विशेष -
सूत्र ३.१.९६ से लेकर ३.१.१३२ तक के सूत्रों के द्वारा तव्यत्, तव्य, अनीयर्, यत्, ण्यत्, क्यप् प्रत्यय कहे जा रहे हैं। इन ६ प्रत्ययों की कृत्य संज्ञा भी है और कृत् संज्ञा भी है।
तव्यत्, तव्य, अनीयर् प्रत्यय
तव्यत्तव्यानीयरः - (३.१.९६) - धातुओं से भाव और कर्म अर्थ में तव्यत्, तव्य, तथा अनीयर्, प्रत्यय होते हैं। जैसे - कर्म अर्थ में - कर्तुं योग्यं कर्तव्यम् (कृ + तव्यत् = कर्तव्यम् = करने योग्य)। कर्तुं योग्यं कर्तव्यम् (कृ + तव्य = कर्तव्यम् = करने योग्य)। कर्तुं योग्यं करणीयम् - (कृ + अनीयर् = करणीयम् = करने योग्य)। इसी प्रकार - चेतुं योग्यः चेतव्यः (धर्मस्त्वया)। चेतुं योग्यः चयनीयः (धर्मस्त्वया) जब प्रत्यय कर्म अर्थ में होता है, तब लिग वचन कर्मानुसारी होते हैं। भाव अर्थ में - एधितुं योग्यं एधितव्यम् त्वया, एधनीयं त्वया। जब प्रत्यय भाव अर्थ में होते हैं, तब केवल कर्म के अभाव में नपुंसकलिङ्ग, एकवचन ही होता है। प्रत्यय जब तित् होता है तब तित् स्वरितम् ६.१.१८५’ सूत्र से वह स्वरित होता है। प्रत्यय जब रित् होता है, तब उपोत्तमं रिति ६.१.२१७’ सूत्र से रित् प्रत्यय से बने हुए शब्द का उपोत्तम स्वर उदात्त होता है। प्रत्यय में किसी अन्य स्वर का विधान न होने पर ‘आधुदात्तश्च ३१.३’ सूत्र से उसका आदि स्वर उदात्त होता है। वसेस्तव्यत् कर्तरि णिच्च (वार्तिक) - वस निवासे धातु से कर्ता अर्थ में तव्य प्रत्यय होता है और वह णिद्वद् होता है। वसति इति वास्तव्यः इस कर्ता अर्थ में - वस् + तव्य = वास्तव्यः । ध्यान रहे कि प्रत्यय के णिद्वत् होने कारण यहाँ ‘अत उपधायाः’ सूत्र से उपधा को वृद्धि हुई है। विशेष - अदादिगण के वस आच्छादने धातु से यह प्रत्यय नहीं होगा। केलिमर् उपसंख्यानम् (वार्तिक) - धातुओं से भाव, कर्म अर्थ में केलिमर् प्रत्यय ४३६ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ भी होता है। पचेलिमाः माषाः, पक्तव्या इत्यर्थः । भिदेलिमानि काष्ठानि भेत्तव्यानि । भिदेलिमाः सरलाः भेत्तव्याः ।
यत् प्रत्यय
(औत्सर्गिकी व्यवस्था यह है कि ऋकारान्त से भिन्न अजन्त धातुओं से यत् प्रत्यय होता है, ऋदुपध हलन्त धातुओं से क्यप् प्रत्यय होता है तथा ऋकारान्त धातुओं से और ऋदुपध से बचे हुए हलन्त धातुओं से ण्यत् प्रत्यय होता है। किन्तु कभी कभी इससे भिन्न भी हो जाता है। अतः इनके सूत्र पृथक् पृथक् करके बतलाये जा रहे हैं।) अचो यत् - (३.१.९७) - अजन्त धातुओं से भाव तथा कर्म अर्थ में यत् प्रत्यय होता है। जैसे - गातुं योग्यं गेयम्, इस अर्थ में गै - गा + यत् = गेयम् (गाने योग्य)। इसी प्रकार - पातुं योग्यं पेयम् - पीने योग्य, (पा + यत्) / चेतुं योग्यं चेयम् (चुनने योग्य), (चि + यत्) । जेतुम् योग्यं जेयम् (जीतने योग्य)।
- अनुवृत्ति - यहाँ से ‘अच्’ की अनुवृत्ति ३.१.१०५ तक जायेगी। बाध्यबाधकभाव - यत्, क्यप् और ण्यत्, ये तीनों ही प्रत्यय भाव, कर्म अर्थ में हो रहे हैं, और इनका स्वरूप भी समान ही है। क्योंकि अनुबन्धों के हटने के बाद तीनों में ‘य’ ही शेष बचता है। अतः सरूपप्रत्यय होने के कारण इनमें बाध्यबाधकभाव है। इसलिये भाव, कर्म अर्थ में जिस धातु से यत् होगा, उससे क्यप् और ण्यत् नहीं होंगे। जिस धातु से क्यप् होगा, उससे यत् और ण्यत् नहीं होंगे। जिस धातु से ण्यत् होगा, उससे क्यप् और यत् नहीं होंगे, यह समझना चाहिये। किन्तु तव्यत्, तव्य, अनीयर्, इन प्रत्ययों का स्वरूप इनसे भिन्न है, अतः इनके न होने पर वे तो हो ही सकते हैं। अजन्तभूतपूर्वादपि - (वा.) - जो धातु मूल धातुपाठ में अजन्त हों तथा वर्तमान में अन्य प्रत्ययों के साथ मिल जाने से उनका अजन्तत्व नष्ट हो गया हो, ऐसे भूतपूर्व अजन्त धातुओं से भी यत् प्रत्यय होता है। जैसे - दा, धा, आदि धातु आकारान्त हैं, जो कि इच्छार्थक सन् प्रत्यय लग जाने से दित्स, धित्स बन गये हैं, तथा अतो लोपः सूत्र से अ का लोप होकर दित्स्, धित्स्, ऐसे हलन्त हो गये हैं, इनसे भी यत् प्रत्यय ही होगा, क्योंकि ये धातु वर्तमान में हलन्त दिखने पर भी भूतपूर्व अजन्त हैं। दित्स् + यत् = दित्स्यम् । इसी प्रकार - धित्स् + यत् = धित्स्यम्।। बाध्यबाधकभाव - अब आगे ऋकारान्त तथा हलन्त धातुओं से यत् प्रत्यय कह रहे है। ऋकारान्त तथा हलन्त धातुओं से होने वाला यत् प्रत्यय, ण्यत् प्रत्यय का अपवाद है, यह जानना चाहिये। अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (प्रथम पाद) ४३७ तकिशसिचतियतिजनीनामुपसंख्यानम् - (वा.) - तक हसने, शसु हिंसायाम्, चते याचने, यती प्रयत्ने, जनी प्रादुभवि, इन हलन्त धातुओं से भी भाव तथा कर्म अर्थ में यत् प्रत्यय होता है। तकितुं योग्यं तक्यम् (तक् + यत्)। इसी प्रकार शस् + यत् - शस्यम् / चत् + यत् - चत्यम् / यत् + यत् - यत्यम् / जन् + यत् - जन्यम। हनो वा वध च - (वा.)- हन् धातु से विकल्प से यत् और ण्यत् प्रत्यय होते हैं। जब यत् प्रत्यय होता है तब हन् धातु को वध आदेश होता है। हन्तुं योग्यः वध्यः इस अर्थ में हन् + यत् - वध + यत् = वध्यः / हन् + ण्यत् = घात्यम्। __पोरदुपधात् - (३.१.९८) - जिनकी उपधा में ह्रस्व अकार है, ऐसे पवर्गान्त धातुओं से भाव तथा कर्म अर्थ में यत् प्रत्यय होता है। यद्यपि यहाँ हलन्त होने के कारण ण्यत् प्राप्त था उसे बाधकर यत् का विधान है। उदाहरण - शप् + यत् - शप्यम् (शाप के योग्य) / जप् + यत् - जप्यम् (जपने योग्य)/लभ + यत् - लभ्यम् (प्राप्त करने योग्य)। रभ + यत- रभ्यम (आरम्भ करने योग्य) / गम + यत - गम्यम (जाने योग्य)। शकिसहोश्च - (३.