अब तृतीय अध्याय के सूत्रों की यथाक्रम व्याख्या दे रहे हैं। किन्तु इसमें प्रवेश करने के पहिले पाणिनीय अष्टाध्यायी के सूत्रों के अर्थों को समझने की विधि हमें जान लेना चाहिये। पाणिनीय अष्टाध्यायी का प्रथम विज्ञान यह है कि इसकी रचना इतने लाघव से की गई है कि यदि बात एक अक्षर में पूरी हो जाती है, तो वे डेढ़ अक्षर नहीं कहते और यदि बात दो अक्षर में पूरी हो जाती है, तो वे ढाई अक्षर नहीं कहते। __ इसके लिये उन्होंने जिन दो विधियों का आश्रय लिया है, वे हैं - अधिकार और अनुवृत्ति। ये अधिकार और अनुवृत्ति ही वस्तुतः पाणिनीय अष्टाध्यायी के प्राण हैं। __ अनुवृत्ति - अष्टाध्यायी में सूत्रों को ऐसी व्यवस्था से बैठाया गया है, कि यदि ऊपर के सूत्रों के पदों की आवश्यकता नीचे के सूत्रों को है, तो उन्हें दोबारा कहने की आवश्यकता नहीं है। वे नीचे के सूत्र ऊपर के सूत्रों के पदों को खींचकर ले सकते हैं और अपना अर्थ पूर्ण कर सकते हैं। जैसे - उपदेशेजनुनासिक इत्’ यह सूत्र है। इसमें इत् पद है। सात सूत्र और ऐसे हैं, जिन्हें इत् पद की आवश्यकता है। तो आचार्य आठ बार इत्, इत् न कहकर एक ही सूत्र में ‘इत्’ कहते हैं, और उसी के ठीक बाद में हलन्त्यम्, न विभक्तौ तुस्माः, षः प्रत्ययस्य, आदिर्बिटुडवः, चुटू, लशक्वतद्धिते, तस्य लोपः, इन ७ सूत्रों को बैठा देते हैं । अतः ये सातों सूत्र ‘उपदेशेजनुनासिक इत्’ सूत्र से ‘इत्’ पद को खींच लेते हैं और अपने अर्थ को पूरा कर लेते हैं। इसी ऊपर से खींचने’ को हम कहते हैं कि ‘उपदेशेजनुनासिक इत्’ सूत्र की ‘अनुवृत्ति’ ‘हलन्त्यम्’, आदि सूत्रों में जाती है। इस अनुवृत्ति से लाभ यह होता है कि एक ही शब्द को बार बार नहीं कहना पड़ता है और सूत्रों के अर्थ भी नहीं रटना पड़ते हैं।
अधिकार
जब एक ही शब्द की या अनेक शब्दों की अनुवृत्ति बहुत दूर तक पचासों सूत्रों में ले जाना आवश्यक होता है, तब आचार्य उस शब्द का एक अलग अधिकार सूत्र’ बना देते हैं और उसके अधिकार की आगे पीछे की उन दो सीमाएँ निर्धारित कर देते हैं, जहाँ से जहाँ तक, उसका अधिकार होता है। इन दो सीमाओं के भीतर के प्रत्येक सूत्र में जाकर अष्टाध्यायी की संरचना ४२१ वह अधिकार सूत्र’ पूरा का पूरा जुड़ जाता है, जिसके मिल जाने से उन सारे सूत्रों का अर्थ पूर्ण हो जाता है। जैसे - अष्टाध्यायी में १६८१ सूत्र ऐसे हैं, जो ‘प्रत्यय’ लगाते हैं। तो आचार्य १६८१ बार प्रत्येक सूत्र में प्रत्यय होता है’, ‘प्रत्यय होता है’, ऐसा न कहकर सबसे प्रारम्भ में, एक बार ‘प्रत्ययः - ३.१.१’ कह देते हैं और उसकी अन्तिम सीमा निष्प्रवाणिश्च - ५. ४.१६०, निर्धारित कर देते हैं, कि ‘प्रत्ययः’ का अधिकारक्षेत्र ३.१.१ से ५.४.१६० के बीच निश्चित हो जाता है। इन दो सीमाओं के बीच में वे उन सारे सूत्रों को रख देते हैं, जो सूत्र प्रत्यय लगा रहे हैं। ऐसा करने से लाभ यह होता है कि १६८१ बार प्रत्ययः, प्रत्ययः, न कहकर केवल एक बार प्रत्ययः’ कहना पड़ता है, और वह प्रत्ययः’ शब्द अपने अधिकार के सूत्रों में जा जाकर स्वयं अन्वित होता जाता है। इसी प्रकार - अष्टाध्यायी के तृतीय अध्याय में ६३१ सूत्र हैं। जिनमें से ५४१ सूत्र क्रमशः ऐसे हैं, जो ‘धातु से’ प्रत्यय लगाते हैं। अतः ५४१ बार ‘धातु से’ प्रत्यय होता है, ‘धातु से’ प्रत्यय होता है, ऐसा न कहकर वे एक सूत्र बना देते हैं - धातोः (३.१.९१)। इसका अर्थ है - धातु से। बस यहाँ से वे सारे प्रत्यय कहना प्रारम्भ कर देते हैं, जो प्रत्यय धातुओं से लगाये जाते हैं। अब बार बार धातोः, धातोः कहने की आवश्यकता नहीं है। यह धातोः’ का अधिकार ३.१.९१ से ३.४.११७ तक चलता है और यह ‘धातोः’ सूत्र इन सारे सूत्रों में जाकर लगता रहता है अर्थात् अनुवृत्त होता है। इस अधिकार से पहिले और इस अधिकार के बाद न तो ‘धातोः सूत्र जाता है, न ही इस अधिकार के बाहर किसी भी प्रत्यय का विधान ‘धातुओं से’ अष्टाध्यायी होता है। सूत्र में क्रिया न होने पर कृ, भू या अस्, धातुओं का अध्याहार अर्थात् कल्पना कर ली जाती है। जैसे - ण्वुल्तृचौ ३.१.