समासेऽनपूर्वे क्त्वो ल्यप् (७.१.३७) -
हम जानते हैं कि जब कोई एक ही कर्ता, एक क्रिया करके दूसरी क्रिया करता है, तब पहिली क्रिया को बतलाने वाला जो धातु, उससे क्त्वा प्रत्यय लगाया जाता है।
किन्तु यदि अनपूर्वक समास हो अर्थात् धातु के पूर्व में कोई उपसर्ग हो, तब धातुओं से लगने वाले उस क्त्वा प्रत्यय के स्थान पर, ल्यप् (य) आदेश हो जाता है। यथा - आगत्य / प्रपठ्य / उल्लङ्घ्य ।।
पर ध्यान रहे कि धातु के पूर्व में यदि निषेधवाचक नञ् (अ, अन्) हो, तब धातुओं से क्त्वा प्रत्यय ही लगता है, उसके स्थान पर ल्यप् आदेश नहीं होता। यथा - कृत्वा - अकृत्वा / पठित्वा - अपठित्वा / अशित्वा - अनशित्वा आदि।+++(5)+++
वेद के लिये विशेष -
क्त्वापिच्छन्दसि (७.२.३८) - वेद में, अनपूर्ववाले समास में, क्त्वा के स्थान में विकल्प से क्त्वा तथा ल्यप् आदेश होते हैं।
उपसर्ग के योग में क्त्वा - कृष्णं वासो यजमानं परिधापयित्वा। प्रत्यञ्च्यमर्क प्रत्यर्थयित्वा।
उपसर्ग के योग में ल्यप् - उद्धृत्य जुहोति। वेद में समास न होने पर भी ल्यप् हो जाता है - अर्च्य तान् देवान् गतः ।
प्रक्रिया
अत्यावश्यक - धातुओं में आर्धधातुक प्रत्यय लगाने के पूर्व धात्वादेश तथा इडागम का विचार आवश्यक होता है। हमें जानना चाहिये कि ल्यप् प्रत्यय आर्धधातुक तो है, पर वलादि नहीं है, अतः इसे इडागम हो ही नहीं सकता।
अब हम धातुओं से ल्यप् प्रत्यय लगायें ल्यप् प्रत्यय में ‘लशक्वतद्धिते’ सूत्र से ल् की तथा हलन्त्यम्’ सूत्र से प् की इत् संज्ञा करके ‘तस्य लोपः’ सूत्र से दोनों का लोप करके ‘य’ ही शेष बचता है।
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क्त्वा प्रत्यय कित् है। उसी के स्थान पर होने के कारण ल्यप् प्रत्यय को भी कित् जैसा मान लिया जाता है। अतः इसके लगने पर वे सारे कार्य होते हैं, जो धातुओं से कित् प्रत्यय लगने पर होते हैं।
प्रत्यय के कित् डित् होने पर, मुख्यतः ये तीन कार्य होते हैं -
१. गुणनिषेध -
क्डिति च - कित्, डित् प्रत्यय परे होने पर धातु के इक् को कोई भी गुण, वृद्धि कार्य नहीं होते। वि + नी + ल्यप् / क्डिति च सूत्र से गुणनिषेध होकर - विनीय।
२. अनिदित् धातुओं की उपधा के न् का लोप -
अनिदितां हल उपधायाः क्डिति - अनिदित् हलन्त धातुओं की उपधा के ‘न् का लोप होता है, कित्, ङित् प्रत्यय परे होने पर। वि + ध्वंस् + ल्यप् - वि + ध्वस् + य = विध्वस्य नि + बन्ध् + ल्यप् - नि + बध् + य = निबध्य निर् + मन्थ् + ल्यप् - निर् + मन्थ् + य = निर्मथ्य, आदि।
आगे सारे अनिदित् धातु आगे एक साथ बतला रहे हैं।
३. सम्प्रसारणी धातुओं को सम्प्रसारण । इसे पृष्ठ २०८ - २०९ पर देखिये।
