७८ तन् प्रत्यय

तृन् - (३.२.१३५) - तच्छील, तद्धर्म, तत्साधुकारी कर्ता हो, तो वर्तमान काल में धातुमात्र से तन् प्रत्यय होता है। कहती तच्छील अर्थ में - कटान् कर्तुं शीलम् अस्य इति कर्ता कटान् (कृ + तृन्)। (चटाई बनाना इसका स्वभाव है।) जनापवादान् वदितुम् शीलम् अस्य इति वदिता जनापवादान् (लोगों की निन्दा करना इसका स्वभाव है।) (वद् + इट् + तृन्)। इसी प्रकार - मृदु वक्ता। धर्मम् उपदेष्टा, आदि। तद्धर्म अर्थ में - मुण्डयितारः श्राविष्ठायना भवन्ति वधूमूढाम् । (श्राविष्ठायन गोत्र के लोग नवोढा वधू का मुण्डन करने वाले होते हैं । यह उनका कुलधर्म है।) (मुण्ड् + णिच् + इट् + तृन्) । अन्नमपहर्तारः आह्वरका भवन्ति श्राद्धे सिद्धे। (अप + हृ + तृन्) । उन्नेंतारः तौल्वलायना भवन्ति पुढे जाते। (उत् + नी + तृन्)। तत्साधुकारी अर्थ में - कटं साधु करोति इति कर्ता कटम्। (कृ + तृन्)। आवश्यक - ध्यान दें कि तृन् तथा तृच् दोनों ही प्रत्ययों के रूप समानाकार ही बनते हैं, किन्तु दोनों का अन्तर यह होता है कि ‘ण्वुल्तृचौ’ सूत्र से होने वाले तृच् प्रत्यय के योग में कर्तृकर्मणोः कृति’ सूत्र से कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है । यथा - कटस्य कर्ता । धर्मस्य उपदेष्टा, आदि, और तृन्’ सूत्र से तच्छीलादि अर्थ में होने वाले तृन् प्रत्यय के योग में ‘न लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतनाम् सूत्र से षष्ठी का निषेध हो जाने से कर्मणि द्वितीया’ सूत्र से कर्म में द्वितीया ही होती है। यथा - धर्मम् उपदेष्टा। कट कर्ता।