क्विप् प्रत्यय में हलन्त्यम् सूत्र से प् की, ‘लशक्वतद्धिते’ सूत्र से क् की तथा उपदेशेऽजनुनासिक इत्’ सूत्र से इ की इत्संज्ञा करके ‘तस्य लोपः’ से इसका लोप करके व् शेष बचता है। वरपृक्तस्य’ सूत्र से उस व् का भी लोप हो जाता है। जब पूरे प्रत्यय का लोप हो जाता है तब कहते हैं कि प्रत्यय का सर्वापहारी लोप हो गया।
प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणम् (१.१.६२) - प्रत्यय का लोप होने के बाद भी तदाश्रित कार्य होते हैं। अतः क्विप् प्रत्यय का लोप होने के बाद भी तदाश्रित कार्य होंगे।
क्विप् प्रत्यय कित् तथा पित् है। अतः सर्वापहारी लोप हो जाने के बाद भी इसके लगने पर वे सारे कार्य होंगे, जो कि कित् तथा पित् परे होने पर होते हैं। अर्थात् जो कार्य क्यप् प्रत्यय में हुए हैं, वे सब कार्य यहाँ भी जानना चाहिये।
आकारान्त तथा एजन्त धातुओं से क्विप् प्रत्यय -
यद्यपि ‘धातोः’ का सामान्य अधिकार होने से क्विप् प्रत्यय धातुमात्र से होना चाहिये, किन्तु लोक में ‘अनभिधान’ होने के कारण यह प्रत्यय भाष्य में अदृष्ट आकारान्त [[३९८]]
__ ध्यान दें कि जिन आकारान्त धातुओं को ‘घुमास्थागापाजहातिसां हलि ६.४. ६६’ इस सूत्र से ईत्व प्राप्त है, उन आकारान्त धातुओं से क्विप् प्रत्यय नहीं होता। शेष से होता है। क्विप् प्रत्यय का सर्वापहारी लोप करें और धातु को कुछ न करें। जिघ्रति इति घ्राः - घ्रा + क्विप्। वाति इति वाः । भाति इति भाः
प्रथमा विभक्ति के पूरे रूप - घ्राः नौ घ्राः।
जो ध्यै धातु से क्विप् प्रत्यय करके - ध्यायति इति धीः बनता है यहाँ ‘ध्यायतेः सम्प्रसारणं च’ वार्तिक से यकार को सम्प्रसारण होता है। ध्यै-ध्या + विप। यकार को सम्प्रसारण करके - ध इ आ। सम्प्रसारणाच्च’ सत्र से इकार + आकार के स्थान में पूर्वरूप एकादेश करके - धि। हलः सूत्र से दीर्घ करके धीः बनता है।
श्रि धातु से क्विप् प्रत्यय - क्विब्वचिप्रच्छ्यायतस्तुकटपुजुश्रीणां दीर्घोऽसम्प्रसारणं च (वा.) - इन धातुओं से क्विप् होता है, इन्हें दीर्घ होता है तथा सम्प्रसारण नहीं होता। श्रि + क्विप् / क्विप् प्रत्यय का सर्वापहारी लोप करके, तथा ‘इ’ को इस वार्तिक से दीर्घ करके - श्रीः । स्तु, जु, पु धातुओं से क्विप् प्रत्यय - आयत + ङस् + स्तु + क्विप् / क्विप् प्रत्यय का सर्वापहारी लोप करके, ‘सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से विभक्ति का लोप करके तथा ‘उ’ को इसी वार्तिक से दीर्घ करके - आयतस्तूः । जु + क्विप् = जूः। इसी प्रकार कट + पु + क्विप् = कटप्रूः। शेष ह्रस्व इकारान्त, ह्रस्व उकारान्त, ह्रस्व ऋकारान्त धातुओं से क्विप् प्रत्यय - ऊपर के वार्तिक ने आयतपूर्वक स्तु धातु को, कटपूर्वक प्रु धातु को तथा निरुपपद जु, श्रि धातुओं को दीर्घ किया है। अतः इनके अलावा जो ह्रस्व अजन्त धातु बचे, उन्हें ‘ह्रस्वस्य पिति कृति तुक्’ से तुक् का आगम कीजिये -