वर्गीकरणम्
अब हम धातुओं के वर्ग इस प्रकार बनाकर, उनमें ल्यप् (य) प्रत्यय लगायें
वर्ग - १ - भ्वादिगण से लेकर क्र्यादिगण तक के अजन्त धातु ।
वर्ग - २ - भ्वादिगण से लेकर क्र्यादिगण तक के हलन्त धातु ।
वर्ग - ३ - चुरादिगण के धातु तथा अन्य णिजन्त धातु।
वर्ग - ४ - सन्, यङ्, क्यच्, क्यङ्, क्यष् प्रत्ययों से बने हुए प्रत्ययान्त धातु ।
ध्यान रहे कि केवल धातु से कभी ल्यप् प्रत्यय नहीं लगता है। अतः धातु के पूर्व नञ् के अलावा कुछ होने पर ही आप धातुओं से ल्यप् प्रत्यय लगायें।
भ्वादिगण से लेकर क्र्यादिगण तक के अजन्त धातुओं
वर्ग - १ भ्वादिगण से लेकर क्र्यादिगण तक के अजन्त धातुओं में __ ल्यप् प्रत्यय लगाना आकारान्त तथा एजन्त धातु - आदेच उपदेशेऽशिति (६.१.४५) - अशित् प्रत्यय परे होने पर सारे एजन्त धातुओं को ‘आ’ अन्तादेश होता है । यथा - ध्यै -ध्या। म्लै - म्ला आदि। अतः आर्धधातुक प्रत्ययों में आकारान्त तथा एजन्त धातुओं का विचार एक साथ करना चाहिये। वेञ् धातु - यह धातु सम्प्रसारणी है। ल्यप्’ चूँकि कित् प्रत्यय है, अतः इसके परे होने पर वचिस्वपियजादीनाम् किति’ ३३२ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ सूत्र से वेञ् धातु को सम्प्रसारण होना चाहिये, किन्तु - ल्यपि च (६.१.४१) - ल्यप् परे रहते वेञ् धातु को सम्प्रसारण नहीं होता है। प्र + वेञ् + ल्यप् / आदेच उपदेशेऽशिति सूत्र से आत्व होकर - प्र + वा + य / ल्यपि च सूत्र से सम्प्रसारण का निषेध होकर = प्रवाय। इसी प्रकार - उप + वेञ् + ल्यप् = उपवाय । व्येञ् धातु - यह धातु सम्प्रसारणी है। व्यश्च - ल्यप् परे रहते व्येञ् धातु को सम्प्रसारण नहीं होता है। प्र + व्यञ् + ल्यप् / पूर्ववत् - प्र + व्या + य = प्रव्याय। विभाषा परेः (६.१.४४) - परि उपसर्ग से उत्तर व्येञ् धातु को विकल्प से सम्प्रसारण नहीं होता है। परि + व्यञ् + ल्यप् / व् को सम्प्रसारण होने पर - परि + व् इ ए + य / सम्प्रसारणाच्च सूत्र से ‘ए’ को पूर्वरूप होकर - परि वि + य / हलः सूत्र से इ को दीर्घ करके = परिवीय यूपम् । सम्प्रसारण न होने पर - परि + व्ये + ल्यप् / परिव्या + य = परिव्याय। हे धातु - यह धातु सम्प्रसारणी है। आ + हेञ् + ल्यप् / वचिस्वपियजा. से व् को सम्प्रसारण होकर - आ + ह् ऊ ए + य / सम्प्रसारणाच्च सूत्र से ‘ए’ को पूर्वरूप होकर - आ हू + य = आहूय । मेङ् धातु - मयतेदिरन्यतरस्याम् (६.४.७०) - मेङ् प्राणिदाने धातु को विकल्प से इकारादेश होता है ल्यप् प्रत्यय परे होने पर। अप + मेङ् + ल्यप् / इकारादेश होने पर - अप + मि + य - ह्रस्वस्य पिति कृति तुक् (६.१.