जो लिट् उसके स्थान में कानच् आदेश विकल्प से होता है। अग्निं चिक्यानः । सुषुवे इति सुषुवाणः (सु + कानच्) । न च भवति - अहं सूर्यमुभयतो ददर्श। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘लिट्, वा ’ की अनुवृत्ति ३.२.१०९ तक जायेगी।
क्वसु प्रत्यय
क्वसुश्च - (३.२.१०७) - वेदविषय में लिट् के स्थान में क्वसु आदेश भी विकल्प से होता है। जघास इति जक्षिवान् (अद् + क्वसु)। पपौ इति पपिवान् (पा + क्वसु)। पक्षे न च भवति - अहं सूर्यमुभयतो ददर्श। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘क्वसु’ की अनुवृत्ति ३.२.१०८ तक जायेगी। . भाषायां सदवसभुवः - (३.२.१०८) - लौकिक प्रयोग विषय में सद, वस, श्रु इन धातुओं से परे भूतकाल में विकल्प से लिट् प्रत्यय होता है और लिट् के स्थान में विकल्प से क्वसु आदेश भी होता है । सेदिवान् (सद् + क्वसु)। ऊषिवान् (वस् + क्वसु)। शुश्रुवान् (श्रु + क्वसु)। उपेयिवाननाश्वाननूचानश्च - (३.२.१०९) - उपेयिवान्, अनाश्वानः अनूचान ये शब्द भी क्वसुप्रत्ययान्त निपातन किये जाते हैं। ३.२.११० से ३.२.१२३ तक के सूत्रों में लकार प्रत्यय हैं, जिनका कृदन्त से प्रयोजन न होने से उन्हें छोड़कर आगे के सूत्र दे रहे हैं -
शतृ, शानच् प्रत्यय
‘वर्तमाने लट् ३.२.१२३’ सूत्र से वर्तमाने पद की अनुवृत्ति ३.३.१ तक चलती है। अतः यहाँ से लेकर उणादयो बहुलम् ३.३.१ तक के सूत्रों से होने वाले प्रत्यय वर्तमानकाल अर्थ में होते हैं, यह जानना चाहिये। अतः शत, शानच् प्रत्यय का अर्थ भी वर्तमान है। ४८२ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ लटः शतृशानचावप्रथमासमानाधिकरणे - (३.२.१२४) - धातु से लट् के स्थान में शतृ तथा शानच् आदेश होते हैं यदि अप्रथमान्त के साथ उस लट् का सामानाधिकरण्य हो तो। पचन्तं देवदत्तं पश्य । (पच् + शतृ) पचमानं देवदत्तं पश्य (पच् + शानच्)। लट् के स्थान पर होने के कारण ये आदेश हैं, प्रत्यय नहीं। माझ्याक्रोशे इति वाच्यम् (वा.)- आक्रोश गम्यमान होने पर माङ् के उपपद रहने पर धातुविहित लट् के स्थान पर शतृ तथा शानच् आदेश होते हैं। मा पचन्। मा पचमानः। मा जीवन् यः परावज्ञादुःखदग्धोऽपि जीवति। अनुवृत्ति - इस सूत्र में इसके पूर्व सूत्र वर्तमाने लट् ३.२.१२३’ से ‘वर्तमाने की अनुवृत्ति आ रही है जो कि ३.३.१ तक जायेगी तथा इस सूत्र से लटः शतृशानचौं’ की अनुवृत्ति ३.२.१२६ तक जायेगी। सम्बोधने च - (३.२.१२५) - सम्बोधन विषय में भी धातु से लट् के स्थान में शतृ, शानच् आदेश होते हैं। हे पचन् ! हे पचमान ! लक्षणहेत्वोः क्रियायाः - (३.२.१२६) - क्रिया के लक्षण तथा हेतु अर्थों में वर्तमान धातु से लट् के स्थान में शतृ शानच् आदेश होते हैं। शयानो भुङ्क्ते बालः । तिष्ठन् मूत्रयति पाश्चात्यः। तौ सत् - (३.२.१२७) - वे शतृ तथा शानच् प्रत्यय सत् संज्ञक होते हैं। ब्राह्मणस्य कुर्वन् । ब्राह्मणस्य कुर्वाणः । पीछे के सूत्र में लट् के रहते हुए भी यहाँ जो दुबारा लट् कहा, इससे अप्रथमा समानाधिकरण में भी शतृ शानच् प्रत्यय होते हैं।
शानन् प्रत्यय
पूङ्यजोः शानन् - (३.२.१२८) - पूङ तथा यज् धातुओं से वर्तमान काल में शानन् प्रत्यय होता है। यहाँ दो बातें ध्यातव्य हैं - १. शानच् और शानन् में अन्तर यह है कि शानन् प्रत्यय लट् लकार के स्थान पर होने वाला आदेश नहीं है। यह ण्वुल, तृच् आदि के समान स्वतन्त्र प्रत्यय है। अतः इसका धातु के पद से कोई प्रयोजन नहीं है। पू+ शानन् - पवमानः । यज् + शानन्
- यजमानः। अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (द्वितीय पाद) ४८३ २. दूसरी बात यह कि शानच् प्रत्यय चित् है। शानन् प्रत्यय नित् है। चितः (६.१.१६३) - चित् प्रत्यय से बने हुए शब्द अन्तोदात्त होते हैं। अतः शानजन्त शब्द अन्तोदात्त होंगे। नित्यादिनित्यम् (६.१.१९७) - जित् और नित् प्रत्यय परे रहते आदि कों उदात्त होता है। अतः शानन्नन्त शब्द आधुदात्त होंगे। (न लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतनाम् - लादेश कृत् प्रत्यय, उ, उक प्रत्यय, निष्ठा प्रत्यय, खलर्थ कृत् प्रत्यय, और तृन् प्रत्याहार में आने वाले प्रत्ययों के योग में अनुक्त कर्म में षष्ठी न होकर द्वितीया ही होती है। ध्यान दें कि लटः शतृशानचा. (३.२.१२४) सूत्र के ‘तृ’ से लेकर तृन् (३.२.१३५) सूत्र के नकार को मिलाकर तृन्’ प्रत्याहार बनता है। इसमें शतृ, शानच्, शानन्, चानश्, तृन् प्रत्यय आते हैं। इन प्रत्ययों से बने हुए शब्दों के कर्म में द्वितीया ही होगी, षष्ठी नहीं। सोमं पवमानः । नडं आघ्नानः।)
