स्त्रियां क्तिन् (३.३.९४) - धातुओं से स्त्रीलिङ्ग में कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में क्तिन्’ प्रत्यय होता है। ध्यान रहे कि क्त्वा आदि प्रत्ययों के समान क्तिन् प्रत्यय सारे धातुओं से नहीं लगता। अपितु ऊपर जिन भी धातुओं से स्त्रीलिङ्ग में कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में क्तिन् से भिन्न जो भी प्रत्यय कहा गया है, उनसे तो वही प्रत्यय होता है, तथा उनके अतिरिक्त अब जो धातु बच रहे हैं, उन धातुओं से स्त्रीलिङ्ग में कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में क्तिन् प्रत्यय होता है। अतः धातुओं में क्तिन् प्रत्यय लगाने के पहिले यह विचार अवश्य कर लेना चाहिये कि उनसे क्तिन् प्रत्यय प्राप्त भी है, अथवा नहीं।
इडागम का विचार
तितुत्रतथसिसुसरकसेषु च (७.२.९) - ति, तु, त्र, त, थ, सि, सु, सर, क, स , इन दस प्रत्ययों को इडागम नहीं होता। अतः क्तिन् प्रत्यय अनिट् प्रत्यय है। इसके अपवाद - तितुत्रेष्वग्रहादीनामिति वक्तव्यम् - क्तिन् को इडागम करके केवल चार शब्द बनते हैं। निगृहीतिः, निकुचितिः, उपस्निहितिः, निपठितिः । अतः इन चार प्रयोगों को छोड़कर किसी भी धातु से होने वाले क्तिन् प्रत्यय को इडागम मत कीजिये। क्तिन् प्रत्यय में हलन्त्यम् सूत्र से न् की तथा लशक्वतद्धिते सूत्र से क् की इत्संज्ञा करके ‘तस्य लोपः’ से दोनों का लोप करके ‘ति’ शेष बचता है। यह तकारादि कित् आर्धधातुक प्रत्यय है। अतः इसके परे होने पर वे सारे कार्य होंगे, जो तकारादि कित् आर्धधातक प्रत्यय परे होने पर कहे गये हैं। ३५८ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ हम जानते हैं कि प्रत्यय के कित् डित् होने पर, मुख्यतः ये कार्य होते हैं १. गुणनिषेध। २. ऋ के स्थान पर इर्, उर्। दीर्घ होकर ईर्, ऊर्। ३. अनिदित् धातुओं की उपधा के न् का लोप। ४. सम्प्रसारणी धातुओं को सम्प्रसारण। ध्यान रहे कि इस ग्रन्थ में धातुओं के रूप उत्सर्गापवाद विधि से ही बनाये गये हैं। अतः इसमें हम सब धातुओं के रूप न बनाकर, केवल उन्हीं धातुओं के रूप बनायेंगे, जिनमें प्रत्यय लगने पर, धातु को, प्रत्यय को, अथवा दोनों को कुछ न कुछ परिवर्तन होता ही है। दूसरे यह कि इसमें हम धातुओं के रूप, धातुओं के आद्यक्षर के क्रम से न बनाकर, धातुओं के अन्तिम अक्षर को वर्णमाला के क्रम से रखकर बनायेंगे। अब हम धातुओं में क्तिन् प्रत्यय लगायें - आकारान्त तथा एजन्त धातु जिनके अन्त में आ है, वे धातु आकारान्त हैं - जैसे - दा, धा, ला, आदि। जिनके अन्त में एच् अर्थात् ए, ओ, ऐ, औ हैं उन एजन्त धातुओं के अन्तिम एच् के स्थान पर ‘आदेच उपदेशेऽशिति’ सूत्र से ‘आ’ आदेश होता हैं । अतः आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर एजन्त धातु भी आकारान्त बन जाते हैं। जैसे - दे - दा / धे - धा / ग्लै - ग्ला / म्लै - म्ला / शो - शा / सो - सा आदि। घुसंज्ञक धातु - __दाधाघ्वदाप् (१.१.२०)- ध्यान दें कि दारूप छह धातु हैं - दो - दा / देङ् - दा / डुदाञ् - दा / दाण् - दा / दैप् - दा / दाप् - दा। दारूप छह धातुओं में से - दो - दा / देङ् - दा / डुदाञ् - दा / दाण् - दा, इन चार धातुओं की तथा धारूप धातुओं में से धेट - धा / डुधाञ् - धा / इस प्रकार कुल ६ धातुओं की घु संज्ञा होती है। अब हम इनमें क्तिन् प्रत्यय लगायें - दो अवखण्डने धातु - __ द्यतिस्यतिमास्थामित्ति किति (७.४.४०) - दो-दा, षो-सा, मा, स्था धातुरूप अगों को तकारादि कित् प्रत्यय परे होने पर, इकार अन्तादेश होता है। निर् + दो + क्तिन् / निर् + दि + ति = निर्दितिः । दे – दा / डुदाञ् - दा / दाण् - दा, धातु - क्तिन् प्रत्यय ३५९ . दो दद् घोः (७.४.४६) - घु संज्ञक दा धातु के स्थान में दथ् आदेश होता है, तकारादि कित् प्रत्यय परे होने पर। दा + क्तिन् / दथ् + ति / खरि च से थ् को त् करके दत् + ति = दत्तिः । दाप, दैप् धातु - ध्यान दें कि ये धातु घुसंज्ञक नहीं हैं। अतः इन्हें दो दद् घोः’ से दथ् आदेश नहीं होगा। अतः - दा + क्तिन् / दा + ति = दातिः । इसी प्रकार - दै + क्त / आदेच उपदेशऽशिति से आत्व होकर - दा + त = दातिः। डुधाञ् धातु - दधातेर्हिः (७.४.४२) - डुधाञ् धातु को हि आदेश होता है, तकारादि कित् प्रत्यय परे होने पर। धा + क्तिन् / हि + ति = हितिः । धेट् धातु - घुमास्थागापाजहातिसां हलि (६.४.६६) - घुसंज्ञक दा, धा धातु, मा, स्था, गा, पा, ओहाक् तथा षो - सा, इन अङ्गों को हलादि कित् डित् आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर ईकारादेश हो जाता है। धे + क्तिन् / ‘आदेच उपदेशेऽशिति’ सूत्र से ए के स्थान पर ‘आ’ आदेश करके - धा + क्तिन् / इस सूत्र से ईत्व करके - धी + ति = धीतिः । षो - सा धातु - षो - सा + क्तिन् / द्यतिस्यतिमास्थामित्ति किति से इकारादेश प्राप्त होने पर - ‘ऊतियूतिजूतिसातिहेतिकीर्तयश्च’ सूत्र से निपातन से - सातिः, बनाइये। मा, मे, माङ् धातु - __ मा + क्तिन् / द्यतिस्यतिमास्थामित्ति किति से इकारादेश करके - मि + ति = मितिः। स्था धातु - स्था + क्तिन् / द्यतिस्यतिमास्थामित्ति किति से इकारादेश करके - स्थि + ति = स्थितिः। गै - गा / गाङ् / गा धातु - गै- गा + क्तिन् / घुमास्थागापाजहातिसां हलि से आ को ईकारादेश करके - गी + ति = गीतिः । इसी प्रकार गाङ् तथा गा से भी गीतिः । ३६० अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ पै शोषणे तथा पा पाने धातु - पै - पा + क्तिन् / घुमास्थागापाजहातिसां हलि से आ को ईकारादेश करके - पी + ति = पीतिः । इसी प्रकार पा पाने धातु से भी पीतिः बनाइये। शो - शा, छो - छा धातु - शाच्छोरन्यतरस्याम् (७.४.४१)- शो तथा छो अङ्ग को विकल्प से इकारादेश होता है, तकारादि कित् प्रत्यय परे होने पर। शो + क्तिन् / इकारादेश होकर - शि + ति = शितिः । इकारादेश न होने पर - शो - शा + ति = शातिः। इसी प्रकार छो धातु से - छितिः, छातिः, बनाइये। वेञ् धातु - वे + क्तिन् / ‘वचिस्वपियजादीनाम् किति’ से सम्प्रसारण करके - उ ए + ति / सम्प्रसारणाच्च से ए को पूर्वरूप करके - उ + ति = उतिः। हेञ् धातु - हे - वे + क्तिन् / ‘वचिस्वपियजादीनाम् किति’ से सम्प्रसारण करके - ह उ ए + ति / सम्प्रसारणाच्च से ए को पूर्वरूप करके तथा ‘हलः’ सूत्र से उ को दीर्घ करके - हू + ति = हूतिः। व्येञ् धातु - व्येञ् - वे + क्तिन् / वचिस्वपियजादीनाम् किति’ से य् को सम्प्रसारण करके - व् इ ए + त / सम्प्रसारणाच्च से ए को पूर्वरूप करके तथा हलः’ से इ को दीर्घ करके - वी + ति = वीतिः। शेष आकारान्त धातु - इनके अलावा अब जो भी आकारान्त धातु बचे, उन्हें कुछ मत कीजिये। धातु और प्रत्यय को सीधे जोड़ दीजिये। जैसे - वा - वा + क्तिन् = वातिः त्रै - श्रा + ’ क्तिन् = श्रातिः श्रा - श्रा + क्तिन् = श्रातिः