७१) - ह्रस्व इकारान्त, ह्रस्व उकारान्त तथा ह्रस्व ऋकारान्त धातुओं को तुक् = त् का आगम होता है, पित् कृत् प्रत्यय परे होने पर। अप + मि + तुक + य / अप + मि + त् + य = अपमित्य। इकारादेश न होने पर - अप + मा + य = अपमाय। ज्या धातु - यह धातु सम्प्रसारणी है। ‘ग्रहिज्यावयिव्यधिवष्टिविचतिवृश्चतिपृच्छतिभृज्जतीनां डिति च’ सूत्र से कित् होने के कारण ल्यप्’ परे होने पर, ज्या धातु को सम्प्रसारण होना चाहिये। किन्तु ज्यश्च (६.१.४२) - ल्यप् परे रहते ज्या धातु को सम्प्रसारण नहीं होता है। ल्यप् प्रत्यय ३३३ प्र + ज्या + ल्यप् = प्रज्याय / उप + ज्या + ल्यप् = उपज्याय। यह घुसंज्ञक दा, धा धातु, मा, स्था मा, पा ओहाक्-हा और षो-सा धातु - घुमास्थागापाजहातिसां हलि (६.४.६६) - घुसंज्ञक धातु, मा, स्था गा, पा हा और सा धातुओं को ईकार होता है, कित्, डित् प्रत्यय परे होने पर। • इस सूत्र से इन आकारान्त धातुओं के ‘आ’ को ईकारादेश प्राप्त होने पर - न ल्यपि (६.४.६९) - घु, मा, स्था आदि धातुओं को ल्यप् परे रहते जो कुछ __भी कहा है वह नहीं होता है। प्रदाय, प्रधाय, प्रमाय, प्रस्थाय, प्रगाय, प्रमाय, प्रहाय, अवसाय। शेष आकारान्त तथा एजन्त धातु - शेष किसी भी आकारान्त तथा एजन्त धातु को कुछ मत कीजिये - जैसे - प्र + दा + ल्यप् = प्रदाय / नि + धा + ल्यप् = निधाय / वि + धे - धा + ल्यप् = विधाय / वि + मा + ल्यप् = विमाय / वि + ग्लै - ग्ला + ल्यप् = विग्लाय। वि + म्लै + ल्यप् - विम्ला + य = विम्लाय । अभि + ध्यै + ल्यप् - अभि + ध्या + ल्यप् = अभिध्याय, आदि। इकारान्त धातु - श्वि धातु - यह धातु सम्प्रसारणी है। उत् + शिव + ल्यप् / ‘वचिस्वपियजादीनाम् किति’ सूत्र से सम्प्रसारण करके - उत् + श् उ इ + य / सम्प्रसारणाच्च सूत्र से ‘इ’ को पूर्वरूप होकर - उत् श् उ + य / हलः सूत्र से उ को दीर्घ करके - उत् + शू + य / अब स्तोः श्चुना श्चुः सूत्र से त् को श्चुत्व करके - उच् + शूय / ‘छत्वममीति वाच्यम्’ इस वार्तिक से श् को छत्व करके = उच्छूय। डुमिञ् धातु - प्र + मि + ल्यप् मीनातिमिनोतिदीडां ल्यपि च (६.१.५०) - मीञ्, डुमिन तथा दीङ् धातुओं को ल्यप् परे रहते तथा एच् के विषय में उपदेश की अवस्था में ही आत्व हो जाता है। प्र + मि + ल्यप् / प्र + मा + य = प्रमाय। इसी प्रकार - निमाय। क्षि धातु - क्षियः (६.४.५९) - क्षि क्षये तथा क्षि निवासगत्योः धातु को दीर्घ होता है, ल्यप् परे होने पर। प्र + क्षि + ल्यप् / प्र + क्षी + य = प्रक्षीय। ३३४ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ शेष ह्रस्व इकारान्त धातु - ह्रस्वस्य पिति कृति तुक् (६.१.