१३३ सूत्र में ‘धातोः’, ‘प्रत्ययः’, ‘परश्च’ ‘आधुदात्तश्च’ ये चार अधिकारसूत्र जाकर मिल जाते हैं। इनके अर्थ को बतलाने वाला कर्तरि कृत्’ सूत्र भी जाकर इससे मिलता है, तो इन पाँचों को ‘ण्वुल्तृचौ’ से मिलाकर तथा ‘भवतः’ इस क्रियापद की कल्पना करके सूत्र का अर्थ बनता है - ‘धातुओं से परे कर्ता अर्थ में ण्वुल् और तृच् प्रत्यय होते हैं और वे आधुदात्त होते हैं’। ये अधिकार सूत्र वस्तुतः जहाँ पढ़े जाते हैं वहाँ उनका कोई अर्थ नहीं होता है ४२२ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ किन्तु अपने आगे के जिन सूत्रों में जाकर वे अन्वित होते हैं, उन सूत्रों को वाक्यार्थ प्रदान dijrsga इसीलिये अधिकार का लक्षण है - स्वदेशे फलशून्यत्वे सति परदेशे वाक्यार्थबोधजनकत्वम् अधिकारत्वम् ।
- सर्वत्र पाणिनीय अष्टाध्यायी के सूत्रों के अर्थ, अधिकार और अनुवृत्ति को मिलाकर ही बनते हैं। इससे अतिलाघव होता है और सूत्रों में एक ही शब्द को बार बार नहीं कहना पड़ता। इस प्रकार बड़ी से बड़ी बात भी छोटे से छोटे में कह दी जाती है, तो वह सूत्र बन जाती है। हम आगे सूत्रों के अर्थ बतलायेंगे तो अधिकार और अनुवृत्ति तथा उनकी सीमाएँ बतलाते चलेंगे। अतः हमें कृत् प्रत्यय विधायक सूत्रों के अर्थ जानने के लिये, उन अधिकार सूत्रों का अर्थ भी जान लेना चाहिये, जिनका अधिकार, इन कृत् प्रत्यय विधायक सूत्रों में जाता है और जिन्हें मिलाकर ही कृत् प्रत्यय विधायक सूत्रों के अर्थ पूर्ण होते हैं। ये सूत्र इस प्रकार हैं -
प्रत्ययाधिकार
प्रत्ययः (३.१.१)- यह अष्टाध्यायी के तृतीय अध्याय का प्रथम सूत्र है। इसका अधिकार ३.१.१ से प्रारम्भ होकर ५.४.१६० (निष्प्रवाणिश्च) तक चलता है। _ इस प्रकार अष्टाध्यायी के तृतीय, चतुर्थ तथा पञ्चम अध्यायों में प्रत्ययः’ का अधिकार है। इसीलिये अष्टाध्यायी के ये तीन अध्याय प्रत्ययाध्याय कहलाते हैं। तीन अध्यायों के इन सारे सूत्रों में सारे प्रत्यय कह दिये गये हैं। __प्रत्यय का अर्थ है, जो धातुओं अथवा प्रातिपदिकों से लगें, और लगकर उनके अर्थों में कुछ न कुछ वृद्धि कर दें, उन्हें प्रत्यय कहते हैं। जैसे - कृ धातु का अर्थ है करना’, किन्तु कृ में तृच् लगाने पर जो कृ + तृ = कर्ता, शब्द बनता है, उसका अर्थ होता है ‘करने वाला’ । इसी प्रकार - कृ + क्त्वा = का अर्थ होता है करके’ । कृ + तव्य का अर्थ होता है करने के योग्य’, आदि। दशरथ का अर्थ है अयोध्या के राजा। पर जब दशरथ शब्द से इञ् प्रत्यय लगाकर ‘दाशरथि’ शब्द बनता है, तो इसका अर्थ हो जाता है ‘दशरथ का अपत्य’ (सन्तान) अर्थात् राम, लक्ष्मण, भरत आदि । कौसल्या का अर्थ है दशरथ की पत्नी। पर जब कौसल्या शब्द से.ढक प्रत्यय लगाकर कौसल्येय’ शब्द बनता है, तो इसका अर्थ हो जाता है कौसल्या का अपत्य’ (सन्तान) अर्थात् राम।अष्टाध्यायी की संरचना ४२३ इस प्रत्ययाधिकार में कहे जाने वाले प्रत्यय दो प्रकार के हैं । धातुओं से लगने वाले प्रत्यय तथा प्रातिपदिकों (किसी भी अर्थवान् शब्द) से लगने वाले प्रत्यय । धातुओं से लगने वाले प्रत्यय - धातुओं से लगने वाले प्रत्यय, अष्टाध्यायी के तृतीय अध्याय में हैं। ये चार प्रकार के हैं। १. धातुप्रत्यय - सन्, क्यच् ,काम्यच्, क्यष्, क्यङ्, क्विप्, णिङ्, ईयङ्, णिच्, यक्, आय, यङ्, ये १२ प्रत्यय धातुप्रत्यय कहलाते हैं। ये प्रत्यय जिस भी धातु अथवा प्रातिपदिक से लगते हैं, उसे धातु बना देते हैं, अर्थात् उनकी ‘सनाद्यन्ता धातवः’ सूत्र से धातु संज्ञा कर देते हैं। ये प्रत्यय अष्टाध्यायी में ३.१.५ से ३.१.३२ तक के सूत्रों में हैं। __२. विकरण प्रत्यय - धातु और प्रत्यय के बीच में आकर बैठने वाले प्रत्यय को विकरण कहते हैं । विकरण का ही दूसरा नाम गणचिह्न भी है। ये प्रत्यय अष्टाध्यायी में ३.१.३३ से ३.१.९० तक के सूत्रों में हैं। ३. तिङ् प्रत्यय - लट्, लिट, लुट, लुट, लेट, लोट, लङ्, लिङ्, लुङ् तथा लुङ् । इन दस लकारों के स्थान पर होने वाले जो प्रत्यय हैं, उन्हें ही तिङ् प्रत्यय कहते हैं। ये प्रत्यय अष्टाध्यायी में ‘लस्य’ सूत्र के अधिकार में अर्थात् ३.४.७७ से ३.४.११७ तक के सूत्रों के बीच हैं। ४. कृत् प्रत्यय - इन्हें जानने के लिये हमें सावधानी से यह समझना चाहिये कि - अष्टाध्यायी के तृतीय अध्याय में दो धात्वधिकार हैं -