- घ्रा + क्तिन् = घ्रातिः - त्रा + क्तिन् = त्रातिः क्तिन् प्रत्यय शतकात ३६१ क्षै - क्षा + क्तिन् = क्षातिः भा - भा + क्तिन् = भातिः, आदि। विशेष - ध्यान रहे कि सोपसर्ग आकारान्त धातुओं से ‘आतश्चोपसर्गे’ सूत्र से स्त्रीलिङ्ग कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में अङ् प्रत्यय होता है, क्तिन् नहीं। प्र + दा + अङ् - प्रद् + अ + टाप् = प्रदान उप + दा + अङ् - उपद् + अ + टाप् = उपदा प्र + धा + अङ् - प्रध् + अ + टाप् = प्रधा उप + धा + अङ् - उपध् + अ + टाप् = उपधा श्रद् + धा + अङ् - श्रद्ध् + अ + टाप् = श्रद्धा अन्तर् + धा + अङ् - अन्तः + अ + टाप् = अन्तर्धा स्थागापापचो भावे (३.३.९५) - स्था, गा, पा, पच्, इन धातुओं से उपसर्ग होने पर भी क्तिन् प्रत्यय ही होता है। प्र + स्था + क्तिन् = प्रस्थितिः (द्यतिस्यतिमास्थामित्ति किति से इकारादेश) उप + स्था + क्तिन् = उपस्थितिः (द्यतिस्यतिमास्थामित्ति किति से इकारादेश) सम् + गा + क्तिन् = संगीतिः (घुमास्थागापाजहातिसां हलि से ईकारादेश)
- क्तिन् = प्रपीतिः (घुमास्थागापाजहातिसां हलि से ईकारादेश) __(डुपचष् पाके धातु से षिद्भिदादिभ्योऽङ् सूत्र से अङ् प्राप्त था, उसे बाधकर इससे क्तिन् होता है। इसे चकारान्त धातुओं में देखें।) इकारान्त धातु शिव धातु - शिव + क्तिन् / शिव + ति - ‘वचिस्वपियजादीनाम् किति’ सूत्र से व् को सम्प्रसारण करके - श् + उ + इ + ति / ‘सम्प्रसारणाच्च’ सूत्र से इ को पूर्वरूप करके, ‘हलः’ सूत्र से उ को दीर्घ करके - शू + ति - शूतिः । शेष इकारान्त धातु - शेष इकारान्त धातुओं को क्डिति च से केवल गुण निषेध होगा - क्षि - क्षि + क्तिन् = क्षितिः षिञ् - सि + क्तिन् = सितिः श्रि - श्रि + क्तिन् = श्रितिः
थापाप ३६२ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ + । । + मितिः + +
- जि + क्तिन् = जितिः क्तिन् = स्मितिः क्तिन् = इतिः क्तिन् = क्तिन् = क्षितिः, आदि। ईकारान्त धातु री, ली, ब्ली, प्ली, धातु - ऋल्वादिभ्यो क्तिन् निष्ठावद् वाच्यः (वा.) - ऋकारान्त धातुओं से तथा २१ ल्वादि धातुओं से परे आने वाला क्तिन् प्रत्यय निष्ठा प्रत्यय जैसा माना जाता है। ल्वादिभ्यः (८.२.४४) - क्र्यादिगण के २१ ल्वादि धातुओं से परे आने वाले निष्ठा के तकार को नकारादेश होता है। इनमें से ईकारान्त ल्वादि धातु इस प्रकार हैं - री + क्तिन् = रीणिः ली + क्तिन् = लीनिः ब्ली + क्तिन् = ब्लीनिः प्ली + क्तिन् = प्लीनिः शेष ईकारान्त धात - शेष ईकारान्त धातुओं को, क्ङिति च से केवल गुण निषेध होगा - डी + क्तिन् = डीतिः शी + क्तिन् = शीतिः दी + क्तिन् = दीतिः मी + क्तिन् = मीतिः उकारान्त धातु यु धातु तथा सौत्र धातु जु - यु धातु से जब ‘युतिः’ शब्द उक्त प्रक्रिया से बनता है, तब वह ‘आधुदात्तश्च’ सूत्र से आधुदात्त होता है। किन्तु जब ‘ऊतियूतिजूतिसातिहेतिकीर्तयश्च’ सूत्र से निपातन से दीर्घ होकर यूतिः’ शब्द बनता है, तब वह अन्तोदात्त होता है। जु + क्तिन् / ‘ऊतियूतिजूतिसातिहेतिकीर्तयश्च’ सूत्र से निपातनाद् दीर्घ होकर = जूतिः । यह भी अन्तोदात्त होता है। शेष उकारान्त धातुओं को, क्डिति च से केवल गुण निषेध होगा - दु - दु + क्तिन् = दुतिः गुपुरीषोत्सर्गे - गु + क्तिन् = गुतिः क्तिन् प्रत्यय ३६३ اہلی عر عر عر गुङ् - गु + क्तिन् = गुतिः रु अदादि - रु + क्तिन् = रुतिः रु भ्वादि __ - रु + क्तिन् = रुतिः
- नु + क्तिन् = नुतिः - क्षु + क्तिन् = क्षुतिः - यु + क्तिन् = युतिः - श्रु + क्तिन् = श्रुतिः, आदि। ऊकारान्त धातु ब्रू धातु - ब्रूञ् + क्तिन् / ब्रुवो वचिः सूत्र से आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर ब्रू धातु को वच् आदेश करके - वच् + ति / वच् को वचिस्वपियजादीनां किति सूत्र से सम्प्रसारण करके - उच् + ति / चोः कुः से च् को कुत्व करके - उक् + ति = उक्तिः । लूञ्, धूञ् धातु - ये ल्वादि धातु हैं। अतः ल्वादिभ्यश्च’ सूत्र से इनसे परे आने वाले निष्ठा के त को न आदेश होगा। लूञ् - लू + क्तिन् __ = लूनिः धूञ्ज - धू + क्तिन् . = शेष ऊकारान्त धातु - शेष ऊकारान्त धातुओं को, क्डिति च से केवल गुण निषेध होगा -
- पू + क्तिन् = पूतिः - पू + क्तिन् = पूतिः - षू + क्तिन् = सूतिः - दू + क्तिन् = दूतिः भू + क्तिन् = भूतिः, आदि। । ऋकारान्त धातु सारे ऋकारान्त धातुओं को, क्डिति च’ से केवल गुण निषेध होगा - सृ - सृ + क्तिन् = सृतिः ऋ (भ्वादि) - ऋ + क्तिन् = ऋतिः अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३
ऋ (जुहो.) क्तिन् = ऋतिः क्तिन् = हृतिः वृ + क्तिन् = वृतिः व + क्तिन् = वृतिः स्मृ + क्तिन् = स्मृतिः - गृ + क्तिन् = गृतिः - - घृ + क्तिन् = घृतिः
- वृ + क्तिन् = वृतिः