७१) - ह्रस्व इकारान्त, ह्रस्व उकारान्त तथा ह्रस्व ऋकारान्त धातुओं को तुक् = त् का आगम होता है, पित् कृत् परे होने पर । जैसे वि + जि + तुक् + ल्यप् = विजित्य / वि + चि + तुक् + ल्यप् = विचित्य। ईकारान्त धातु - लीङ् श्लेषणे तथा ली श्लेषणे धातु - विभाषा लीयतेः (६.१.५१) - लीङ् श्लेषणे तथा ली श्लेषणे इन दोनों ही धातुओं को ल्यप् परे रहते तथा एच के विषय में उपदेश की अवस्था में ही विकल्प से आत्व हो जाता है। आत्व होने पर - वि + लीङ् + ल्यप् / वि + ला + य = विलाय। इसी प्रकार ली से विलाय। आत्व न होने पर - वि + ली + ल्यप् = विलीय। दीङ्, मीञ्, धातु - मीनातिमिनोतिदीड ल्यपि च (६.१.५०) - मीञ्, डुमिञ् तथा दीङ् धातुओं को ल्यप् परे रहते तथा एच् के विषय में उपदेश की अवस्था में ही आत्व हो जाता है। उप + दीङ् + ल्यप् = उपदाय। प्र + मीञ् + ल्यप् = प्रमाय। शेष ईकारान्त धातु - इन्हें कुछ मत कीजिये - वि + नी + ल्यप् = विनीय / वि + भी + ल्यप् = विभीय, आदि। ह्रस्व उकारान्त धातु - __ आ + हु + तुक् + ल्यप् / ‘ह्रस्वस्य पिति कृति तुक्’ सूत्र से तुगागम करके = आहुत्य। प्र + द्रु + तुक् + ल्यप् = प्रद्रुत्य । युप्लुवोदीर्घश्छन्दसि (६.४.५८) - वेद विषय में यु मिश्रणे तथा प्लुङ् गतौ धातु को दीर्घ होता है ल्यप् परे होने पर। दान्त्यनुपूर्वं वियूय। यत्रा नो दक्षिणा परिप्लूय । ऊकारान्त धातु - ब्रू धातु - ब्रुवो वचिः (२.४.५३) - सारे आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर ब्रू धातु को वच् आदेश होता है। प्र + ब्रू + ल्यप् / प्र + वच् + य / वचिस्वपियजादीनां किति सूत्र से सम्प्रसारण होकर - प्र + उच् + य = प्रोच्य। शेष ऊकारान्त धातु - इन्हें कुछ मत कीजिये। जैसे - वि + धू + ल्यप् = विधूय / सम् + भू + ल्यप् = संभूय, आदि। ल्यप् प्रत्यय ३३५ ऋकारान्त धातु - _ वि + हृ + तुक् + ल्यप् / ह्रस्वस्य पिति कृति तुक् सूत्र से तुगागम करके = विहृत्य / प्र + हृ + तुक् + ल्यप् = प्रहृत्य / उप + कृ + तुक् + ल्यप् = उपकृत्य / आ + वृ + ल्यप् = आवृत्य, आदि। दीर्घ ऋकारान्त धातु - पृ, भृ, वृ, मृ, धातु - उदोष्ठ्यपूर्वस्य (७.१.१०२) - कित्, ङित् प्रत्यय परे होने पर, ऋ को ‘उ’ होता है, यदि उस दीर्घ ऋ के पूर्व में आने वाला वर्ण ओष्ठ्य हो तो। प्र + पृ + ल्यप् उरण रपरः (१.१.५१) - जब भी किसी सूत्र से ऋ के स्थान पर, अ, इ, या उ होना कहा जाये तब उन्हें अर्, इर्, उर् करना चाहिये। अतः उदोष्ठ्यपूर्वस्य से ऋ के स्थान पर होने वाले ऋ को उर्’ होता है। प्र + पृ + ल्यप् - प्र + पुर् + ल्यप् हलि च (८.२.