धात्वधिकार
प्रथम धात्वधिकार - प्रथम धात्वधिकार ‘धातोरेकाचो हलादेः क्रियासमभिहारे यङ् (३.१.२२)’ इस सूत्र के धातोः पद से प्रारम्भ होता है और ‘कुषिरजोः प्राचाम् श्यन् परस्मैपदं च (३.१.९०)’ सूत्र तक चलता है। इस प्रथम धात्वधिकार में धातुप्रत्यय तथा विकरण प्रत्यय कहे गये हैं। अतः इस अधिकार में कहा गया कोई भी प्रत्यय, कृत् प्रत्यय नहीं है। इनकी व्याख्या ‘अष्टाध्यायी सहज बोध’ के प्रथम तथा द्वितीय खण्डों में की जा चुकी है। अतः यहाँ द्वितीय धात्वधिकार के सूत्रों की व्याख्या ही देंगे। द्वितीय धात्वधिकार - द्वितीय धात्वधिकार ‘धातोः (३.१.९१)’ इस सूत्र से लेकर ‘छन्दस्युभयथा (३.४.११७)’ सूत्र तक चलता है। इसमें दो प्रकार के प्रत्यय हैं। तिङ् प्रत्यय और कृत् प्रत्यय। ४२४ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ कृदतिङ् - (३.१.९३) - इस द्वितीय धात्वधिकार में कहे गये प्रत्ययों में जो प्रत्यय तिङ् नहीं हैं, उनका नाम ही कृत् प्रत्यय है। यथा - ण्वुल्, तृच्, क्तिन्, तव्य, अनीयर्, क्त्वा आदि। ये कृत् प्रत्यय १२४ हैं। ध्यान रहे कि प्रथम धात्वधिकार के किसी भी प्रत्यय का नाम कृत् नहीं हैं। परश्च (३.१.२) - परश्च का अर्थ यह है कि इन तीन अध्यायों में धातुओं तथा प्रातिपदिकों से जो प्रत्यय कहे जाते हैं, वे धातुओं तथा प्रातिपदिकों के बाद ही लगते हैं। आधुदात्तश्च (३.१.३) - इन तीनों अध्यायों में जो प्रत्यय कहे गये हैं वे आधुदात्त होते हैं। अनुदात्तौ सुप्पितौ (३.१.४) - यह सूत्र पूर्वसूत्र का अपवाद है। इसके अनुसार इन तीनों अध्यायों में कहे गये प्रत्ययों में से, जो सुप् तथा पित् प्रत्यय हैं वे अनुदात्त होते हैं। (अर्थात् जो प्रत्यय सुप् तथा पित् नहीं होते हैं, वे आधुदात्त होते हैं।)
निपातन
जब आचार्य ‘ण्वुल्तृचौ’ सूत्र बनाकर कहते हैं कि संसार के जितने भी धातु हैं, उनसे कर्ता अर्थ में ण्वुल और तृच् प्रत्यय होते हैं, तब वे वस्तुतः संसार के अनन्त धातुओं से ण्वुल् और तृच् प्रत्यय लगाकर इस एक सूत्र से अनन्त शब्द बना डालते हैं। किन्तु कभी कभी ऐसा भी हो जाता है कि एक ही शब्द बनाने के लिये अनेक सूत्रों की आवश्यकता पड़ जाती है। जैसे - ‘सु’ धातु से ‘करण अर्थ में’ ‘क्यप् प्रत्यय’ लगाकर राजसूय शब्द बनाना है। अब देखिये कि क्यप् प्रत्यय तो भावकर्म अर्थों में होता है। किन्तु राजसूय’ शब्द में करण अर्थ में क्यप् प्रत्यय करना है। तो ‘सु’ धातु से करण अर्थ में क्यप् प्रत्यय के लिये एक सूत्र चाहिये। क्यप् लगने पर ह्रस्वान्त धातुओं को तुक् का आगम होता है। यहाँ वह भी नहीं करना है, अतः तुक् के आगम का निषेध करने वाला भी एक सूत्र चाहिये। सु धातु यहाँ दीर्घ हो गया है, अतः उसे दीर्घ करने वाला भी एक सूत्र चाहिये। इतने सारे सूत्र बनाकर भी शब्द केवल एक ही बनेगा - ‘राजसूय’ । अतः ऐसी स्थिति में आचार्य यही उचित समझते हैं कि ऐसे अपवादभूत शब्दों को सूत्रों से बनाने के बजाय इन्हें बना बनाया ही स्वीकार कर लिया जाये। __ लाघव ही पाणिनीय व्याकरण का मूलाधार है। अतः आचार्य देखते हैं यदि एक सूत्र बनाकर कम से कम दो और अधिक से अधिक अनन्त शब्द सिद्ध हो रहे हैं तब अष्टाध्यायी की संरचना ४२५ तो सूत्र बनाने में लाघव हैं, ऐसे स्थलों पर वे सूत्र बनाते हैं और जब दो चार दस सूत्रों के बनाने पर एक शब्द की सिद्धि होते हुए वे देखते हैं, तो वहाँ वे यह मानकर सूत्र नहीं बनाते कि दस सूत्रों के द्वारा एक शब्द को सिद्ध करने से अधिक अच्छा यही है कि “इस शब्द को ऐसा ही स्वीकार कर लिया जाये’’। शब्द को ऐसा ही स्वीकार कर लेने का नाम ही व्याकरणशास्त्र में निपातन’ है। ऐसे शब्दों में हमें ध्यान से देखना चाहिये कि उनमें कितना कार्य उपलब्ध सूत्रों से हो रहा है और कितना कार्य बिना सूत्रों के स्वीकार कर लिया गया है। किसी शब्द में जितना कार्य बिना सूत्रों के स्वीकार कर लिया गया है, उतने ही हिस्से को व्याकरण में निपातन कहा जाता है, बाकी कार्य तत् तत् सूत्रों से ही होता है। इस निपातन को यहीं बुद्धिस्थ कर लें और आगे जो भी शब्द निपातन से बनें, उनमें यह दृष्टि रखें कि उन निपातित शब्दों में कौन कौन सा कार्य बिना सूत्रों के निपातन से हुआ है। अतः उतने ही हिस्से में निपातन मानें, बाकी कार्य तत् तत् सूत्रों से ही करें।