- धृ + क्तिन् = धृतिः डुभृञ् __- भृ + क्तिन् = भृतिः कृ (तनादि) - कृ + क्तिन् = कृतिः कृ (स्वादि) - कृ + क्तिन् = कृतिः, आदि। ऋकारान्त धातु भृङ्, वृ, वृञ्, मृङ् धातु - उदोष्ठ्यपूर्वस्य (७.१.१०२) - यदि अङ्ग के अन्तिम ‘ऋ’ के पूर्व में कोई ओष्ठ से उच्चरित होने वाला व्यञ्जन हो अर्थात् प्, फ्, ब्, भ, म्, या व् हों तब, ऋ के स्थान पर ‘उ’ आदेश होता है और उरण रपरः’ सूत्र की सहायता से यह ‘उ’, उर् बनता है। हलि च (८.२.७७) - जब धातु के अन्त में र् या व् हों, तब उस धातु की उपधा के ‘इक् को दीर्घ होता है, हल् परे होने पर। भृ + क्तिन् - भुर् + ति / हलि च से उ को दीर्घ करके - भूर् + ति / ऋल्वादिभ्यो क्तिन् निष्ठावद् वाच्यः (८.२.४२ - वा.) - ऋकारान्त धातुओं से तथा २१ ल्वादि धातुओं से परे आने वाला क्तिन् प्रत्यय निष्ठा प्रत्यय जैसा माना जाता रदाभ्यां निष्ठातो नः पूर्वस्य च दः (८.२.४२) - रेफ और दकार से परे आने वाले निष्ठा के तकार को नकार आदेश होता है तथा निष्ठा से पूर्व दकार को भी नकार आदेश होता है। इस सूत्र से र् के बाद आने वाले निष्ठा के ‘त’ को ‘न’ करके - भूर् + नि / रषाभ्यां नो णः से न को ण करके - भृङ् + क्तिन् - भुर् + ति - भूर् + नि = भूर्णिः क्तिन् प्रत्यय ३६५ वृङ् + क्तिन् - वुर् + ति - वूर् + नि = वूर्णिः वृञ् + क्तिन् - वुर् + ति - दूर् + नि = वर्णिः मृङ् + क्तिन् - मुर् + ति - मूर् + नि = मूर्णिः पृ, पृ, धातु - न ध्याख्यापृमूर्च्छिमदाम् (८.२.५७) - ध्या, ख्या, पृ, मुर्छा, मदी इन धातुओं से परे आने वाले निष्ठा के तकार को नकारादेश नहीं होता है। अतः - पृ - क्र्यादिगण - पृ + क्तिन् = पूर्तिः पृ - जुहोत्यादिगण - पृ + क्तिन् = पूर्तिः शेष ऋकारान्त धातु - ऋत इद् धातोः (७.१.१००)- यदि ऋ के पूर्व में ओष्ठ्य वर्ण न हो तो धातु के अन्त में आने वाले ‘ऋ’ को ‘इ’ आदेश होता है, जो कि उरण रपरः’ सूत्र से ‘रपर’ होकर ‘इर’ बन जाता है। उसके बाद हलि च से उपधा के ‘इक् को दीर्घ करके तथा रदाभ्यां निष्ठातो नः पूर्वस्य च दः सूत्र से र् के बाद आने वाले निष्ठा के ‘त’ को ‘न’ करके - तृ + क्तिन् - तिर् + ति - तीर् + नि = तीर्णिः जृ + क्तिन् - जिर् + ति - जीर् + नि = जीर्णिः कृ (क्रयादि) + क्तिन् – किर् + ति - कीर् + नि = कीर्णिः कृ (तुदादि) + क्तिन् - किर् + ति - कीर् + नि = कीर्णिः गृ (क्र्यादि) + क्तिन् - गिर् + ति - गीर् + नि = गीर्णिः गृ (तुदादि) + क्तिन् - गिर् + ति - गीर् + नि = गीर्णिः, आदि। ककारान्त धातु शक् - शक् + क्तिन् = शक्तिः खकारान्त धातु खरि च सूत्र से ख् को चर्व करके क् बनाइये - वख् - वख् + क्तिन् = वक्तिः गकारान्त धातु खरि च सूत्र से ग् को चर्व करके क् बनाइये - लग् - लग् + क्तिन् = लक्तिः अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ घकारान्त धातु घघ् + ति / धातु के अन्त में वर्ग का चतुर्थाक्षर होने पर दो कार्य कीजिये १. झषस्तथो?ऽधः (८.२.४०) - झष् अर्थात् वर्ग के चतुर्थाक्षरों के बाद आने वाले प्रत्यय के त, थ को ध होता है। देखिये कि घ्, झए है, अर्थात् वर्ग का चतुर्थाक्षर है। अतः उससे परे आने वाले प्रत्यय के ‘त’ को ‘ध’ बनाकर - घघ् + ति - घघ् + धि - २. झलां जश् झशि (८.४.५३) - झल् के स्थान पर जश् अर्थात् वर्ग का तृतीयाक्षर होता है, झश् परे होने पर। घघ् + धि - घग् + धि = घग्धिः । चकारान्त धातु कुच् धातु - १ तितुत्रेष्वग्रहादीनामिति वक्तव्यम् (वार्तिक ७.२.९) - ग्रह, कुच्, स्निह, पठ्, केवल इन चार धातुओं से परे आने वाले क्तिन् को इडागम होता है। __ नि + कुच् + इट् + क्तिन् - निकुचितिः । ओव्रश्चू - व्रश्च् धातु - __व्रश्च् + क्तिन् / ग्रहिज्यावयिव्यधिवष्टिविचतिवृश्चतिपृच्छतिभृज्जतीनां ङिति च सम्प्रसारण करके - वृश्च् + ति / ‘स्कोः संयोगाद्योरन्ते च’ सूत्र से संयोग के आदि के सकार का लोप करके - वृच् + ति / वश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां षः’ सूत्र से च् को ष् करके - वृष् + ति / ष्टुना ष्टुः सूत्र से ष्टुत्व करके - वृष्टिः। अञ्चु धातु - __ ‘अञ्चेः पूजायाम् (७.२.५३)’ सूत्र से अञ्चु धातु से परे आने वाले क्त्वा प्रत्यय तथा निष्ठा प्रत्यय को नित्य इडागम होता है, यदि धातु का अर्थ पूजा हो तो। अन्य अर्थ में इडागम नहीं होता। जिस अर्थ में इडागम नहीं होता, उसी अर्थ में क्तिन् प्रत्यय हो सकता है, यह ध्यान रखें। अञ्च् + क्तिन् / ‘अनिदितां हल उपधायाः क्ङिति’ सूत्र से उपधा के न् का लोप करके - अच् + ति / चोः कुः सूत्र से च् को कुत्व करके - अक् + ति = अक्ति ः। (जिस अर्थ में इडागम होता है, उस अर्थ में क्तिन् प्रत्यय न होकर अङ् प्रत्यय होता है, यह ध्यान रखें। ) क्तिन् प्रत्यय ३६७ वञ्चु, चञ्चु, तञ्चु, तञ्चू, त्वञ्चु, मुञ्चु, म्लुञ्चु, ग्लुञ्चु, क्रुञ्च्, कुञ्च्, लुच्च् __ अनिदितां हल उपधायाः क्डिति से उपधा के न् का लोप करके तथा चोः कः. सूत्र से चवर्ग के स्थान पर कवर्ग आदेश करके - वञ्च् + क्तिन् - वच् + ति = वक्ति : चञ्च् + क्तिन् - चच् + ति = चक्ति : तञ्च् + क्तिन् - तच् + ति = तक्ति : तञ्च् + क्तिन् - तच् + ति = तक्ति : त्वञ्च् + क्तिन् - त्वच् + ति = त्वक्तिः मुञ्च् + क्तिन् - मुच् + ति = मुक्ति : म्लुञ्च् + क्तिन् - __ म्लुच् + ति = म्लुक्तिः ग्लुञ्च् + क्तिन् - ग्लुच् + ति = ग्लुक्तिः क्रुञ्च् + क्तिन् - क्रुच् + ति = क्रुक्तिः कुञ्च् + क्तिन् - कुच् + ति = कुक्ति : लुञ्च् + क्तिन् - लुच् + ति = लुक्ति : वच् धातु - . वच् + क्तिन् / वचिस्वपियजादीनाम् किति सूत्र से सम्प्रसारण करके - उच् + ति / पूर्ववत् कुत्व करके - उक्तिः । व्यच् धातु - व्यच् + क्तिन् / ग्रहिज्या. से सूत्र से सम्प्रसारण करके - विच् + ति / पूर्ववत् कुत्व करके - विक्तिः। शेष चकारान्त अनिट् धातु - ‘च’ को चोः कुः’ सूत्र से कुत्व करके ‘क्’ बनाइये - पच् + क्तिन् = पक्तिः मुच् + क्तिन् = मुक्तिः रिच् + क्तिन् = रिक्तिः विच् + क्तिन् = विक्तिः सिच् + क्तिन् = सिक्तिः ग्रुच् + क्तिन् = ग्रुक्तिः ग्लुच् + क्तिन् = ग्लुक्तिः मुच् + क्तिन् = मुक्तिः, आदि। छकारान्त धातु प्रच्छ् धातु - प्रच्छ् + क्तिन् - ग्रहिज्यावयिव्यधिवष्टिविचतिवृश्चतिपृच्छतिभृज्जतीनां डिति च ३६८ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ सूत्र से सम्प्रसारण करके - पृच्छ् + ति - व्रश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां षः सूत्र से छ् स्थान पर ‘ए’ करके - पृष् + ति / प्रत्यय के ‘त’ को ‘ष्टुना ष्टुः’ सूत्र से ‘ष्टुत्व’ करके - पृष्टिः । उच्छी - उच्छ् धातु - उच्छ् + क्तिन् / व्रश्च. सूत्र से छ को ष् करके - उष् + ति / प्रत्यय के ‘त’ को ‘ष्टुना ष्टुः’ सूत्र से ‘ट’ करके - उष्टिः। स्फूर्छा, हुर्छा, मुर्छा धातु राल्लोपः (६.