चानश् प्रत्यय
ताच्छील्यवयोवचनशक्तिषु चानश् - (३.२.१२९) - ताच्छील्य, वयोवचन, शक्ति इन अर्थों में द्योतित होने पर धातु से वर्तमान काल में चानश् प्रत्यय होता है। तच्छील का अर्थ है - सः धात्वर्थः शीलं यस्य सः तच्छीलः। तस्य भावः ताच्छील्यम्। (धातु का जो अर्थ है, वह करने का स्वभाव ।) __ ध्यान देना चाहिये कि तङ् और आन की आत्मनेपद संज्ञा करने वाले सूत्र ‘तङानावात्मनेपदम् १.४.१००’ में ‘लः परस्मैपदम् १.४.९९’ सूत्र से ‘लः’ की अनुवृत्ति आती है। अतः लादेश जो ‘आन’ हैं, उनकी ही आत्मनेपद संज्ञा होती है। शानच् प्रत्यय लट् के स्थान पर होने वाला लादेश है और कानच् प्रत्यय लिट् के स्थान पर होने वाला लादेश है। अतः इनकी आत्मनेपद संज्ञा होती है। __ किन्तु चानश् प्रत्यय किसी लकार के स्थान पर होने वाला आदेश नहीं है, अतः इसकी आत्मनेपद संज्ञा नहीं होती है। यह ण्वुल्, तृच् आदि के समान स्वतन्त्र प्रत्यय है। इसका धातु के पद से कोई प्रयोजन नहीं है। यह परस्मैपदी धातुओं से भी हो सकता है और आत्मनेपदी धातुओं से भी हो सकता है। ताच्छील्य अर्थ में चानश् प्रत्यय - भोगं भुजानः (भोग भोगना जिसका स्वभाव है।) कतीह मुण्डयमानाः (कितने यहाँ मुण्डन किये हुए हैं)। कतीह भूषयमाणाः (कितने यहाँ सजे हुए हैं)। शिवाग्नौ जुह्वानाः (सौन्दर्यलहरी।) ४८४ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ वयोवचन अर्थ में चानश् प्रत्यय - कवचं बिभ्राणः (कवच धारण करने योग्य जिसकी वय हो गई है।) कवच धारण करने से शरीर की अवस्था यौवन का पता चलता है. क्योंकि बच्चे तथा बढे कवच धारण नहीं कर सकते हैं)। कतीह कवचं पर्यस्यमानाः (कितने यहाँ कवच धारण कर सकते हैं ?)। कतीह शिखण्डं वहमानाः (कितने ही यहाँ शिखा धारण करने वाले हैं)। __शक्ति अर्थ में चानश् प्रत्यय - शत्रून् निघ्नानः (शत्रु को मारने की शक्ति वाला)। कतीह निघ्नानाः (कितने ही यहाँ मार सकने वाले हैं)। कतीह पचमानाः (कितने ही यहाँ पका सकने वाले हैं)। यदि अनादेश होने के बाद भी चानश् प्रत्यय की आत्मनेपद संज्ञा होती, तो वह हु, हन् आदि परस्मैपदी धातुओं से न होता। इधार्योः शत्रकृच्छ्रिणि - (३.२.१३०) - इङ् तथा ण्यन्त धारि धातु से वर्तमान- काल में शतृ प्रत्यय होता है, यदि जिसके लिये क्रिया कष्टसाध्य न हो ऐसा कर्ता वाच्य हो तो। अकृच्छ्रेण अधीते परायणम् - अधीयन् परायणम् (अधि + इ + शत)। इसी प्रकार - धारयन् उपनिषदम् (धृ + णिच् + शतृ)। ध्यान दें कि इङ् धातु आत्मनेपदी है तथा णिजन्त होने से धारि उभयपदी है। उनसे शतृ ही हो, इसलिये यह अलग सूत्र बनाया है। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘इङ्’ की अनुवृत्ति ३.२.१३३ तक जायेगी। द्विषोऽमित्रे - (३.२.१३१) - द्विष् धातु से अमित्र शत्रु कर्ता वाच्य हो तो शतृ प्रत्यय वर्तमानकाल में होता है। द्विषन्, द्विषन्तौ। (द्विषः शतुर्वा वचनम् - वा. - द्विषोऽमित्रे सूत्र से होने वाले लादेश शतृ प्रत्यय, के योग में कर्म में विकल्प से षष्ठी और द्वितीया होती हैं। चोरस्य द्विषन्, चोरं द्विषन् । पतिं द्विषन्ती, पत्युः द्विषन्ती।) सुञो यज्ञसंयोगेः - (३.२.१३२) - यज्ञ से संयुक्त अभिषव में वर्तमान षुञ् धातु से वर्तमान काल में शतृ प्रत्यय होता है। यजमानाः सुन्वन्तः । अर्हः प्रशंसायाम् - (३.२.१३३) - अर्ह धातु से प्रशंसा गम्यमान हो तो वर्तमानकाल में शतृ प्रत्यय होता है। अर्हन् इह भवान् विद्याम् । अर्हन् इह भवान् पूजाम् । . अर्थविशेष में तथा प्रथमासामानाधिकरण्य अर्थ में शतृ हो, इसलिये ये तीनों सूत्र बनाये हैं। आ क्वेस्तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिषु - (३.२.१३४) - ‘भ्राजभास-’ इस सूत्र अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (द्वितीय पाद) ४८५ से विहित क्विप् पर्यन्त जितने प्रत्यय कहे हैं, वे सब तच्छीलादि कर्ता अर्थ में जानने चाहिये। अधिकार - यह अधिकारसूत्र है। यहाँ से लेकर ‘अन्येभ्योऽपि दृश्यते’ ३.२. १७८ सूत्र तक तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिषु का अधिकार जायेगा। तच्छील - सः धात्वर्थः शीलं यस्य सः तच्छीलः । (धातु का जो अर्थ है, वह करना स्वभाव है जिसका।) तद्धर्म - स एव धर्मो यस्य सः तद्धर्मा । (धातु का जो अर्थ है, वह करना धर्म है जिसका।) तत्साधुकारी - साधु करोति इति साधुकारी। तस्य धात्वर्थस्य साधुकारी। (धातु का जो अर्थ है, वह करने में जो साधु है।)