१.९९) - शक्ल शक्तौ और षह मर्षणे धातुओं से भाव तथा कर्म अर्थ में यत् प्रत्यय होता है। जैसे - शक्तुं योग्यं शक्यम् - शक् + यत् - शक्यम् (हो सकने योग्य) / सोढुं योग्यं सह्यम् - सह् + यत् - सह्यम् (सहने योग्य)। __ गदमदचरयमश्चानुपसर्गे - (३.१.१००) - अनुपसर्ग गद व्यक्तायां वाचि, मदी हर्षे, चर गतिभक्षणयोः, यम उपरमे, धातुओं से भी भाव तथा कर्म अर्थ में यत् प्रत्यय होता है। जैसे - गदितुं योग्यं गद्यम् - गद् + यत् - गद्यम् (बोलने योग्य) / मद् + यत् - मद्यम् (हर्ष करने योग्य) / चर् + यत् - चर्यम् (खाने योग्य) / यम् + यत् - यम्यम् (नियमन करने योग्य)। ध्यान रहे कि इन धातओं में उपसर्ग होने पर ण्यत प्रत्यय ही होगा - प्र+गद + ण्यत - प्रगाद्यम । प्र+मद + ण्यत - प्रमाद्यम । प्र + चर+ ण्यत - प्रचार्यम। चरेराङि चागुरौ - (वा.) - आङ् उपसर्गपूर्वक ‘चर गतिभक्षणयोः’ धातु से यत प्रत्यय होता है. यदि शब्द का अर्थ गरु न हो तो। आ + चर + यत - आचर्यः । आचरितुं योग्यः आचर्यः देशः (आचरण करने के योग्य देश) गुरु अर्थ होने पर ण्यत् ही होगा - आ + चर् + ण्यत् - आचार्यः (उपनयन करने वाला गुरु)। नियम सूत्र - पवर्गान्त होने के कारण यम् धातु से यत् प्रत्यय ‘पोरदुपधात्’ सूत्र से ही सिद्ध था, फिर भी यह ‘गदमदचरयमश्चानुपसर्गे’ सूत्र यम् धातु से पुनः यत् ४३८ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ प्रत्यय कर रहा है। जो कार्य किसी अन्य सूत्र से पहिले से ही सिद्ध हो, उसी को पुनः करने वाले सूत्र नियम सूत्र कहलाते हैं। सिद्धे सत्यारभ्यमाणो विधिनियमाय कल्पते’। __ अतः यह ‘गदमदचरयमश्चानुपसर्गे’ सूत्र नियम सूत्र है। यह नियम करता है कि अनुपसर्ग होने पर अथवा नि उपसर्ग से युक्त होने पर ही यम् धातु से यत् प्रत्यय होता है। अनुपसर्ग होने पर - यम् + यत् - यम्यम् (नियमन करने योग्य)। नि उपसर्ग होने पर - नि + यम् + यत् - नियम्यम् (नियमन करने योग्य)। विनियम्यम् । __ अन्य उपसर्ग होने पर ण्यत् प्रत्यय ही होगा - विनियाम्यम्। । अवधपण्यवर्या गर्दापणितव्यानिरोधेषु - (३.१.१०१) - अवद्य, पण्य और वर्या ये शब्द वद व्यक्तायां वाचि’, ‘पण व्यवहारे स्तुतौ च’ और ‘वृङ् सम्भक्तौ’ धातुओं से क्रमशः गर्दा, पणितव्य, और अनिरोध अर्थों में निपातन करके बनाये जाते हैं। जैसे - __ अवद्यम् - वदितुं न योग्यं अवद्यं पापम् (निन्दनीय अर्थात् न करने योग्य)। यहाँ वदः सुपि क्यप् च’ से क्यप् प्रत्यय प्राप्त था अतः निपातन से गर्दा अर्थात् निन्दा अर्थ होने कारण यत् प्रत्यय का विधान किया गया है। गर्हा अर्थ न होने पर क्यप् प्रत्यय करके - वदितुं न योग्यं अनूद्यम् (गुरु का नाम नहीं बोलना चाहिये। __ पण्यम् - पणितुं योग्यं पण्यम् - पण् - पण्या गौः (खरीदने योग्य गौ)। यहाँ ऋहलोर्ण्यत् सूत्र से ण्यत् प्रत्यय प्राप्त था। अतः यहाँ यत् प्रत्यय का निपातन कहा गया है। पणितव्य अर्थ न होने पर ण्यत् होकर - पाण्यम् । वर्या - शतेन वर्या कन्या (सौ लोगों से वरण करने योग्य कन्या), सहस्रेण वर्या कन्या (सहस्र लोगों से वरण करने योग्य कन्या)। वृ + यत् + टाप् - वर्या । यहाँ ऋकारान्त होने के कारण ‘ऋहलोर्ण्यत्’ सूत्र से ण्यत् प्रत्यय प्राप्त था। अतः यहाँ यत् प्रत्यय का निपातन कहा गया है तथा अनिरोध अर्थ न होने पर ण्यत् प्रत्यय लगाकर वार्याः ऋत्विजः ही बनेगा। _वा करणम् - (३.१.१०२) - वह धातु से करण अर्थ में यत् प्रत्यय करके ‘वा’ यह शब्द निपातन किया जाता है - वहति अनेन इति वा शकटम् । करण अर्थ न होने पर ऋहलोर्ण्यत् सूत्र से ण्यत् प्रत्यय ही होगा - वोढुं योग्यं वाह्यम्। अर्यः स्वामिवैश्ययोः - (३.१.१०३) - स्वामी और वैश्य अर्थ अभिधेय होने पर ‘ऋ गतौ’ धातु से यत् प्रत्यय करके ‘अर्य’ शब्द निपातन किया जाता है। ऋ + यत् = अर्यः (स्वामी, वैश्य)। स्वामी तथा वैश्य अर्थ न होने के पर ऋहलोर्ण्यत्’ सूत्र से ण्यत् प्रत्यय ही होगा - आर्यो ब्राह्मणः । अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (प्रथम पाद) ४३९ उपसर्या काले प्रजने - (३.१.१०४) - उपपूर्वक सृ गतौ’, (भ्वा., जुहो.) धातु से यत् प्रत्यय करके उपसर्या शब्द निपातन किया जाता है, प्रजन अर्थात् प्रथम गर्भग्रहण का समय जिसका हो गया हो इस अर्थ में। यहाँ भी ण्यत् को बाधकर ण्यत् हुआ है। उपसर्या गौः (एसी गौ, जिसका गर्भाधान का काल प्राप्त हो गया है, और जो वृषभ से योग के योग्य है।) इसी प्रकार - उपसर्या वड़वा, आदि जानना चाहिये। ति __ काल्या प्रजने’ अर्थ न होने पर ऋहलोर्ण्यत् सूत्र से ण्यत् प्रत्यय ही होगा - उपसार्या शरदि मधुरा। __ अजर्य संगतम् - (३.१.१०५) - नञ्पूर्वक ‘जृष् वयोहानौ’ धातु से संगत अर्थ अभिधेय होने पर कर्तृवाच्य में यत् प्रत्यय निपातन किया जाता है। अजर्यमार्यसंगतम् (कभी न टूटने वाली आर्यों की मैत्री) (नञ् + लृ + यत्)। अजयं नोऽस्तु सङ्गतम् । तेनासङ्गतमार्येण रामाजर्यं कुरु द्रुतम् (भट्टिकाव्य) आदि। सङ्गत अर्थ न होने पर कर्ता अर्थ में तृच ही होगा - अजरिता कम्बलः । अब क्यप् प्रत्यय कह रहे हैं -
क्यप् प्रत्यय