४.२१) - रेफ से उत्तर छकार और वकार का लोप हो जाता है, क्वि तथा झलादि कित्, ङित् प्रत्यय परे होने पर। यह अनिट् आदित् धातु है। स्फूर्छा + क्तिन् / स्फूर्छ + ति / राल्लोपः से छ का लोप करके - स्फूर् + ति = स्फूर्तिः। हुर्छा + क्तिन् / उपधायां च से उपधा को दीर्घ करके - हूर्छ + ति / शेष पूर्ववत् - हूर्तिः । इसी प्रकार - मुर्छा + क्तिन् = मूर्तिः। शेष छकारान्त अनिट् धातु - म्लेच्छ + ति - व्रश्चभ्रस्ज. सूत्र से छ् स्थान पर ’’ करके - म्लेष् + ति / प्रत्यय के ‘त’ को ‘ष्टुना ष्टुः’ सूत्र से ‘ष्टुत्व’ करके - म्लेष्टिः। जकारान्त धातु अज् धातु - __ अज् + क्तिन् / अजेळघञपोः सूत्र से वी आदेश करके - वी + ति = वीतिः । यज् धातु - यज् + क्तिन्/ वचिस्वपियजादीनां किति से सम्प्रसारण करके - इज् + ति / व्रश्चभ्रस्जसृजमजयजराजभ्राजच्छशां षः’ सूत्र से ज् के स्थान पर ‘ष्’ करके - इष् + ति / ‘ष्टुना ष्टुः’ सूत्र से ष्टुत्व करके - इष्टिः। सृज् तथा मृज् धातु - सृज् + क्तिन् / व्रश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां षः सूत्र से ज् के स्थान पर ‘ज्’ करके - सृष् + ति / ‘ष्टुना ष्टुः’ सूत्र से ष्टुत्व करके - सृष्टिः। इसी प्रकार - मृज् + क्तिन् से - मृष्टिः। क्तिन् प्रत्यय ३६९ भ्रस्ज् धातु - . भ्रस्ज् + क्तिन् / ग्रहिज्यावयिव्यधिवष्टिविचतिवृश्चतिपृच्छतिभृज्जतीनां डिति च सम्प्रसारण करके - भृस्ज् + ति / स्कोः संयोगाद्योरन्ते च सूत्र से संयोग के आदि के सकार का लोप करके - भृज् + ति / व्रश्चभ्रस्ज. सूत्र से ज् के स्थान पर ‘ए’ करके - भृष् + ति / ‘ष्टुना ष्टुः’ सूत्र से ष्टुत्व करके - भृष्टिः। ओलस्जी-लज्ज् / ओविजी-विज् / रुजो-रुज् धातु - ओलस्जी + क्तिन् - लस्ज् + ति - स्कोः संयोगाद्योरन्ते च सूत्र से संयोग के आदि के सकार का लोप करके - लज् + ति / चोः कुः से कुत्व करके - लग् + ति / ग् को खरि च से चर्व करके - लक् + ति = लक्तिः । ओविजी + क्तिन् / विज् + ति / शेष पूर्ववत् - विक्तिः । इसी प्रकार - रुज् + क्तिन् = रुक्तिः। मस्जो -मज्ज् धातु - मस्जिनशोझलि (७.१.६०) - मस्ज् और नश् धातुओं को नुम् का आगम होता है, झल् परे होने पर। मस्जेरन्त्यात् पूर्व नुम् वाच्यः - मस्ज् धातु को होने वाला नुमागम अन्त्य वर्ण के ठीक पूर्व में होता है। अतः मस्ज् + क्तिन् - इस वार्तिक से अन्त्य वर्ण के पूर्व में नुम् का आगम करके - म स् न् ज् + ति / स्कोः संयोगाद्योरन्ते च सूत्र से संयोग के आदि के सकार का लोप करके तथा अनिदितां हल उपधायाः क्ङिति सूत्र से न् का लोप करके - मज् + ति / चोः कुः से कुत्व करके - मग् + ति / खरि च से चर्व करके - मक् + ति = मक्तिः । रज्, भञ्ज्, अङ्ग्, स्वफ़, सङ्ग्, धातु - अनिदितां हल उपधायाः क्ङिति सूत्र से उपधा के न् का लोप करके, चोः कुः सूत्र से कुत्व करके ज् के स्थान पर ग् कीजिये। उसके बाद उस ‘ग्’ को ‘खरि च’ सूत्र से उसी कवर्ग का प्रथमाक्षर ‘क्’ बनाइये। भज् + क्तिन् - भज् + ति = भक्तिः रज् + क्तिन् - रज् + ति = । रक्ति : अज् + क्तिन् - अज् + ति = अक्तिः सज् + क्तिन् - सज् + ति = सक्तिः ३७० अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ भज् __ स्वङ्ग् + क्तिन् - स्वज् + ति = स्वक्तिः टुओस्फूर्जा - स्फू धातु - स्फूर्जा + क्तिन् / स्फू + ति / चोः कुः सूत्र से जकार के स्थान में कुत्व करके - स्फूग् + ति / ग् को खरि च से चर्व करके - स्फूर्व + ति = स्फूक्तिः । शेष जकारान्त धातु - चोः कुः’ सूत्र से इनके ज् को कुत्व करके ‘ग्’ बनाइये। उसके बाद उस ‘ग्’ को खरि च’ सूत्र से उसी कवर्ग का प्रथमाक्षर क्’ बनाइये। कुजु - कुज् + क्तिन् = कुक्ति : त्यज् - त्यज् + क्तिन् = त्यक्तिः निजिर् - निज् + क्तिन् = निक्तिः __ - भज् + क्तिन् = भक्तिः भुज् - भुज् + क्तिन् = भुक्तिः युज् - युज् + क्तिन् = युक्ति : विजिर् - विज् + क्तिन् = विक्तिः रुज् - रुज् + क्तिन् = रुक्ति ः झकारान्त धातु झषस्तथो?ऽधः (८.२.४०) - झष् अर्थात् वर्ग के चतुर्थाक्षरों के बाद आने वाले प्रत्यय के त, थ को ध होता है। __झर्ड्स + क्तिन् / देखिये कि झ्, झष् है, अर्थात् वर्ग का चतुर्थाक्षर है। अतः उससे परे आने वाले प्रत्यय के ‘त’ को ‘ध’ बनाकर - झर्ड्स + ति - झर्ड्स + धि / चोः कुः से च् को कुत्व करके उसे कवर्ग का चतुर्थाक्षर बनाकर - झg + धि - ‘झलां जश् झशि’ सूत्र से जश्त्व करके - झर्घ + धि - झर्ग + धि = झग्र्धिः । टकारान्त धातु कट् + क्तिन् / कट् + ति / ष्टुना ष्टुः सूत्र से त को ष्टुत्व करके - कट + टि = कटि ः। ठकारान्त धातु पठ् धातु - तितुत्रेष्वग्रहादीनामिति वक्तव्यम् (वार्तिक ७.२.९) - ग्रह, कुच्, स्निह, पठ्, क्तिन् प्रत्यय ३७१ केवल इन चार धातुओं से परे आने वाले क्तिन् को इडागम होता है। .. नि+ पठ् + इट् + क्तिन् - निपठितिः। शेष ठकारान्त धातु - __लुट् + क्तिन् / लुट् + ति / ष्टुना ष्टुः सूत्र से त को ष्टुत्व करके - लुरू + टि / खरि च सूत्र से ठ को चर्व करके - लुट् + टि = लुटिः । डकारान्त धातु स्फुड् + क्तिन् / स्फुड् + ति / ष्टुना ष्टुः सूत्र से त को ष्टुत्व करके - स्फुड् + टि / खरि च सूत्र से ड् को चर्व करके - स्फुट + टि = स्फुटिः । णकारान्त धातु अनुदात्तोपदेशवनतितनोत्यादीनामनुनासिकलोपो झलि क्डिति (६.४.३७) - अनुदात्तोपदेश धातु, वन सम्भक्तौ धातु तथा तनोति इत्यादि धातुओं के अनुनासिक का लोप होता है झलादि कित् ङित् प्रत्यय परे होने पर।