- शत्रु + ङस् + जि + क्विप् / प्रत्यय का सर्वापहारी लोप करके तथा सुपो धातुप्रातिपदिकयोः सूत्र से विभक्ति का लोप करके - शत्रु + जि / तुगागम करके = शत्रुजत् । शत्रुजित् + सु - हल्ड्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल् (६.१.६८) - हलन्त से परे और दीर्घ ड्यन्त, आबन्त से परे आने वाले सु, ति, सि सम्बन्धी अपृक्त हल् का लोप होता है। यय - शेष कित् डित् प्रत्यय ३९९ इस सूत्र से सु का लोप करके = शत्रुजित्। इसी प्रकार - सुकृत्, कर्मकृत्, पापकृत्, मन्त्रकृत्, पुण्यकृत्, शास्त्रकृत्, भाष्यकृत्, अग्निचित्, श्येनचित्, कङ्कचित्, सोमसुत्, ग्रावस्तुत् आदि बनाइये। २. दीर्घ अजन्त धातुओं से क्विप् प्रत्यय - आकारान्त धात - इन्हें कछ नहीं होता। विश्व + ङस् + पा + क्विप् - क्विप् प्रत्यय का सर्वापहारी लोप करके तथा ‘सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से विभक्ति का लोप करके - विश्वपा - विश्वपाः । प्रथमा विभक्ति के पूरे रूप - विश्वपाः विश्वपौ विश्वपाः। ईकारान्त धातु - इन्हें कुछ नहीं होता। सेना + ङस् + नी + क्विप् / पूर्ववत् क्विप् प्रत्यय का सर्वापहारी लोप करके तथा ‘सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से विभक्ति का लोप करके सेना + नी = सेनानीः । इसी प्रकार - ग्राम + नी = ग्रामणीः । प्रथमा विभक्ति के पूरे रूप - ग्रामणीः ग्रामण्यौ ग्रामण्यः । ‘स एषां ग्रामणीः’ सूत्र में णत्व को देखकर उसके निर्देश से यहाँ भी णत्व हुआ है। इसी प्रकार अग्रणीः, प्रणीः आदि। ऊकारान्त धातु - इन्हें भी कुछ नहीं होता। वत्स + ङस् + सू + क्विप् / प्रत्यय का सर्वापहारी लोप करके तथा ‘सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से विभक्ति का लोप करके - वत्ससूः । प्रथमा विभक्ति के पूरे रूप - वत्ससूः वत्ससुवौ वत्ससुवः । इसी प्रकार - अण्डसूः, शतसूः, प्रसूः, आदि। प्रति + भू - प्रतिभूः / वि + भू - विभूः, आदि। दीर्घ ऋकारान्त धातु - धातु के अन्त में दीर्घ ऋ आने पर उसे ऋत इद् धातोः’ सूत्र से इर् बनाइये कृ + क्विप् - किर्। प्रथमा विभक्ति में सु आने पर हलि च’ से दीर्घ कीजिये। प्रथमा विभक्ति के पूरे रूप - कीः किरौ किरः। ऋ के पूर्व में ओष्ठ्य व्यज्जन होने पर ऋको उदोष्ठ्यपूर्वस्य सूत्र से उर् बनाइये पृ + क्विप् - पुर् । पूर्ववत् प्रथमा विभक्ति के पूरे रूप - पूः पुरौ पुरः । ३. हलन्त धातुओं से क्विप् प्रत्यय - ४०० अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ ध्यान दें कि ध प्रत्यय लगाकर कृत्प्रत्ययान्त शब्द निष्पन्न करना, यही इस खण्ड का कार्य है । कृत् प्रत्ययान्त शब्द में विभक्ति लगाकर उसे पद बनाना सुबन्तखण्ड का कार्य है। तथापि शब्दसाधुत्व के लिये प्रथमा एकवचन का रूप दे रहे हैं। सुबन्तरचना के लिये सुबन्त में देखना अपेक्षित है। बाद चकारान्त धातु -वच् + क्विप् - ‘क्विब्वचिप्रच्छ्यायतस्तुकटपुजुश्रीणां दीर्घो ऽसम्प्रसारणं च’, इस वार्तिक से वच् धातु को दीर्घ करके - वाच् / वाच् + सु / ‘हल्ड्याब्भ्यो’ सूत्र से सु का लोप करके - वाच् / चोः कुः से कुत्व करके - वाक् । वाऽवसाने (८.४.