वदः सुपि क्यप् च - (३.१.१०६) - अनुपसर्ग वद धातु से सुबन्त उपपद में होने पर भाव अर्थ में क्यप् प्रत्यय होता है तथा चकार से यत् प्रत्यय भी होता है। ब्रह्मणः वदनम् ब्रह्मोद्यम् (ब्रह्म अर्थात् वेद का कथन), ब्रह्मवद्यम् । ब्रह्म + यत् - ब्रह्मवद्यम्। इसी प्रकार - सत्योद्यम्, सत्यवद्यम् (सत्य कथन)। सुप् उपपद में न होने पर तथा उपसर्ग न होने पर ऋहलोर्ण्यत्’ सूत्र से ण्यत् प्रत्यय होकर प्र + वद् + ण्यत् - प्रवाद्यम् ही बनेगा। __ अनुवृत्ति - यहाँ से सुपि’ की अनुवृत्ति ३.१.१०८ तक जायेगी और अनुपसर्गे की अनुवृत्ति ३.१.१२१ तक जायेगी। भुवो भावे - (३.१.१०७) - अनुपसर्ग भू धातु से सुबन्त उपपद में होने पर भाव अर्थ में क्यप् प्रत्यय होता है। ब्रह्मभूयं गतः (ब्रह्मत्व को प्राप्त हो गया)। ब्रह्म + भू + क्यप् । इसी प्रकार - देवभूयं गतः । सुबन्त उपपद में न होने पर यत् होकर भव्यम् तथा उपसर्ग होने पर भी यत् होकर प्रभव्यम्। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘भावे’ की अनुवृत्ति ३.१.१०८ तक जायेगी। हनस्त च - (३.१.१०८) - अनुपसर्ग हन् धातु से सुबन्त उपपद में होने पर ४४० अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ भाव अर्थ में क्यप् प्रत्यय होता है तथा हन् धातु को तकार अन्तादेश भी होता है। ब्रह्मणो हननं ब्रह्महत्या। ब्रह्म + हन् + क्यप् । इसी प्रकार - दस्युहत्या। स्पष्ट है कि यदि सुबन्त उपपद में नहीं होगा, तो केवल हन् धातु से क्यप् प्रत्यय लगाकर हत्या’ शब्द नहीं बनाया जा सकता। भाव अर्थ में हन् धातु से ण्यत् प्रत्यय भी नहीं हो सकता, ‘अनभिधानात्’ । अतः भाव अर्थ में हन् धातु से घञ् प्रत्यय होकर घातः बनेगा। कर्म अर्थ में हन् धातु से ण्यत् प्रत्यय होकर ‘घात्यः’ बन सकता है। _एतिस्तुशास्वृदृजुषः क्यप् - (३.१.१०९) - ‘इण् गतौ’, ‘ष्टुञ् स्तुतौ’, ‘शासु अनुशिष्टौ’, ‘वृञ् वरणे’, ‘दृङ् आदरे’, ‘जुषी प्रीतिसेवनयोः’ इन धातुओं से क्यप् प्रत्यय होता है। यहाँ पर सुपि, अनुपसर्गे और भावे इन तीनों की निवृत्ति हो गयी है। अतः इसका विधान सामान्यतः भावकर्म अर्थ में ही होगा। इ + क्यप् - इत्यः । इसी प्रकार क्यप् प्रत्यय करके - स्तुत्यः, शिष्यः, वृत्यः, आदृत्यः, जुष्यः । (ध्यान दें कि इस सूत्र में वृ शब्द से वृञ् धातु ही लिया गया है,, वृङ् नहीं। अतः वृङ् धातु से यथाविहित ण्यत् प्रत्यय ही होगा। वार्या ऋत्विजः, आदि।) ध्यातव्य - अवश्य शब्द उपपद में होने पर भी क्यप् ही होगा - अवश्यस्तुत्यः । शंसिदुहिगुहिभ्यो वेति वक्तव्यम् - (वा.) - शंसु, गुहू और दुह इन धातुओं से विकल्प से क्यप् और ण्यत् प्रत्यय होते हैं। क्यप् होने पर - शंस् + यत् - शस्यम्। इसी प्रकार - दुह्यम् और गुह्यम् । ण्यत् होने पर - शंस् + ण्यत् - शंस्यम् । इस प्रकार - दोह्यम् और गोह्यम् रूप बनेंगे। आङ्पूर्वादजेः संज्ञायामुपसंख्यानम् - (वा.) - आपूर्वक अघ्र धातु से संज्ञा अर्थ में क्यप् प्रत्यय होता है। आ + अज् + क्यप् = आज्यम् । __ ऋदुपधाच्चाक्लुपिचूतेः - (३.१.११० ) - ‘कृपू सामर्थ्य’ ‘घृती हिंसाग्रन्थनयोः’ धातुओं को छोड़कर ऋकार उपधावाले धातुओं से भी क्यप् प्रत्यय होता है। वृत् + क्यप् - वृत्यम्। वृध् + क्यप् - वृध्यम् । पाणौसृजेर्ण्यद्वक्तव्यः - (वा.) - पाणि उपपद में होने पर ‘सृज विसर्गे’ धातु से ण्यत् प्रत्यय होता है। पाणिभ्यां सृज्यते इति पाणिसर्या रज्जुः । (सृज् + ण्यत् + टाप् ।) . समवपूर्वाच्च - (वा.)- सम्, अव उपसर्गपूर्वक सृज् धातु से ण्यत् प्रत्यय होता है। समवसृज्यते इति समवसर्या । (सम् + अव + सृज् + ण्यत् + टाप्।) ई च खनः - (३.१.१११ ) - खनु अवदारणे धातु से भी क्यप् प्रत्यय होता है तथा अन्त्य अल् को ईकारादेश भी हो जाता है। खन् + क्यप् = खेयम् । अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (प्रथम पाद) ४४१ भृञोऽसंज्ञायाम् - (३.१.११२) - ‘भृञ् भरणे’ धातु से असंज्ञाविषय में क्यप् प्रत्यय होता है। भृ + क्यप् = भृत्याः कर्मकराः ।
- संज्ञा अर्थ होने पर पुल्लिङ्ग में ण्यत् होकर - भार्यो नाम क्षत्रियः। विशेष - आगे संज्ञायां समजनिषद’ सूत्र से संज्ञा अर्थ में क्यप् का विधान है। अतः यह क्यप तो स्वतः असंज्ञा अर्थ में ही प्राप्त हो रहा था, तो फिर यहाँ ‘असंज्ञायाम’ क्यों कहा है ? इसलिये कि संज्ञायां समजनिषद’ से संज्ञा अर्थ में होने वाला क्यप् स्त्रीलिङ्ग में होता है. अतः पंल्लिङग में संज्ञा अर्थ में क्यप प्रत्यय न हो जाये. उसे रोकने के लिये यहाँ ‘असंज्ञायाम’ कहा है। इसलिये पंल्लिङग में संज्ञा अर्थ में क्यप नहीं होगा और स्त्रीलिङग में संज्ञा अर्थ में क्यप् हो जायेगा। जो वधू अर्थ में ‘भार्या’ यह संज्ञा शब्द मिलता है, वह ‘डुभृञ् धारणपोषणयोः’ अथवा ‘भृ भर्त्सने, भरणेऽपि’ धातु से कर्म अर्थ में ऋहलोर्ण्यत्’ सूत्र से ण्यत् प्रत्यय करके बनता है।) संपूर्वाद्विभाषा -वा.) - सम्पूर्वक भृ धातु से विकल्प से क्यप् और ण्यत् प्रत्यय होते हैं। सम्भृत्याः / सम्भार्याः । मृजेर्विभाषा - (३.१.११३ ) - ‘मृजूष् शुद्धौ’ धातु से विकल्प से क्यप् और ण्यत् प्रत्यय होते हैं। परिमृज्यः परिमार्यः । यह धातु पाठान्तर से ‘मृत’ भी पढ़ा गया है। राजसूयसूर्यमृषोद्यरुच्यकुप्यकृष्टपच्याव्यथ्याः - (३.१.