सूत्रों में बाध्यबाधकभाव
आगे सूत्रों के अर्थ देंगे। उनमें प्रवेश करने के पहिले हमें यह समझ लेना चाहिये कि सूत्र किस प्रकार कार्य करते हैं। पाणिनीय अष्टाध्यायी वस्तुतः उत्सर्गापवाद विधि से बनी है। __इसमें आचार्य किसी भी कार्य को करने के लिये, पहिले उत्सर्ग सूत्र अर्थात् सामान्य सूत्र कहते हैं। जैसे ‘ऋहलोर्ण्यत्’ सूत्र से वे कहते हैं कि ऋकारान्त और हलन्त धातुओं से ण्यत् प्रत्यय होता है। यह सारे ऋकारान्त और सारे हलन्त धातुओं के लिये सामान्य विधि है। किन्तु अवद्यपण्यवर्या गर्दापणितव्यानिरोधेषु’ सूत्र से वे ऋकारान्त वृ धातु से अनिरोध अर्थ में यत् प्रत्यय का विधान कर देते हैं। __ अब ऋकारान्त वृ धातु के लिये प्रश्न उठता है कि ऋकारान्त वृ धातु से हम ‘ऋहलोर्ण्यत्’ सूत्र से ण्यत् प्रत्यय करें या ‘अवधपण्यवर्या गपणितव्यानिरोधेषु’ सूत्र से यत् प्रत्यय करें? स्पष्ट है कि ‘ऋहलोर्ण्यत्’ सूत्र से होने वाला ण्यत् प्रत्यय सारे ऋकारान्त धातुओं के लिये है, अतः सामान्य है और ‘अवधपण्यवर्या गीपणितव्यानिरोधेषु’ सूत्र से होने वाला यत् प्रत्यय केवल वृ धातु के लिये है, अतः विशेष है। इस शास्त्र में जो विशेष सूत्र होता है, वह सामान्य सूत्र का बाधक होता है। ४२६ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ बाधक होने का अर्थ है कि विशेष सूत्र के द्वारा कहा हुआ कार्य होता ही है और उसके कर लेने के बाद जो जगह बच जाती है, उसमें ही सामान्य सूत्र लगता है। अतः वृ धातु से तो यत् प्रत्यय ही लगेगा और बचे हुए ऋकारान्त धातुओं से ण्यत् प्रत्यय लगेगा। यहाँ वृ धातु से कहा हुआ यत् प्रत्यय, वृ धातु में ण्यत् प्रत्यय को लगने से रोक रहा है, अतः यत् प्रत्यय बाधक (बाधित करने वाला) है, और ण्यत् प्रत्यय रोका जा रहा है, अतः बाध्य (बाधित होने वाला) है। इसी प्रकार ऋहलोर्ण्यत्’ सूत्र कहता है कि हलन्त धातुओं से ण्यत् प्रत्यय हो, और पोरदुपधात्’ सूत्र कहता है कि पवर्गान्त अदुपध हलन्त धातुओं से यत् प्रत्यय हो। अतः पवर्गान्त अदुपध हलन्त धातुओं के लिये प्रश्न उठता है कि इनसे हम ऋहलोर्ण्यत्’ सूत्र से ण्यत् प्रत्यय करें या ‘पोरदुपधात्’ सूत्र से यत् प्रत्यय करें ? स्पष्ट है कि ‘ऋहलोर्ण्यत्’ सूत्र से होने वाला ण्यत् प्रत्यय सारे हलन्त धातुओं के लिये है, अतः सामान्य है और पोरदुपधात्’ सूत्र से होने वाला यत् प्रत्यय केवल पवर्गान्त अदुपध हलन्त धातुओं के लिये है, अतः विशेष है। । अतः पवर्गान्त अदुपध हलन्त धातुओं से यत् प्रत्यय होगा और उनसे बचे हुए हलन्त धातुओं से ण्यत् प्रत्यय होगा। इसलिये पोरदुपधात्’ सूत्र बाधक है, और ऋहलोर्ण्यत्’ सूत्र उससे बाध्य है। हमने देखा कि उत्सर्ग सूत्र या सामान्य सूत्र को जहाँ तक कार्य करने का अधिकार प्राप्त है, उसी के एक छोटे से स्थान में अपवाद सूत्र या विशेष सूत्र काम करना चाह रहा है। यदि उत्सर्ग सूत्र, उसे अपने में से स्थान न दे, तो उसी के एक छोटे से स्थान में काम करना चाहने वाले इस विशेष सूत्र को कहीं काम करने को स्थान ही नहीं बचेगा, अर्थात् वह निरवकाश हो जायेगा, और आचार्य का सूत्र बनाना ही व्यर्थ हो जायेगा। ऐसे निरवकाश सूत्रों को अपवादसूत्र कहा जाता है - निरवकाशो विधिरपवादः । ये निरवकाश सूत्र व्यर्थ न होने पायें, इन्हें भी काम करने का अवसर मिले, इसके लिये परे पाणिनीय शास्त्र की व्यवस्था ऐसी है कि हम बाधक अपवाद या विशेष सूत्रों के द्वारा चाहा हुआ स्थान उन्हें काम करने के लिये पहिले दे दें। उसके बाद उससे बचे हुए स्थान में बाध्य, उत्सर्ग या सामान्य सूत्र को काम करने दें। इसलिये किसी भी उत्सर्ग सूत्र को लगाने के पहिले उसके अपवादों का विचार अवश्य कर लेना चाहिये। ‘प्रकल्प्य चापवादविषयं तत उत्सर्गोऽभिनिविशते । अष्टाध्यायी की संरचना ४२७