५६) - अवसान (अन्त) में आने वाले झल् के स्थान पर वा विकल्प से जश् (तृतीयाक्षर) तथा चर् (प्रथमाक्षर) होते हैं। प्रथमा विभक्ति के पूरे रूप - वाक् वाग् वाचौ वाचः । छकारान्त धातु - शब्दप्राट - शब्द + ङस् + प्रच्छ + क्विप् / प्रत्यय का सर्वापहारी लोप करके तथा सुपो धातुप्रातिपदिकयोः सूत्र से विभक्ति का लोप करके शब्दप्रच्छ / ‘क्विब्वचिप्रच्छ्यायतस्तु’. वार्तिक से दीर्घ हाकर - शब्दप्राच्छ् / शब्दप्राच्छ + सु / हल्ड्याब्भ्यो. सूत्र से सु का लोप करके - शब्दप्राच्छ् / वश्चभ्रस्ज’ सूत्र से छ् के स्थान पर ष् करके - शब्दप्राष् - वाऽवसाने सूत्र से अवसान (अन्त) में आने वाले झल् के स्थान पर विकल्प से जश् तथा चर् आदेश करके - शब्दप्राट्, शब्दप्राड्। मूः - मूर्च्छ + क्विप् / प्रत्यय का सर्वापहारी लोप करके तथा सुपो धातुप्रातिपदिकयोः सूत्र से विभक्ति का लोप करके मूर्च्छ - राल्लोपः (६.४.२१) - रेफ से परे आने वाले छकार, वकार का लोप होता है, क्वि प्रत्यय परे होने पर तथा झलादि कित्, डित् प्रत्यय परे होने पर। इस सूत्र से रेफ से परे आने वाले छकार का लोप करके - मूर् / ‘खरवसानयोर्विसर्जनीयः’ सूत्र से र् को विसर्ग करके = मूः मूरौ मूरः। जकारान्त धातु - विभ्राट् - वि + भ्राज् + क्विप् - विभ्राज् / विभ्राज् + सु / पूर्ववत् ‘व्रश्चभ्रस्ज’. सूत्र से ज् के स्थान पर ष् करके - विभ्राष् - ‘वाऽवसाने’ सूत्र से अवसान (अन्त) में आने वाले झल् के स्थान पर विकल्प से जश् तथा चर् आदेश करके - प्रथमा में - विभ्राट, विभ्राड्, विभ्राजौ, विभ्राजः । इसी प्रकार - शेष कित् डित् प्रत्यय ४०१ राट् -राज् + क्विप् - राज् - पूर्ववत् - राट् राजौ राजः। .. राज् धातु के पूर्व में सम् उपसर्ग होने पर - सम्राट् -सम् + राज् + क्विप् - सम् + राज् - मो राजि समः क्वौ - सम् के मकार को मकार ही रहता है (मोऽनुस्वारः से अनुस्वार नहीं होता) राज् धातु परे होने पर - सम्राज् । पूर्ववत् - सम्राट् सम्राजौ, सम्राजः । __ऊt - उ + क्विप् - उर्जु / उपधायां च’ सूत्र से दीर्घ करके - ऊर्छ / ऊ + सु - ‘हल्ड्याब्भ्यो’. सूत्र से सु का लोप करके - ऊर्ज़ / ‘संयोगान्तस्य लोपः’ सूत्र से जकार का लोप प्राप्त होने पर रात्सस्य’ सूत्र का नियम होने के कारण जकार का लोप न करके - ज् चोः कुः सूत्र से कुत्व करके - ऊ- वाऽवसाने सूत्र से अवसान (अन्त) में आने वाले झल् के स्थान पर विकल्प से जश् तथा चर् आदेश करके - ऊर्ध्व ऊर्ग, ऊर्जा ऊर्जः । युक् - युज् + क्विप् - युज् - पूर्ववत् - युक्, युग, युजौ युजः। तकारान्त धातु - विद्युत् + क्विप् - विद्युत् । प्रथमा विभक्ति के पूरे रूप - विद्युद्, विद्युत्, विद्युतौ विद्युतः।। दकारान्त धातु - वेदि + सद् + क्विप् / क्विप् का सर्वापहारी लोप होकर - वेदि + सद् - स को ‘आदेशप्रत्यययोः’ सूत्र से षत्व होकर - वेदिषद्, वेदिषत् । इसी प्रकार शुचिषत्, अन्तरिक्षषत्, प्रसत् आदि। वेद + ङस् + विद् + क्विप् - वेदवित्, वेदविद्, वेदविदौ, वेदविदः । इसी प्रकार