११४) - राजसूय, सूर्य, मृषोद्य, रुच्य, कुप्य, कृष्टपच्य, अव्यथ्य ये शब्द क्यप् प्रत्ययान्त निपातन होते हैं। राज्ञा सोतव्यो राजसूयः अथवा राजा (सोमो) सूयते अत्र राजसूयः (षुञ् अभिषवे + क्यप्) । सुवति लोकं कर्मणि प्रेरयति सूर्यः (षू प्रेरणे + क्यप्।) अथवा सरति आकाशे सूर्यः (सृ + क्यप् ।) मृषा + वद् + क्यप् = मृषोद्यम् । गुप गोपने, गुपू रक्षणे धातुओं से सुवर्णरजतभिन्न धन अर्थ में क्यप् प्रत्यय करके = कुप्यम् । कृष्टपच्यः = कृष्ट भूमि में जो स्वयं फल जाये । यहाँ कर्मकर्ता अर्थ में पच् धातु से क्यप् । मुख्य कर्म अर्थ होने पर ण्यत् होकर कृष्टपाक्यः । व्यथ् धातु से कर्ता अर्थ में क्यप् प्रत्यय करके = न व्यथते अव्यथ्यः । भिद्योद्धद्यौ नदे - (३.१.११५) - भिदिर् विदारणे’ तथा उज्झ उत्सर्गे’ धातुओं से क्यप् प्रत्ययान्त भिद्य तथा उद्ध्य शब्द कर्ता अर्थ में निपातन होते हैं, नद अभिधेय होने पर। भिनत्ति कूलं भिद्यः (नदः)। उज्झति उदकं उद्भ्यः (नदः)। पुष्यसिद्धयौ नक्षत्रे - (३.१.११६) - नक्षत्र अभिधेय हो तो अधिकरण कारक में पुष पुष्टौ’, तथा षिधु संराद्धौ’ धातुओं से क्यप् प्रत्ययान्त पुष्य और सिद्ध्य शब्द निपातन ४४२ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ किये जाते हैं। पुष्यन्त्यस्मिन् कार्याणि स पुष्यः । सिद्ध्यन्त्यस्मिन् कार्याणि स सिद्ध्यः । विपूयविनीयजित्या मुञ्जकल्कहलिषु - (३.१.११७ ) - विपूर्वक पूङ् पवने’ धातु (भ्वादिगण) से मुञ्ज अर्थ में विपूय, विपूर्वक नी धातु से कल्क अर्थ में विनीय तथा जि धातु से हलि अर्थ में जित्य ये क्यप् प्रत्ययान्त शब्द निपातन किये जाते हैं। विपूयो मुजः, विनीयः कल्कः, जित्यो हलिः। __प्रत्यपिभ्यां ग्रहेश्छन्दसि - (३.१.११८) - प्रति, अपि पूर्वक ग्रह् धातु से क्यप् प्रत्यय होता है, वेद विषय में। मत्तस्य न प्रतिगृह्यम् (प्रति + ग्रह् + क्यप्)। तस्मान्नापिगृह्यम्। (अपि + ग्रह + क्यप्)। वेद विषय न होने पर ण्यत् होकर प्रतिग्राह्यम्, अपिग्राह्यम्। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘ग्रहेः’ की अनुवृत्ति ३.१.११९ तक जायेगी। पदास्वैरिबाह्यापक्षेषु च - (३.१.११९) - पद, अस्वैरी, बाह्या, पक्ष्य इन अर्थों में भी ग्रह् धातु से क्यप् प्रत्यय होता है। पद अर्थ में - प्रगृह्यं पदम् (प्रगृह्यसंज्ञक पद) (प्र + ग्रह + क्यप्) । अस्वैरी अर्थ में - गृह्यका इमे (य पराधीन हैं) (ग्रह् + क्यप्)। बाह्या अर्थ में - ग्रामगृह्या सेना (गाँव से बाहर की सेना) (ग्राम + ङस् + ग्रह् + क्यप्)। पक्ष्य अर्थ में - वासुदेवगृह्याः (वासुदेव के पक्ष वाले) (वासुदेव + ङस् + ग्रह् + क्यप्)। विभाषा कृवृषोः - (३.१.१२०) - ‘डुकृञ् करणे’ तथा ‘वृषु सेचने’ धातुओं से विकल्प से क्यप प्रत्यय होता है तथा पक्ष में ण्यत प्रत्यय होता है। क्यप होने पर - कृ + क्यप् = कृत्यम् । वृष् + क्यप् = वृष्यम् / ण्यत् होने पर - कृ + ण्यत् = कार्यम् । वृष् + ण्यत् = वर्ण्यम्। युग्यं च पत्रे- (३.१.१२१) - पत्र अर्थात् वाहन अभिधेय होने पर ‘युजिर् योगे’ धातु से भी क्यप् प्रत्यय होता तथा जकार को कुत्व होकर युग्य शब्द निपातन किया जाता है। योक्तुमर्हः युग्यो गौः (जोतने योग्य बैल), युग्योऽश्वः (जोतने योग्य घोड़ा)। वाहन अर्थ न होने पर ण्यत् होकर योग्यम् ही बनेगा। . अमावस्यदन्यतरस्याम् - (३.१.१२२) - अमापूर्वक ‘वस निवासे’ धातु से काल अधिकरण में वर्तमान होने पर ण्यत् प्रत्यय होता है तथा अत उपधाया से होने वाली वृद्धि का विकल्प से निपातन किया जाता है। सह वसतोऽस्मिन् काले सूर्यचन्द्रमसौ अमावास्या / अमावस्या। __ छन्दसि निष्टर्यदेवहूयप्रणीयोन्नीयोच्छिष्यमर्यस्तर्याध्वर्यखन्यखान्यदेव यज्यापृच्छ्यप्रतिषीव्यब्रह्मवाद्यभाव्यस्ताव्योपचाय्यपृडानि - (३.१.१२३ ) - अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (प्रथम पाद) ४४३ निस् + कृत् + ण्यत् = निष्टय॑म् / देव + हे + क्यप् = देवहूयः / प्र + नी + क्यप् = प्रणीयः / उत् + नी + क्यप् = उन्नीयः / उत् + शिष् + क्यप् = उच्छिष्यम् / मृङ् + यत् = मर्यः / स्तृञ् + यत् = स्तर्या / वृ + यत् = ध्वर्यः / खन् + यत् = खन्यः / खन् + ण्यत् = खान्यः / देव + यज् + ण्यत् = देवयज्या / आङ् + प्रच्छ् + यत् = आपृच्छ्यः / प्रति + सिवु + क्यप् = प्रतिषीव्यः / ब्रह्म + वद् + ण्यत् = ब्रह्मवाद्यः / भू + ण्यत् = भाव्यः / स्तु + ण्यत् = स्ताव्यः / उप + चि + ण्यत् + पृड = उपचाय्यपृडम्। वेद में ये शब्द निपातन से बनते हैं। हिरण्य इति वक्तव्यम् (वार्तिक) - उपचाय्यपृडम् शब्द हिरण्य अर्थ में ही होता है और हिरण्य अर्थ न होने पर उपचेयपृडम् बनता है।
ण्यत् प्रत्यय