तृन् प्रत्यय
तन् - (३.२.१३५) - तच्छीलादि कर्ता हो, तो वर्तमान काल में धातुमात्र से तृन् प्रत्यय होता है। (‘न लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतनाम्’ सूत्र (पृष्ठ ४८१) से लादेश कृत् प्रत्ययों के योग में अनुक्त कर्म में षष्ठी न होकर द्वितीया कही गई है। अतः तृन् प्रत्ययान्तों के अनुक्त कर्म में द्वितीया ही होगी।) तच्छील अर्थ में - कटान् कर्तुं शीलम् अस्य इति कर्ता कटान् (कृ + तृन्)। जनापवादान् वदितुम् शीलम् अस्य इति वदिता जनापवादान् (वद् + इट् + तृन्)। इसी प्रकार - मृदु वक्ता। धर्मम् उपदेष्टा। तद्धर्म अर्थ में - मुण्डयितारः श्राविष्ठायना भवन्ति वधूमूढाम् । श्राविष्ठायन गोत्र के लोग नवोढा वधू का मुण्डन करने वाले होते हैं। यह उनका कुलधर्म है। (मुण्ड् + णिच् + इट् + तृन्)। अन्नमपहर्तारः आह्वरका भवन्ति श्राद्धे सिद्धे। (अप + हृ + तृन्)। उन्नेतारः तौल्वलायना भवन्ति पुत्रे जाते। (उत् + नी + तृन्)। तत्साधुकारी अर्थ में - कटं साधु करोति इति कर्ता कटम्। (कृ + तृन्)। आवश्यक - ध्यान दें कि तच्छीलादि कर्ता हो, तो वर्तमान काल में धातुमात्र से तृन् प्रत्यय का विधान है। अतः आगे तच्छीलादि कर्ता होने पर, वर्तमान काल में जो प्रत्यय कहे जा रहे हैं, वे इस तृन् के अपवाद हैं, यह जानना चाहिये। तृन्विधावृत्विक्षु चानुपसर्गस्य (वा.) - ऋत्विगर्थ में अनुपसर्गक धातु से तृन् ४८६ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ है प्रत्यय होता है। हु + तृन् = होता। इसी प्रकार - पोता। नयतेः षुक् च (वा.) - नी धातु से तृन् प्रत्यय होता है तथा उसे षुक् का आगम भी होता है। नी + तृन् / ने + षुक् + तृन् = नेष्टा। त्विषेर्देवतानामकारश्चोपधाया अनिट्त्वं च (वा.) - त्विष् धातु के देवता के अभिधेय होने पर तृन् प्रत्यय होता है, उपधा को अकारादेश होता है तथा प्रत्यय को इडागम नहीं होता। त्विष् + तृन् / उपधा को अकार होकर - त्वष्ट्र = त्वष्टा। क्षदेश्च नियुक्ते (वा.) - क्षद् धातु से अधिकृत अर्थ में तृन् प्रत्यय होता है। क्षत्ता। छन्दसि तृच्च (वा.) - क्षद् धातु से अधिकृत अर्थ में तृन् प्रत्यय भी होता है। क्षत्तृभ्यः संग्रहीतृभ्यः। __ आवश्यक - यहाँ यह ध्यातव्य है कि शानन् और शानच तो लादेश नहीं हैं। अतः इनके प्रयोग में षष्ठी हो जाना चाहिये। यह क्यों नहीं होती ? इसका उत्तर यह है कि ‘न लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतनाम्’ सूत्र में तृन् के प्रयोग में भी षष्ठी का निषेध किया गया है। यह तृन् प्रत्यय न होकर प्रत्याहार है जो कि ‘लटः शतृशानचौ-’ सूत्र के तृ से प्रारम्भ होकर तृन्’ सूत्र के न् को मिलाकर बनता है। शानन् और चानश् प्रत्यय भी इसी प्रत्याहार के भीतर आते हैं। अतः इनके योग में षष्ठी न होकर द्वितीया होती है।
इष्णुच् प्रत्यय
अलंकृज्जिराकृअजनोत्पचोत्पतोन्मदरुच्यपत्रपवृतुवृधुसहचर इष्णुच् - (३.२.१३६) - अलंपूर्वक कृञ्, निर् आङ् पूर्वक कृञ्, प्र पूर्वक जन्, उत् पूर्वक पच्, उत् पूर्वक मद्, रुच्, अप पूर्वक त्रप्, वृतु, वृधु, सह, चर् इन धातुओं से वर्तमान काल में तच्छीलादि कर्ता हो तो इष्णुच् प्रत्यय होता है। अलंकरिष्णुः (अलं + कृ + इष्णुच्) । __ इसी प्रकार - निराकरिष्णुः, प्रजनिष्णुः, उत्पचिष्णुः, उत्पतिष्णुः, उन्मदिष्णुः, रोचिष्णुः, अपत्रपिष्णुः, वर्तिष्णुः, वर्धिष्णुः, सहिष्णुः, चरिष्णुः।
- अलंकृञो मण्डनार्थाधुचः पूर्वविप्रतिषेधेनेष्णुज्वक्तव्यः (वा.) - मण्डनार्थक अलं + कृञ् धातु से युच् के स्थान पर पूर्वविप्रतिषेध से इष्णुच् प्रत्यय होता है। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘इष्णुच्’ की अनुवृत्ति ३.२.१३८ तक जायेगी। णेश्छन्दसि - (३.२.१३७) - ण्यन्त धातुओं से वेदविषय में तच्छीलादि कर्ता अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (द्वितीय पाद) ४८७ हो तो वर्तमानकाल में इष्णुच् प्रत्यय होता है । दृषदं धारयिष्णवः (धृ + णिच् + इष्णुच्)। इसी प्रकार - वीरुधः पारयिष्णवः । अनुवृत्ति - यहाँ से ‘छन्दसि’ की अनुवृत्ति ३.२.१३८ तक जायेगी। भुवश्च - (३.२.१३८) - भू धातु से वेदविषय में तच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमानकाल में इष्णुच् प्रत्यय होता है। भविष्णुः। (भू + इट् + इष्णुच्) अनुवृत्ति - यहाँ से ‘भुवः’ की अनुवृत्ति ३.२.१३९ तक जायेगी।