प्रवित्, ब्रह्मवित् आदि। छिद् + क्विप् - छिद्, छित्, छिदौ, छिदः । इसी प्रकार - काष्ठभिद्, प्रभिद् आदि। रज्जु + ङस् + छिद् + क्विप् / प्रत्यय का सर्वापहारी लोप करके तथा सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से विभक्ति का लोप करके - रज्जु + छिद् - छे च’ सूत्र से तुक् का आगम करके - रज्जु त् छिद् / स्तोः श्चुना श्चुः से त् को श्चुत्व करके - रज्जुच्छिद् । इसी प्रकार - प्रच्छिद्, प्रच्छित्, प्रच्छिदौ प्रच्छिदः । तनुच्छद्, तनुच्छत्, तनुच्छदौ तनुच्छदः, आदि। सम् + पद् + क्विप् = सम्पद् वि + पद् + क्विप् = विपद् आ + पद् + क्विप् = आपद् प्रति + पद् + क्विप् = प्रतिपद् परि + सद् + क्विप् = परिषद् ४०२ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ अनुनासिकान्त णकारान्त, नकारान्त तथा मकारान्त धातु - अनुनासिकान्त धातुओं के तीन वर्ग बनाइये। १. ब्रह्म + ङस् + हन् + क्विप् । प्रत्यय का सर्वापहारी लोप करके तथा ‘सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से विभक्ति का लोप करके - ब्रह्महन्। प्रथमा विभक्ति के पूरे रूप - ब्रह्महा ब्रह्महणौ ब्रह्महणः। २. गमः क्वौ (६.४.४०) - अङ्गान् गच्छति इति अङ्गगत् । अङ्ग + गम् + क्विप् - गमादीनामिति वक्तव्यम् (वा. ६.४.४०) - गमादि धातुओं के अनुनासिक का लोप होता है. क्वि प्रत्यय परे होने पर। इस सूत्र से अनुनासिक का लोप करके - अङ्गग / ‘ह्रस्वस्य पिति कृति तुक्’ सूत्र से तुक् का आगम करके - अङ्गगत् । इसी प्रकार - अध्वगत्, कलिङ्गगत्। सु + नम् + क्विप् = सुनत् । सम् + यम् + क्विप् = संयत्। पुरीतत् - पुरि + तन् + क्विप् / पूर्ववत् - पुरि + तत् / ‘नहिवृतिवृषिव्यधिरुचिसहितनिषु क्वौ (६.३.११६)’ सूत्र से दीर्घ करके - परीतत्। __ऊङ् च गमादीनामिति वक्तव्यं लोपश्च (वा. ६.४.४०)- गमादि धातुओं के अनुनासिक का लोप करने के बाद उस अनुनासिक से पूर्व में जो ‘अ’ है, उसे ‘ऊ’ आदेश होता है। के अग्र + डि + गम् + क्विप / क्विप प्रत्यय का सर्वापहारी लोप करके तथा ‘तत्पुरुषे कृति बहुलम्’ सूत्र से ङि विभक्ति का अलुक् करके - अग्र + डि + गम् / इस वार्तिक से अनुनासिक का लोप करने के बाद उस अनुनासिक से पूर्व जो ‘अ’ है, उसे ‘ऊ’ आदेश करके - अग्र + इ + गूः = अग्रेगूः। इसी प्रकार - अग्रे + भ्रम् + क्विप् से अग्रेभूः। प्रतान् - प्र + तम् + क्विप् / प्रत्यय का सर्वापहारी लोप करके तथा सुपो धातुप्रातिपदिकयोः सूत्र से विभक्ति का लोप करके - प्रतम् - ३. अब जो अनुनासिकान्त धातु बचे, उनकी उपधा को दीर्घ करें। सूत्र अनुनासिकस्य क्विझलोः क्डिति (६.४.१५) - अनुनासिकान्त की उपधा को दीर्घ होता है, क्विप् परे होने पर तथा झलादि कित्, डित् प्रत्यय परे होने पर। स्वन् + क्विप् = स्वान्। अण् + क्विप् = आण्। रण् + क्विप् = राण। कम् = काम्। प्रतम् - प्रताम् / मो नो धातोः से नत्व करके - प्रतान् + सु - प्रतान्। शेष कित् डित् प्रत्यय ४०३ प्रशान् - प्र + शम् + क्विप् / प्रत्यय का सर्वापहारी लोप करके तथा ‘सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से विभक्ति का लोप करके - प्रशम् - _ ‘अनुनासिकस्य क्विझलोः क्डिति’ सूत्र से अनुनासिकान्त की उपधा को दीर्घ करके - प्रशाम् / प्रशाम् + सु / सु का लोप करके - प्रशाम् - __ मो नो धातोः (८.