- ऋण + क्तिन् = ऋतिः __ - क्षण् + क्तिन् = क्षतिः
- क्षिण + क्तिन् = क्षितिः घृणु - घृण + क्तिन् = घृतिः तृणु
- तृण् + क्तिन् = तृतिः शेष णकारान्त धातु - अनुनासिकस्य क्विझलोः क्डिति (६.४.१५) - अनुनासिकान्त अङ्ग की उपधा को दीर्घ होता है, क्वि परे होने पर तथा झलादि कित्, ङित् प्रत्यय परे होने पर। रण् + क्तिन् - राण् + ति / ष्टुना ष्टुः सूत्र से त को ष्टुत्व करके - राण + टि = राण्टिः । इसी प्रकार - कण् + ति - काण्टिः। तकारान्त धातु कृत् धातु - कृत् + णिच् + क्तिन् / यह धातु णिजन्त है, अतः इससे ‘ण्यासश्रन्थो युच् सूत्र से युच् प्रत्यय होना था, क्तिन् नहीं, किन्तु ‘ऊतियूतिजूतिसातिहेतिकीर्तयश्च सूत्र से निपातन से इससे क्तिन् प्रत्यय होकर कीर्तिः शब्द बनता है। शेष तकारान्त धातु - कृत् + क्तिन् = कृत्तिः . चित् + क्तिन् = चित्तिः ऋणु क्षणु क्षिणु ३७२ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ त् + क्तिन् = वृत्तिः नृत् + क्तिन् = नृत्तिः यत् + क्तिन् = यत्तिः वृत् + क्तिन् = वृत्तिः थकारान्त धातु कुथ् + क्तिन् / कुथ् + ति / खरि च सूत्र से थ् को चर्व करके - कुत् + ति = कुत्तिः । इसी प्रकार - पुथ् = पुत्तिः । दकारान्त धातु अद् धातु - __ अदो जग्धिय॑प्ति किति (२.४.३६) - अद् धातु को जग्ध् आदेश होता है ल्यप् तथा तकारादि कित् प्रत्यय परे होने पर। अद् + क्तिन् = जग्धिः । लादी धातु -
- प्र + ह्लद् + क्तिन् / ‘लादो निष्ठायाम् (६.४.९५)’ सूत्र का योग विभाग करके क्तिन् प्रत्यय में भी ह्रस्व करके - प्रह्लद् + क्तिन् = प्रह्लत्तिः उन्दी, स्कन्द्, स्यन्द्, बुन्द् धातु - अनिदितां हल उपधायाः क्ङिति सूत्र से उपधा के न् का लोप करके, द् को खरि च से चर्व करके - उन्द् + क्तिन् = उत्तिः बुन्द् + क्तिन् = बुत्तिः स्कन्द् + क्तिन् = स्कत्तिः स्यन्द् + क्तिन् = स्यत्तिः विद् धातु - विद् धातु पाँच हैं। विद ज्ञाने (अदादि), विद सत्तायाम् (दिवादि), विद्लु लाभे (तुदादि), विद विचारणे (रुधादिगण) विद चेतनाख्याननिवासेषु (चुरादि)। इनमें से विद चेतनाख्याननिवासेषु (चुरादि) धातु से ‘ण्यासश्रन्थो युच्’ सूत्र से युच् प्रत्यय होकर वेदना’ बनता है। तुदादिगण के लाभार्थक विद्लु धातु से ‘घट्टिवन्दिविदिभ्य उपसंख्यानम्’ वार्तिक से युच् प्रत्यय होकर वेदना’ बनता है। शेष तीन विद् धातुओं से क्तिन् प्रत्यय करके - विद् + क्तिन् = वित्तिः बनाइये। . भिदादिगण में विदा’ शब्द का पाठ होने के कारण विद ज्ञाने’ धातु से ‘षिद्भिदादिभ्योऽङ्’ सूत्र से अङ् प्रत्यय होकर विदा भी बनता है। अर्दु धातु - अर्देः सन्निविभ्यः (७.२.२४) - सं, नि, वि उपसर्गयुक्त अर्द्ध धातु से परे आने वाला निष्ठा प्रत्यय अनिट् होता है।क्तिन् प्रत्यय ३७३ सत्ति ः क्तिन् अभेश्चाविदूर्ये (७.२.२५) - अभि उपसर्ग से युक्त अश् धातु से परे आने वाला निष्ठा प्रत्यय अनिट् होता है यदि उसका अर्थ आविदूर्य हो तो। अतः इन उपसर्गों के साथ होने पर ही अर्दु धातु से क्तिन् प्रत्यय होगा। समर्तिः, न्यतिः, व्यर्तिः । अभ्यर्तिः । शेष दकारान्त धातु - शेष दकारान्त धातुओं में ध्यान रहे कि भिद् धातु से विदारण अर्थ में अङ् प्रत्यय होता है। अन्य अर्थ में क्तिन् होता है। इसी प्रकार छिद् धातु से द्वैधीकरण अर्थ में अङ् प्रत्यय होता है। अन्य अर्थ में क्तिन् होता है। इन धातुओं के द् को खरि च से चर्व करके - हद् - हद् + क्तिन् = हत्तिः क्लिदू - क्लिद् + क्तिन् = क्लित्तिः क्षुद् - क्षुद् + क्तिन् = क्षुत्तिः सद् - सद् + क्तिन् = नि+सद् - नि+सद् + निषत्तिः छूद् कृत्तिः खिद् खिद् खित्तिः छिद् - छिद् + क्तिन् = छित्तिः (द्वैधीकरण से भिन्न अर्थ में) भिद् - भिद् + क्तिन् = भित्तिः (विदारण से भिन्न अर्थ में )
- तुद् + क्तिन् = तुत्तिः
- शद् + क्तिन् शत्तिः पन क्तिन् पत्तिः जिमिदा जिष्विदा - स्विद् + क्तिन् = स्वित्तिः नुद् - नुद् + क्तिन् = नुत्तिः मदी - मद् + क्तिन् = मत्तिः लिक्ष्विदा - क्ष्विद् + क्तिन् = वित्तिः, आदि। धकारान्त धातु व्यध् धातु - व्यध् + क्तिन् - ग्रहिज्यावयिव्यधि. सूत्र से सम्प्रसारण करके - विध् + ति - छ्रदी क्तिन्
क्तिन् = + तुद् शद् + पद् मिद् क्तिन् मित्तिः + ३७४ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ झषस्तथो?ऽधः सूत्र से प्रत्यय के त को ध आदेश करके - विध् + धि - झलां जश् झशि सूत्र से झल् के स्थान पर जश् आदेश करके - विद् + धि = विद्धिः । इन्ध्, बन्ध्, शुन्ध् धातु - इन्ध् + क्तिन् / प्रत्यय के कित् होने के कारण अनिदितां हल उपधायाः क्डिति’ सूत्र से उपधा के न् का लोप करके - इध् + ति / पूर्ववत् = इद्धिः। इसी प्रकार - बन्ध् + क्तिन् / बध् + ति - बध् + धि = बद्धिः । शुन्ध् + क्तिन् / शुध् + ति - शुध् + धि = शुद्धिः । शेष धकारान्त धातु - ‘क्डिति च’ से गुण निषेध करके, तथा पूर्ववत् ‘झषस्तथो?ऽधः’ सूत्र से झष् अर्थात् वर्ग के चतुर्थाक्षर के बाद आने वाले प्रत्यय के ‘त’ को ‘ध’ करके और धातु के अन्तिम ध् को ‘झलां जश् झशि’ सूत्र से जश्त्व करके अर्थात् वर्ग का तृतीयाक्षर द् बनाकर - ऋधु __ - ऋध् + क्तिन् = ऋद्धिः क्रुध् - क्रुध् + क्तिन् = क्रुद्धिः
- गृध् + क्तिन् = गृद्धिः - बुध + क्तिन् = - बुद्धिः
- क्तिन् =
- क्तिन् = रद्धिः + क्तिन् = रुद्धिः + क्तिन् = राद्धि : + क्तिन् = + क्तिन् = + क्तिन् = शृद्धिः + क्तिन् = सिद्धिः + क्तिन् = सिद्धिः + क्तिन् = सिद्धिः नकारान्त धातु EEEEEEEEE
सिध् षिधु षिधू
- सिंध