ग्स्नु प्रत्यय
ग्लाजिस्थश्च ग्स्नुः - (३.२.१३९) - ग्ला, जि, स्थ तथा चकार से भू धातु से तच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमानकाल में ग्स्नु प्रत्यय होता है । ग्लास्नुः (ग्लै +ास्नु)। इसी प्रकार - जिष्णुः । स्थास्नु। भूष्णुः । दंशेश्छन्दस्युपसंख्यानम् (वा.) - दंश् धातु से वेद में ग्स्नु प्रत्यय होता है। दक्ष्णवः पशवः । (दंश् + ग्स्नु)
क्नु प्रत्यय
त्रसिगृधिधृषिक्षिपेः क्नु - (३.२.१४०) - त्रसि, गृधि, धृषि तथा क्षिप धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमानकाल में क्नु प्रत्यय होता है । त्रस्नुः (त्रस् + नु)। गृध्नुः । धृष्णुः । क्षिप्नुः।
घिनुण् प्रत्यय
शमित्यष्टाभ्यो घिनुण् - (३.२.१४१) - शमादि आठ धातुओं से घिनुण् प्रत्यय तच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमानकाल में होता है। शमी (शम् +घिनुण्)। इसी प्रकार - तमी। दमी। श्रमी। भ्रमी। क्षमी। क्लमी। प्रमादी, उन्मादी। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘घिनुण्’ की अनुवृत्ति ३.२.१४५ तक जायेगी। संपृचानुरुध्याङ्यमाङ्यसपरिसृसंसृजपरिदेविसंज्वरपरिक्षिपपरिरट परिवदपरिदहपरिमुहदुषद्विषद्रुहदुहयुजाक्रीडविविचत्यजरजभजातिचरापचरा - मुषाभ्याहनश्च - (३.२.१४२) - इन धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमानकाल में घिनुण् प्रत्यय होता है। सम्पर्की (सम् + पृच् + घिनुण) । अनुरोधी (अनु + रुध् + घिनुण्) । इसी प्रकार - आयामी । आयासी । परिसारी। संसर्गी । परिदेवी । संज्वारी । परिक्षेपी। परिराटी। परिवादी। परिदाही। परिमोही। दोषी। द्वेषी। द्रोही। दोही। योगी। आक्रीडी। विवेकी। ४८८ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ त्यागी। रागी। भागी। अतिचारी। अपचारी। आमोषी। अभ्याघाती। वौ कषलसकत्थस्रम्भः - (३.२.१४३) - वि पूर्वक कष्, लस्, कत्थ्, स्रम्भ इन धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हो, तो वर्तमानकाल में घिनुण प्रत्यय होता है। विकाषी। विलासी। विकत्थी। विस्रम्भी। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘वौ’ की अनुवृत्ति ३.२.१४४ तक जायेगी। अपे च लषः - (३.२.१४४)- अप पूर्वक तथा वि पूर्वक लष् धातु से भी घिनुण् प्रत्यय होता है। अपलाषी (अप + लष् + घिनुण) इसी प्रकार - विलाषी। प्रे लपसूद्रुमथवदवसः - (३.२.१४५)- प्र पूर्वक लप्, सू, द्रु, मथ, वद, वस इन धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमानकाल में घिनुण् प्रत्यय होता है। प्रलापी (प्र + लप् + घिनुण्) । प्रसारी (प्र + सृ + घिनुण्) । प्रद्रावी (प्र + द्रु + घिनुण्)। प्रमाथी (प्र + मथ् + घिनुण्)। इसी प्रकार - प्रवादी। प्रवासी।
वुञ् प्रत्यय
निन्दहिंसक्लिशखादविनाशपरिक्षिपपरिरटपरिवादिभ्याभाषासूञो वुञ् - (३.२.१४६)- निन्द, हिंस् इत्यादि धातुओं से ताच्छीलादि कर्ता हो, तो वर्तमान काल में वुञ् प्रत्यय होता है। निन्दकः (निन्द् + वुञ् - निन्द् + अक) । इसी प्रकार - हिंसकः । क्लेशकः। खादकः । विनाशकः। परिक्षेपकः। परिराटकः। परिवादकः । व्याभाषकः । असूयकः। विशेष - शङ्का होती है कि जो रूप वुञ् प्रत्यय से बन रहे हैं, वे तो ण्वुल् प्रत्यय से भी बन सकते थे। फिर वुञ् क्यों कहा । यह इस बात का ज्ञापक है कि तच्छीलिकेषु वासरूपविधिर्नास्ति ।’ ताच्छीलिक प्रत्ययों में प्रायः वाऽसरूपन्याय नहीं लगता है। अतः तच्छील अर्थ में होने वाले असरूप तृन् प्रत्यय को बाधकर वुञ् प्रत्यय होता है। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘वुञ्’ की अनुवृत्ति ३.२.१४८ तक जायेगी। देविक्रुशोश्चोपसर्गे - (३.२.१४७) - सोपसर्ग दिव् तथा क्रुश् धातुओं से भी ताच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में वुञ् प्रत्यय होता है। आदेवकः (आ + दिव् + वुञ्)। इसी प्रकार - परिदेवकः । आक्रोशकः । परिक्रोशकः ।
युच् प्रत्यय