२.६४) - धातु के पदान्त मकार के स्थान पर नकार आदेश होता है। प्रशाम् - प्रशान्। प्राण - प्र + अन् + क्विप् / प्रत्यय का सर्वापहारी लोप करके तथा ‘सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से विभक्ति का लोप करके - प्रान् - __ अन्तः (८.४.२०) - उपसर्गस्थ निमित्त से परे आने वाले पदान्त अन् धातु के न् को ण् आदेश होता है। प्रान् = प्राण। वकारान्त तथा रेफान्त धातु - च्छ्वो : शूडनुनासिके च (६.४.१९) - छकार, वकार के स्थान पर क्रमशः श्, ऊ आदेश होते हैं, क्वि, झलादि कित्, ङित् और अनुनासिकादि प्रत्यय परे होने पर। दिव् + क्विप् - क्विप् का सर्वापहारी लोप करके - दिव् / वकार के स्थान पर ऊ आदेश करके - दि ऊल् - दि ऊ / इको यणचि से इ के स्थान पर यण आदेश करके - यू / यू + सु / यू + स् / ‘ससजुषो रुः’ सूत्र से स् को रुत्व करके - चूरु - ‘खरवसानयोर्विसर्जनीयः’ सूत्र से र् को विसर्ग करके = द्यूः । प्रथमा विभक्ति के पूरे रूप - यूः य्वौ घ्य्वः। ज्वर् + क्विप् - क्विप् का सर्वापहारी लोप करके - ज्वर - ज्वरत्वरस्रिव्यविमवामुपधायाश्च (६.४.२०) - ज्वर, त्वर, स्रिव्, अव्, मव्, इन धातुओं के वकार तथा उपधा के स्थान पर ऊल् आदेश होता है, क्वि, झलादि और अनुनासिकादि प्रत्यय परे होने पर। ज्वर् + क्विप् / ज् ऊर् र् - जूर् / ‘खरवसानयोर्विसर्जनीयः’ सूत्र से र् को विसर्ग करके = जूः। प्रथमा विभक्ति के पूरे रूप - जूः जूरौ जूरः। त्वर् + क्विप् / वकार तथा उपधा के स्थान पर ऊ आदेश करके - तूः तूरौ तूरः। स्रिव् + क्विप् / वकार तथा उपधा के स्थान पर ऊ आदेश करके = स्रः । अव् + क्विप् / वकार तथा उपधा के स्थान पर ऊठ आदेश करके - ऊः । मव् + क्विप् / वकार तथा उपधा के स्थान पर ऊ आदेश करके - मूः । धूः - धुत् + क्विप् - ४०४ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ राल्लोपः (६.४.२१) - रेफ से परे आने वाले छकार, वकार का लोप होता है, क्विप् प्रत्यय परे होने पर तथा झलादि कित्, ङित् प्रत्यय परे होने पर। धु + क्विप् - राल्लोपः सूत्र से व् का लोप करके - धुर्। प्रथमा विभक्ति में सु आने पर हलि च’ से दीर्घ करके - प्रथमा विभक्ति के पूरे रूप - धूः धुरौ, धुरः। शकारान्त धातु - वाह + ङसि + भ्रंश् + क्विप् । प्रत्यय का सर्वापहारी लोप करके तथा ‘सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से विभक्ति का लोप करके - वाहभ्रंश्। वाहभ्रंश् + सु / ‘हल्ल्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल्’ सूत्र से सु का लोप करके - वाहभ्रंश् । ‘व्रश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्रजच्छशां षः’ सूत्र से श् को ष् करके - वाहभ्रष् / वाऽवसाने’ सूत्र से ष् को विकल्प से जश्त्व तथा चर्व