- सिध जन्, सन्, खन् धातु - क्तिन् प्रत्यय ३७५ जनसनखना सञ्झलोः (६.४.४२) - जन्, सन्, खन् धातुओं को आकार अन्तादेश होता है, झलादि सन् तथा झलादि कित्, ङित् प्रत्यय परे होने पर। खनु - खन् + क्तिन् - खा + ति = खातिः जनी - जन् + क्तिन् - जा + ति = जातिः षणु - सन् + क्तिन् - सा + ति = सातिः हन्, मन्, तनु, मनु, वनु तथा वन सम्भक्तौ धातु - _ ‘अनुदात्तोपदेशवनतितनोत्यादीनामनु.’ सूत्र से अनुनासिक का लोप करके - हन् - हन् + क्तिन् - ह + ति = हतिः मन् - मन् + क्तिन् - म + ति = मतिः तनु - तन् + क्तिन् - त + ति = ततिः मनु - मन् + क्तिन् - म + ति = मतिः वनु - वन् + क्तिन् - व + ति = वतिः वन - वन् + क्तिन् - व . + ति = वतिः विशेष - हन् धातु से जब ‘हतिः’ शब्द उक्त प्रक्रिया से बनता है, तब वह ‘आधुदात्तश्च’ सूत्र से आधुदात्त होता है । किन्तु जब ‘ऊतियूतिजूतिसातिहेतिकीर्तयश्च’ सूत्र से निपातन से हतिः’ शब्द बनता है, तब वह अन्तोदात्त होता है। शेष नकारान्त धातु - कनी + क्तिन् / कन् + ति - अनुनासिकस्य क्विझलोः क्डिति (६.४.१५) - अनुनासिकान्त अङ्ग की उपधा को दीर्घ होता है, क्वि परे होने पर तथा झलादि कित्, ङित् प्रत्यय परे होने पर। कन् + ति - कान् + ति - नश्चापदान्तस्य झलि (८.३.२४) - अपदान्त न्, म्, को अनुस्वार होता है, झल् परे होने पर। कान् + ति - कां + ति - __ अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः (८.४.५८) - अनुस्वार को परसवर्ण होता है, यय परे होने पर। कां + ति - कान् + त = कान्तिः । __पकारान्त धातु स्वप्, वप् धातु - स्वप् + क्तिन् / वचिस्वपियजादीनाम् किति सूत्र से सम्प्रसारण करके - सुप् ३७६ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३
- ति = सुप्तिः । इसी प्रकार - वप् + क्त - पूर्ववत् उप्तिः । कृपू धातु - कृप् + क्तिन् / कृपो रो लः सूत्र से कृप् धातु के र् को ल् बनाकर - क्लृप् + ति = क्लृप्तिः। शेष पकारान्त धातु - इन्हें कुछ मत कीजिये - आप् + क्तिन् = आप्ति : क्षिप् + क्तिन् = क्षिप्तिः गुप् + क्तिन् = गुप्तिः छुप् + क्तिन् = छुप्तिः तप् + क्तिन् = तप्तिः तिप् + क्तिन् = तिप्तिः तृप् + क्तिन् = तृप्तिः __ त्रप् + क्तिन् = त्रप्तिः दृप् + क्तिन् दृन्ति : लिप् + क्तिन् = लिप्तिः शप् + क्तिन् = शप्तिः ज्ञप् + क्तिन् = ज्ञप्तिः फकारान्त धातु रफ् + क्तिन् / खरि च से चर्व करके - रप् + ति = रप्तिः । __बकारान्त धातु कब् + क्तिन् / खरि च से चर्व करके - कप् + ति = कप्तिः । भकारान्त धातु स्रम्भु, सृम्भु, दम्भु, स्कम्भु, स्तम्भु, श्रम्भु (नलोपी अनिदित्) धातु - __‘अनिदितां हल उपधायाः क्ङिति’ सूत्र से इनकी उपधा के न् का लोप करके पूर्ववत् ‘झषस्तथो?ऽधः’ सूत्र से प्रत्यय के ‘त’ को ‘ध’ करके और धातु के अन्तिम भ् को ‘झलां जश् झशि’ सूत्र से जश्त्व ब् करके - संभ् + क्तिन् - सभ् + ति = स्रब्धि : श्रम्भु + क्तिन् - श्रभ् + ति = श्रब्धि : घृम्भु + क्तिन् - सृभ् + ति = सृब्धि : दम्भु + क्तिन् - दभ् + ति = दब्धि : स्कम्भु + क्तिन् - स्कभ् + ति = स्कब्धिः स्तम्भ + क्त - स्तब्ध् + ति = स्तब्धिः शेष भकारान्त धातु - ‘क्डिति च’ से गुण निषेध करके, पूर्ववत् झषस्तथो?ऽधः’ सूत्र से प्रत्यय के क्तिन् प्रत्यय ३७७ ‘त’ को ‘ध’ करके और धातु के भू को ‘झलां जश् झशि’ सूत्र से जश्त्व ब् करके - दृभी - दृभ् + क्तिन् = दृब्धिः ष्टुभु - स्तुभ् + क्तिन् = स्तुब्धिः यभ् - यभ् + क्तिन् = यब्धिः रभ् - रभ् + क्तिन् = रब्धिः लभ् - लभ् + क्तिन् = लब्धिः जभी - जभ् + क्तिन् = जब्धिः क्षुभ् - क्षुभ् + क्तिन् = क्षुब्धि : लुभ - लुभ् + क्तिन् = लुब्धिः, आदि। . विशेष - डुलभष् धातु - यह धातु षित् है। अतः इससे षिद्भिदादिभ्योऽङ् सूत्र से केवल अङ् प्रत्यय होना चाहिये था, किन्तु बाहुलकाद् इससे क्तिन् भी होकर - लभ् + क्तिन् होकर - लब्धिः भी बनता है। इसमें ‘अनर्थकास्तु प्रतिवर्णमनुपलब्धेः’ यह भाष्यवचन प्रमाण है। मकारान्त धातु अनुदात्तोपदेश मकारान्त गम्, नम्, यम्, रम् धातु - ‘अनुदात्तोपदेशवनतितनोत्यादीनामनु.’ सूत्र से अनुनासिक का लोप करके - गम् + क्तिन् = गतिः नम् + क्तिन् = नतिः यम् + क्तिन् = यतिः रम् + क्तिन् = रतिः शेष मकारान्त धातु - अनुनासिकस्य क्विझलोः क्डिति - अनुनासिकान्त अङ्ग की उपधा को दीर्घ होता है, क्वि परे होने पर तथा झलादि कित्, ङित् प्रत्यय परे होने पर। कम् + क्तिन् - काम् + ति / नश्चापदान्तस्य झलि सूत्र से अपदान्त न्, म्, को अनुस्वार करके - कां + ति - अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः सूत्र से अनुस्वार को परसवर्ण करके - कां + ति - कान + ति = कान्तिः । कम् + क्तिन् = कान्तिः क्रम् + क्तिन् = क्रान्तिः क्षमू (दिवादि) + क्तिन् = क्षान्तिः क्लम् + क्तिन् = क्लान्तिः आचम् __+ क्तिन् = आचान्तिः छम् + क्तिन् = छान्तिः जम् + क्तिन् = जान्तिः जिम् + क्तिन् = जीन्तिः ३७८ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ तम् श्रम्
- क्तिन् = तान्तिः दम् + क्तिन् = दान्तिः भ्रम् + क्तिन् = भ्रान्तिः शम् + क्तिन् = शान्तिः
- क्तिन् = श्रान्तिः स्यम् + क्तिन् = स्यान्तिः अम् __ + क्तिन् = आन्तिः यकारान्त धातु चाय् धातु - चायतेः क्तिनि चिभावो निपात्यते (वार्तिक ७.२.३०) - चाय् धातु को क्तिन् प्रत्यय परे होने पर चि’ आदेश होता है। अप + चाय् + क्तिन् / अप + चि + ति = अपचितिः। शेष यकारान्त धातु - लोपो व्योर्वलि (६.१.६६) - वकार और यकार का वल् परे रहते लोप होता है। ऊयी - ऊय् + क्तिन् = ऊतिः क्नूयी - क्नूय् + क्तिन् = क्नूतिः क्ष्मायी - क्ष्माय् + क्तिन् = क्ष्मातिः पूयी - पूय् + क्तिन् = पूतिः स्फायी - स्फाय् + क्तिन् = स्फातिः ओप्यायी - प्याय् + क्तिन् = प्यातिः रेफान्त धातु जित्वरा धातु - जित्वरा - त्वर् + क्तिन् - ज्वरत्वरस्रिव्यविमवामुपधायाश्च (६.४.२०) - ज्वर, त्वर, स्रिवि, अव, मव इन अगों के वकार तथा उपधा के स्थान में ऊठ आदेश होता है, क्वि, झलादि तथा अनुनासिक प्रत्यय परे होने पर। इससे वकार तथा उपधा के स्थान में ऊ आदेश करके त् ऊ र् + ति - तूर् + ति = तूर्तिः । चर् धातु - __चर् + क्तिन् / चर् + ति - ति च - चर् और फल् धातुओं के अकार को उकार आदेश होता है, तकारादि प्रत्यय परे होने पर। चर् + ति - चुर् + ति / ‘हलि च’ सूत्र से दीर्घ होकर = चूर्तिः ।
