७९ तुमुन् प्रत्यय

तुमुन्ण्वुलौ क्रियायां क्रियार्थायाम् - (३.३.१०) - क्रियार्था क्रिया उपपद में हो तो धातु से तुमुन् तथा ण्वुल् प्रत्यय भविष्यत् काल में होते हैं। __ कृष्णं द्रष्टुं याति (कृष्ण को देखने के लिये जाता है।) कृष्णं दर्शको याति (कृष्ण तुमुन्, तव्य, तव्यत्, तृच्, तृन्, आर्धधातुक कृत् प्रत्यय १७७ को देखने के लिये जाता है।) इसी प्रकार- अन्नं भोक्तुं व्रजति (अन्न खाने के लिये जाता है।)। अन्नं भोजको व्रजति (अन्न खाने के लिये जाता है।)। क्रियार्था क्रिया का अर्थ है - क्रिया अर्थः प्रयोजनं यस्याः क्रियायाः सा क्रिया क्रिया। अर्थात् ऐसी क्रिया, जिसका प्रयोजन कोई दूसरी क्रिया हो। …. ‘भोक्तुं व्रजति’, इस वाक्य को देखिये। यहाँ जाने की क्रिया, खाने की क्रिया के लिये हो रही है, अतः जाने की क्रिया, क्रियार्था क्रिया है। क्रियार्था क्रिया उपपद में हो, तो उस धातु से तुमुन् और ण्वुल् प्रत्यय होते हैं, जिसके लिये यह क्रियार्था क्रिया की जा रही है। ‘व्रजति’ क्रियार्था क्रिया है। अतः इसके उपपद में रहने पर ‘भुज्’ धातु से तुमुन् अथवा ण्वुल् प्रत्यय कर्ता अर्थ में होते हैं, यह तात्पर्य है। समानकर्तृकेषु तुमुन् (३.३.१५८) - समान है कर्ता जिनका, ऐसे इच्छार्थक धातुओं के उपपद रहते, धातुमात्र से तुमुन् प्रत्यय होता है। देवदत्तः इच्छति भोक्तुम् । देवदत्तः कामयते भोक्तुम् । देवदत्तः वाञ्छति भोक्तुम् । देवदत्तः वष्टि भोक्तुम्। (दवदत्त खाना चाहता है।) इन वाक्यों में इच्छति, कामयते, वाञ्छति, वष्टि आदि क्रियाओं के उपपद में रहने पर भुज् धातु से तुमुन् प्रत्यय हुआ है। यहाँ ध्यान दें कि जो कर्ता इच्छा का है, वही कर्ता भोजन का भी है। अतः इच्छ और भुज्, ये दोनों धातु समानकर्तक हैं। अतः इच्छार्थक धातुओं के उपपद में रहने पर भुज् धातु से तुमुन् प्रत्यय हुआ है। शकधृषज्ञाग्लाघटरभलभक्रमसहास्त्यिर्थेषु तुमुन् (३-४-६५) शक, धृष, ज्ञा, ग्ला, घट, रभ, लभ, क्रम, सह, अर्ह तथा अस्ति अर्थवाले धातुओं के उपपद रहते धातुमात्र से तुमुन् प्रत्यय होता है। तुमुन्ण्वुलौ क्रियायां क्रियार्थायाम् ३.३.१० सूत्र से तुमुन् प्राप्त था। तो भी पुनर्विधान इसलिये किया कि क्रियार्था क्रिया उपपद में न होने पर भी तुमुन् हो जाये। शक्नोति भोक्तुम् (खाने में प्रवीण है।) । धृष्णोति भोक्तुम् (खाने में प्रवीण है।) जानाति भोक्तुम् (खाने में प्रवीण है।) ग्लायति भोक्तुम् (खाने में अशक्त है।) घटते भोक्तुम् (खाने में योग्य है।) आरभते भोक्तुम् (खाना शुरू करता है।) लभते भोक्तुम् (भोजन प्राप्त करता है।) प्रक्रमते भोक्तुम् (खाना आरम्भ करता है।) उत्सहते भोक्तुम् (खाने में प्रवृत्त होता है।) अर्हति भोक्तुम् (खाने में