७७) - हल् परे होने पर रेफान्त तथा वकारान्त धातुओं की उपधा के इक् को दीर्घ होता है। अतः ‘उर्’ को ऊर्’ कीजिये - प्र + पुर् + ल्यप् - प्र + पूर् + य = प्रपूर्य। प्र + पृ - प्रपृ + ल्यप् = प्रपूर्य प्र + भृ - प्रभृ + ल्यप् = प्रभूर्य सम् + मृ - संमृ + ल्यप् = संमूर्य आ + वृञ् - आवृ + ल्यप् = आवर्य आ + वृञ् - आवृ + ल्यप् = आर्य ध्यान दें कि इनमें ऋ के पूर्व में प्, व्, भ हैं, जो कि ओष्ठ्य वर्ण हैं, अतः ऋ को ऊर् हुआ है। शेष ऋकारान्त धातु - __ ऋत इद् धातोः (७.१.१००) - धातु के अन्त में आने वाले दीर्घ ऋ को इ आदेश होता है कित् या ङित् प्रत्यय परे होने पर। उरण रपरः (१.१.५१) - जब भी किसी सूत्र से ऋ के स्थान पर, अ, इ, या उ होना कहा जाये तब उन्हें अ, इ, या उ न करके अर्, इर्, उर् करना चाहिये। अतः - तृ + क्त्वा - तिर् + क्त्वा - हलि च (८.२.७७) - हल् परे होने पर रेफान्त तथा वकारान्त धातुओं की __ + ३३६ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ + ल्यप् + + उपधा के इक् को दीर्घ होता है। अतः ‘इर्’ को ‘ईर्’ होता है। तिर् + त्वा - तीर् + त्वा - तीर्वा। उत् + तृ - उत्तृ + ल्यप् = उत्तीर्य वि + जृष् - → विजीर्य वि + झूष - ल्यप् विझीर्य + कृ ल्यप् विकीर्य __ + कृञ् ल्यप् विकीर्य __ + कृ विकीर्य + गृ ल्यप् संगीर्य ल्यप् ल्यप् आस्तीर्य __ + शृ विशीर्य + + ल्यप् + ܠܦܘ ܠܐ ܛܘ ܛܠܸܗ ܒܸܗ ܒܗ ܒܗ ܟ݁ܳܐ ܦܐ ܓܩܗ ܓܦܘ ܓܢܗ + संगीर्य + स्तृ + + + ल्यप् + ल्यप् विदीर्य + Malm4mala समीर्य __ + जृ - जृ + ल्यप् = विजीर्य __+ नृ - नृ + ल्यप् = विनीर्य सम् + ऋ - ऋ + ल्यप् =
भ्वादिगण से लेकर क्र्यादिगण तक के हलन्त धातु
वर्ग - २ भ्वादिगण से लेकर क्र्यादिगण तक के हलन्त धातुओं में ल्यप् प्रत्यय लगाना अस् धातु - अस्तेर्भूः (२.४.५२) - सारे आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर अस् धातु को भू आदेश होता है। सम् + अस् + ल्यप् = संभूय । चक्ष् धातु - चक्षिङः ख्याञ् (२.४.५४) - सारे आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर चश् । गातु को ख्या आदेश होता है। वि + चक्ष् + ल्यप् = विख्याय। __ अज् धातु - अजेळघञपोः (२.४.५६) - घञ्, अप् को छोड़कर शेष सारे आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर अज् धातु को वी आदेश होता है। सम् + अज् + ल्यप् = संवीय। जन्, षणु दाने, खन् धातु - ल्यप् प्रत्यय ३३७ ये विभाषा (६.४.४३) - यकारादि कित् ङित् प्रत्ययों के परे रहते जन्, सन्, खन अङगों को विकल्प से आकारादेश हो जाता है। प्र + जन् + ल्यप् = प्रजन्य / प्रजाय। प्र + सन् + ल्यप् = प्रसन्य / प्रसाय। प्र + खन् + ल्यप् = प्रखन्य / प्रखाय। गम्, रम्, नम्, यम् - वा ल्यपि (६.४.