क्तिन् प्रत्यय ३७९ चूर्तिः शेष रेफान्त धातु - - पूरी - पूर् + क्तिन् = पर्तिः चूरी - चूर् + क्तिन् = तूरी - चूर् + क्तिन् = तूर्तिः जूरी - जूर् + क्तिन् = जूर्तिः धूरी - धुर् + क्तिन् = धूर्तिः शूरी - शूर् + तिन् = शूर्तिः गुरी - गुर् + क्तिन् = गूर्तिः लकारान्त धातु त्रिफला धातु - प्र + फल् + क्तिन् - __ति च (७.४.८९)- तकारादि प्रत्यय परे होने पर चर् और फल धातुओं के अकार को उकार आदेश होता है। प्र + फुल् + ति = प्रफुल्तिः। शेष लकारान्त धातु - चल् + क्तिन् = चल्तिः गल् + क्तिन् = गल्तिः । वकारान्त धातु स्रिव्, अव्, मव् धातु - ‘ज्वरत्वरस्रिव्यविमवामुपधायाश्च’ सूत्र से वकार तथा उपधा के स्थान में ऊठ् आदेश करके - स्रिव् + क्तिन् - उ ऊठ् + ति - उ ऊ = सूतिः मव् + क्तिन् - म् ऊठ् + ति - म् ऊ = मूतिः अव् + क्तिन् - - ऊठ् + ति - - ऊ = ऊतिः - विशेष - ऊतिः’ शब्द जब उक्त प्रक्रिया से बनता है, तब वह ‘आधुदात्तश्च’ सूत्र से आधुदात्तश्च होता है। किन्तु जब वह ऊतियूतिजूतिसातिहेतिकीर्तयश्च’ सूत्र से निपातन से बनता है, तब वह अन्तोदात्त होता है। रेफोपध वकारान्त धातु - राल्लोपः (६.४.२१) - रेफ से उत्तर छकार और वकार का लोप हो जाता है, क्वि तथा झलादि कित्, ङित् प्रत्यय परे होने पर। इस सूत्र से अन्त्य वकार का लोप + + + ३८० अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ करके तथा हलि च से उपधा के इक् को दीर्घ करके - उर्दू + क्तिन् = ऊर्तिः गुत् + क्तिन् = गूर्तिः थुक् + क्तिन् = थूर्तिः दुत् + क्तिन् = दूर्तिः धुत् + क्तिन् = धूर्तिः मुत् + क्तिन् = मूर्तिः तुझ् + क्तिन् = तूर्तिः शेष वकारान्त धातु - च्छवोः शूडनुनासिके च (६.४.१९) - क्वि प्रत्यय, झलादि कित् डित् प्रत्यय तथा अनुनासिक प्रत्यय परे होने पर, च्छ् को श् तथा व् को ऊ आदेश होता है - दिव् + क्तिन् - दि ऊठ् + ति - दि ऊ = यूतिः सिव् + क्तिन् - सि ऊठ् + ति - सि ऊ = स्पूतिः ष्ठिव् + क्तिन् - ष्ठि ऊठ् + ति - ष्ठि ऊ = ष्ठ्यूतिः क्षिवु + क्तिन् - क्षि ऊल् + ति - क्षि ऊ = क्ष्यूतिः क्षेत् + क्तिन् - क्षे ऊठ् + ति - क्षे ऊ = क्षयूतिः धावु + क्तिन् - धा ऊल् + ति - धा ऊ = धौतिः था ऊ + ति = धौतिः, में ‘एत्येधत्यूठसु’ सूत्र से वृद्धि हुई है। __ शकारान्त धातु दंश्, भ्रंश् धातु - क्त प्रत्यय परे होने पर अनिदितां हल उपधायाः क्डिति’ सूत्र से इनकी उपधा के न् का लोप कीजिये। ‘श्’ को व्रश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां षः’ सूत्र से ‘ए’ बनाइये। उसके बाद प्रत्यय के ‘ति’ को ‘ष्टुना ष्टुः’ सूत्र से ‘टि’ बनाइये। दंश् + क्तिन् - दंश् + ति - दष् + टि = दष्टिः भ्रंशु + क्तिन् - भंश् + ति - भ्रष् + टि = भ्रष्टिः नश् धातु - ‘मस्जिनशोझलि’ सूत्र से नुम् का आगम करके - नश् + क्तिन् - नंश् + ति / वश्चभ्रस्ज. से श् को ष् करके - नंष् + ति / ‘अनिदितां हल उपधायाः क्ङिति’ सूत्र से नलोप करके - नष् + ति / ष्टुना ष्टुः से ष्टुत्व करके = नष्टिः। वश् धातु - ‘ग्रहिज्या’. सूत्र से सम्प्रसारण करके - उश् + ति / वश्चभ्रस्ज.’ से श् को क्तिन् प्रत्यय ३८१ ष् करके - उष् + ति / ष्टुना ष्टुः से ष्टुत्व करके = उष्टिः। शेष शकारान्त धातु - ‘श्’ को वश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां षः’ सूत्र से ‘ए’ बनाइये। उसके बाद प्रत्यय के ‘त’ को ‘ष्टुना ष्टुः’ सूत्र से ‘ट’ बनाइये। अश् + क्तिन् = अष्टिः क्रुश् + क्तिन् = क्रुष्टिः दिश् + क्तिन् = दिष्टिः दृश् + क्तिन् = दृष्टिः गाय भृश् + क्तिन् = भृष्टि : मृश् + क्तिन् = मृष्टिः रिश् + क्तिन् = रिष्टिः रुश् + क्तिन् = रुष्टिः लिश् + क्तिन् = लिष्टिः विश् + क्तिन् = विष्टिः स्पृश् + क्तिन् = स्पृष्टिः क्लिश् + क्तिन् = क्लिष्टिः षकारान्त धातु चक्ष् धातु - चक्षिङः ख्याञ् (२.४.५४) - सारे आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर चक्ष् धातु को ख्या आदेश होता है। चक्ष् + क्तिन् / ख्या + ति = ख्यातिः । त्वक्ष्, तक्ष्, अक्ष् धातु - __ ‘स्कोः संयोगाद्योरन्ते च’ सूत्र से संयोग के आदि के ककार का लोप करके - त्वक्ष् + क्तिन् - त्वष् + ति - ‘ष्टुना ष्टुः’ सूत्र से ष्टुत्व करके - त्वष् + टि = त्वष्टिः। इसी प्रकार - तर् + क्तिन् - तक्ष् + ति - तष् + ति = तष्टिः । अक्षू + क्तिन् - अक्ष् + ति - अष् + ति = अष्टिः। शेष षकारान्त धातु - __ क्डिति च से गुणनिषेध कीजिये, ‘त’ को ‘ष्टुना ष्टुः’ सूत्र से ‘ट’ बनाइये। धृष् + क्तिन् = धृष्टिः __ घुष् + क्तिन् = घुष्टिः कष् + क्तिन् = कष्टिः शुष् + क्तिन् = शुष्टिः हृष् + क्तिन् = हृष्टिः रुष् + क्तिन् = रुष्टिः कृष् + क्तिन् = कृष्टिः जिष् + क्तिन् = जिष्टिः त्विष् + क्तिन् = त्विष्टिः क्तिन् = तुष्टिः द्विष् + क्तिन् = द्विष्टिः क्तिन् = दुष्टिः पुष् + क्तिन् = पुष्टिः पिष् + क्तिन् = पिष्टिः + + + + + + + ३८२ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ रिष् + क्तिन् = रिष्टिः विष् + क्तिन् = विष्टिः वृष् + क्तिन् = वृष्टिः शिष् + क्तिन् = शिष्टिः श्लिष् + क्तिन् = श्लिष्टिः श्रिष् + क्तिन् = श्रिष्टिः तृष् + क्तिन् = तृष्टिः ऋष् + क्तिन् = ऋष्टिः सकारान्त धातु शास् धातु - शास इदङ्हलोः (६.४.३४) - शास् अङ्ग की उपधा को इकारादेश होता है, अङ् तथा हलादि कित् ङित् प्रत्यय परे होने पर। __शास् + क्तिन् - शिस् + ति - शासिवसिघसीनाञ्च से स् के स्थान पर ष् आदेश करके - शिष् + ति / ष्टुना ष्टुः से त को ष्टुत्व करके - शिष्टिः । अस् (अदादिगण) धातु - __ अस्तेर्भूः (२.४.५२) - सारे आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर अस् धातु को भू आदेश होता है। अस् + क्तिन् / भू + ति = भूतिः । वस् (भ्वादि) धातु - ‘वचिस्वपि’. सूत्र से सम्प्रसारण करके - उस् + ति / ‘शासिवसिघसीनां च’ सूत्र से स् को श् करके - उष् + ति / ‘ष्टुना ष्टुः’ से ष्टुत्व करके = उष्टिः। ध्वंसु, स्रंसु, भ्रंसु, शंसु, धातु - __ ‘अनिदितां हल उपधायाः क्ङिति’ सूत्र से इनकी उपधा के न् का लोप कीजिये। ध्वंस् + क्तिन् = ध्वस्तिः स्रेस् + क्तिन् = स्रस्तिः भंस् + क्तिन् = भ्रस्तिः शंस् + क्तिन् = शस्तिः शेष सकारान्त धातु - क्ङिति च से गुणनिषेध करके - क्नस् + क्तिन् = क्नस्तिः घस् + क्तिन् = घस्तिः ग्लस् + क्तिन् = ग्लस्तिः जस् + क्तिन् = जस्तिः तस् + क्तिन् = तस्तिः दस् + क्तिन् = दस्तिः मस् + क्तिन् = मस्तिः यस् + क्तिन् = यस्तिः वस् + क्तिन् = वस्तिः आशास् + क्तिन् = आशास्तिः स्नस् + क्तिन् = स्नस्तिः स्नुस् + क्तिन् = स्नुस्तिः वि+शस् + क्तिन् = विशस्तिः ग्रस् + क्तिन् = ग्रस्तिः क्तिन् प्रत्यय ३८३ कस् + क्तिन् = कस्तिः - अस् + क्तिन् = अस्तिः शस् + क्तिन् = शस्तिः