ऋहलोर्ण्यत् - (३.१.१२४) - ऋवर्णान्त तथा हलन्त धातुओं से ण्यत् प्रत्यय होता है। कृ + ण्यत् = कार्यम्, हृ + ण्यत् = हार्यम्, धृ + ण्यत् = धार्यम्, पठ् + ण्यत् = पाठ्यम्, पच् + ण्यत् = पाक्यम्, वच् + ण्यत् = वाक्यम्। ओरावश्यके - (३.१.१२५) - उवर्णान्त धातुओं से आवश्यक अर्थ द्योतित होने पर ण्यत् प्रत्यय होता है। यह यत् का अपवाद है। __ अतः आवश्यक अर्थ द्योतित होने पर उवर्णान्त धातुओं से ण्यत् प्रत्यय लगाइये लू + ण्यत् = लाव्यम्, पू + ण्यत् = पाव्यम् । आवश्यक अर्थ द्योतित न होने पर इनसे यत् प्रत्यय लगाइये। लू + यत् = लव्यम्, पू + यत् = पव्यम् । अनुवृत्ति - यहाँ से ‘ण्यत्’ की अनुवृत्ति ३.१.१३१ तक जायेगी। आसुयुवपिरपिलपित्रपिचमश्च - (३.१.१२६) - आङ् पूर्वक ‘षुञ् अभिषवे’, ‘यु मिश्रणे’, डुवप बीजसन्ताने’, ‘रप, लप व्यक्तायां वाचि’, ‘त्रपूष् लज्जायाम्’ और ‘आ चमु अदने’ इन धातुओं से भी ण्यत् प्रत्यय होता है। यह भी यत् का अपवाद है। आङ् + सु + ण्यत् - आसाव्यम् / यु + ण्यत् - याव्यम् / वप् + ण्यत् - वाप्यम् / रप् + ण्यत् = राप्यम् / लप् + ण्यत् = लाप्यम् / त्रप् + ण्य = त्राप्यम् / आङ् + चम् + ण्यत् = आचाम्यम् । __ आनाय्योऽनित्ये - (३.१.१२७) - आङ्पूर्वक नी धातु से ण्यत् प्रत्यय तथा आय आदेश होकर आनाय्य शब्द निपातन किया जाता है। आङ् + नी + ण्यत् - आनाय्यो दक्षिणाग्निः। ४४४ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ प्रणाय्योऽसंमतौ - (३.१.१२८) - असम्मति अर्थ अभिधेय होने पर प्र उपसर्गपूर्वक नी धातु से ण्यत् प्रत्यय तथा आय आदेश निपातित होते हैं। प्र + नी + ण्यत् = प्रणाय्यः चौरः । असम्मति का अर्थ है पूजा का अभाव, चोर निन्दित है इसीलिये असम्मति अर्थ में ण्यत् निपातन किया गया है। सम्मति अर्थ होने पर ‘अचो यत्’ सूत्र से यत् प्रत्यय होकर प्र + नी + यत् = प्रणेयः बनेगा। यहाँ उपसर्गादसमासेऽपि णोपदेशस्य ८.४.१४’ सूत्र से णत्व हुआ है। पाय्यसांनाय्यनिकाय्यधाय्या मानहविर्निवाससामिधेनीषु - (३.१.१२९) - पाय्य, सान्नाय्य, निकाय्य और धाय्य शब्द, मान, हवि, निवास और सामिधेनी अर्थ अभिधेय होने पर निपातन किये जाते हैं। मीयतेऽनेन इति पाय्यम् मानम् - तौलने के बाँट । (माङ् + ण्यत् = पाय्यम् ।) सम्यङ् नीयते होमार्थम् अग्निं प्रति इति सानाय्यं हविः - (सम् + नी + ण्यत्) सांन्नाय्य नामक हवि। निचीयतेऽस्मिन् धान्यादिकं निकाय्यः - निवासः। (नि + चि + ण्यत्) धीयतेऽनया समिद् इति धाय्या - सामिधेनी नामक ऋचा का नाम । (डुधाञ् + ण्यत्) । क्रतौ कुण्डपाय्यसंचाय्यौ - (३.१.१३०) - क्रतु अभिधेय होने पर, तृतीयान्त कुण्ड शब्द उपपद में होने पर पा धातु से अधिकरण अर्थ में ण्यत् प्रत्यय करके कुण्डपाय्य शब्द निपातन से बनता है और सम् उपसर्गपूर्वक चिञ् धातु से ण्यत् प्रत्यय करके आयादेश निपातन करके संचाय्य शब्द निपातन से बनता है। कुण्डेन पीयतेऽस्मिन् सोम इति कुण्डपाय्यः क्रतुः = वह यज्ञ जिसमें कुण्ड के द्वारा सोम पिया जाता है। (कुण्ड + पा + ण्यत्)। सञ्चीयतेऽस्मिन् सोम इति संचाय्यः क्रतुः = वह यज्ञ जिसमें सोम का संचय किया जाता है। (सम् + चि + ण्यत्)। अग्नौ परिचाय्योपचाय्यसमूह्याः - (३.१.१३१) - अग्नि धारण करने वाला स्थलविशेष अभिधेय होने पर परि उपसर्गपूर्वक चि धातु से ण्यत् प्रत्यय तथा आयादेश निपातन करके परिचाय्य शब्द बनता है। परिचीयतेऽस्मिन् परिचाय्यः = वह स्थान, जहाँ यज्ञ की अग्नि स्थापित की जाती है। इसी प्रकार उप उपसर्गपर्वक चि धात से ण्यत प्रत्यय तथा आयादेश निपातन करके उपचाय्य शब्द बनता है। उपचीयतेऽसौ इति उपचाय्यः = यज्ञ में संस्कार की गई आग। सम् उपसर्गपूर्वक वह धातु से ण्यत् प्रत्यय करके तथा सम्प्रसारण और दीर्घ निपातन करके समूह्यं शब्द बनता है। समूह्यं चिन्वीत पशुकामः = पशु की कामना करने अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (प्रथम पाद) वाला समूह्य = यज्ञ की अग्नि का चयन करे। पवार चित्याग्निचित्येषु - (३.१.१३२) - अग्नि अभिधेय होने पर चिञ् धातु से कर्म अर्थ में क्यप् प्रत्यय निपातन करके तथा ‘ह्रस्वस्य पिति कृति तुक्’ सूत्र तुक् का आगम करके चित्य तथा अग्निचित्या शब्द निपातन करके बनते हैं। न यह क्यप् प्रत्यय यत् का अपवाद है।
ण्वुल तथा तृच् प्रत्यय
विशेष - अब सूत्र ३.१.१३३ से लेकर ३.४.११७ तक के सूत्रों के द्वारा जो प्रत्यय कहे जा रहे हैं, उनमें से तिभिन्न प्रत्ययों की केवल कृत् संज्ञा है। कर्तृकर्मणोः कृति (२.३.६५) - कृत् प्रत्ययों के योग में अनुक्त कर्ता और अनुक्त कर्म में षष्ठी होती है। ग्रन्थस्य पाठकः । ग्रन्थस्य पठिता। कटस्य कर्ता । जगतः कर्ता। (इसके आधार पर ही कृदन्तों के योग में आगे विभक्तियों का निर्णय करें।) ण्वुल्तृचौ - (३.१.१३३) - समस्त धातुओं से कर्ता अर्थ में ण्वुल तथा तृच् प्रत्यय होते हैं। करोति इति कारकः (कृ + ण्वुल्), पठति इति पाठकः (पठ् + ण्वुल्) / करोति इति कर्ता (कृ + तृच्), पठति इति पठिता (पठ् + तृच्) ।
ल्यु, णिनि, अच् प्रत्यय
नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः - (३.१.१३४) - नन्द्यादि, ग्रह्यादि, पचादि धातुओं से यथासङ्ख्य करके ल्यु, णिनि तथा अच् प्रत्यय होते हैं। विशेष - यहाँ ध्यातव्य है कि नन्द्यादि, ग्रह्यादि, पचादि, इन गणों में धातु नहीं हैं, अपितु धातुओं से प्रत्यय लगाकर बने हुए शब्द हैं। अतः नन्द्यादि, ग्रह्यादि, पचादिगण पठित शब्दों से प्रत्ययों को हटाने के बाद जो धातु बच रहे हैं, उन्हीं धातुओं से क्रमशः ये ल्यु, णिनि तथा अच् प्रत्यय होते हैं, यह जानना चाहिये। नन्द्यादिगण पठित शब्दों से ल्यु प्रत्यय - (नन्दिवाशिमदिदूषिसाधिवर्धिशोभिरोचिभ्यो ण्यन्तेभ्यः संज्ञायाम् - वा.) - नन्द्, वाश्, मद्, दूष्, साध्, वृध्, शुभ, रुच्, इन ण्यन्त धातुओं से संज्ञा अर्थ प्रय होता है। नन्दयति इति नन्दनः । वाशयति इति वाशनः । इसी प्रकार - मदनः । दूषणः । साधनः । वर्धनः । शोभनः । रोचनः। (सहितपिदमेः संज्ञायाम् - वा.) - सह्, तप, दम् इन धातुओं से संज्ञा अर्थ __में ल्यु प्रत्यय होता है। सहनः । तपनः । दमनः।