चलनशब्दार्थादकर्मकाधुच् - (३.२.१४८) - अकर्मक, चलनार्थक और शब्दार्थक धातुओं से वर्तमान काल में युच् प्रत्यय होता है, ताच्छीलादि कर्ता हो तो। चलनः अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (द्वितीय पाद) ४८९ (चल् + युच्)। इसी प्रकार - चोपनः । शब्दनः । रवणः । अनुवृत्ति - यहाँ से ‘अकर्मकात्’ की अनुवृत्ति ३.२.१४९ तक तथा ‘युच्’ की अनुवृत्ति ३.२.१५३ तक जायेगी। अनुदात्तेश्च हलादेः - (३.२.१४९) - अनुदात्तेत् जो हल् आदिवाले अकर्मक धातु, उनसे भी तच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में युच् प्रत्यय होता है। वर्तनः (वृत् + युच्) । वर्द्धनः । स्पर्धनः। जुचक्रम्यदन्द्रभ्यसृगृधिज्वलशुचलषपतपदः - (३.२.१५०) - जु यह सौत्र धातु है। चक्रम्य, दन्द्रम्य ये यङन्त धातुयें हैं। जु, चक्रम्य, दन्द्रम्य, सृ, गृधु, ज्वल, शुच, लष, पत, पद इन धातुओं से ताच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में युच् प्रत्यय होता है । जवनः (जु + युच्) । इसी प्रकार - चक्रमणः । दन्द्रमणः । सरणः । गर्द्धनः । ज्वलनः । शोचनः । लषणः । पतनः । पदनः। विशेष - इन धातुओं से युच् प्रत्यय पूर्व सूत्र से ही सिद्ध था, किन्तु दोबारा इसलिये कहा कि लषपतपद-’ ३.२.१५४ सूत्र से प्राप्त होने वाला उकञ् भी इनसे न हो। क्रुधमण्डार्थेभ्यश्च - (३.२.१५१) - क्रुधार्थक तथा मण्डार्थक धातुओं से भी ताच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में युच् प्रत्यय होता है । क्रोधनः । मण्डनः । रोषणः । भूषणः । न यः - (३.२.१५२) - यकारान्त धातुओं से ताच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में युच् प्रत्यय नहीं होता है। क्नूयिता। क्ष्मायिता। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘न’ की अनुवृत्ति ३.२.१५३ तक जायेगी। सूददीपदीक्षश्च - (३.२.१५३) - षूद, दीपी, दीक्ष् इन धातुओं से भी ताच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में युच् प्रत्यय नहीं होता है। अतः तृन् होता है। सूदिता। दीपिता। दीक्षता। विशेष - १. दीप् धातु से युच् प्रत्यय का निषेध तो आगे आने वाले ‘नमिकम्पि ३.२.१४७ सूत्र से ही सिद्ध था, किन्तु दोबारा निषेध इसलिये किया कि तच्छीलिकेषु वासरूपविधिर्नास्ति ।’ यह निषेध प्रायिक है। अतः कमना, कम्रा युवतिः, बन सकते हैं। २. सूद धातु से युच् का निषेध है अतः मधुसूदनः शब्द नन्द्यादि गण से ल्यु प्रत्यय करके बनाना चाहिये।
उकञ् प्रत्यय
लषपतपदस्थाभूवृषहनकमगमशृभ्य उकञ् - (३.२.१५४) - लष्, पत्, पद्, ४९० अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ स्था, भू, वृष्, हन्, कम्, गम्, शृ धातुओं से ताच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में उकञ् प्रत्यय होता है। __ अपलाषुकं वृषलसङ्गतम् (अप + लष् + उकञ्) । इसी प्रकार - प्रपातुका गर्भा भवन्ति। उपपादुकं सत्त्वम्। उपस्थायुका एनं पशवो भवन्ति। प्रभावुकमन्नं भवति । प्रवर्षकाः पर्जन्याः । आघातुकः । कामुकः । आगामुकं वाराणसीं रक्ष आहुः। किंशारुकं तीक्ष्णमाहुः।
षाकन् प्रत्यय
जल्पभिक्षकुट्टलुण्टवृङः षाकन् - (३.२.१५५) - जल्पादि धातुओं से ताच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में षाकन् प्रत्यय होता है। जल्पाकः (जल्प् + षाकन्)। इसी प्रकार - भिक्षाकः । कुट्टाकः । लुण्टाकः । वराकः ।
इनि प्रत्यय
प्रजोरिनिः - (३.२.१५६)- प्र पूर्वक जु धातु से ताच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में इनि प्रत्यय होता है। प्रजवी (प्र + जु + इनि) प्रजविनौ आदि। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘इनि’ की अनुवृत्ति ३.२.१५७ तक जायेगी। जिदृक्षिविश्रीण्वमाव्यथाभ्यमपरिभूप्रसूभ्यश्च - (३.२.१५७) - जि, दृ, क्षि आदि धातुओं से ताच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में इनि प्रत्यय होता है। जयी (जि + इनि)। इसी प्रकार - दरी, क्षयी, विश्रयी, अत्ययी, वमी, अव्यथी, अभ्यमी, परिभवी, प्रसवी।
आलुच् प्रत्यय
स्पृहिगृहिपतिदयिनिद्रातन्द्राश्रद्धाभ्य आलुच्- (३.२.१५८)- स्पृह, गृह, पत, दय, नि + द्रा, तत् + द्रा, श्रद् + धा, इन धातुओं से ताच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में आलुच् प्रत्यय होता है। स्पृहयालुः (स्पृह् + णिच् + आलुच्) । इसी प्रकार - गृहयालुः, पतयालुः । ये तीनों धातु चुरादिगण के अदन्त धातु हैं। . दयालुः (दय् + आलुच्) । निद्रालुः (नि + द्रा + आलुच्) । तन्द्रालुः (तत् + द्रा + आलुच्) । तद् के द् को निपातन से नत्व हुआ है। श्रद्धालुः (श्रद् + धा + आलुच्)। आलुचि शीडो ग्रहणम् कर्तव्यम् (वा.) - शीड् धातु से भी आलुच् प्रत्यय होता है। शयालुः (शी + आलुच्)। अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (द्वितीय पाद) ४९१