- विशेष - आस् धातु - यह धातु हलन्त गुरुमान् है। अतः इससे गुरोश्च हलः सूत्र से केवल अप्रत्यय होना चाहिये था, किन्तु बाहुलकाद् इससे क्तिन् भी होकर - आस्तिः, उपास्तिः, आदि बनते हैं। हकारान्त धातु ग्रह् तथा स्निह् धातु - तितुत्रेष्वग्रहादीनामिति वक्तव्यम् (वार्तिक ७.२.९) - ग्रह, कुच्, स्निह्, पठ्, केवल इन चार धातुओं से परे आने वाले क्तिन् को इडागम होता है। नि + ग्रह + इट् + क्तिन् / ‘ग्रहोऽलिटि दीर्घः’ सूत्र से इट को दीर्घ करके - निगृहीतिः। उपस्निह् + इट् + क्तिन् - उपस्निहितिः । नह् धातु - नहो धः (८.२.३४) - नह धातु के हकार के स्थान पर धकार आदेश से होता है झल् परे रहते तथा पदान्त में। नह् + क्तिन् - नध् + ति / अब देखिये कि धातु के अन्त में वर्ग का चतुर्थाक्षर ‘ध्’ आ गया है। धातु के अन्त में वर्ग का चतुर्थाक्षर आने पर आप - प्रत्यय के त, थ को ‘झषस्तथोर्थोऽधः’ सूत्र से ध बनाइये - नध् + ति = नध् + धि / अब धातु के अन्त में बैठे हुए वर्ग के चतुर्थाक्षर ध् को ‘झलां जश् झशि’ सूत्र से जश्त्व करके उसी वर्ग का तृतीयाक्षर द् बनाइये - नध् + धि - नद् + धि = नद्धिः । दुह्, दह्, दिह् धातु - दादेर्धातोः घः (८.२.३२) - दकार आदि में है जिस धातु के, उसके हकार के स्थान पर धकार आदेश होता है झल् परे रहते तथा पदान्त में। व इनके ‘ह’ को ‘दादेर्धातोर्घः’ सूत्र से घ् बनाइये - दुह् + क्तिन् / दुघ् + ति / प्रत्यय के ‘त’ को झषस्तथो?ऽधः सूत्र से ‘धि’ करके - दुघ् + धि / अब धातु के अन्त में बैठे हुए वर्ग के चतुर्थाक्षर ‘घ्’ को झलां जश् झशि सूत्र से जश्त्व करके, उसी वर्ग का तृतीयाक्षर ‘ग्’ बनाइये - दुग् + धि = दुग्धिः । इसी प्रकार - दिह - दिग्धिः । दह - दग्धिः । ३८४ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ द्रुह्, मुह ,स्नु, स्निह् धातु - वा द्रुहमुहष्णुहष्णिहाम् (८.२.३३) - द्रुह, मुह ,स्नुह, स्निह् धातुओं के ह को विकल्प से ढ् तथा ‘घ्’ होते हैं, झल् परे होने पर। ‘ह’ के स्थान पर ‘घ’ होने पर - द्रुह् + क्तिन् - ‘वा द्रुहमुहष्णुहष्णिहाम्’ सूत्र से ह् को घ् करके - द्रुघ् + ति / प्रत्यय के ‘त’ को झषस्तथो?ऽधः सूत्र से ‘ध’ करके - द्रुघ् + धि / झलां जश् झशि सूत्र से ‘घ्’ को जश्त्व करके, उसी वर्ग का तृतीयाक्षर ‘ग्’ बनाकर - द्रुग् + धि = द्रुग्धिः । इसी प्रकार मुह से मुग्धिः / स्नुह से स्नुग्धिः / स्निह से स्निग्धिः । ‘ह्’ के स्थान पर ‘द’ होने पर - द्रुह् + क्तिन् / द्रुढ् + ति / प्रत्यय के त को झषस्तथो?ऽधः सूत्र से ‘ध’ करके - द्रुढ् + धि / ष्टुना ष्टुः से प्रत्यय के ध् को ष्टुत्व करके द्रुढ् + ढि / ढो ढे लोपः से पूर्व ढकार का लोप करके द्रु + ढि / द्रलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽणः से उ को दीर्घ करके = दूढिः । इसी प्रकार - मुह से मूढिः / स्नुह से स्नूढिः / स्निह से स्नीढिः, बनाइये। वह् धातु - वह + क्तिन् / वह + ति / वचिस्वपियजादीनाम् किति सूत्र से सम्प्रसारण करके - उठ् + ति / हो ढः सूत्र से ढत्व करके - उठ् + ति / झषस्तथो?ऽधः सूत्र से प्रत्यय के त को धत्व करके - उद् + धि / ष्टुना ष्टुः से ष्टुत्व करके - उढ् + ढि / ‘ढो ढे लोपः’ सूत्र से पूर्व ‘ढ्’ का लोप करके - उ + ढि / ठूलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽणः सूत्र से ‘उ’ को दीर्घ करके = ऊढिः। सह् धातु - __सह् + क्तिन् / सह् + ति / हो ढः सूत्र से ढत्व करके - सद् + ति / झषस्तथो?ऽघः सूत्र से प्रत्यय के त को धत्व करके - सढ् + धि / ष्टुना ष्टुः से ष्टुत्व करके - सद् + ढि / पूर्व ‘ढ्’ का ‘ढो ढे लोपः’ सूत्र से लोप करके - स + ढि / ‘अ’ के स्थान पर ‘सहिवहोरोदवर्णस्य’ सूत्र से ‘ओ’ आदेश करके - सोढिः। रुह्, लिह्, मिह्, गुह् धातु - रुह् + क्तिन् / हो ढः सूत्र से ढत्व करके - रुढ् + ति / झषस्तथो?ऽधः सूत्र से प्रत्यय के त को धत्व करके - रुढ् + धि / ष्टुना ष्टुः से ष्टुत्व करके - रुढ् + क्तिन् प्रत्यय ३८५ रुह लिह गह ढि / पूर्व ‘द’ का ‘ढो ढे लोपः’ सूत्र से लोप करके - रु + ढि / ठूलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽणः सूत्र से ‘उ’ को दीर्घ करके - रूढिः।।
- रुह् + क्तिन् = रूढिः
- लिह् + क्तिन् = लीढिः मिह - मिह् + क्तिन् = मीढिः
- गुह् + क्तिन् = गूढिः तूंह धातु - तुंह + क्तिन् / ‘अनिदितां हल उपधायाः क्ङिति’ सूत्र से इनकी उपधा के न् का लोप करके - तृह + ति / ‘हो ढः’ सूत्र से ढत्व करके - तृढ + ति / ‘झषस्तथो?ऽधः’ सूत्र से प्रत्यय के त को ध करके - तृढ् + धि / ष्टुना ष्टुः से ष्टुत्व करके - तृट् + ढि / पूर्व ‘द’ का ‘ढो ढे लोपः’ सूत्र से लोप करके - तृ + ढि = तृढिः। शेष हकारान्त धातु - इन धातुओं के अलावा जितने भी हकारान्त धातु बचे, उनके ‘ह’ को हो ढः’ सूत्र से ‘ढ्’ बनाइये / प्रत्यय के त को झषस्तथो!ऽधः सूत्र से ‘ध’ करके ष्टुना ष्टुः से ष्टुत्व करके ढ बनाइये। अब ढो ढे लोपः से पूर्व ढकार का लोप कर दीजिये -
- गाह् + क्तिन् = गाढिः गृह् + क्तिन् = गृढिः __ तृह + क्तिन् = तृढिः स्तृह् + क्तिन् = स्तृढिः बृह् + क्तिन् = वृह् + क्तिन् = वृढिः गाहू गृह