३८) - नकारान्त तथा मकारान्त अनुदात्तोपदेश धातु, वन सम्भक्तौ धातु तथा तनोत्यादि धातुओं के अनुनासिक का विकल्प से लोप होता है। यह व्यवस्थित विभाषा है। अतः इन धातुओं में से मकारान्त धातुओं के म् का विकल्प से लोप होता है और शेष धातुओं के अनुनासिक का नित्य लोप होता है। अनुदात्तोपदेश (अनिट) मकारान्त धातु - प्र + यम् - प्र + यम् + ल्यप् = प्रयत्य / प्रयम्य प्र + रम् - प्र + रम् + ल्यप् = प्ररत्य / प्ररम्य प्र + नम् - प्र + नम् + ल्यप् = प्रणत्य / प्रणम्य आ + गम् - प्र + गम् + ल्यप् = आगत्य / आगम्य बचे हुए मन्, हन्, तन्, मन्, वन्, ऋण, क्षण, क्षिण, घूण, तृण, धातु - प्र + तनु - प्र + तन् + ल्यप् = प्रतत्य प्र + मनु - प्र + मन् + ल्यप् = प्रमत्य वनु - प्र + वन् + ल्यप् = प्रवत्य प्र + वन् __ -
- प्र + वन् + । प्रवत्य सम् + ऋणु - सम् + ऋण । ल्यप् समृत्य प्र + क्षणु - प्र + क्षण + ल्यप् प्रक्षत्य क्षिणु - प्र + क्षिण् + प्रक्षित्य घृणु - प्र + घण् + ल्यप् = प्रघृत्य तृणु - प्र + तृण् + ल्यप् = प्रतृत्य मन् - प्र + मन् + ल्यप् = प्रमत्य प्र + हन् - प्र + हन् + ल्यप् = प्रहत्य वच्, स्वप्, यज्, वप्, वह्, वस्, वद्, धातु - वचिस्वपियजादीनाम् किति (६.१.१५) - वेञ्, हृञ्, श्वि, व्येञ्, ये ११ धातु ल्यप्
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ल्यप् ३३८ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ + + + ᄏ + + + DN
ᄏ ‘वच्यादि धातु’ कहलाते हैं। इन वच्यादि धातुओं को सम्प्रसारण होता है, कित् प्रत्यय परे होने पर। ग्रह, व्यध्, वश्, व्यच्, व्रश्च्, प्रच्छ्, भ्रस्ज्, धातु - ग्रहिज्यावयिव्यधिवष्टिविचतिवृश्चतिपृच्छतिभृज्जतीनां डिति च (६.१.१६) - ग्रह, ज्या, वय, व्यध्, वश्, व्यच्, व्रश्च्, प्रच्छ्, भ्रस्ज्, इन धातुओं को सम्प्रसारण होता है कित् तथा डित् प्रत्यय परे होने पर। इन सम्प्रसारणी धातुओं को इस प्रकार सम्प्रसारण कीजिये - प्र + वच् + ल्यप् - प्र + उच् + य = प्रोच्य प्र + स्वप् + ल्यप् - प्र + सुप् + य = प्रसुप्य प्र + यज् + ल्यप् - प्र + इज् + य = प्रेज्य प्र + वप् ल्यप् - प्र + उप् प्रोप्य प्र + वह ल्यप् - प्र + उह + य = प्रोह्य प्र + वस् + ल्यप् - प्र + उस् + य = प्रोष्य प्र + वद् + ल्यप् - प्र + उद् = प्रोद्य प्र + ग्रह् + ल्यप् - गृह + य = प्रगृह्य प्र + व्यध् + ल्यप - प्र + विध् + य = प्रविद्ध्य