अनभिधान
व्याकरणशास्त्र बना ही इसलिये है कि इससे हम उन सारे शब्दों की सिद्धि कर लें, जो लोक में अभिहित होते हैं, या बोले जाते हैं । अतः हम सूत्रों को लगा लगाकर शब्द बनाते जाते हैं और उन सारे शब्दों को बना लेते हैं, जो शब्द लोक में बोले जाते हैं। किन्तु कुछ शब्द ऐसे भी हैं, जो सूत्रों के द्वारा तो बन सकते हैं, तो भी हम उन्हें इसलिये नहीं बनाते कि वे शब्द लोक में बोले ही नहीं जाते हैं अर्थात् लोक में उनका अभिधान नहीं होता। लोक में न बोले जाने को ही ‘अनभिधान’ होना कहते हैं। __ जैसे - ‘हनस्त च ३.१.१०८’ सूत्र से सुबन्त उपपद में होने पर भाव अर्थ में हन् धातु से क्यप् प्रत्यय करके ब्रह्मणो हननं ‘ब्रह्महत्या’ आदि शब्द बनाने का विधान है। अर्थात् सुबन्त उपपद में न होने पर हन् धातु से औत्सर्गिक ण्यत् प्रत्यय हो जाना चाहिये। तो भी हम हन् धातु से ण्यत् प्रत्यय लगाकर भाव अर्थ में ‘घात्यम्’ शब्द इसलिये नहीं बना सकते कि हन् धातु से भाव अर्थ में ण्यत् प्रत्यय लगाकर बना हुआ घात्यम्’ प्रयोग लोक में बोलने का प्रचलन नहीं है अर्थात् लोक में उसका ‘अभिधान’ नहीं है। अतः क्यप् के अभाव में भी भाव अर्थ में हन् धातु से ण्यत् प्रत्यय न होकर घञ् प्रत्यय ही होगा और भाव अर्थ में ‘घातः’ शब्द ही बनेगा। __ इसी प्रकार ‘कर्मण्यण् ३.२.१’ सूत्र से सुबन्त उपपद में होने पर कर्ता अर्थ में धातुमात्र से अण् प्रत्यय का विधान है। यथा - कुम्भं करोति इति कुम्भकारः, आदि। __ किन्तु सुबन्त उपपद में होने पर भी सारे धातुओं से अण् प्रत्यय लगाकर हम - आदित्यं पश्यति इति आदित्यदर्शः, हिमवन्तं शृणोति इति हिमवच्छ्रावः, ग्रामं गच्छति इति ग्रामगामः, आदि शब्द इसलिये नहीं बना सकते कि इन शब्दों को लोक में बोलने का प्रचलन नहीं है अर्थात् लोक में उसका ‘अभिधान’ नहीं है। अतः सुबन्त उपपद में होने पर कर्ता अर्थ में धातुमात्र से अण् प्रत्यय का विधान होने के बाद भी हमें सारे धातुओं से अण् प्रत्यय लगाकर शब्द नहीं बनाना चाहिये, क्योंकि लोक में बोले जाने वाले शब्दों की सिद्धि के लिये ही व्याकरण है, अनावश्यक शब्द बनाने के लिये नहीं। इस प्रकार लोक में अभिधान होना (बोला जाना) और लोक में अभिधान न होना (न बोला जाना), ये भी, किसी शब्द के बनने और न बनने के हेतु हैं। ४२८ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ प्रातिपदिकसंज्ञा - कृत्तद्धितसमासाश्च (१.२.४६) - कृदन्त और तद्धितान्त तथा समास की प्रातिपदिक संज्ञा होती है। अतः कृत् प्रत्यय लगते ही कृत् प्रत्ययान्त शब्द की, इस सूत्र से प्रातिपदिक संज्ञा कीजिये।
सुबुत्पत्ति
जब कृत् प्रत्यय लगाकर पूरा शब्द बन जाये, तब आप देखें कि कृदन्त होने के कारण अब यह कृत्तद्धितसमासाश्च’ सूत्र से प्रातिपदिक है । प्रातिपदिक होने के कारण उसमें सारी सुप् विभक्तियाँ आ सकती हैं। अतः प्रथमा एकवचन में ‘सु’ विभक्ति लगाकर उसका प्रथमा एकवचन का रूप ही आप दें। यथा - कुम्भ + कृ + अण् = कुम्भकार, इस प्रातिपदिक को, कुम्भकार + सु = कुम्भकारः, ऐसा पद बनाकर ही आप दें। (शब्दों में सुप् विभक्तियाँ लगाना सुबन्त-प्रक्रिया का विषय है, अतः यह कार्यसुबन्त में ही सिद्ध करना चाहिये।) इन सब को जानकर ही आगे शास्त्र में प्रवृत्त होना चाहिये। हमें जानना है कि - १. किस धातु से, २. किस अर्थ में ३. किस सूत्र से ४. कौन सा प्रत्यय ५. किस प्रकार लग रहा है ? इनमें से पाँचवीं बात अर्थात् ‘किस धातु से कौन सा प्रत्यय किस प्रकार लगता है’ अर्थात् शब्दों की सिद्धि करने की प्रक्रिया, पूर्वार्ध में बतलाई जा चुकी है। उसे पढ़कर ही इसमें प्रवेश करें। ताकि सूत्रार्थ के साथ ही उदाहरण में दिये हुए शब्दों की प्रक्रिया का भी झटिति बोध होता जाये। इस उत्तरार्ध में अब शेष चारों बातें, पाणिनीय अष्टाध यायी के सूत्रक्रम से ही बतलाई जा रही हैं। धातोः - (३.१.