बहुलस्य भावः बाहुलकम् में मनोज्ञादित्वात् वुञ् प्रत्यय हुआ है। बाहुलक का अर्थ है - बहून् अर्थान् लाति इति बाहुलकम् । बहुल अर्थ इस प्रकार हैं - क्वचिद् प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिः, क्वचिद् विभाषा क्वचिदन्यदेव । विधेर्विधानं बहुधा समीक्ष्य चतुर्विधं बाहुलकं वदन्ति ।। बाहुलक का उपयोग यही है कि सारे वैदिक और लौकिक शब्दों का व्युत्पादन होकर उनके प्रकृति और प्रत्यय अलग अलग दिखने लगे। अनेक आचार्यों ने वैदिक रूढ़ शब्दों का व्युत्पादन किया है। जैसे कि यास्क ने निरुक्त में सारे शब्दों को धातुज अर्थात् ४३४ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ धातुजन्य लिखा है । शाकटायनाचार्य ने भी इसी का अनुगमन करके सारे शब्दों को व्युत्पन्न करने का यह विधान पाँच पादों में उणादि प्रत्ययों द्वारा बतलाया है, किन्तु उणादि पञ्चपादी से भी सारे शब्द व्युत्पन्न नहीं हो जाते हैं। अतः उणादि के द्वारा होने वाली व्युत्पत्ति भी सशेष है निःशेष नहीं। इसीलिये बहुलम् कहकर उन्होंने यह विधि बतलायी कि यन्न पदार्थविशेषसमुत्थं प्रत्ययतः प्रकृतेश्च तदूह्यम्’ । जहाँ शब्द में परभाग अर्थात् प्रत्यय भाग प्रसिद्ध प्रत्ययों के रूप में दिखलायी दे वहाँ केवल प्रकृति की कल्पना करना चाहिये । जैसे ‘हृषेरुलच’ सूत्र से हर्षुलः शब्द तो सिद्ध हो जाता है किन्तु शकुलः शब्द नहीं बन पाता है। अतः हमें चाहिये कि उक्त उलच् प्रत्यय को तो जो का त्यों ले लें तथा ‘शकि’ प्रकृति की कल्पना कर लें, इससे शकुलः बन जायेगा। जहाँ पूर्वभाग प्रकृति के रूप में स्पष्टतः दिखे और प्रत्यय पहिचान में नहीं आये, वहाँ प्रत्यय भाग की कल्पना कर लें । यथा ऋफिडः, ऋफिड्डः ये वैदिक शब्द हैं, ऋ धातु तो प्रसिद्ध है इससे फिड् और फिड्ड प्रत्यय कल्पित कर लेना चाहिये। इसी प्रकार गुण, वृद्धि, गुणवृद्धि निषेध, सम्प्रसारण, नलोप आदि कार्यों को देखकर तत् तत् अनुबन्धों की कल्पना कर लें। यथा - ऋफिडः आदि शब्दों में गुण नहीं हुआ है अतः यह ऊह करें कि प्रत्यय कित् है । इस प्रकार सारा उणादिशास्त्र ऊहात्मक है परन्तु ध्यान रखें कि यह सारा ऊह अनादिप्रयुक्त संज्ञाओं को सिद्ध करने के लिये ही है, सार्वत्रिक नहीं। अर्थात् जो संज्ञायें किसी के द्वारा सिद्ध नहीं की जा रही हैं, उन्हें सिद्ध करने के लिये है, नये नये शब्द रचने के लिये नहीं। संज्ञासु धातुरूपाणि प्रत्ययाश्च ततः परे। कार्याद् विद्यादनूबन्धमेतच्छास्त्रमुणादिषु ।।। बाहुलक को आगे ‘उणादयो बहुलम् ३.३.१’ सूत्र में देखें। कृत्यल्युटो बहुलम् (३.३.११३) - कृत्य प्रत्यय और ल्युट् प्रत्यय जिन प्रकृतियों से जिन अर्थों में विहित हैं, उनसे भिन्न अर्थों में भी बहुल करके हो जाते हैं। यथा - स्नान्ति अनेन स्नानीयं चूर्णम् । यहाँ ल्युट प्रत्यय करण अर्थ में हुआ है। दीयते अस्मै दानीयो विप्रः । यहाँ ल्युट प्रत्यय सम्प्रदान अर्थ में हुआ है। कृत्य प्रत्ययों के अलावा, शेष प्रत्यय जिस जिस अर्थ में होंगे, वे अर्थ उनके साथ वहीं बतलाये जायेंगे।
- अब प्रत्यय लगाने वाले सूत्र कहते हैं। इनमें अष्टाध्यायी क्रम से सूत्र, सूत्रार्थ और उदाहरण हैं, प्रक्रिया नहीं । प्रत्ययों को धातुओं में लगाने की प्रक्रिया को प्रक्रिया खण्ड में देखें - अष्टाध्यायी सहजबोध, तृतीयखण्ड कृदन्तप्रकरण - उत्तरार्ध अष्टाध्यायी के तृतीय अध्याय के सूत्रों की यथाक्रम व्याख्या