क्विन् प्रत्यय में हलन्त्यम्’ सूत्र से न् की, लशक्वतद्धिते’ सूत्र से क् की तथा ‘उपदेशेऽजनुनासिक इत्’ सूत्र से इ की इत्संज्ञा करके तस्य लोपः’ से इसका लोप करके व् शेष बचता है। वरपृक्तस्य’ सूत्र से उस व् का भी लोप हो जाता है। जब पूरे प्रत्यय शेष कित् ङित् प्रत्यय ४०७ का लोप हो जाता है तब कहते हैं कि प्रत्यय का सर्वापहारी लोप हो गया। __ ध्यान दें कि क्विप् और क्विन्, ये दोनों प्रत्यय कित् हैं। दोनों का सर्वापहारी लोप होता है, तब भी क्विप् और क्विन् प्रत्ययों में यह भेद है कि क्विप् प्रत्यय पित् है और क्विन् प्रत्यय पित् नहीं है। अतः क्विप् प्रत्यय लगने पर ‘ह्रस्वस्य पिति कृति तुक्’ सूत्र से ह्रस्व को तुक का आगम होता है और क्विन् प्रत्यय लगने पर तुगागम नहीं होता। की दूसरी बात यह कि क्विप् प्रत्यय ‘क्विप् च’ सूत्र से सभी धातुओं से लग सकता है किन्तु क्विन् प्रत्यय सभी धातुओं से नहीं लगता। तीसरी बात यह कि क्विन् प्रत्यय लगने पर क्विन्प्रत्ययस्य कुः’ सूत्र से कुत्वादि कार्य विशेष होते हैं, जो कि क्विप् प्रत्यय में नहीं होते। यह सब पाणिनीय व्याकरण के अनुबन्धों का चमत्कार है। क्विन्प्रत्ययस्य कुः - क्विन्प्रत्ययान्त को कुत्व होता है, पदान्त में। अब हम धातुओं में क्विन् प्रत्यय लगायें। पर ध्यान दें कि सारे क्विन् प्रत्ययान्तों को, ‘क्विन्प्रत्ययस्य कुः’ सूत्र से प्रथमा एकवचन में कुत्व करते चलें - क्विन् प्रत्यय लगाकर निपातन से बनने वाले शब्द - ऋत्विग्दधृक्स्रग्दिगुष्णिगञ्चुयुजिक्रुञ्चां च (३.२.५९) - ये शब्द क्विन्प्रत्ययान्त निपातित होते हैं। ऋतु पूर्वक यज् धातु से क्विन् प्रत्यय करके - ऋत्विक, ऋत्विग् । धृष् धातु से क्विन् प्रत्यय करके - दधक, दधम् । स्रज् धातु से क्विन् प्रत्यय करके - स्रक, स्रग्। दिश् धातु से क्विन् प्रत्यय करके - दिक्, दिग्। उत् पूर्वक स्निह धातु से क्विन् प्रत्यय करके - उष्णिक. उष्णिग। अञ्च् धातु से कोई भी सुबन्त उपपद में होने पर क्विन् प्रत्यय लगता है प्र + अञ्च् + क्विन् - प्रत्यय का सर्वापहारी लोप होकर = प्राञ्च् / प्रत्यय के कित् होने के कारण ‘अनिदितां हल उपधायाः क्ङिति’ सूत्र से उपधा के न् का लोप करके - प्राच् । प्रथमा एकवचन में सु विभक्ति लगाने पर ‘उगिदचां सर्वनामस्थोऽधातोः’ सूत्र से नुम् का आगम करके प्राङ् । प्रथमा विभक्ति के पूरे रूप - प्राङ्, प्राञ्चौ, प्राञ्चः । __इसी प्रकार - प्रति पूर्वक अञ्च् धातु से प्रत्यञ्च् । प्रथमा विभक्ति के पूरे रूप - प्रत्यङ् प्रत्यञ्चौ, प्रत्यञ्चः । ४०८ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ Uan उद् पूर्वक अञ्च् धातु से उदञ्च् । प्रथमा विभक्ति के पूरे रूप - उदङ् उदञ्चौ, उदञ्चः। युज् + क्विन् - प्रत्यय का सर्वापहारी लोप होकर - युज् । प्रथमा में सु विभक्ति लगाने पर - ‘युजेरसमासे’ सूत्र से नुम् का आगम करके - यु नुम् ज् + सु । ‘हल्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल्’ सूत्र से सु का लोप करके तथा ‘संयोगान्तस्य लोपः’ सूत्र से ज् का लोप करके - युन् । क्विन्प्रत्ययस्य कुः से न् को कुत्व करके - युङ् । प्रथमा विभक्ति के पूरे रूप - युङ्, युञ्जौ, युञ्जः।। क्रुञ्च् + क्विन् = क्रुञ्च् । निपातनों के साथ पाठ होने के कारण इसकी उपधा के न् का लोप नहीं होता। अतः क्रुञ्च् + क्विन् = क्रुञ्च् । यही बना। अब प्रथमा में सु विभक्ति लगाने पर - क्रुञ्च् + सु। ‘हल्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल्’ सूत्र से सु का लोप करके तथा संयोगान्तस्य लोपः’ सूत्र से ज् का लोप करके - क्रुञ् । क्विन्प्रत्ययस्य कुः से ञ् को कुत्व करके, क्रुङ् । प्रथमा विभक्ति के पूरे रूप - क्रुङ् क्रुञ्चौ, क्रुञ्चः । ध्यान दें कि सारे क्विन् प्रत्ययान्तों को, ‘क्विन्प्रत्ययस्य कुः’ सूत्र से प्रथमा एकवचन में कुत्व हुआ है। शकारान्त धातु - घृत + ङस् + स्पृश् + क्विन् / प्रत्यय का सर्वापहारी लोप करके तथा सुपो धातुप्रातिपदिकयोः सूत्र से विभक्ति का लोप करके - घृतस्पृश् । प्रथमा विभक्ति के पूरे रूप - घृतस्पृक्, घृतस्पृग्, घृतस्पृशौ घृतस्पृशः । इसी प्रकार- मन्त्रस्पृश् - मन्त्रस्पृक्, मन्त्रस्पृग्, मन्त्रस्पृशौ मन्त्रस्पृशः । जलस्पृश् - जलस्पृक्, जलस्पृग, जलस्पृशौ, जलस्पृशः आदि। त्यद् + दृश् + क्विन् / ‘आ सर्वनाम्नः’ से त्यद् को आत्व होकर - त्यादृश् - त्यादृक्, त्यादृग्, त्यादृशौ, त्यादृशः । इसी प्रकार - तद् से - तादृक्, तादृग, तादृशौ, तादृशः । यद् से - यादृक्, यादृग्, यादृशौ यादृशः । समान से - सदृक्, सदृग् सदृशौ सदृशः । यहाँ ‘दृग्दृशवतुषु’ सूत्र से समान को ‘स’ आदेश हुआ है। अन्य से - अन्यदृक्, अन्यदृग्, अन्यदृशौ अन्यदृशः, आदि बनाइये।