रु प्रत्यय
दाधेसिशदसदो रुः - (३.२.१५९) - दा, धेट, सि, शद्, सद् इन धातुओं से ताच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में रु प्रत्यय होता है। दारुः । धारुः । सेरुः । शद्रुः । सद्रुः।
क्मरच् प्रत्यय
सृघस्यदः क्मरच् - (३.२.१६०) - सृ, घसि, अद् इन धातुओं से ताच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में क्मरच् प्रत्यय होता है। सृमरः, घस्मरः, अमरः। __भञ्जभासमिदो घुरच् - (३.२.१६१) - भञ्ज्, भास्, मिद् इन धातुओं से ताच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में घुरच् प्रत्यय होता है। भगुरं काष्ठम् (भज् + घुरच्)। भासुरं ज्योतिः । मेदुरः पशुः।
कुरच् प्रत्यय
विदिभिदिच्छिदेः कुरच् - (३.२.१६२) - विद्, भिदिर्, छिदिर् इन धातुओं से ताच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में कुरच् प्रत्यय होता है। विदुरः, भिदुरः काष्ठम्, छिदुरा रज्जुः। व्यधेः सम्प्रसारणं कुरच्च वक्तव्यम् (वा.) - व्यध् धातु से कुरच् प्रत्यय होता है तथा धातु को सम्प्रसारण भी होता है। विधुरः ।
क्वरप् प्रत्यय
इण्नशजिसर्तिभ्यः क्वरप् - (३.२.१६३) - इण, नश्, जि, सृ इन धातुओं से ताच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में क्वरप् प्रत्यय होता है। इत्वरः (इ + क्वरप्) । इसी प्रकार - नश्वरः, जित्वरः, सृत्वरः । अनुवृत्ति - यहाँ से ‘क्वरप्’ की अनुवृत्ति ३.२.१६४ तक जायेगी। गत्वरश्च- (३.२.१६४) - ‘गत्वरः’ यह शब्द क्वरप् प्रत्ययान्त निपातन किया जाता है। इसमें तच्छीलादि अर्थों में वर्तमान काल में, गम्लृ धातु से क्वरप् प्रत्यय तथा अनुनासिक का लोप निपातन है।
ऊक प्रत्यय
__ जागरूकः - (३.२.१६५) - जागृ धातु से ताच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में ऊक प्रत्यय होता है। जागरूकः (जागृ + ऊक)। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘ऊकः’ की अनुवृत्ति ३.२.१६६ तक जायेगी। ४९२ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ यजजपदशां यङः - (३.२.१६६) - यज, जप, दश इन यङन्त धातुओं से ताच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में ऊक प्रत्यय होता है। यायजूकः (यायज् + ऊक), जञ्जपूकः (जञ्जप् + ऊक), दन्दशूकः (दन्दश् + ऊक) ।
र प्रत्यय
नमिकम्पिस्म्यजसकमहिंसदीपो रः - (३.२.१६७) - नमि, कम्पि, स्मि, नञ् पूर्वक जसु मोक्षणे धातु, कमु कान्तौ, हिंसि, दीपी, इन धातुओं से ताच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में र प्रत्यय होता है। नम्रं काष्ठम् (नम् + र)। इसी प्रकार - कम्प्रा शाखा। स्मेरं मुखम् । अजस्रं जुहोति। कम्रा युवतिः । हिंसो दस्युः । हिंस्रं रक्षः । दीप्रं काष्ठम् ।
उ प्रत्यय
सनाशंसभिक्ष उः - (३.२.१६८) - सन्नन्त धातुओं से तथा आङ्पूर्वक शसि एवं भिक्ष धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में उ प्रत्यय होता है। चिकीर्षुः कटम् (चिकीर्ष + उ)। वेदं जिज्ञासुः । व्याकरणं पिपठिषुः । आशंसुः । भिक्षुः । अनुवृत्ति - यहाँ से ‘उः’ की अनुवृत्ति ३.२.१७० तक जायेगी। विन्दुरिच्छुः - (३.२.१६९) - ‘विन्दुः’ यहाँ विद् धातु से तच्छीलादि अर्थों में वर्तमान काल में उ प्रत्यय तथा विद को नुम् का आगम निपातन किया जाता है। इसी प्रकार इच्छु, यहाँ भी इषु धातु से उ प्रत्यय तथा इष् के ष् को छ निपातन होता है। वेत्ति तच्छीलो विन्दुः । इच्छति तच्छीलो इच्छुः।। क्याच्छन्दसि - (३.२.१७०) - क्य प्रत्ययान्त धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमानकाल में वेदविषय में उ प्रत्यय होता है। देवयुः, सुम्नयुः, अघायवः । अनुवृत्ति - यहाँ से ‘छन्दसि’ की अनुवृत्ति ३.२.१७१ तक जायेगी।
कि, किन् प्रत्यय