- शेष नन्द्यादि धातुओं से कर्ता अर्थ में ल्यु होता है। विशेषेण भीषयति इति४४६ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ विभीषणः । लुनाति इति लवणः (लवणः में निपातनात् णत्व हुआ है।)। जल्पयति इति जल्पनः । इसी प्रकार - रमणः । दर्पणः । संक्रन्दनः। संकर्षणः । संहर्षणः । यवनः । पाय जिन शब्दों में कर्म उपपद है, उनमें कर्म उपपद में रहते हुए ‘कर्मण्यण्’ सूत्र से अण् प्राप्त था किन्तु उसे बाधकर इनसे ल्यु ही हो, इसलिये इन्हें पचादिगण में पढ़ा गण है - जनमर्दयति इति जनार्दनः। इसी प्रकार - मधुसूदनः। वित्तविनाशनः । कुलदमनः । शत्रुदमनः । ग्रह्यादिगण पठित शब्दों से णिनि प्रत्यय -ः ग्रह्यादिगण इस प्रकार है - गृह्णातीति ग्राही (ग्रहण करनेवाला) (ग्रह + णिनि) / इसी प्रकार - उत्साही (उत्साह करनेवाला) / उद्वासी। उद्भासी । स्थायी। मन्त्री। सम्मर्दी । अपराध्यति इति अपराधी, उपरोधी। परिभावी, परिभवी (यहाँ वृद्धि का अभाव निपातन से होता है।)। रक्षश्रुवसवपशां नौ - (वा.) - नि शब्द उपपद में होने पर रक्ष, श्रु, वस्, वप्, शो धातु से कर्ता अर्थ में णिनि प्रत्यय होता है। निरक्षी, निश्रावी, निवासी, निवापी. निशायी। याचिव्याहृसंव्याहृव्रजवदवसांप्रतिषिद्धानाम् - (वा.)- नपूर्वक इन धातुओं से कर्ता अर्थ में णिनि प्रत्यय होता है। अयाची, अव्याहारी, असंव्याहारी, अव्राजी, अवादी, अवासी। अचामचित्तकर्तृकाणाम् - (वा.) - अचित्तकर्तृक अजन्त धातुओं से प्रतिषिद्ध अर्थ में णिनि प्रत्यय होता है। ‘न विद्यते चित्तं अस्य इति अचित्तः, स कर्ता येषां ते तथोक्ताः अजन्ताः धातवः’ । बिना चित्तवाला है कर्ता जिसका, ऐसे ‘अजन्त’ धातुओं से कर्ता अर्थ में णिनि प्रत्यय होता है। न करोति इति अकारी । इसी प्रकार - अहारी, अविनायी, अविनाशी, अविशायी। विशयी विषयी देशे - (वा.) - देश अभिधेय होने पर शीङ् स्वप्ने धातु से विशयी और षिञ् बन्धने धातु से देश अर्थ में विषयी शब्द निपातन से बनते हैं। यहाँ वृद्धि का अभाव निपातन से होता है। अभिभावी भूते - (वा.) - अभि उपसर्गपूर्वक भू धातु से कर्ता अर्थ होने पर भूतकाल में णिनि प्रत्यय होता है। अभिभूतवान् इति अभिभावी। पचादिगण पठित शब्दों से अच् प्रत्यय - यह पचादिगण में पढ़े हुए शब्दों की प्रकृति से होता है। देखिये कि पचादिगण अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (प्रथम पाद) ४४७ में धातु नहीं पढ़े गये हैं, अपितु धातुओं से अच् प्रत्यय लगाकर बने हुए शब्द पढ़े गये हैं। अतः इन शब्दों के भीतर जो धातु हैं, उनसे अच् प्रत्यय होता है, यह जानना चाहिये। पचादिगण पठित शब्द इस प्रकार हैं - पचादि - वच। वद। चल । शल । तप। पत । वस । क्षर। जर। मर। क्षम। सेव । मेष। कोप। मेधा। नर्त। व्रण। दर्श। दंश। दम्भ। जारभरा। श्वपचा। नदट । भषट् । गरट । प्लवट । चरट् । तरट् । चोरट् । ग्राहट । सूदट् । देवट । मोदट् । पचादि आकृतिगण है, आकृतिगण का तात्पर्य यह है कि अन्य धातुओं से भी कर्ता अर्थ में अच् प्रत्यय हो सकता है। पचादिगण पठित शब्दों से अच् प्रत्यय इस प्रकार होता है - पचति इति पचः (पच् + अच्) वपति इति वपः (वप् + अच्) वक्ति इति वचः (वच् + अच्) वदति इति वदः (वद् + अच्) चलति इति चलः (चल् + अच्) शलति इति शलः (शल् + अच्) तपति इति तपः (तप् + अच्) पतति इति पतः (पत् + अच्) वसति इति वसः (वच् + अच्) क्षरति इति क्षरः (क्षर् + अच्) इसी प्रकार - जरः । मरः । क्षमः । सेवः । मेषः । कोपः । मेधा। नतः । व्रणः । दर्शः । दंशः। दम्भः । आदि बनाइये। ‘शिवशमरिष्टस्य करे (४.४.१४३)’ सूत्र में कर’ शब्द कृ धातु से अच् प्रत्यय लगाकर बना है और इसी प्रकार कर्मणि घटोऽठच् सूत्र में घट’ शब्द घट धातु से अच् प्रत्यय लगकार बना है इससे यह ज्ञापित होता है कि पचादिगण पठित धातुओं के अलावा अन्य धातुओं से भी अच् प्रत्यय देखा जाता है। ‘यडोऽचि च (२.४.७४)’ सूत्र में अच् परे होने पर यङ् के लुक का विधान है। अतः यङन्त धातुओं से भी अच् प्रत्यय होता है। यथा - चेक्रीय + अच् - चेक्रियः / लोलूय + अच् - लोलुवः / पोपूय + अच् - पोपुवः । इनमें यङ् का लुक् होकर, न धातुलोप आर्धधातुके सूत्र से गुण का निषेध होकर ‘अचिश्नुधातुभ्रुवां य्वोरियडुवङौं’ सूत्र से इयङ् तथा उवङ् होते हैं। चरिचलिपतिवदीनां वा द्वित्वमच्याक् चाभ्यासस्येति वक्तव्यम् (वा.) - अच् परे होने पर इन धातुओं को द्वित्व होकर अभ्यास को आकच् का आगम होता है – चराचरः / चलाचलः / पतापतः / वदावदः । ४४८ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ हन्तेर्घत्वं च (वा.) - अच् परे होने पर हन् धातु के अभ्यास को कुत्व होकर तथा अभ्यास के उत्तर को अभ्यासाच्च से कुत्व होकर घनाघनः बनता है। पाटेर्णिलुक्चोक्च दीर्घश्चाभ्यासस्य - (वा.) - अच् परे होने पर णिजन्त पट् धातु को द्वित्वादि होकर - पाटूपटः । द्वित्व न होने पर अच् प्रत्यय लगाकर - चरः, चलः, पतः, वदः, हलः, पाटः भी बन सकते हैं।