- वश् ल्यप् - प्र + उश् प्रोश्य प्र + व्यच् + ल्यप् - प्र + विच् + य = प्रविष्य प्र + वश्च् + ल्यप् - प्र + वृश्च् + य = प्रवृश्च्य प्र + प्रच्छ + ल्यप् - प्र + पृच्छ + य = प्रपृच्छ्य प्र + भ्रस्ज् + ल्यप् - प्र + भृज्ज् + य = प्रभृज्य अनिदित् धातु - अनिदितां हल उपधायाः क्डिति - अनिदित् हलन्त धातुओं की उपधा के ‘न् का लोप होता है, कित्, डित् प्रत्यय परे होने पर। प्र + स्कन्द् + ल्यप् - प्र + स्कद् + य = प्रस्कद्य प्र + स्रेस् + ल्यप् - प्र + स्रस् + य = प्रस्रस्य प्र + ध्वंस् + ल्यप् - प्र + ध्वस् + य = प्रध्वस्य प्र + भंस् + ल्यप् - प्र + भ्रस् + य = प्रभ्रस्य प्र + भ्रंश् + ल्यप् - प्र + भ्रश् + य = प्रभ्रश्य
- __ +
ᄀ ल्यप् प्रत्यय ३३९ स्रभ + य मथ् + 미 + + 미 + श्रथ् + + 파 + + + कुथ् + 파 + + + शुध् + 파 + ल्यप् - प्र + कुच + 파 + + + 파 파 + + क्रुच् लुच् मुच + 미 + + + + म्लुच् + 미 + ग्लुञ्च् + ग्लुच् + 미 वच + + 김김김 + प्र + संभ् + ल्यप् - प्र + प्र + मन्थ् + __ ल्यप् - प्र +
- ग्रन्थ् __ ल्यप् - प्र + + श्रन्थ् __ ल्यप् - प्र ल्यप् - प्र ल्यप् - प्र + कुञ्च + क्रुञ्च् ल्यप् - प्र
- लुञ्च् ल्यप् - प्र प्र + मुञ्च् ल्यप् - प्र __ + म्लुञ्च् + ल्यप् - प्र ल्यप् - प्र + प्र + वञ्च् + प्र + चञ्च् + त्वञ्च् + ल्यप् - प्र + प्र + तञ्च् + ल्यप् - प्र + प्र + श्रम्भ + ल्यप् - प्र + प्र + दम्भ् + ल्यप् - प्र + प्र + पृम्भ् + ल्यप् - प्र + प्र + हम्म् + ल्यप् - प्र + प्र + शंस् + ल्यप् - प्र + प्र + कुस् + ल्यप् - प्र + प्र + रज् + ल्यप् - प्र + प्र + स्यन्द् + ल्यप् - प्र + प्र + भञ्ज् + ल्यप् - प्र + प्र + बन्ध् + ल्यप् - प्र + सम् + अञ्च् + ल्यप् - सम् + सम् + अज् + ल्यप् - सम् + सम् + उन्द् + ल्यप् - सम् +
प्रसभ्य प्रमथ्य प्रग्रथ्य प्रश्रथ्य प्रकुथ्य प्रशुध्य प्रकुच्य प्रक्रुच्य प्रलुच्य प्रमुच्य प्रम्लुच्य = प्रग्लुच्य प्रवच्य प्रचच्य प्रत्वच्य प्रतच्य प्रश्रभ्य प्रदभ्य प्रसृभ्य प्रहम्य प्रशस्य प्रकुस्य प्ररज्य प्रस्यद्य प्रभज्य प्रबध्य समच्य = समज्य = समुद्य + + + + चच + त्वच् + तच् + श्रभ् दभ् सृभ् हम् शस् कुस् रज् स्यद् भज् + । बध् + अच् + अज् + उद् + + + + + य य य ३४० अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ + + त्रुप् + + + तृफ् + + + + + + + + + + + ᄏ 까까까 미 미 미 파 파 파 파 파 파
उभ + + प्रशुभ्य + सम् + इन्ध् + ल्यप् - सम् + इध्। = समिध्य प्र + त्रुम्प् ल्यप् - प्र +
- य = प्रत्रुप्य प्र + त्रुम्फ् + ल्यप् - त्रुफ प्रत्रुफ्य प्र + तृम्फ् + ल्यप् - प्रतृफ्य प्र + तुम्फ् +