९१) - ‘धातोः’ यह पञ्चमी है, जिसका अर्थ है धातु से। अन्य शब्दों के अभाव में यह ‘धातोः’ शब्द यहाँ कोई भी अर्थ दे सकने में असमर्थ है। अत यह अधिकार सूत्र है। ऐसे सूत्र जो अपने स्थान में फलशून्य होते हुए अगले सूत्रों के साथ मिलकर अपना अर्थ स्पष्ट कर देते है और उनका भी अर्थ स्पष्ट कर देते हैं, जिनके साथ वे अष्टाध्यायी की संरचना ४२९ मिले हैं, ऐसे सूत्र अधिकार सूत्र कहलाते हैं। (स्वदेशे फलशून्यत्वे सति परदेशे वाक्यार्थबोधजनकत्वं अधिकारत्वम्)। प्रश्न उठता है कि यह सूत्र, आगे के कितने सूत्रों के साथ जाकर मिल सकता है ? तो इसका उत्तर है कि जहाँ तक इसका अधिकार है, उतने ही सूत्रों के साथ जाकर यह मिल सकता है। अतः यहाँ से यह ‘धातोः’ शब्द उन सारे सूत्रों में जाकर बैठता जायेगा और उन सारे सूत्रों के अर्थों को बनाता जायेगा, जहाँ तक इसका अधिकार है’। जहाँ जाकर इसका अधिकार समाप्त हो जायेगा उसके आगे के सूत्रों में यह नहीं मिलेगा। अतः हमें अधिकर सूत्रों की दोनों सीमाएँ ज्ञात होना चाहिये। इस सूत्र का अधिकार ३.१.९१ से लेकर छन्दस्युभयथा ३.४.११७ सूत्र तक है। अतः ३.१.९१ से लेकर छन्दस्युभयथा ३.४.११७ सूत्रों में ‘धातोः अर्थात् धातु से’ यह शब्द जाकर मिल जायेगा, तो इन सूत्रों के द्वारा जो भी प्रत्यय लगाने को कहे जा रहे हैं, वे सारे प्रत्यय धातु से ही लगेंगे, प्रातिपदिक इत्यादि से नहीं लगेंगे। तत्रोपपदं सप्तमीस्थम् - (३.१.९२) - ‘धातोः’ सूत्र से कहे जाने वाले इस द्वितीय धात्वधिकार में जो सूत्र हैं उन सूत्रों में जो पद सप्तमी विभक्ति में निर्दिष्ट हैं, उनकी उपपद संज्ञा होती है। जैसे - ‘कर्मण्यण्’ इस सूत्र में कर्मणि’ यह पद सप्तमी विभक्ति में है, अतः इसका नाम उपपद है। इसलिये इस सूत्र का अर्थ होगा - कर्म उपपद में होने पर धातुओं से अण् प्रत्यय होता है। यथा - कुम्भकारः, नगरकारः, इनमें कुम्भ और नगर, ये कर्म शब्द उपपद में रहते हुए कृ धातु से अण् प्रत्यय हुआ है। इसी प्रकार द्विषत्परयोस्तापेः सूत्र में द्विषत्परयोः’ यह पद सप्तमी विभक्ति में है अतः इसका नाम उपपद है, इसलिये इसका अर्थ होगा - द्विषत् और पर उपपद में होने पर तापि धातु से खच् प्रत्यय होता है। यथा - द्विषन्तपः, परन्तपः । __ इस पूरे धात्वधिकार में सप्तमी विभक्ति निर्दिष्ट पदों वाले सूत्रों के अर्थ इसी प्रकार करना चाहिये। ध्यान दें कि सूत्रों में कभी कभी अर्थ बतलाने के लिये भी सप्तमी विभक्ति आती है। जैसे - आक्रोशेऽवन्योर्ग्रहः, कर्मव्यतिहारे णच्स्त्रियाम्, वृणोतेराच्छादने, ये भी सप्तमी हैं, किन्तु ये सप्तमी विभक्तियाँ अर्थवाचक हैं। इनका अर्थ है आक्रोश, कर्मव्यतिहार तथा आच्छादन अर्थ गम्यमान होने पर। इसी प्रकार ‘सप्तम्यां जनेर्डः’ सूत्र है। इसका अर्थ भी उपपद नहीं है। अतः इन दोनों प्रकार की सप्तमी को तथा उपपद संज्ञा को, तत् तत् ४३० अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ स्थानों पर, व्याख्यान से जानना चाहिये। उपपद होने पर किस प्रकार कार्य करें - कर्मण्यण् सूत्र से हम कर्म उपपद में रहते हुए धातुओं से अण् प्रत्यय लगाते हैं। जैसे - कुम्भं करोति इति कुम्भकारः, यह शब्द बनाने के लिये हम कुम्भं’ इस उपपद के रहते हुए कृ धातु से अण् प्रत्यय लगाते हैं। कुम्भम् + कृ + अण् । इस स्थिति में आप अलौकिक विग्रह करके प्रकृति प्रत्यय को अलग अलग लिख लीजिये। कर्तृकर्मणोः कृति (२.४.६५)- कृत् प्रत्यय के योग में अनुक्त कर्ता और अनुक्त कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है। अतः ध्यान रहे कि हमें ‘कुम्भम्’ में जो द्वितीया दिख रही है, उसके स्थान पर अण् के लगते ही ‘कर्तृकर्मणोः कृति’ सूत्र से षष्ठी आ जायेगी। तो जो ‘कुम्भम् + कृ + अण्’ दिख रहा है, वह अलौकिक विग्रह में कुम्भ + ङस् + कृ + अण, हो जायेगा। इस प्रकार विग्रह करने के बाद ही आप ‘सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से प्रातिपदिक के अवयव सुप् का लुक् कीजिये। __नलोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतनाम् - (२.४.६९) लकारों के स्थान पर होने वाले शत, शानच्, क्वसु, कानच् आदि प्रत्यय, उ, उक प्रत्यय, क्त्वा, तुमुन् आदि अव्यय कृदन्त, निष्ठा प्रत्यय, खलर्थ प्रत्यय और तृन् प्रत्याहार में आने वाले प्रत्यय, इतने कृत् प्रत्ययों के योग में कर्म में षष्ठी न होकर द्वितीया ही होती है। अतः इन प्रत्ययों के लगने पर आप विग्रह में द्वितीया ही लिखें । इन प्रत्ययों के अलावा कोई प्रत्यय हो, तो कर्म में षष्ठी लिखें। इसके अतिरिक्त जहाँ अन्य कारकों का निर्देश किया हो, वहाँ तत्, तत् विभक्तियाँ लिखें। यथा - अग्निष्टोमेन इष्टवान् इति अग्निष्टोमयाजी में अग्निष्टोम + टा + यज्