- अच् परे होने पर रात्रि उपपद में होने पर रात्रेः कृति विभाषा’ सूत्र से विकल्प से मुम् का आगम करके रात्रिंचरः, रात्रिचरः शब्द बनते हैं। __ जारं बिभर्ति इति जारभरा और श्वानं पचति इति श्वपचा इत्यादि में कर्म उपपद होने के कारण कर्मण्यण से अण प्राप्त था उसे बाधने के लिये पचादिगण में उसका पाठ किया गया। ध्यान रहे कि इस गण में कुछ शब्द टित् इसलिये पढ़े गये हैं, कि उनसे टिड्ढाणञ्. सूत्र से स्त्रीलिङ्ग में डीप् हो। अतः जो टित् नहीं हैं, उनसे ‘अजाद्यतष्टाप्’ से टाप् ही होता है। नदट् - नदति इति नदः (नदी) (नद् + अच्) / देवट - दीव्यति इति देवः दिवी) (दिव् + अच्) / प्लवट - प्लवते इति प्लवः (प्लु + अच्)। इसी प्रकार - भषट् (भष् + अच्) / गरट (गृ + अच्) / चरट (चर् + अच्) / तरट् (तृ + अच्) / चोरट् (चुर् + अच्) / ग्राहट (ग्रह् + अच्) / सूदट् (सूद् + अच्) / मोदट् (मुद् + अच्)। पचादि आकृतिगण है, आकृतिगण का तात्पर्य यह है कि इन शब्दों के अलावा भी इस प्रकार का कोई शब्द दिखे तो उसे इन्हीं में सम्मिलित कर देना चाहिये। तात्पर्य यह है कि अच् प्रत्यय सभी धातुओं से होता है। तो फिर प्रश्न होता है कि गणपाठ क्यों किया ? पचादिगण का पाठ इसलिये किया कि श्वपचा, जारभरा इत्यादि में कर्मण्यण् से अण् प्राप्त था, वह न हो। अतः अण् को बाधने लिये इनका पचादिगण में पाठ हुआ है। . सेव, मेष, कोप आदि में अगले सूत्र ‘इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः’ से क प्रत्यय प्राप्त था, उसे बाधने लिये इनका पचादिगण में पाठ हुआ है। नदट, गरट, चरट, ग्राहट, इत्यादि का पचादिगण में पाठ टित्वात् स्त्रीलिङ्ग में डीप् करने के लिये हुआ है। देवट का पचादिगण में पाठ इन दोनों हेतुओं से हुआ है। अन्य का पाठ प्रपञ्चार्थ है। अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (प्रथम पाद) ४४९ अज्विधिः सर्वधातुभ्यः पठ्यन्ते च पचादयः। करी अण्बाधनार्थमेव स्यात्सिध्यन्ति श्वपचादयः।।
क प्रत्यय
इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः - (३.१.१३५ ) - जिनकी उपधा में इक् प्रत्याहार है उन धातुओं से तथा ज्ञा, प्रीञ्, कृ धातुओं से कर्ता अर्थ में क प्रत्यय होता है। विक्षिपति इति विक्षिपः (विघ्न डालने वाला) (वि + क्षिप् + क) / विलिखिति इति विलिखः (कुरेदने वाला) / (वि + लिख + क) / जानाति इति ज्ञः (जानने वाला) (ज्ञा + क) / प्रीणाति इति (प्रिय) (प्री + क)/ किरति इति किरः (सुअर) (कृ + क)। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘क’ की अनुवृत्ति ३.१.१३६ तक जायेगी। आतश्चोपसर्गे - (३.१.१३६) - उपसर्ग उपपद होने पर आकारान्त धातुओं से क प्रत्यय होता है। प्रतिष्ठते इति प्रस्थः (प्रस्थान करने वाला) (प्र + स्था + क) / सुष्ठु ग्लायति इति सुग्लः (ज्यादा ग्लानि करने वाला) (सु + ग्ला+क) / सुष्ठु म्लायति इति सुम्लः (सु + म्लै + क)।
श प्रत्यय
पाघ्राध्माधेदृशः शः - (३.१.१३७) - पा पाने, घ्रा, ध्मा, धेट, दृश् धातुओं से कर्ता अर्थ में श प्रत्यय होता है। सोपसर्ग पा, घ्रा, ध्मा, धेट् धातुओं से पूर्वसूत्र से क प्रत्यय प्राप्त था और अनुपसर्ग इन धातुओं से ‘श्यायधासु-’ सूत्र से ण प्रत्यय प्राप्त था तथा दृश् धातु से उपर्युक्त सूत्र से क प्रत्यय प्राप्त था इन सबका यह अपवाद है। श प्रत्यय सार्वधातुक है, अतः इन सारे धातुओं से विकरण लगेगा ही। . उत्पिबति इति उत्पिबः (उत् + पा + श) / इसी प्रकार - उत्पश्यति इति उत्पश्यः । विपश्यति इति विपश्यः, आदि। विजिघ्रति इति विजिघ्रः (वि + घ्रा + श)। उद्धमति इति उद्धमः, (उत् + ध्मा + श) / इसी प्रकार - विधमति इति विधमः उद्धयति इति उद्धयः (उत् + धे + श) / इसी प्रकार - विधयति इति विधयः । उपसर्ग न होने पर भी इन धातुओं से श प्रत्यय ही होगा - जिघ्रति इति जिघ्रः । धयति इति धयः । पश्यति इति पश्यः, आदि। ४५० अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ जिघ्रतेः संज्ञायां प्रतिषेधो वाच्यः - (वा.) - सोपसर्ग घ्रा धातु से संज्ञा अर्थ में श प्रत्यय का प्रतिषेध होता है। अतः ‘आतश्चोपसर्गे’ सूत्र से क प्रत्यय होकर व्याजिघ्रति इति व्याघ्रः बनता है। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘श’ की अनुवृत्ति ३.१.१३९ तक जायेगी। अनुपसर्गाल्लिम्पविन्दधारिपारिवेधुदेजिचेतिसातिसाहिभ्यश्च- (३.१.१३८) उपसर्गरहित लिप उपदेहे, विद्लु लाभे तथा णिच्प्रत्ययान्त धृञ् धारणे, पृ पालनपूरणयोः, विद चेतनाख्याननिवासेषु, उद्पूर्वक एजृ कम्पने, चिती संज्ञाने, साति, षह मर्षणे इन धातुओं से भी श प्रत्यय होता है। लिम्पतीति लिम्पः (लिप् + श)। इसी प्रकार - विन्दतीति विन्दः । धारयतीति धारयः । पारयतीति पारयः । वेदयतीति वेदयः । उदेजयतीति उदेजयः । चेतयतीति चेतयः । सातयतीति सातयः । साहयतीति साहयः। उपसर्ग होने पर अच् प्रत्यय ही होगा। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘अनुपसर्गात्’ की अनुवृत्ति ३.१.१४० तक जायेगी। नौ लिम्पेरिति वक्तव्यम् - (वा.) - नी उपपद में होने पर तुदादिगण के लिप् धातु से श प्रत्यय होता है। निलिम्पा नाम देवाः । (नि + लिप् + श) गवादिषु विन्देः संज्ञायाम् - (वा.) - गो आदि उपपद में होने पर तुदादिगण के विद् धातु से भी श प्रत्यय होता है। गोविन्दः । (गो + ङस् + विद् + श)। इसी प्रकार - अरविन्दः। ददातिदधात्योर्विभाषा - (३.१.१३९)- अनुपसर्ग डुदाञ् और डुधाञ् धातुओं से विकल्प से श प्रत्यय होता है। पक्ष में ‘श्याव्यधा’. (३.१.१४१) से ण भी हो सकता है। दा + श = ददः / दा + ण = दायः । धा + श = दधः / धा + ण = धायः । अनुवृत्ति - यहाँ से विभाषा’ की अनुवृत्ति ३.१.१४० तक जायेगी।
ण प्रत्यय