करके - वाहभ्रट, वाहभ्रड्। प्रथमा विभक्ति के पूरे रूप - वाहभ्रट, वाह-ड्, वाहभ्रशौ वाहभ्रशः । सकारान्त धातु - उखास्रद् - उखा + ङसि + स्रेस् + क्विप् । प्रत्यय का सर्वापहारी लोप करके तथा ‘सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से विभक्ति का लोप करके - उखास्रस्। ‘वसुस्रंसुध्वंस्वनडुहां दः’ सूत्र से स् को द् करके - उखासद् । उखासद् + सु / ‘हल्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल्’ सूत्र से सु का लोप करके - उखासद् । ‘वाऽवसाने’ सूत्र से द् को विकल्प से जश्त्व तथा चर्व करके - उखास्रद्, उखास्रत् । प्रथमा विभक्ति के पूरे रूप - उखास्रद्, उखास्रत् उखास्रसौ उखास्रसः । पर्णध्वत् - इसी प्रकार - पर्ण + ङसि + ध्वंस् + क्विप् । प्रत्यय का सर्वापहारी लोप करके तथा ‘सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से विभक्ति का लोप करके - पर्णध्वस् । ‘वसुस्रंसुध्वंस्वनडुहां दः’ सूत्र से स् को द् करके - पर्णध्वद्, पर्णध्वत् आदि। भाः - भास् + क्विप् - भास्। भास् + सु / ‘हल्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल्’ सूत्र से सु का लोप करके - भास् / ‘ससजुषो रुः’ सूत्र से स् को रुत्व करके - भारु - ‘खरवसानयोर्विसर्जनीयः’ सूत्र से र् को विसर्ग करके = भाः। प्रथमा विभक्ति के पूरे रूप - भाः भासौ भासः। मित्रशीः - मित्र + ङस् + शास् + क्विप् / प्रत्यय का सर्वापहारी लोप करके तथा सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से विभक्ति का लोप करके - मित्रशास् - शास इदङ्हलोः (६.४.३४) - परस्मैपदी शासु धातु की उपधा को इ आदेश होता है, अङ् तथा हलादि कित् ङित् प्रत्यय परे होने पर। शेष कित् ङित् प्रत्यय प्रयोग ४०५ मित्रशास् - मित्रशिस् । मित्रशिस् + सु / सु का लोप करके तथा ससजुषो रुः’ सूत्र से स् को रुत्व करके - मित्रशिरु / ‘हलि च’ सूत्र से इक् को दीर्घ करके - मित्रशीरु / ‘खरवसानयोर्विसर्जनीयः’ सूत्र से र् को विसर्ग करके = मित्रशीः। आशीः - आ + शास् + क्विप् / प्रत्यय का सर्वापहारी लोप करके तथा सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से विभक्ति का लोप करके - आशास् - आशासः क्वौ उपधाया इत्वं वाच्यम् - आत्मनेपदी आङ् + शास् धातु की उपधा को इ आदेश होता है, क्विप् परे होने पर। __ आ + शास् - आ + शिस् । आशिस् + सु / सु का लोप करके तथा ससजुषो रुः’ सूत्र से स् को रुत्व करके - आशिरु / हलि च’ सूत्र से इक् को दीर्घ करके - आशीरु / ‘खरवसानयोर्विसर्जनीयः’ सूत्र से र् को विसर्ग करके = आशीः, आशिषौ आशिषः । षकारान्त धातु - मित्र + ङस् + द्विष + क्विप् / प्रत्यय का सर्वापहारी लोप करके तथा ‘सपो धातप्रातिपदिकयोः’ सत्र से विभक्ति का लोप करके - मित्रद्विष। के वाऽवसाने’ सूत्र से ष् को विकल्प से जश्त्व करके - मित्रद्विड्, तथा चर्व करके - मित्रद्विट् । प्रथमा विभक्ति के पूरे रूप - मित्रद्विट, मित्रद्विड् मित्रद्विषौ मित्रद्विषः । इसी प्रकार - प्रद्विट, प्रद्विड् प्रद्विषौ प्रद्विषः आदि। हकारान्त धातु - मधुलिट् - मधु + ङस् + लिह + क्विप् / प्रत्यय का सर्वापहारी लोप करके तथा ‘सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से विभक्ति का लोप करके - मधुलिह् । हो ढः - हकारान्त धातुओं के ह के स्थान पर ढ् आदेश होता है, झल् परे होने पर तथा पदान्त में । मधुलिह - मधुलिढ् / मधुलिढ् + सु / सु का लोप करके - मधुलिढ् वाऽवसाने’ सूत्र से ढ् को विकल्प से जश्त्व तथा चर्व करके प्रथमा विभक्ति के पूरे रूप - मधुलिट्, मधुलिट् मधुलिहौ मधुलिहः। . गोधुक् - गो + ङस् + दुह् + क्विप् / प्रत्यय का सर्वापहारी लोप करके तथा ‘सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से विभक्ति का लोप करके - गोदुह् ।। दादेर्धातोर्घः (८.२.३२) - दकारादि हकारान्त धातुओं के ह के स्थान पर घ् आदेश होता है, झल् परे होने पर और पदान्त में। गोदुह - गोदुघ् / गोदुघ् + सु / सु का लोप करके - गोदुघ् - एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः (८.२.३७) - धातु का अवयव जो एकाच ४०६ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ झषन्त, तदवयव जो बश्, उसके स्थान पर भष् आदेश होता है, पदान्त में तथा सकार, ध्व परे होने पर। इस सूत्र से बश् ‘द’ के स्थान पर भष् ‘ध’ आदेश करके - गोधुघ् / ‘वाऽवसाने’ सूत्र से घ् को विकल्प से जश्त्व तथा चर्व करके - प्रथमा विभक्ति के पूरे रूप - गोधुक्, गोधुग् गोदुहौ, गोदुहः। इसी प्रकार - प्र + दुह् + क्विप् - प्रदुह् ।। प्रथमा विभक्ति के पूरे रूप - प्रधुक्, प्रधुम् प्रदुहौ प्रदुहः। मित्रधुट - मित्र + ङस् + द्रुह् + क्विप् / प्रत्यय का सर्वापहारी लोप करके तथा ‘सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से विभक्ति का लोप करके - मित्रद्रुह् । मित्रद्रुह् + सु / सु का लोप करके - मित्रद्रुह् - वा द्रुहमुहष्णुहष्णिहाम् (८.२.३३) - द्रुह, मुह, ष्णुह, स्निह्, धातुओं के ह के स्थान पर विकल्प से घ् और ढ् आदेश होते हैं, झल् परे होने पर और पदान्त में। ह् के स्थान पर घ् आदेश होने पर - मित्रद्रुह् - मित्रद्रुघ् - ‘एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः’ सूत्र से बश् ‘द’ के स्थान पर भष् ‘ध्’ आदेश करके - मित्रद्रुघ् - मित्रध्रुघ्। वाऽवसाने’ सूत्र से विकल्प से जश्त्व तथा चर्व करके प्रथमा विभक्ति के पूरे रूप - मित्रधुक्, मित्रघुग्, मित्रद्रुहौ मित्रद्रुहः । ह् के स्थान पर द आदेश होने पर - मित्रद्रुह - मित्रद्रुद - पूर्ववत् भष्भाव करके - मित्रधुढ् । वाऽवसाने’ सूत्र से विकल्प से जश्त्व तथा चर्व करके प्रथमा विभक्ति के पूरे रूप - मित्रधुड्, मित्रध्रुट, मित्रद्रुहौ मित्रद्रुहः । चर्मनत् - चर्म + टा + नह + क्विप् / पूर्ववत् - चर्मनह - नहो धः - नह धातु के ह के स्थान पर ध् आदेश होता है, झल् परे होने पर तथा पदान्त में। चर्मनह - चर्मनध् - ‘वाऽवसाने’ सूत्र से विकल्प से जश्त्व तथा चर्व करके प्रथमा विभक्ति के पूरे रूप - चर्मनत्, चर्मनद्, चर्मनहौ चर्मनहः ।