- णिनि । गर्ते शेते इति गर्तशयः में - गर्त + डि + शी + अच् । __ कृदतिङ् - (३.१.९३) - इस द्वितीय धात्वधिकार में अर्थात् ३.१.९१ से लेकर छन्दस्युभयथा ३.४.११७ सूत्र तक के सूत्रों में जो प्रत्यय कहे गये हैं उन प्रत्ययों में १८ तिङ् प्रत्ययों को छोड़कर शेष प्रत्ययों का नाम कृत् प्रत्यय होता है। कृत् संज्ञा होने का फल यह होता है, कि धातुओं से कृत् प्रत्यय लगाकर बने हुए कृदन्त शब्दों की कृत्तद्धितसमासाश्च’ सूत्र से प्रातिपदिक संज्ञा हो जाती है, और प्रातिपदिक संज्ञा हो जाने से उनसे प्रथमा, द्वितीया, तृतीया आदि सभी सुप् विभक्तियाँ लगने लगती हैं। अतः आगे कृत् प्रत्यय लगाकर जो भी शब्द उदाहरणों में दिये जायेंगे, वे ‘सु’ अष्टाध्यायी की संरचना ४३१ विभक्ति लगाकर प्रथमा एकवचन में ही दिये जायेंगे। वाऽसरूपोऽस्त्रियाम् (३.१.९४) जो विधिसूत्र सामान्य होते हैं, अर्थात् सभी के लिये होते हैं, उन्हें उत्सर्गसूत्र समझना चाहिये। जैसे - ‘तव्यत्तव्यानीयरः’ यह सूत्र धातुमात्र से तव्यत्, तव्य तथा अनीयर् प्रत्ययों का विधान करता है किन्तु ऋहलोर्ण्यत्’ सूत्र सारे धातुओं में से, केवल ऋकारान्त और हलन्त धातुओं से ही ण्यत् प्रत्यय का विधान करता है, अतः तव्यत्, तव्य तथा अनीयर् प्रत्यय उत्सर्ग प्रत्यय हैं और ण्यत् प्रत्यय उनका अपवाद प्रत्यय है। इसी प्रकार ऋहलोर्ण्यत्’ सूत्र सारे हलन्त धातुओं से ण्यत् प्रत्यय का विधान करता है, और पोरदुपधात्’ सूत्र उन्हीं हलन्त धातुओं में से केवल अदुपध पवर्गान्त ६ गातुओं से यत् प्रत्यय का विधान करता है। इसलिये ण्यत् प्रत्यय उत्सर्ग प्रत्यय है और यत् प्रत्यय, ण्यत् प्रत्यय का अपवाद प्रत्यय है। इस प्रकार उत्सर्ग का कार्यक्षेत्र बड़ा या व्यापक होता है और अपवाद का कार्य उसी बड़े क्षेत्र का एक छोटा सा हिस्सा होता है। अतः एक ही स्थान में दोनों के एक साथ उपस्थित होने पर व्यवस्था यह होती है कि - अपवादशास्त्र के स्थल पर तो अपवादशास्त्र ही कार्य करता है और उसके कर चुकने के बाद जितना स्थान बच जाता है, उसमें उत्सर्ग शास्त्र काम करता है। इस प्रकार उत्सर्गशास्त्र बाध्य होता है और अपवादशास्त्र बाधक होता है। __ पूरी अष्टाध्यायी की यह व्यवस्था है कि जहाँ अपवाद सूत्र प्राप्त है, वहाँ उत्सर्ग सूत्र कार्य नहीं कर सकता। अतः अपवाद सूत्र उत्सर्ग सूत्रों के नित्य बाधक होते हैं। किन्तु कृत् प्रत्ययों के लिये व्यवस्था यह है, कि अनुबन्धों को हटाने के बाद यदि उत्सर्ग और अपवाद प्रत्ययों का स्वरूप अलग अलग प्रकार का है, तब तो अपवाद प्रत्यय, उत्सर्ग प्रत्यय को विकल्य से बाधता है। अर्थात् हम चाहें तो उत्सर्ग प्रत्यय भी लगा सकते हैं, और चाहें तो अपवाद प्रत्यय भी लगा सकते है। जैसे - तव्यत्, अनीयर् प्रत्यय और उनके अपवाद ण्यत् प्रत्यय में, अनुबन्धों को हटाने के बाद तव्य’, ‘अनीय’ और ‘य’ बचते हैं। इन तीनों की आकृति सर्वथा भिन्न भिन्न है। अतः हम चाहें तो इन तीनों में से कोई भी प्रत्यय लगा सकते हैं। अर्थात् चाहें तो उत्सर्ग प्रत्यय लगा सकते हैं, और चाहें तो अपवाद प्रत्यय भी लगा सकते है। यथा - पठितव्यम्, पठनीयम् और पाठ्यम् । किन्तु यदि अनुबन्धों को हटाने के बाद उत्सर्ग और अपवाद प्रत्ययों का स्वरूप ४३२ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ बिल्कुल एक सा है, तब तो अपवाद प्रत्यय, उत्सर्ग प्रत्यय को नित्य ही बाधता है। अर्थात् तब हम केवल अपवाद प्रत्यय ही लगा सकते हैं, उत्सर्गप्रत्यय नहीं लगा सकते। जैसे - ण्यत्, क्यप् और यत् प्रत्ययों के अनुबन्धों को हटाने के बाद तीनों में ‘य’ ही शेष बचता