आद्गमहनजनः किकिनौ लिट् च - (३.२.१७१) - आत् = आकारान्त, ऋ = ऋकारान्त, गम्, हन् तथा जन् धातुओं से ताच्छीलादि कर्ता हो तो वेदविषय में वर्तमानकाल में कि तथा किन् प्रत्यय होते हैं तथा उन कि तथा किन् प्रत्यय को लिट्वत् कार्य होते पपिः सोमं ददिर्गाः (पा + कि) (दा + कि)। मित्रावरुणौ ततुरिः (तृ + कि)। दूरे ह्यध्वा जगुरिः (गृ + कि)। जग्मियुवा (गम् + कि)। जनिर्वत्रम् (हन् + कि)। जनिर्बीजम् (हन् + कि)। बभिर्वज्रम् (भृ + कि)। ४९३ अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (द्वितीय पाद) किकिनावुत्सर्गः छन्दसि सदादिभ्यो दर्शनात् (वा.) - सेदिः। नेमिः। भाषायां धाकृसृजनिगमिभ्यः किकिनौ वक्तव्यौ (वा.)- भाषा में धा, कृ आदि धातुओं से कि, किन् प्रत्यय होते हैं । दधिः । चक्रिः । सस्रिः । जज्ञिः । जग्मिः । नेमिः । व सहिवहिचलिपलिपतिभ्यो यङन्तेभ्यः किकिनौ वक्तव्यौ (वा.) - सह, वह, चल, पल, पत इन धातुओं से यङ् प्रत्यय परे होने पर कि तथा किन् प्रत्यय होते हैं। सासहिः । वावहिः । चाचलिः । पापतिः ।
नजिङ् प्रत्यय
स्वपितृषोर्नजिङ् - (३.२.१७२) - स्वप् तथा तृष् धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में नजिङ् प्रत्यय होता है। स्वप्नक् स्वप्नजौ स्वप्नजः (स्वप् + नजिङ्)। तृष्णक् तृष्णजौ तृष्णजः (तृष् + नजिङ्) । धृषेश्चेति वक्तव्यम् (वा.) - धृष् धातु से भी नजिङ् प्रत्यय होता है। धृष्णक् ।
आरु प्रत्यय
शृवन्द्योरारुः - (३.२.१७३) - शृ तथा वन्द् धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में आरु प्रत्यय होता है। शरारुः । वन्दारुः । (शृ + आरु) (वन्द् + आरु)।
क्रु, क्लुकन्, क्रुकन् प्रत्यय
भियः क्रुक्लुकनौ - (३.२.१७४) - भी धातु से तच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में क्रु तथा क्लुकन् प्रत्यय होते है। भीरुः (भी + क्रु)। भीलुकः (भी + क्लुकन्)। क्रुकन्नपि वक्तव्यः - भी धातु से क्रुकन् प्रत्यय भी होता है। भीरुकः ।
वरच् प्रत्यय
स्थेशभासपिसकसो वरच् - (३.२.१७५) - स्था, ईश आदि धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में वरच् प्रत्यय होता है। स्थावरः । ईश्वरः । भास्वरः। पेस्वरः । कस्वरः। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘वरच्’ की अनुवृत्ति ३.२.१७६ तक जायेगी। यश्च यङः - (३.२.१७६) - यङन्त या प्रापणे धातु से भी तच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में वरच् प्रत्यय होता है। यायावरः ।
क्विप् प्रत्यय
भ्राजभासधुर्विद्युतोर्जिपृजुग्रावस्तुवः क्विप् - (३.२.१७७) - भ्राज, भास आदि धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में क्विप् प्रत्यय होता है। विभ्राट् (वि ४९४ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३
- भ्राज्), विभ्राजौ। भाः (भा + क्विप्) भासौ। धूः (धु + क्विप्), धुरौ। इसी प्रकार - विद्युत् । ऊ, ऊर्जा। पूः पुरौ। जूः जुवौ। ग्रावस्तुत्, ग्रावस्तुतौ। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘क्विप्’ की अनुवृत्ति ३.२.१७९ तक जायेगी। अन्येभ्योऽपि दृश्यते - (३.२.१७८) - अन्य धातुओं से भी तच्छीलादि कर्ता हो तो वर्तमान काल में क्विप् प्रत्यय होता है। पचतीति पक् (पच् + क्विप्) । भिनत्तीति भित् (भिद् + क्विप्) । युक् (यु + क्विप्)। क्विब्वचिप्रच्छ्यायतस्तुकटपुजुश्रीणां दीर्घोऽसंप्रसारणं च (वा.) - वच्, प्रच्छ, आयत उपपद पूर्वक स्तु, कटोपपदक पु, जु तथा श्रि धातुओं से भी क्विप् प्रत्यय, दीर्घ तथा सम्प्रसारण का अभाव भी होता है। वाक् (वच् + क्विप्) । शब्दप्राट् (शब्द + ङस् + प्रच्छ् + क्विप्)। इसी प्रकार - आयतस्तूः । कटप्रूः । जूः (जु + क्विप्) । श्रीः (श्रि + क्विप्)। द्युतिगमिजुहोतीनां द्वे च (वा.) - द्युत्, गम् तथा हु धातु को द्वित्व भी होता है। दिद्युत्। जगत् (द्युत् - दिद्युत् + क्विप्) । जुहोतेर्दीर्घश्च (वा.) - हु धातु को दीर्घ भी होता है। जुहूः । दृ भय इत्यस्य ह्रस्वश्च द्वे च (वा.) - भयार्थक दृ धातु को ह्रस्व भी होता है तथा द्वित्व भी होता है। ददृत्। - ध्यायतेः संप्रसारणं च (वा.) - ध्यै धातु को सम्प्रसारण भी होता है। धीः (६ यै + क्विप्)। भुवः संज्ञान्यतरयोः - (३.२.१७९) - भू धातु से संज्ञा तथा अन्तर गम्यमान हो तो क्विप् प्रत्यय होता है। विभूः (वि + भू)। इसी प्रकार - स्वयम्भूः । अन्तरे - प्रतिभूः (ऋणदाता और ऋणकर्ता का बिचवानी)।
- अनुवृत्ति - यहाँ से ‘भुवः’ की अनुवृत्ति ३.२.१८० तक जायेगी।
डु प्रत्यय
विप्रसंभ्यो ड्वसंज्ञायाम् - (३.२.१८०) - संज्ञा गम्यमान न हो तो वि, प्र तथा सम् पूर्वक भू धातु से डु प्रत्यय होता है वर्तमानकाल में। विभुः (वि + भू + डु)। इसी प्रकार - प्रभुः सम्भुः। डुप्रकरणे मितद्वादिभ्य उपसंख्यानम् (वा.) - मित उपपद में होने पर द्रू धातु से भी डु प्रत्यय होता है। . . . . ४९५ अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (द्वितीय पाद) मितं द्रवति मितद्रुः (मित + द्रु)। शंभुः (शम् + भू + डु)।
ष्ट्रन् प्रत्यय
धः कर्मणि ष्ट्रन् - (३.२.१८१) - धा धातु से कर्मकारक में ष्ट्रन् प्रत्यय होता है, वर्तमान काल में। धीयते असौ धात्री। (धात्री जनन्यामलकीवसुमत्युपमातृषु।) अनुवृत्ति - यहाँ से ‘ष्ट्रन्’ की अनुवृत्ति ३.२.१८३ तक जायेगी। दाम्नीशसयुयुजस्तुतुदसिसिचमिहपतदशनहः करणे - (३.२.१८२) - दाप्, नी, शसु आदि धातुओं से करण कारक में ष्ट्रन् प्रत्यय होता है। दान्त्यनेनेति दात्रम् (दा + ष्ट्र न्) । नयन्ति प्राप्नुवन्त्यनेनेति नेत्रम् (नी + ष्ट्रन्)। शस्त्रम् (शस् + ष्ट्रन्) । योत्रम् (यु + ष्ट्रन्)। योक्त्रम् (यु + ष्ट्रन्) । स्तोत्रम् (स्तु + ष्ट्रन्) । तोत्त्रम् (तुद् + ष्ट्रन्) । सेत्रम् (सि + ष्ट्रन्) । सेक्त्रम् (सिच् + ष्ट्रन्) । मेद्रम् (मिह् + ष्ट्रन्)। पतन्त्यनेन पत्रम् (पत् + ष्ट्रन्) । दंष्ट्रा (दंश् + ष्ट्रन्) । नम्रम् (नह् + ष्ट्रन्)। __ अनुवृत्ति - यहाँ से ‘करणे’ की अनुवृत्ति ३.२.१८६ तक जायेगी। __ हलसूकरयोः पुवः - (३.२.१८३) - पूधातु से करणकारक अर्थ में ष्ट्रन् प्रत्यय होता है, यदि वह करण कारक हल तथा सूकर का अवयव हो तो। हलस्य पोत्रम् (पू + ष्ट्रन्)। सूकरस्य पोत्रम्।
इत्र प्रत्यय
अर्तिलूधूसूखनसहचर इत्रः - (३.२.१८४) - ऋ, लू, धू आदि धातुओं से करण कारक में इत्र प्रत्यय वर्तमान काल में होता है। इयर्त्यनेन - अरित्रम् (ऋ+ इत्र) । लवित्रम् (लू + इत्र)। धवित्रम् (धू + इत्र)। सवित्रम् (सू + इत्र)। खनित्रम् (खन् + इत्र)। सहित्रम् (सह् + इत्र)। चरित्रम् (चर् + इत्र)। . अनुवृत्ति - यहाँ से ‘इत्र’ की अनुवृत्ति ३.२.१८६ तक जायेगी। पुवः संज्ञायाम् - (३.२.१८५) - पू धातु से संज्ञा गम्यमान हो तो करण कारक में इत्र प्रत्यय होता है। पवित्रं दर्भः । पवित्रं प्राणापानौ। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘पुवः’ की अनुवृत्ति ३.२.१८६ तक जायेगी। कर्तरि चर्षिदेवतयोः - (३.२.१८६)- पू धातु से ऋषि को कहना हो तो करण कारक में तथा देवता को कहना हो तो कर्ता अर्थ में इत्र प्रत्यय होता है। ऋषि का अर्थ यहाँ वेदमन्त्र है। पूयतेऽनेन आज्यम् इति पवित्रोऽयम् ऋषिः (जिसके द्वारा पवित्र किया४९६ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ जाये, वह ऋषि)। देवतायाम् - अग्निः पवित्रं स मां पुनातु (अग्नि पवित्र है, वह मुझे पवित्र करे।) वायुः, सूर्यः, सोमः, इन्द्रः पवित्रं ते मां पुनन्तु (अग्नि पवित्र है, वह मुझे पवित्र करे।)।
वर्तमानकाल में क्त प्रत्यय
निष्ठा सूत्र ३.२.१०२, से जो क्त प्रत्यय होता है, वह भूतकाल अर्थ में होता है। अब आगे के दो सूत्रों से जो क्त प्रत्यय हो रहा है, वह वर्तमानकाल अर्थ में हो रहा है, इसलिये पृथक् सूत्र बनाया। जीतः क्तः - (३.२.१८७) - ‘ञि’ जिसका इत् संज्ञक हो ऐसे धातु से वर्तमानकाल में क्त प्रत्यय होता है। जिमिदा - मिन्नः । क्ष्विण्णः । धृष्टः। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘क्त’ की अनुवृत्ति ३.२.१८८ तक जायेगी। मतिबुद्धिपूजार्थेभ्यश्च - (३.२.१८८) - मत्यर्थक, बुद्ध्यर्थक तथा पूजार्थक धातुओं से भी वर्तमान काल में क्त प्रत्यय होता है । मत्यर्थेभ्यः - राज्ञां मतः (मन् + क्त)। राज्ञाम् इष्टः (इष् + क्त)। बुद्ध्यर्थेभ्यः - राज्ञां बुद्धः (बुध् + क्त)। राज्ञां ज्ञातः (ज्ञा + क्त)। पूजार्थेभ्यः - राज्ञां पूजितः (पूज् + णिच् + इट् + क्त)। __इन सबका अर्थ वर्तमानकाल है। धृष्टः का अर्थ है जो धृष्ट है’। राज्ञां मतः का अर्थ है, ऐसा मनुष्य, जो राजाओं के द्वारा सम्मानित है। राज्ञां पूजितः का अर्थ है, ऐसा मनुष्य, जो वर्तमान में राजाओं के द्वारा पूजित है (न कि पहिले पूजित था)। सूत्र में चकार अनुक्तसमुच्चय के लिये है। अतः जो धातु तथा जो अर्थ सूत्र में नहीं हैं, उनमें भी क्त प्रत्यय हो जाता है। यथा - शीलितो रक्षितः क्षान्त आक्रुष्टो जुष्ट इत्यपि। रुष्टश्च रुषितश्चोभावभिव्याहृत इत्यपि।। हृष्टतुष्टौ तथा कान्तस्तथोभौ संयतोद्यतौ। कष्टं भविष्यतीत्याहुरमृतः पूर्ववत्स्मृतः ।। इनमें कष्टः में कष् धातु से क्त प्रत्यय भविष्यत् काल अर्थ में हुआ है। शेष शीलितः, रक्षितः, क्षान्तः आदि सभी में क्त प्रत्यय पूर्ववत् वर्तमानकाल में ही हुआ है।