- ल्यप् - प्र + तुफ् प्रतुझ्य प्र + दृम्फ् दृफ् प्रदृफ्य सम् + ऋम्फ ल्यप् .. ऋफ समृफ्य प्र + गुम्फ ल्यप् - प्र गुफ् प्रगुफ्य सम् + उम्भ ल्यप् - समुभ्य प्र + शुम्भ ल्यप् - प्र + शुभ प्र + तुम्प ल्यप् - प्र + तुप् प्रतुप्य प्र + तृन्ह् + ल्यप् - प्र + तृह प्रतृह्य प्र + बुन्द् + ल्यप् - प्र + बुद् + प्रबुद्य प्र + षज् + ल्यप् - प्र + सज् + य प्रसज्य प्र + ष्वञ् + ल्यप् - प्र + स्वज् + य = प्रस्वज्य प्र + दंश् + ल्यप् - प्र + दश् प्रदश्य प्र + स्यन्दू + ल्यप् - प्र + स्यद् + य = प्रस्यद्य शेष हलन्त धातु - इन्हें कुछ मत कीजिये - प्र + पठ् + ल्यप् = प्रपठ्य / वि + भिद् + ल्यप् = विभिद्य / वि + लिख + ल्यप् = विलिख्य आदि।
णिजन्त
वर्ग - ३ __चुरादिगण के धातु तथा अन्य णिजन्त धातु
णिच् प्रत्यय दो प्रकार का होता है।
एक तो चुरादिगण का स्वार्थिक णिच् तथा दूसरा हेतुमति च सूत्र से लगने वाला प्रेरणार्थक णिच् प्रत्यय।
चुरादिगण के तथा प्रेरणार्थक धातुओं के अन्त में णिच्’ प्रत्यय लगा होने से वे णिजन्त धातु हैं।
जैसे - चुर् + णिच् = चोरि । पठ् + णिच् = पाठि। लिख् + णिच् = लेखि / शम् + णिच् = शमि / कथ् + णिच् = कथि / गण + णिच् = गणि, आदि।
चुरादिगण के धातुओं में णिच् लगाने की विधि ‘अष्टाध्यायी सहज बोध’ के द्वितीय खण्ड में सविस्तर दी हुई है।
[[३४१]]
हमने देखा कि सारे णिजन्त धातुओं के अन्त में ‘णिच्’ प्रत्यय का ‘इ’ रहता ही है।
लघुपूर्वात्
**ल्यपि लघुपूर्वात् **(६.४.५६) - लघु है पूर्व में जिससे ऐसे वर्ण से उत्तर णि के स्थान में ल्यप् परे रहते अयादेश हो जाता है।
णिच् लगा लेने के बाद णिजन्त धातु को देखिये कि यदि णिच् (इ) के पहिले हल् हो, और उसके भी ठीक पहिले ‘लघु स्वर’ हो, तब ‘णि’ के स्थान पर ‘अय्’ आदेश कीजिये -
प्र + शमि + ल्यप् - प्र + शम् + अय् + य = प्रशमय्य गतः।
सम् + दमि + ल्यप् - सं + दम् + अय् + य = संदमय्य गतः ।
प्र + कथि + ल्यप् - प्र + कथ् + अय् + य = प्रकथय्य ।
वि + गणि + ल्यप् - वि + गण् + अय् + य = विगणय्य।
इसी प्रकार - प्रबेभिदि - प्रबेभिदय्य गतः।
आप् धातु -
__ विभाषापः (६.४.५७) - आप् धातु से उत्तर ल्यप् परे रहते णि के स्थान में विकल्प से अयादेश होता है। प्रापय्य गतः । प्राप्य गतः ।
शेष णिजन्त धातु -
शेष णिजन्त धातुओं में अन्तिम ‘इ’ का ‘णेरनिटि’ सूत्र से लोप कीजिये।
जैसे - प्र + चोरि - प्र + चोर् + य = प्रचोर्य। इसी प्रकार - उप + नि + मन्त्र + णिच् = उपनिमन्त्रि / उपनिमन्त्रि + ल्यप् / उपनिमन्त्र + य = उपनिमन्त्र्य आदि।
प्रत्ययान्त धातु
वर्ग - ४ प्रत्ययान्त धातु
सन्नन्त धातु सन्नन्त धातुओं के अन्त में सदा ह्रस्व ‘अ’ होता है। इस ‘अ’ का ‘अतो लोपः’ सूत्र से लोप कीजिये - आ + जिगमिष + ल्यप् / अतो लोपः से अ का लोप करके - = आजिगमिष्य । प्रपिपठिष + ल्यप् / अतो लोपः से अ का लोप करके - प्रपिपठिष् + ल्यप् = प्रपिपठिष्य।