है। अतः किसी भी धातु से ये तीनों प्रत्यय कभी नहीं हो सकते। अतः जब ऋहलोर्ण्यत् से होने वाले ण्यत् प्रत्यय का अपवाद बनकर पोरदुपधात् से होने वाला यत् प्रत्यय आता है, तब यत् प्रत्यय, ण्यत् प्रत्यय का नित्य बाधक बनता है। अर्थात् अब हम अदुपध पवर्गान्त धातुओं से केवल अपवाद प्रत्यय ‘यत्’ ही लगा सकते हैं, उत्सर्गप्रत्यय ‘ण्यत्’ नहीं लगा सकते। इसी प्रकार, कर्मण्यण और आतोऽनुपसर्गे कः सूत्रों से कहे जाने वाले अण् और क प्रत्ययों में अनुबन्धों को हटाने के बाद ‘अ’ ही शेष बचता है। अतः अपवाद प्रत्यय ‘क’, उत्सर्ग प्रत्यय ‘अण’ को नित्य ही बाधता है। अर्थात् अब हम अनुपसर्ग आकारान्त धातुओं से केवल अपवाद प्रत्यय क’ ही लगा सकते हैं, उत्सर्गप्रत्यय ‘अण’ नहीं लगा सकते। नानुबन्धकृतमसारूप्यम् (परिभाषा) - अनुबन्धों को लेकर प्रत्ययों के सरूप असरूप का निर्धारण नहीं किया जाता। अतः उत्सर्ग और अपवाद प्रत्ययों के अनुबन्धों को हटाने के बाद ही उनकी सरूपता और असरूपता की पहिचान करना चाहिये। का अस्त्रियाम् - सूत्र में दिये हुये ‘अस्त्रियाम्’ शब्द का अर्थ है कि यदि कृत् प्रत्यय स्त्रीलिङ्ग में हुए हैं, तब तो अपवाद प्रत्यय असरूप होने के बाद भी उत्सर्ग प्रत्यय का नित्य बाधक होगा। जैसे ‘स्त्रियां क्तिन्’ सूत्र से धातुमात्र से स्त्रीलिङ्ग में क्तिन् प्रत्यय होता है। धातुमात्र से होने के कारण यह उत्सर्ग प्रत्यय है। उसके बाद ‘अ प्रत्ययात्’ सूत्र आता है। यह प्रत्ययान्त धातुओं से ‘अ’ प्रत्यय का विधान करता है। देखिये कि अनुबन्धों को हटाने के बाद इनमें ति’ तथा ‘अ’ शेष बचते हैं। इनकी आकति सर्वथा भिन्न भिन्न है, तब भी स्त्रीप्रत्यय होने के कारण यह ‘अ’ प्रत्यय ‘क्तिन्’ प्रत्यय का नित्य ही बाधक होता है। इसलिये प्रत्ययान्त धातुओं से ‘अ’ ही होगा और शेष धातुओं से क्तिन’ ही होगा। इसी प्रकार जागृ धातु से जागर्तेरकारो वा’, इस वार्तिक से स्त्रीलिङ्ग में श (अ) प्रत्यय तथा ‘अ’ प्रत्यय विकल्प से विहित हैं। इनकी आकृति क्तिन् से सर्वथा भिन्न है. तब भी स्त्रीप्रत्यय होने के कारण ये ‘श’ और ‘अ’ प्रत्यय ‘क्तिन्’ प्रत्यय के नित्य ही बाधक होंगे, तो श लगाकर जागर्या और अ लगाकर जागरा प्रयोग बनेंगे, क्तिन् बिल्कुल नहीं लगेगा। कृत्याः प्राङ् ण्वुलः - (३.१.९५) - देखिये कि ३.१.९१ से लेकर ‘छन्दस्युभयथा अष्टाध्यायी की संरचना ४३३ ३.४.११७’ सूत्र तक के सूत्रों में से १८ तिङ् प्रत्ययों का छोड़कर शेष प्रत्ययों का नाम केवल कृत् है किन्तु तव्यत्तव्यानीयरः ३.१.९६ से लेकर चित्याग्निचित्ये ३.१.१३२ तक के सूत्रों में जो तव्यत्, तव्य, अनीयर्, यत्, क्यप् और ण्यत् प्रत्यय कहे गये हैं, उनका नाम कृत् प्रत्यय भी है और कृत्य प्रत्यय भी है। कृत् और कृत्य प्रत्ययों के अर्थ - १. तीसरे अध्याय के अन्त में ३.४.६७ से लेकर ३.४.७६ तक के सूत्र कृत् और कृत्य प्रत्ययों के अर्थ का इस प्रकार विचार करते हैं - कर्तरि कृत् (३.४.६७) - सारे कृत् प्रत्यय कर्ता (करने वाला) अर्थ में होते हैं। अतः कुत्प्रत्ययान्त शब्द का अर्थ होगा करने वाला’ । साथ ही इनकी कृत संज्ञा भी होने का फल यह होता है. कि धातओं से कत प्रत्यय लगाकर बने हुए कृदन्त शब्दों की ‘कृत्तद्धितसमासाश्च’ सूत्र से प्रातिपदिक संज्ञा होती है, और प्रातिपदिक संज्ञा हो जाने से उनसे प्रथमा, द्वितीया, तृतीया आदि सभी सुप् विभक्तियाँ लगने लगती हैं। यदि इनकी केवल कृत्य संज्ञा होती, तो इनकी प्रातिपदिक संज्ञा न होती और इनसे सुबादि विभक्तियाँ भी न हो पातीं। तयोरेव कृत्यक्तखलाः (३.४.७०) - जो कृत्य नामक तव्यत्, तव्य, अनीयर्, यत्, क्यप् और ण्यत् प्रत्यय हैं तथा क्त और खलर्थ प्रत्यय हैं, वे भाव तथा कर्म में होते हैं। अतः कृत्यप्रत्ययान्त शब्द का अर्थ होगा किया जाने वाला’। कृत्यप्रत्ययों का विधान करने वाले सूत्रों में ‘भाव और कर्म अर्थ में’ यही अर्थ करना चाहिये । जब प्रत्यय भाव और कर्म अर्थ में कहे जायें तो समझना चाहिये कि सकर्मक धातुओं से प्रत्यय कर्म अर्थ में होते हैं, और अकर्मक धातुओं से भाव अर्थ में होते हैं।