१०० कानच् प्रत्यय

छन्दसि लिट् (३.२.१०५)- वेदविषय में भूतकाल सामान्य में धातुमात्र से लिट् प्रत्यय होता है। अहं सूर्यमुभयतो ददर्श। यो भानुना पृथिवीं द्यामुतेमामाततान । __ ध्यान दें कि लोक में परोक्षभूत में लिट् होता है और वेद में ‘छन्दसि लिट’ सूत्र से सामान्यभूत में भी लिट् हो जाता है। लिटः कानज्वा (३.२.१०६) - वेदविषय में भूतकाल में विहित जो लिट् उसके स्थान में कानच आदेश विकल्प से होता है। ध्यान दें कि कानच् प्रत्यय केवल वेद में प्रयुक्त होता है, लोक में नहीं। कानच् प्रत्यय में लशक्वतद्धिते’ सूत्र से क् की तथा हलन्त्यम्’ सूत्र से च की इत् संज्ञा होकर तस्य लोपः’ सूत्र से दोनों का लोप होकर ‘आन’ ही शेष बचता है। शित् न होने के कारण ‘आर्धधातुकं शेषः’ सूत्र से इसकी आर्धधातुक संज्ञा है। किन धातुओं से कानच् प्रत्यय लगायें ? तङानावात्मनेपदम् (१.४.१००) - तङ् और आन प्रत्यय आत्मनेपदसंज्ञक होते हैं। तङ् का अर्थ है - त, आताम्, झ। थास्, आथाम्, ध्वम् । इड्, वहि, महिङ् । आन का अर्थ है - शानच् और कानच् प्रत्यय। __ अनुदात्तङित् आत्मनेपदम् (१.३.१२) - जिन धातुओं में अनुदात्त स्वर की इत् संज्ञा हुई हो, उन धातुओं को अनुदात्तेत् धातु कहते हैं। जिन धातुओं में ड् की इत् संज्ञा हुई हो, उन धातुओं को ङित् धातु कहते हैं। अनुदात्तेत् और डित्, इन धातुओं से आत्मनेपदसंज्ञक प्रत्यय होते हैं। हम जानते हैं कि शानच् और कानच् की आत्मनेपद संज्ञा है। अतः अनुदात्तेत् और डित्, इन धातुओं से ही शानच्, कानच् प्रत्यय होते हैं। स्वरितञितः कर्बभिप्राये क्रियाफले (१.३.७२) - जिन धातुओं में स्वरित स्वर की इत् संज्ञा हुई हो, उन धातुओं को स्वरितेत् धातु कहते हैं। जिन धातुओं में ञ् की इत् संज्ञा हुई हो, उन धातुओं को जित् धातु कहते हैं। ऐसे स्वरितेत् तथा जित् धातुओं की क्रिया का फल जब कर्ता को मिलता हो, तब इन धातुओं से आत्मनेपद होता है। __ यदि इन स्वरितेत् तथा जित् धातुओं की क्रिया का फल कर्ता को न मिलता हो, क्वसु प्रत्यय ३९३ तब उस स्वरितेत् तथा जित् धातु से परस्मैपद होता है। धातुओं से कानच् प्रत्यय लगाने की विधि - लिट् के स्थान पर होने के कारण . यह कानच् प्रत्यय लिडादेश है। अतः इसके लगने पर धातुओं को वे सारे द्वित्वादि कार्य होंगे, जो कार्य लिट् परे होने पर धातुओं को होते हैं। लिट् लकार की पूरी प्रक्रिया हमने ‘अष्टाध्यायी सहज बोध के द्वितीय खण्ड में दी है। अतः यहाँ उसकी पुनरुक्ति नहीं करेंगे। उन द्वित्वादि विधियों को विस्तार से वहीं देखें । यहाँ केवल अङ्ग में कानच् प्रत्यय लगाना बतलायेंगे। अग्निं चिक्यानः - चि + कानच् / चि + आन / ‘लिटि धातोरनभ्यासस्य’ ये द्वित्व होकर - चि चि + आन / विभाषा चेः से च को कुत्व होकर - चि कि + आन / ‘एरनेकाचोऽसंयोगपूर्वस्य’ से यण् होकर - चिक्यान / चिक्यान + सु = चिक्यानः । सुषुवाणः - सु + कानच् / सु + आन / ‘लिटि धातोरनभ्यासस्य’ ये द्वित्व होकर - सु सु + आन / ‘अचि शनुधातुभ्रुवां य्वोरियडुवङौ’ सूत्र से उ के स्थान पर उवङ् आदेश होकर - सु सुव् + आन / आदेशप्रत्यययोः’ से स को षत्व होकर - सु षुव् + आन / ‘अट्कुप्वाङ्नुम्व्यवायेऽपि’ सूत्र से न को णत्व होकर - सुषुवाण / सुषुवाण + सु = सुषुवाणः। कानच् प्रत्यय विकल्प से होता है, अतः कानच् न होने पर लिट का प्रयोग भी कर सकते हैं - अहं सूर्यमुभयतो ददर्श। शेष कित्, डित् प्रत्यय अब हम बचे हए कित, डित प्रत्यय लगायें - हम जानते हैं कि प्रत्यय के कित् डित् होने पर, मुख्यतः तीन कार्य होते हैं १. गुणनिषेध २. अनिदित् धातुओं की उपधा के न् का लोप। ३. सम्प्रसारणी धातुओं को सम्प्रसारण ।