योग्य है।) अस्ति भोक्तुम् (भोजन है।) भवति भोक्तुम् (भोजन है।) विद्यते भोक्तुम् (भोजन है।) १७८ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ पर्याप्तिवचनेष्वलमर्थेषु (३-४-६६) - अलम् अर्थ वाले पर्याप्तिवाची शब्दों के उपपद रहते भी धातुओं से तुमुन् प्रत्यय होता है। पर्याप्ति का अर्थ अन्यूनता या परिपूर्णता है। यह दो प्रकार से संभव है। भोजन के आधिक्य से अथवा भोक्ता के सामर्थ्य से। __ यहाँ पर्याप्ति शब्द भोक्ता के सामर्थ्य को बतला रहा है। पर्याप्तो भोक्तुम् । समर्थो भोक्तुम् । अलं भोक्तुम् । (खाने में समर्थ है।) _ इसलिये पर्याप्तं भुङ्ते में तुमुन् प्रत्यय नहीं होता है, क्योंकि यह पर्याप्त शब्द भोजन की पर्याप्ति को बतला रहा है, भोक्ता की पर्याप्ति को नहीं। __ कालसमयवेलासु तुमुन् (३.३.१६७)- काल, समय, वेला, ये शब्द उपपद रहते धातु से तुमुन् प्रत्यय होता है। कालो भोक्तुम् । समयो भोक्तुम् । वेला भोक्तुम्। (खाने का समय है।) अनेहा भोक्तुम्। __ तुमुन् प्रत्यय में ‘हलन्त्यम्’ सूत्र से नकार की तथा उपदेशेऽजनुनासिक इत्’ सूत्र से उकार की इत् संज्ञा करके तथा तस्य लोपः’ से दोनों का लोप करके तुम्’ शेष बचता है। कृन्मेजन्तः (१.१.३९)- मकारान्त और एजन्त कृदन्तों की अव्ययसंज्ञा होती है। अतः तुमुन् प्रत्यय से बने हुए सारे शब्द अव्यय ही होंगे। इसलिये इनसे परे आने वाली स्वादि विभक्तियों का ‘अव्ययादाप्सुपः’ सूत्र से लोप हो जायेगा। अव्ययकृतो भावे - जिन कृदन्तों की अव्ययसंज्ञा होती है, वे कर्ता अर्थ में न होकर भाव अर्थ में होते हैं। इस प्रकार हमें जानना चाहिये कि ‘तुमुन्ण्वुलौ क्रियायां क्रियायाम्’ से होने वाले तुमुन् और ण्वुल् प्रत्ययों में से तुमुन् प्रत्यय तो ‘अव्ययकृतो भावे से भाव अर्थ में होता है और ण्वुल् प्रत्यय कर्तरि कृत् से कर्ता अर्थ में ही होता है। अब दोनों ण्वुल् प्रत्ययों के अर्थों का विचार करें - ण्वुल्तृचौ सूत्र से होने वाला ण्वुल् प्रत्यय तथा तुमुन्ण्वुलौ क्रियायां क्रियार्थायाम् से हे ने वाला ण्वुल प्रत्यय, ये दोनों ही कर्ता अर्थ में होते हैं - किन्तु दोनों का अन्तर यह होता है कि ‘ण्वुल्तृचौ’ सूत्र से होने वाले ण्वुल् प्रत्यय के योग में कर्तृकर्मणोः कृति सूत्र से कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है। ओदनस्य पाचकः, जगतः कारकः, आदि, और तुमुन्ण्वुलौ क्रियायां क्रियार्थायाम् से भविष्यत् अर्थ में होने वाले ण्वुल् प्रत्यय के योग में ‘अकेनोर्भविष्यदाधमर्ण्ययोः’ सूत्र से षष्ठी का निषेध हो जाने १७९ तुमुन्, तव्य, तव्यत्, तृच्, तृन्, आर्धधातुक कृत् प्रत्यय से ‘कर्मणि द्वितीया’ सूत्र से कर्म में द्वितीया ही होती है। यथा - कृष्णं दर्शको याति ।