ज्वलतिकसन्तेभ्यो णः - (३.१.१४०) - अनुपसर्ग ज्वलादि धातुओं से कर्ता अर्थ में विकल्प से ण प्रत्यय होता है। पक्ष में अच् भी हो सकता है। ज्वलतीति ज्वालः, ज्वलः । चलति इति चालः, चलः । अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (प्रथम पाद) ४५१ भ्वादिगण का ज्वलादि अन्तर्गण - ज्वल् चल् जल्ट ल् ट्वल स्थल हल् नल् पल् बल् पुल् कुल् शल् हुल् पत् क्वथ् पथ् मथ् वम् भ्रम् क्षर् सह् रम् सद् शद् क्रुश् कुच् बुध रुह् कस्। तनोतेर्णस्योपसंख्यानम् - (वा.) - तन् धातु से भी कर्ता अर्थ में ण प्रत्यय होता है। अवतनोतीत्यवतानः । (इसमें विभाषा तथा अनुपसर्ग का सम्बन्ध नहीं है।) उपसर्ग होने पर अच् प्रत्यय ही होगा। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘ण’ की अनुवृत्ति ३.१.१४३ तक जायेगी। श्याद्वयधास्त्रसंस्त्रवतीणवसावहलिहश्लिषश्वसश्च - (३.१.१४१) - श्या श्यैङ् धातु, आकारान्त धातु, व्यध् धातु, आङ्पूर्वक और संपूर्वक स्रु, अतिपूर्वक इण, अवपूर्वक षो, अवपूर्व हृ, लिह्, श्लिष्, श्वस् इन धातुओं से कर्ता अर्थ में ण प्रत्यय होता है। अव + श्यै + ण = अवश्यायः, प्रति + श्यै + ण = प्रतिश्यायः । __ आकारान्त धातुओं से - दा + ण = दायः, धा + ण = धायः । व्यध् + ण = व्याधः / आ + सु + ण = आस्रावः / सं + सु + ण = संस्रावः / अति + इ + ण = अत्यायः / अव + सो + ण = अवसायः / अव + हृ + ण = अवहारः / लिह् + ण = लेहः / श्लिष् + ण = श्लेषः / श्वस् + ण = श्वासः । श्यैङ् धातु से आकारान्त होने के कारण ‘श्याव्यधा-’ (३.१.१४१) सूत्र से ही ण प्रलय प्राप्त था, तब भी उसे इसमें इसलिये रखा है कि आतोऽनुपसर्गे कः से होने वाला क प्रत्यय भी उसे न हो और क को बाध करके ण प्रत्यय ही हो। दुन्योरनुपसर्गे - (३.१.१४२) - उपसर्गरहित टुदु उपतापे तथा णीञ् प्रापणे धातुओं से ण प्रत्यय होता है। दुनोतीति दावः (दु + ण), नयतीति नायः (नी + ण)। उपसर्ग होने पर अच ही होगा - प्रदवः (द + अच). प्रणयः (प्र + नी+ ण)। विभाषा ग्रहः - (३.१.१४३) - ग्रह् धातु से विकल्प से ण और अच् प्रत्यय होते हैं। गहणाति इति ग्राहः (ग्रह + ण) ग्रहः (ग्रह + अच)। यह व्यवस्थित विभाषा है इसीलिये जलचर (मगर) अर्थ में ण प्रत्यय ही होकर ग्राहः बनेगा और नक्षत्र अर्थ में अच् प्रत्यय होकर ग्रहः ही बनेगा। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘ग्रहः’ की अनुवृत्ति ३.१.१४४ तक जायेगी। ४५२ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ भवतेश्चेति वक्तव्यम् - (वा.)- भू धातु से भी विकल्प से ण और अच् प्रत्यय होते है। भवतीति भावः (भू + ण), भवः (भू + अच्)।। गेहे कः - (३.१.१४४) - ग्रह् धातु से गेह = गृह कर्ता वाच्य होने पर क प्रत्यय होता है। गृह्णातीति गृहम् वेश्म (घर) (ग्रह + क)। गृह्णन्ति इति गृहाः दाराः (स्त्रियाँ) (ग्रह् + क)।
ष्वुन् प्रत्यय
शिल्पिनि वुन् - (३.१.१४५) - नृतिखनिरजिभ्यः परिगणनं कर्तव्यम् नृत्, खन्, रज्ज् धातुओं से शिल्प कर्ता अभिधेय हो तो ष्वुन् प्रत्यय होता है। ध्यान रहे कि ष्वुन् प्रत्यय षित् है। अतः ष्वुन् प्रत्यय से बने हुए शब्दों से स्त्रीत्व की विवक्षा में ‘षिद्गौरादिभ्यश्च’ सूत्र से ङीष् प्रत्यय ही होगा। नृत् + ष्वुन् = नर्तकः, नर्तकी। खन् + ष्वुन् = खनकः, खनकी। रज् + ष्वुन् = रजकः, रजकी। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘शिल्पिनि’ की अनुवृत्ति ३.१.१४७ तक जायेगी। गस्थकन् - (३.१.१४६) - गै धातु से शिल्प कर्ता अभिधेय हो तो थकन् प्रत्यय होता है। गाथकः, गाथिका। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘गः’ की अनुवृत्ति ३.१.१४७ तक जायेगी। ण्युट् च - (३.१.१४७) - गा धातु से शिल्प कर्ता अभिधेय हो तो ण्युट प्रत्यय होता है। गायनः। ध्यान रहे कि ण्युट प्रत्यय टित् है। अतः ण्युट प्रत्यय से बने हुए शब्दों से स्त्रीत्व की विवक्षा में ‘टिड्ढाणञ्.’ सूत्र से डीप् प्रत्यय ही होगा - गायनी। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘ण्युट्’ की अनुवृत्ति ३.१.१४८ तक जायेगी। हश्च व्रीहिकालयोः - (३.१.१४८) - व्रीहि और काल अभिधेय हो तो ओहाक् तथा ओहाङ् इन दोनों धातुओं से कर्ता अर्थ में ण्युट प्रत्यय होता है। जहति उदकं इति हायना नाम व्रीहयः (हायना नाम का धान्य विशेष) । जिहीते भावान् इति हायनः संवत्सरः (जो सारे भावों को छोड़ता जाये ऐसा संवत्सर अर्थात् वर्ष)। प्रसृल्वः समभिहारे वुन् - (३.१.१४९)- , स, लू, इन धातुओं से समभिहार अर्थ में वुन् प्रत्यय होता है। समभिहार का अर्थ यहाँ साधुकारित्व है। अतः जो काम को अष्टाध्यायी तृतीयाध्याय (प्रथम पाद) ४५३ एक बार ही करे और अच्छे से करे, उससे वुन् प्रत्यय होगा। साधु प्रवते इति प्रवकः / इसी प्रकार सरति इति सरकः / लुनाति इति लवक;। अतः जो बार बार भी करे और ठीक से न करे वहाँ वुन् प्रत्यय नहीं होगा। अनुवृत्ति - यहाँ से ‘वुन्’ की अनुवृत्ति ३.१.१५० तक जायेगी। आशिषि च - (३.१.१५०) - आशीः अर्थ गम्यमान होने पर धातुमात्र से वुन् प्रत्यय होता है। जीवताद् इति जीवकः (तुम बहुत जियो और आनन्द में रहो।) इसका प्रयोग लोट् लकार के जीवतात् के स्थान पर किया जाता है। इसी प्रकार नन्दतात् के स्थान पर नन्दकः आदि बनाइये। आशीः का अर्थ है ‘अप्राप्त अभीष्ट वस्तु की प्रार्थना अर्थात् इच्छा’ । यह प्रयोक्ता का धर्म है। आशासिता पिता आदि की ये उक्तियाँ हैं।